साहित्यकार उद्भ्रांत का परिचय
महत्तवूपर्ण वरिष्ठ कवि,
जन्म : 4 सितंबर, 1948 ई.,नवलगढ़(राजस्थान)- सर्टिफिकेट के अनुसार: 6 मई, 1950 ई.,
कानपुर में शिक्षा-दीक्षा;
वर्ष 1959 से रचनारम्भ;
50 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित;
अनेक पुरस्कारों से सम्मानित;
कानपुर प्रेस के सचिव रहे;
रचनाएं अनेक भारतीय भाषाओं में अनूदित;
सम्प्रति- दूरदर्शन महानिदेशालय में वरिष्ठ निदेशक (कार्यक्रम)।
प्रमुख पुस्तकें: त्रेता एवं प्रज्ञावेणु (महाकाव्य), स्वयंप्रभा एवं वक्रतुण्ड (प्रबंध काव्य), ब्लैकहोल (काव्य नाटक); शब्दकमल खिला है, नाटकतंत्र तथा अन्य कविताएं, काली मीनार को ढहाते हुए एवं हंसो बतर्ज रघुवीर सहाय (समकालीन कविता); लेकिन यह गीत नहीं, हिरना कस्तूरी एवं देह चांदनी (गीत-नवगीत); मैंने यह सोचा न था (ग़जलें), कहानी का सातवां दशक (संस्मरणात्मक समीक्षा)।
संपादन: लघु पत्रिका आंदोलन और युवा की भूमिका, पत्र ही नहीं बच्चन मित्र हैं, युवा, युगप्रतिमान (पाक्षिक), पोइट्री टुडे एवं त्रिताल।
कवि-मूल्यांकन: त्रेता : एक अंतर्यात्रा (डॉ. आनंद प्रकाश दीक्षित), रुद्रावतार विमर्श (डॉ. नित्यानंद तिवारी), उद्भ्रांत की ग़ज़लों का यथार्थवादी दर्शन (अनिरुद्ध सिन्हा), उद्भ्रांत का बाल-साहित्य : सृजन और मूल्यांकन (डॉ. राष्ट्रबंधु एवं जयप्रकाश भारती), कवि उद्भ्रांत : कुछ मूल्यांकन बिंदु (उषा शर्मा)।
शीघ्र प्रकाश्य: अभिनव पांडव (महाकाव्य), राधामाधव (प्रबंधकाव्य), अनाद्यसूक्त (आर्ष काव्य) एवं कई कविता संग्रह।
सूचना- 30 मई 2009 को रात 10:30 बजे डीडी भारती चैनल, इंदौर पर कवि उद्भ्रांत से बातचीत प्रसारित होगी। देखें और आनंद लें।
दैनिक भास्कर (नई दिल्ली) के 4 अप्रैल, 2009 के अंक में ‘साहित्य-संस्कृति’ के पृष्ठ पर नूर अली की ‘तल्ख़ियाँ’ ने साहित्य जगत में चल रही माफियागीरी की अच्छी ख़बर ली है, विशेषकर दिल्ली के दंगल में दो बरस पहले उतरे नये पहलवान रवीन्द्र कालिया द्वारा ‘नया ज्ञानोदय’ के माध्यम से ‘युवा लेखकों का अपना उपनिवेश क़ायम करने में क़ामयाबी हासिल करने की दिलचस्प दास्तान भी बयान की है। इसमें कुछ युवा लेखकों की कमज़ोर किताबों को ज्ञानपीठ से प्रकाशित कराने के प्रयासों का ब्यौरा भी जोड़ना चाहिये था। युवा लेखकों के सर्वमान्य नेता बनने के प्रयास में उन्होंने कई वरिष्ठ लेखकों की प्रकाशन के लिए आमंत्रित श्रेष्ठ कृतियों को भी अपमानजनक ढंग से वापस कर दिया। ज्ञानपीठ और ‘नया ज्ञानोदय’ को अपने