ऐसा अक्सर होता है कि मैं जब कहता हूं ‘मैं नास्तिक हूँ’ तो लोग कहते हैं तुम निराश हो इसीलिये ऐसी बात कर रहे हो। उनके अनुसार सिर्फ असफल और निराश व्यक्ति ही नास्तिक होता है। नास्तिक होने को किसी मुम्बईया फिल्म की तर्ज़ पर भगवान से गुस्सा हो जाने की तरह लिया जाता है और माना जाता है कि अंत में व्यक्ति को भगवान के पास आना ही होगा। नास्तिकता भगवान के प्रति किसी तरह के गुस्से से नहीं बल्कि एक बहुत लम्बी विचार-प्रक्रिया तथा तर्क पर आधारित होती है। यह असफलता या निराशा से नहीं बल्कि अपने दम पर सफल हो सकने के विश्वास से पैदा होती है। अगर आप नास्तिक हैं तो आप शत-प्रतिशत प्रयास करेंगे ना कि किसी आस्तिक की तरह आधा-अधूरा काम करके भगवान से उम्मीद करेंगे कि वो साथ दे। आस्तिक लोग असफल होने पर भगवान को दोष दे सकते हैं मगर नास्तिक कहता है कि मेरे प्रयास में कमी थी क्योंकि उसके लिये किस्मत कुछ नहीं होती। सब कुछ सिर्फ कर्म और कर्म ही होते हैं।
भगवान इंसान द्वारा ही बनाया हुआ हैं। हम जिन सवालों का उत्तर नहीं जानते उन्हे भगवान पर छोड देते हैं। इसी तरह धर्म भी इंसान ने ही खुद को बांधे रखने और डराने के लिये बनाया है। धर्म की बात इसीलिये कर रहा हूं क्योंकि धर्म और भगवान एक दूसरे से जुडे हुए हैं अगर धर्म इंसान ने बनाया है तो ईश्वर भी इंसान ने ही बनाया है। आप ध्यान से सोचेंगे तो हमारी हर धार्मिक प्रथा के पीछे एक वैज्ञानिक कारण पायेंगे।
एक उदाहरण देता हूं - हम कहते हैं कि बारिश के समय देव सो जाते है इसीलिये शादी-ब्याह नहीं किये जा सकते। जब देवउठनी-ग्यारस पर देव उठते हैं तब शुभ कार्य शुरु होते हैं। जब हमारा धर्म बनाया गया तब आवागमन के साधन नहीं थे। बारिश के समय में जब नदी-नाले पूर होते थे, रास्ते बन्द हो जाते थे और लोग एक दूसरे से सम्पर्क भी नहीं कर पाते थे ऐसी स्थिति में कोई विवाह सम्बन्ध होने का सवाल ही नहीं पैदा होता। इसीलिये कहा गया कि देव सो गये है और यह एक नियम बना दिया गया। चूंकि हर समय हर बात को तर्क की सहायता से नहीं समझाया जा सकता है इसीलिये भगवान का डर बता दिया गया और यह निश्चित हो गया कि अमुक समय में कोई शादी नहीं होगी। धर्म इंसान को नियमों में बांधने के लिये बनाया गया। ऐसे नियम जिनके अनुसार चलने पर जीने में सहूलियत हो। अगर नियम होते हैं तो उनके टूटने का खतरा भी होता है। लोग नियमों को ना तोडें यानि धर्म पर चलें इसके लिये कोई डर बताया जाना आवश्यक था इसीलिये भगवान को जन्म दिया गया परंतु समय के साथ जब नियमों में कोई बदलाव नही होता तो वो अप्रासंगिक हो जाते हैं जैसा कि आज हो रहा है।
वास्तव में भगवान का जन्म ही दुर्बलता से हुआ है। यह उन लोगो के लिये है जो कमज़ोर और भीरू हैं। अगर आप स्वयं अच्छा और बुरा समझते हैं; सही और गलत में भेद कर सकते हैं तो आपको भगवान की कोई ज़रूरत नहीं। अपनी यह बात एक उदाहरण से समझाने की कोशिश करता हूँ। जब बच्चा छोटा होता है तो उसे सुलाने के लिये माँ कहती है कि बेटा सो जा वरना बाबा आ जायेगा तो बच्चा बाबा के डर से सो जाता है। यहां स्वघोषित मां धर्म है बेटा आस्तिक और बाबा है ईश्वर जो वास्तव में है ही नहीं। हालांकि माँ बेटे के भले के लिये उसे सुला रही है पर गलत तरीके से। अगर बेटा समझदार है तो उसे बाबा से डराने की क्या ज़रूरत ? कुछ ऐसी ही नास्तिकता है।
नास्तिकता तर्क पर आधारित है, आस्तिकता की तरह झूठी श्रद्धा और विश्वास पर नहीं। आस्तिक स्वयं कहते है कि "भगवान आस्था का भूखा है"। वास्तव में भगवान आस्था का भूखा नहीं बल्कि उसका अस्तित्व ही आस्था से है। भगवान आस्था के बिना कुछ नहीं। तभी तो सारे चमत्कार और यहां तक की दुआयें भी विश्वास ना होने पर असर नहीं करती। आस्तिक जिसे भगवान की शक्ति कहते हैं वो वास्तव में विश्वास की शक्ति होती है परंतु नास्तिक किसी भगवान नाम की स्वनिर्मित संस्था में विश्वास करने की बजाय खुद में विश्वास करना पसंद करते हैं। आस्तिक कायर होता है जिसे अपने साथ भगवान का साथ चाहिए होता है। मुश्किल पलों का सामना करने में उसे डर लगता है। ऐसी स्थिति मे भगवान उसे एक मनोवैज्ञानिक आधार देता है जिससे प्रार्थना करके उसे थोडी राहत मिलती है। नास्तिक भगवान को नहीं मानता इसीलिये खुद ही लडता है चाहे वक़्त कैसा भी हो ।
अब एक बार फिर से सोचिये। जो नहीं मानता उसके लिये भगवान कुछ नहीं है और जो मानता है उसके लिये भगवान सब कुछ है इसका मतलब हुआ कि भगवान इतना कमज़ोर है कि वो सिर्फ मानने से ही ज़िन्दा है तब तो यह महज़ भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं!
