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Tuesday, May 12, 2009

मंदिर-मस्जिद का झुनझुना और भारतीय मतदाता

मैं जब कभी लोगों से राजनीति के बारे में बात करता हूँ या किसी फोरम में लोगों के कमेंट्स पढता हूँ तो एक बात बहुत ही शिद्दत से उभर कर आती है, लोगों का पार्टी प्रेम। मैं हैरान हूँ, यहाँ तक कि हैरानगी की हद तक चला गया हूँ। इन लोगों के लिए समझ क्या बाहर से आयात करनी पड़ेगी?
जब किसी का ध्यान किसी क्षेत्र विशेष की समस्याओं पर दिलाया जाये तो वो उस पार्टी को गालियाँ देने लगता है जिसके खिलाफ वो आज तक वोट करता आया है। कल ही मैं एक वेबसाइट पर एक लेख पढ़ रहा था जिसमें मध्यप्रदेश की बदहाली का ज़िक्र और सीएम साहब से कुछ सवालात किये गए थे। उसमें नीचे पाठकों की टिप्पणियाँ थीं। सिर्फ ३ या ४ लोगों ने समझदारी की बात कही थी बाकी सारे लोग वाहियात सी बातें कर रहे थे। चूंकि मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार है, वहां पर लोग लेखक को कांग्रेस का एजेंट साबित करने पर तुले हुए थे। उस बेचारे ने जो हाल देखा वो लिख दिया और इन लोगों को बिना बात की मिर्ची लग गई। एक महाशय लिखते हैं कि आप कांग्रेस शासित राज्यों में जाकर देखिये वहां क्या हुआ है? अरे मेरे भाई, तेरे घर में खाना नहीं होगा तो क्या तेरा पेट इसलिए भर जायेगा कि दूसरे के घर में भी खाना नहीं है? अजीब बातें करते हैं लोग, पता नहीं क्यों इस लोकतंत्र में लोक ही किसी काम का नहीं है, शायद इसीलिए लोकतंत्र भी किसी काम का नहीं रहा। मैं मध्यप्रदेश के एक छोटे कस्बे से हूँ। इतना छोटा भी नहीं, तहसील है। मैंने वहां अपने बचपन से लेकर आज तक हमेशा अँधेरा ही देखा है, बिजली थोड़ी देर ही आती है, सड़कें हमेशा ख़राब ही रहीं हैं लेकिन ये कांग्रेस बीजेपी के पिट्ठू अपनी वफादारी साबित करने में लगे रहते हैं। अरे यार तू ये देख न कि तेरी समस्या कौन हल करता है, नहीं लेकिन, मर जायेंगे पर पार्टी को वोट देंगे। यहाँ तक कहते हैं लोग कि फलां पार्टी से अगर कोई कुत्ता भी खड़ा होता है तो हम उसी को वोट देंगे और ऐसी बेशर्मी की बातें ये लोग बड़े गर्व के साथ करते हैं। बताइये अब कहाँ जायेगा ये देश ऐसे बेवकूफों के हुजूम के साथ? यही वजह है कि कोई नेता कुछ नहीं करता, पता है कि ये बेवकूफ ऐसे ही मुट्ठी में है, और नहीं होंगे तो एक-आध मंदिर-मस्जिद का झुनझुना और पकड़ा देंगे। बिजली नहीं है, पानी नहीं है, सड़कें नहीं हैं, ज़माने भर की समस्याएँ हैं लेकिन पार्टी का पट्टा गले में डाले रहते हैं। ६० साल से ज्यादा हो गएँ हैं जब अँगरेज़ हमें छोड़ गए थे लेकिन हमारे लोग बड़े ही नहीं हो रहे ... | क्या आप बता सकते हैं कोई हल... ?

--अनिरूद्ध शर्मा

Monday, May 11, 2009

प्रथम बार वोट देने वालों का सरोकार काम से - एक चुनाव झलकी

प्रेमचंद सहजवाला

लोकसभा 2009 पर मैं अभी तक तीन बड़ी रिपोर्ट्स दे चुका हूँ. पर ब-तौर एक झलकी प्रस्तुत करने के मुझे लगा कि ज़रा उन नौजवान मतदाताओं से साक्षात्कार किया जाए, जो मन में पहली बार वोट डालने का उत्साह लिए घर से निकले थे. सन् '84 में जब राजीव गाँधी देश के प्रधानमंत्री बने तो अपने 5 - वर्षीय कार्य-काल में जो काम किए, उन में से एक महत्वपूर्ण काम यह था कि पहले मतदान करने के लिए न्यूनतम आयु 21 वर्ष होती थी, उसे राजीव गाँधी ने घटा कर 18 वर्ष किया. देश की युवा पीढ़ी बेहद प्रसन्न थी. युवा पीढ़ी को देश की समस्याओं पर गौर करने और अपने निर्वाचन-क्षेत्र के प्रतिनिधियों का मूल्यांकन करने की प्रेरणा मिली. दिनांक 7 मई 2009 को दिल्ली में भी बहुत इंतज़ार के बाद मतदान की सरगर्मी आई. मैं इस दिन नई दिल्ली लोकसभा सीट के अलग अलग मतदान केन्द्रों पर जायजा लेने घूम रहा था. कुछ देर के लिए मेरी नज़र उन नौजवान मतदाताओं को खोज रही थी, जिन्हें बेसब्री से इंतज़ार था कि पहली बार वोट देने वाली शुभ सुबह आए तो वे वोट देने जाएँ. इस बात में दो राय हो ही नहीं सकती कि वरिष्ठ पीढ़ी कि तुलना में युवा पीढ़ी अधिक प्रखर भी है, और बेहद आशावान भी. अलबत्ता कुछ युवक-युवतियां राजनेताओं के गिरते चारित्रिक स्तर के कारण खिन्न भी थे और कुछ तो कतिपय उन बड़ों जैसी बातें भी कर रहे थे जो कहते रहते हैं कि सब के सब चोर हैं बाबूजी. आख़िर किसे पसंद करें. मैंने बहुत पहले किसी चुनाव में 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' पत्रिका में एक कार्टून देखा था कि एक आदमी एक मोटा से लेंस ले कर बहुत सारे टोपी-धारी नेताओं को एक एक कर के गौर से देख रहा था. किसी के पूछने पर उस ने कहा कि आज चुनाव है. मैं देख रहा हूँ कि इन में सब से कम बुरा कौन सा है, क्यों कि अच्छा मिलना तो ना-मुमकिन है न!