रणनीतिक स्वार्थ के अन्तर्गत इस्तेमाल करने की उनकी कुत्सित प्रवृति को लेकर उनके बारे में अन्य राष्ट्रीय दैनिकों और साप्ताहिकों में अनेक महत्तवपूर्ण वरिष्ठ लेखकों ने तो अपनी आपत्तियां दर्ज़ की ही हैं, कर्मेन्दु शिशिर द्वारा ऐसी सौ पृष्ठों की एक पुस्तिका भी गत वर्ष जारी की गई थी, जिससे हिन्दी संसार भलीभाँति अवगत है। महत्तवूपर्ण वरिष्ठ कवि,
जन्म : 4 सितंबर, 1948 ई.,नवलगढ़(राजस्थान)- सर्टिफिकेट के अनुसार: 6 मई, 1950 ई.,
कानपुर में शिक्षा-दीक्षा;
वर्ष 1959 से रचनारम्भ;
50 से अधिक पुस्तकें प्रकाशित;
अनेक पुरस्कारों से सम्मानित;
कानपुर प्रेस के सचिव रहे;
रचनाएं अनेक भारतीय भाषाओं में अनूदित;
सम्प्रति- दूरदर्शन महानिदेशालय में वरिष्ठ निदेशक (कार्यक्रम)।
प्रमुख पुस्तकें: त्रेता एवं प्रज्ञावेणु (महाकाव्य), स्वयंप्रभा एवं वक्रतुण्ड (प्रबंध काव्य), ब्लैकहोल (काव्य नाटक); शब्दकमल खिला है, नाटकतंत्र तथा अन्य कविताएं, काली मीनार को ढहाते हुए एवं हंसो बतर्ज रघुवीर सहाय (समकालीन कविता); लेकिन यह गीत नहीं, हिरना कस्तूरी एवं देह चांदनी (गीत-नवगीत); मैंने यह सोचा न था (ग़जलें), कहानी का सातवां दशक (संस्मरणात्मक समीक्षा)।
संपादन: लघु पत्रिका आंदोलन और युवा की भूमिका, पत्र ही नहीं बच्चन मित्र हैं, युवा, युगप्रतिमान (पाक्षिक), पोइट्री टुडे एवं त्रिताल।
कवि-मूल्यांकन: त्रेता : एक अंतर्यात्रा (डॉ. आनंद प्रकाश दीक्षित), रुद्रावतार विमर्श (डॉ. नित्यानंद तिवारी), उद्भ्रांत की ग़ज़लों का यथार्थवादी दर्शन (अनिरुद्ध सिन्हा), उद्भ्रांत का बाल-साहित्य : सृजन और मूल्यांकन (डॉ. राष्ट्रबंधु एवं जयप्रकाश भारती), कवि उद्भ्रांत : कुछ मूल्यांकन बिंदु (उषा शर्मा)।
शीघ्र प्रकाश्य: अभिनव पांडव (महाकाव्य), राधामाधव (प्रबंधकाव्य), अनाद्यसूक्त (आर्ष काव्य) एवं कई कविता संग्रह।
सूचना- 30 मई 2009 को रात 10:30 बजे डीडी भारती चैनल, इंदौर पर कवि उद्भ्रांत से बातचीत प्रसारित होगी। देखें और आनंद लें।
मेरा मानना है कि ‘ज्ञानोदय’ में ‘नया’ विशेषण तो, चालीस वर्ष पूर्व उसके बंद होने के अन्तराल को और समय की नवता को देखते हुए, लगाना ठीक ही था, मगर कालिया ने इस ‘नये’ को उत्तरआधुनिक रंग दे दिया। यह विगत दो वर्षों में ‘ज्ञानोदय’ के पन्नों पर उनके सम्पादकीयों और युवा लेखक-लेखिकाओं के परिचयों की बानगी से पता लगा चुका है, कालिया को शायद इसीलिए लाया भी गया था। मगर बाद में उन्हें जैसे ही कार्यकारी निदेशक की अतिरिक्त ज़िम्मेदारी