आखिरी में एक बात फिर कहूंगा कि नास्तिकता निराशा का नहीं बल्कि खुद और सिर्फ खुद पर विश्वास का नाम है। अगर सारे पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर आप खुले दिमाग से सोचेंगे तो शायद नवीन सागर की इस पंक्ति का मतलब समझ पायेंगे।
“जिसका कोई नहीं है उसका भगवान है... क्योंकि भगवान कोई नहीं है"
जो इतना कहने के बाद भी समझ नहीं पा रहे तो मतलब साफ है कि वो समझना चाहते नहीं है। वैसे भी उनके अनुसार भगवान तो विश्वास का नाम है तो ऐसी स्थिति में तर्क क्या कर सकता है। अगर नास्तिकता को समझना चाहते हैं तो सबसे पहले आपको इस विश्वास से मुक्त होना होगा; इस पर सन्देह करना होगा, इससे सवाल करने होंगे. और खुद ही सत्य खोजना होगा।
विपुल शुक्ला
39, प्रगति नगर, इन्दौर
मो.- 9907728575
(विपुल हिंदयुग्म के बुनियादी सदस्यों में से हैं...पढाई और नौकरी के फेर में हिंदयुग्म पर आवाजाही घटती-बढ़ती रही, मगर इंदौर में हिंदयुग्म के बैनर तले हमेशा आयोजन करवाते रहे...उम्र छोटी है पर नास्तिक होने के लिए बड़ा होना भी कोई शर्त नहीं)
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43 बैठकबाजों का कहना है :
विपुल भाई,
आपसे शत-प्रतिशत सहमत हूँ..हर धार्मिक रस्म के पीछे कोई न कोई वैज्ञानिक सिद्धांत छुपा हुआ होता। चाहें यज्ञ हवन करना हो अथवा ओ३म का जाप करना अथवा मंत्र उच्चारण या फिर मन्दिर की घंटी बजाना। मैं खुद कईं चीज़ों में वैज्ञानिक आधार ढूँढता रहता हूँ..
जैसे हम इंद्र को बरसात का भगवान कहते हैं, वायु हमारे लिये ईश्वर है, धरती माँ समान है.. प्रकृति का हर वो कण जो इंसान के लिये जरूरी है उसको ग्रंथों में "देव"का दर्जा दिया गया है जो हमारे लिये पूज्य हैं मुझे इसमे कोई संशय नहीं है।
लेकिन..
एक बात मुझे आज तक नहीं समझ आई.. यदि को शक्ति नहीं है तो इतने सारे जीव-जन्तु कैसे बन गये? हमारे शरीर में रेडियो है.. कैमरा फ़िट है..नाक हमारी sensor है..यहाँ की पूरा nervous system artificial intelligence पर आधारित है। दिमाग को तो इंसान अभी तक नहीं पढ़ पाया...
और न ही अंतरिक्ष कैसे बना इसका पता लग पाया है।
मेरा अपना मानना है कि इस दुनिया का रचयिता कोई "सर्वशक्तिमान" तो है जिसके आगे नतमस्तक होने की इच्छा होती है पर आज की तारीख में दुनिया चलाने वाला इंसान ही है।
विपुल भाई
जो लोग भगवान से गुस्सा होते हैं वे नास्तिक नहीं
हैं - आस्तिक ही हैं - वे भगवान को तो मानते हैं
पर "उसकी दुनिया" से संतुष्ट नहीं है। नास्तिक
तो "भगवान" से खुश या नाराज़ नहीं हो ही
सकता क्योंकि वह है ही नहीं ।
तपन भाई, मैनें भी यही कहा है कि इंसान जिन बातों को नहीं जानता उन सबको भगवान पर छोड़ देता है। अनुत्तरित रह गये सवालों का जवाब देने के लिये ही हमने भगवान को जन्म दिया है । उसे ऐसी सारी बातों के लिये जिम्मेदार और नियंता बता कर हम एक तरह से खुद को समझा लेते हैं। भगवान मानवनिर्मित एक जस्टिफिकेशन टूल मात्र है और कुछ नहीं।
विपुल जी!...आप ने भगवान जैसा कुछ भी न होने की अपनी बात मनवाने की भरसक कोशिश की है!... उदाहरण भी सटिक दिए है...लेकिन भगवान और विञान हंमेशा अलग है, और अलग ही रहेंगे!... रही भगवान के अस्तित्व को मानने की बात...यह व्यक्तिगत मामला है!...भगवान, भूत-प्रेत, पुनर्जन्म, आत्मा इत्यादि के अनुभव हर व्यक्ति के अलग हो सकते है!....मान्यताएं अलग हो सकती है!... आपका लेख सोचने के लिए जरुर मजबूर करता है, धन्यवाद!
विपुल जी ,
एक दम सटिक उदाह्रण है।"जब बच्चा छोटा होता है तो उसे सुलाने के लिये माँ कहती है कि बेटा सो जा वरना बाबा आ जायेगा तो बच्चा बाबा के डर से सो जाता है। यहां स्वघोषित मां धर्म है बेटा आस्तिक और बाबा है ईश्वर जो वास्तव में है ही नहीं। हालांकि माँ बेटे के भले के लिये उसे सुला रही है पर गलत तरीके से। अगर बेटा समझदार है तो उसे बाबा से डराने की क्या ज़रूरत ? कुछ ऐसी ही नास्तिकता है।"
लेकिन्…………॥
जब बेटा छोटा(बालज्ञानी)होगा,उसे उच्छंखलता से बचा कर सुलाने(शान्ति) के लिये मां (धर्म)द्वारा बाबा (ईश्वर) के डर की कहानी आवश्यक होगी।
बडा (ज्ञानी) हो जानें के बाद,बाबा की कहानी स्वत: निर्थक हो जायेगी,पर मां-बेटा तो रहेंगे ही।
वह मां (धर्म)ही है जो नीति से परिचय करवायेगी। अत्मविश्वास और उच्छंखलता में फ़र्क दिखायेग़ी, उच्छंखलता को जीवन के लिये हानिकर बता कर जीवन अनुशासन के नियम गढेगी। अजाद मानसिकता सहित बेटे में थोडा भी अनुशासन आ गया तो उसका व उसके आसपास का जीवन सुधर जायेगा।
अंत रह गया था,
बेटा समझदार होकर 'बाबा' को भूल जाये समझ में आता है,पर मां को त्याग दे?
बस इसलिये कि उसने बचपन में डराने वाली कथा सुना सुना कर सुलाया था?
सीधे उदाहरण पर आते हैं!
आपने कहा-
“जब बेटा छोटा(बालज्ञानी)होगा,उसे उच्छंखलता से बचा कर सुलाने(शान्ति) के लिये मां (धर्म)द्वारा बाबा (ईश्वर) के डर की कहानी आवश्यक होगी।”
आपने तो मेरी बात का समर्थन कर दिया। मैं भी तो यही कह रहा हूं कि सिर्फ उच्छंखल और अज्ञानी बच्चों को ही इस डर रूपी बाबा मतलब कि भगवान की ज़रूरत है। समझदार बच्चे को डराने की क्या ज़रूरत?
