Sunday, May 31, 2009

बीड़ी, सिगरेट व तम्बाकू का सेवन: नरक से बदत्तर जीवन

31 मई, 2009- विश्व तम्बाकू निषेध दिवस पर विशेष

कब और कैसे आया भारत में तम्बाकू का नशा

भारत में अकबर बादशाह से पूर्व तंबाकू के प्रयोग का पता नहीं चलता है। कहा जाता है कि जब अकबर के दरबार में वर्नेल नामक पुर्तगाली आया तो उसने अकबर बादशाह को तंबाकू और एक जड़ाऊ बहुत सुन्दर बड़ी सी चिलम भेंट की। बादशाह को चिलम बड़ी पसन्द आई और उसने चिलम पीने की तालीम भी उसी पुर्तगाली से ली। अकबर को धुम्रपान करते देखकर उसके दरबारियों को बहुत आश्चर्य हुआ और उनकी इच्छा भी तंबाकू के धुएं को गले में भरकर बाहर फेंकने की हुई। इस प्रकार भारत में सन् 1609 के आसपास धूम्रपान की शुरूआत हुई। कुछ विद्वानों के अनुसार तंबाकू को सबसे पहले अकबर बादशाह का एक उच्च अधिकारी बीजापुर से लाया था और उसे सौगात के तौरपर बादशाह को भेंट किया था।

तब भारत के लोगों ने तंबाकू को चिलम में रखकर पीया। वैसे तंबाकू, बीड़ी, सिगरेट आदि विदेशी संस्कृति का हिस्सा हैं। प्रारंभ में अमेरिका में लोगों ने तंबाकू को पत्ते में लपेटकर बीड़ी के रूप में पिया और इंग्लैण्ड के लोगों ने तंबाकू को कागज में लपेटकर सिगरेट के रूप में इस्तेमाल किया।

भारत में हुक्के की शुरूआत मुगलकाल के दौरान हुई थी। पन्द्रहवीं सदी में अकबरी सल्तनत में वैध अब्दुल ने हुक्के का आविष्कार किया था। उनका कहना था कि पानी के माध्यम से होने वाले धूम्रपान से सेहत को कोई नुकसान नहीं होता है। जबकि शोधों में यह तथ्य एकदम गलत साबित हुआ है।
2 अक्तूबर, 2008 को गाँधी जयन्ती से पूरे देशभर में अधिसूचना जीएसआर 417 (ई) दिनांक 30 मई, 2008 के अनुरूप केन्द्र सरकार ने ‘सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान’ से संबंधित नियम संशोधित करके पूर्णत लागू कर दिया है। इन संशोधित नियमों के अन्तर्गत सभी सार्वजनिक स्थानों पर सख्ती से निषिद्ध है। ‘सार्वजनिक स्थलों’ में आडिटोरियम, अस्पताल भवन, स्वास्थ्य स्थान, मनोरंजन केन्द्र, रेस्टोरेंट, सार्वजनिक कार्यालय, न्यायालय भवन, षिक्षण संस्थान, पुस्तकालय, सार्वजनिक यातायात स्थल, स्टेडियम, रेलवे स्टेशन, बस स्टॉप, कार्यषाला, शॉपिंग मॉल, सिनेमा हॉल, रिफ्रेशमेंट रूम, डिस्को, कॉफी हाऊस, बार, पब्स, एयरपोर्ट लॉज आदि शामिल किए गए हैं। इस एक्ट के तहत जो भी व्यक्ति उल्लंखन करेगा उस पर 200 रूपये के आर्थिक दण्ड के साथ दंडात्मक कार्यवाही करने का प्रावधान किया गया है। इस एक्ट के तहत यह भी प्रावधा किया गया है कि जिन होटलों के पास 30 या अधिक रूम अथवा रेस्टोरेंट के पास 30 व्यक्तियों की क्षमता की सीट अथवा अधिक तथा एयरपोर्ट को अलग धूम्रपान क्षेत्र अथवा जगह, नियमों के द्वारा जैसा आवष्यक हो को प्रदान/रखना होगा। अधिनियम के तहत मालिक, प्रोपराइटर, प्रबन्धक, सुपरवाइजर अथवा सार्वजनिक स्थानों के मामलों के प्रभारी यह सुनिष्चित करेंगे कि कोई भी व्यक्ति सार्वजनिक स्थलों में धूम्रपान न करें, अधिनियम की अनुसूची-2 में वर्णितानुसार बोर्ड महत्वपूर्ण स्थलों तथा सार्वजनिक स्थल के प्रवेष द्वारों पर विषेष रूप से नियमों को प्रदर्षित करें और धूम्रपान हेतु दी जो वाली एस्टेªज, माचिस, लाइटर तथा अन्य सामान सार्वजनिक स्थल में मुहैया नहीं कराई जाएगी।

किसने क्या कहा धूम्रपान के बारे में
 महात्मा गांधी ने कहा है, ‘अब तक मैं यह न समझ पाया कि तंबाकू पीने का इतना जबरदस्त शौक लोगों को क्यों है? नशा हमारे धन को ही नष्ट नहीं करता, वरन स्वास्थ्य और परलोक को भी बिगाड़ता है।’
 मनुस्मृति में लिखा है, ‘जो व्यक्ति धूम्रपान करने वाले ब्राह्मण को दान देता है, वह देने वाला व्यक्ति नरक में जाता है और ब्राह्मण ग्राम शूकर बनता है।’
 भारत के भूतपूर्व स्वास्थ्य मंत्री करमरकर ने लोकसभा में कहा था, ‘भारत के लोगों को धूम्रपान करने और तंबाकू चबाने की आदत छोड़नी चाहिए, क्योंकि तंबाकू के जहर और कैंसर की बीमारी में गहरा संबंध है।’
 डा. चुन्नी लाल का कहना है, ‘धूम्रपान से मानसिक कार्य करने की शक्ति क्षीण हो जाती है, स्मरण शक्ति नष्ट हो जाती है और मनुष्य आलसी हो जाता है।’
 पंडित ठाकुर दत्त शर्मा के अनुसार, ‘तंबाकू समस्त हृदय रोगों, फेफड़ों, त्वचा रोगों, नेत्र रोगों, मस्तिष्क की निर्बलता और उन्माद की जननी है।’
 प्रो. हिचकान का मानना है , ‘शराब या अन्य मादक पदार्थों की अपेक्षा तंबाकू से बृद्धि की हानि होती है, इसके समान, इंद्रिय दौर्बल्य, बुद्धि तथा स्मरण शक्ति की हानि और मस्तिष्क के रोग पैदा करने वाली दूसरी वस्तु नहीं है।’
 पागलों के विश्व प्रसिद्ध विशेषज्ञ डा. फोर्वसविन्सला के अनुसार, ‘यदि मुझसे पूछा जाए तो मैं पागलपन के कारण को इस क्रम में रखूंगा-मद्य, तंबाकू और परंपरागत।’
अधिनियम के तहत मालिक, प्रोपराइटर, प्रबंधक, सार्वजनिक स्थलों के मामलों के प्रभारी अथवा सुपरवाईजर किसी भी प्रकार का उल्लंघन किये जाने की शिकायत वाले व्यक्ति के नाम को प्रमुखता से सूचित अथवा प्रदर्शित करेंगे। यदि सार्वजनिक स्थलों के मालिक, प्रोपराइटर, मैनेजर, सुपरवाइजर अथवा प्राधिकृत अधिकारी ऐसे उल्लंघन की रिपोर्ट पर कार्यवाही करने में असफल रहते हैं तो मालिक, प्रोपराइटर, प्रबन्धक, सुपरवाइजर अथवा प्राधिकृत अधिकारी को व्यक्तिगत अपराधों की संख्या के समकक्ष अर्थ दण्ड भुगतान करना पड़ेगा। निष्चित तौरपर इस तरह के कानून की देष में सख्त आवश्यकता थी। अन्य देषों अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, नार्वे, ब्रिटेन, इटली, पाकिस्तान, भूटान, बांग्लादेश, नेपाल आदि में भी धूम्रपान प्रतिबंध कानून लागू हैं। ब्रिटेन में धूम्रपान प्रतिबंध कानून का उल्लंघन करने वालों पर 50 यूरो और इटली में 275 यूरो जुर्माना वसूल किया जाता है।
भारत सरकार ने 18 मई, 2003 को तम्बाकू नियन्त्रण कानून का निर्माण किया था। मई, 2004 में देश में पहली बार धूम्रपान पर प्रतिबन्ध लगाया गया। इस प्रतिबंध के नियमों में मई, 2005 में संशोधन किया गया। वैसे तम्बाकू सेवन पर रोक लगाने के मामले में भारत का हमेषा अग्रणीय स्थान रहा है। इसी के चलते भारत ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के फ्रेमवर्क कनवेंशन ऑन टोबैको कंट्रोल (एफसीटीसी) पर भी भारत ने हस्ताक्षर किए हुए हैं। सरकार ने 11वीं पंचवर्षीय योजना के तहत राष्ट्रीय तम्बाकू नियन्त्रण कार्यक्रम (एनटीसीपी) लागू किया है, जिसके तहत देश के अधिकतर जिलों को सशक्त किया जाएगा और 450 करोड़ रूपये की राशि खर्च की जाएगी।

हमारे देश में भी कानूनी अधिनियम के तहत सख्ती से पालन करवाकर सार्वजनिक स्थलों पर धूम्रपान पर प्रतिबंध लगाने के लिए कमर कसी जा चुकी है। सार्वजनिक स्थानों पर धूम्रपान पर प्रतिबंध लगाने का अभियान एक ऐसा महाभियान है, जिसमें समस्त मानव जाति का कल्याण समाहित है। इसलिए इस अभियान को सफल बनाने के लिए जन जन की अति आवश्यक है। यह तभी संभव है जब समाज में धूम्रपान के प्रति कानूनी सख्ती का डर पैदा करने की बजाय धूम्रपान के घातक दुष्प्रभावों के प्रति सजगता पर जोर देना चाहिए। जब समाज के प्रत्येक व्यक्ति को धूम्रपान के घातक दुष्प्रभावों का पता लगेगा तो वह स्वतः ही धूम्रपान के प्रति घृणा करेगा व उससे परहेज बरतेगा।

तम्बाकू बीड़ी, सिगरेट, हुक्का आदि के माध्यम से अधिकतर प्रयोग किया जाता है। तम्बाकू में निकोटिन, कोलतार, आर्सेनिक एवं कार्बन मोनोक्साइड गैस समाहित होती है। तम्बाकू का विषैला प्रभाव मनुष्य के रक्त को बुरी तरह दूषित कर देता है। धूम्रपान करने वाले के चेहरे के मुख का तेज समाप्त हो जाता है। तम्बाकू में निकोटिन के रूप में सबसे बड़ा विष मौजूद होता है। इससे हमारी सुंघने की शक्ति, आँखों की ज्योति और कानों की सुनने की शक्ति बहुत प्रभावित होती है। निकोटिन विष के कारण चक्कर आने लगते हैं, पैर लड़खड़ाने लगते हैं, कानों में बहरेपन की षिकायत पैदा हो जाती है, पाचन क्रिया बिगड़ जाती है और कब्ज व अपच जैसी बिमारी का जन्म हो जाता है। निकोटीन से ब्लडप्रेशर (रक्तदाब) बढ़ता है, रक्त-नलियों में रक्त का स्वभाविक संचार मंद पड़ जाता है और त्वचा सुन्न सी होने लगती है, जिससे त्वचा की अनेक तरह की बिमारियां पैदा हो जाती हैं। निकोटीन का धुँआ जीर्ण-खाँसी का रोग पैदा कर देता है। खाँसी का रोग बढ़ता-बढ़ता दमा, श्वाँस और तपैदिक का भयंकर रूप धारण कर लेता है।

एक पौण्ड तम्बाकू में निकोटीन नामक जहर की मात्रा लगभग 22.8 ग्राम होती है। इसकी 1/3800 गुनी मात्रा (6 मिलीग्राम) एक कुत्ते को तीन मिनट में मार देती है। ‘प्रेक्टिशनर’ पत्रिका के मुताबिक कैंसर से मरने वालों की संख्या 112 प्रति लाख उनकी है, जो धूम्रपान करते हैं। सिगरेट-बीड़ी पीने से मृत्यु संख्या, न पीने वालों की अपेक्षा 50 से 60 वर्ष की आयु वाले व्यक्तियों में 65 प्रतिषत अधिक होती है। यही संख्या 60 से 70 वर्ष की आयु में बढ़कर 102 प्रतिशत हो जाती है। धूम्रपान करने वालों में जीभ, मुँह, श्वाँस, फेफड़ों का कैंसर, क्रानिक बोंकाइटिस एवं दमा, टीबी, रक्त कोशिकावरोध जैसी अनेक व्याधियां पैदा हो जाती हैं। भारत में मुँह, जीभ व ऊपरी श्वाँस तथा भोजन नली (नेजोरिंक्स) का कैंसर सारे विश्व में की तुलना में अधिक पाया जाता है। इसका कारण बताते हुए एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटेनिका लिखता है कि यहाँ तम्बाकू चबाना, पान में जर्दा, बीड़ी अथवा सिगरेट को उल्टी दिशा में पीना (रिवर्स स्मोकिंग) एक सामान्य बात है। तम्बाकू में विद्यमान कार्सिनोर्जिनिक्र एक दर्जन से भी अधिक हाइड्रोकार्बन्स जीवकोशों की सामान्य क्षमता को नष्ट कर उन्हें गलत दिषा में बढ़ने के लिए विवश कर देते हैं, जिसकी परिणति कैंसर की गाँठ के रूप में होती है। भारत में किए गए अनुसंधानों से पता चला है कि गालों में होने वाले कैंसर का मुख्य कारण खैनी अथवा जीभ के नीचे रखी जाने वाली, चबाने वाली तम्बाकू है। इसी प्रकार गले के ऊपरी भाग में, जीभ में और पीठ में होने वाला कैंसर बीड़ी पीने से होता है। सिगरेट से गले के निचले भाग में कैंसर होता पाया जाता है, इसी से अंतड़ियों का भी कैंसर संभव हो जाता है।

शायद कम लोगों को पता होगा कि एक सिगरेट पीने से व्यक्ति की 5 मिनट आयु कम हो जाती है। 20 सिगरेट अथवा 15
बीड़ी पीने वाला एवं करीब 5 ग्राम सुरती, खैनी आदि के रूप में तंबाकू प्रयोग करने वाला व्यक्ति अपनी आयु को 10 वर्ष कम कर लेता है। इससे न केवल उम्र कम होती है, बल्कि शेष जीवन अनेक प्रकार के रोगों एवं व्याधियों से ग्रसित हो जाता है। सिगरेट, बीड़ी पीने से मृत्यु संख्या, न पीने वालों की अपेक्षा 50 से 60 वर्ष की आयु वाले व्यक्तियों में 65 प्रतिषत अधिक होती है। यही संख्या 60 से 70 वर्ष की आयु में बढ़कर 102 प्रतिषत हो जाती है। सिगरेट, बीड़ी पीने वाले या तो शीघ्रता से मौत की गोद में समा जाते हैं या फिर नरक के समान जीवन जीने को मजबूर होते हैं। भारत में किए गए अनुसन्धानों से पता चला है कि गालों में होने वाले कैंसर का प्रधान कारण खैनी अथवा जीभ के नीचे रखनी जाने वाली, चबाने वाली तंबाकू है। इसी प्रकार ऊपरी भाग में, जीभ में और पीठ में होने वाला कैंसर बीड़ी पीने के कारण होता है। सिगरेट गले के निचले भाग में कैंसर करती है और अंतड़ियों के कैंसर की भी संभावना पैदा कर देती है।
कुल मिलाकर धूम्रपान से स्वास्थ्य, आयु, धन, चैन, चरित्र, विष्वास और आत्मबल खो जाता है और इसके विपरीत दमा, कैंसर, हृदय के रोग, विविध बिमारियों का आगमन हो जाता है। यदि हमें एक स्वस्थ एवं खुशहाल जिन्दगी हासिल करनी है तो हमें तंबाकू का प्रयोग करना हर हालत में छोड़ना ही होगा। ऐसा करना कोई मुश्किल काम नहीं है। तंबाकू का प्रयोग दृढ़ निष्चय करके ही छोड़ा जा सकता है।


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तम्बाकू में पाए जाने वाले विष और उसके दुष्परिणामहानिकारक तत्व का नाम होने वाले रोग
निकोटिन कैंसर, ब्लड प्रैशर
कार्बन मोनोक्साइड दिल की बीमारी, दमा, अंधापन
मार्श गैस शक्तिहीनता, नपुंसकता
अमोनिया पाचन शक्ति मन्द, पित्ताषय विकृत
कोलोडान स्नायु दुर्बलता, सिरदर्द
पापरीडिन आँखों में खुसकी, अजीर्ण
कोर्बोलिक ऐसिड निद्रा, चिड़चिड़ापन, विस्मरण
परफैरोल दांत पीले, मैले व कमजोर
ऐजालिन सायनोजोन रक्त विकार
फॉस्फोरल प्रोटिक एसिड उदासी, टी.बी., खांसी एवं थकान

धूम्रपान के लिए दण्ड विधान

 धूम्रपान के घातक दुष्प्रभावों को देखते हुए विष्व में कई बार दण्ड विधान बनाए गए।
 भारत में जहांगीर बादशाह ने तंबाकू का प्रयोग करने वालों को यह सजा निर्धारित कर रखी थी कि उस आदमी का काला मुंह करके और गधे पर बैठाकर पूरे नगर में घुमाया जाए।
 तुर्की में जो लोग धुम्रपान करते थे, उनके होंठ काट दिए जाते थे। जो तंबाकू सूंघते थे, उनकी नाक काट दी जाती थी।
 ईरान में भी तंबाकू का प्रयोग करने वालों के लिए कड़े शारीरिक दण्ड की व्यवस्था थी।

हुक्का अथवा चिलम भी है सेहत के लिए अत्यन्त घातक

काफी बुजुर्गों का मानना है कि हुक्के में पानी के जरिए तंबाकू का धुंआ ठण्डा होकर शरीर में पहुंचता है। इसलिए हुक्के से तंबाकू पीने पर हमें कोई नुकसान नहीं होता है। हाल ही में जयपुर में हुए एक विशेष शोध में इस तथ्य का पता चला है कि हमारा पंरपरागत हुक्के का सेवन सिगरेट से दस गुणा अधिक हानिकारक है।
जयपुर एसएमएस अस्पताल मेडिकल कॉलेज और अस्थमा भवन की टीम की रिसर्च के मुताबिग हुक्का और चिलम छोड़ देने में ही भलाई है, क्योंकि हुक्के में कार्बन मोनोक्साइड सिगरेट की तुलना में ज्यादा घातक है।

आंकड़े बोलते हैं

 भारत में 50 प्रतिशत पुरूष और 20 प्रतिशत महिला कैंसर का शिकार हैं।
 90 प्रतिशत मुंह का कैंसर, 90 प्रतिशत फेफड़े का कैंसर और 77 प्रतिशत नली का कैंसर धूम्रपान सेवन करने से है।
 धूम्रपान जनित रोगों से निपटने में भारत सरकार का लगभग 27 हजार करोड़ रूपया प्रतिवर्ष खर्च हो रहा है।
 चीन और ब्राजील के बाद भारत तीसरा सबसे बड़ा तम्बाकू उत्पादक देश है।
 20 फीसदी तम्बाकू का इस्तेमाल सिगरेट में होता है।
 तंबाकू उद्योग से 40 हजार करोड़ का मुनाफा होता ळें
 20 करोड़ लोग देश में धूम्रपान की चंगुल में हैं।
 45 लाख लोग दिल की बीमारी से ग्रसित हैं।
 8 लाख लोग हर वर्ष तम्बाकू उत्पादों से सेवन करने के कारण मौतें होती हैं।
 विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार चीन में 30 प्रतिषत लोग, भारत में 11 प्रतिशत लोग, रूस में 5.5 प्रतिशत, अमेरिका में 5 प्रतिशत और जर्मनी में 2.5 प्रतिशत लोग धूम्रपान करते हैं।
 विश्व में हर 8 सेकिण्ड में धूम्रपान की वजह से एक व्यक्ति की मौत हो रही है।
 एक शोध के अनुसार यदि वर्तमान में चल रही धूम्रपा की प्रवृति को न रोका गया तो वर्ष 2010 तक देश में धूम्रपान से मरने वालों की सालाना संख्या 10 लाख तक पहुंच जाएगी।
 मोंटाना (अमेरिका) में 2002 में धूम्रपान पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद हार्ट अटैक की घटनाओं में 40 प्रतिशत की कमी आंकी गई।
 भारत में प्रतिवर्ष 1.5 लाख व्यक्ति धूम्रपान जन्य रोगों से ग्रसित हो जाते हैं।

(-राजेश कश्यप)
स्वतंत्र लेखक, समीक्षक एवं पत्रकार।
Mob. 09416629889, e-mail. rkk100@rediffmail.com, www.kashyapkikalamse.blogspot.com

Friday, May 29, 2009

सारे तीरथ बार-बार, गंगासागर एक बार...