दी गई उन्होंने समूची ज्ञानपीठ संस्था को भी ‘नया’ विशेषण देने की ठान ली। इस प्रक्रिया में उन्होंने ज्ञानपीठ की इतनी दुर्गति करा दी है कि अब संस्था का और उनका मालिक एक ही दिखाई दे रहा है। जैनेन्द्र रचनावली की अक्षम्य भूलों के लिए वे ही ज़िम्मेदार हैं। उन्होंने कम से कम आधा दर्जन समझदार विश्वसनीय सहयोगियों को इतना तंग किया कि उन्होंने संस्था ही छोड़ दी। किशन कालजयी के इस्तीफे का प्रारंभिक अंश इंस सम्बंध में दृष्टव्य है। ”भारतीय ज्ञानपीठ के कार्यकारी निदेशक श्री रवीन्द्र कालिया की पक्षपातपूर्ण प्रशासनिक अराजकता के कारण भारतीय ज्ञानपीठ का आन्तरिक परिवेश बुरी तरह नष्ट हो गया है। चुगली और चापलूसी करने वाले चन्द लोगों को निजी स्वार्थवश कालिया जी बुरी तरह बढ़ावा दे रहे हैं। ऐसे असहज माहौल में अधिकांश कर्त्तव्यनिष्ठ अधिकारी और कर्मचारी अपने को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं। कई लोग ज्ञानपीठ को छोड़ रहे हैं और कइयों ने छोड़ने का मन बना लिया है। ‘नया ज्ञानोदय’ में भी अपने सम्पादकीय दुराचार से कालिया जी ने कई लेखकों का अपमान किया है। निस्संदेह इन कुकृत्यों की वजह से भारतीय ज्ञानपीठ की गरिमा घटी है। इस पतनोन्मुख भारतीय ज्ञानपीठ में मेरे लिए काम करना न तो नैतिक है और न ही मर्यादित।”
ज़रा ज्ञानरंजन को भी स्मरण करें। ”हिन्दी समाज पिछलग्गुओं का समाज नहीं है। तुमने एक खराब, बेबात की बहस छेड़ी है। तुम नयों को बाजारू बना रहे हो, यह खिलवाड़ है। तुमसे यह उम्मीद नहीं थी। मैं भविष्य में कोई काम ‘नया ज्ञानोदय’ या ‘ज्ञानपीठ’ के लिए नहीं कर सकूँगा।”
ये दो उद्धहरण कालिया की इधर की शैली को उजागर करते हैं। एक सम्पादक के रूप में और एक अधिकारी के रूप में भी। मगर कालिया में पिछले चालीस सालों में कोई बड़ा फ़र्क नहीं आया है। मित्रगण उसे बारबार क्षमा करते हैं और वह इसे अपनी शक्ति समझकर बारम्बार वैसी ही या उससे बढ़कर धृष्ठताएँ करता है। वह अपने पीछे चलने वाले युवा लेखकों की कमज़ोर किताबें भी विचारार्थ जमा करने के तीन महीने के भीतर छाप देता है और स्वाभिमानी लेखकों की प्रकाशन के लिए आमंत्रित कृतियों को बरसों अधर में रखकर वापस कर देता है। इस सम्बंध में अपने कटु अनुभव को सामने रखना चाहूँगा। तीन पत्रों के माध्यम से।