आपने कहा-
“बेटा समझदार होकर 'बाबा' को भूल जाये समझ में आता है,पर मां को त्याग दे? बस इसलिये कि उसने बचपन में डराने वाली कथा सुना सुना कर सुलाया था”
जो बेटा कभी समझदार नहीं हो पायेगा वो बाबा की असलियत कभी जान ही नहीं सकेगा। इस ईश्वर नाम की संस्था को ऐसे ही लोगों के लिये जन्म दिया गया है जो कभी समझदार नहीं होना चाहते और हमेशा लीक पर ही चलते रहते हैं।
मेरा कहना है कि आज मां से आग्रह किया जाना चाहिये कि सिर्फ छोटे और नासमझ् बच्चों को ही बाबा का डर दिखाया जाना चाहिये पर मां तो ठान कर बैठी है कि डर दिखाने में ही उसका मां होना निहित है। मैं माँ के खिलाफ नहीं माँ की मानसिकता के खिलाफ हूँ। माँ (धर्म) की नसीहतें जो वैज्ञानिक कारणों पर आधारित हैं उन्हें मानने से कोई परहेज नहीं।
लेख में एक जगह लिखा हुआ है कि “धर्म इंसान को नियमों में बांधने के लिये बनाया गया। ऐसे नियम जिनके अनुसार चलने पर जीने में सहूलियत हो”। धर्म कुछ नियमों का समूह है ऐसे नियम जो तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार मनुष्य की भलाई के लिये बनाये गये थे। मगर अब इनकी बहुत सी बातें अप्रासंगिक हो चुकी हैं जिन्हें आंख मूंद कर मानने की बजाय बदले जाने की ज़रूरत है।
बड़ी टेढ़ी बहस है ये जिसमें सबको पता है कि बस बही सही हैं ...
@ नास्तिकता तर्क पर आधारित है, आस्तिकता की तरह झूठी श्रद्धा और विश्वास पर नहीं।
--- परमात्मा में असीम शक्ति है, अगर आपके मन पर कोई बोझ है तो उसे परमात्मा को दे दो।
--- यदि आप नित्य प्रात: मन के संकल्पों को समेटने व ईश्वर का स्मरण करने में कुछ समय लगायेंगे तो इसका दिन भर जादू जैसा असर रहेगा।
--- परमात्मा गुणों के सागर हैं। यदि आप किसी विकार की अग्नि में जल रहे हैं तो उस सागर में डुबकी लगाइये।
--- ईश्वर का स्मरण करने से हमारी शान्ति व खुशी का खाता बढ़ जाता है। उन्हें भूल जाने से यह खाता घट जाता है।
@ काजल कुमार जी
यह बहस ही नहीं है।
एक बार कादम्बिनी में राजेन्द्र अवस्थी जी ने लिखा था किसी को बार-बार नकारना भी उसे स्वीकारना है।
इस आलेख के रचयिता भी उसे स्वीकारे हुए हैं, बस थोड़ी देर के लिए उससे मुंह फेर कर बैठे हुए हैं, या बैठने की बात कर रहे हैं।
विपुल जी के लेख ने एक बहुत सही प्रश्न उठाया है.
यद्यपि कि तपन जी, हरिहर जी, अरुणा जी, और सुज्ञ जी ने अपने अपने विश्वास (faith या belief) के आधार पर कुछ तर्क पेश किये हैं जो उनकी मान्यता अथवा मानसिकता को दर्शाते हैं.
मैं कोई बहस में नहीं पड़ना चाहता परन्तु सब लोगों को, विशेषकर विपुल जी, को एक पुस्तक पढ़ने की राय अवश्य दूंगा. यदि आप सब पक्षों को समझ कर एक निर्णय लेना चाहें तो आपके लिए "God Delusion" शायद लाभकारी हो.इसके लेखक हैं "Richard Dawkins". इस विषय पर उनकी कई पुस्तकें, लेख आदि उपलब्ध हैं.
अवध लाल
विपुल जी,
आस्तिकता नास्तिकता पर मुझे बहुत पहले 'सारिका' में पढ़ी हुई एक लघुकथा याद आ रही है. एक बार एक आस्तिक और नास्तिक बहस में भिड गए और शाम को बहस शुरू हुई सो दोनों को यह भी होश नहीं रहा कि उनकी बहस में रात भी गुज़रती जा रही है और आखिर सुबह भी आ गई है. तर्क-युद्ध ऐसा मारक था कि उनके मित्र भी रात भर जाग कर यह तमाशा देखते रहे. सुबह हुआ यह कि आस्तिक व्यक्ति नास्तिक बन चुका था और नास्तिक व्यक्ति आस्तिक ! आप इस कथा से क्या समझे?
मगर नास्तिक कहता है कि मेरे प्रयास में कमी थी क्योंकि उसके लिये किस्मत कुछ नहीं होती। सब कुछ सिर्फ कर्म और कर्म ही होते हैं।
और जब कोई भ्रष्टाचारियों या आतंकवादियों के हत्थे चढ जाए .. तो वहां उस बेचारे का क्या दोष होता है .. दूसरे की करनी का फल उसे क्यूं भुगतना पडता है .. इस समय वो ईश्वर की इच्छा पर विश्वास कर संतोष कर लेता है तो क्या बुराई है .. नास्तिक वहां पर क्या करेंगे ??
लेकिन विपुल भाई.. इन अनुत्तरित प्रश्नों की संख्या अनगिनत है... इंसान कब तक ढूँढ लेगा जवाब?
एक और सवाल जहन में आ रहा है.. विज्ान के अनुसार हर चीच्ज़ atoms से बनी हुई है। चाहें जीव हो या अजीव वस्तु.. तो फिर जीव में ऐसा क्या है जो उसको "जीव" बनाता है और अजीव को अजीव..
और फिर ऐसा क्या है जो मृत्यु के बाद अचानक ही सजीव को अजीव बना देता है..
प्रश्न बहुत सारे हैं.. विज्ञान इसका जवाब कब तक ढूँढेगा...
नास्तिकता क्या है, मैं इस पर कुछ नहीं कहना चाहूंगी, उसकी अपनी परिभाषाएं जो जैसे समझे वैसे सही....
मैं बात करना चाहूंगी आस्तिकता पर...
"चलो क्यूँ न आस्तिक हुआ जाए"
इस बात से बड़े से बड़े वैज्ञानिक भी सहमत हैं कि कुछ नहीं से आकाश गंगा बनाने वाला वो सर्वशक्तिमान ही है, कोई न कोई सुपर पावर है इस बात से हमारा विज्ञानं भी इत्तेफाक रखता है, आप बिग बैंग थिओरी पढ़ें..,
बना लिया होगा मनुष्य का क्लोन मानव ने, रोबोट होगी खोज विज्ञानं की, पर यह जो शरीर चलता है, जो सांस आने जाने कि प्रक्रिया है, वो वहीँ निर्धारित होती है, आप जो कहते हैं, जो सुनते हैं, जो मानते हैं, जो चाहते हैं, जो भी करते हैं.. कोई विज्ञानं नहीं करता आपसे..इस्वर कि सत्ता से ही चलती है यह दुनिया..
और यह मैं इसलिए कह सकती हूँ, कि मैं मानती हूँ,
न मानने को यूँ तो कई तर्क दे दिए विपुल जि ने,
आस्तिक को कायर कहा, जाने क्या क्या कहा, कि जो खुद कुछ नहीं कर सकते वो आस्तिक हैं,
गलत...
जो कुछ नहीं कर सके, वो निराश हो कर उसका दोष अगर इश्वर को दें तो वो हैं नास्तिक...
जो खुद पे विश्वास रखते हैं, वही किसी और पर विश्वास कर सकते हैं, जिसे खुद पर विश्वास नहीं वो क्या विश्वास करेगा किसी पर..
.
