जीने के लिए क्या ज्यादा जरुरी है
पानी या शराब?
रोटी या कबाब?
पैसा या व्यापार?
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जाति या समाज?
नही जानती कि जाति के मामले में मेरी जानकारी का स्तर क्या है? मैंने वर्णव्यवस्था को कितना समझा है? मैं समाज के विभिन्न धर्मो और वर्गो के बारे में कितना जानती हूं? लेकिन इसके बावजूद भी ये सब कुछ ठीक से न समझने को कहीं न कहीं मैं अपना सौभाग्य मानती हूं। ये आधा-अधूरा ज्ञान मुझे पूरा हक देता है हर किसी से बात करने का, हर किसी के साथ खाना खाने का और वो सब कुछ करने का जो समाज में रहते हुए आम व्यवहार में हम एक दूसरे के साथ करते हैं। काश कि कोई भी न जानता होता इस वर्ण व्यवस्था के बारे में । इस बारे में कि फलाना इंसान दलित है और फलाना ऊंची जाति का है। ये एक निरी कल्पना है जिसका साकार होना निरा मुश्किल भी है। लेकिन जाति के नाम पर जो कुछ समाज में होता आया है और हो रहा है उसकी कल्पना करना भी तो निहायत कठिन है। हाल की ही खबर है कि उत्तर प्रदेश के कन्नौज में मिड डे मील में दलित महिला के खाना बनाने को लेकर वहां के लोगों ने हंगामा किया। और अब फिर वही सवाल कि जीने के लिए जाति ज्यादा जरुरी है या बराबरी का समाज। ये जात वो बिरादरी। इसके साथ खाना ,उसके साथ मत घूमना। इसका जूठा मत खाना, उसके बर्तन भी मत छूना। अपने आस-पास के लोगों से हर वक्त इस तरह की दूरियां बनाने में न जाने कितना दिमाग और वक्त खर्च कर देते हैं लोग। कहने को भारतीय संस्कृति बहुत कुछ है लेकिन दूसरा सच ये है कि आज हम सभ्यता के उस मुहाने पर खड़े हैं जहां जाति गालियों में शुमार एक ऐसा दस्तावेज है जिसकी परतें जब खुलती हैं तो इंसान का अस्तित्व ही मैला नजर आता है। अबे चमार कहीं के, अरे वो तो ब्राहम्ण कुल का है। जाति सूचक ये शब्द इस तरह इंसान का दर्जा तय कर देते हैं कि एक तबका तो जाति के बोझ तले ही दब जाता है और दूसरा जाति की छत्रछाया में अपने महल बना लेता है। छठवीं शताब्दी में उपजी समूह व्यवस्था ने जाति को सामाजिक संरचना से लेकर आर्थिक और राजनीतिक हर स्तर पर एक मुख्य पहचान और पुख्ता हथियार बना दिया। परिणाम हमारे सामने है- अनेकता में एकता वाला भारत टूट रहा है और बिखर रहा है। एक इमारत में रहने वाले विभिन्न जातियों के लोगों से लेकर एक प्रदेश में जीवन-यापन करने वाले अलग-अलग जातियों के लोगों में आपस में दिली तौर पर इतनी दूरियां पैदा कर दी गई हैं कि लोग अपनी जाति पर आधारित एक अलग प्रदेश चाहते हैं। समाज में पैठी ये दूरियां सत्ता में बैठे लोगों के लिए भी एक हथियार बन चुकी हैं। जाति बनाने वाले बनाकर चले गए शायद ही उन्होंने सोचा होगा कि आने वाली पीढिय़ां इस बनावट को इतनी शिद्दत से निभाएंगी। लेकिन अब इस पीढ़ी को ये प्रथा तोडऩी होगी, बरसों पुरानी शिद्दत को तिलांजलि देनी होगी, छोडऩा होगा एक ऐसे बंधन को जो सिर्फ एक हथकड़ी है हमारे और आपके बीच में। छठवी शताब्दी की शुरूआत को भूलकर एक ऐसा प्रारंभ इक्कीसवी सदी में करना होगा जिससे ये सारे भेद मिट जाए। जाति का वो पिरामिड जिसमें सबसे ऊपर के माले पर ब्राहम्ण का सिंहासन है और दलित की झोपड़ी जमीन में धंसी हुई है, उस पिरामिड की व्यवस्था और विचारधारा को बदलना बहुत जरुरी है।
ये सब लिख्रते हुए मैं इस बात से भी पूरा सरोकार रखती हूं कि भारतीय समाज की व्यवस्था में जाति गहरे पैठी हुई है इसका त्याग करना इतना आसान नही होगा उन लोगों के लिए जिन्होंने तथाकथित नीच जाति के लोगों से कभी बात करना भी गंवारा नहीं किया लेकिन अगर वही लोग घर में भात की जगह मैगी को दे सकते हैं तो विचारधारा का ये बदलाव भी लाजंमी है जिससे जिंदगी की वास्तविक नफासत वापस आ सकती है।
हिमानी दीवान
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9 बैठकबाजों का कहना है :
आरक्षण ने जाति को बढ़ावा दिया है।
आप सपने देखती रहें..