भारतीय ज्ञानपीठ के आजीवन न्यासी श्री आलोक प्रकाश जैन का दिनांक 05 जून, 2006 का पत्र है। ”प्रिय भाई उद्भ्रांत जी, इधर आपके अप्रकाशित खण्ड काव्यों पर चर्चा सुनी। श्री कमलेश्वर जी ने भी उस पर लिखा है, और हमारे प्रकाशन अधिकारी श्री किशन कालजयी ने भी तारीफ की है, भारतीय ज्ञानपीठ को आपकी किसी कृति को प्रकाशित करने का गौरव नहीं मिला। आपसे अनुरोध है कि उन दोनों खण्ड काव्यों को या उनमें से एक भारतीय ज्ञानपीठ को प्रकाशनार्थ भेजें। हमारे प्रकाशन अधिकारी श्री किशन कालजयी के माध्यम से आपसे शीघ्र वार्तालाप और मुलाकात होगी।”
पत्र में जिन खण्ड-काव्यों की बात की गई है उनके नाम ‘राधामाधव’ और ‘अभिनव पांडव’ हैं। ‘राधामाधव’ के कुछ अंश इंदौर में राजेश जोशी के साथ जब प्रभु जोशी ने सुने तो मुझे कहा कि इसके आवरण की संकल्पना मैं ही करूँगा। आलोक जैन का पत्र आने के बाद मैं पुन: इन्दौर गया और प्रभु ने मध्य प्रदेश की एक वरिष्ठ चित्रकार मीरा गुप्ता और शांति निकेतन से आये चित्रकार निताईदास की दो पेन्टिंग्स इस हेतु मुझे सौंप दीं। दोनों पाण्डुलिपियों के साथ मैंने ये दो पेन्टिंग्स भी स्पीड पोस्ट से आलोक जैन के नाम ज्ञानपीठ के पते पर भेजीं। कालिया तब कोलकाता में थे और आलोक जैन प्राय: मुझसे फोन पर पूछते थे कि हम रवीन्द्र कालिया को ‘नया ज्ञानोदय’ के सम्पादक के रूप में लाना चाहते हैं, वे कैसे रहेंगे? अब मुझे अफ़सोस होता है कि कालिया के नाम पर मैंने भी अपनी संस्तुति दी और कालिया से इसकी सूचना देते हुए कहा कि आशा है मेरी संदर्भित पांडुलिपियाँ तुम्हारे आने के बाद शीघ्र प्रकाशित हो सकेंगी। ज़ाहिर है कि कालिया ने मुझे चिन्ता नहीं करने के लिए कहा। बाद में उन्होंने मेरे एक अन्य खण्डकाव्य ‘वक्रतुण्ड’ की पाडुंलिपि भी जानकारी होने पर ले ली। पिछली दोनों कृतियों के लम्बे समय से लम्बित रहने के कारण उत्पन्न मेरी प्रकट अनिच्छा के बावजूद दोस्ती का हवाला देते हुए। एक तरह से जबरन। कालिया के दिल्ली में आने के बाद मेरे ही एक कार्यक्रम द्वारा प्रकारान्तर से उनके यहाँ आने की सार्वजनिक घोषणा हुई थी। इस सबके और विगत चालीस वर्षों के सम्बंध के बावजूद कालिया ने जो सचमुच का आपराधिक कृत्य किया वह उनके इन दो पत्रों से प्रकट है।
पहला 19 जून, 2008 का है। आपकी पांडुलिपि ‘राधामाधव’ यथासमय प्राप्त हुई थी। पांडुलिपि के बारे में विशेषज्ञों द्वारा गम्भीरतापूर्वक विचार किया गया। हमें खेद है कि उसे अपरिहार्य कारणों से फिलहाल भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशन के लिए स्वीकार नहीं किया जा सका। पांडुलिपि आपको भिजवाई जा रही है।” अर्थात् दो वर्ष बीत जाने के बाद भी, ‘फिलहाल!’