पर 7 मई वृहस्पतिवार को अधिकाँश युवकों युवतियों में मुझे एक बहुत उत्साहवर्द्धक आशा-वादिता भी दिखी. नौजवानों का कहना है कि अगर नौजवानों को मौका दिया जाएगा तो मुमकिन है कि देश को एक नई और स्वस्थ दृष्टि भी दे सकें और काम भी बहुत कर सकें. 'दिल्ली का दंगल', जैसा कि इसे माना गया है, मुख्यतः दो ही पहलवान पार्टियों के बीच रहा है. कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा). मैं जितने भी नव-मतदाताओं से मिला (पहली बार वोट देने वाले), वे सब मुख्यतः इन्हीं दो पार्टियों के बीच बँटे हुए थे, भले ही वोटिंग-मशीन पर 40 या उस से भी ज्यादा नाम लिखे हों. किसी का चुनाव-चिह्न आसमान पर खिंचा तीर-कमान था तो किसी का
डबलरोटी या केक या बल्लेबाज़ वगैरह. पर नज़र सब की या तो हाथ पर थी या कमल पर. यह बताना मुश्किल कि कमल खिलेगा या हाथ हंसेगा. पर एक बात सब में गज़ब की समानता रखती थी कि सब का सरोकार काम करने वाले से ही था. इस निर्वाचन-क्षेत्र में कोई विजय गोयल (भाजपा) की तारीफ़ कर रहा था कि उस ने चांदनी-चौक में बहुत काम किया और हमेशा कोई न कोई नई योजना बनाता रहता है तो कोई अजय माकन के लिए तारीफों के पुल बाँध रहा था कि अब उन्होंने यमुना नदी को साफ़ करने का वादा किया है, जो कि बहुत ज़रूरी काम है. कुछ युवतियों में बहस भी ठनी क्यों कि किसी किसी को सोनिया-प्रियंका अच्छी लगती हैं तो उस के विरोध में दूसरी का कहना है कि अच्छी महिलाएं भाजपा में भी हैं, सोनिया-प्रियंका बड़ी फैमिली की हैं, इसलिए हर कोई उनकी तरफ़ है. बहरहाल जो बात मन को खुश करने वाली थी, वो यह कि युवा पीढ़ी देश से बहुत प्यार करती है और चाहती है कि देश को केवल बातें करने वाले निकम्मे नेताओं से छुटकारा मिले और देश में कुछ कर गुज़रने का वातावरण बने. यह सोच ही आशा का वह दीपक है, जिस की रौशनी में भरष्टाचार और आतंकवाद का अँधेरा भी पार हो जाएगा, ऐसी आशा की जा सकती है.


--प्रेमचंद सहजवाला

Saturday, May 09, 2009

नोटिस है या नौटंकी

क्या मज़ाक़ लगा रखा है चुनाव आयोग ने। सन्नी देओल की दामिनी फ़िल्म का एक डायलॉग याद आता है जब वो भरी अदालत में ये कहता है कि तारीख पर तारीख़....तारीख़ पर तारीख़... मन करता है...चेप लूं...और बोलूं..नोटिस पे नोटिस ..नोटिस पे नोटिस। जया प्रदा पर चुनाव आचार संहिता का जब एक और मामला फिर से दर्ज हुआ, तो कुछ ऐसा ही लगा। एक सरकारी नोटिस से इस लोकतंत्र का तथाकथित राजा यानी आम आदमी के हाथ पैर फूलने लगते है। लेकिन जया जी पर आयोग की घुड़कियां असर डालती नज़र नहीं आती..नोटिस नहीं हो गया नौटंकी हो गयी। हम जैसे ख़बरियों के लिए हेडलाईन हो गई। साथ में पता चली नेताओं के सामने आयोग की औक़ात। ये कोई पहला मामला नहीं है। कोई पार्टी नहीं ह, जिसके नेताओं को आचार संहिता की अनदेखी करने के लिए नोटिस न जारी हुआ हो। सरकार की रेल चला रहे लालू हों या उनकी धर्मपत्नि राबड़ी हो। जया प्रदा हों। छुटभैया नेता हों। गाली गलौज़ हो, बिंदी बांटू अभियान हो या मुलायम जी और गोविंदा के नोट लुटाने जैसी दरियादिली हो। ये सब चुनाव आयोग की आँखों के सामने आया। आंखों में किरकिरी भी हुई। नतीजा नोटिस पर नोटिस। और दूसरी ओर से सफ़ाई पर सफ़ाई। जवाब पर जवाब। और हर जवाब के साथ आयोग लाजवाब। या तो चुनाव आयोग नोटिस के अलावा कुछ करने की हिम्मत नहीं जुटा रहा है, या फिर इन खद्दरधारियों के सामने नोटिस और उस पर सफ़ाई एक रूटीन वर्क बन गया है। सही भी है- चुनाव है तो जोश आ ही जाता है। आदमी कुछ बोल ही जाता है। कुछ ग़लत जैसा फ़ील नहीं होता। और भई दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का शो चल रहा है, कुछ तो मसालेदार आईटम होना ही चाहिए नहीं तो रंग नहीं जमेगा। पब्लिक बोलेगी कि इस बार के इलेक्शन में कुछ मजा नहीं आया। तो शो की टीआरपी बनी रहे। नेताओं की टीआरपी बनी रहे। कुछ न कुछ तो करते रहना पड़ेगा भाई। ऐसे में जनता जनार्दन का मूड देखा जायेगा या कि चुनाव आयोग की बंदरघुड़की, .डर नहीं लगता। अरे वरूण गांधी इतना कुछ बोल गया, तो चुनाव आयोग कुछ कर ही नहीं पाया। मुख्तार अंसारी का क्या कर पाया है चुनाव आयोग। इसी चुनाव आयोग के राज में फूलन देवी भी चुनाव लड़ चुकी है। शहाबुद्दीन जैसे लोग लोगों की नुमाईन्दगी करते आये हैं। ख़ून बहता रहा है। पैसा लूटता रहा है। लोग पाला बदलते रहें हैं। वोट ख़रीदते रहे हैं। वोट बिकते रहे हैं। बूथ लुटते रहे हैं। चौराहे पर बोली लगती रही है उस भरोसे की जो आम आदमी ने जताया इन तथाकथित अपने सेवकों पर। और ये सब कुछ होता रहा है चुनाव आयोग के सामने। चुनाव आयोग के रहते। तब अगर नेता इसके नोटिस को नौटंकी समझे तो समझ में आता है आयोग का असर। चावला जी इन नोट वालों को नोटिस नहीं आपका डंडा समझा सकता है। आप इस बात को समझे। नहीं तो सारी कोशिशे अंडा हो जायेंगी यानी ज़ीरो। नेताओं के फेवर में एक शायरी चुनाव आयोग के नाम-

मिटा सके हमको ये ज़माने में दम नहीं
ज़माना हमसे है ज़माने हम नहीं।


-रवि मिश्रा (लेखक ज़ी (यूपी) में न्यूज़ एंकर हैं)