हम जैसों के लिये ’लेख’ लिखने की सामग्री बनती रहेगी..
जबतक पेशा जाति आधारित हुआ करता था .. तबतक अपनी बिरादरी में शादी विवाह किए जाने से आनेवाली पीढी के उस पेशे में अधिक कार्यकुशल होने की संभावना बनती थी .. पर आज किसी भी जाति के लोगों को अपनी योग्यता और कुशलता के अनुरूप पेशे में जुड जाने से शादी विवाह में भी पि पत्नी के मध्य जाति की बाधा नहीं उपस्थित होती है .. पर विवाह सिर्फ एक पुरूष का एक महिला से नहीं होता .. दोनो पक्ष के सारे परिवारों के साथ उनका रिश्ता बनता है .. पर अभी भी दोनो पक्षों के अभिभावकों और रिश्तेदारों की उदार दृष्टि नहीं होती है .. जिससे बाद में भी पति पत्नी के परिवार के साथ सामंजस्य में बाधा आती है .. सिर्फ जाति के अंदर ही नहीं एक जाति में भी दोनो पक्ष के आर्थिक नहीं तो कम से कम मानसिक स्तर को देखते हुए विवाह करना उचित होता है .. और जहां तक छुआछूत या अन्य संबंधों की बात है .. किसी प्रकार के भेदभाव का मैं भी पुरजोर विरोध करती हूं .. सरकार तो अंग्रेजों की ही नीति 'फूट डालो और शासन करो' पर चल रही है .. इसे परिवर्तित करने के लिए सारी जनता को एकजुट होने की आवश्यकता है !!
देखिये हिमानी जी -- समाज में सदा द्वंदात्मक विचारधारा वाले हर युग में
होते हैं. राम का समकालीन रावण, जाति- वर्ण के समकालीन बौद्ध, शैवों और
वैष्णवों की खूनी लड़ाइयां हों या पशुपतों नागाओं की मारकाट....सच,
चरित्र, उद्यमशीलता विनम्रता, सहिष्णुता का झंडा हमेशा ऊँचा रहा है और
रहेंगा ! बस हम सबको चुपचाप अपने आप को सुधारते रहना है. ये इस दुनिया
में जो भी हो रहा है, अच्छा और दैवी योजना से हो रहा है... विचलित न हों
!!
आप के भाव आपके कोमल मन की तड़प है और मैं उसे प्रणाम करता हूँ. !!
हिमानी जी!...आप यह जानती होगी कि समाज की व्यवस्था बनाए रखने के उद्देश्य से ...हिन्दू धर्म के अनुसार समाज को चार वर्णों में बांटा गया था...१ ब्राह्मण, २ क्षत्रिय, ३ वैश्य और ४ शुद्र....कार्यानुसार लोगों को उन उन वर्णों में शामिल किया गया था!... बाद में सामाजिक बदलाव आते गए और लोगों के कार्यक्षेत्र बदलते गए... लेकिन एक बार एक वर्ण का जो ठप्पा पूर्वजो से चला आ रहा था...उसमें बदलाव नहीं आया!..ब्राह्मण है वह आर्मी में काम करने के बावजूद क्षत्रिय न कहलाते हुए ब्राहमण ही बना रहा... वैश्य शैक्षणिक क्षेत्र में दाखिल हुआ लेकिन वैश्य ही बना रहा... ब्राह्मण व्यापार धंदे में लग गया...लेकिन वैश्य न कहलाया!...इस प्रकार प्रथम तीन वर्णों पर कार्यक्षेत्र में बदलाव का असर खास नहीं पडा..उनकी इज्जत बनी रही...लेकिन चौथे वर्ण शुद्र को अन्य काम करने के बावजूद भी निकृष्ट ही माना जाने लगा!
...आज इसी शुद्र वर्ण के लोगों को उच्च दर्जा दिलवाने की कोशिश की जा रही है... जो सर्वथा योग्य है!.. महात्मा गांधी ने भी इसी दिशा में अपना अमूल्य योगदान दिया है!... अगर समाज में वर्णों का विभाजन समाप्त हो जाता है तो यह एक सुनहरा और नया दौर होगा!... आप ने जो सपना संजोया हुआ है मै उसका समर्थन करती हूं!