कलकत्ता पहुँचने के बाद से बस यही सुन रहे थे हम। सुबह-सुबह 3:30 बजे हम भुवनेश्वर से कोलकाता पहुँचे। हमारा उद्देश्य था गंगासागर जाने का। एक ऐसा धाम जिसके लिये कहा जाता है कि चाहे आप किसी और धाम पर कितनी ही बार चले जायें, आपको उतना पुण्य नहीं मिल पाता जितना एक बार गंगासागर जाकर मिल जाता है। कोलकाता से करीबन 100 किमी दूर वो जगह जहाँ से हमें स्टीमर पकड़ना था। हम इस बात से अंजान थे कि हमें कितने तरह के यातायात के साधनों का प्रयोग करना पड़ेगा। टैक्सी वाला हमें समुद्र किनारे ले आया।

हम यह सोच कर यात्रा के लिये निकले थे कि बस समुद्र पहुँचकर ही यात्रा समाप्त हो जायेगी। पर ऐसा नहीं था। टैक्सी वाले ने आने-जाने के 1600 रू लिये। 200 किमी के इतने रूपये बहुत ज्यादा लग रहे थे। किनारे पर पहुँच कर हमें पता चला कि हमें स्टीमर लेना होगा। सुबह सुबह 5:30 बजे हम वहाँ थे। उस जगह से हमें एक टापू साफ़ दिखाई दे रहा था।

तट से टापू का दृश्य:


टापू का नाम था- सागर। 6.50 रू प्रति यात्री की टिकट थी और करीबन 20 मिनट में हम उस टापू पर थे। क्या हम अपने गंतव्य पर पहुँच गये?

नहीं, अभी तो 30 किमी का सफ़र और तय करना बाकि था। हमने वहाँ से वैन करी। आपको बस, क्वालिस, कार सब कुछ मिल सकता है। 45 मिनट से एक घंटे के बीच में आप फिर एक जगह पहुँच जायेंगे।
और यह है कपिल मुनि का मंदिर।


यहाँ पवनचक्की से पैदा करी जाती है बिजली:



यहाँ से आपको 5 मिनट और पैदल चलना होगा। फिर हम उस जगह पहुँच गये जहाँ पहुँचने का हम पिछले 12 घंटे से इंतज़ार कर रहे थे। गंगा का सागर में विलय!!!
गंगासागर के विहंगम का दृश्य:


दूर से दिखाई देते केकड़े:


नज़दीक से देखने पर कुछ ऐसे लगते है:


मकरसक्रांति पर यहाँ स्नान करने के लिये लाखों की संख्या में लोग आते हैं। कहते हैं कि जिस स्टीमर बैठ कर हम 20 मिनट में "सागर" टापू पर आ गये थे, उस स्टीमर में बैठने के लिये 7-8 घंटे तक का इंतज़ार करना पड़ता है!!!

हिमालय से निकली गंगा, बंगाल की खाड़ी में जा मिलती है और उस जगह को गंगासागर का नाम दे दिया जाता है। पर कपिल मुनि का मंदिर? हमें समझ नहीं आया। फिर पुजारी जी से इसकी कथा सुनी। अयोध्या के राजा सागर ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। इंद्र को लगा कि यदि यह यज्ञ सफल हो गया तो उसका महत्व कम हो जायेगा। इसलिये उसने कपिल मुनि के तपस्या के स्थान के निकट घोड़े को बाँध दिया। राजा सागर के 60,000 बच्चे थे। वे सभी अश्व की तलाश में उस स्थान तक पहुँच गये। उन्होंने सोचा कि मुनि ने ही घोड़े को बाँध लिया है। इसलिये वे उन पर आरोप लगाने लगे। कपिल मुनि को इससे क्रोध आ गया और जैसे ही उन्होंने तपस्या से आँखें खोली, सारे भाई भस्म हो गये। इसलिये इस स्थान पर कपिल मुनि का मंदिर है और उन्हें पूजा जाता है।


(बीच में कपिल मुनि, दाईं ओर राजा सागर और बाईं ओर माँ गंगा)

इन भाइयों के चचेरे भाई थे भगीरथ। भगीरथ ने अपने भाइयों को जीवित करने के लिये ब्रह्मा जी की तपस्या करी। ब्रह्मा जी ने कहा कि यह तभी सम्भव है जब गंगा जी पृथ्वी पर जायें। उनका वेग बहुत अधिक था, इसलिये शंकर जी की सहायता ली। उन्होंने अपनी जटाओं से गंगा के वेग को धीमा किया और गंगा जी धरती पर आईं। वही गंगा बाद में सागर से जा मिली और बन गया गंगासागर।

सारे तीरथ बार-बार, गंगासागर एक बार...

--तपन शर्मा

Wednesday, May 27, 2009

फार्मूलों से न जिंदगी चलती है न राजनीति

अब हर कोई यह कह रहा है कि उत्तर प्रदेश में मायावती का सोशल इंजिनियरिंग का फार्मूला फेल हो गया। जब इस फार्मूले के बल पर मायावती उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बन गईं, उस वक्त कहा जा रहा था कि मायावती का सोशल इंजिनियरिंग का फार्मूला चल निकला। उन दिनों बसपा नेता की कुशाग्र बुद्धि की जम कर प्रशंसा की जा रही थी और यह उम्मीद की जाने लगी थी कि जल्द ही वे भारत की प्रधानमंत्री बन जाएं, तो यह हैरत की बात नहीं होगी। बहन जी खुद भी ऐसा सोचती थीं। यह भी कहा जा सकता है कि बहन जी खुद ऐसा सोचती थीं, इसलिए हमारे विद्वान लोग भी ऐसा ही सोचने लगे थे। हमारे विद्वान देखते तो हैं – पर उधर नहीं जिधर सत्य होता है, बल्कि उधर जिस तरफ हवा चल रही होती है। अब हवा मायावती के उलटी दिशा में चल रही है, तो कहा जाने लगा है कि उन्होंने अपनी बनती हुई इमारत को अपने ही पैरों से धक्का दे कर नेस्तनाबूद कर दिया। विद्वानों को इससे कोई मतलब नहीं है कि सोशल इंजिनियरिंग क्या चीज है, यह कैसे काम करती है और इसका संचालन कैसे करना चाहिए।

अनाड़ी हाथों में पड़ कर अच्छा से अच्छा फार्मूला भी फेल हो सकता है। लेकिन मूल बात यह नहीं है। मूल बात यह है कि फार्मूले गणित और विज्ञान में ही गुल खिला सकते हैं, जहां दो और दो हमेशा चार होते हैं तथा दस में से पांच निकाल दो तो हमेशा पांच ही बचेगा। जिंदगी में ऐसा नहीं होता। यहां चार करो तो नतीजा आठ भी हो सकता है और दो भी हो सकता है। इसी में जिंदगी का रोमांच है। नहीं तो वह एकरस हो जाती। इसीलिए जब से जिंदगी की पेचीदगी बढ़ी है, दुनिया भर में ऐसी किताबों की बाढ़ आ गई है जो सुख से जीने और सफलता पाने के गुर सिखाती हैं। ऐसी किताबों की एक पीढ़ी लोकप्रिय हो जाने के बाद जब बाजार में दम तोड़ देती है, तो उनकी दूसरी पीढ़ी जन्म लेती है। इस तरह सुख-शांति-सफलता-समृद्धि-नेतृत्व देने के फार्मूले पानी के बुलबुलों की तरह पैदा होते रहते हैं और उन्हीं की तरह शीघ्रमृत्यु के शिकार हो जाते हैं। पर जिंदगी इतनी पेचीदा चीज है कि समस्याओं का पैदा होना बंद नहीं होता। बताते हैं कि चुनाव प्रचार के दिनों में लालकृष्ण आडवाणी को जब भी थोड़ा-सा वक्त मिलता था, वे डेल कार्नेगी की एक समय बहुत बिकनेवाली पुस्तक ‘हाउ टू विन फ्रेंड्स एंड इंफ्लुएंस पीपल’ पढ़ने लगते थे। इसमें दी गई शिक्षाओं के आधार पर आडवाणी ने कितने मित्र बनाए और कितने लोगों को प्रभावित किया, यह कोई नहीं जानता। अगर फार्मूलों पर अमल करने से हर विवाह सफल हो जाता, हर संबंध सरस हो जाता, हर व्यवसाय प्रगति करने लगता और हर क्षेत्र में सफलता मिलती होती, तो धरती पर इतना दुख-दैन्य दिखाई नहीं देता।

फिर भी फार्मूलाबाजी चलती रहती है तो इसीलिए कि सभी लोग सफलता का शॉर्टकट खोजते रहते हैं। पैदल, साइकिल या मोटरगाड़ी के लिए शॉर्टकट हो सकते हैं, पर जिंदगी का सफर इतना सीधा नहीं है। यहां कोई भी फार्मूला काम नहीं करता। हर आदमी को हर चीज की खोज अपने ढंग से करनी होती है। टाटा घराना अपने ढंग से सफल हुआ तो अंबानी ग्रुप अपने ढंग से। बिड़ला परिवार का तरीका कुछ और था। बीआर चोपड़ा और ह्मषीकेश मुखर्जी, दोनों की फिल्में हिट होती थीं, पर दोनों का फिल्म बनाने का तरीका अलग-अलग था। अमिताभ बच्चन अगर राजेश खन्ना की तरह अभिनय करते और गुलजार आनंद बख्शी की तरह गीत लिखते, तो वे आज इतिहास के डस्टबिन में होते।

मायावती ने जब अवर्ण-सवर्ण एकता तथा सद्भाव की खोज की – किसी नई राजनीति की पीठिका के तौर पर नहीं, बल्कि राजनीतिक सफलता के शॉर्टकट के रूप में, तो वे एक फार्मूले की रचना कर रही थीं – न उनका निजी परिप्रेक्ष्य बदल रहा था, न उनकी राजनीति में परिवर्तन आ रहा था, न उनके कामकाज के तरीके बदल रहे थे। वे जानती थीं कि ओबीसी उनके साथ आएँगे नहीं, मुसलमान उनके बाएं बाजू की तरह जाना शुरू कर चुके हैं, इसलिए दलितों के साथ चलने के लिए ऊंची जातियों को ही लुभाया जा सकता है, जो अब तक की अपनी उपेक्षा से संतप्त थे। यही मायावती ने किया -- अपनी बुद्धि से किया या किसी सवर्ण सलाहकार की बात मान कर किया, यह मायावती के जीवनीकार जानें। फार्मूला हिट हो गया और उत्तर प्रदेश का मुकुट उड़ते हुए बहन जी के सिर पर आ बैठा। दुर्भाग्यपूर्ण घटना यह हुई कि इसके नतीजे में, इतने बड़े राज्य के मुख्यमंत्री के रूप में, बहन जी का दायित्व बोध तो नहीं जागा, उनकी महत्वाकांक्षा के पटाखे में दियासलाई जरूर लग गई। अब उनके पैर उत्तर प्रदेश नामक अभागे राज्य के जूते से बहुत बड़े हो गए और वे प्रशासन तथा विकास की चुनौतियों को भुला कर दिल्ली का सिंहासन खरीदने के लिए रुपयों का हिमालय खड़ा करने में लग गर्इं। वे अपनी पार्टी के हर सांसद, विधायक और कार्यकर्ता को, सरकार के हर विभाग को, हर विभाग के हर अफसर को अपने ‘प्रधानमंत्री सहायता कोष’ का चलता-फिरता एटीएम समझने लगीं। यहीं से उनके पैर डगमगाने लगे।

सत्ता महत्वाकांक्षा का बोझ सहन करती है, लेकिन एक हद तक ही। जब उसने एक समय इंदिरा गांधी की आदमकद से बड़ी महत्वाकांक्षाओं का बोझ वहन करने से इनकार कर दिया और उत्तर भारत में कांग्रेस की एक भी सरकार न रहने दी, तो मायावती किस खेत की मूली हैं। अब वे कार्यकर्ताओं और अफसरों को डांट-फटकार रही हैं कि तुम्हीं लोगों के कारण मेरी हार हुई। इसके बजाय अगर वे किसी आदमकद आईने के सामने खड़ी हो जातीं, तो उन्हें अपनी हार के लिए जिम्मेदार एकमात्र व्यक्ति तुरंत दिख जाता। पर यह प्रकृति की माया है कि आंखें खुद को देखने के लिए बनाई ही नहीं गई हैं और आईने के सामने हर आदमी को अपना चेहरा प्यारा लगता है।

सड़क सभी को चाहिए – चाहे वह दलित हो, या पिछड़ा या मुसलमान या बाभन-ठाकुर। बिजली भी सभी को चाहिए। अच्छा प्रशासन किसी एक जाति का जीना सुगम नहीं करेगा, इससे सभी को राहत मिलेगी। यही हाल शिक्षा, स्वास्थ्य आदि से संबंधित संस्थानों का है। गुंडागर्दी सभी के लिए दुखमय है। संक्षेप में यह कि सुशासन का कोई विकल्प नहीं है। मायावती को दिल्ली ले जाने का रास्ता सुशासन से हो कर ही जाता था -- अब भी जाता है, पर उन्होंने सोचा कि नीति, कार्यक्रम और अमल की त्रयी के स्थान पर तिकड़म का अद्वैतवाद ही काफी है। यह सोशल इंजिनियरिंग नहीं, राजनीतिक इंजिनियरिंग थी। इसका फेल होना उतना ही निश्चित था जितना नीम के पेड़ पर आम के उगने की उम्मीद का फेल होना। विधान सभा चुनाव के दौरान पोलिंग बूथ पर तो अवर्ण-सवर्ण एकता हो गई थी, पर इससे सत्ता की जो मदांध राजनीति पैदा हुई, उसने उस अवर्ण समूह के बीच भी दरारें पैदा कर दीं जिसे मायावती अपना फिक्स्ड अकाउंट मानती रही हैं। अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित सीटों से मायावती के उम्मीदवारों का हारना और क्या बताता है? बहरहाल, मई 2009 का सवाल यह है कि एक फार्मूले के फेल होने के बाद दलित की बेटी कोई और फार्मूला खोजने का यत्न करेगी या कांशीराम के वचन याद करते हुए यह समझने की कोशिश कि राजनीति की नौटंकी क्या होती है और असली राजनीति क्या होती है।

राजकिशोर
(लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज, नई दिल्ली में वरिष्ठ फेलो हैं)

Monday, May 25, 2009

काली मिर्च रहेगी तेज

पिछले कुछ दिनों से कोची बाजार में काली मिर्च के भाव में तेजी चल रही है। यदि आंकड़ों का गणित देखें तो आगामी महीनों में इसके भाव और तेजी की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है।

वैश्विक उत्पादन
पहले विश्व बाजार की स्थिति की बात करें। विश्व में काली मिर्च का उत्पादन पिछले कुछ वर्षों से लगातार कम होता जा रहा है। वर्ष 2003 विश्व में काली मिर्च का कुल उत्पादन 3 लाख टन था के आसपास था जो 2008 में गिर कर 2.30 लाख टन के करीब आ गया।

विश्व में काली मिर्च के प्रमुख उत्पादक देश हैं: वियतनाम, ब्राजील, इंडोनेशिया, मलेशिया, श्रीलंका और भारत। कोई समय था जब काली मिर्च के निर्यात में भारत सबसे ऊपर होता था लेकिन पिछले कुछ वर्ष मेंं स्थिति बदल गई है। अब काली मिर्च के उत्पादन और निर्यात में पहला स्थान वियतनाम का है।

विश्व के प्रमुख उत्पादक देशों में इस समय काली मिर्च का स्टाक कम ही बचा हुआ है। केवल ब्राजील व वियतनाम में ही कुछ स्टाक है।

भारत
अन्य देशों की भांति भारत में भी 2008-09 (नवम्बर-अक्टूबर) के दौरान काली मिर्च का उत्पादन कम हुआ है। वर्ष 2001-02 में भारत मे काली मिर्च का उत्पादन 79,000 टन के रिकार्ड स्तर पर पहुंच गया था लेकिन उसके बाद इसमें गिरावट ही आ रही है। अब तो इसका औसत उत्पादन गिरकर 50,000 टन के आसपास आ गया है लेकिन चालू वर्ष में तो गिर कर लगभग 42,000 टन ही रह गया। देश में सबसे अधिक उत्पादन केरल में होता है और उसके बाद तमिलनाडु और कर्नाटक का स्थान आता है।
उत्पादन में गिरावट का कारण प्रतिकूल मौसम के अलावा किसानों द्वारा खाद का कम मात्रा में प्रयोग करना और नई झाड़ियों की संख्या में पर्याप्त बढ़ोतरी नहीं होना है।
उत्पादन ही नहीं देश से काली मिर्च के निर्यात भी कम हो रहा है। वित्त वर्ष 1999-2000 में देश से 42,000 टन काली मिर्च का निर्यात किया गया था जो एक रिकार्ड था। उसके बाद इसका निर्यात घटता ही जा रहा है।
वित्त वर्ष 2008-09 के दौरान अप्रैल से फरवरी के दौरान 23,350 टन काली मिर्च का निर्यात किया गया जो पूर्व वर्ष की इसी अवधि के निर्यात-31,760 टन-की तुलना में 26.5 प्रतिशत कम है।

चालू वर्ष में भी इसके निर्यात में सुधार की संभावना नहीं है क्योंकि भारतीय काली मिर्च के भाव अन्य देशों की तुलना में लगभग 400 डालर प्रति टन अधिक चल रहे हैैं। यह ठीक है कि अन्य देशों की तुलना में भारतीय काली मिर्च की क्वालिटी बेहतर है लेकिन आयातक देश इसके लिए 250/300 डालर प्रति टन तक ही अधिक भाव चुका सकते हैं। भाव में अधिक अंतर होने पर वे अन्य देशों की ओर रुख कर लेते हैं।

आयात
भाव में अधिक अंतर होने के कारण अब कुछ निर्यात काली मिर्च का आयात भी करते हैं। यह आयात एडवांस लाईसेंस के तहत किया जाता है और आयातित काली मिर्च को एक निश्चित अधिक के भीतर वैल्यू एडीशन करके निर्यात करना होता है। हालांकि इस स्कीम का उद्देश्य विदेशी मुद्रा कमाना होता है लेकिन कुछ आयातक व व्यापारी कथित रुप से इस स्कीम का दुरुपयोग भी करते हैं।

भाव
पिछले कुछ महीनों तक मंदे रहने के बाद भारतीय बाजारों में काली मिर्च के भाव सुधार हुआ है लेकिन अब कुछ सप्ताहों से भाव बढ़ रहे हैं। वर्तमान स्थिति को देखते हुए ऐसा लगता है कि आने वाले महीनों में इसके भाव में और सुधार होगा। संभव है कि एडवांस लाईसेंस के तहत वियतनाम आदि से सस्ता आयात होने के कारण काली मिर्च के भाव में कुछ गिरावट आ जाए लेकिन वह केवल कुछ समय के लिए ही होगी।

--राजेश शर्मा

Sunday, May 24, 2009

झूठ से शुरुआत...