Thursday, May 07, 2009

सन् 84 का दर्द और सिक्ख मत-दाता

समाज सेवक कुलदीप सिंह चन्ना के साथ अन्तरंग बातचीत - प्रेमचंद सहजवाला

उपरोक्त बातचीत के विषय में लिखने से पहले मुझे याद आ रहा है सन 2004, जब लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री की शपथ ले रहे थे. शपथ-समारोह को देश के सभी चैनल दिखा रहे थे पर मैं यह कार्यक्रम देख रहा था बी.बी.सी पर. प्रारम्भ में ही बी.बी.सी पर दो पत्रकार बड़ी गरमागरम गुफ्तगू कर रहे थे. मनमोहन सिंह के शपथ लेने पर एक अजीब सा उत्साह पत्रकारों में भी था. एक पत्रकार दूसरे से भारत देश की तारीफ कर रहा था कि भारत एक सच्चे अर्थों में secular देश है जिस का राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे अब्दुल कलाम मुस्लिम है और अब एक सिख नेता प्रधानमंत्री की शपथ लेने जा रहा है. यानी दोनों अल्प-संख्यक समुदायों से. पर दूसरे साथी पत्रकार ने उसे तुंरत रोकते हुए कहा कि ये दोनों शख्सियतें इन महत्वपूर्ण पदों पर इसलिए नहीं पहुँची कि वे अल्पसंख्यक हैं, वरन् दोनों ही देश की राजनैतिक मुख्यधारा के माध्यम से अपनी योग्यताओं के आधार पर आगे आए हैं. उस समय एक जिज्ञासा सब के मन में थी कि यदि सोनिया ने प्रधानमंत्री पद को अस्वीकार कर दिया तो आख़िर मनमोहन सिंह को ही क्यों चुना. कुछ लोग अपनी ओर से अटकल लगा रहे थे कि सन 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद जिस नृशंस तरीके से अबोध सिक्खों की हत्याएं हुई, उस के बाद सिक्ख समुदाय कांग्रेस पार्टी को कभी क्षमा नहीं करेगा क्यों कि दिल्ली के कतिपय कांग्रेसी नेताओं पर यह इल्जाम लगता रहा है कि उन नृशंस हत्याओं के पीछे उन्हीं का हाथ है. इसलिए सोनिया जी सिक्ख समुदाय से अपने टूटे रिश्तों को जोड़ने के लिए उनके ज़ख्मों पर अपने तरीके से मरहम लगना चाहती हैं. पर जहाँ एक तरफ़ मनमोहन सिंह के पाँच वर्ष के शासन काल में बी.बी.सी पत्रकारों द्वारा कही हुई बात साबित हो गई कि वे किसी विशेष समुदाय के प्रधानमंत्री नहीं हैं, वहीं पाँच वर्षों में उन्होंने किसी भी समुदाय विशेष को प्रसन्न करने के लिए कोई अलग से कदम नहीं उठाया, वरन वे देश की आर्थिक स्थिति व आतंकवाद से जूझते रहे, जिसमें उन्हें कभी सफलता मिली कभी असफलता. पर हाल ही में मैंने जब अपने निर्वाचन क्षेत्र में अजय माकन का भाषण एक पत्रकार के रूप में कवर किया तो यह देख कर चकित था कि मंच पर अच्छी खासी मात्रा में सिख भी उपस्थित थे क्यों कि मानसरोवर गार्डन व राजौरी गार्डन के आसपास के इस इलाके में जहाँ भाषण हो रहा था, वहां सिक्ख जनसँख्या भी अच्छी खासी है. ऐसे में किसी के भी मन में यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि क्या सिख समुदाय कांग्रेस को क्षमा कर चुका है? या कि अब वह कांग्रेस के साथ इसलिए है कि कांग्रेस एक सिक्ख नेता को प्रधानमंत्री बनाए हुए है. दोनों प्रश्नों के उत्तर मेरे मन में मिले जुले से हैं. पिछले महीने जगदीश टाईट्लर को टिकट मिलने के सवाल पर एक सिख पत्रकार ने गृहमंत्री चिदंबरम पर जूता फेंक दिया. उधर अदालत जब टाईट्लर पर फ़ैसला देने वाली थी तब बाहर जमा सिख समुदाय व उस का आक्रोश काबिले-गौर था. पर उस भीड़ का थोड़ा सा विश्लेषण करने पर यह भी स्पष्ट था कि उस आक्रोश का नेतृत्व अकाली-दल कर रहा था. यानी सिक्ख परिवार, जिनके घरों से कई प्यारे लोग चले गए, उन के साथ न्याय तो जाने कब हो, पर उस पर राजनीती भी कम नहीं हो रही. यही कहना है इस इलाके के प्रसिद्ध समाज-सेवी सरदार कुलदीप सिंह चन्ना का कि सिक्ख समुदाय तो सदियों से अत्याचार सहन करता आ रहा है. उनकी लाचार आस्था है ईश्वर में कि ईश्वर कभी न कभी गुनाहगारों को सज़ा देगा ही, पर वे गुजरात में सन 2002 में हुई नृशंस मुस्लिम हत्याओं का सन्दर्भ दे कर कहते हैं कि कुछ पार्टियाँ सन 84 की नृशंस हत्याओं को केवल चुनाव के दौरान ही उठाती हैं. यह पूछने पर कि क्या मनमोहन सिंह के प्रति उन का उत्साह इसलिए है कि वे उन के ही मज़हब के हैं, यानी सिक्ख हैं, वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि नहीं, मनमोहन सिंह एक काबिल प्रधानमंत्री हैं जिन की विदेशों में भी बहुत अच्छी साख है. अलबत्ता वे कांग्रेस के प्रति आभार भी प्रकट करते हैं कि कांग्रेस ने ही देश को सिक्ख राष्ट्रपति दिया, सिक्ख सेना-अध्यक्ष दिया और अब सिक्ख प्रधान मंत्री. उनकी बात आइये, हम उनकी ही ज़बान से सुनें, शायद इसे सुनने से हम एक झलक सिक्ख समुदाय के हृदय की पा सकेंगे.



बातचीत-1बातचीत-2
-----बातचीत-3

Tuesday, May 05, 2009

गिरता मतदान- लोकतंत्र या अल्पतंत्र

रवि मिश्रा ओसामा से ओबामा तक और मैडोना से मल्लिका तक की ख़बर, हम तक पहुँचाने वाले एक ख़बरिया चैनल की बोलती ज़ुबान हैं। ज़ी (यूपी) में न्यूज़ एंकर रवि मिश्रा छपरा, बिहार से चलकर नोएडा पहुँचे हैं। दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के 15वें महापर्व में वोटरों का घटता रूझान इन्हें चिंतित कर रहा है।

चुनाव आयोग ने जब चुनाव की घोषणा की तो कई आंकड़े दिये. सत्तर करोड़ से भी ज्यादा मतदाता बताये और ये भी बताया कि कितने नये मतदाता जुड़े हैं वोटर लिस्ट में. सुनकर लगा कि हमारे लोकतंत्र का दायारा बढ़ता जा रहा है. अब जबकी धीरे - मतदान आगे बढ़ रहा है और ये बात सामने आ रही है कि ये बड़ी संख्या में वोटर मतदान नहीं कर रहे हैं. मतदान का कम प्रतिशत भले ही चिंता की बात है- चुनाव आयोग और राजनीतिक दलों के लिए, लेकिन ये एक बेहद गंभीर संकेत है अल्पतंत्र की ओर बढ़ते क़दम का.पप्पू को जगाने के लिए जागो रे जैसे अभियान भी चले लेकिन लगता है पप्पू पप्पू ही बना रहना चाहता है.वोट नहीं डालता. ये सवाल तो ये है ही कि क्यों वोटिंग प्रतिशत कम है. देश को सबसे ज्यादा सांसद देने वाला राज्य उत्तर प्रदेश चालीस और पचास प्रतिशत के बीच झूल रहा है, जहां के चुनावी दंगल में नेता जितना ताल ठोक रहे हैं वहीं जनता ताली तक बजाने के मूड में नज़र नहीं आती. कारण कई हैं. पर इस सबसे लोकतांत्रिक व्यवस्था के आलोचकों के उस तर्क को बल मिलता है जो ये कहते हैं कि लोकतंत्र कुछ लोगों का ही तंत्र हैं. बहुमत सत्ता की भागीदारी से दूर रहती है. जब उत्तर प्रदेश में 44-45 प्रतिशत लोगों ने वोट दिया तो ये बात तो तय है कि नतीजे भी इन्हीं के दिये वोटों पर तय होंगे.यानि 55 प्रतिशत की आबादी बिना मत व्यक्त किए एक सरकार को स्वीकार कर लेगी. अगर पूरे भारत की भी बात कर लें तो हार जीत भी 50-60 प्रतिशत मतदान पर तय होगा. पार्टियों की हार जीत इन्ही वोटों पर तय होगी. फिर हार का अंतर कितना भी हो , जीता हुआ प्रत्याशी उस पूरे क्षेत्र के लोगों की नुमाइंदगी करेगा. सरकार बनवायेगा.ये कैसा शासन होगा जहां कम वोटिंग में भी हार जीत का फ़ैसला हो जाता है. सरकारे बन जाती हैं. अगर वोटिंग 40 प्रतिशत है जो बाक़ि के 60 प्रतिशत लोगों की राय लिए बिना हार जीत का फ़ैसला हो जाता है. और फिर फ़ैसला होता उनके पांच सालों का. इस अल्पतंत्र के तत्व के साथ पूर्ण लोकतांत्रिक व्यवस्था का दंभ कैसे भरता है हमारा सिस्टम, समझना मुश्किल है. वोटों का लगातार गिरता हुआ प्रतिशत हमें असल में एक ऐसी व्यवस्था की तरफ ले जा रहा है जहां अल्पमत बहुमत के छद्म रूप में दिखता है और लोकतांत्रिक व्यवस्थ का झूठा आभास दिलाता है. कई देशों में ख़ास कर सोवियत संघ के टूटे हूए घटकों में ऐसी व्यवस्था है जिसमें 50 प्रतिशत से कम वोटिंग होने पर हार-जीत का फ़ैसला नहीं होता. पुन: मतदान कराया जाता है. ये सुनिश्चित किया जाता है जो राज करेगा उसे असल में बहुमत का समर्थन प्राप्त है. अगर भारत में ये सिस्टम लागू हो जाये तो अल्पतंत्र की तरफ़ बढ़ते क़दम पर एक अवरोध लगाया जा सकता है. लेकिन ये स्पीडब्रेकर लगाने के लिए शायद चुनाव आयोग को ये सुनिश्चत करना होगा कि वोटिंग प्रक्रिया और ज्यादा प्रो- पीपुल हो. ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग मतदान प्रक्रिया का हिस्सा बन सके. वोटरों की उदासीनता और नेताओं का चरित्र देखकर यह निकट भविष्य में आसान नहीं दिखता. और जब तक ऐसा नहीं होता तब तक पप्पू पप्पू बना रहेगा और इस लोकतंत्र के अल्पतंत्र द्वारा शासित रहेगा.