आप देखें कि उक्त पत्र में ‘विचार किया गया’ कहा गया है जबकि श्री आलोक जैन ने ‘एक या दोनों’ काव्यों की पांडुलिपियाँ ‘प्रकाशनार्थ’ मांगी थीं। विचारार्थ नहीं। इसमें उन ‘अपरिहार्य कारणों’ का भी कोई हवाला नहीं है। विशेषज्ञ अगर कोई हैं तो कौन हैं, उन्हें पांडुलिपियाँ क्यों भेजीं गईं और उनका क्या मत था इसकी कोई जानकारी नहीं। जबकि ‘राधामाधव’ की पांडुलिपि में सत्यप्रकाश मिश्र, जानकी वल्लभ शास्त्री, रमाकांत रथ और डॉ. राममूर्ति त्रिपाठी की टिप्पणियां पहले से मौजूद थीं। उसी के साथ भेजे गए ‘अभिनव पाण्डव’ में डॉ. शिव कुमार मिश्र और डॉ. कमला प्रसाद की टिप्पणियाँ थीं। उसका और इनके बाद आग्रहपूर्वह कालिया द्वारा ही मांगे गये तीसरे काव्य ‘वक्रतुण्ड’ का उक्त पत्र में कोई उल्लेख नहीं था। इस पर जब मैंने पुन: पत्र लिखा तो कालिया ने 8 जुलाई, 2008 को लिखे इस दिलचस्प पत्र के साथ उन्हें वापस किया। ”खेद है कि हम आपकी पांडुलिपियों ‘अभिनव पाण्डव’ और ‘वक्रतुण्ड’ का उपयोग न कर पाएंगे। प्राय: हम पाडुंलिपियाँ वी.पी.पी. से लौटाते हैं। आपको अपने व्यय से कोरियर द्वारा लौटा रहे हैं।” आशा है भारतीय ज्ञानपीठ को अपनी पांडुलिपियाँ भेजने वाले लेखकों ने इस बात को नोट कर लिया होगा। वैसे मुझे तो अब तक यही ज्ञात था कि छोटे से छोटे या अत्यंत मामूली प्रकाशक भी पांडुलिपियाँ रजिस्टर्ड डाक से ही लौटाते हैं। यहाँ तो पांडुलिपियाँ ‘प्रकाशनार्थ’ मंगाई गई थीं। लेखक स्वयं प्रकाशक के पास नहीं गया था। कालिया ने यह नयी परम्परा शुरू की है जिससे ज्ञानपीठ के गौरव में निश्चय ही पर्याप्त वृद्धि हुई होगी।
कालिया के इस दुष्कृत्य के अभद्र चेहरे पर पंचमुखी छाप जड़ते हुए ‘वक्रतुण्ड’ जयपुर के एक प्रमुख प्रकाशन ‘पंचशील’ से तीन महीने की अल्पावधि में ही छप कर दुष्टों को भी वक्री मुस्कुराहट का उपहार देते हुए कृतार्थ कर चुके हैं और साहित्य जगत में उनकी चर्चा शुरू हो गई है। अन्य दोनों काव्य भी इस वर्ष प्रमुख प्रकाशन संस्थाओं से आएंगे। मगर, उक्त कृतियों को दो वर्ष से अधिक समय तक न छापकर और रोके रखकर कवि की मानहानि और मानसिक उत्पीड़न के अतिरिक्त जो आर्थिक क्षति पहुँचाई गई, उस सम्बंध में किये जा रहे विधिक विचार-विमर्श का उचित परिणाम शीघ्र ही सामने आएगा। लेकिन, पाठकों के लिए यह जानना दिलचस्प होगा कि जो व्यक्ति अपने सम्पादकीयों में ‘मीडियाकर’ जैसे शब्दों को अपने विरोधी के लिए गाली की तरह इस्तेमाल करता है, उसका बिना नाम लिये; वह होने के बावजूद स्वयं के लिए वैसे शब्द सुनना पसंद नहीं करता। यह तो हुई प्रिंट की बात। आपसी बातचीत में वह किस सीमा तक जाता है?