इस शुक्रवार को जिन उन्नीस सांसदों ने केंद्र के मंत्री पद की शपथ ली है, वे बुरा न मानें, तो एक बात कहना चाहता हूं। उन्होंने, प्रधानमंत्री सहित, अपनी शुरुआत झूठ से की है। मैं यहां इस बात का जिक्र नहीं करना चाहता कि जो लोग चुनाव जीत कर लोक सभा में आए हैं, उन्होंने अपने-अपने चुनाव क्षेत्र में चुनाव खर्च की सीमा का जरूर उल्लंघन किया होगा। यह एक ऐसा उल्लंघन है जिसके बिना संसद या विधान सभा का कोई भी चुनाव आज जीता ही नहीं जा सकता। यही कारण है कि जन सामान्य के मन में यह धारणा घर कर गई है कि जब इतना खर्च करके चुनाव लड़ा जाता है, तो सांसद या मंत्री बनने के बाद इसकी भरपाई किए बिना किसी का काम कैसे चल सकता है? भरपाई ही नहीं, कुछ अतिरिक्त उपार्जन भी होना चाहिए। घर की पूंजी लुटाने के लिए तो कोई सांसद नहीं बनता! अगर यह घाटे का सौदा होता, तो किसी भी चुनाव क्षेत्र के लिए इतने उम्मीदवार कहां से आते! मैं जिस बात का जिक्र करना चाहता हूं और बहुत भरे ह्मदय से, वह इससे कहीं ज्यादा गंभीर है। जिन्होंने मंत्री पद की शपथ ली है, एक तो उन्हें पता नहीं होगा कि वे किस बात की शपथ ले रहे हैं और जिन्हें पता होगा, वे जानते होंगे कि वे जो शपथ ले रहे हैं, उसका निर्वाह करने नहीं जा रहे हैं। पहले शपथ की शब्दावली पर ध्यान दिया जाए। संविधान में दी गई शपथ की भाषा इस प्रकार है : ‘मैं, अमुक, ईश्वर की शपथ लेता हूं/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा, मैं भारत की एकता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा, मैं संघ के मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंत:करण से निर्वहन करूंगा तथा मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार न्याय करूंगा।’
शपथ के केंद्र में संविधान और उसके प्रति निष्ठा ही मुख्य है, जिसके अनुसार मंत्री को राज-काज करना चाहिए। इस निष्ठा के दो अर्थ हैं। एक अर्थ यह है कि सभी नागरिकों के साथ न्याय किया जाएगा। किसी के साथ भेदभाव या पक्षपात नहीं किया जाएगा। लेकिन यह तो प्रशासनिक फैसलों की बात है, सरकारी कार्य प्रणाली का मामला है। मूलभूत सवाल यह है कि राज्य का काम क्या है। भारत सरकार को करना क्या चाहिए? यह तय किए बिना प्रशासनिक फैसले किस आधार पर किए जाएंगे?
यहां दो चीजें प्रासंगिक हैं। राज्य का एक कर्तव्य यह है कि सभी नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा की जाए। पर यह एक तरह से नकारात्मक कर्तव्य है। राज्य किसी के मूल अधिकारों की अवहेलना न करे। सबको संविधान के अनुसार स्वसंत्रतापूर्वक जीने का अवसर मिले। इससे यह पता चलता है कि राज्य को क्या नहीं करना चाहिए। राज्य को क्या करना चाहिए, इसका उल्लेख संविधान के भाग चार में किया गया है। इस भाग में राज्य की नीति के इक्यावन तत्व निश्चित किए गए हैं। यानी अपनी नीतियां बनाते समय और फैसले करते समय राज्य को इन निदेशक तत्वों को दिमान में रखना होगा। संविधान कहता है : ‘...इनमें अधिकथित तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि बनाने में इन तत्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा।’ कहा जा सकता है कि राज्य के नीति निदेशक तत्वों वाला यह भाग चार ही भारत सरकार का वेद, कुरआन और बाइबल है।
दुर्भाग्यवश भारत सरकार के संचालन में संविधान के जिस हिस्से की सर्वाधिक अवहेलना हुई है, वह यही भाग चार है। भारत का संविधान 26 नवंबर 1949 को स्वीकार किया गया था। तब से अब तक कुछ महीने कम साठ साल हो चुके हैं। संविधान के भाग चार का अनुच्छेद 45 कहता है : ‘राज्य, इस संविधान के प्रारंभ से दस वर्ष की अवधि के भीतर सभी बालकों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए उपबंध करने का प्रयास करेगा।’ हम जानना चाहते हैं कि अभी तक किस सरकार ने इस अनुच्छेद को लागू करने का प्रयास किया है? मनमोहन सिंह की पिछली सरकार ने इस बारे में एक कानून जरूर बनाया है, जो संविधान के इरादे से मेल नहीं खाता। इस कानून को भी अभी तक लागू नहीं किया गया है।
लेकिन भाग चार के उद्देश्यों की व्यापकता देखते हुए बालकों की नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा बहुत मामूली बात है। कुछ बड़े उद्देश्यों पर विचार कीजिए -- राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का संचार किया जाएगा, आय की असमानताओं को कम करने की कोशिश की जाएगी, पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार दिया जाएगा, आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चलाई जाएगी जिससे धन और उत्पादन-साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेंद्रण न हो, कर्मकारों को निर्वाह मजदूरी मिले तथा काम की दशाएं ऐसी हों जो शिष्ट जीवनस्तर और अवकाश का संपूर्ण उपभोग सुनिश्चित करनेवाली हों। इसके अतिरिक्त लगभग एक दर्जन निदेश और हैं जो इसी प्रकृति के हैं।
सवाल यह है कि इस शुक्रवार को जिन सांसदों ने मंत्री पद की शपथ ली है, क्या वे राज्य की नीति के इन निदेशक तत्वों का पालन करेंगे? भविष्य में जो सांसद मंत्री पद की शपथ लेंगे, क्या उनका ऐसा कोई इरादा होगा? क्या केंद्रीय मंत्रिमंडल यह सामूहिक जिम्मेदारी महसूस करेगा कि सरकार संविधान के भाग चार के अनुसार चलाई जाए?
यह सच है कि संविधान स्वयं कहता है कि इन उपबंधों को लागू कराने के लिए कोई नागरिक अदालत में नहीं जा सकता। लेकिन इससे क्या होता है? संविधान के अनुसार सरकार का जो कर्तव्य है, वह कर्तव्य है। उस कर्तव्य का पालन करने की ईमानदार कोशिश किए बगैर ‘संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा’ रखने के संकल्प का अर्थ क्या है?

राजकिशोर

Friday, May 22, 2009

शाम तक क्या बेचें....

हिंदुस्तान के बाक़ी इलाकों के बारे में नहीं जानता, मगर बिहार में बीबीसी आज भी सबसे ज़्यादा सुना जाना वाला रेडियो है.....हालांकि, प्राइवेट एफएम वहां भी दस्तक दे चुका है, मगर वहां का श्रोता अब भी रेडियो के फटाफट संस्करण से ज़्यादा रेडियो के समझदार संस्करण को तरजीह देता है.....ब्लॉगिंग पर बीबीसी भी सजग है और वहां अक्सर नज़र जाती है.....एक बढिया लेख वुसतुल्लाह ख़ान साहब का पढ़ा तो जी हुआ बैठक पर सबको पढ़ाया जाए....मीडिया के हाल के चरित्र और चेहरे पर ऐसी छींटाकशी कम ही पढ़ने को मिलती है.....
संपादक


जो फटीचर लतीफ़ा मैं आपको सुना रहा हूँ. ये लतीफ़ा पाकिस्तान में पठानों पर और भारत में सरदारों पर रखकर सुनाया जाता है.

एक सरदार जी/ख़ान साहब, तेज़ गर्मी में ठेले पर फ़ालसे बेच रहे थे. एक ग्राहक आया, पूछा भाई साहब फ़ालसे क्या हिसाब बेच रहे हो. ठेले वाले ने कहा 70 रुपये किलो. ग्राहक ने कहा सब तौल दो. रेहड़ी वाले ने कहा कि सब फ़ालसे तुम ले गए तो शाम तक क्या बेचूंगा!!!

अब आप पूछेंगे यह वर्षों पुराना लतीफ़ा सुनाने का क्या मतलब है??? मतलब यह है कि मुझ जैसे सैंकड़ों पत्रकारों और राजनीतिक टीकाकारों को सोलह मई के नतीजों की वजह से भारतीय जनता से मायूसी हुई है.

हम तो पिछले दो महीने से यह सोच कर अपने क़लम के भाले और ज़ुबानों की छुरियाँ तेज़ किए बैठे थे कि हिसाब-किताब, आँकड़े और सितारों की चाल बता रही है कि किसी भी पार्टी को चुनावों में बहुमत नहीं मिलेगा.

ऐसे में सरकार बनाने के लिए राजनेताओं में ख़ूब जूता चलेगा. धौंस और घूस से काम लिया जाएगा. तब कहीं जा कर 15-20 दिन बाद एक ऐसी सरकार की शकल उभरेगी जो शायद दो ढाई साल भी न निकाल पाए. फिर मध्यावधि चुनाव होंगे और फिर हम मीडिया वालों का धँधा चमकेगा.

मगर भोले वोटरों को शायद अंदाज़ा ही नहीं कि उसने हमारे अंदाज़ों पर बर्फ़ीला पानी उंडेल कर मीडिया को कितना नुक़सान पहुँचाया है.

वोटरों की इस हरकत से अगले 15-20 दिन तक की योजना बनाने वाले चैनलों, और समाचार पत्रों से जुड़े सैंकड़ो राजनीतिक टीकाकारों, विश्लेषकों, लेखकों, ग्राफ़िक डिज़ाइनरों, हाई प्रोफ़ाइल ऐंकरों, कैमरामैनों, कैमरे के आगे खड़े होकर नए राज़ खोलने की आदत में लगे रिपोर्टरों और एक्सक्लूसिव इंटरव्यू की दौड़ में हिस्सा लेने वाले संपादकों के करोड़ों रुपये डूब गए जो उन्हें फ़ीस और आने-जाने के ख़र्चे के रुप में मिल सकते थे.
हम सबके दिल में अरमान था कि आने वाले कई दिनों तक हाथी का चीटियों के साथ, शेर का बकरी के साथ और बिल्ली का चूहे के साथ राजनीतिक तोड़-जोड़ बैठाएं. रंगीन ग्राफ़िक्स और टिप्पणियों की मदद से अपनी-अपनी मनपसंद सरकार बनाएंगे, मिटाएंगे और फिर बनाएंगे. ख़ुद भी मज़े लेंगे और देखने, सुनने और पढ़ने वालों को भी मज़ा करवाएंगे.

लेकिन 15-20 दिन तक जो सर्कस लगना था वो 16 मई की शाम तक शामियाने के बाँस के साथ गढ़ने से पहले ही लद गया.

और अब हम सब मीडियाकर्मी विश्लेषक 46 डिग्री सेल्सियस में सच्चाई के तपते सूरज तले वोट के फ़ैसले की गर्म ज़मीन पर बैठे ये सोच रहे हैं कि सारे फ़ालसे वोटर ले गया, अब शाम तक क्या बेचें!

लेकिन मायूसी की कोई बात नहीं. गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में. 2004 में भी यही हुआ था. आने दें 2014 के चुनाव. हमने भी फ़ालसे की जगह तरबूज़ और कटहल का ठेला न लगाया तो नाम बदल देना. यह वोटर ख़ुद को आख़िर समझता क्या है!!!

Wednesday, May 20, 2009

....क्योंकि कोई विकल्प नहीं था !

लोक सभा के चुनाव परिणामों से सिर्फ एक राहत महसूस की जा सकती है और वह यह है कि केंद्र में अस्थिरता का डर नहीं रहा। लेकिन यह राहत भी सिर्फ उनके लिए हैं जो किसी भी कीमत पर स्थिरता को तरजीह देते हैं। सरकार या शासन की स्थिरता अपने आपमें कोई काम्य चीज नहीं है। स्थिरता तब अच्छी होती है जब वह देश को बेहतर ढंग से चलाने का माध्यम बने। अगर बकवास नीतियों और बकवास नेतृत्व के बावजूद स्थिरता बनी रहती है, जैसा नरसिंह राव के जमाने में था, तो वह देश के लिए नुकसानदेह और कभी-कभी खतरनाक भी होती है। मनमोहन सिंह सरकार की उपलब्धियां ऐसी नहीं रही हैं कि उन्हें एक महान प्रधानमंत्री माना जा सके। इसी तरह, सोनिया गांधी दूसरे नेताओं की तुलना में ज्यादा प्रभावशाली साबित हुई हैं, पर यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि उनके नेतृत्व में हम एक महान भारत का सृजन करने जा रहे हैं। न ही कांग्रेस के बारे में यह दावा किया जा सकता है कि उसका कायाकल्प हो चुका है और अब वह राष्ट्र निर्माण की ऐसिहासिक भूमिका का निर्वाह करने जा रही है।

ये सब ऐसी खामखयालियां हैं जो कांग्रेस को इतनी अधिक सीटें मिलने से पैदा हुई हैं। वैसे, इन सीटों की संख्या इतनी भी नहीं है कि बहुमत के लिए उसे अन्य दलों का सहारा न लेना पड़े। इसलिए सीटों की संख्या पर इतराने का कोई वास्तविक कारण दिखाई नहीं देता। राजीव गांधी को 1984 में तीन-चौथाई बहुमत मिला था। लेकिन उनके शासन की कौन-सी उपलब्धियां आज याद आती हैं? बोफोर्स का दाग अभी तक नहीं मिट पाया है। इसी तरह, नरसिंहराव को बहुमत तो नहीं मिल पाया था, पर धीरे-धीरे तोड़-फोड़ की अपनी कुशलता के कारण उन्होंने कांग्रेस पार्टी के लिए बहुमत का प्रबंध कर लिया था। लेकिन अंत में हुआ क्या? आज उन्हें देश के सबसे निस्तेज प्रधानमंत्री के रूप में याद किया जाता है। बाबरी मस्जिद कांड उन्हीं के समय में घटित हुआ था।

फिर कांग्रेस की इस अप्रत्याशित जीत की व्याख्या कैसे की जाए? इस व्याख्या पर ही निर्भर है कि हम वर्तमान राजनीति से क्या उम्मीद करते हैं। अगर कोई यह कहता है कि अब क्षेत्रीय दलों की उपयोगिता समाप्त हो चुकी है तथा यह उनके पराभव का समय है, तो यह मिथक है। बीजू जनता दल, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक, बिहार का जनता दल (यूनाइटेड), उत्तर प्रदेश का समाजवादी दल, बहुजन समाज पार्टी आदि क्षेत्रीय दल नहीं तो और क्या हैं? यह जरूर है कि जिन क्षेत्रीय दलों की उपयोगिता बची हुई है, वे दल ही बचे हैं; जिन्होंने अपनी उपयोगिता का खुद ही भक्षण कर डाला है, वे ढलाव के शिकार हुए हैं। लेकिन यह तो राष्ट्रीय दलों के साथ भी होता रहा है। कांग्रेस और भाजपा, दोनों कई-कई बार नीचे जा चुकी हैं और फिर उभरी हैं। इसी तरह, क्षेत्रीय दल भी नीचे-ऊपर आते-जाते रहे हैं। इस राजनीतिक चक्र को भूल कर किसी एक चुनाव के आधार पर कोई बड़ा निष्कर्ष निकालने की जल्दबाजी राजनीतिक विश्लेषण के बचकानेपन के अलावा कुछ नहीं है।

सवाल यह भी है : अगर राष्ट्रीय दलों का जमाना सचमुच लौट आया है, तो यह सिर्फ कांग्रेस के लिए ही क्यों लौटा? भाजपा को भी तो राष्ट्रीय दल माना जाता है। सच पूछिए तो दोनों में से कोई भी व्यापक और सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय दल नहीं है। इसीलिए जिस अर्थ में कांग्रेस राष्ट्रीय दल है, उसी अर्थ में भाजपा भी राष्ट्रीय दल है। उसी अर्थ में बसपा भी राष्ट्रीय दल बनने की कोशिश कर रही है। राष्ट्रीय दलों की वापसी का समय आ गया है, तो इसका लाभ कांग्रेस के प्रतिद्वंद्वी दलों को भी मिलना चाहिए था, जो नहीं हुआ है। इसलिए यह स्थापना भी निराधार प्रतीत होता है।

फिर कांग्रेस की जीत को कैसे समझा जाए? इसका मुख्य कारण यह प्रतीत होता है कि कांग्रेस का कोई ऐसा विकल्प चुनाव मैदान में नहीं था जिसे कांग्रेस से बेहतर कहा जा सके। चुनाव की घोषणा के पहले ही लालकृष्ण आडवाणी ने अपने को भावी प्रधानमंत्री घोषित कर दिया था। इस नाते भाजपा ही मुख्य प्रतिद्वंद्वी थी। भाजपा अपने सांप्रदायिक चेहरे के साथ-साथ हर अर्थ में दक्षिणपंथी पार्टी है। कांग्रेस को मध्यमार्गी दल माना जाता है, पर उसकी आर्थिक नीतियां भी पूरी तरह से दक्षिणपंथी हैं। अमेरिका से नजदीकी कांग्रेस भी चाहती है और भाजपा भी। यह जरूर है कि कांग्रेस का एक इतिहास, भले ही वह मुखौटा ही हो, गरीबी हटाओ का भी है, जो भाजपा का नहीं है। भाजपा उद्योगपतियों और व्यापारियों की ही नहीं, सवर्ण जातियों की भी पार्टी मानी जाती है। दूसरी ओर, कांग्रेस भी उद्योगपतियों और व्यापारियों की पार्टी है, पर वह गरीबों का नाम भी लेती रहती है और उनके लिए समय-समय पर कुछ कार्यक्रम भी बनाती रहती है। राष्ट्रीय ग्रामीण राजगार गारंटी योजना उसी ने लागू की थी, जिसका कुछ इलाकों में अच्छा असर पड़ा है। इस दृष्टि से देखा जाए, तो मतदाताओं ने कांग्रेस को चुन कर कुछ भी गलत नहीं किया।

