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Sunday, May 24, 2009

झूठ से शुरुआत...

इस शुक्रवार को जिन उन्नीस सांसदों ने केंद्र के मंत्री पद की शपथ ली है, वे बुरा न मानें, तो एक बात कहना चाहता हूं। उन्होंने, प्रधानमंत्री सहित, अपनी शुरुआत झूठ से की है। मैं यहां इस बात का जिक्र नहीं करना चाहता कि जो लोग चुनाव जीत कर लोक सभा में आए हैं, उन्होंने अपने-अपने चुनाव क्षेत्र में चुनाव खर्च की सीमा का जरूर उल्लंघन किया होगा। यह एक ऐसा उल्लंघन है जिसके बिना संसद या विधान सभा का कोई भी चुनाव आज जीता ही नहीं जा सकता। यही कारण है कि जन सामान्य के मन में यह धारणा घर कर गई है कि जब इतना खर्च करके चुनाव लड़ा जाता है, तो सांसद या मंत्री बनने के बाद इसकी भरपाई किए बिना किसी का काम कैसे चल सकता है? भरपाई ही नहीं, कुछ अतिरिक्त उपार्जन भी होना चाहिए। घर की पूंजी लुटाने के लिए तो कोई सांसद नहीं बनता! अगर यह घाटे का सौदा होता, तो किसी भी चुनाव क्षेत्र के लिए इतने उम्मीदवार कहां से आते! मैं जिस बात का जिक्र करना चाहता हूं और बहुत भरे ह्मदय से, वह इससे कहीं ज्यादा गंभीर है। जिन्होंने मंत्री पद की शपथ ली है, एक तो उन्हें पता नहीं होगा कि वे किस बात की शपथ ले रहे हैं और जिन्हें पता होगा, वे जानते होंगे कि वे जो शपथ ले रहे हैं, उसका निर्वाह करने नहीं जा रहे हैं। पहले शपथ की शब्दावली पर ध्यान दिया जाए। संविधान में दी गई शपथ की भाषा इस प्रकार है : ‘मैं, अमुक, ईश्वर की शपथ लेता हूं/सत्यनिष्ठा से प्रतिज्ञान करता हूं कि मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा, मैं भारत की एकता और अखंडता अक्षुण्ण रखूंगा, मैं संघ के मंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंत:करण से निर्वहन करूंगा तथा मैं भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार न्याय करूंगा।’
शपथ के केंद्र में संविधान और उसके प्रति निष्ठा ही मुख्य है, जिसके अनुसार मंत्री को राज-काज करना चाहिए। इस निष्ठा के दो अर्थ हैं। एक अर्थ यह है कि सभी नागरिकों के साथ न्याय किया जाएगा। किसी के साथ भेदभाव या पक्षपात नहीं किया जाएगा। लेकिन यह तो प्रशासनिक फैसलों की बात है, सरकारी कार्य प्रणाली का मामला है। मूलभूत सवाल यह है कि राज्य का काम क्या है। भारत सरकार को करना क्या चाहिए? यह तय किए बिना प्रशासनिक फैसले किस आधार पर किए जाएंगे?
यहां दो चीजें प्रासंगिक हैं। राज्य का एक कर्तव्य यह है कि सभी नागरिकों के मूल अधिकारों की रक्षा की जाए। पर यह एक तरह से नकारात्मक कर्तव्य है। राज्य किसी के मूल अधिकारों की अवहेलना न करे। सबको संविधान के अनुसार स्वसंत्रतापूर्वक जीने का अवसर मिले। इससे यह पता चलता है कि राज्य को क्या नहीं करना चाहिए। राज्य को क्या करना चाहिए, इसका उल्लेख संविधान के भाग चार में किया गया है। इस भाग में राज्य की नीति के इक्यावन तत्व निश्चित किए गए हैं। यानी अपनी नीतियां बनाते समय और फैसले करते समय राज्य को इन निदेशक तत्वों को दिमान में रखना होगा। संविधान कहता है : ‘...इनमें अधिकथित तत्व देश के शासन में मूलभूत हैं और विधि बनाने में इन तत्वों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा।’ कहा जा सकता है कि राज्य के नीति निदेशक तत्वों वाला यह भाग चार ही भारत सरकार का वेद, कुरआन और बाइबल है।
दुर्भाग्यवश भारत सरकार के संचालन में संविधान के जिस हिस्से की सर्वाधिक अवहेलना हुई है, वह यही भाग चार है। भारत का संविधान 26 नवंबर 1949 को स्वीकार किया गया था। तब से अब तक कुछ महीने कम साठ साल हो चुके हैं। संविधान के भाग चार का अनुच्छेद 45 कहता है : ‘राज्य, इस संविधान के प्रारंभ से दस वर्ष की अवधि के भीतर सभी बालकों को चौदह वर्ष की आयु पूरी करने तक नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए उपबंध करने का प्रयास करेगा।’ हम जानना चाहते हैं कि अभी तक किस सरकार ने इस अनुच्छेद को लागू करने का प्रयास किया है? मनमोहन सिंह की पिछली सरकार ने इस बारे में एक कानून जरूर बनाया है, जो संविधान के इरादे से मेल नहीं खाता। इस कानून को भी अभी तक लागू नहीं किया गया है।
लेकिन भाग चार के उद्देश्यों की व्यापकता देखते हुए बालकों की नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा बहुत मामूली बात है। कुछ बड़े उद्देश्यों पर विचार कीजिए -- राष्ट्रीय जीवन की सभी संस्थाओं में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय का संचार किया जाएगा, आय की असमानताओं को कम करने की कोशिश की जाएगी, पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार दिया जाएगा, आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चलाई जाएगी जिससे धन और उत्पादन-साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेंद्रण न हो, कर्मकारों को निर्वाह मजदूरी मिले तथा काम की दशाएं ऐसी हों जो शिष्ट जीवनस्तर और अवकाश का संपूर्ण उपभोग सुनिश्चित करनेवाली हों। इसके अतिरिक्त लगभग एक दर्जन निदेश और हैं जो इसी प्रकृति के हैं।
सवाल यह है कि इस शुक्रवार को जिन सांसदों ने मंत्री पद की शपथ ली है, क्या वे राज्य की नीति के इन निदेशक तत्वों का पालन करेंगे? भविष्य में जो सांसद मंत्री पद की शपथ लेंगे, क्या उनका ऐसा कोई इरादा होगा? क्या केंद्रीय मंत्रिमंडल यह सामूहिक जिम्मेदारी महसूस करेगा कि सरकार संविधान के भाग चार के अनुसार चलाई जाए?
यह सच है कि संविधान स्वयं कहता है कि इन उपबंधों को लागू कराने के लिए कोई नागरिक अदालत में नहीं जा सकता। लेकिन इससे क्या होता है? संविधान के अनुसार सरकार का जो कर्तव्य है, वह कर्तव्य है। उस कर्तव्य का पालन करने की ईमानदार कोशिश किए बगैर ‘संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा’ रखने के संकल्प का अर्थ क्या है?