18 जनवरी, 2009 दिन रविवार को इलाहाबाद संग्रहालय में साहित्य अकादमी और संग्रहालय के संयुक्त तत्वावधान में हरिवंशराय बच्चन जन्म शताब्दी समारोह में सुबह की गोष्ठी समाप्त होने के बाद लंच करते हुए मैंने पास खड़े दूधनाथ को किसी से कहते सुना। ”हां, ‘जनसत्ता’ को तो सुबह से खोज रहा हूँ। मेरे दोस्त के बारे में उसमें कुछ निकला है।” पूछताछ करने पर पता लगा कि 11 जनवरी के अंक में प्रकाशित राजकिशोर की टिप्पणी के क्रम में गगन गिल की टिप्पणी आई है। दूधनाथ कह रहे थे। ”वो कह रहा था कि मुझे देखना है कि उसके कौन-कौन से कुत्ते मेरे ऊपर हमला करते हैं?” अब यह ‘उसके’ किसके लिए था, इसे मैं नहीं जानता। चूँकि बात किसी और तरफ मुड़ गई इसलिए इस सम्बंध में आगे पूछताछ भी नहीं हो सकी। मैंने कहा कि ”फिलहाल इतना तो जान ही लो कि बहुत जल्द मैं कालिया पर मुक़दमा दायर करने जा रहा हूँ।” दूधनाथ चमक कर बोले, ”लेकिन तुम्हारी तो कविताएं कालिया ने छापी थीं।” दूधनाथ को पता नहीं था कि वर्ष 1960 में ही मेरी एक कविता ‘आज वाराणसी’ के साप्ताहिक परिशिष्ट में उसके साहित्य सम्पादक स्व. भैयाजी बनारसी ने छापी थी और तब कालिया का साहित्य जगत में जन्म तक नहीं हुआ था। दूधनाथ अभी दूधपीते बच्चे ही थे। पैदा हुए दो-चार दिन ही हुए होंगे। तबसे शुरू हुई मेरी काव्य-यात्रा के प्रारंभिक दशक में ही हिन्दी की तत्कालीन सर्वश्रेष्ठ पत्र-पत्रिकाएँ साप्ताहिक हिन्दुस्तान, ज्ञानोदय, नवनीत, कादंबिनी आदि मुझे लगातार छापती रही थीं, यह तो दूधनाथ को अवश्य पता होगा। पर लगता है कि भयंकर दुश्मनी से अभी-अभी बदली दोस्ती को निभाने में इतने गाफ़िल हो गये कि उन्हें इस सबका स्मरण नहीं आया। मगर, मेरे सामने तो ऐसी कोई मज़बूरी न होकर हाल-हाल में किये गए कालिया के विश्वासघात की बानगी ही थी। इसलिए मैंने कहा, ”वह कोई अहसान नहीं किया था, मगर प्रकाशन के लिए आमंत्रित मेरी दो किताबों को दो साल बाद लौटाने का जघन्य अपराध तो उसने किया ही है, जिसके लिए कानून उसे दण्ड अवश्य देगा।”
मज़े की बात है कि दूसरों को ‘दारूकुट्टा’, ‘दढ़ियल’ या ‘मीडियाकर’ जैसे अपशब्दों से नवाज़ने वाला व्यक्ति ‘कालिया’ के लिए टाइपिंग त्रुटि से ‘कैला’ (के.ए.आई.एल.ए.) जैसे निरर्थक और ‘कॉवर्ड’ जैसे शब्दों को बर्दाश्त नहीं कर पाता जोकि एक प्रवृतियाँ है, गाली नहीं, और उसका वकील 14 जुलाई, 2008 के पत्रा में ‘उल्टा चोर कोतवाल को डाँटे’ वाले अंदाज़ में मानहानि का केस करने की धमकी देता है। प्रभु जोशी से जो पेंटिंग्स लाकर मैंने ज्ञानपीठ को भेजी थीं, वे वापस नहीं की गईं। ऐसे व्यक्ति को निदेशक और सम्पादक बनाने की संस्तुति के लिए मैं सार्वजनिक रूप से शर्मिन्दा हूँ।