आपने कहा " अंत में व्यक्ति को भगवान के पास आना ही होगा। "
जि हाँ, अंत में भगवान के ही पास आना होता है, यह मैं इसलिए कह रही हूँ, कि मैंने यह सब अपनी आँखों से देखा है, गलत नहीं कहा गया कि कभी कभी उस पर छोडना पड़ता है...
सब देख चुकी हूँ इसलिए कह रही हूँ...
आपने कहा "वास्तव में भगवान का जन्म ही दुर्बलता से हुआ है। "
नहीं, भगवान का जन्म नहीं हुआ, भगवान ने इस सृष्टि कि रचना कि है, किसी विज्ञान ने नहीं बनाया था, धरती को, किसी विज्ञान ने नहीं बनाया था धरती पर पहले मानव को...कोई विज्ञानं नहीं बनाता स्त्री के गर्भ में शिशु को...
कि होगी तरक्की विज्ञानं ने, बना लिए होंगे टेस्ट ट्यूब बेबी, लेकिन यह सब भी उन्होंने पहले से चली आ रही प्रक्रिया का अध्ययन करके ही सीखा है..
"खुद ही सत्य खोजना होगा।"
सच कहा आपने, सत्य को खोजना होगा, क्यूंकि यही सत्य तो संसार से मुक्ति है, जिसने इस सत्य को जाना है उसे और कुछ जानने के लिए बाकि नहीं बचा..
आप कहना चाहते हैं, कि मीरा, कबीर, सूरदास, सब पागल थे, उनका विश्वास, उनका प्यार, पागल था,
अगर यह पागल थे तो समझदार कौन है? क्या आप पागल होने का अर्थ जानते हैं... पागल का मतलब है जिसने गल को पा लिया, जिसने उस सत्य को समझ लिया...
खैर यह अध्यात्म कि बातें है, और इन पर कुछ कहने के लिए मैं बहुत छोटी हूँ..
बात सिर्फ इतनी सी है, कि इश्वर का अस्तित्व किसी मूर्ती में नहीं है, इश्वर का अस्तित्व कण कण में है, अगर नहीं है, तो यह संसार नहीं है.. और अगर यह संसार है तो इश्वर है..
और इसके लिए कोई भी केवल कह दे कि संदेह करो, तो भी संदेह नहीं हो सकता, जिसे विश्वास है, उसका विश्वास यह छोटी छोटी बातें नहीं डिगा सकती.
मैं यह नहीं कहती कि उसे मानो.. यह तो हर एक को एक न एक दिन खुद ही समझ आ जाता ई..
कहीं न कही यह कहने वाले कि उसे मत मनो, वो नहीं है, भी उसे मानते हैं वरना इतना कहते ही नहीं..
आस्तिक होने का मतलब यह कटाई नहीं है कि हम हाथ पे हाथ धरे भैठे हैं, और कुछ नहीं करते.. आस्तिक होने का मतलब यह है कि वो हमेशा हमारे साथ है, हर पल.. इश्वर आपसे भीख नहीं मांगता कि आप उसे माने, उसकी पूजा करें.. अगर वो आपको जीवन दे सकता है, तो आपको एक न एक दिन उस पर यकीन भी आएगा, यह भी वो जानता है.. !
आस्तिक होने के लिए, इश्वर को मानने के लिए जरुरी नहीं कि उम्र बड़ी हो, इश्वर एक बच्चे के दिल में भी ऐसे ही बस्ते हैं, जैसे किसी व्यस्क या बुजुर्ग के मन में
उसका अस्तित्व आपके विश्वास से नहीं है, उसका अस्तित्व तो चिरंजीव है, सदैव है..
जिसे कोई विज्ञान मिटा नहीं सकता..
aruna ji
aapne bahut sahi kaha, maanyata ke apne apne kaaran hain.. Yahi baat lekh par bhi sateek hai, ki yadi lekhak ne aisa kaha to iske peeche bhi koi karan hai..
Main Manoj ji ki baat se sehmat hun, ki uski shakti ko nakarna use sweekarna hi hai.. Bas us se muh fer lene se uska astitva to nahi mit jayega
Khud ko uske arpan kiya to bas saari shankayein wo khud mita dega.
Wo khud nahi aayega wo jariye banayega, par banayega jarur.. Bas uski sharan mein jake to dekhein.
tapan ji
aapke aakhir comment mein aapne kaha, vigyan kab tak in sawalon ka jawaab dhoond lega?
Yeh to main nahi jaanti.. Haan par main itna jarur jaanti hun ki na maan.ne ke sau bahane ho sakte hain aurr maan.ne ko sirf ek shraddha hoti hai
agar ganesh ji ki moorti doodh pee sakti hai, to us par bhi ssawaal uth sakte hain..
Agar mehndipur balajii dhaam mein, jo ki poore
sawa 184 kos mein faila hua hai, ek bhi hospital ya doctor nahi hai, aur wahan kitne hi logo ke aise kasht kat jaate hain jo bade bade doctor nahi kar paye to yeh jadu nahi hai.. Yeh hai us parampita ki shakti ka trailor..
Aap use jis roop mein maanenge wo aapko us roop mein milega,
Agar yashoda ne use apne putra ke roop men chaha to wo krishna ho gaye, janm janmantar ke yogi gopiyan ho gaye.. Yeh jadu nahi hai... Yeh uski leela hai..
maha mrityunjaya mantra jap agar kisi marte hue shaks mein jaan daal sakta hai to yeh jadu nahi hai, uski shakti hai, science nahi hai..
Mere khud ke jeewan mein aise kuch examples hain jinhe dekhne ke baad main keh sakti hun ..
Haan karan alag ho sakte hain apni manyata ke..
Yeh baat mere jeewan par saaf dikhai di thi mujhe, jab meri maa beemar thi aur sabne hamara saath chhod diya tha, us waqt mein maine khud aise aose horrors dekhe hain, jo kisi ko dekhne na pade.. Main to maanti hun, koi maane ya na maane..
Baat sirf itni si hai ki negative hokar kisi baat ko nakarna jabki wo sacchai hai, ke bajaye agar hum sweekar kar lein uski satta ko, positive ho jayein to ismein bura kya hai?
मेरे विचार से ईश्वर महसूस होने वाली एक शक्ति है!... इसे दिखाया नहीं जा सकता कि 'देखिए!...यह भगवान है!' हां इसके रुप हम अपने मन मुताबिक बना लेते है!... जैसे कि दिपालीजी ने कृष्ण का उदाहरण दिया! ....हिन्दु धर्म में मानने वाले लोग राम,शिवजी या माता के रुप में इसे देखते है और अन्य धर्मों में मानने वाले भगवान को अन्य रुप में देखते है....कोई हवा को देख सकता है?...अगर नहीं तो कहना चाहिए कि हवा होती ही नहीं है!... प्रकाश को हम देख नहीं सकतें...प्रकाशित चीजों को देख सकतें है!...तो क्या प्रकाश नहीं है?.... भगवान भी ऐसी ही एक शक्ति है जिसे अपने जीवन में हर मनुष्य महसूस करता है...अगर मनुष्य पहचान नहीं पाता तो भगवान क्या करेगा? ..विपुल जी, आपने भी इस शक्ति को कभी न कभी महसूस किया होगा लेकिन पहचान नहीं पाए!.. मनोजजी, दिपालीजी और संगीताजी ने अपने शब्दों में यही बात विस्तार से कही है!...
abhhi t.v. Par suna..
science always has boundaries, vigyaan hamesha yeh kehta hai ki under such circumstamcesnces..aisa aisa hona laazmi hai, tat means yeh kuch boundaries mein baat krti hai iski limitations hain, whereas ishwar kisi bandhan mein nahi bandhta, uski satta har bandhan se azaad hai
kya baat hai..
