Saturday, June 06, 2009

नदियों के प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये व्यापक नीतिगत परिवर्तन की ज़रूरत

आज विश्व पर्यावरण दिवस है। हम हैं तो हमारा पर्यावरण है, हमारा पर्यावरण है तो हम हैं। हमारा पर्यावरण अगर सेहतमंद नहीं हैं तो हम अपने स्वास्थ्य के प्रति निश्चिंत नहीं हो सकते। भारत की बहुत सी नदियों पर जलप्रदूषण-संकट के बादल मंडरा रहे हैं। हालाँकि बहुत सी योजनाएँ और सरकारी प्रयास नदियों के प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिये किये जा रहे हैं। फिर भी पर्यावरण विशेषज्ञ गोपाल कृष्ण इसे पर्याप्त नहीं मानते और नदियों के प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए व्यापक नीतिगत परिवर्तन की वक़ालत करते हैं। युवा पत्रकार रेशमा भारती ने उनसे बात की, प्रस्तुत है उसके कुछ अंश-

रेशमा- भारत में प्रदूषण स्तर को कम करने के लिये हो रहे वर्तमान प्रयास अपर्याप्त क्यों हैं?

गोपाल कृष्ण- जल की गुणवत्ता, मात्रा और भूमि का उपयोग आपस में संबन्धित विषय हैं। इसे हम संग्रहण क्षेत्र से अलग करके नहीं सुलझा सकते, जिसे ब्रिटिश साम्राज्यकाल से ही अलग-अलग कर दिया गया था। नदी के संग्रहण क्षेत्र आधारित औद्योगिकीय कदम कोई यथार्थ विकल्प नहीं है। हमारी लचर कानून व्यवस्था से जुड़ी कुछ समस्याओं और हमारे सीवेज प्लाँट की कमियों की ओर पहले ही ध्यान दिया जा चुका है। लेकिन औद्योगिकीकरण और शहरणीकरण के वर्तमान स्वरूप के कारण नदियों की बिगड़ती हालत की ओर अभी भी लोगों का ध्यान नहीं गया है। अगर हम सही मायनों में नदियों के प्रदूषण को कम करने में सफल होना चाहते हैं तो या तो हमें नियमों में व्यापक परिवर्तन करने होंगे या संपूर्ण नीति में ही बदलाव करना होगा।
दूसरा कारण यह भी है कि जो प्रदूषण के लिये जिम्मेदार हैं विशेषतरूप से वह समुदाय नदियों के किनारे निवास करते हैं और जो इसे कम करने में योगदान दे सकते हैं, दोनो में शक्ति संतुलन चाहिये। लेकिन ये शक्ति संतुलन वर्तमान में प्रदूषणकर्ता का पक्षपाती है। वर्तमान प्रणाली प्रदूषण फैलाने वालों के पक्ष में और विरोध करने वालों के विपक्ष में है। इसमें बदलाव होना चाहिये। और जो समुदाय प्रदूषण को बचाने के काम में संलग्न हैं, उन्हें इतने अधिकार मिलने चाहिये कि वो प्रदूषणकर्ताओं के सामने डटकर खड़े हो सकें। और जो समुदाय पर्यावरण की सुरक्षा में रत हैं उनके काम को महत्व मिलना चाहिये।

रेश्मा- क्योंकि नदियों को बहुत से लोग पवित्र मानते हैं तो क्या जनसाधारण को प्रदूषण समाप्त करने के लिए लामबंद किया जा सकता है?

गोपाल कृष्ण- हाँ, कुछ उदाहरण हैं जो लोगों के सम्मिलित प्रयास की क्षमता को बताते हैं। पंजाब में बाबा बलबीर सिह सीँचेवाल ने एक पवित्र नदी काली बेन जोकि 160 किमी लम्बी है। यह नदी छः कस्बों और चालीस गाँवों के लिये गंदा नाला बन चुकी थी। उसे सींचेवाल ने लोगों के सहयोग से साफ किया। ये बहुत रोचक बात है कि उन्होंने उनको चुनौती दी जिन्होंने उनका प्रतिरोध किया और कहा कि आप कोई ऐसा कानून दिखाओ जो पानी को प्रदूषित करने की अनुमति देता हो।

