Thursday, June 18, 2009

जब फ्लू महाराज मेरे घर पधारे !

सच कहूं तो मैं किसी अशोक गौतम को नहीं जानता...ख़ुद-ब-ख़ुद व्यंग्य लेकर बैठक में दाखिल हो गए....बिना दस्तक दिए...हिमाचल प्रदेश जैसे दूर राज्य से चलकर आए हैं, मना कैसे करते....बताते हैं कि 20 साल पहले से ही व्यंग्य और कहानी लेखन में कलम तोड़ रहे हैं....फिलहाल, शिमला स्थित राजकीय महाविद्यालय शिमला में हिंदी संकाय में वरिष्ठ प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं....टिकने को तो जगह दे दी है, बाक़ी आप लोग तय करें कि इनसे पिंड छुड़ाना चाहते हैं कि आगे भी बर्दाश्त करते रहेंगे.....इनकी तस्वीर भी आपको दिखाए देते हैं....

जिंदगी के टंटों से बचने के लिए रोज सुबह की तरह तब भी गुणगान चालीसा पढ़ने में मग्न था कि दरवाजे पर दस्तक हुई। पहले तो सोचा कि शायद मेरी भक्ति से हनुमान जी प्रसन्न होकर टंटों से रक्षा करने के लिए आ पहुंचे हों। मैं गुणगान चालीसा और भी जोर से पढ़ता हुआ फटी पैंटलून धारण किए दरवाजे की ओर लपका। दरवाजा खोला तो सामने एक निहायत अपरिचित। वह अपरिचित किसी भी कोण से परिचित नहीं लग रहा था। चाहे कितना ही मान लेता कि गुणगान अपने भक्तों को वेश बदल कर दर्शन देते हों। बचपन में दादी मां से सुना था कि न जाने किस वेश में आ जाएं गुणगान, सो न चाहकर भी उस अपरिचित के स्वागत के लिए बाहें खोलने का नाटक करना पड़ा, `आओ गुणगान! धन भाग हमारे! हमारी कुटिया में जो आप मंहगाई के दौर में पधारे।´
मैंने मुस्कराने का सफल अभिनय किया। अपने दोस्तों के बीच निरंतर उठने बैठने से मैं अभिनय में विद्या वाचस्पति हो गया हूं।
` और भक्त कैसे हो?´
कह उस अपरिचित आगंतुक ने मेरी आंखों में झांकते हुए पूछा तो लगा अपने सारे कष्ट कट गए हरिद्वार।
` ठीक हूं प्रभु! पर आप इतनी गर्मी में।´
`हम गर्मी-सर्दी से ऊपर उठे हुए बंदे हैं।´
उसने यों कहा जैसे मुझसे मजाक कर रहा हो तो उसमें मेरी जिज्ञासा और भी बढ़ी।
` आओ भीतर आओ! पर माफ कीजिएगा मैंने आपको पहचाना नहीं। अपने असली रूप में आओ तो मैं धन्य होऊं।´
कह मैंने दोनों हाथ सविनय जोड़े तो उस आगंतुक की सांसों में सांस आई।
`यार, मैं तो डरा था कि तुम दरवाजा खोलोगे ही नहीं।पर तुमने तो मेरी पहली ही दस्तक में घर का तो घर का, दिल का द्वार भी बड़ी आत्मीयता से मेरे लिए खोल दिया। सच्चाई को जितना किताबों में पढ़ा था तुम भारतीयों का हृदय आज भी उससे हजारों गुणा विशाल है।´
`प्रभु, आज के आपाधापी के दौर में बस कम्बख्त एक यह दिल ही तो हमारे पास बचा है। बाकी तो मंहगाई मार गई। अब देखो न! मंदी के इस दौर में भगवान को जलाने वाले धूप को खरीदने के भी लाले पड़ने लगे हैं। ऊपर से साहब है कि रोज शिकायत करता है कि मेरे लिए जलाने वाले धूप की क्वालिटी सुधारो वरन् छंटनी कर दूंगा। बस, अब अपने से न तो जीते बन पड़ रहा है न मरते। समझ नहीं आ रहा कि जिआ जाए या मरा जाए। बस इसी दुविधा में जी रहा हूं।´
`यही दुविधा तो हम तुम्हारी खत्म करने के लिए आए हैं। बस, अब कुछ दिनों की बात है। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी।´
उसने कहा तो मन किया उसके पांव में ऐसे लोटूं जैसे पड़ोसी का कुत्ता मेरे पांव में लोटता है एक टुकड़ा रोटी के लिए।
` तो अंदर पधारिए न प्रभु! हमारे लिए आज भी अतिथि देवो भव ही है। वह चाहे आतंकी ही क्यों न हो।´
`सच!! अगर मैं कहूं कि मैं भी आतंकी ही हूं तो?´
` पचास का हो गया अतिथि! इतना तो आज का बच्चा भी जानता है कि जो आदमी कहता है असल में वो होता नहीं और जो वह कहता नहीं असल में वह वह ही होता है।´
कह मैं उस अपरिचित को मुस्कराते हुए भीतर ले आया।
पत्नी को ठंडा लाने के लिए कहा तो वह गर्म ले आई। अपरिचित ने मुस्कराते हुए गर्म ही ठंडा समझ पीना शुरू करते कहा,` डांट वरी! वैवाहिक जीवन की एक उम्र पार करने के बाद सबके साथ ऐसा ही होता है। और गृहस्थी कैसी चली है?´
`चली क्या बस खींच रहे हैं जनाब छाले पड़े पैरों पर। मां को चार साल से लकवा हो गया है। बापू सरकारी अस्पताल के हो कर रह गए हैं। जितने दिन सरकारी अस्पताल में रहते हैं, ठीक रहते हैं, घर आते ही फिर वही हाल हो जाते हैं। पहला बेटा एमबीए कर फैक्टरी फैक्टरी की धूल फांक रहा है। दूसरा एमए कर रहा है। बेटी विवाह लायक हो गई है, पर कहीं सुयोग्य तो छोड़िए योग्य वर दूर दूर तक नहीं दिखाई दे रहा। ऊपर से पत्नी है कि दिन पर दिन ढलती जा रही है। ´