कांग्रेस को असली चुनौती तब मिलती जब उसके मुकाबले कोई सचमुच का वामपंथी दल या दल समूह खड़ा होता। वामपंथी दलों ने यही सोच कर तीसरा मोर्चा बनाया था। लेकिन क्या यह वास्तव में तीसरा मोर्चा था? सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि इसका नेतृत्व कर रहे सीपीएम और अन्य वामपंथी दल स्वयं केरल और प. बंगाल में अपनी वामपंथी साख लुटा चुके थे। गरीब किसानों का दमन करने के मामले में वे किसी भी अन्य दल के मुकाबले ज्यादा क्रूर साबित हुए हैं। केरल के सीपीएम में घमासान चल रहा था। तीसरा मोर्चा बनाने के लिए जिन दलों का साथ लिया गया, वे अपने-अपने राज्य में राजनीतिक रूप से दिवालिया हो चुके थे। गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा होने का ऑटोमेटिक मतलब प्रगतिशील या जनवादी नहीं होता। फिर इनमें से अनेक दल ऐसे भी हैं जो अतीत में भाजपा के साथ रह चुके हैं। इसलिए उनकी विश्वसनीयता भी खटाई में थी। सच पूछा जाए तो तीसरा मोर्चा इतना बोगस था कि उसे वोट देने के बारे में कोई गंभीरता से सोच ही नहीं सकता था। इस तरह, बिना कुछ ज्यादा किए-कराए सत्ता एक तरह से मुफ्त में कांग्रेस की झोली में आ गिरी।

यही कारण है कि कांग्रेस पार्टी की जीत स्वयं उसके लिए भी अविश्सनीय है। जब मीडिया के लोग अनुमान लगा रहे थे कि किसी भी दल समूह को बहुमत नहीं मिलेगा, तो वे हवा में कबड्डी नहीं खेल रहे थे। यही आकलन स्वयं राजनीतिक दलों का भी था। राहुल गांधी तो विपक्ष में बैठने के लिए भी तैयार थे। लालकृष्ण आडवाणी की आशाएं भी धीरे-धीरे धूमिल हो रही थीं, क्योंकि तमाम प्रयासों के बावजूद भाजपा की कोई लहर नहीं बन पा रही थीष्। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का खयाल आसमान से नहीं टपका था। इससे भी आडवाणी का भविष्य कुछ धूमिल हुआ।

बहरहाल, जो होना था, हो चुका। एक मान्यता है कि जो हुआ, वही हो सकता था। अगर कुछ और हो सकता था, तो वह हुआ क्यों नहीं? इसलिए कांग्रेस के जीतने को एक ऐसिहासिक घटना मान कर चलना ही उचित है। सवाल अब यह है कि आगे क्या? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि फिलहाल कांग्रेस का कोई प्रगतिशील विकल्प उभरता दिखाई नहीं देता। वामपंथियों में आत्मपरीक्षण के कोई लक्षण दिखाई नहीं पड़ते। कायदे से प्रकाश करात को सीपीएम की शोचनीय पराजय के बाद अपने पद से तुरंत इस्तीफा दे देना चाहिए था। पर इसकी हलकी-सी आहट भी सुनाई नहीं देती। प. बंगाल की हार तो इतनी जबरदस्त है कि वहां के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को एक दिन के लिए भी अपने पद पर रहने का नैतिक हक नहीं है। इसी तरह, तीसरा मोर्चा में शामिल अन्य दलों में भी अंत:परीक्षण का कोई साक्ष्य दिखाई नहीं देता। यानी, भविष्य का परिदृश्य अत्यधिक धूमिल जान पड़ता है।

क्या यह चिंता की बात नहीं है कि इतने बड़े देश में कोई राजनीतिक विकल्प न हो जो जरूरत पड़ने पर वर्तमान सत्तारूढ़ दल का स्थान ग्रहण कर सके? कांग्रेस सफल होती है तो और नहीं सफल होती है तो भी, अच्छा लोकतंत्र वही होता है जिसमें वर्तमान का विकल्प हमेशा मौजूद रहे। इसे ही असली विपक्ष कहा जाता है। मौजूदा लोक सभा का सबसे दैन्यपूर्ण पक्ष यह दिखाई देता है कि इसमें कोई मजबूत विपक्ष नहीं है। यह सत्ता को निरंकुश बनाने के लिए काफी है। चूंकि वर्तमान राजनीति में कांग्रेस का कोई ठीक-ठाक विकल्प उभरता दिखाई नहीं देता, इसलिए कम से कम जनतंत्र के हित में आवश्यक है कि इसके लिए ठोस प्रयास किया जाए। ऐसा न हो कि पांच साल बाद फिर चुनाव की घड़ी आए और हम हाथ पर हाथ धरे पछताते रहें कि हाय, हमारे पास कोई सार्थक विकल्प नहीं हैं। विकल्प दो-चार महीनों में खड़ा नहीं होता। इसके लिए पांच वर्ष भी कम हैं। पर पांच वर्ष की अवधि इतनी छोटी भी नहीं है कि कुछ हो ही न सके। सवाल सिर्फ इतना है कि देश की तकदीर बदलने की कोई राजनीतिक इच्छा हमारे मनों में खदबदा रही है या नहीं।

राजकिशोर

Sunday, May 17, 2009

गेहूं निर्यात नहीं है संभव

भारतीय खाद्य निगम द्वारा चालू वर्ष में अधिक खरीद और सरकारी गोदामों में गेहूं का स्टाक लबालब होने के कारण ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि जल्दी ही सरकार गेहूं के निर्यात की अनुमति प्रदान कर देगी। लेकिन वास्तव में विश्व बाजार को देखते हुए देश से गेहूं के निर्यात की संभावना नजर नहीं आ रही है।

उल्लेखनीय है कि देश में गेहूं की कमी और बाजारों में बढ़ते भाव को देखते हुए सरकार ने फरवरी 2007 में गेहूं के निर्यात पर प्रतिबंध लगा दिया था। यही नहीं कमी को दूर करने के लिए सरकार ने प्राईवेट व सरकारी स्तर पर इसके आयात अनुमति देने के साथ ही आयात शुल्क भी समाप्त कर दिया था।

खरीद
बहरहाल, अब स्थिति बदली हुई है। गत रबी विपणन वर्ष यानी अप्रैल 2008-मार्च 2009 के दौरान सरकार ने 226.89 लाख टन गेहूं की खरीद की। एक अप्रैल से चालू हुए वर्ष के दौरान अब तक सरकारी एजेंसियां लगभग 224 लाख टन गेहूं की खरीद करक चुकी हैं और अनुमान है कि खरीद गत वर्ष के स्तर को पार कर जाएगी।

स्टाक
रिकार्ड खरीद के कारण अब सरकारी गोदामों में गेहूं की बोरियों के अम्बार लग चुके हैं। यही नहीं कुछ गेहूं खुले में भी रखी हुई है। एक अप्रैल को सरकारी गोदामों में 134 लाख टन गेहूं का स्टाक था जबकि बफर नार्म के तहत स्टाक केवल 40 लाख टन ही होन चाहिए था। अब इस सीजन की खरीद आरंभ होने के बाद एक मई को सरकारी गोदामों में गेहूं का स्टाक बढ़ कर 298.2 लाख टन हो गया है।

बढ़ते स्टाक से निजात पाने के लिए सरकार जल्दी ही 20 लाख टन गेहूं के निर्यात की अनुमति दे सकती है लेकिन विश्व बाजार की स्थिति को देखते हुए भारत से गेहूं निर्यात की संभावना नजर नहीं आ रही है। अन्य देशों की तुलना में भारतीय गेहूं महंगी है जबकि क्वालिटी में कुछ हल्की ही पड़ती है।

यदि 1080 रुपए प्रति क्विंटल की दर पर उत्पादक मंडियों से गेहूं की खरीद की जाए तो स्थानीय कर, मंडी शुल्क, बोरी, ट्रांसपोर्ट, बंदरगाह पर लदान आदि सभी खर्च मिला कर कांडला या मुंद्रा बंदरगाह (जहां से गेहूं का निर्यात होगा) गेहूं के भाव लगभग 14000 रुपए प्रति टन यानि लगभग 280 डालर प्रति टन पड़ेंगे। यदि यह माना जाए कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम दाम पर गेहूं मिल सकती है तो भी बंदरगाह पहुंचने पर इसकी लागत लगभग 250 डालर प्रति टन आएगी।
इसकी तुलना में रशिया या यूक्रेन से जून-जुलाई शिपमेंट के सौदे 185 डालर प्रति टन पर किए जाने के समाचार हैं।
फ्रांस, जर्मनी, कनाडा आदि देशों से गेहूं लगभग 200 डालर पर मिल रही है।

आस्ट्रेलिया की बढ़िया क्वालिटी की गेहूं के सौदे लगभग 220 डालर प्रति टन पर किए जाने के समाचार हैं।
ऐसे में कौन देश भारत से गेहूं का आयात करेगा? यह सोचने का विषय है।

गेहूं उत्पाद
बहरहाल, देश से गेहूं उत्पाद यानि आटा, मैदा, सूजी आदि का निर्यात पड़ोसी देशों को अवश्य किया सकता है। सरकार निर्यात पर प्रोत्साहन देकर गेहूं के स्टाक से कुछ निजात पा सकती है।

Thursday, May 14, 2009

कालिया ने पाला बदल लिया है- उद्भ्रांत

दूरदर्शन में वरिष्ठ निदेशक और हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि उद्भ्रांत ने बुधवार को भारतीय ज्ञानपीठ से 25 लाख रुपए हर्जाने की मांग की है। उन्होंने इस संबंध में भारतीय ज्ञानपीठ के कार्यकारी निदेशक रवीन्द्र कालिया को नोटिस भेजा है। नोटिस में कहा गया है कि आश्वासन के बावजूद दो पांडुलिपियाँ प्रकाशित नहीं होने और वापस करने में दो वर्ष से अधिक का समय लेने के कारण उनको न केवल रायल्टी का नुकसान हुआ व वादाखिलाफी के कारण मानसिक आघात पहुंचा है, बल्कि लेखक की प्रतिष्ठा को भी ठेस पहुंची है। इस नोटिस में अभी तक नहीं लौटाई गई दो पेंटिग को तत्काल वापस करने की मांग की गई है। इस केस की मीडिया और साहित्य जगत मैं पिछले ‍‍1 महीने से चर्चा है। हिन्दी साहित्य में अपने-आप में यह पहला मामला है जब भारतीय ज्ञानपीठ के खिलाफ किसी लेखक ने खड़े होने की हिम्मत की है। उद्‍भ्रांत अपना वास्तविक कष्ट अपनी कलम से बाँट रहे हैं॰॰॰॰॰


साहित्यकार उद्भ्रांत का परिचय

महत्तवूपर्ण वरिष्ठ कवि,
जन्म : 4 सितंबर, 1948 ई.,नवलगढ़(राजस्थान)- सर्टिफिकेट के अनुसार: 6 मई, 1950 ई.,
कानपुर में शिक्षा-दीक्षा;
वर्ष 1959 से रचनारम्भ;
50 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित;
अनेक पुरस्कारों से सम्मानित;
कानपुर प्रेस के सचिव रहे;
रचनाएं अनेक भारतीय भाषाओं में अनूदित;
सम्प्रति- दूरदर्शन महानिदेशालय में वरिष्ठ निदेशक (कार्यक्रम)।
प्रमुख पुस्तकें: त्रेता एवं प्रज्ञावेणु (महाकाव्य), स्वयंप्रभा एवं वक्रतुण्ड (प्रबंध काव्य), ब्लैकहोल (काव्य नाटक); शब्दकमल खिला है, नाटकतंत्र तथा अन्य कविताएं, काली मीनार को ढहाते हुए एवं हंसो बतर्ज रघुवीर सहाय (समकालीन कविता); लेकिन यह गीत नहीं, हिरना कस्तूरी एवं देह चांदनी (गीत-नवगीत); मैंने यह सोचा न था (ग़जलें), कहानी का सातवां दशक (संस्मरणात्मक समीक्षा)।
संपादन: लघु पत्रिका आंदोलन और युवा की भूमिका, पत्र ही नहीं बच्चन मित्र हैं, युवा, युगप्रतिमान (पाक्षिक), पोइट्री टुडे एवं त्रिताल।
कवि-मूल्यांकन: त्रेता : एक अंतर्यात्रा (डॉ. आनंद प्रकाश दीक्षित), रुद्रावतार विमर्श (डॉ. नित्यानंद तिवारी), उद्भ्रांत की ग़ज़लों का यथार्थवादी दर्शन (अनिरुद्ध सिन्हा), उद्भ्रांत का बाल-साहित्य : सृजन और मूल्यांकन (डॉ. राष्ट्रबंधु एवं जयप्रकाश भारती), कवि उद्भ्रांत : कुछ मूल्यांकन बिंदु (उषा शर्मा)।
शीघ्र प्रकाश्य: अभिनव पांडव (महाकाव्य), राधामाधव (प्रबंधकाव्य), अनाद्यसूक्त (आर्ष काव्य) एवं कई कविता संग्रह।

सूचना- 30 मई 2009 को रात 10:30 बजे डीडी भारती चैनल, इंदौर पर कवि उद्‍भ्रांत से बातचीत प्रसारित होगी। देखें और आनंद लें।
दैनिक भास्कर (नई दिल्ली) के 4 अप्रैल, 2009 के अंक में ‘साहित्य-संस्कृति’ के पृष्ठ पर नूर अली की ‘तल्ख़ियाँ’ ने साहित्य जगत में चल रही माफियागीरी की अच्छी ख़बर ली है, विशेषकर दिल्ली के दंगल में दो बरस पहले उतरे नये पहलवान रवीन्द्र कालिया द्वारा ‘नया ज्ञानोदय’ के माध्यम से ‘युवा लेखकों का अपना उपनिवेश क़ायम करने में क़ामयाबी हासिल करने की दिलचस्प दास्तान भी बयान की है। इसमें कुछ युवा लेखकों की कमज़ोर किताबों को ज्ञानपीठ से प्रकाशित कराने के प्रयासों का ब्यौरा भी जोड़ना चाहिये था। युवा लेखकों के सर्वमान्य नेता बनने के प्रयास में उन्होंने कई वरिष्ठ लेखकों की प्रकाशन के लिए आमंत्रित श्रेष्ठ कृतियों को भी अपमानजनक ढंग से वापस कर दिया। ज्ञानपीठ और ‘नया ज्ञानोदय’ को अपने रणनीतिक स्वार्थ के अन्तर्गत इस्तेमाल करने की उनकी कुत्सित प्रवृति को लेकर उनके बारे में अन्य राष्ट्रीय दैनिकों और साप्ताहिकों में अनेक महत्तवपूर्ण वरिष्ठ लेखकों ने तो अपनी आपत्तियां दर्ज़ की ही हैं, कर्मेन्दु शिशिर द्वारा ऐसी सौ पृष्ठों की एक पुस्तिका भी गत वर्ष जारी की गई थी, जिससे हिन्दी संसार भलीभाँति अवगत है।

मेरा मानना है कि ‘ज्ञानोदय’ में ‘नया’ विशेषण तो, चालीस वर्ष पूर्व उसके बंद होने के अन्तराल को और समय की नवता को देखते हुए, लगाना ठीक ही था, मगर कालिया ने इस ‘नये’ को उत्तरआधुनिक रंग दे दिया। यह विगत दो वर्षों में ‘ज्ञानोदय’ के पन्नों पर उनके सम्पादकीयों और युवा लेखक-लेखिकाओं के परिचयों की बानगी से पता लगा चुका है, कालिया को शायद इसीलिए लाया भी गया था। मगर बाद में उन्हें जैसे ही कार्यकारी निदेशक की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी दी गई उन्होंने समूची ज्ञानपीठ संस्था को भी ‘नया’ विशेषण देने की ठान ली। इस प्रक्रिया में उन्होंने ज्ञानपीठ की इतनी दुर्गति करा दी है कि अब संस्था का और उनका मालिक एक ही दिखाई दे रहा है। जैनेन्द्र रचनावली की अक्षम्य भूलों के लिए वे ही ज़िम्मेदार हैं। उन्होंने कम से कम आधा दर्जन समझदार विश्वसनीय सहयोगियों को इतना तंग किया कि उन्होंने संस्था ही छोड़ दी। किशन कालजयी के इस्तीफे का प्रारंभिक अंश इंस सम्बंध में दृष्टव्य है। ”भारतीय ज्ञानपीठ के कार्यकारी निदेशक श्री रवीन्द्र कालिया की पक्षपातपूर्ण प्रशासनिक अराजकता के कारण भारतीय ज्ञानपीठ का आन्तरिक परिवेश बुरी तरह नष्ट हो गया है। चुगली और चापलूसी करने वाले चन्द लोगों को निजी स्वार्थवश कालिया जी बुरी तरह बढ़ावा दे रहे हैं। ऐसे असहज माहौल में अधिकांश कर्त्तव्यनिष्ठ अधिकारी और कर्मचारी अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। कई लोग ज्ञानपीठ को छोड़ रहे हैं और कइयों ने छोड़ने का मन बना लिया है। ‘नया ज्ञानोदय’ में भी अपने सम्पादकीय दुराचार से कालिया जी ने कई लेखकों का अपमान किया है। निस्संदेह इन कुकृत्यों की वजह से भारतीय ज्ञानपीठ की गरिमा घटी है। इस पतनोन्मुख भारतीय ज्ञानपीठ में मेरे लिए काम करना न तो नैतिक है और न ही मर्यादित।”

ज़रा ज्ञानरंजन को भी स्मरण करें। ”हिन्दी समाज पिछलग्गुओं का समाज नहीं है। तुमने एक खराब, बेबात की बहस छेड़ी है। तुम नयों को बाजारू बना रहे हो, यह खिलवाड़ है। तुमसे यह उम्मीद नहीं थी। मैं भविष्य में कोई काम ‘नया ज्ञानोदय’ या ‘ज्ञानपीठ’ के लिए नहीं कर सकूँगा।”

ये दो उद्धहरण कालिया की इधर की शैली को उजागर करते हैं। एक सम्पादक के रूप में और एक अधिकारी के रूप में भी। मगर कालिया में पिछले चालीस सालों में कोई बड़ा फ़र्क नहीं आया है। मित्रगण उसे बारबार क्षमा करते हैं और वह इसे अपनी शक्ति समझकर बारम्बार वैसी ही या उससे बढ़कर धृष्ठताएँ करता है। वह अपने पीछे चलने वाले युवा लेखकों की कमज़ोर किताबें भी विचारार्थ जमा करने के तीन महीने के भीतर छाप देता है और स्वाभिमानी लेखकों की प्रकाशन के लिए आमंत्रित कृतियों को बरसों अधर में रखकर वापस कर देता है। इस सम्बंध में अपने कटु अनुभव को सामने रखना चाहूँगा। तीन पत्रों के माध्यम से।