मैं सतीश चंद्र जी से सहमत हूँ। हमें प्रक्टिकल होने की जरूरत है।
अरूणा जी, शूद्र आजकल शूद्र कहलाने में गर्व महसूस करने लगे हैं। सब कोटे की माया है।
हर वर्ण का खान-पान , रहन-सहन, तीज-त्योहार अलग तरह से मनाया जाता है, जाता रहेगा काईं बार इस वजह सेभी मतभेद उत्पन्न होते हैं...चाहें शादी-ब्याह हो या कोई और उत्सव। इसलिये विलग जाति में शादी करने से लोग हिचकते हैं, क्योंकि सारे रीति-रिवाज़ मन मुताबिक नहीं हो पाते और काफ़ी कोम्प्रोमाइज़ करना पड़ता है।
मतभेद अपनी जगह है लेकिन जब "मनभेद" उभरें तो गड़बड़ होती है।
शूद्र से आप क्या समझते हैं? एस.सॊ/एस.टी तो नहीं न?
महात्मा गाँधी के अलावा और किस-किस ने अमूल्य योगदान दिया? क्या आप यह जानती हैं?
यदि नहीं, तो ये देश का दुर्भाग्य है!!!!
ऐसे विषय पर मतभेद हमेशा से ही रहा है...वही आज भी हो रहा है...जितने वर्ग उतने ही मतभेद ...गाढ़ी चर्चा हो रही है यहाँ इस पर...और फिर नतीजा कुछ नहीं निकलता...जैसा हमेशा होता आया है चर्चा बस चर्चा ही रह जाती है...जो गाँधी जी ने सोचा था वो उनका अपना सोचना था..तभी उनको रोकना था...वो तो सोचके चले गये अब सबका अपना सोचना है...
तपन आपने ठीक कहा मतभेद अपनी जगह हैं लेकिन मनभेद उभरें तो गड़बड़ है। रानीतिक व्यवस्था ने जो मतभेद पैदा किए हैं उनको खत्म करना या उन पर बात करना एक बड़ी बहस होगी जिसका नतीजा निकालने में भी खासी जद्दोजहद करनी होगी लेकिन मेरे लिखने का उद्देश्य खासतौर पर सामाजिक व्यवस्था के चलते पनप रहे मनभेद को लेकर है जिसे हम और आप शुरूआत करके मिटा सकते हैं। एक निजी पहल तो की ही जा सकती है ताकि शन्नों जी की चचाॆ के चचाॆ ही रह जाने की शिकायत थोड़ी सी दूर हो सके
तपन आपने ठीक कहा मतभेद अपनी जगह हैं लेकिन मनभेद उभरें तो गड़बड़ है। रानीतिक व्यवस्था ने जो मतभेद पैदा किए हैं उनको खत्म करना या उन पर बात करना एक बड़ी बहस होगी जिसका नतीजा निकालने में भी खासी जद्दोजहद करनी होगी लेकिन मेरे लिखने का उद्देश्य खासतौर पर सामाजिक व्यवस्था के चलते पनप रहे मनभेद को लेकर है जिसे हम और आप शुरूआत करके मिटा सकते हैं। एक निजी पहल तो की ही जा सकती है ताकि शन्नों जी की चचाॆ के चचाॆ ही रह जाने की शिकायत थोड़ी सी दूर हो सके
सबसे पहले तो मैं आप सब से ये कहूँगा की कभी किसी शुद्र की आवाज़ भी तो सुनिए......मैं ब्राम्हणों के द्वारा मान्य वर्ण व्यवस्था का एक शुद्र हु और जाती का चमार हु पर ये शुद्र शब्द को नहीं मानता क्युकी ये वैदिक सभ्यता के लोगो द्वारा दिया गया नाम है...आपने लेख लिखा उसके लिए कोटि कोटि धन्यवाद पर अगर आप शुद्रो की आज के स्तिथि के बारे में जानना चाहती है तो आपको इतिहास के पीछे जाना पड़ेगा.....कभी भी वर्ण व्यस्था को बनाने का उद्देश्य कर्म के आधार पे नहीं था ,अगर इस व्यवस्था का प्रयोजन कर्म पे आधारित होता तो आज शुद्रो की ऐसी हालत नहीं होती.....ये सब खेल है आर्य और यहाँ के मूलनिवासियो के बिच का है.......आर्यों ने खुद के भोग और विलास के लिए यहाँ इस देश पे आकरमण किया और यहाँ के मूलनिवासियो को गुलाम बनाया और उनकी आवाज दुबारा न उठे इसलिए उन्हें इश्वर द्वारा निर्मित वर्ण व्यस्था बता कर उसमे सबसे निचले पायदान पे रखा....ये ब्राम्हणों का स्वार्थ ही है जिसकी वजह से यहाँ के मूलनिवासियो की ये हालत है,,,मैं इस देश का मूलनिवासी हु और मुझे गर्व है....
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