मेरे सम्पादन में ‘युवा’ का प्रवेशांक कानपुर से अक्तूबर, 1974 में छपा था। उसमें ‘लेखक और व्यवस्था’ विषय पर जिनके विचार थे उनमें भैरव, मार्कण्डेय, सर्वेश्वर, शील, मटियानी, दूधनाथ, काशीनाथ के साथ कालिया भी थे, जिनका कहना था। ”व्यवस्था के लिए लेखक सिर्फ चीज़ है। एक छोटी-सी चीज़। व्यवस्था के सामने लेखक की स्थिति एक दलाल की स्थिति से बेहतर नहीं है। जो लेखक व्यवस्था को रास नहीं आता, व्यवस्था उसके साथ कैसा सलूक करती है आप जानते होंगे। मगर इससे लेखक छोटा नहीं हो जाता।”
अब कालिया के इन वचनों का अर्थ लोगों की समझ में आ जायेगा क्योंकि उसने अपनी सुविधानुसार न केवल पाला बदल लिया है, वरन् वह लेखक से दलाल की तरह व्यवहार करने की अपेक्षा भी कर रहा है। जो ऐसा करते हैं उन्हें कालिया अपना रणनीतिक स्तंभकार मानते हैं। जो नहीं करते उनके साथ वही करते हैं जिनकी चर्चा ‘जनसत्ता’, ‘भास्कर’ और अभी हाल में ‘आकार’ के पन्नों पर आ चुकी है। अब कालिया के शब्द उसी के ऊपर वार कर रहे हैं। ”मगर इससे लेखक छोटा नहीं हो जाता।”
कालिया ने उस परिचर्चा में राजनीति-सम्बंधी सवाल पर तिलमिलाते हुए कहा था। ”राजनीति की चर्चा आप भी तो कर रहे हैं। शायद राजनीति को भ्रष्टाचार का पर्याय मानकर सुविधा के लिए। या आपके हेड ऑफिस से ऐसा निर्देश मिला है।” पता नहीं वे किसे हेड ऑफिस कह रहे थे? मार्कण्डेय को, जिनके घर पर मैं ठहरता था, या सी.पी.एम. के दिल्ली ऑफिस को? कालिया की सिफ़त है उल्टे सीधे काम करने की, मित्रों के साथ दग़ा करने की। अब इस जन्म में तो उसमें किसी तरह का बदलाव आना संभव नहीं!
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8 बैठकबाजों का कहना है :
बिलकुल ठीक किया उन्होंने...अगर वादा खिलाफी हुई है तो फिर चाहे जो हो हर्जाना देना ही चाहिए..इसमें गलत क्या है?आज व्यवसायिक युग है...कोई व्यक्ति केवल बड़े बड़े सम्मान या पुरुस्कारों से जीवित नहीं रह सकता..ऊपर से प्रतिष्ठा भी जाये तो क्या करे???
यह सही है कुछ बनिए साहित्य को बेचने में लगे ही रहते हैं , लेकिन साहित्य और ही संवरता रहता है |
लेख को जागरूकता के तौर पर सभी से बांटने के लिए हिंद युग्म का धन्यवाद |
अवनीश तिवारी
बनिये *
बहुत अच्छा किया.
इन मठाधीशों का पारा ऐसे ही उतरेगा.
उद्भ्रांत जी को पहल के लिए बधाई.
25 laakh to kam hain,,
aapko to 25 sau karod ka daavaa karnaa thaa,,,,
kyaa faydaa....?
that is nice. ab ser ko sava ser mila hai.Udbhrantji ko badhai aur shabashi de rahee hooN iss sahas ke liye. koi tow avyavastha ke khilaaf uthey. sahitya ko dhanda banakar rakh diya hai. vaise hi sahitya mein dalaaloN ki bharmaar hai aur kaliyaji bhee aa gaye. bahut sharmnaak hai ye sab.
साहित्य जगत की ये नौटंकी नयी नहीं है....
Sahitya atmeeyata se rishton ko jadne ki pul hai aur kuch nahin. vyavsay to katai nahin
Devi Nangrani
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