राजकिशोर

Wednesday, May 20, 2009

....क्योंकि कोई विकल्प नहीं था !

लोक सभा के चुनाव परिणामों से सिर्फ एक राहत महसूस की जा सकती है और वह यह है कि केंद्र में अस्थिरता का डर नहीं रहा। लेकिन यह राहत भी सिर्फ उनके लिए हैं जो किसी भी कीमत पर स्थिरता को तरजीह देते हैं। सरकार या शासन की स्थिरता अपने आपमें कोई काम्य चीज नहीं है। स्थिरता तब अच्छी होती है जब वह देश को बेहतर ढंग से चलाने का माध्यम बने। अगर बकवास नीतियों और बकवास नेतृत्व के बावजूद स्थिरता बनी रहती है, जैसा नरसिंह राव के जमाने में था, तो वह देश के लिए नुकसानदेह और कभी-कभी खतरनाक भी होती है। मनमोहन सिंह सरकार की उपलब्धियां ऐसी नहीं रही हैं कि उन्हें एक महान प्रधानमंत्री माना जा सके। इसी तरह, सोनिया गांधी दूसरे नेताओं की तुलना में ज्यादा प्रभावशाली साबित हुई हैं, पर यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि उनके नेतृत्व में हम एक महान भारत का सृजन करने जा रहे हैं। न ही कांग्रेस के बारे में यह दावा किया जा सकता है कि उसका कायाकल्प हो चुका है और अब वह राष्ट्र निर्माण की ऐसिहासिक भूमिका का निर्वाह करने जा रही है।

ये सब ऐसी खामखयालियां हैं जो कांग्रेस को इतनी अधिक सीटें मिलने से पैदा हुई हैं। वैसे, इन सीटों की संख्या इतनी भी नहीं है कि बहुमत के लिए उसे अन्य दलों का सहारा न लेना पड़े। इसलिए सीटों की संख्या पर इतराने का कोई वास्तविक कारण दिखाई नहीं देता। राजीव गांधी को 1984 में तीन-चौथाई बहुमत मिला था। लेकिन उनके शासन की कौन-सी उपलब्धियां आज याद आती हैं? बोफोर्स का दाग अभी तक नहीं मिट पाया है। इसी तरह, नरसिंहराव को बहुमत तो नहीं मिल पाया था, पर धीरे-धीरे तोड़-फोड़ की अपनी कुशलता के कारण उन्होंने कांग्रेस पार्टी के लिए बहुमत का प्रबंध कर लिया था। लेकिन अंत में हुआ क्या? आज उन्हें देश के सबसे निस्तेज प्रधानमंत्री के रूप में याद किया जाता है। बाबरी मस्जिद कांड उन्हीं के समय में घटित हुआ था।