भारतीय ज्ञानपीठ के आजीवन न्यासी श्री आलोक प्रकाश जैन का दिनांक 05 जून, 2006 का पत्र है। ”प्रिय भाई उद्भ्रांत जी, इधर आपके अप्रकाशित खण्ड काव्यों पर चर्चा सुनी। श्री कमलेश्वर जी ने भी उस पर लिखा है, और हमारे प्रकाशन अधिकारी श्री किशन कालजयी ने भी तारीफ की है, भारतीय ज्ञानपीठ को आपकी किसी कृति को प्रकाशित करने का गौरव नहीं मिला। आपसे अनुरोध है कि उन दोनों खण्ड काव्यों को या उनमें से एक भारतीय ज्ञानपीठ को प्रकाशनार्थ भेजें। हमारे प्रकाशन अधिकारी श्री किशन कालजयी के माध्यम से आपसे शीघ्र वार्तालाप और मुलाकात होगी।”
पत्र में जिन खण्ड-काव्यों की बात की गई है उनके नाम ‘राधामाधव’ और ‘अभिनव पांडव’ हैं। ‘राधामाधव’ के कुछ अंश इंदौर में राजेश जोशी के साथ जब प्रभु जोशी ने सुने तो मुझे कहा कि इसके आवरण की संकल्पना मैं ही करूँगा। आलोक जैन का पत्र आने के बाद मैं पुन: इन्दौर गया और प्रभु ने मध्य प्रदेश की एक वरिष्ठ चित्रकार मीरा गुप्ता और शांति निकेतन से आये चित्रकार निताईदास की दो पेन्टिंग्स इस हेतु मुझे सौंप दीं। दोनों पाण्डुलिपियों के साथ मैंने ये दो पेन्टिंग्स भी स्पीड पोस्ट से आलोक जैन के नाम ज्ञानपीठ के पते पर भेजीं। कालिया तब कोलकाता में थे और आलोक जैन प्राय: मुझसे फोन पर पूछते थे कि हम रवीन्द्र कालिया को ‘नया ज्ञानोदय’ के सम्पादक के रूप में लाना चाहते हैं, वे कैसे रहेंगे? अब मुझे अफ़सोस होता है कि कालिया के नाम पर मैंने भी अपनी संस्तुति दी और कालिया से इसकी सूचना देते हुए कहा कि आशा है मेरी संदर्भित पांडुलिपियाँ तुम्हारे आने के बाद शीघ्र प्रकाशित हो सकेंगी। ज़ाहिर है कि कालिया ने मुझे चिन्ता नहीं करने के लिए कहा। बाद में उन्होंने मेरे एक अन्य खण्डकाव्य ‘वक्रतुण्ड’ की पाडुंलिपि भी जानकारी होने पर ले ली। पिछली दोनों कृतियों के लम्बे समय से लम्बित रहने के कारण उत्पन्न मेरी प्रकट अनिच्छा के बावजूद दोस्ती का हवाला देते हुए। एक तरह से जबरन। कालिया के दिल्ली में आने के बाद मेरे ही एक कार्यक्रम द्वारा प्रकारान्तर से उनके यहाँ आने की सार्वजनिक घोषणा हुई थी। इस सबके और विगत चालीस वर्षों के सम्बंध के बावजूद कालिया ने जो सचमुच का आपराधिक कृत्य किया वह उनके इन दो पत्रों से प्रकट है।

पहला 19 जून, 2008 का है। आपकी पांडुलिपि ‘राधामाधव’ यथासमय प्राप्त हुई थी। पांडुलिपि के बारे में विशेषज्ञों द्वारा गम्भीरतापूर्वक विचार किया गया। हमें खेद है कि उसे अपरिहार्य कारणों से फिलहाल भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशन के लिए स्वीकार नहीं किया जा सका। पांडुलिपि आपको भिजवाई जा रही है।” अर्थात् दो वर्ष बीत जाने के बाद भी, ‘फिलहाल!’
आप देखें कि उक्त पत्र में ‘विचार किया गया’ कहा गया है जबकि श्री आलोक जैन ने ‘एक या दोनों’ काव्यों की पांडुलिपियाँ ‘प्रकाशनार्थ’ मांगी थीं। विचारार्थ नहीं। इसमें उन ‘अपरिहार्य कारणों’ का भी कोई हवाला नहीं है। विशेषज्ञ अगर कोई हैं तो कौन हैं, उन्हें पांडुलिपियाँ क्यों भेजीं गईं और उनका क्या मत था इसकी कोई जानकारी नहीं। जबकि ‘राधामाधव’ की पांडुलिपि में सत्यप्रकाश मिश्र, जानकी वल्लभ शास्त्री, रमाकांत रथ और डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी की टिप्पणियां पहले से मौजूद थीं। उसी के साथ भेजे गए ‘अभिनव पाण्डव’ में डॉ. शिव कुमार मिश्र और डॉ. कमला प्रसाद की टिप्पणियाँ थीं। उसका और इनके बाद आग्रहपूर्वह कालिया द्वारा ही मांगे गये तीसरे काव्य ‘वक्रतुण्ड’ का उक्त पत्र में कोई उल्लेख नहीं था। इस पर जब मैंने पुन: पत्र लिखा तो कालिया ने 8 जुलाई, 2008 को लिखे इस दिलचस्प पत्र के साथ उन्हें वापस किया। ”खेद है कि हम आपकी पांडुलिपियों ‘अभिनव पाण्डव’ और ‘वक्रतुण्ड’ का उपयोग न कर पाएंगे। प्राय: हम पाडुंलिपियाँ वी.पी.पी. से लौटाते हैं। आपको अपने व्यय से कोरियर द्वारा लौटा रहे हैं।” आशा है भारतीय ज्ञानपीठ को अपनी पांडुलिपियाँ भेजने वाले लेखकों ने इस बात को नोट कर लिया होगा। वैसे मुझे तो अब तक यही ज्ञात था कि छोटे से छोटे या अत्यंत मामूली प्रकाशक भी पांडुलिपियाँ रजिस्टर्ड डाक से ही लौटाते हैं। यहाँ तो पांडुलिपियाँ ‘प्रकाशनार्थ’ मंगाई गई थीं। लेखक स्वयं प्रकाशक के पास नहीं गया था। कालिया ने यह नयी परम्परा शुरू की है जिससे ज्ञानपीठ के गौरव में निश्चय ही पर्याप्त वृद्धि हुई होगी।
कालिया के इस दुष्कृत्य के अभद्र चेहरे पर पंचमुखी छाप जड़ते हुए ‘वक्रतुण्ड’ जयपुर के एक प्रमुख प्रकाशन ‘पंचशील’ से तीन महीने की अल्पावधि में ही छप कर दुष्टों को भी वक्री मुस्कुराहट का उपहार देते हुए कृतार्थ कर चुके हैं और साहित्य जगत में उनकी चर्चा शुरू हो गई है। अन्य दोनों काव्य भी इस वर्ष प्रमुख प्रकाशन संस्थाओं से आएंगे। मगर, उक्त कृतियों को दो वर्ष से अधिक समय तक न छापकर और रोके रखकर कवि की मानहानि और मानसिक उत्पीड़न के अतिरिक्त जो आर्थिक क्षति पहुँचाई गई, उस सम्बंध में किये जा रहे विधिक विचार-विमर्श का उचित परिणाम शीघ्र ही सामने आएगा। लेकिन, पाठकों के लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि जो व्यक्ति अपने सम्पादकीयों में ‘मीडियाकर’ जैसे शब्दों को अपने विरोधी के लिए गाली की तरह इस्तेमाल करता है, उसका बिना नाम लिये; वह होने के बावजूद स्वयं के लिए वैसे शब्द सुनना पसंद नहीं करता। यह तो हुई प्रिंट की बात। आपसी बातचीत में वह किस सीमा तक जाता है?
18 जनवरी, 2009 दिन रविवार को इलाहाबाद संग्रहालय में साहित्य अकादमी और संग्रहालय के संयुक्त तत्वावधान में हरिवंशराय बच्चन जन्म शताब्दी समारोह में सुबह की गोष्ठी समाप्त होने के बाद लंच करते हुए मैंने पास खड़े दूधनाथ को किसी से कहते सुना। ”हां, ‘जनसत्ता’ को तो सुबह से खोज रहा हूँ। मेरे दोस्त के बारे में उसमें कुछ निकला है।” पूछताछ करने पर पता लगा कि 11 जनवरी के अंक में प्रकाशित राजकिशोर की टिप्पणी के क्रम में गगन गिल की टिप्पणी आई है। दूधनाथ कह रहे थे। ”वो कह रहा था कि मुझे देखना है कि उसके कौन-कौन से कुत्ते मेरे ऊपर हमला करते हैं?” अब यह ‘उसके’ किसके लिए था, इसे मैं नहीं जानता। चूँकि बात किसी और तरफ मुड़ गई इसलिए इस सम्बंध में आगे पूछताछ भी नहीं हो सकी। मैंने कहा कि ”फिलहाल इतना तो जान ही लो कि बहुत जल्द मैं कालिया पर मुक़दमा दायर करने जा रहा हूँ।” दूधनाथ चमक कर बोले, ”लेकिन तुम्हारी तो कविताएं कालिया ने छापी थीं।” दूधनाथ को पता नहीं था कि वर्ष 1960 में ही मेरी एक कविता ‘आज वाराणसी’ के साप्ताहिक परिशिष्ट में उसके साहित्य सम्पादक स्व. भैयाजी बनारसी ने छापी थी और तब कालिया का साहित्य जगत में जन्म तक नहीं हुआ था। दूधनाथ अभी दूधपीते बच्चे ही थे। पैदा हुए दो-चार दिन ही हुए होंगे। तबसे शुरू हुई मेरी काव्य-यात्रा के प्रारंभिक दशक में ही हिन्दी की तत्कालीन सर्वश्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाएँ साप्ताहिक हिन्दुस्तान, ज्ञानोदय, नवनीत, कादंबिनी आदि मुझे लगातार छापती रही थीं, यह तो दूधनाथ को अवश्य पता होगा। पर लगता है कि भयंकर दुश्मनी से अभी-अभी बदली दोस्ती को निभाने में इतने गाफ़िल हो गये कि उन्हें इस सबका स्मरण नहीं आया। मगर, मेरे सामने तो ऐसी कोई मज़बूरी न होकर हाल-हाल में किये गए कालिया के विश्वासघात की बानगी ही थी। इसलिए मैंने कहा, ”वह कोई अहसान नहीं किया था, मगर प्रकाशन के लिए आमंत्रित मेरी दो किताबों को दो साल बाद लौटाने का जघन्य अपराध तो उसने किया ही है, जिसके लिए कानून उसे दण्ड अवश्य देगा।”
मज़े की बात है कि दूसरों को ‘दारूकुट्टा’, ‘दढ़ियल’ या ‘मीडियाकर’ जैसे अपशब्दों से नवाज़ने वाला व्यक्ति ‘कालिया’ के लिए टाइपिंग त्रुटि से ‘कैला’ (के.ए.आई.एल.ए.) जैसे निरर्थक और ‘कॉवर्ड’ जैसे शब्दों को बर्दाश्त नहीं कर पाता जोकि एक प्रवृतियाँ है, गाली नहीं, और उसका वकील 14 जुलाई, 2008 के पत्रा में ‘उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे’ वाले अंदाज़ में मानहानि का केस करने की धमकी देता है। प्रभु जोशी से जो पेंटिंग्स लाकर मैंने ज्ञानपीठ को भेजी थीं, वे वापस नहीं की गईं। ऐसे व्यक्ति को निदेशक और सम्पादक बनाने की संस्तुति के लिए मैं सार्वजनिक रूप से शर्मिन्दा हूँ।
मेरे सम्पादन में ‘युवा’ का प्रवेशांक कानपुर से अक्तूबर, 1974 में छपा था। उसमें ‘लेखक और व्यवस्था’ विषय पर जिनके विचार थे उनमें भैरव, मार्कण्डेय, सर्वेश्वर, शील, मटियानी, दूधनाथ, काशीनाथ के साथ कालिया भी थे, जिनका कहना था। ”व्यवस्था के लिए लेखक सिर्फ चीज़ है। एक छोटी-सी चीज़। व्यवस्था के सामने लेखक की स्थिति एक दलाल की स्थिति से बेहतर नहीं है। जो लेखक व्यवस्था को रास नहीं आता, व्यवस्था उसके साथ कैसा सलूक करती है आप जानते होंगे। मगर इससे लेखक छोटा नहीं हो जाता।”

अब कालिया के इन वचनों का अर्थ लोगों की समझ में आ जायेगा क्योंकि उसने अपनी सुविधानुसार न केवल पाला बदल लिया है, वरन् वह लेखक से दलाल की तरह व्यवहार करने की अपेक्षा भी कर रहा है। जो ऐसा करते हैं उन्हें कालिया अपना रणनीतिक स्तंभकार मानते हैं। जो नहीं करते उनके साथ वही करते हैं जिनकी चर्चा ‘जनसत्ता’, ‘भास्कर’ और अभी हाल में ‘आकार’ के पन्नों पर आ चुकी है। अब कालिया के शब्द उसी के ऊपर वार कर रहे हैं। ”मगर इससे लेखक छोटा नहीं हो जाता।”
कालिया ने उस परिचर्चा में राजनीति-सम्बंधी सवाल पर तिलमिलाते हुए कहा था। ”राजनीति की चर्चा आप भी तो कर रहे हैं। शायद राजनीति को भ्रष्टाचार का पर्याय मानकर सुविधा के लिए। या आपके हेड ऑफिस से ऐसा निर्देश मिला है।” पता नहीं वे किसे हेड ऑफिस कह रहे थे? मार्कण्डेय को, जिनके घर पर मैं ठहरता था, या सी.पी.एम. के दिल्ली ऑफिस को? कालिया की सिफ़त है उल्टे सीधे काम करने की, मित्रों के साथ दग़ा करने की। अब इस जन्म में तो उसमें किसी तरह का बदलाव आना संभव नहीं!

Tuesday, May 12, 2009

मंदिर-मस्जिद का झुनझुना और भारतीय मतदाता

मैं जब कभी लोगों से राजनीति के बारे में बात करता हूँ या किसी फोरम में लोगों के कमेंट्स पढता हूँ तो एक बात बहुत ही शिद्दत से उभर कर आती है, लोगों का पार्टी प्रेम। मैं हैरान हूँ, यहाँ तक कि हैरानगी की हद तक चला गया हूँ। इन लोगों के लिए समझ क्या बाहर से आयात करनी पड़ेगी?
जब किसी का ध्यान किसी क्षेत्र विशेष की समस्याओं पर दिलाया जाये तो वो उस पार्टी को गालियाँ देने लगता है जिसके खिलाफ वो आज तक वोट करता आया है। कल ही मैं एक वेबसाइट पर एक लेख पढ़ रहा था जिसमें मध्यप्रदेश की बदहाली का ज़िक्र और सीएम साहब से कुछ सवालात किये गए थे। उसमें नीचे पाठकों की टिप्पणियाँ थीं। सिर्फ ३ या ४ लोगों ने समझदारी की बात कही थी बाकी सारे लोग वाहियात सी बातें कर रहे थे। चूंकि मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार है, वहां पर लोग लेखक को कांग्रेस का एजेंट साबित करने पर तुले हुए थे। उस बेचारे ने जो हाल देखा वो लिख दिया और इन लोगों को बिना बात की मिर्ची लग गई। एक महाशय लिखते हैं कि आप कांग्रेस शासित राज्यों में जाकर देखिये वहां क्या हुआ है? अरे मेरे भाई, तेरे घर में खाना नहीं होगा तो क्या तेरा पेट इसलिए भर जायेगा कि दूसरे के घर में भी खाना नहीं है? अजीब बातें करते हैं लोग, पता नहीं क्यों इस लोकतंत्र में लोक ही किसी काम का नहीं है, शायद इसीलिए लोकतंत्र भी किसी काम का नहीं रहा। मैं मध्यप्रदेश के एक छोटे कस्बे से हूँ। इतना छोटा भी नहीं, तहसील है। मैंने वहां अपने बचपन से लेकर आज तक हमेशा अँधेरा ही देखा है, बिजली थोड़ी देर ही आती है, सड़कें हमेशा ख़राब ही रहीं हैं लेकिन ये कांग्रेस बीजेपी के पिट्ठू अपनी वफादारी साबित करने में लगे रहते हैं। अरे यार तू ये देख न कि तेरी समस्या कौन हल करता है, नहीं लेकिन, मर जायेंगे पर पार्टी को वोट देंगे। यहाँ तक कहते हैं लोग कि फलां पार्टी से अगर कोई कुत्ता भी खड़ा होता है तो हम उसी को वोट देंगे और ऐसी बेशर्मी की बातें ये लोग बड़े गर्व के साथ करते हैं। बताइये अब कहाँ जायेगा ये देश ऐसे बेवकूफों के हुजूम के साथ? यही वजह है कि कोई नेता कुछ नहीं करता, पता है कि ये बेवकूफ ऐसे ही मुट्ठी में है, और नहीं होंगे तो एक-आध मंदिर-मस्जिद का झुनझुना और पकड़ा देंगे। बिजली नहीं है, पानी नहीं है, सड़कें नहीं हैं, ज़माने भर की समस्याएँ हैं लेकिन पार्टी का पट्टा गले में डाले रहते हैं। ६० साल से ज्यादा हो गएँ हैं जब अँगरेज़ हमें छोड़ गए थे लेकिन हमारे लोग बड़े ही नहीं हो रहे ... | क्या आप बता सकते हैं कोई हल... ?

--अनिरूद्ध शर्मा

Monday, May 11, 2009

प्रथम बार वोट देने वालों का सरोकार काम से - एक चुनाव झलकी

प्रेमचंद सहजवाला

लोकसभा 2009 पर मैं अभी तक तीन बड़ी रिपोर्ट्स दे चुका हूँ. पर ब-तौर एक झलकी प्रस्तुत करने के मुझे लगा कि ज़रा उन नौजवान मतदाताओं से साक्षात्कार किया जाए, जो मन में पहली बार वोट डालने का उत्साह लिए घर से निकले थे. सन् '84 में जब राजीव गाँधी देश के प्रधानमंत्री बने तो अपने 5 - वर्षीय कार्य-काल में जो काम किए, उन में से एक महत्वपूर्ण काम यह था कि पहले मतदान करने के लिए न्यूनतम आयु 21 वर्ष होती थी, उसे राजीव गाँधी ने घटा कर 18 वर्ष किया. देश की युवा पीढ़ी बेहद प्रसन्न थी. युवा पीढ़ी को देश की समस्याओं पर गौर करने और अपने निर्वाचन-क्षेत्र के प्रतिनिधियों का मूल्यांकन करने की प्रेरणा मिली. दिनांक 7 मई 2009 को दिल्ली में भी बहुत इंतज़ार के बाद मतदान की सरगर्मी आई. मैं इस दिन नई दिल्ली लोकसभा सीट के अलग अलग मतदान केन्द्रों पर जायजा लेने घूम रहा था. कुछ देर के लिए मेरी नज़र उन नौजवान मतदाताओं को खोज रही थी, जिन्हें बेसब्री से इंतज़ार था कि पहली बार वोट देने वाली शुभ सुबह आए तो वे वोट देने जाएँ. इस बात में दो राय हो ही नहीं सकती कि वरिष्ठ पीढ़ी कि तुलना में युवा पीढ़ी अधिक प्रखर भी है, और बेहद आशावान भी. अलबत्ता कुछ युवक-युवतियां राजनेताओं के गिरते चारित्रिक स्तर के कारण खिन्न भी थे और कुछ तो कतिपय उन बड़ों जैसी बातें भी कर रहे थे जो कहते रहते हैं कि सब के सब चोर हैं बाबूजी. आख़िर किसे पसंद करें. मैंने बहुत पहले किसी चुनाव में 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' पत्रिका में एक कार्टून देखा था कि एक आदमी एक मोटा से लेंस ले कर बहुत सारे टोपी-धारी नेताओं को एक एक कर के गौर से देख रहा था. किसी के पूछने पर उस ने कहा कि आज चुनाव है. मैं देख रहा हूँ कि इन में सब से कम बुरा कौन सा है, क्यों कि अच्छा मिलना तो ना-मुमकिन है न!