THANKS VIPUL,I READ THE CONTENT.VERY EXCELENT.
MANOHAR DWIVEDI
LAB CHEMIST
CAIRN ENERGY INDIA PVT.LTD.(BARMER-RAJASTHAN)
विपुल भाई, सनातन वैदिक आस्तिकता पूरी तरह तर्क पर आधारित है। आस्तिकता को सिद्ध करने के लिए तर्क पर आधारित ग्रंथ हैं। वेद और दर्शन ग्रंथ। यास्काचार्य ने निरूक्त में एक स्थान पर कहा है, जब वेदों का अर्थ बताने वाले ऋषि नहीं रहेंगे, तब तर्क ही ऋषि होंगे। वेदांत दर्शन का एक सूत्र देखें - 'जन्मायदस्य यत:'। अर्थात् जन्म होने के कारण जन्म देने वाले का अस्तित्व सिद्ध होता है। यह तर्क ही है। आप यदि वैदिक ग्रंथों का अध्ययन करेंगे तो आपके सभी प्रश्नों का उत्तर पा सकेंगे।
विपुल की इस पंक्ति ने मुझे झकझोरकर रख दिया:
"आस्तिक कायर होता है"
बुरा लगा... सोचा मैं भी कुछ कहूँ.. लेकिन मैं जो भी कुछ कहने वाला था उसे व्यापर्क रूप में "दिपाली" जी ने कह दिया है। उम्मीद करता हूँ कि "दिपाली" जी की टिप्पणियाँ विपुल को अपनी पंक्तियों पर पुनर्विचार करने को बाध्य करेंगीं।
हरिहर जी ने बहुत हीं सही बात कही है, जो भगवान से गुस्सा हैं, जो भगवान की सत्ता से इनकार करते हैं.. वे सही मायने में आस्तिक हीं हैं.. क्योंकि वे इतना तो मानते हैं कि कोई भगवान है।
विपुल कहाँ हो.. कुछ तो जवाब दो :)
-विश्व दीपक
मैं भगवान हूँ. सबको अनुमति देता हूँ कि वो चाहे आस्तिक हो या चाहे कुछ देर के लिए नास्तिक हो जाये.हाँ, धर्म भगवान नहीं है.हम सब भगवान हैं..
जय हो भगवान जी लोगो की !!
सबसे पहले तो माफी चाहूंगा। कल सुबह से तबियत खराब होने के कारण उपस्थित नहीं हो सका। ऊपर जितनी भी बातें कहीं गयी सारी विश्वास व आस्था पर आधारित हैं। आस्तिक कहते हैं कि मह्सूस करो तब भगवान मिलेगा। मगर नास्तिक कहता है कि भगवान सिर्फ महसूस करने से ही है तुम महसूस करना बन्द कर दोगे तो भगवान भी गायब हो जायेगा। चमत्कारों के बारे में मैने पहले ही कहा है कि यह विश्वास की शक्ति है। सारे धार्मिक स्थानों पर यही कहा जाता है कि श्रद्धा रखोगे तो काम होगा। यह मनोवैज्ञानिक बात है और कुछ हद तक सिद्ध भी की जा चुकी है। यह भगवान की नहीं बल्कि हमारी अपनी ताक़त होती है। अपनी बात के पक्ष में मैं रैकी का उदाहरण देना ज़रूर पसन्द करता पर इससे चर्चा के दूसरी दिशा में मुड जाने का डर है।
तपन जी.. हमें सवालों के जवाब तो खोजने ही होंगे चाहे वे कितने ही ज्यादा बडे और अधिक क्यों ना हों। हम जिस दिन सारे सवालों के जवाब ढूंढ लेंगे भगवान पर हमारी निर्भरता खत्म हो जायेगी। गैलीलियो के यह कहने पर कि पृथ्वि नहीं बल्कि सूर्य हमारी दुनिया का केन्द्र है उसे चर्च द्वारा बाईबिल के खिलाफ बता कर फांसी पर लटका दिया गया। स्थापित मूल्य और पुरातन विश्वास जब टूटते हैं तो तक़लीफ होती है पर इसका मतलब यह नहीं कि हम खुद से सवाल ही करना छोड दें।
दीपाली जी जिन लोगों ने बिग बैंग थ्योरी की खोज की वो यह नहीं मानते थे कि यह दुनिया भगवान ने बनायी है अगर वो ऐसा मानते तो प्रयास ही नहीं करते। इस सिद्धांत की सहायता से हम आज ब्रम्हांड की उत्पत्ति के बारे में कम से कम कुछ तो जानने लगे हैं।आशा करता हूं जिन बातों का जवाब हमें अभी तक नही मिल पाया उन्हें भी हम एक ना एक दिन ढूंढ लेंगे।
“जब वेदों का अर्थ बताने वाले ऋषि नहीं रहेंगे, तब तर्क ही ऋषि होंगे” रविशंकर जी की यह बात बहुत ज़ोरदार होगी मगर तब जब इस पर अमल किया जाये। मैं तर्क में विश्वास करता हूं नास्तिकता के पक्ष में जो तर्क है उन्होनें मुझे आस्तिकता के तर्को की अपेक्षा अधिक प्रभावित किया। बजाये यह कहने के कि भगवान तो है, आप मानें या ना मानें, अगर इस बात को तर्क से सिद्ध किया जा सके तो मैं भी आस्तिक हो जाउंगा। पर आस्तिकता तो तर्क की बजाये आस्था और विश्वास पर आधारित है।
भारतीय इतिहास में भगत सिंह कुछ महान नास्तिकों में से एक हैं। उनका लेख ”मैं नास्तिक क्यों हूं” जो बहुत सारे लोगों ने पहले से ही पढ रखा होगा, आस्तिकों से कुछ प्रश्न करता है। ये प्रश्न मैं यहां भी करना चाहूंगा। मगर उचित होगा कि इनका उत्तर देने के पूर्व आप पूरा लेख पढ लें। उसके बाद इन सवालों का उत्तर खोजने का प्रयास करें। ऐसा इसीलिये कह रहा हूं क्योंकि इन सवालों के सम्भावित उत्तर पहले से ही लेख में दिये गये हैं और उनका निराकरण भी किया गया है।
तो प्रश्न कुछ इस प्रकार हैं-
1. “अगर, जैसा कि आपका विश्वास है, कि एक परमात्मा है, विश्वव्यापी, त्रिकालदर्शी, सर्वशक्तिमान ईश्वर - जिसने धरती या संसार की रचना की, लेकिन कृपया मुझे यह बतायें कि उसने इसकी रचना क्यों की? “
2. “क्यों उस परमात्मा ने यह संसार और इसमें इन्सान को बनाया? अपने मनोरंजन के लिये? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?”