फिर कांग्रेस की इस अप्रत्याशित जीत की व्याख्या कैसे की जाए? इस व्याख्या पर ही निर्भर है कि हम वर्तमान राजनीति से क्या उम्मीद करते हैं। अगर कोई यह कहता है कि अब क्षेत्रीय दलों की उपयोगिता समाप्त हो चुकी है तथा यह उनके पराभव का समय है, तो यह मिथक है। बीजू जनता दल, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक, बिहार का जनता दल (यूनाइटेड), उत्तर प्रदेश का समाजवादी दल, बहुजन समाज पार्टी आदि क्षेत्रीय दल नहीं तो और क्या हैं? यह जरूर है कि जिन क्षेत्रीय दलों की उपयोगिता बची हुई है, वे दल ही बचे हैं; जिन्होंने अपनी उपयोगिता का खुद ही भक्षण कर डाला है, वे ढलाव के शिकार हुए हैं। लेकिन यह तो राष्ट्रीय दलों के साथ भी होता रहा है। कांग्रेस और भाजपा, दोनों कई-कई बार नीचे जा चुकी हैं और फिर उभरी हैं। इसी तरह, क्षेत्रीय दल भी नीचे-ऊपर आते-जाते रहे हैं। इस राजनीतिक चक्र को भूल कर किसी एक चुनाव के आधार पर कोई बड़ा निष्कर्ष निकालने की जल्दबाजी राजनीतिक विश्लेषण के बचकानेपन के अलावा कुछ नहीं है।

सवाल यह भी है : अगर राष्ट्रीय दलों का जमाना सचमुच लौट आया है, तो यह सिर्फ कांग्रेस के लिए ही क्यों लौटा? भाजपा को भी तो राष्ट्रीय दल माना जाता है। सच पूछिए तो दोनों में से कोई भी व्यापक और सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय दल नहीं है। इसीलिए जिस अर्थ में कांग्रेस राष्ट्रीय दल है, उसी अर्थ में भाजपा भी राष्ट्रीय दल है। उसी अर्थ में बसपा भी राष्ट्रीय दल बनने की कोशिश कर रही है। राष्ट्रीय दलों की वापसी का समय आ गया है, तो इसका लाभ कांग्रेस के प्रतिद्वंद्वी दलों को भी मिलना चाहिए था, जो नहीं हुआ है। इसलिए यह स्थापना भी निराधार प्रतीत होता है।

फिर कांग्रेस की जीत को कैसे समझा जाए? इसका मुख्य कारण यह प्रतीत होता है कि कांग्रेस का कोई ऐसा विकल्प चुनाव मैदान में नहीं था जिसे कांग्रेस से बेहतर कहा जा सके। चुनाव की घोषणा के पहले ही लालकृष्ण आडवाणी ने अपने को भावी प्रधानमंत्री घोषित कर दिया था। इस नाते भाजपा ही मुख्य प्रतिद्वंद्वी थी। भाजपा अपने सांप्रदायिक चेहरे के साथ-साथ हर अर्थ में दक्षिणपंथी पार्टी है। कांग्रेस को मध्यमार्गी दल माना जाता है, पर उसकी आर्थिक नीतियां भी पूरी तरह से दक्षिणपंथी हैं। अमेरिका से नजदीकी कांग्रेस भी चाहती है और भाजपा भी। यह जरूर है कि कांग्रेस का एक इतिहास, भले ही वह मुखौटा ही हो, गरीबी हटाओ का भी है, जो भाजपा का नहीं है। भाजपा उद्योगपतियों और व्यापारियों की ही नहीं, सवर्ण जातियों की भी पार्टी मानी जाती है। दूसरी ओर, कांग्रेस भी उद्योगपतियों और व्यापारियों की पार्टी है, पर वह गरीबों का नाम भी लेती रहती है और उनके लिए समय-समय पर कुछ कार्यक्रम भी बनाती रहती है। राष्ट्रीय ग्रामीण राजगार गारंटी योजना उसी ने लागू की थी, जिसका कुछ इलाकों में अच्छा असर पड़ा है। इस दृष्टि से देखा जाए, तो मतदाताओं ने कांग्रेस को चुन कर कुछ भी गलत नहीं किया।