पर 7 मई वृहस्पतिवार को अधिकाँश युवकों युवतियों में मुझे एक बहुत उत्साहवर्द्धक आशा-वादिता भी दिखी. नौजवानों का कहना है कि अगर नौजवानों को मौका दिया जाएगा तो मुमकिन है कि देश को एक नई और स्वस्थ दृष्टि भी दे सकें और काम भी बहुत कर सकें. 'दिल्ली का दंगल', जैसा कि इसे माना गया है, मुख्यतः दो ही पहलवान पार्टियों के बीच रहा है. कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा). मैं जितने भी नव-मतदाताओं से मिला (पहली बार वोट देने वाले), वे सब मुख्यतः इन्हीं दो पार्टियों के बीच बँटे हुए थे, भले ही वोटिंग-मशीन पर 40 या उस से भी ज्यादा नाम लिखे हों. किसी का चुनाव-चिह्न आसमान पर खिंचा तीर-कमान था तो किसी का
डबलरोटी या केक या बल्लेबाज़ वगैरह. पर नज़र सब की या तो हाथ पर थी या कमल पर. यह बताना मुश्किल कि कमल खिलेगा या हाथ हंसेगा. पर एक बात सब में गज़ब की समानता रखती थी कि सब का सरोकार काम करने वाले से ही था. इस निर्वाचन-क्षेत्र में कोई विजय गोयल (भाजपा) की तारीफ़ कर रहा था कि उस ने चांदनी-चौक में बहुत काम किया और हमेशा कोई न कोई नई योजना बनाता रहता है तो कोई अजय माकन के लिए तारीफों के पुल बाँध रहा था कि अब उन्होंने यमुना नदी को साफ़ करने का वादा किया है, जो कि बहुत ज़रूरी काम है. कुछ युवतियों में बहस भी ठनी क्यों कि किसी किसी को सोनिया-प्रियंका अच्छी लगती हैं तो उस के विरोध में दूसरी का कहना है कि अच्छी महिलाएं भाजपा में भी हैं, सोनिया-प्रियंका बड़ी फैमिली की हैं, इसलिए हर कोई उनकी तरफ़ है. बहरहाल जो बात मन को खुश करने वाली थी, वो यह कि युवा पीढ़ी देश से बहुत प्यार करती है और चाहती है कि देश को केवल बातें करने वाले निकम्मे नेताओं से छुटकारा मिले और देश में कुछ कर गुज़रने का वातावरण बने. यह सोच ही आशा का वह दीपक है, जिस की रौशनी में भरष्टाचार और आतंकवाद का अँधेरा भी पार हो जाएगा, ऐसी आशा की जा सकती है.


--प्रेमचंद सहजवाला

Sunday, May 10, 2009

मां के साए में...

सुबह-सुबह आंख खुली तो पता चला कि आज मदर्स डे है.....मतलब, बाज़ार का कैलेंडर ये भी तय करने लगा कि हम अपनी-अपनी मांओं को कब याद करें.....घर पर फोन कर लिया....मां दही में से मट्ठा निकाल रही थी....मदर्स डे की तामझाम से एकदम अनजान.....मन ही नहीं हुआ कि हैप्पी मदर्स डे जैसा कुछ बोलूं.....मां ही बोलती रही.....दुनिया भर की फिक्र.....ठीक से खाना, गर्मी से बचना और न जाने क्या-क्या.....यही सब सुनते-सुनते जाने कब बड़े हो गए....मां वही की वही रही....कभा बूढ़ी नहीं हुई.....बचपन से आज तक हसरत ही रही कि देखूं, मां उठती कब है......आज तक देख नहीं पाया....जब भी आंखे खुलीं, मां एकदम मुस्तैद.....घर का आधा काम सूरज निकलने से पहले ही निपट चुका होता था...

अब साल में एकाध बार ही मां से मुलाकात हो पाती है.....पता नहीं हम कौन-सा काम किए जा रहे हैं.....कोफ्त होती है, क्या करें.......नोएडा, ग़ाज़ियाबाद का इलाका भी ऐसा है कि सबकी ज़ुबान पर मां रहती है, हमेशा....तेरी मां की....मां की ये.....मां की वो......ओफ्फ.....
आज मन होता है कि मां को ऐसे याद कर रहे किसी सज्जन को पकड़ूं, जादू की झप्पी देकर बोलूं.....हैप्पी मदर्स डे.....आपको ऐसा महसूस नहीं होता क्या....

निखिल आनंद गिरि

Saturday, May 09, 2009

नोटिस है या नौटंकी

क्या मज़ाक़ लगा रखा है चुनाव आयोग ने। सन्नी देओल की दामिनी फ़िल्म का एक डायलॉग याद आता है जब वो भरी अदालत में ये कहता है कि तारीख पर तारीख़....तारीख़ पर तारीख़... मन करता है...चेप लूं...और बोलूं..नोटिस पे नोटिस ..नोटिस पे नोटिस। जया प्रदा पर चुनाव आचार संहिता का जब एक और मामला फिर से दर्ज हुआ, तो कुछ ऐसा ही लगा। एक सरकारी नोटिस से इस लोकतंत्र का तथाकथित राजा यानी आम आदमी के हाथ पैर फूलने लगते है। लेकिन जया जी पर आयोग की घुड़कियां असर डालती नज़र नहीं आती..नोटिस नहीं हो गया नौटंकी हो गयी। हम जैसे ख़बरियों के लिए हेडलाईन हो गई। साथ में पता चली नेताओं के सामने आयोग की औक़ात। ये कोई पहला मामला नहीं है। कोई पार्टी नहीं ह, जिसके नेताओं को आचार संहिता की अनदेखी करने के लिए नोटिस न जारी हुआ हो। सरकार की रेल चला रहे लालू हों या उनकी धर्मपत्नि राबड़ी हो। जया प्रदा हों। छुटभैया नेता हों। गाली गलौज़ हो, बिंदी बांटू अभियान हो या मुलायम जी और गोविंदा के नोट लुटाने जैसी दरियादिली हो। ये सब चुनाव आयोग की आँखों के सामने आया। आंखों में किरकिरी भी हुई। नतीजा नोटिस पर नोटिस। और दूसरी ओर से सफ़ाई पर सफ़ाई। जवाब पर जवाब। और हर जवाब के साथ आयोग लाजवाब। या तो चुनाव आयोग नोटिस के अलावा कुछ करने की हिम्मत नहीं जुटा रहा है, या फिर इन खद्दरधारियों के सामने नोटिस और उस पर सफ़ाई एक रूटीन वर्क बन गया है। सही भी है- चुनाव है तो जोश आ ही जाता है। आदमी कुछ बोल ही जाता है। कुछ ग़लत जैसा फ़ील नहीं होता। और भई दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का शो चल रहा है, कुछ तो मसालेदार आईटम होना ही चाहिए नहीं तो रंग नहीं जमेगा। पब्लिक बोलेगी कि इस बार के इलेक्शन में कुछ मजा नहीं आया। तो शो की टीआरपी बनी रहे। नेताओं की टीआरपी बनी रहे। कुछ न कुछ तो करते रहना पड़ेगा भाई। ऐसे में जनता जनार्दन का मूड देखा जायेगा या कि चुनाव आयोग की बंदरघुड़की, .डर नहीं लगता। अरे वरूण गांधी इतना कुछ बोल गया, तो चुनाव आयोग कुछ कर ही नहीं पाया। मुख्तार अंसारी का क्या कर पाया है चुनाव आयोग। इसी चुनाव आयोग के राज में फूलन देवी भी चुनाव लड़ चुकी है। शहाबुद्दीन जैसे लोग लोगों की नुमाईन्दगी करते आये हैं। ख़ून बहता रहा है। पैसा लूटता रहा है। लोग पाला बदलते रहें हैं। वोट ख़रीदते रहे हैं। वोट बिकते रहे हैं। बूथ लुटते रहे हैं। चौराहे पर बोली लगती रही है उस भरोसे की जो आम आदमी ने जताया इन तथाकथित अपने सेवकों पर। और ये सब कुछ होता रहा है चुनाव आयोग के सामने। चुनाव आयोग के रहते। तब अगर नेता इसके नोटिस को नौटंकी समझे तो समझ में आता है आयोग का असर। चावला जी इन नोट वालों को नोटिस नहीं आपका डंडा समझा सकता है। आप इस बात को समझे। नहीं तो सारी कोशिशे अंडा हो जायेंगी यानी ज़ीरो। नेताओं के फेवर में एक शायरी चुनाव आयोग के नाम-

मिटा सके हमको ये ज़माने में दम नहीं
ज़माना हमसे है ज़माने हम नहीं।


-रवि मिश्रा (लेखक ज़ी (यूपी) में न्यूज़ एंकर हैं)

Thursday, May 07, 2009

देव का पाकिस्तान

बड़ी मुश्किल से फोन मिला था... पहले बस हेलो... और फिर अगले ही पल “सलाम वाले कुम... भाई कैसे हैं... सब ख़ैरियत... तबियत अच्छी है” जो मैं पूछना चाह रहा था वो पहली ही सांस में दूसरी तरफ़ से पूछा जा रहा था। हम ठीक हैं भाई... मैं तो आपकी ख़ैरियत पूछना चाह रहा था। जो ख़बरें हम तक पहुंच रही हैं वो बेचैन करने वाली हैं। आपका फोन ही नहीं मिल रहा था तो चिंता और बढ़ रही थी। “ नहीं भाईजान मैं बिल्कुल ठीक हूं (हल्की हँसी के साथ) ऐसा कुछ नहीं है... सब सकून में है... सब मंगल कुशल है...”

हमारे सामने फरवरी 2006 का वो दिन आकर खड़ा हो गया जब पहली बार हम इस इंसान से पेशावर में मिले थे, तब हालात आज जैसे नहीं थे। वैसे तो पेशावर का हमारा ये सफर हमारे चैनल की तरफ से भारत-पाक एकदिवसीय मैच के लिये था लेकिन उस रोमांच में रहमान बाबा रोड पर स्थित कांटीनेंटल गेस्ट हाउस के रिसेप्शन काउंटर के पीछे खड़े शख़्स ने और रंग भर दिये थे।

ये वही सरज़मीन थी जहां 1923 में एक पठान बच्चे ने जन्म लिया था। बच्चा बड़ा हुआ तो हिंदुस्तान की धड़कन बन गया। लोग उसे ट्रेजडी किंग कहने लगे। पेशावर का यूसुफ ख़ान बंबई का दिलीप कुमार बन गया। लेकिन आसिफ जावेद की शक्ल में फिर एक ट्रेजडी हमारे सामने थी। आसिफ जावेद (विज़िटिंग कार्ड पर आसिफ कुमार का यही नाम छपा था) ने उस दिन पेशावर में हमारा इस्तेक़बाल नहीं स्वागत किया था। पाकिस्तान कई बार गया था मगर पहली बार एक हिंदू पाकिस्तानी से मुलाक़ात हुई थी, वो भी पेशावर में। अफगानिस्तान की सीमा से लगे इस शहर में हम चार दिन रहे और इन चारों दिनों में हमारे काम की व्यस्तताओं के बाद हमारे रहबर, दोस्त, गाइड, सब कुछ आसिफ भाई ही थे।

मगर इन तीन बरसों में पाकिस्तान ने बरबादियों का एक लंबा सफर तय किया है। आसिफ भाई लाख कहें सब मंगल कुशल है लेकिन हक़ीक़त से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता, और हक़ीक़त ये है कि पाकिस्तान की अवाम पर तालिबानी ख़तरा मौत की तरह मंडरा रहा है। जब वहां का बहुसंख्यक तबका महफूज़ नहीं है तो अल्पसंख्यकों के बारे में फ़िक्र कौन करेगा? पेशावर में सिंध के मुक़ाबले हिंदू परिवार बहुत कम हैं। आसिफ भाई के मुताबिक़ कोई हजार बारह सौ परिवार। और उनके समुदाय के एक एम॰पी॰ किशोर कुमार सहब भी है। “यहां शहर में तो हम ठीक हैं.... हाँ बाजोड़ के आगे जो सिख फैमलीज़ हैं उन्हें बड़ा टार्चर किया हुआ है... काफी लोग तो पंजा साहब आ गये हैं... काफी पंजाब की तरफ निकल आये हैं... हिंदू परिवारों के साथ ऐसा नहीं है न... सिखों का मामला दूसरा है... इनकी तो शिनाख़्त नज़र आ जाती है न...”

यानी ख़तरा है मगर शिनाख़्त न हो पाने की वजह से बचे हुए हैं। जैसे ही हमने ये कहा आसिफ कुमार की आवाज़ में दर्द पैदा हो गया “देखे जी बस... जहां इतने... 16-17 करोड़ अवाम पड़ी हुई हैं वहां हम भी एक कोने में पड़े हुए हैं...जो सबके साथ है वो हमारे साथ भी है...” आसिफ जिस जमात से आते हैं वो पाकिस्तान में सिर्फ तीन प्रतिशत है। इनमें हिंदुओं के साथ सिख और ईसाई भी शामिल हैं। पेशावर के मशहूर रेस्ट्रॉ “हेरिटेज” के खान साहब बताते हैं कि “अकेले पेशावर में सैकड़ों चर्च हैं, कई शहर की महत्वपूर्ण लोकेशंस पर बने हैं। दर्जनों मस्जिदें यहां बमों से उड़ा दी गईं लेकिन कभी किसी चर्च को नुकसान नहीं पहुँचाया गया। न ही किसी मंदिर के बारे में ऐसी खबर मिली। पता नहीं ये कौन लोग हैं जो मस्जिदों को निशाना बना रहे हैं।” ख़ान साहब के दर्द में गुस्सा भी शामिल है। उनका कहना है कि इन आतंकियों का संचालन भी अमरीका कर रहा है और उनके खिलाफ जंग भी अमरीका कर रहा है।

“भाईजान हम सब हैरान हैं यहाँ कि ये कौन लोग हैं। यहाँ की अवाम के सामने सवाल है कि क्या ये हमारी जंग है? ये लड़ाई हमारे शहरों गली-कूचों तक आ गई है। अगर फौजी ऑपरेशन इसी तरह चलता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब पूरा मुल्क तालिबानियों के कब्ज़े में होगा। हम तो चाहते हैं भाईजान कि हमारे सियासी रहनुमाओं, मज़हबी विद्वानों और समाजी हस्तियों की मदद से इन लड़ाकुओं को बेनक़ाब किया जाय ताकि पूरी कौम उनका चेहरा अच्छी तरह से देख ले। इसके बाद लोगों को भरोसे में लेकर एक भरपूर फौजी आपरेशन कर, दहशतपसंदों को सरेंडर करने पर मजबूर करके, समस्या का सियासी हल निकालने के लिये रास्ता हमवार किया जाय। और जंग में बरबाद हो चुके लोगों की बहाली यूँ की जाय कि वो आतंकी ताकतों की तरफ आकर्षित न हों।”

मैं सोच रहा था कि कितना फर्क़ है अवाम की सोच में, अल्पसंखयकों की सोच में और अमरीकी-पाकिस्तानी हुक्मरानों की सोच में। अवाम के पास जो हल है उसका कोई खरीदार नहीं है, दूसरी तरफ अमरीकी इंस्टीट्यूट ऑफ पीस के रिसर्च फेलो इम्तियाज़ अली के अनुसार पाकिस्तान के टूटने-बिखरने की बातें हो रही हैं। अलक़ायदा, तालिबान, अफगानिस्तान और पाकिस्तान जैसे विषयों के पंडित भविष्यवाणियां कर रहे हैं कि पाकिस्तान टूटने की कगार पर है। यहां तक कि एक नक़्शा भी प्रकाशित किया जा चुका है, जिसमें दिखया गया है कि बलूचिस्तान तथा अफगानिस्तान से लगे पाकिस्तानी इलाकों के निकल जाने के बाद भविष्य का पाकिस्तान कैसा दिखेगा।

पाकिस्तान में तालिबानी ताक़त इस्लामाबाद से सिर्फ़ 60 किलोमीटर पर मौजूद है और ये दूरी लगातार कम होती जा रही है। वाशिंगटन में हिलैरी क्लिंटन पाकिस्तान पर इल्ज़ाम लगा रही हैं कि उसकी सरकार तालिबानियों के लिये रास्ता साफ कर रही है कि वो पूरे मुल्क की हुकूमत अपने हाथ में ले लें। पाकिस्तान के एक वरिष्ठ राजनायिक वाजिद शम्सउल हसन जो ब्रिटेन में राजदूत भी रह चुके हैं, राष्ट्रीय खूफिया परिषद की वैश्विक भविष्य आंकलन की एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहते हैं कि 2005 में ही पाकिस्तान पर पड़ने वाले काले साय की पेशिनगोई की जा चुकी है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि सिविल वार, खूनखराबा, प्रांतीय झगड़े और न्यूक्लियर हथियारों पर कब्ज़ा करने के लिये संघर्ष के चलते, 2015 तक पाकिस्तान एक नाकाम देश की श्रेणी में आ जायगा।

2006 में आसिफ भाई से हमने जानना चाहा था कि क्या आमतौर पर हिंदुओं के नाम ऐसे ही होते हैं जैसा उनका नाम है? उन्होंने हामी भरी थी कि हाँ ऐसे ही नाम हम लोग रखते हैं। “पिछले साल मेरे यहाँ बेटा हुआ है और हमने उसका नाम देव रखा है। ये हमारे परिवार में पहला हिंदू नाम है।” आसिफ भाई का गर्व से फूलता सीना और आंखों की चमक हमारी याद्दाश्त में अभी तक उतनी ही ताज़गी के साथ बसी हैं।

हमारी हिम्मत नहीं हुई कि हम आसिफ कुमार से देव के बारे में कुछ पूछें। हमें इसका एहसास है कि ऐसे सवाल न चाहते हुए भी डर पैदा करते हैं। फिर भी हम अंदाज़ा लगा सकते हैं कि उनका देव अब स्कूल जाने लगा होगा। गुजरता वक़्त उसे बड़ा कर देगा लेकिन ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल है कि किस पाकिस्तान के नक्शे में उसका घर होगा। और शायद ये भी कि कैसा होगा देव के भविष्य का पाकिस्तान?