3. “अब मैं पूछता हूं कि तुम्हारा सर्वशक्तिमान भगवान हर उस आदमी को क्यों नहीं रोकता जो कि कोई पाप और अपराध कर रहा है? वह ऐसा आसानी से कर सकता है। वह युध्द के उन्मादियों को क्यों नहीं मार देता या उनके अन्दर जो युध्द की ज्वाला है उसे ही क्यों नष्ट नहीं कर देता जिसे कि जिससे मानवता के सिर से महायुध्द द्वारा उत्पन्न विनाश को रोका जा सके? तुम समाजवादी सिध्दान्त की प्रायोगिकता की विवेचना करना चाहते हो, यह मैं तुम्हारे भगवान पर लागू करने के लिये छोडता हूं।“
इस चर्चा में कहीं गयी एक और बात का जवाब भी अब मैं नही बल्कि भगत सिंह ही देंगे। लेख का एक अंश--
“सहज ही तुम दूसरा सवाल पूछोगे जो कि काफी बचकाना है। यदि कोई भगवान नहीं है तो लोग कैसे उसमें विश्वास करने लगे? मेरा उत्तर साफ व संक्षिप्त है कि जिस प्रकार की वे भूतों में, बुरी आत्माओं में विश्वास करते हैं उसी प्रकार बस फर्क सिर्फ इतना है कि भगवान में विश्वास सर्वत्र है और दर्शनशास्त्र पूर्ण विकसित। कुछ और घटकों की तरह मैं इसके मूल को दमनकारियों का चातुर्यकौशल नहीं मानता जिसके अर्न्तगत वे एक परमात्मा के बारे में उपदेश देकर लोगों को अपनी गुलामी में रखना चाहते थे, और उसके बलबूते पर अपनी सत्ता के लिये एक अधिकार और मान्यता चाहते थे। जबकि मैं उनसे इस आवश्यक बिन्दु पर असहमत नहीं हूं कि सभी मत व धर्म और ऐसी सारी संस्थाएं बाद में दमनकारियों और शोषकों के सहयोगी मात्र बन कर रह गये। हर धर्म में राजा के प्रति बगावत भी एक पाप माना गया था।“
मुझे आस्तिकता से कतई परहेज़ नहीं मगर आपसे विनम्र अनुरोध है कि ऊपर लिखी गयी इन बातों का, जो मुझे काफी समय से परेशान कर रही हैं, उचित निराकरण कीजिये..
विपुल जी,
मेरी ईश्वर के कर्ता व रचियता न होने पर आपसे सहमति ही है,क्योंकि उसे रचियता मानने पर कई निरुत्तर तर्क उत्पन्न होते है,और सभी तर्क जाकर आस्था पर खत्म हो जाते है। लेकिन उन महापुरुषों को भगवान मानने में कोइ हर्ज नहिं,जो जीवन के सार्थक लक्ष्य,और उसके नितिनियमो का प्रवर्तन करते है। और जीवन ध्येय प्राप्त कर लेता है।
कथित नास्तिकता अक्सर अनदेखे भगवान को तर्क से असिद्ध करते हुए धर्म से ही विमुख हो जाता है,या धर्म को ही अस्विकार कर देता है। चुकि धर्म नितिनियमों व अनुशासन से जीवन को सार्थकता प्रदान करने के उद्देश्य से होता है। अतः नास्तिकता में ईश्वर के साथ साथ धर्म भी हाथ धो बेठने का काम होता है। इसिलिये मेरा मन्तव्य स्पष्ठ था।
लेकिन मैं आपकी इस बात से सहमत नहिं,कि "धर्म की नसीहतें जो वैज्ञानिक कारणों पर आधारित हैं उन्हें मानने से कोई परहेज नहीं।"
मित्र,क्या सभी चिजों को वैज्ञानिक मानदण्डों से ही परखा जायेगा। धर्म के नियमों को वैज्ञानिक तात्कालिक परिस्थितियों के अनुसार बदल देना ठीक रहेगा।
विज्ञान के नियम तो सदा परिवर्तनशील रह्ते है,विज्ञान के आज के निष्कर्ष कल दूसरी थ्योरी से बदल भी सकते है,क्यों न धर्मिक नियमों को तो विशुद्ध रखा जाय,और विज्ञान को उसका काम करने दिया जाय। विज्ञान ने कभी मूल धर्मिक मान्यता (जैसे आत्मा )को चुनौति नहिं दी,वह तो इमानदारी से कह्ता है,अब तक हमने यह देखा,बाकि को देख्नाना शेष है।
अतः हर बात के लिये विज्ञान कसोटी नहिं हो सकता। आज का विज्ञान उस 'ज्ञान'का पूरक ही है।
मैं सुज्ञ जी की बात से पूरी तरह सहमत हूँ..
और एक बात..
आपने कहा की "चमत्कारों के बारे में मैने पहले ही कहा है कि यह विश्वास की शक्ति है। सारे धार्मिक स्थानों पर यही कहा जाता है कि श्रद्धा रखोगे तो काम होगा"
सच है, आप अगर विश्वास नहीं रखते इसका सीधा मतलब है कि आप दिल से चाहते ही नहीं,
विपुल जी
अगर धर्म के कुछ नियम हैं, और उन नियमों पर चल कर हम अपने जीवन में बहुत सुन्दर बदलाव ला सकते हैं तो क्यूँ न वो नियम अपनाये जायें..
मैं आपको अपने बड़ी भैया का यहाँ उदाहरण देती हूँ..
मेरे भैया दुनिया के सबसे बड़े नास्तिक लोगो में से एक थे, जब घर में कोई पूजा करता था तो वो हँसते थे,
कुछ साल पहले मुझे डेगू बुखार हुआ, प्राइवेट अस्पताल में दो दिन रकने के बाद डाक्टरों ने जवाब दे दिया, और मुझे एक सरकारी अस्पताल में ट्रान्सफर कर दिया, वहाँ मेरी हालत और बिगड गई, मैं मौत को महसूस किया है, जब मेरी सांसें रुकने लगी, उस वक्त भैया को पहली बार किसी ने रोते हुए देखा होगा.. उस वक्त मेरे भैया हमारे गुरूजी के आश्रम से जल लेकर आये, और मेरे एक मित्र साईं बाबा मंदिर से विभूति लाये, आपको शायद यकीन न हो, उस वक्त सभी डॉक्टर यही कह रहे थे कि अब मैं नहीं बच पाऊँगी, जिस तरह से मेरे श्वेत रक्त कण खत्म हो रहे थे, मैं नहीं बचती,
पर जैसे ही मुझे जल दिया गया, और विभूति खिलाई गई, मैंने अपने आप में बदलाव तो महसूस किया ही, कुछ ही घंटो में मेरी हालत सुधरने लगी, और रात भर में डाक्टरों ने भी यह बताया कि अब काफी सुधर हो रहा है..
और आज इस बात को लगभग छह साल हो चुके हैं..
यह आस्था, विश्वास, ईश्वर सब एक ही नाम हैं..
