मैथिली शरण गुप्त ने "भारत-भारती" क्यों लिखी?
इसका उत्तर जानने के लिए हमें कहीं और जाने की जरूरत नहीं। "भारत-भारती" की प्रस्तावना में वे खुद इसका कारण बताते हैं:
यह बात मानी हुई है कि भारत की पूर्व और वर्तमान दशा में बड़ा भारी अन्तर है। अन्तर न कहकर इसे वैपरीत्य कहना चाहिए। एक वह समय था कि यह देश विद्या, कला-कौशल और सभ्यता में संसार का शिरोमणि था और एक यह समय है कि इन्हीं बातों का इसमें शोचनीय अभाव हो गया है। जो आर्य जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी वही आज पद-पद पर पराया मुँह ताक रही है! ठीक है , जिसका जैसा उत्थान, उसका वैसा हीं पतन! परन्तु क्या हम लोग सदा अवनति में हीं पड़े रहेंगे? हमारे देखते-देखते जंगली जातियाँ तक उठकर हमसे आगे बढ जाएँ और हम वैसे हीं पड़े रहेंगे? ्क्या हम लोग अपने मार्ग से यहाँ तक हट गए हैं कि अब उसे पा हीं नहीं सकते? संसार में ऐसा कोई काम नहीं जो सचमुच उद्योग से सिद्ध न हो सके। परन्तु उद्योग के लिए उत्साह की आवश्यकता होती है। इसी उत्साह को , इसी मानसिक वेग को उत्तेजित करने के लिए कविता एक उत्तम साधन है। परन्तु बड़े खेद की बात है कि हम लोगों के लिए हिन्दी में अभी तक इस ढंग की कोई कविता-पुस्तक नहीं लिखी गई जिसमें हमारी प्राचीन उन्नति और अर्वाचीन अवनति का वर्णन भी हो और भविष्य के लिए प्रोत्साहन भी। इस अभाव की पूर्त्ति के लिए मैंने इस पुस्तक के लिखने का साहस किया।
प्राचीन समय में हम कितने उन्नत थे, यह बताने के लिए गुप्त जी ने कई सारे उदाहरण दिये हैं।
"अतीत खंड" के "वैद्यक" शीर्षक के अंतर्गत उनकी ये पंक्तियाँ विशेष ध्यान आकर्षित करती हैं:
है आजकल की डाक्टरी जिससे महा महिमामयी,
वह "आसुरी" नामक चिकित्सा है यहीं से ली गई।
इन पंक्तियों.. इस तुकबंदी.. इस अन्त्यानुप्रास के माध्यम से गुप्त जी यह कहते हैं कि आजकल का "अंग्रेजी-उपचार" और कुछ नहीं बल्कि एक तरह की हिन्दुस्तानी चिकित्सा हीं है। अपनी बात के समर्थन में उन्होंने कुछ references दिए हैं:
क) आयुर्वेद में चिकित्सा के तीन भेद हैं यथा-
"आसुरी मानुषी दैवी चिकित्सा त्रिविधा मता,
शस्त्रै: कषायैर्लोहाद्यै: क्रमेणान्त्या सुपूजिता:"
किसी किसी ने आसुरी चिकित्सा को राक्षसी भी लिखा है-
"रसादिभिर्या क्रियते चिकित्सा दैवीति वैद्यै: परिकीर्तितता सा
सा मानुषी या अथ कृता फलाद्यै: सा राक्षसी शस्त्रकृता भवेद्या"
अर्थात वैद्य लोग रसादिक से की हुई चिकित्सा को दैवी, फलफूलादि से की ही को मानुषी और शस्त्रादि से चीर-फाड़ की चिकित्सा को राक्षसी चिकित्सा कहते हैं।
ख) प्राचीन काल में हिन्दुओं को शस्त्रचिकित्सा करने में संकोच न था। उन्होंने वैद्यक में यूनानियों से कुछ भी नहिं सीखा, बल्कि उन्हीं को बहुत कुछ सीखाया। आठवीं शताब्दी में संस्कृत से जो पुस्तकें अनुवादित हुईं उन्हीं पर अरब के वैद्यक की नींव पड़ी और सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोप के वैद्य अरब वालों के (वास्तव में हिन्दुओं के) नियमों पर चलते थे। आठवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी तक वैद्यक की जो पुस्तकें यूरोप में बनती रहीं, उनमें चरक के वाक्यों के प्रमाण दिए गए हैं। - डाक्टर हंटर