--नाज़िम नक़वी

सन् 84 का दर्द और सिक्ख मत-दाता

समाज सेवक कुलदीप सिंह चन्ना के साथ अन्तरंग बातचीत - प्रेमचंद सहजवाला

उपरोक्त बातचीत के विषय में लिखने से पहले मुझे याद आ रहा है सन 2004, जब लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री की शपथ ले रहे थे. शपथ-समारोह को देश के सभी चैनल दिखा रहे थे पर मैं यह कार्यक्रम देख रहा था बी.बी.सी पर. प्रारम्भ में ही बी.बी.सी पर दो पत्रकार बड़ी गरमागरम गुफ्तगू कर रहे थे. मनमोहन सिंह के शपथ लेने पर एक अजीब सा उत्साह पत्रकारों में भी था. एक पत्रकार दूसरे से भारत देश की तारीफ कर रहा था कि भारत एक सच्चे अर्थों में secular देश है जिस का राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे अब्दुल कलाम मुस्लिम है और अब एक सिख नेता प्रधानमंत्री की शपथ लेने जा रहा है. यानी दोनों अल्प-संख्यक समुदायों से. पर दूसरे साथी पत्रकार ने उसे तुंरत रोकते हुए कहा कि ये दोनों शख्सियतें इन महत्वपूर्ण पदों पर इसलिए नहीं पहुँची कि वे अल्पसंख्यक हैं, वरन् दोनों ही देश की राजनैतिक मुख्यधारा के माध्यम से अपनी योग्यताओं के आधार पर आगे आए हैं. उस समय एक जिज्ञासा सब के मन में थी कि यदि सोनिया ने प्रधानमंत्री पद को अस्वीकार कर दिया तो आख़िर मनमोहन सिंह को ही क्यों चुना. कुछ लोग अपनी ओर से अटकल लगा रहे थे कि सन 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद जिस नृशंस तरीके से अबोध सिक्खों की हत्याएं हुई, उस के बाद सिक्ख समुदाय कांग्रेस पार्टी को कभी क्षमा नहीं करेगा क्यों कि दिल्ली के कतिपय कांग्रेसी नेताओं पर यह इल्जाम लगता रहा है कि उन नृशंस हत्याओं के पीछे उन्हीं का हाथ है. इसलिए सोनिया जी सिक्ख समुदाय से अपने टूटे रिश्तों को जोड़ने के लिए उनके ज़ख्मों पर अपने तरीके से मरहम लगना चाहती हैं. पर जहाँ एक तरफ़ मनमोहन सिंह के पाँच वर्ष के शासन काल में बी.बी.सी पत्रकारों द्वारा कही हुई बात साबित हो गई कि वे किसी विशेष समुदाय के प्रधानमंत्री नहीं हैं, वहीं पाँच वर्षों में उन्होंने किसी भी समुदाय विशेष को प्रसन्न करने के लिए कोई अलग से कदम नहीं उठाया, वरन वे देश की आर्थिक स्थिति व आतंकवाद से जूझते रहे, जिसमें उन्हें कभी सफलता मिली कभी असफलता. पर हाल ही में मैंने जब अपने निर्वाचन क्षेत्र में अजय माकन का भाषण एक पत्रकार के रूप में कवर किया तो यह देख कर चकित था कि मंच पर अच्छी खासी मात्रा में सिख भी उपस्थित थे क्यों कि मानसरोवर गार्डन व राजौरी गार्डन के आसपास के इस इलाके में जहाँ भाषण हो रहा था, वहां सिक्ख जनसँख्या भी अच्छी खासी है. ऐसे में किसी के भी मन में यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि क्या सिख समुदाय कांग्रेस को क्षमा कर चुका है? या कि अब वह कांग्रेस के साथ इसलिए है कि कांग्रेस एक सिक्ख नेता को प्रधानमंत्री बनाए हुए है. दोनों प्रश्नों के उत्तर मेरे मन में मिले जुले से हैं. पिछले महीने जगदीश टाईट्लर को टिकट मिलने के सवाल पर एक सिख पत्रकार ने गृहमंत्री चिदंबरम पर जूता फेंक दिया. उधर अदालत जब टाईट्लर पर फ़ैसला देने वाली थी तब बाहर जमा सिख समुदाय व उस का आक्रोश काबिले-गौर था. पर उस भीड़ का थोड़ा सा विश्लेषण करने पर यह भी स्पष्ट था कि उस आक्रोश का नेतृत्व अकाली-दल कर रहा था. यानी सिक्ख परिवार, जिनके घरों से कई प्यारे लोग चले गए, उन के साथ न्याय तो जाने कब हो, पर उस पर राजनीती भी कम नहीं हो रही. यही कहना है इस इलाके के प्रसिद्ध समाज-सेवी सरदार कुलदीप सिंह चन्ना का कि सिक्ख समुदाय तो सदियों से अत्याचार सहन करता आ रहा है. उनकी लाचार आस्था है ईश्वर में कि ईश्वर कभी न कभी गुनाहगारों को सज़ा देगा ही, पर वे गुजरात में सन 2002 में हुई नृशंस मुस्लिम हत्याओं का सन्दर्भ दे कर कहते हैं कि कुछ पार्टियाँ सन 84 की नृशंस हत्याओं को केवल चुनाव के दौरान ही उठाती हैं. यह पूछने पर कि क्या मनमोहन सिंह के प्रति उन का उत्साह इसलिए है कि वे उन के ही मज़हब के हैं, यानी सिक्ख हैं, वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि नहीं, मनमोहन सिंह एक काबिल प्रधानमंत्री हैं जिन की विदेशों में भी बहुत अच्छी साख है. अलबत्ता वे कांग्रेस के प्रति आभार भी प्रकट करते हैं कि कांग्रेस ने ही देश को सिक्ख राष्ट्रपति दिया, सिक्ख सेना-अध्यक्ष दिया और अब सिक्ख प्रधान मंत्री. उनकी बात आइये, हम उनकी ही ज़बान से सुनें, शायद इसे सुनने से हम एक झलक सिक्ख समुदाय के हृदय की पा सकेंगे.



बातचीत-1बातचीत-2
-----बातचीत-3

Tuesday, May 05, 2009

गिरता मतदान- लोकतंत्र या अल्पतंत्र

रवि मिश्रा ओसामा से ओबामा तक और मैडोना से मल्लिका तक की ख़बर, हम तक पहुँचाने वाले एक ख़बरिया चैनल की बोलती ज़ुबान हैं। ज़ी (यूपी) में न्यूज़ एंकर रवि मिश्रा छपरा, बिहार से चलकर नोएडा पहुँचे हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के 15वें महापर्व में वोटरों का घटता रूझान इन्हें चिंतित कर रहा है।

चुनाव आयोग ने जब चुनाव की घोषणा की तो कई आंकड़े दिये. सत्तर करोड़ से भी ज्यादा मतदाता बताये और ये भी बताया कि कितने नये मतदाता जुड़े हैं वोटर लिस्ट में. सुनकर लगा कि हमारे लोकतंत्र का दायारा बढ़ता जा रहा है. अब जबकी धीरे - मतदान आगे बढ़ रहा है और ये बात सामने आ रही है कि ये बड़ी संख्या में वोटर मतदान नहीं कर रहे हैं. मतदान का कम प्रतिशत भले ही चिंता की बात है- चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों के लिए, लेकिन ये एक बेहद गंभीर संकेत है अल्पतंत्र की ओर बढ़ते क़दम का.पप्पू को जगाने के लिए जागो रे जैसे अभियान भी चले लेकिन लगता है पप्पू पप्पू ही बना रहना चाहता है.वोट नहीं डालता. ये सवाल तो ये है ही कि क्यों वोटिंग प्रतिशत कम है. देश को सबसे ज्यादा सांसद देने वाला राज्य उत्तर प्रदेश चालीस और पचास प्रतिशत के बीच झूल रहा है, जहां के चुनावी दंगल में नेता जितना ताल ठोक रहे हैं वहीं जनता ताली तक बजाने के मूड में नज़र नहीं आती. कारण कई हैं. पर इस सबसे लोकतांत्रिक व्यवस्था के आलोचकों के उस तर्क को बल मिलता है जो ये कहते हैं कि लोकतंत्र कुछ लोगों का ही तंत्र हैं. बहुमत सत्ता की भागीदारी से दूर रहती है. जब उत्तर प्रदेश में 44-45 प्रतिशत लोगों ने वोट दिया तो ये बात तो तय है कि नतीजे भी इन्हीं के दिये वोटों पर तय होंगे.यानि 55 प्रतिशत की आबादी बिना मत व्यक्त किए एक सरकार को स्वीकार कर लेगी. अगर पूरे भारत की भी बात कर लें तो हार जीत भी 50-60 प्रतिशत मतदान पर तय होगा. पार्टियों की हार जीत इन्ही वोटों पर तय होगी. फिर हार का अंतर कितना भी हो , जीता हुआ प्रत्याशी उस पूरे क्षेत्र के लोगों की नुमाइंदगी करेगा. सरकार बनवायेगा.ये कैसा शासन होगा जहां कम वोटिंग में भी हार जीत का फ़ैसला हो जाता है. सरकारे बन जाती हैं. अगर वोटिंग 40 प्रतिशत है जो बाक़ि के 60 प्रतिशत लोगों की राय लिए बिना हार जीत का फ़ैसला हो जाता है. और फिर फ़ैसला होता उनके पांच सालों का. इस अल्पतंत्र के तत्व के साथ पूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था का दंभ कैसे भरता है हमारा सिस्टम, समझना मुश्किल है. वोटों का लगातार गिरता हुआ प्रतिशत हमें असल में एक ऐसी व्यवस्था की तरफ ले जा रहा है जहां अल्पमत बहुमत के छद्म रूप में दिखता है और लोकतांत्रिक व्यवस्थ का झूठा आभास दिलाता है. कई देशों में ख़ास कर सोवियत संघ के टूटे हूए घटकों में ऐसी व्यवस्था है जिसमें 50 प्रतिशत से कम वोटिंग होने पर हार-जीत का फ़ैसला नहीं होता. पुन: मतदान कराया जाता है. ये सुनिश्चित किया जाता है जो राज करेगा उसे असल में बहुमत का समर्थन प्राप्त है. अगर भारत में ये सिस्टम लागू हो जाये तो अल्पतंत्र की तरफ़ बढ़ते क़दम पर एक अवरोध लगाया जा सकता है. लेकिन ये स्पीडब्रेकर लगाने के लिए शायद चुनाव आयोग को ये सुनिश्चत करना होगा कि वोटिंग प्रक्रिया और ज्यादा प्रो- पीपुल हो. ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग मतदान प्रक्रिया का हिस्सा बन सके. वोटरों की उदासीनता और नेताओं का चरित्र देखकर यह निकट भविष्य में आसान नहीं दिखता. और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक पप्पू पप्पू बना रहेगा और इस लोकतंत्र के अल्पतंत्र द्वारा शासित रहेगा.

Monday, May 04, 2009

यथा-राजा तथा-प्रजा


जी हाँ वक्त के साथ-साथ न केवल कहावतों, मुहावरों के अर्थ बदल जाते हैं अपितु उनकी शब्दावली में भी उलट-फ़ेर हो जाता है। पिछले जमाने में राजा का पद वंशानुगत होता था और पीढियों तक चलते-चलते प्रजा मजबूरी में राज-परिवार की फ़ितरत-स्वभाव के मुताबिक खुद को ढाल लेती थी, गुजारा जो करना था। जैसा हमने सुना है कि कई रजवाड़ों में नवविवाहिता को अपनी पहली रात मजबूरन राजमहल में गुजारनी पड़ती थी। मेरे गांव में कलानौर के नवाब के महल से पहली रात को भाग कर एक नवविवाहिता ने लगभग १२५ साल पहले शरण लेने व उसके बाद गांव वालों के कलानौर पर चढाई कर नवाब के कत्ल की कथा आज भी कही जाती है। उसके महल के बुर्ज पर लगे हवा की दिशा जानने हेतु लगाए गए यंत्र व नवाब के नगाड़े जो आज भी एक संत की समाधि-स्थल पर सुरक्षित है, को सबूत बतलाया जाता है। यह कथा आसपास के गावों तथा भांदो द्वारा आज भी गाई जाती है। खैर यह कथा एक ओर।

आज देश में प्रजातन्त्र है, यानी प्रजा अपना राजा या प्रतिनिधि चुनने में स्वतंत्र है, तो हम कह सकते हैं कि जैसी प्रजा है वैसा राजा होगा। मैं, आप यानी प्रजा यह मानने को कतई तैयार न होगी कि गैंगस्टर-अपराधियों को चुनने में उसका कोई दोष है। हम सब विकल्प न होने की दुहाई देने लगते हैं- क्या मैं गलत कह रहा हूँ?
पर हम यानी जनता-जनार्दन खासी तंग है अपने चुने गये प्रतिनिधियों से। तो क्या करें ? हमें इस चुनाव तथा आगे आने वाले चुनावों में कुछ बातों पर ध्यान देना चाहिये।

हम सब जानते हैं कि पिछले कुछ बरसों से देश में संयुक्त मोर्चा सरकारें राज कर रहीं है क्योंकि कांग्रेस या भाजपा दोनो तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियाँ बहुमत प्राप्त नहीं कर पा रहीं और उन्हे क्षेत्रिय दलों की वैशाखी पर आश्रित रहना पड़ता है। और उनकी ब्लैकमेलिंग तो हमने पिछली लोक सभा के शक्ति परीक्षण काल में देखी ही है, शिबू सोरेन और देवगौड़ा एक दिन में ही 3-4 बार इधर-से उधर होते नजर आए। हम यह भी जानते हैं (आज मीडीया आंकड़े दे रहा है) कि ये क्षेत्रिय दल ही सब से ज्यादा अपराधिक पृष्ठभूमि वाले प्रत्याशी खड़े करते हैं, जो अपने धन-बल व जातीय समीकरण द्वारा जीत भी जाते हैं। अब ऐसे तत्वों की जीत की संभावनाओं के चलते राष्ट्रीय पार्टियाँ भी उन्हें टिकट देने को मजबूर हो गयीं, मैं यह नहीं कहता कि ये तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियां दूध-धुलीं हैं। वे तब तक ऐसे तत्वों को टिकट देंगी, जब तक वे जीतते रहेंगे। तो हमें चाहिये कि
इस चुनाव व आगे आने वाले चुनावों में भी केवल इन तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियों के उम्मीदवारों को ही वोट दें चाहे वह कैसा ही हो। जहां इन तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियां का उम्मीदवार न हो वहां भी क्षेत्रिय पार्टी के उम्मीद्वार के स्थान पर किसी निर्दलीय कोवोट दें। जहां इन तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियों में किसी पार्टी ने दल-बद्लू को टिकट दी हो वहां उसे वोटे न दें।

इससे आज ही कोई परिणाम आएगा ऐसा नहीं है लेकिन धीरे-धीरे हवा बदलेगी और जब इन तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियों को जनता की मनसा का ज्ञान होने लगेगा तो वे खुद भी इस और ध्यान देंगी। तब जनता इन तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियों के उस उम्म्मीद्वार को नकारना आरम्भ करेंगे जो आपराधिक पृष्ठभूमि का होगा।
हमें (हम पढे लिखे लोगों) को यह अभियान केवल चुनाव के समय ही नहीं अपितु सतत जारी रखना होगा, जिससे अगले-उससे अगले चुनाव तक आमजन इस बात को अपना ले और सच मानें आमजन जो ब्लॉगिंग नही जानता, अब इस बात को मानता है कि देश में दो पार्टियां ही होनी चहियें, उसे जरूरत है मार्ग-दर्शन की। यह विश्वास दिलाने की कि ऐसा संभव है। अब तक ये आपराधिक तत्व उन्हे विश्वास दिलाने में काम्याब रहें है कि उनकी जाती का सासंद-विधायक ही उनका भला कर सकता है, पर अब वे भी जान गये हैं कि यह केवल दिखावा है और वे आपकी रहनुमाई की राह देख रहे हैं। इस चुनाव में हरियाणा की जनता का मूड देखकर मैं यह बात कह रहा हूं और चुनाव नतीजे बतला देंगे कि मेरा आकलन सही है या गलत है। केवल कुछ दिनों की बात है।
आगे चलकर हम ब्लॉगिंग व सेमिनारों-सभाओं मे जहां ये सांसद-इन तथाकथित राष्ट्रीय पार्टियों के बुलाए जाएंगे इन्हें ही कुछ बातें पहुंचाएं (हम हरयाणा मे ऐसा करने में लगे है)कि

  1. संसद में ऐसा नियम कानून लाया जाए कि किसी पार्टी में अगर किसी पार्टी का विघटन होता है, तो जो घटक एक पार्टी से समर्थन वापिस लेकर (जिसे अब तक पूरी पार्टी समर्थन दे रही थी) दूसरी पार्टी को समर्थन देना चाहे तो उसे इस नई पार्टी में विलय होना पड़ेगा अन्यथा उसके सदस्यों की सदन सदस्यता स्वत: खत्म हो जाएगी (ऐसा अब तक तब होता है जब इन की संख्या पार्टी की अविभाजित संख्या के एक तिहाई से कम हो)।

  2. यही नहीं अगर कोई पूरी की पूरी पार्टी भी एक मोर्चे से समर्थन वापिस लेकर दूसरे मोर्चे का समर्थन करना चाहे तो उसे भी दूसरे मोर्चे की सबसे बड़ी पार्टी मे विलय करना पड़ेगा।

  3. किसी को भी बहुमत प्राप्त न होने पर अगर कई पार्टियां मिलकर सरकार बनाना चाहें तो उन्हें अपनी पार्टी का विलय उस मोर्चे की सबसे बड़ी पार्टी मे करना अनिवार्य कर दिया जाए।

  4. चुनाव में अगर किसी पार्टी को कम से कम 5 राज्यों में प्रतिधित्व प्राप्त नहीं हो तो उसके सदस्यों का किसी राष्ट्रीय पार्टी में विलय अनिवार्य हो। अगर वे ऐसा न करें तो उनकी सदस्यता खत्म कर दी जाए।

  5. निर्दलीय सदस्य अगर किसी एक मोर्चे में शामिल होने के बाद अपना समर्थन वापिस लेना चाहे तो उसकी सदस्यता खत्म हो।


यह सच है कि ऐसा होना अभी संभव नहीं है लेकिन अगर देश के बुद्धिजीवी लामबंद हो जाएं तो निकट भविष्य में स्थिति अवश्य सुधरेगी।
आमजन को अगर दिशा दी जाए तो वह करने को तैयार रहता है। हमारे देश में एमरजेंसी के बाद के चुनाव, बोफ़ोर्स के बाद के चुनाव व बर्लिन की दीवार का टूटना-सोवियत संघ व ईस्टर्न यूरोप की तथाकथित तानाशाहियों का टूटना,आमजन की ताकत का नमूना नहीं तो क्या हैं ? जरा सोचें

कुछ और विकल्प
एक अन्य विचारधारा- हमें अमेरिकन यानि राष्ट्रपति पद्धति अपनानी चाहिये, जिससे यह अनिश्चितता खत्म हो जाए। सरकार गिरने का खतरा न रहे। अगर आप ध्यान करें तो देखें केवल दो उदाहरण- बिल क्लिंटन कांड अगर हिन्दुस्तान में होता (जब बिल क्लिन्टन अपने रक्षामन्त्री से बात कर रहा था तो मोनिका लेविन्सकी से संलग्न था), क्या भारतीय प्रधानमन्त्री ऐसी बात उजागर होने पर इस्तीफ़ा देने को बाध्य नहीं होता? ब्रिटेन में प्रोफ़्मयो कांड का उदाहरण देखें।
हमारे यहां न्यूक्लियर संधि में मनमोहन की कुर्सी ही नहीं, सरकार भी येन-केन प्रकारेण बची, लेकिन जनाब बुश तो गलत रिपोर्ट बनवाकर इराक पर हमला कर बैठे। क्योंकि उन्हें तानाशाह जैसी ताकत हासिल थी।