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मेरी मौसी का बेटा, बिलकुल नीला पड़ गया था, बेहोश, और डाक्टर ने जवाब दे दिया, उस वक्त उसके पिताजी ने, हमारे गुरूजी के आश्रम से जल लाकर उस के मुह में डाला, और बच्चे ने आँखें खोली..
आज वो लड़का आठवी कक्षा में पढ़ रहा है..
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मेरी वही मौसी,
शादी से पहले शिव जी के चालीस दिन के लगातार व्रत किया करती थीं.. कोई इच्छा नहीं थी, कुछ माँगा नहीं था, बस प्रेम है ईश्वर से..
आप शायद यकीन नहीं करेंगे, उन दिनों, रात को वो चिल्लाया करती थी, क्यूंकि शिव जी खुद उनके सिरहाने खड़े होते थे ! कलयुग में शिव जी के दर्शन होना कोई आसान बात नहीं है, पर अगर उन्हें हुए, यह है सच्ची आस्था, प्रेम. यह है ईश्वर !
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मेरी माँ
अभी पिछले साल, दिसंबर के महीने में इतनी बीमार हुई, कि उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा.. मेरे सभी मित्र इस बार से परिचित हैं,
वो वक्त मेरे जीवन का सबसे कठिन वक्त था, क्यूंकि उस वक्त मेरे साथ मेरे भाई के अलावा कोई नहीं था, पापा अलग बीमार थे..
कारन कुछ नहीं था, सिर्फ सर में दर्द था माँ को और दवाई लेने से हालत और बिगड गई, MRI, CITI SCAN और न जाने कितने टेस्ट कराये गए, दुनिया भर के टेस्ट करने के बाद भी डॉक्टर यह नहीं बता पाए कि उनको क्या तकलीफ है, कुछ ने कहा इन्फेक्शन है दिमाग में, तो उनकी रीढ़ से द्रव निकाल कर टेस्ट कराये, पर क्या इन्फेक्शन है यह नहीं बता पाए.. और उन्हें दिस्चार्ग कर दिया, पर जिस वक्त माँ घर आइन, उनकी हालत इतनी खराब थी कि उनका सीधा हाथ लगभग काम करना बंद कर चुका था, अपने आप हिलने लगता और घंटो हिलता रहता, जिस से उनके हाथ में सूजन आ गई, दर्द अलग.. आँखें टिकती नहीं थी, और जाने किस सोच में वो घंटो डूबी रहती थी, किसी से बात नहीं करती थी, रातों को उठ के दर जाती, कहने लगती कि मुझे अजीब सा जंजाल दीखता है, सर का दर्द था कि जाने का नाम नहीं लेता था, डाक्टरों को कुछ समझ नहीं आया तो उन्होंने दिमाग कि टी.बी. कि दवाइयां शुरू कर दी, steroids देने शुरू कर दिए, पर हालत और बिगड गई,
फिर मेरे भैया के एक नए दोस्त ने सलाह दी कि यह शायद बीमारी नहीं कुछ और है, वो बालाजी को बहुत मानते हैं, उन्होंने अपने घर में राखी बालाजी कि विभूति और जल दिया, घर में जल आते ही मेरी मम्मी में आये बदलाव देखने लायक थे, उन्होंने चिल्लाना शुरू कर दिया, समझने को कुछ बचा ही नहीं था, हमने आव देखा न ताव सपरिवार हम मेहंदीपुर बालाजी गए, दर्शन किये, और माँ में सुधार आने लगा,
मान्यता और नियम के अनुसार हमने उनके इकतालीस दिन के नियम किये, और आज मेरी माँ बिलकुल ठीक हैं, और पहले जैसी हैं..
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इसी तरह पिछले साल माँ को नींद नहीं आती थी, रात भर वो जागती थी, और रोटी रहती थी, फिर एक दिन जब वो गुरु आश्रम गई, तो वहाँ किसी ने सलाह दी कि आप रोज आश्रम आयें.. माँ ने नियम लिया और वो ठीक हो गई.
इन सब वकियों ने मेरे नास्तिक भाई को आस्तिक बना दिया, पिछले महीने मेरे भैया ने गुरु जी से दीक्षा ली,
और कई महीनों से रुका हुआ उसका appraisal इस महीने दीक्षा लेने के एक हफ्ते के अंदर ही हो गया और रुके हुए महीनो के पैसे भी उसे इस महीने कि सलेरी के साथ मिले.
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उसकी बनायीं इस दुनिया में कोई कैसे रहे उस से दूर.. :)
रही आपके सवालों कि बात , कि ईश्वर ने दुनिया क्यूँ बने, तो इसका जवाब लेने के लिए आपको उसी के पास जाना पड़ेगा, पर यह तो आपने भी कह दिया कि दुनिया उसी ने बने है..
और यहाँ जो होता है, दुःख या सुख, सब निर्धारित है पहले से..
आपके कर्म आपके सामने जरुर आते हैं..
और एक कमाल की बात,
दुःख में सबको वही याद आता है,
तो जिस दुःख ने उस से मिला दिया, वो दुःख अच्छा
या जो सुख उस से विमुख कर दे, वो सुख अच्छा..?
दीपाली जी,
धर्म को इतना भी चमत्कारो से न जोडिये,क्योकि अन्त्ततः इससे नुक्सान तो धर्म का ही होता है।
चमत्कार प्रत्येक आस्थावान के साथ घटित नहिं होता और पूर्ण आस्था से व्रत-कर्मकाण्ड करने वाले को तत्काल फ़ल भी प्राप्त नहिं होता। बहुत ही गहन कर्म-सिद्धांत है। इसिलिये प्रश्न अनुत्तरित रह्ते है।
आपकी चमत्कारो वाली टिप्पणीयों पर कुछ पल रुक कर सोचिये,आप ईश्वर के अस्तित्व को स्थापित कर रही है या अपनी आस्था के महत्व को सिद्ध कर रही है। क्योंकि यहां आपकी आस्था,मान्यता,साधना ईश्वर पर हावी हो रही है, आस्था महत्वपूर्ण हो जाती है,और ईश्वर गौण।
मेरा मत है,जीवन को सार्थकता व उद्देश्य प्रदान करने वाले धर्म को अक्षुण्ण रखते हुए,हम इश्वर के अस्तित्व पर विचार करें।
Main publicaly itna kuch kehna bhi nahi chahti thi.. tark maange gaye to kabhi kabhi tark dene padte hain. Par
Jhooth kuch bhi nahi likha gaya.
Aur na hi maine kisi site se kisi aarticle se utha kar copy paste kiya
I can understand what Deepali ji want to say. But this can not be easily understandable and acceptable by all. This can be believed only by those you really see/feel/experience any such events in their life or with their family.
I believe their is something beyond the scope of science. Science need proofs and for every thing happen in this universe this one-to-one mapping does not exist. Thats the reason it utterly fails at some areas. It has no answer about what and how a birth and death takes place. What goes off from the body when there is a death and what suddenly comes in at the time of birth? Till then where it exist...? Any answer...be it on same planet or anywhere else? Science still do not believe on rebirth but we know it exist. Who manages all these activities? Who decides the mapping of spirits to the birth process? I too don't know so assigned this activity to some super natural power. All that science can do is just try to keep all body part working properly.