Friday, May 01, 2009

भाजपा प्रचार जानी पहचानी लीक पर

हिन्द-युग्म के प्रेमचंद सहजवाला उम्र के इस पड़ाव पर भी हाथ में कैमरा लिये कोई न कोई चुनाव रैली में शामिल हो जाते हैं। आम जनता और उनके भावी प्रतिनिधियों से एक पेशेवर पत्रकार की तरह बात करते हैं। सभाओं में श्रोता बनना इन्हें ख़ासा रुचिकर लगता है। पिछले हफ़्ते इन्होंने कांग्रेस के अजय माकन को कैमरे में कैद किया था और उसकी एक रिपोर्ट दी थी। आज कैद हुए है भाजपा के रविशंकर प्रसाद॰॰॰॰


लोक सभा चुनाव 2009 कई अर्थों में बेहद महत्वपूर्ण हो रहे हैं। एक तो यह कि 15वीं लोक सभा शायद सरकार बनाने वाली पार्टी के लिए सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण होगी। पार्टियों और नेताओं का एक लंबा जुलूस सा है। कांग्रेस के बारे में भले ही यह कहा जा रहा हो कि भाजपा की तुलना में उस की स्थिति थोड़ी सी ही बेहतर है, पर दिन ब दिन कांग्रेस की मुश्किलें भी बढ़ती नज़र आ रही हैं और कांग्रेस-भाजपा की टक्कर और अधिक तीखी होती जा रही है। कभी तो कांग्रेस को लालूप्रसाद और मुलायम सिंह छोड़ कर अपनी डफली बजाने में लगे हैं, कभी शरद पवार को प्रधानमंत्री बनने के सपने आते हैं। तो कभी अचानक क्वात्राची का पुराना भूत आकर 10 जनपथ पर मंडराने लगता है। कभी कोई कह देता है कि मनमोहन सिंह तो केवल 'नाइट वॉचमैन' हैं और चुनाव जीतते ही कांग्रेस सहसा राहुल गाँधी को प्रधानमंत्री बना देगी। टीवी चैनलों के भी खूब मौज हो गई है। कोई-कोई चैनल ग्लैमर को बढ़ावा देने के लिए प्रियंका गाँधी की साड़ियों की प्रदर्शनी लगा देता है, जिन में प्रियंका अपनी दादी माँ यानी इंदिरा गाँधी की साड़ियों में से अपने लिए साड़ी चुनती नज़र आती हैं। पर सारी चमक-दमक व मनमोहन सिंह की साफ़ सुथरी छवि के बावजूद कांग्रेस पर यह खतरा बना हुआ है कि जैसे 2004 के चुनावों में उम्मीद वाजपेयी की जीत की थी और जीत गई थी सोनिया, तो कहीं इस बार ठीक उल्टा न हो जाए। नए प्रधान मंत्री को शपथ दिलवाने के तैय्यारी कर रही हों सोनिया जी और बाज़ी मार ले जाएँ आडवानी जी! आडवानी और मोदी के द्वंद्व पर भी मीडिया अच्छे पैसे कमा लेता है, यह कह कर कि क्या मोदी ही भाजपा का असली चेहरा हैं?