कांग्रेस को असली चुनौती तब मिलती जब उसके मुकाबले कोई सचमुच का वामपंथी दल या दल समूह खड़ा होता। वामपंथी दलों ने यही सोच कर तीसरा मोर्चा बनाया था। लेकिन क्या यह वास्तव में तीसरा मोर्चा था? सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि इसका नेतृत्व कर रहे सीपीएम और अन्य वामपंथी दल स्वयं केरल और प. बंगाल में अपनी वामपंथी साख लुटा चुके थे। गरीब किसानों का दमन करने के मामले में वे किसी भी अन्य दल के मुकाबले ज्यादा क्रूर साबित हुए हैं। केरल के सीपीएम में घमासान चल रहा था। तीसरा मोर्चा बनाने के लिए जिन दलों का साथ लिया गया, वे अपने-अपने राज्य में राजनीतिक रूप से दिवालिया हो चुके थे। गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा होने का ऑटोमेटिक मतलब प्रगतिशील या जनवादी नहीं होता। फिर इनमें से अनेक दल ऐसे भी हैं जो अतीत में भाजपा के साथ रह चुके हैं। इसलिए उनकी विश्वसनीयता भी खटाई में थी। सच पूछा जाए तो तीसरा मोर्चा इतना बोगस था कि उसे वोट देने के बारे में कोई गंभीरता से सोच ही नहीं सकता था। इस तरह, बिना कुछ ज्यादा किए-कराए सत्ता एक तरह से मुफ्त में कांग्रेस की झोली में आ गिरी।

यही कारण है कि कांग्रेस पार्टी की जीत स्वयं उसके लिए भी अविश्सनीय है। जब मीडिया के लोग अनुमान लगा रहे थे कि किसी भी दल समूह को बहुमत नहीं मिलेगा, तो वे हवा में कबड्डी नहीं खेल रहे थे। यही आकलन स्वयं राजनीतिक दलों का भी था। राहुल गांधी तो विपक्ष में बैठने के लिए भी तैयार थे। लालकृष्ण आडवाणी की आशाएं भी धीरे-धीरे धूमिल हो रही थीं, क्योंकि तमाम प्रयासों के बावजूद भाजपा की कोई लहर नहीं बन पा रही थीष्। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का खयाल आसमान से नहीं टपका था। इससे भी आडवाणी का भविष्य कुछ धूमिल हुआ।

बहरहाल, जो होना था, हो चुका। एक मान्यता है कि जो हुआ, वही हो सकता था। अगर कुछ और हो सकता था, तो वह हुआ क्यों नहीं? इसलिए कांग्रेस के जीतने को एक ऐसिहासिक घटना मान कर चलना ही उचित है। सवाल अब यह है कि आगे क्या? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि फिलहाल कांग्रेस का कोई प्रगतिशील विकल्प उभरता दिखाई नहीं देता। वामपंथियों में आत्मपरीक्षण के कोई लक्षण दिखाई नहीं पड़ते। कायदे से प्रकाश करात को सीपीएम की शोचनीय पराजय के बाद अपने पद से तुरंत इस्तीफा दे देना चाहिए था। पर इसकी हलकी-सी आहट भी सुनाई नहीं देती। प. बंगाल की हार तो इतनी जबरदस्त है कि वहां के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को एक दिन के लिए भी अपने पद पर रहने का नैतिक हक नहीं है। इसी तरह, तीसरा मोर्चा में शामिल अन्य दलों में भी अंत:परीक्षण का कोई साक्ष्य दिखाई नहीं देता। यानी, भविष्य का परिदृश्य अत्यधिक धूमिल जान पड़ता है।

क्या यह चिंता की बात नहीं है कि इतने बड़े देश में कोई राजनीतिक विकल्प न हो जो जरूरत पड़ने पर वर्तमान सत्तारूढ़ दल का स्थान ग्रहण कर सके? कांग्रेस सफल होती है तो और नहीं सफल होती है तो भी, अच्छा लोकतंत्र वही होता है जिसमें वर्तमान का विकल्प हमेशा मौजूद रहे। इसे ही असली विपक्ष कहा जाता है। मौजूदा लोक सभा का सबसे दैन्यपूर्ण पक्ष यह दिखाई देता है कि इसमें कोई मजबूत विपक्ष नहीं है। यह सत्ता को निरंकुश बनाने के लिए काफी है। चूंकि वर्तमान राजनीति में कांग्रेस का कोई ठीक-ठाक विकल्प उभरता दिखाई नहीं देता, इसलिए कम से कम जनतंत्र के हित में आवश्यक है कि इसके लिए ठोस प्रयास किया जाए। ऐसा न हो कि पांच साल बाद फिर चुनाव की घड़ी आए और हम हाथ पर हाथ धरे पछताते रहें कि हाय, हमारे पास कोई सार्थक विकल्प नहीं हैं। विकल्प दो-चार महीनों में खड़ा नहीं होता। इसके लिए पांच वर्ष भी कम हैं। पर पांच वर्ष की अवधि इतनी छोटी भी नहीं है कि कुछ हो ही न सके। सवाल सिर्फ इतना है कि देश की तकदीर बदलने की कोई राजनीतिक इच्छा हमारे मनों में खदबदा रही है या नहीं।

राजकिशोर