गुप्त जी ने न सिर्फ़ हिन्दुतानियों की प्रगति की सीधी बातें कहीं है, बल्कि कुछ ऐसी भी घटनाएँ, कुछ ऐसे भी वाक्यात "भारत-भारती" में दर्ज़ हैं, जिन्हें जानकर मुँह खुला का खुला रह जाता है।
मसलन "यवन राजत्व" के अंतर्गत इस "परिवर्तन" का ज़िक्र:
बनता कुतुबमीनार यमुनास्तम्भ का निर्वाद है,
उस तीर्थराज प्रयाग का बनता इलाहाबाद है।
यमुनास्तम्भ कुतुबमीनार बन गया .. यह बात उन्होंने ऐं वैं हीं नहीं कही है, बल्कि इसका स्पष्टीकरण भी दिया है। इसके लिए उन्होंने "दीपनिर्वाण" से कुछ पंक्तियाँ उद्धृत की हैं:
यमुनास्तम्भ अब कुतुबमीनार के नाम से प्रसिद्ध है। इसी नाम के कारण वह हिन्दू लोगों का बनाया होकर भी छिप रहा है। प्रकृत प्रस्ताव में यमुनास्तम्भ पृथ्वीराज का बनवाया हुआ है। कन्या-वत्सल पृथ्वीराज ने अपनी कन्या के प्रतिदिन संध्याकाल में यमुना-दर्शन के निमित्त इसे बनवाया था। यह बात हम लोगों की कपोलकल्पित नहीं हैं। आजकल भी दिल्ली के आस-पास और प्राचीन काल के सब लोगों में यही चर्चा प्रचलित है और मेटकाफ, हिवर इत्यादी अनेक अंगरेज और मुसलमान लोगों ने भी इसको प्रमाणित किया है कि यमुनास्तम्भ हिन्दू लोगों का बनवाया हुआ है। यमुनास्तम्भ के बनाने के कौशल के संग मुसलमान लोगों के स्तम्भ बनाने के कौशल में अनमेल देखकर बगलार महोदय ने सिद्धान्त किया है कि यमुनास्तम्भ हिन्दुओं का बनाया हुआ है। (Journal A.B. Bengal for 1864 Vol. 33) अलीगढ के प्रसिद्ध सर सैयद अहमद खाँ ने कर्नल केनिंगहम को जो इस विषय में एक पत्र लिखा था (Cunningham's Archaeological Survey of India Vol. IV), उसमें उन्होंने दिखलाया है कि यमुनास्तम्भ कभी मुसलमान-कृत नहीं हो सकता। विशेषत: यमुनास्तम्भ के नीचे की ओर हिन्दुओं के पूजन घाट इत्यादि जो अंकित हैं, उनसे वह हिन्दू लोगों का बनाया हुआ प्रमाणित है। यमुनास्तम्भ पहले जितना ऊँचा था अब उतना ऊँचा नहीं है क्योंकि कुतुबद्दीन ने उसका शिखर तोड़कर मुसलमानी ढंग से बनवाया और उसे अपने नाम से प्रसिद्ध किया।
भारत-भारती १९१२-१३ में लिखी गई थी। अगर उस समय तक इतना कुछ शोध हो चुका था, तो आश्चर्य है कि पुस्तक लिखे जाने के लगभग १०० साल बाद भी हम उन शोधों से अनभिज्ञ हैं, जबकि होना यह चाहिए था कि इन १०० सालों में और भी हज़ार नई बातें हमें ज्ञात हो चुकी हों। खैर.. नई बातें छोड़िये, हम उतना हीं जान जाएँ, जितना गुप्त जी ने लिखा है तो हम इस "भ्रान्ति" से ऊपर उठ जाएँगे कि "हिन्दुस्तान अमेरिका या फिर ऐसे हीं किसी देश का पिछलग्गु था या पिछलग्गु है" जबकि असल में तो "हिन्दुस्तान ने हीं औरों को रास्ता दिखाया है।" हाँ, इस बात पर विवाद हो सकता है कि गुप्त जी ने हिन्दुस्तान को बस "आर्य्यों" या फिर "हिन्दुओं" का घर बताया है, लेकिन यह सोच स्वाभाविक है क्योंकि गजनवी और गौरी के आने से पहले यहाँ बस हिन्दू हीं रहते आए थे और यहाँ सुख-समृद्धि भी थी। गुप्त जी ने मुसलमान शासकों में बस "अकबर" की प्रशंसा की है, क्योंकि उसने हिन्दुओं को "धर्म-परिवर्त्तन" के लिए बाध्य नहीं किया। इस विषय पर तथा और भी बाकी विषयों एवं उदाहरणों पर चर्चा हम अगली कड़ी में करेंगे।
तब तक के लिए खुदा हाफ़िज़!