बहरहाल, इस बीच मैं दिनांक 24 अप्रैल को जनकपुरी मेट्रो स्टेशन के नज़दीक बने 'एस के बैंकेट हाल' में आयोजित भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद का भाषण सुनने चला गया। रविशंकर प्रसाद वाजपेयी के नेतृत्त्व वाली सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं तथा भाजपा की सांप्रदायिक छवि के तुलना में एक 'सेकुलर' नेता व सुलझी हुई सभ्य शख्सियत माने जाते हैं। पर जैसा कि हर चुनाव में होता है, इस बार भी भाजपा का प्रचार नकारात्मक वोटों पर ही आधारित है। कांग्रेस के विफलताओं की रोटियां सेंक कर खाना भाजपा का बहुत पुराना खेल है। रविशंकर प्रसाद सुप्रीम कोर्ट के एक जाने माने वकील भी हैं तथा भाषण बहुत प्रभावशाली करते हैं। उन्होंने सब से पहले अपने समय की एन.डी.ए सरकार की एक बड़ी उपलब्धि यही मानी कि सन 98 में परमाणु परीक्षण कर के एन.डी.ए सरकार ने भारत को अग्रणी देशों में ला खड़ा किया। परन्तु जब मैंने भाषण के अंत में मंच पर जा कर यह प्रश्न किया कि परमाणु शक्ति होने के कारण भारत पाकिस्तान पर हमला ही नहीं कर पा रहा, वरना इतने आतंकवादी हमलों के बाद भारत के पास यही विकल्प है कि पाकिस्तान पर हमला कर के उन के आतंकवादी अड्डे नेस्तनाबूद कर दे। पर रवि शंकर प्रसाद यह मानने को तैयार नहीं हैं। बल्कि रोचक बात यह है कि उन्होंने पाकिस्तान को सीधा करने का वही तरीका बताया जो इस समय कांग्रेस को अपनाना पड़ रहा है। वे कहते हैं कि भारत के पास कई और तरीके हैं, जैसे कि सख्ती। और दुनिया के कई देश भारत की बात मानते हैं. यानी राजनयिक (diplomatic) तरीका। मुझे इस से भी अधिक रोचक बात यह लगती है कि कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक व विदेशी नीतियां एक दूसरे के फोटो-कॉपी ही हैं। कुछ दिन पहले तो रजत शर्मा ने 'आप की अदालत' में भाजपा नेता अरुण जेटली से पूछ ही लिया कि इतने ढेरों दलों के खिचडी से तो बेहतर है कि कांग्रेस और भाजपा मिल-जुल कर सरकार बनाएं। अरुण जेटली ने वही जवाब दिया जिसकी उम्मीद थी, हालांकि उपस्थित दर्शक-गण ने रजत के सवाल पर भरपूर ठहाका लगाया था। जेटली कहते हैं कि समय के साथ राजनैतिक ध्रुवीकरण भी हो चुका है। अतः भाजपा और कांग्रेस का मिलना तो अब दूर की बात ही रही। रविशंकर प्रसाद ने अपने भाषण में मंहगाई, आतंकवाद, काला धन, अफज़ल गुरू, कांधार विमान-अपहरण, बंगलादेशी घुसपैठिये, कसाब के बजाय दूसरे मृत आतंकवादी का डी.एन.ए टेस्ट पाकिस्तान भेज देना, सन 84 की सिख हत्याएं, हिंदू- मुस्लिम प्रश्न... इन सब जाने पहचाने प्रश्नों के चिरपरिचित लीक पर अपना प्रभावशाली भाषण रखा। हिंदू-मुस्लिम प्रश्न पर भाजपा की गिरगिट बाज़ी का प्रदर्शन उन्हें भी करना पड़ा शायद। वोटों के समय भाजपा एक नकली मुखौटा चढ़ाती है कि वह मुसलमानों की दुश्मन नहीं है। पर ज़रूरत पड़ने पर जैसा गुजरात में हुआ, नरसंहार अपनी आंखों से होता देखते रहने में कोई संकोच नहीं करती। न ही वह उड़ीसा की शर्मनाक ईसाई हत्याओं का कोई जवाब देती है। रोचक बात यह कि रविशंकर प्रसाद जी का कहना है कि उन की पार्टी मौलाना आजाद, परम वीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद, इरफान पठान व सानिया मिर्जा पर गर्व करती है। वास्तविकता यह है कि मौलाना आजाद की छवि पुराने जनसंघी नेता चुन-चुन कर बिगाड़ते रहे और अब्दुल हमीद के विषय में उन का प्रचार यही था कि सन 65 की लड़ाई के बाद दिखावे के तौर पर एक मुस्लिम को भी परम वीर चक्र दे दिया गया। बैंकेट हॉल में जहाँ शादी के बाद दूल्हा दुल्हन बैठते हैं, ऐसे एक हॉल में लगभग 600 लोग थे जिन में कई तो कार्यकर्त्ता थे। पर रविशंकर प्रसाद अपने प्रस्तुतीकरण में काफ़ी सशक्त रहे. वोटों के दिन जनता क्या करती है, यह जनता के गत जनता जाने।
इधर दिनांक 29 अप्रैल को मैं अपने घर बैठा चंगा भला फिल्मी गाने सुन रहा था कि नीचे कार्यकर्ताओं का शोर सा सुनाई दिया. 'भारतीय जनता युवा मोर्चा' के कार्यकर्ता एक वैन में प्रचार को निकल पड़े थे और उनके साथ थी यहाँ रमेशनगर की निगम पार्षद उषा मेहता, जो यहाँ की एक लोकप्रिय नेता हैं, अपनी सुंदर वाणी और हावभाव के लिए प्रसिद्ध। उन से मैंने पूछा कि नई दिल्ली निर्वाचन क्षेत्र को ले कर उन की क्या योजनाएं हैं तो उन्होंने भी मंहगाई की बात कर के यह कहा कि नई दिल्ली में अजय माकन के होते जो तबाही हुई है, उस से दिल्ली को बचाना हमारा ध्येय है. हर बार की तरह कार्यकर्ताओं में उत्साह और धूमधड़ाका था पर आडवानी और मनमोहन सिंह की तुलना में आख़िर इस चुनाव का ऊँट किस करवट बैठता है, यह जानने के लिए सब को इंतज़ार है चुनाव ख़त्म होने का और 16 मई को परिणाम आने शुरू होने का।

रविशंकर प्रसाद से सवाल करते प्रेमनिगम पार्षद उषा मेहता का जवाब

Thursday, April 30, 2009

भूतपूर्व का महत्व

संदीप कुमार मील राजस्थान राज्य के सीकर जिले के रहने वाले हैं। वहाँ के एक स्थानीय कॉलेज से ग्रेजुएशन कर और अपने गाँव-जवार की बातें लेकर जब ये दिल्ली के जेएनयू में पोस्ट-ग्रेजुएशन करने पहुँचे तो हिंदी माध्यम के विद्यार्थी को अचानक ऐसा लगा कि एक गाँव से आने वाले किसान के लड़के के साथ पैसे वालो के व्यवहार में बहुत फ़र्क होता है, वे एक ऐसी नज़र से देखते है कि गरीब और उनके बीच कोई दीवार हो। इस हालत में इन्हें लगा कि ये सिर्फ संदीप नहीं हैं- ये उन लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं जो समाज कि मुख्यधारा से अलग है, इन्हें उनके स्वाभीमान को नहीं मरने देना चाहिए। इसीलिए अंतराष्ट्रीय संबंधों का विधार्थी होते हुए भी अपनी बात कहने का जरिया इन्होंने हिन्दी साहित्य को बनाया है। पत्रिकाओ में छपते रहते हैं। बैठक पर प्रकाशित होने का पहला अनुभव है। कला से कुछा ज्यादा ही प्रेम होने के कारण नाटक में अभिनय करना शुरू कर दिया है।. पिछले दो सालों से 'सहर' नामक संस्था के साथ रंगकर्म से जुड़े हैं। जेएनयू में लोग एक नाटककार, पोस्टर चिपकाने वाला, नारा देने वाला, कहानी लिखने वाला आदि कई नामों से इन्हें जानते हैं। वैसे प्रगतिशील आदमी हैं। कहते हैं-जिनगी का कोई ठिकाना नहीं है जो मन में आता है वही करता हूँ॰॰॰॰

जबकि हर तरफ नेता-चुनाव-लोकतंत्र की चर्चा है तो ये भी इससे अछूते नहीं है। अपने व्यंग्य के ज़रिए 'भूतपूर्व' की महिमा बता रहे हैं।