We said universe is the outcome of big bang theory...so then I want to know where this universe comes from?...as the earth is floating in the universe, where this universe is floating? Leave such big questions..a simple example of utter failure of science... the magic part of the earth "Bermuda Triangle" where all laws given by science fails.
There are many examples which limits the scope of science and facts. And we have to agreed on the point that there always something exist beyond that scope.
Well coming back to the point, I am with Deepali ji as I too experienced such things in my life when all facts and figures raised their hands. I was stunned at such times and questioned myself that "How its possible to change the whole scenario without the interference of science from worst to better state?" And when I be a spectator, I feel and realize that there is something which either missed by me or ignored by me. In Hindu religion, everything is "Mantras". Most people say rubbish...how just uttering few Sanskrit words gives back life to Man? But I see the power behind the sound generated by these words. I don't know how it works and manages all worst...but I realize that something exist beyond our control who is mightier than us.
Just writing some thoughts coming in my mind:
1. “अगर, जैसा कि आपका विश्वास है, कि एक परमात्मा है, विश्वव्यापी, त्रिकालदर्शी, सर्वशक्तिमान ईश्वर - जिसने धरती या संसार की रचना की, लेकिन कृपया मुझे यह बतायें कि उसने इसकी रचना क्यों की? “
Well I do'nt know. But can you answer how, why and what purpose you birth yourself, you create yourself? Why you choose earth and not any other planet? Why not Jupiter or Mars? Where were you before your birth and why will you die after certain time?
2. “क्यों उस परमात्मा ने यह संसार और इसमें इन्सान को बनाया? अपने मनोरंजन के लिये? तब उसमें और नीरो में क्या फर्क है?”
Its easy to blame dear. Ok for time being I agreed there is nothing like God. Now can you answer me one simple question, "When you already know about so much indifference here then why you created yourself, just to play with others or just because others can play you?
3. “अब मैं पूछता हूं कि तुम्हारा सर्वशक्तिमान भगवान हर उस आदमी को क्यों नहीं रोकता जो कि कोई पाप और अपराध कर रहा है? वह ऐसा आसानी से कर सकता है। वह युध्द के उन्मादियों को क्यों नहीं मार देता या उनके अन्दर जो युध्द की ज्वाला है उसे ही क्यों नष्ट नहीं कर देता जिसे कि जिससे मानवता के सिर से महायुध्द द्वारा उत्पन्न विनाश को रोका जा सके? तुम समाजवादी सिध्दान्त की प्रायोगिकता की विवेचना करना चाहते हो, यह मैं तुम्हारे भगवान पर लागू करने के लिये छोडता हूं।
If GOD exists then I believe that it should not stop anyone. He will not stop bad people in the same way as he is not stopping good people to do their tasks. Its your own understanding and belief that make you choose right and wrong for yourself. If he does so then their will be no importance of both qualities i.e. Good and Bad. Its all you to decide which thing you want to pick from time to time. He helps those you calls him and need its help. But that too depends on him at what extent it does, as he does not want to interfere the ongoings. If all is gonna good or bad then its too boring here to live and to test ourself.
And at last, what do you say about self-consciousness? What is it? We can not see ... nor touch.... nor weight... can not measure...but it is something still there who guides us at every step (no matter we listen it or not, but we feel its existence...something is there who is more experienced than us)
One more thing I want to add here ..... the reference of Mahatma Gautam Budh. He also has the same set of questions .... but then he got the answers for all of them which makes him Mahatma. I don't know from where he gets those answer sets, but it seems we have to first make more eligible ourself to get this rare knowledge. Well, it does not always mean to worship God. The Lord of Lanka, Ravan, too disagreed the presence of god in front of him and always denied him. But atlast he accepts Ram and its significance and got the God's blessings. I think the mode of denial is also an another kind of worship which tests oneself and the other ones also who have the belief.
आपने तो भगत सिंह के सवालों के बदले में सवाल ही कर लिये। मूल मुद्दा वहीं का वहीं रह गया।
आपने शुरु में ही कहा..
"his can be believed only by those you really see/feel/experience any such events in their life or with their family"
और यहीं से सरी बात "out of the focus" हो गयी। मैनें लेख में ही कहा है-
"जो नहीं मानता उसके लिये भगवान कुछ नहीं है और जो मानता है उसके लिये भगवान सब कुछ है इसका मतलब हुआ कि भगवान इतना कमज़ोर है कि वो सिर्फ मानने से ही ज़िन्दा है तब तो यह महज़ भ्रम से ज्यादा कुछ नहीं!"
आस्तिकता के सन्दर्भ में सारी बातें विश्वास से शुरु और विश्वास पर खत्म होती है। इस एक ही बात को तरह तरह से लिखा जा रहा है
। मेरे अनुसार भगवान एक जस्टिफिकेशन टूल मात्र है और कुछ नहीं। मैं बार-बार कह रहा हूं कि भगवान को जन्म ही हमने इसीलिये दिया है जिससे हम ना समझ में आने वाली सारी बातों का जिम्मेदार उसे बता कर मुक्ति पा लें और बजाये मेरी बात समझने के तरह तरह के अनसुलझे सवालों का वास्ता देकर भगवान पर विश्वास करने को कहा जा रहा है जो मुझे सोचने पर मज़बूर करने की जगह वर्तमान मत को ही और भी अधिक पुष्ट करता है।
good vipul ji, nicely escaped for the questions. When you can put some questions to us... then why can't the other one do so? I am not saying you need to follow this or that... even I myself do not have the answer set.
It is some what like a person kept himself in a closed dark room and screams to everyone that see light does not exist at all.
I don't know what this light actually is ... but yes I accept the presence of light.
मेरे सवालों के जवाब मेरे पास नहीं हैं अगर होते तो वो महज़ सवाल ना होकर मेरी जानकारी या ज्ञान बन जाते। मगर मैं सवालों के जवाब ढूंढ रहा हूं और आस्तिकता ऐसा करने से रोकती है क्योंकि वो हर समस्या का समाधान भगवान में पाती है।
यद्यपि मैं नास्तिकता की तुलना अन्धेरे से नहीं कर सकता मगर आपके उदाहरण में ही अपने हिसाब से सुधार करना हो तो यह कुछ ऐसा होगा कि कोई अन्धकार में खडा होकर आंखे बन्द करके यह कल्पना करे कि उसके चारों और प्रकाश है। आंखे खोलेंगे तो प्रकाश गायब हो जायेगा मगर अन्धकार से डर लगता है और यह कल्पित प्रकाश सुविधाजनक है तो हमेशा आंखें हमेशा बन्द ही रखना चाहता है।
aankhein band kar ke aap kewal andhkaar ko hi imagine kar payenge, prakash mehsoos nahi kar payenge. Try kijiye
मित्रों, भगतसिंग के "मैं नास्तिक क्यों हूँ"
को आप यहाँ भी पढ़ सकते हैं :
http://hindinest.com/nibandh/019.htm
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)