विश्व दीपक
इसका उत्तर जानने के लिए हमें कहीं और जाने की जरूरत नहीं। "भारत-भारती" की प्रस्तावना में वे खुद इसका कारण बताते हैं:
यह बात मानी हुई है कि भारत की पूर्व और वर्तमान दशा में बड़ा भारी अन्तर है। अन्तर न कहकर इसे वैपरीत्य कहना चाहिए। एक वह समय था कि यह देश विद्या, कला-कौशल और सभ्यता में संसार का शिरोमणि था और एक यह समय है कि इन्हीं बातों का इसमें शोचनीय अभाव हो गया है। जो आर्य जाति कभी सारे संसार को शिक्षा देती थी वही आज पद-पद पर पराया मुँह ताक रही है! ठीक है , जिसका जैसा उत्थान, उसका वैसा हीं पतन! परन्तु क्या हम लोग सदा अवनति में हीं पड़े रहेंगे? हमारे देखते-देखते जंगली जातियाँ तक उठकर हमसे आगे बढ जाएँ और हम वैसे हीं पड़े रहेंगे? ्क्या हम लोग अपने मार्ग से यहाँ तक हट गए हैं कि अब उसे पा हीं नहीं सकते? संसार में ऐसा कोई काम नहीं जो सचमुच उद्योग से सिद्ध न हो सके। परन्तु उद्योग के लिए उत्साह की आवश्यकता होती है। इसी उत्साह को , इसी मानसिक वेग को उत्तेजित करने के लिए कविता एक उत्तम साधन है। परन्तु बड़े खेद की बात है कि हम लोगों के लिए हिन्दी में अभी तक इस ढंग की कोई कविता-पुस्तक नहीं लिखी गई जिसमें हमारी प्राचीन उन्नति और अर्वाचीन अवनति का वर्णन भी हो और भविष्य के लिए प्रोत्साहन भी। इस अभाव की पूर्त्ति के लिए मैंने इस पुस्तक के लिखने का साहस किया।
प्राचीन समय में हम कितने उन्नत थे, यह बताने के लिए गुप्त जी ने कई सारे उदाहरण दिये हैं।
"अतीत खंड" के "वैद्यक" शीर्षक के अंतर्गत उनकी ये पंक्तियाँ विशेष ध्यान आकर्षित करती हैं:
है आजकल की डाक्टरी जिससे महा महिमामयी,
वह "आसुरी" नामक चिकित्सा है यहीं से ली गई।
इन पंक्तियों.. इस तुकबंदी.. इस अन्त्यानुप्रास के माध्यम से गुप्त जी यह कहते हैं कि आजकल का "अंग्रेजी-उपचार" और कुछ नहीं बल्कि एक तरह की हिन्दुस्तानी चिकित्सा हीं है। अपनी बात के समर्थन में उन्होंने कुछ references दिए हैं:
क) आयुर्वेद में चिकित्सा के तीन भेद हैं यथा-
"आसुरी मानुषी दैवी चिकित्सा त्रिविधा मता,
शस्त्रै: कषायैर्लोहाद्यै: क्रमेणान्त्या सुपूजिता:"
किसी किसी ने आसुरी चिकित्सा को राक्षसी भी लिखा है-
"रसादिभिर्या क्रियते चिकित्सा दैवीति वैद्यै: परिकीर्तितता सा
सा मानुषी या अथ कृता फलाद्यै: सा राक्षसी शस्त्रकृता भवेद्या"
अर्थात वैद्य लोग रसादिक से की हुई चिकित्सा को दैवी, फलफूलादि से की ही को मानुषी और शस्त्रादि से चीर-फाड़ की चिकित्सा को राक्षसी चिकित्सा कहते हैं।