मैंने अपनी व्यथा कही तो वह आगंतुक गंभीर होने के बदले मुस्कराने लगा। काफी देर तक मुस्कराने के बाद बोला,
`और?´
` और क्या! ऊपर से साहब की रोज़-रोज़ की किच किच!´ कहते कहते रोना निकलन को आ गया पर उम्र का ख्याल आते ही हिम्मत कर दांत कस लिए।
`बस, अब मैं आ गया न, अब चिंता की कोई बात नहीं। अब पूरे देश में सब ठीक हो जाएगा।´
`पर हे आगंतुक आप हो कौन? आप तो ऐसे कह रहे हो जैसे इन दिनों यूपीए सरकार बोलती है।´
` बंधु, मैं स्वाइन फ्लू हूं। सरकार से बड़ा, बहुत बड़ा।´
कह उसने गिलास किनारे रख ठहाका लगाया।
`तो?´
`तो क्या! कहीं भी मुझे शरण नहीं मिली। सोचा भारत में तो कम से कम मुझे शरण मिलेगी ही। इतिहास गवाह है । वर्तमान गवाह है। इसलिए सब छोड़ चला आया। और देखो! तुमने मेरा किस गर्मजोशी से भी स्वागत किया।´
`पर यहां तुम करोगे क्या?´
`सबको बेहाल कर कर मारूंगा।´
`यहां तो सभी पहले से ही बेहाल होकर मर रहे हैं। बेकारी से भी बड़ी बेहाली और कोई होती है क्या? भुखमरी से भी बड़ी बेहाली और कोई होती है क्या? गरीबी से भी बड़ी और कोई बेहाली होती है क्या? पल पल के भय से बड़ी बेहाली और होती है क्या?ऐसे में तुम हमें क्या बेहाल करोगे, देख लेना चार दिन बाद खुद ही बेहाल होकर यहां से चले न गए तो तुम्हारे जूते पानी पीऊं।´


मैंने कहा तो उसने मेरे पांव छुए और सिर झुकाए उदास चेहरा लटकाए चला गया। उसे जाते देख पत्नी के चेहरे की रौनक देखने लायक थी।..... जो कोई अपनी व्यथा सुनावै...


डा. अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड,सोलन-173212 हि.प्र.

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5 बैठकबाजों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

अच्छा व्यंग्य लेख....इन्हें बैठक पर टिकने दें...बैठक सेमुझे भी जुड़ना है....

अनिल

प्रवीण त्रिवेदी का कहना है कि -

अरे बैठक में यह भी गुंजाइश ??

सर मुंडाते ओले!!



वैसे मुझे तो व्यंग अच्छा लगा ...... बकिया तो आप जाने!!

Shamikh Faraz का कहना है कि -

हा हा हा पढ़कर अच्छा लगा.

Disha का कहना है कि -

अच्छा व्यंग है.इससे पता लगता है कि "कब्र का हाल मुर्दा ही जानता है"
बैठक में स्वागत है आपका.

Manju Gupta का कहना है कि -

Lekh ke to gungan kar raha hai.
Shishak bhi vyang vala hai. Badhayi.

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