साधारणतया लोग भूतों से डरते हैं मगर इस देश के राजनेता, प्रशासक, सैनिक अधिकारी आदि लोगों को भूतों से बहुत प्रेम हैं। वे जब तक पद पर बने रहते हैं तब तक बेचारे भूत की कोई फिक्र नही करते और पद छोड़ते ही श्रीमान जी अपने पीछे `भूतपूर्व' हो जाते हैं। जैसे- भूतपूर्व प्रद्यानमंत्री, भूतपूर्व मुख्यमंत्री, भूतपूर्व सचिव आदि। इन दिनों तो यह प्रचलन इतना बढ़ चुका है कि लोग अपने नाम के पीछे 'भूतपूर्व चोर' भी लगा लेते हैं। जिसका अर्थ बताते हैं कि वो पहले चोर थे मगर अब आध्यात्म अपना लिया है। फिर भी उन्हे अपने भूतकाल पर इतना फ़क्र होता है कि वो आज भी पहले `भूतपूर्व चोर' लिखते हैं फिर अपना नाम।
हाल ही में इस देश में एक आदमी बीमार था। यूं तो हजारों लोग यहाँ मरते है जिनकी कहीं कोई चर्चा नही होती मगर वो भूतपूर्व प्रद्यानमंत्री होने के नाते रोज समाचार पत्रों की दो बाई दो की जगह घेरे रहता है। मेरा भी आजकल मन करता है कि मैं भी `भूतपूर्व' हो जाऊँ मगर मुझे भूतों से बहुत डर लगता है, इसलिए यह क्रांतिकारी कदम नहीं उठा सकता।
भूतपूर्व लगाने से आदमी को उसका भूतकाल हमेशा याद रहता है। वैसे सारे मनुष्य लगा सकते है `भूतपूर्व जानवर' ताकि आदमी को यह अहसास रहे कि वो कभी जानवर था, इसीलिए आज भी जानवरों जैसी हरकतें कर देता है। कल श्री राम सेना वाले भी अपने नाम के पीछे लगाएँगे `भूतपूर्व पब कलचर पर हमलाकारी'। मेरे दादा जी के एक दोस्त भूतपूर्व मंत्री हैं। वो कहते हैं कि जब हम मंत्री थे तब यह भ्रष्टाचार जैसी चीजों के लिए कोई जगह नहीं थी मगर अब क्या करें हम तो भूतपूर्व हो गये। वो बात अलग थी कि उनके सरकारी कार्यकाल के दौरान उनकी सम्पति मे अभूतपूर्व वृद्धि हुई। आज भी उनके यहॉँ आयकर विभाग का छापा नहीं पड़ता है क्योंकि उनके पास `भूतपूर्व मंत्री' का कवच है। उनकी गाड़ी को कोई पुलिस वाला नहीं रोकता क्योंकि वो अपनी गाड़ी की नम्बर प्लेट पर बड़े-बड़े लाल अक्षरों में छपवा रखा था `भूतपूर्व मंत्री'। बेचारे पुलिस वाले डरते है कि कहीं भूत इनका पीछा छोड़ दिया और यह सिर्फ मंत्री हो गये तो उनके बच्चों को मिड डे मिल पर काम चलाना पड़ेगा, और यह अपना भूत उनके पीछे लगाकर उन्हें `भूतपूर्व इन्सपेक्टर' बना देंगे।
वाह रे! कुर्सी जब तक नीचे है तब तक तो मजा है ही और नीचे से हटते ही लोग `भूतपूर्व' लगा कर मजा करेंगे। अगर उपयोगितावाद का यह सिद्धान्त बेचारे जरमी बेंथम को पता होता तो वह छाती पीट-पीटकर रोता कि वो हिन्दुस्तान में क्यों नही जन्मा?
कुछ दिनों पहले राजस्थान के विधानसभा चुनाव में मैं वहँ एक गावँ में था, उसी दिन एक विधायक पद के उम्मीदवार का भाषण था जो पहले मुख्यमंत्री थे और अब `भूतपूर्व मुख्यमंत्री' रह गये थे। वे सभा में आये और बोले, `भाइयों और बहनों मुझे बचा लिजिए, मेरी जान आपके हाथों में है, मुझे भूत से बहुत डर लगता है। आप इस बार अपना अमूल्य वोट देकर मेरा भूतपूर्व हटा दें ताकि मैं मुख्यमंत्री रह जाऊँ।"
मुझे भी इस भूतपूर्व शब्द से इतनी मोहब्बत हो गई है कि मैंने उठकर पूछा, "श्रीमान जी आपके भूतपूर्व वादों का क्या हुआ?"
वे जोश के साथ बोले, "मैं वादा करता हूँ कि मेरा भूतपूर्व हटने के साथ ही मैं वादों का भी भूतपूर्व हटा दूँगा तब मैं सिर्फ मुख्यमंत्री रह जाऊँगा और भूतपूर्व वादे सिर्फ वादे।"

Wednesday, April 29, 2009

आज़ादी से पहले और बाद के जूता-काण्ड

हि्द-युग्म के प्रबुद्ध पाठकों के लिए प्रेमचंद सहजवाला चंद चुनाव सम्बन्धी प्रश्न लाये हैं। इन दिनों नेता पर जूता-चप्पल फेंको प्रतियोगिता ज़ोरों पर है। उसी से जुड़े कुछ सवाल हैं। एक-एक प्रश्न के चार-चार विकल्प हैं जिन में से एक सही है और शेष ग़लत। पाठक Comment (टिप्पणी) में अपने उत्तर दे सकते हैं। शीघ्र ही मैं इनके उत्तर आपको बताये जायेंगे।

प्रश्न 1: आज़ादी से पहले कौन से कांग्रेस नेता पर एक कांग्रेस अधिवेशन में जूता फेंका गया था?
(a) मोतीलाल नेहरू
(b) मुहम्मद अली जिन्ना
(c) लोकमान्य तिलक
(d) महात्मा गाँधी

(संकेत - जूता जिस नेता पर फेंका गया उसे न लग कर दो अन्य नेताओं को लगा जिन में से एक पारसी था एक बंगाली)

प्रश्न 2 : आज़ादी के बाद एक लोक सभा चुनाव की रैली में कौन से नेता पर पत्थर फेंका गया जिस के फलस्वरूप उस की नाक fracture हो गई थी?

(a) अटल बहरी वाजपेयी
(b) इंदिरा गाँधी
(c) मार्गरेट अल्वा
(d) तारकेश्वरी सिन्हा

प्रश्न 3 : 'दो बैलों की जोड़ी' और 'हाथ' के चुनाव चिन्हों के बीच की अवधि में कांग्रेस का चुनाव चिन्ह क्या था?

(a) चरखा कातती औरत
(b) हल चलाता किसान
(c) चरखा
(d) गाय-बछड़ा

सोचिए-सोचिए। हैं ना मज़ेदार सवाल!

Wednesday, April 22, 2009

अजय माकन को अपनी तथा मनमोहन सिंह दोनों की छवियों का दोहरा लाभ

प्रेमचंद सहजवाला हिन्द-युग्म के वरिष्ठ लेखक हैं। इन दिनों वे पाठकों के साथ भारतीय आमचुनावों की यादें बाँट रहे हैं। अभी कुछ ही समय पहले इनके इलाके रमेश नगर में कांग्रेस प्रत्याशी अजय माकन का आना हुआ। प्रेम ने सिटीजन पत्रकर का धर्म निभाया, माकन को कैमरे के मकान में बिठा लिया। आइए हम भी देखते हैं और पढ़ते भी-