ख) प्राचीन काल में हिन्दुओं को शस्त्रचिकित्सा करने में संकोच न था। उन्होंने वैद्यक में यूनानियों से कुछ भी नहिं सीखा, बल्कि उन्हीं को बहुत कुछ सीखाया। आठवीं शताब्दी में संस्कृत से जो पुस्तकें अनुवादित हुईं उन्हीं पर अरब के वैद्यक की नींव पड़ी और सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोप के वैद्य अरब वालों के (वास्तव में हिन्दुओं के) नियमों पर चलते थे। आठवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी तक वैद्यक की जो पुस्तकें यूरोप में बनती रहीं, उनमें चरक के वाक्यों के प्रमाण दिए गए हैं। - डाक्टर हंटर
गुप्त जी ने न सिर्फ़ हिन्दुतानियों की प्रगति की सीधी बातें कहीं है, बल्कि कुछ ऐसी भी घटनाएँ, कुछ ऐसे भी वाक्यात "भारत-भारती" में दर्ज़ हैं, जिन्हें जानकर मुँह खुला का खुला रह जाता है।
मसलन "यवन राजत्व" के अंतर्गत इस "परिवर्तन" का ज़िक्र:
बनता कुतुबमीनार यमुनास्तम्भ का निर्वाद है,
उस तीर्थराज प्रयाग का बनता इलाहाबाद है।
यमुनास्तम्भ कुतुबमीनार बन गया .. यह बात उन्होंने ऐं वैं हीं नहीं कही है, बल्कि इसका स्पष्टीकरण भी दिया है। इसके लिए उन्होंने "दीपनिर्वाण" से कुछ पंक्तियाँ उद्धृत की हैं:
यमुनास्तम्भ अब कुतुबमीनार के नाम से प्रसिद्ध है। इसी नाम के कारण वह हिन्दू लोगों का बनाया होकर भी छिप रहा है। प्रकृत प्रस्ताव में यमुनास्तम्भ पृथ्वीराज का बनवाया हुआ है। कन्या-वत्सल पृथ्वीराज ने अपनी कन्या के प्रतिदिन संध्याकाल में यमुना-दर्शन के निमित्त इसे बनवाया था। यह बात हम लोगों की कपोलकल्पित नहीं हैं। आजकल भी दिल्ली के आस-पास और प्राचीन काल के सब लोगों में यही चर्चा प्रचलित है और मेटकाफ, हिवर इत्यादी अनेक अंगरेज और मुसलमान लोगों ने भी इसको प्रमाणित किया है कि यमुनास्तम्भ हिन्दू लोगों का बनवाया हुआ है। यमुनास्तम्भ के बनाने के कौशल के संग मुसलमान लोगों के स्तम्भ बनाने के कौशल में अनमेल देखकर बगलार महोदय ने सिद्धान्त किया है कि यमुनास्तम्भ हिन्दुओं का बनाया हुआ है। (Journal A.B. Bengal for 1864 Vol. 33) अलीगढ के प्रसिद्ध सर सैयद अहमद खाँ ने कर्नल केनिंगहम को जो इस विषय में एक पत्र लिखा था (Cunningham's Archaeological Survey of India Vol. IV), उसमें उन्होंने दिखलाया है कि यमुनास्तम्भ कभी मुसलमान-कृत नहीं हो सकता। विशेषत: यमुनास्तम्भ के नीचे की ओर हिन्दुओं के पूजन घाट इत्यादि जो अंकित हैं, उनसे वह हिन्दू लोगों का बनाया हुआ प्रमाणित है। यमुनास्तम्भ पहले जितना ऊँचा था अब उतना ऊँचा नहीं है क्योंकि कुतुबद्दीन ने उसका शिखर तोड़कर मुसलमानी ढंग से बनवाया और उसे अपने नाम से प्रसिद्ध किया।
भारत-भारती १९१२-१३ में लिखी गई थी। अगर उस समय तक इतना कुछ शोध हो चुका था, तो आश्चर्य है कि पुस्तक लिखे जाने के लगभग १०० साल बाद भी हम उन शोधों से अनभिज्ञ हैं, जबकि होना यह चाहिए था कि इन १०० सालों में और भी हज़ार नई बातें हमें ज्ञात हो चुकी हों। खैर.. नई बातें छोड़िये, हम उतना हीं जान जाएँ, जितना गुप्त जी ने लिखा है तो हम इस "भ्रान्ति" से ऊपर उठ जाएँगे कि "हिन्दुस्तान अमेरिका या फिर ऐसे हीं किसी देश का