एक और विचार- चुनाव में जिस पार्टी को जितने प्रतिशत वोट मिलें उतने ही सांसद उसे मिल जाने चाहियें। दोस्तो, हमारे समाज मे जाति-धर्म का दुरुपयोग चुनाव में जिस तरह होता है, यह तरीका उसे और बढावा देगा। मित्रो, हमारे पुरखों ने जो आजादी की लड़ाई से तपकर कुन्दन बनकर निकले थे और उस वक़्त उनके दिमाग में आमजन की भलाई व आमजन की स्वतंत्रता कायम रखने व उनके मौलिक अधिकारों को सुरक्षित रखने के अलावा कोई और विचार नहीं था। दुनिया के सर्वश्रेष्ठ सविंधानो को पढ़कर-मनन कर एक बेहतरीन संविधान हमें दिया था, जिसमें जो कमियां नजर आईं उन्हें आहिस्ता-आहिस्ता दूर भी करने के प्रयत्न जारी हैं। जैसे दल-बदल पर कानून, सूचना का अधिकार अधिनियम आदि। मुझे लगता है कि अगर वोटर सही प्रतिनिधियों को चुनकर भेजेंगे तो आमजन के कल्याण हेतु और भी नियम बनेंगे। हमारा संविधान एक बहुमूल्य दस्तावेज है। बस यह जिनके (हमारे) लिये बनाया गया है, उन्हें जागरूक रहना है।

लेखक- डॉ॰ श्याम सखा 'श्याम'

Sunday, May 03, 2009

बढ़ता खाद्य तेल आयात घातक

भारत एक कृषि प्रधान देश है और तिलहन उत्पादन के क्षेत्रफल में विश्व में भारत का स्थान चौथा है लेकिन कम उत्पादकता के कारण देश में खाद्य तेलों का आयात दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है। आज स्थिति यह हो गई है कि खाद्य तेलों के आयात बिल का नम्बर कच्चे तेल के आयात बिल के बाद आता है।

पिछले कुछ वर्षों से खाद्य तेलों का आयात बढ़ता ही जा रहा है। यदि चालू तेल वर्ष 2008-09 (नवम्बर-अक्टूबर) की बात करें तो मार्च तक के 34.34 लाख टन खाद्य तेलों का आयात किया जा चुका है जबकि गत वर्ष इसी अवधि में 19.34 लाख टन का आयात किया गया था। वास्तव में इस वर्ष के आरंभ से ही महीने दर महीने खाद्य तेलों का आयात बढ़ता आ रहा है और आगामी महीनों में भी इसके जारी रहने का अनुमान है।

तेल वर्ष 2005-06 के दौरान कुल 44.16 लाख टन खाद्य तेलों का आयात किया गया था जो 2006-07 में बढ़ कर 47.14 लाख टन और गत वर्ष यानि 2007-08 में बढ़ कर 56.08 लाख टन के स्तर पर पहुंच गया था।

खाद्य तेलों के आयात की वर्तमान स्थिति को देखते हुए चालू वर्ष में आयात 70 लाख टन तक पहुंच सकता है। क्योंकि आयात शुल्क न होने के कारण आयात सस्ता पड़ रहा है।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि देश में तिलहनों का उत्पादन कम होता है और खाद्य तेलों की मांग को पूरा करने के लिए आयात पर निर्भर होना पड़ता है। लेकिन चिंता का विषय यह है कि यह निर्भरता दिनों दिन बढ़ती जा रही है।
कोई समय था जब खाद्य तेलों के आयात पर निर्भरता केवल 10 प्रतिशत ही थी लेकिन अब यह 50 प्रतिशत से ऊपर पहुंच चुकी है। देश में खाद्य तेलों की सालाना मांग लगभग 110 लाख टन है।

खाद्य तेलों पर विदेशी निर्भरता बढ़ते जाने कारण सरकारी नीतियां हैं। गत वर्ष जब देश में मंहगाई बढ़ रही तो खाद्य तेलों के भाव भी पीछे नहीं थे। विदेशों में भी खाद्य तेलों के भाव रिकार्ड स्तर पर थे। इन पर काबू पाने के लिए सरकार ने पहले खाद्य तेलों पर आयात शुल्क कम किया और बाद में कच्चे तेलों पर तो आयात शुल्क समाप्त ही कर दिया।

इसी बीच, विश्व बाजार में खाद्य तेलों के भाव में लगभग 40 प्रतिशत की गिरावट आ गई लेकिन चुनाव को देखते हुए सरकार ने आयात शुल्क नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया। इससे आयातकों ने खाद्य तेलों का आयात अधिक मात्रा में किया (भले ही इससे किसानों को नुकसान हो रहा है।) और आज देश में आयातित खाद्य तेलों की बाढ़ आ गई है।
इससे न केवल देश के तिलहन उत्पादक किसानों को अपेक्षा से कम भाव मिल रहे हैं अपितु सूरजमुखी उत्पादकों को तो सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल रहे हैं।

इसके अलावा खाद्य तेल उद्योग भी बुरी तरह प्रभावित हो रहा है क्योंकि भारी मात्रा में रिफाईंड तेलों का आयात किया जा रहा है जबकि देश के रिफाईंनिंग उद्योग की स्थापित क्षमता बेकार पड़ी है।

सस्ते खाद्य तेलों के आयात का असर आगामी वर्षो में और भी भंयकर होगा क्योंकि किसानों की दिलचस्पी तिलहन उत्पादन में कम होती जा रही है। तिलहन उत्पादन कम होने से देश के खाद्य तेल उद्योग पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा।
ऐसे में बेहतर होगा कि सरकार उपभोक्ता के हितों के साथ-साथ तिलहन उत्पादक किसानों की हितों का भी ध्यान करे। अन्यथा कुछ वर्षों बाद खाद्य तेल उद्योग केवल इतिहास बन कर रह सकता है।

--राजेश शर्मा

Saturday, May 02, 2009

सोने का पिंजर (अंतिम अध्याय)

तेरहवां अध्याय

अमेरिका का उत्तरी छोर, बर्फीली ठण्डी हवाएं चलना प्रारम्भ हो गयी हैं, कुछ ही दिनों में यहाँ बर्फ ही बर्फ होगी। तब किसी भी पक्षी का यहाँ रहना सम्भव नहीं होगा। पक्षियों के एक दल का नेता आकाश को निहार रहा है, बर्फ का गिरना महसूस कर रहा है। अब मुझे दक्षिण छोर की ओर चले जाना चाहिए, मन में चिन्तन चल रहा है। कहीं तो नवीन आशियाना तलाशना ही होगा! क्या हम इस बार सुदूर देश की यात्रा कर लें? मन में अचानक प्रश्न कौंध गया। भारत का नाम सुना था, क्या हम सात समुद्र पार कर भारत जा सकेंगे, मन में संशय बना हुआ था। बुजुर्ग और युवा पक्षियों से सलाह-मशविरा किया गया।
युवाओं ने कहा कि जब हमारा सैनिक, ईराक पर युद्ध कर सकता है तो क्या हम भारत में आश्रय की तलाश नहीं कर सकते? हम में भी हवाईजहाज जितनी ताकत है, उड़ने की।
अचानक सिकन्दर याद आ गया, उसने कैसे भारत पर चढ़ाई की थी? वह भी तो आज से दो हजार वर्ष से भी पूर्व समुद्र और रेगिस्तान को पार करता हुआ भारत पहुँचा था, तो फिर हम क्यों नही? हमारे यहाँ भी 500 वर्ष पूर्व यूरोप से कोलम्बस आया था।
प्रश्न पूर्ण हुए, उत्तर केवल एक ही था कि पक्षियों में असीमित शक्ति होती है और वे पूर्ण आकाश को नापने की क्षमता रखते हैं। बस फिर क्या था, दल को संकेत मिल गए, उड़ने को तैयार हो जाओ। संकेत मिलते ही सारा दल पंक्तिबद्ध खड़ा हो गया। उन्हें कहाँ मनुष्यों की तरह सामान लादना था, बस उन्हें तो अपने दल के नेता के एक इशारे पर उड़ जाना था। वे सब उड़ चले, अपना लक्ष्य निर्धारित कर, अपनी मंजिल की ओर। युवा पक्षियों के मन में कौतुहल था, भारत को जानने की इच्छा थी, प्रश्न मन में कुलबुला रहे थे। आखिर पूछ ही लिया एक युवा पक्षी ने, कैसा है भारत?
प्रौढ़ पक्षियों के संक्षिप्त ज्ञान ने बाहर झाँकने की इच्छा जागृत की। वे बता रहे थे कि भारत एक प्राचीन देश हैं, वहाँ की जलवायु सभी प्रकृतिजन्य जीवों के अनुकूल हैं। वहाँ के पक्षियों को दूसरे देश की तलाश नहीं करनी होती। वहाँ के जंगल हरे-भरे हैं। बहुत प्रकार की वनस्पतियां वहाँ होती हैं। जंगलों में इतने फल होते हैं कि अधिकतर पक्षी वहाँ शाकाहारी हैं।
एक पक्षी ने प्रश्न कर लिया कि ये सब तुमको कैसे मालूम?
उसने कहा कि यहाँ चिड़ियाघर में भारत से पक्षी लाए जाते हैं। मुझे उनसे एकाध बार बात करने का अवसर मिला है।
फिर आपकी जानकारी ठीक ही होगी, वे सब खुश होकर बोले। यदि ऐसा अद्भुत देश हमारी धरती पर है तब तो उसे अवश्य देखना चाहिए।
सुना है कि वहाँ साइबेरिया आदि देशों से तो नियमित पक्षी जाते हैं। वो भारत से पास अवश्य हैं लेकिन हमारे हौंसले भी बुलन्द हैं। हम भी भारत की धरती को देखकर ही आएंगे। हमारे बच्चे भी हम पर गर्व करेंगे कि हमारे पूर्वज कभी भारत जाकर आए थे।
अब वे सब खुश होकर उड़ रहे थे और सम्वेत स्वरों में गा रहे थे।

एक पक्षी- जाना है उस देश जहाँ पंछी चहचाते
दूसरा पक्षी- जाना है उस देश जहाँ जंगल मदमाते
तीसरा पक्षी- पेड़ जहाँ के फल से लदते, रस बिखराते
चौथा पक्षी- जाना है उस देश जहाँ जंगल बौराते।

एक पक्षी- हमने सुना है भारत में तो जंगल में भी आम लदा करते हैं
दूसरा पक्षी- हमने सुना है भारत में तो मरूधर में भी मोर नचा करते हैं
तीसरा पक्षी- जाने कितने तोते, चिड़िया, बंदर, भालू,
हाथी, चीते, जंगल में सब ही रहते हैं
चौथा पक्षी- जंगल उनको खाना देता, रहना देता
जाना है उस देश जहाँ जंगल इठलाते।

कई समुद्र पार करते हुए, आखिर एक दिन उनकी निगाहें मंदिर के गुम्बज पर पड़ी, जहाँ कतारबद्ध पक्षी बैठे थे।
शहर आ गया, भारत भूमि आ गयी, खुशी की लहर छा गयी।
एक सुंदर सी झील में, छोटा सा एक टापू, उसमें अनेक पेड़ लगे थे, उन्होंने वहीं अपना डेरा डाल दिया। झील में मछलियां भी खूब थी, तो भोजन की समस्या भी हल हो गयी। कई महिने यहाँ गुजारने थे, घौंसले बनाने शुरू हुए, कई अन्य भारतीय पक्षी भी उनके स्वागत में आ जुटे। भूरे और कृष्ण वर्ण के भारतीय पक्षी, उनके धवल स्वच्छ रंग को देख-देखकर आर्किर्षत होते, उनके साथ रहने का अवसर तलाशते। यहाँ के युवा पक्षियों ने उनकी आवाभगत में कोई कसर नहीं छोड़ी। यहाँ के स्वादिष्ट फलों को चखाया, जंगल की गंध से परिचित कराया। वे कभी बड़ के पेड़ से, कभी गूलर से, कभी आम से, कभी अमरूद से, कभी जामुन के पेड़ से फल तोड़कर लाते और उन फलों से उनको परिचित कराते। वे सब मछलियों पर निर्भर थे, उन्होंने कभी भी ये फल नहीं देखे थे। मीठे, खट्टे, तीखे फल उन्हें अच्छे लगने लगे थे। वे सारे ही इतने भांत-भांत के पेड़ों को देखकर आश्चर्यचकित थे। उन्होंने कभी भी अपने जंगल में फलदार पेड़ देखे ही नहीं थे।
आखिर, एक दिन उनके वापस जाने का समय आ गया। भारत के कुछ पक्षियों ने उनसे निवेदन किया कि हम भी तुम्हारा देश देखना चाहते हैं, क्या हम तुम्हारे साथ चल सकते हैं? उन्होंने सहजता से स्वीकृति दे दी।
अमेरिकी पक्षियों के दल के पीछे-पीछे भारतीय दल मुक्त गगन में उड़ान भर रहा था। उनका मन बल्लियों उछल रहा था, वे बड़े खुश थे कि हम एक बेहद खूबसूरत देश को देखने जा रहे हैं। कुछ पक्षी कल्पना करते और सोचते कि क्यों न हम वहीं रह जाएं? हमारे यहाँ की गर्मी, पानी की समस्या से हमें निजात भी मिल जाएगी। सुना है कि वहाँ के जंगल बहुत विशाल हैं! वहाँ रेत के अंधड़ भी नहीं हैं।
लेकिन वहाँ बर्फिली आँधियां हैं।
अरे कौन सा हमें हमेशा के लिए वहाँ रहना है। फिर किसी का रहने को मन भी करेगा तो क्या हम वहाँ नहीं रह पाएंगे? वहाँ भी तो इतने पक्षी रहते हैं।
पक्षियों का दल उड़ रहा था, समुद्र की सीमा प्रारम्भ हुई। रात में विश्राम लेने के लिए एक पहाड़ी का सहारा लिया गया। अमेरिकी पक्षी समुद्र में गोता मारकर मछलियां पकड़ लाए। अब भारतीय पक्षियों के होश उड़ गए। वे मछली नहीं खाते, उनका भोजन तो फल होता था। पहाड़ के पेड़ों पर भी फल नहीं, आखिर समुद्री बेलों के फलों से ही जैसे-तैसे करके काम चलाया। लम्बी यात्रा और भोजन की समस्या उनके सामने मुँह-बाए खड़ी थी। रास्ते में शहर आने लगे और अब वे बगीचों से फल चुराने लगे, क्योंकि जंगल में ही उनका हक था और जंगल में फल नहीं थे। लम्बी थका देने वाली यात्रा, भूखे-प्यासे रहकर जैसे-तैसे कटी। सोचा अमेरिका पहुँचकर सब कुछ ठीक हो जाएगा।
आखिर एक दिन उनके सपनों का शहर अमेरिका आ ही गया। वहाँ बर्फ विदा ले चुकी थी, पेड़ों पर पीत पत्तियां, सुनहरी आभा का निर्माण कर रही थी। कहीं-कहीं कोपलें भी फूटने लगी थीं। आभास हो रहा था कि बसन्त शीघ्र ही हरितिमा को जन्म देगा। लम्बे रास्ते की थकान उनके चेहरों पर थी, भूख-प्यास से उनकी ताकत क्षीण हो गयी थी। लेकिन फिर यहाँ घने जंगलों को देखकर उनकी थकान फुर्र हो गयी और अपने छितराए जंगलों पर शर्म आने लगी। अमेरिकी पक्षी ने बताया कि बहुत जल्दी ही यहाँ हरीतिमा छा जाएगी, तब चारों तरफ केवल हरियाली होगी। तुम देखना हमारे यहाँ का जंगल, कितना विशाल है!
सभी ने पेड़ पर अपना ठिकाना बना लिया। अब भोजन की तलाश शुरू हुई। पेड़ों पर कहीं भी फल नहीं थे, एक पेड़ से दूसरे पेड़, एक जंगल से दूसरे जंगल जाते रहे, लेकिन खाने को कुछ नसीब नहीं हुआ। पत्तियां खाकर भला कितने दिन जिन्दा रहा जा सकता है? कभी चोरी-छिपे बगीचों में पहुँच जाते और वहाँ के फलों से अपना गुजारा चलाते। लेकिन वहाँ हमेशा खुद के ही शिकार होने का खतरा मंडराता रहता। एक दो बार मछली खाने का भी प्रयास किया, लेकिन भारतीय शरीर उन्हें पचा नहीं पाया। एक दिन जंगल में फलों की तलाश करते-करते उनकी आशा ने दम तोड़ दिया। आखिर समय से पहले ही उन्होंने वापस जाने का मन बना लिया।
वे आपस में बतिया रहे थे कि इतने घने जंगल, फिर भी एक भी फल नहीं! ऐसे जंगलों से तो हमारे जंगल ही अच्छे, जहाँ सारे पेड़ों पर ही फल लगा करते हैं। पंछी भी कितने कम है यहाँ, हमें भी अपने अस्तित्व का खतरा पैदा होता जा रहा है। बहेलिया यहाँ नहीं हैं, लेकिन शिकारी तो हैं, चिड़ियाघर तो हैं!
आज वे सब बहुत खुश थे, वापस जाने को कतारबद्ध खड़े थे। अपने दल के नेता के इशारे का इंतजार कर रहे थे। इशारा हुआ और वे उड़ चले भारत के आकाश की ओर। वे सब गा रहे थे, वही गीत, जो विदेशी पक्षियों ने बनाया था। एक-एक पक्षी अपने स्वर में गीत गा रहा था और एक लम्बी यात्रा पर इस उत्साह से उड़ा जा रहा था कि मैं अपने देश में वापस लौट रहा हूँ।

पक्षी गा रहे थे -
जाना अपने देश जहाँ हम मिलजुल गाते
जाना अपने देश जहाँ जंगल चहचाते
पेड़ जहाँ के फल से लदते, रस बिखराते
जाना अपने देश जहाँ जंगल मदमाते।

भारत में तो जंगल में भी आम लदा करते हैं
भारत में तो मरूधर में भी मोर नचा करते हैं
जाने कितने तोते, चिड़िया, बंदर, भालू,
हाथी, चीते, जंगल में सब ही रहते हैं
जंगल उनको खाना देता, रहना देता
जाना अपने देश जहाँ जंगल इठलाते।

भारत में तो जंगल में भी भँवर उड़ा करते हैं
भारत में तो पेड़ों से भी गंध बहा करती है
मद झरते, गदराए, बौराए पेड़ों से
उड़ते प्रतिपल, कण पराग के रहते हैं
देखो मधुमक्खी भी शहद बनाया करती
जाना अपने देश जहाँ जंगल बौराते।



नोट- हमें यह बताते हुए अत्यंत खुशी हो रही है कि डॉ॰ अजित गुप्ता की इस यात्रा-संस्मरण की यह शृंखला जल्द ही मुद्रित संस्करण के रूप में उपलब्ध होगी, जिसे हिन्द-युग्म अपने आने वाले सार्वजनिक कार्यक्रम में लोकार्पित करेगा।