दिल्ली के सात लोकसभा निर्वाचन क्षेत्रों में नई दिल्ली निर्वाचन क्षेत्र सर्वाधिक गर्मजोशी वाला निर्वाचन क्षेत्र रहा है. इस निर्वाचन क्षेत्र से जहाँ एक ओर अटल बिहारी वाजपेयी, एम एल सोंधी, मोहिनी गिरी, जगमोहन व लाल कृष्ण आडवानी जैसे सांसद रह चुके हैं, वहीं सन 1957 के लोकसभा चुनाव में इसी सीट से सुचेता कृपलानी ने 73% से भी अधिक वोट हासिल किए जो कि आज तक एक कीर्तिमान रहा है। यहीं से राजेश खन्ना व शत्रुघ्न सिन्हा की टक्कर हुई थी। राजेश खन्ना ने शत्रुघ्न सिन्हा को हरा दिया तो बाद में जब लाल कृष्ण आडवानी ने राजेश खन्ना को हरा दिया तब मीडिया ने चुटकी काटी के राजेश खन्ना तो शत्रुघ्न सिन्हा से बड़े अभिनेता हैं, पर लाल कृष्ण शायद राजेश खन्ना से भी बड़े अभिनेता हैं। जब सन् 80 में नई दिल्ली से चुनाव लड़ने के बाद मत-गणना केन्द्र पर वाजपेयी बारिश में छाता पकड़े खड़े अन्दर की स्थिति का जायजा ले रहे थे और मत-गणना के एक मुकाम पर उन्हें पता चला कि वे हारने वाले हैं तो पास खड़े विक्षिप्त से माने जाने वाले नेता राजनारायण जो यहीं से चुनाव लड़ रहे थे, को अपना छाता पकड़ा कर वाजपेयी मीडिया से मज़ाकिया बातें करते कार में अपने घर चले गए। इसी निर्वाचन क्षेत्र से आई एस जोहर जैसे विचित्र से माने जाने वाले हास्य अभिनेता व Bandit Queen फूलन देवी चुनाव लड़ कर ज़मानतें ज़ब्त करा चुके हैं। परन्तु सन् 2004 यानी पिछला लोक सभा चुनाव भी इस निर्वाचन क्षेत्र के लिए कम दिलचस्प नहीं था। यहाँ एक युवा नेता अजय माकन ने जगमोहन जैसे धुंरधर नेता, जिन्होंने बुलडोज़र द्वारा दिल्ली के कई मकान व इमारतें धराशायी करवा दी थी, की आशाओं पर बुलडोज़र चला कर सब को चौंका भी दिया व अपना लोहा भी मनवा लिया। परन्तु दिल्ली निवासियों ने इन्हीं 5 वर्षों में सीलिंग तथा मकान गिरने के दुखद दिन भी देखे जिस में कि एक बार तो पुलिस की गोलियों से चार लोगों की मृत्यु भी हो गई। कांग्रेस को सन् 2007 में नगर निगम चुनावों में बुरी तरह पिटना पड़ा। परन्तु अजय माकन जिन्हें कि 'मास्टर प्लान माकन' नाम से जाना जाता है, का दावा है कि उनके विशेष प्रयासों से ही दिल्ली वासियों के दुखद दिनों का अब अंत हो चुका है. रमेश नगर जहाँ मैं रहता हूँ, वहां की एक जन सभा में उन्होंने कहा कि शहरी विकास राज्य मंत्री के रूप में उनके द्वारा कार्यान्वित 'मास्टर प्लान' के बाद दिल्ली-निवासी अब अपनी इमारत का निचला तल 'कार पार्किंग' के लिए रख कर उस के ऊपर चार मंज़िलें और बनवा सकते हैं तथा एक मंज़िल भूमिगत (basement) भी बनवा सकते हैं। इस प्रकार अब कोई भी इमारत कुल छह मंजिलों की बन सकती है। माकन के प्रतिद्वंद्वी विजय गोयल भले ही लोकप्रिय हों और स्वयं को एक कर्मठ नेता के रूप में प्रस्तुत करते हों, (वे भी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एन डी ए सरकार में राज्य मंत्री रह चुके हैं, पर अजय माकन की अपेक्षाकृत साफ़ सुथरी व सादगी पसंद छवि के आगे विजय गोयल बौने से पड़ जाते हैं) । अधिकाँश मतदाता स्पष्टतः अजय माकन की ओर झुके हुए हैं। तालियों की गड़गडाहट के बीच अजय माकन अपना भाषण बहुत प्रभावशाली तरीके से निभाते हैं।

अजय माकन का भाषण

भाषण का दूसरा तथा तीसरा भाग


प्रेमचंद सहजवाला की वोटरों (मतदाताओं) की बातचीत

अजय माकन के पास अपने चाचा, अपने समय में दिल्ली के धुआंधार नेता ललित माकन की राजनैतिक विरासत है, जिन्हें जुलाई 1985 में खालिस्तानी आतंकवादियों ने सपत्नीक गोलियों की बौछारों से उड़ा दिया था। दिल्ली हो या केन्द्र, अजय माकन की शख्सियत में कई सितारे टंके हैं। सन् 93 के दिल्ली विधान-सभा के चुनाव में घोर कांग्रेस विरोधी आंधी थी और 70 में से केवल 14 सीटें कांग्रेस के पाले में गई, तब अपेक्षाकृत नए प्रत्याशी अजय माकन न केवल चुनाव जीते वरन उन्हें वोटों की बहुत अच्छी प्रतिशत संख्या मिली। जब वे दिल्ली विधान सभा के अध्यक्ष बने तब देश की किसी भी विधान सभा के सब से युवा अध्यक्ष थे वे। तालियों की गड़गडाहट के बीच वे गर्व से कहते हैं कि दिल्ली के विद्युत् मंत्री के रूप में उन्होंने दिल्ली में विद्युत् का निजीकरण किया। केन्द्र में राज्य मंत्री के रूप में वे आज़ादी के बाद कांग्रेस के तब तक के सब से युवा मंत्री बने। अपने भाषण में उन्होंने गर्व से कहा कि उनकी जीत की बढ़त हमेशा बढ़ती ही रही। पहले 4000, फिर 20000 फिर 24000। अपने प्रतिद्वंद्वी विजय गोयल पर चुटकी लेते हुए वे कहते हैं कि गोयल हमेशा अपना निर्वाचन क्षेत्र बदलते रहे हैं। पहले सदर, फिर चांदनी चौक और अब नई दिल्ली। श्रोताओं के बीच कहकहों की एक लहर सी पैदा करते वे कहते हैं कि अब जब वे यहाँ भाषण कर के वोट मांगने आएं तो आप लोग उन से यह ज़रूर पूछियेगा कि अगला चुनाव आप कहाँ से लड़ेंगे। अजय माकन डॉ मनमोहन सिंह की छवि को भी खूब निपुणता से भुनवाते नज़र आते हैं। वे मतदाताओं को याद दिलाते हैं कि जब नरसिम्हा राव प्रधान-मंत्री थे और देश में केवल तीन दिन और की विदेशी पूंजी बची थी, तब उन्होंने रिज़र्व बैंक के ही गवर्नर डॉ मनमोहन सिंह को वित्त-मंत्री बनाया जिन्होंने आते ही चमत्कार सा कर के देश को उस विपत्ति भरी स्थिति से उबारा। वे गर्व से कहते हैं कि भारत तो क्या, पूरी दुनिया के प्रधान-मंत्रियों व राष्ट्रपतियों की तुलना में सब से अधिक साफ़ सुथरी छवि डॉ मनमोहन सिंह की है, जिन पर कभी कोई आरोप नहीं लगा। हालांकि गोयल ने यहाँ से टिकट लेने के लिए एड़ी चोटी के ज़ोर लगा दिया था, पर यहाँ माकन से यह सीट छीनना उनके लिए टेढी खीर होगी क्योंकि इस निर्वाचन क्षेत्र में अजय माकन के पाँव मजबूती से गड़े हुए हैं।

Friday, April 03, 2009

जनता ने भर दी है हामी, एम एल ए होंगे गोस्वामी

जब मस्ती के दिन थे...
सन् 1969 की बात है. तब उत्तर प्रदेश में अचानक मध्यावधि चुनाव घोषित हो गए थे. एक तो हमारी पढ़ाई में खलल, ऊपर से बाज़ार जाओ तो कानों में बेइंतहा चुनावी शोर. मैं उन दिनों चूड़ियों के शहर फ़िरोज़ाबाद में एम.एस.सी (गणित) पढ़ रहा था.