पवित्र नदियों पर व्यापक तर्क-वितर्क होने चाहिये। सभी नदियों के पानी के स्रोत और उनके आस पास की ज़मीन पवित्र है। हम गंगा जैसी केवल एक या दो नदियों पर ही खुद को केंद्रित नहीं कर सकते। भारत जैसे बहुसांस्कृतिक और बड़े देश में अलग-अलग स्थानों के लोगों लिए अलग-अलग नदियाँ पवित्र हैं। इसलिये नदियों में प्रदूषण को बचाने के लिये हमारी चिन्ता देश की सभी नदियों के लिये लोगों की सहभागिता सुनिश्चित करने के लिये होनी चाहिये। अगर कोई जबरन हमारे घर में घुसता है तो वो सीमा अतिक्रमण का अपराधी माना जाता है। औद्योगिक प्रदूषण हमारी रक्त वाहनियों में घुस कर स्वास्थ्य संकट पैदा कर रहा है।

राजनैतिक दल जिन्हें उद्योगपति ही फंड (धन) देते हैं, वे केवल लोगों को भावनात्मक और मौखिक आश्वासन ही देते हैं और ऐसे नीति परिवर्तन से मुँह चुराते हैं, जो नदियों के संरक्षण के लिये जरूरी हैं। सरकार चुनाव लड़ने और जनसाधारण को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए जब तक पार्टियों को धन मुहैया नहीं कराती है, तब तक नदियों की जल-गुणवत्ता, जल-उपलब्धता और भूस्वास्थ्य को सुनिश्चित कर पाना मुश्किल होगा।

रेशमा- नदियों के संरक्षण के लिये कौन से व्यापक नीति परिवर्तनों की आवश्यकता है?

गोपाल कृष्ण- नदियों का संरक्षण हमारी शहरीकरण, उद्योग, जल, भूमि, कृषि और ऊर्जा नीतियों का अभिन्न अंग होना चाहिये। नदि-घाटी के लगातार क्षरण के विपरीत परिणामों की दृष्टि में, प्राकृतिक संसाधन आधारित अंतरपीढ़ी समानता को सुनिश्चित करने के लिए मौज़ूदा नीतियों में उलट देने के अटूट तर्क हैं। तभी हम यह सुनश्चित कर पायेंगे कि नदियों का उनके सामर्थ्य से अधिक दोहन न हो। हमें इस भ्रम में भी नहीं रहना चाहिये कि प्रदूषण चाहे किसी भी स्तर तक चला जाये, हम ट्रीटमेन्ट प्लाँट लगाकर नदियों को सुरक्षित कर लेंगे। नीतियों की जटिलता, जो ये निर्धारण करती हैं कि कितना पानी नदियों में रखना है, कितने खतरनाक रसायन नदियों मे छोडे जा रहे हैं, सीवेज और औद्योगिक प्रदूषण की कितनी अधिकता होगी, ये सभी बहुत महत्वपूर्ण है। इन सभी समस्यायों के समाधान के लिए हमारे प्राकृतिक संसाधनों के नियंत्रण की नीतियों में आमूल-चूल परिवर्तन लाने की आवश्यकता है।

(यह साक्षात्कार मूल रूप से अंग्रेजी भाषा में किया गया है, जिसे हिन्दी में अनूदित करने का काम निर्मला कपिला ने किया है)

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2 बैठकबाजों का कहना है :

Shamikh Faraz का कहना है कि -

बिकुल ठीक कहा है. हम हैं तो हमारा पर्यावरण है, हमारा पर्यावरण है तो हम हैं। पर्यवरण को साफ रखने के लिए वाकई में जनसाधारण को भी अपनी महत्चपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए.

Manju Gupta का कहना है कि -

पर्यावरण samvaad se nayi jankari milie.
Hame पर्यावरण bachane ke liye chetna rally nikalni hogi.पर्यावरण ke liye mein kahungi-
"Hava jal mittie panni,
पर्यावरण ke ang.
Ritu mausam vanaspati ka,
Badal gaya dhang".
Manju Gupta

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