पिछलग्गु था या पिछलग्गु है" जबकि असल में तो "हिन्दुस्तान ने हीं औरों को रास्ता दिखाया है।" हाँ, इस बात पर विवाद हो सकता है कि गुप्त जी ने हिन्दुस्तान को बस "आर्य्यों" या फिर "हिन्दुओं" का घर बताया है, लेकिन यह सोच स्वाभाविक है क्योंकि गजनवी और गौरी के आने से पहले यहाँ बस हिन्दू हीं रहते आए थे और यहाँ सुख-समृद्धि भी थी। गुप्त जी ने मुसलमान शासकों में बस "अकबर" की प्रशंसा की है, क्योंकि उसने हिन्दुओं को "धर्म-परिवर्त्तन" के लिए बाध्य नहीं किया। इस विषय पर तथा और भी बाकी विषयों एवं उदाहरणों पर चर्चा हम अगली कड़ी में करेंगे।
तब तक के लिए खुदा हाफ़िज़!
विश्व दीपक
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6 बैठकबाजों का कहना है :
बहुत खूब वी.डी. भाई। जानकारी बढी आपका लेख पढकर...
यह बहुत विस्तूत और अच्छी जानकारी आपने दी है!... भारत की पुरातन और वर्तमान दशा में जो बहुत बडा अंतर है यह समय के चलते उचित ही है!... यह अपेक्षित भी था!... आयुर्वेदिक चिकित्सा को तीन वर्गों में बांटना.. शायद आम लोगों को समझाने का एक तरीका है कि यह पद्धति कैसे कार्य करती है!... बहुत उमदा प्रस्तुति..धन्यवाद, विश्वदीपक जी!
अच्छी जानकारी है वी डी भाई... आगे का इंतज़ार रहेगा.. आँख खोल देने वाली बातें हैं..
'जो भरा नहीं है भावों से जिसमें बहती रसधार नहीं। वह हृदय नहीं है पत्थर है, जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं।'
विपुल , अरूणा जी और तपन भाई,
लेख पढने और पसंद करने का शुक्रिया।
दर-असल मेरी कोशिश यही है कि हम अपने "भारत" से अनभिज्ञ न रहें, हम जान लें कि हम क्या थे , क्या हो गए हैं और क्या कुछ हो सकते हैं। गुप्त जी ने यह कोशिश एक शताब्दी पहले हीं की थी, लेकिन हममें से बहुत सार लोग उन्हें और उनकी इस कोशिश को जानते हीं नहीं। मैं जब भारत-भारती पढ रहा था तो उनके शब्दों ने मुझे कई सारी ऐसी बातों का भान कराया जो मेरे लिए अपनी होकर भी अनूठी थीं। फिर मैंने सोचा कि जो बातें मैं जान रहा हूँ या जान चुका हूँ उन्हें औरों के सामने क्यों न रखूँ। मेरा यह लेख या फिर यह लेख-श्रृंखला इसी प्रयास का एक हिस्सा है।
अगला लेख लेकर जल्द हीं हाज़िर होऊँगा।
-विश्व दीपक
thanku vishwadeepak jee
ees tarh ke lekh ke liye.kisi bhi dhram ke smreeti chinh ko mita ker
apne astitwa
ko jabaran sthapit karna uche logo ki pahachan nahi ho sakati
ajj esee tarha ke karyo se kitna vivad hai.
geeta tiwary
thanku vishwadeepak jee
ees tarh ke lekh ke liye.kisi bhi dhram ke smreeti chinh ko mita ker
apne astitwa
ko jabaran sthapit karna uche logo ki pahachan nahi ho sakati
ajj esee tarha ke karyo se kitna vivad hai.
geeta tiwary
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