वैसे शोर के बावजूद बाज़ार में घूमना रोचक भी लगता था. सदर बाज़ार तो था भी बहुत लंबा. कम से कम दो किलो मीटर तो होगा ही. संकरी और लगभग पथरीली सी सड़क, जिस पर आम दिनों में जाओ तो लोगों का एक अंतहीन रेला सा नदी की तरह बह रहा होता. उस पर रिक्शों का सैलाब. चूड़ियों वाले तो हर दस कदम पर. फ़िरोज़ाबाद में छोटे बड़े कई कारखाने थे.. चूड़ियों के जब बाज़ार जाते थे तो कांग्रेस का गीत ज़ोर ज़ोर से बज रहा होता-

भूल न जाना भारत वालो किसी की होड़ा-होड़ी में
देख भाल कर मोहर लगाना दो बैलों की जोड़ी में

यानी दो बैलों की जोड़ी तो कांग्रेस का चुनाव-चिह्न था. बाद के वर्षों में जब बाबू जगजीवन राम कांग्रेस से अलग हो गए, तो दो बैलों की जोड़ी का चुनाव चिन्ह ख़ुद हड़पना चाहते थे. ऐसे में दिल्ली के करोल बाग़ में अटल जी (वाजपेयी) ने अपनी एक सिंह गर्जना में कहकहों का तूफ़ान सा बर्पा करते कहा था- 'अरे दो बैल हैं. चुनाव चिह्न पर लड़ते क्यों हो. एक बैल इंदिरा जी ले लें, एक जगजीवन राम बाबू!'

चुनाव के वो दिन सचमुच बहुत रोचक होते थे. आज की तरह दूरदर्शन नहीं था, इस लिए सब नेता करीब से दर्शन देने नज़दीक नज़दीक आते थे. यानी मोहल्लों या बाज़ारों में जन-सभाएं होती थी. बाज़ार से गुज़रो तो दुकानों के काउंटरों पर मुक्के पड़ रहे होते, क्यों कि गर्मजोशी से बहुत लोग आपा खो कर बहस कर रहे होते थे - 'जनसंघ ख्वामख्वाह टांग अड़ाता है'.

दूसरा चीख पड़ता- 'यहाँ निर्दलीय का निर्वाचन क्षेत्र है. पर कांग्रेस-जनसंघ मिल कर चलें तो निर्दलीय जो बिकाऊ होते है, सब की मिट्टी पलीत हो जाए'

-'ये तो बेवकूफों वाली बात हो गई. कांग्रेस-जनसंघ कब मिले थे कब मिलेंगे भला? इस जनम में तो नहीं'.
भारतीय जनता पार्टी का पहला अवतार भारतीय जनसंघ होता था, जो डॉ श्यामाप्रसाद मुख़र्जी ने बनाया था. जगह जगह डॉ श्यामा प्रसाद मुख़र्जी के पोस्टर लगे होते. साथ में चुनाव चिह्न छापा होता. दीपक. पर सचमुच, फ़िरोज़ाबाद तो निर्दलीय का निर्वाचन क्षेत्र था. चूड़ियों के तीन कारखाने चलाने वाले एक राजाराम चुनाव लड़ते थे, जिन का चुनाव चिन्ह था शेर. राजाराम को अपने कारखानों के मज़दूरों व मज़दूर-परिवारों का ज़बरदस्त समर्थन हासिल रहता था.

अक्सर रात 11 बजे तक पढ़ते पढ़ते बाज़ार घूमने निकल जाओ तो कभी पता चलता था वहां, अन्नपूर्णा होटल के नीचे अटल जी आ रहे हैं. तेज़ तेज़ दौड़ कर उत्तेजना में लोग वहां पहुँचते थे. वाजपेयी का भाषण 'मिस' कर गए तो बाकी ज़िन्दगी में बचा क्या. जा के जहर खाएं और क्या. वाजपेयी उस संकरी सी सड़क की जन-सभा में अक्सर मुस्करा कर लोगों से बतिया से रहे होते. कहते - 'भई, चन्द्रभानु गुप्त कहते हैं कि मेरी 295 सीटें आएंगी विधान-सभा में! अगर शेखियां ही बघारनी हैं तो चन्द्रभानु जी कहो कम से कम चार सौ सीटें आएंगी मेरी! यह क्या कि जैसे 'बाटा' के जूते के भीतर कीमत छपी होती है - चौंतीस रूपए पच्चानवे पैसे'!

लोगों का हँस हँस कर बुरा हाल होता.

सिनेमा के बहाने चुनाव प्रचार...

पर यह लेख तो मैं एक अन्य, निर्दलीय प्रत्याशी पर लिखने जा रहा था. वैसे कुछेक अपवादों को छोड़ कर देखा जाए, तो एक बार जनसंघ नेता बलराज मधोक ने दिल्ली की एक जनसभा में जो कहा था, वह अक्षरशः सत्य है. निर्दलीय तो होते ही नीलामी की चीज़ हैं. फ़िरोज़ाबाद में भी जब पढ़ पढ़ कर थक जाओ तो जा कर कुछ मित्र लोग सिनेमा-हॉल में बैठते थे. कोई कोई रिक्शे वाला मज़ाक करता था - 'बाबूजी विजय टाकीज़ में आग लग गई'!

-'हैं! मैं चीख पड़ता, विजय टाकीज़ में आग लग गई? कब? कब'?

रिक्शे वाला हंस पड़ता. उसके पीले दांतों वाली बतीसी को मैं पीछे, रिक्शे की सीट पर बैठे बैठे ही महसूस कर लेता. वह रिक्शा खींचता खींचता खींईं खींईं कर के हँसता और कहता- 'बाबूजी 'आग' तो फ़िल्म का नाम है. फिरोज़ खान की. विजय टाकीज़ में 'आग' फ़िल्म लग गई'!

मुझे लगता कि अब वह ऐसे खींईं खींईं करेगा कि मुंह से झाग निकलने लगेगी.

सिनेमा शुरू होने से पहले चुनावी स्लाइड्स देखो जी!

कोई हाथ जोड़ कर बगुला -भक्ति करता वोट मांग रहा है, कोई गरजने वाले पोज़ में खड़ा भाषण झाड़ रहा है, जैसे फ़िल्म का मज़ा किरकिरा करने आया है. एक प्रत्याशी ने तो गज़ब कर दिया. पहले हफ्ते स्लाइड आई, हाथ जोड़ कर कह रहा है - 'मैंने जनसंघ के पक्ष में नाम वापस ले लिया है. कृपया मुझे वोट न दे कर जनसंघ को दें'. कुछ दिन बाद उसी प्रत्याशी का एक और स्लाइड. हाथ जोड़ कर बगुला-भक्ति - 'मैंने नाम वापस लेने का निर्णय वापस ले लिया है. कृपया मुझे ही वोट दें'. फ़िर कुछ दिन बाद वही बगुला भगत सामने- 'मैंने कांग्रेस के पक्ष में अपना नाम वापस ले लिया है. कृपया मेरे मतदाता कांग्रेस को वोट दें'!

पता चला कि उस का तो मकान गिरवी रखा हुआ था. ऐसे बार बार कलाबाज़ियां करते करते गिरवी मकान छूट गया! वाह भई वाह! जय हो...

अथ श्री गोस्वामी कथा....

एक श्रीमान गोस्वामी पर यह संस्मरण लिखने चला था. जाने कितनी बातें और लिख गया. पर अब बस केवल गोस्वामी जी की बातें. पूरे फ़िरोज़ाबाद में तहलका मचा रखा था. जितनी हँसी उन के बारे में सोच कर आती, किसी भी प्रत्याशी के बारे में सोच कर न आती. उन का चुनाव चिह्न था साइकिल. खासे मोटे थे. चुनाव जीत गए तो विधान सभा में अच्छा खासा नमूना भी बन जाएंगे. कोई कहता- 'ये चुनाव जीत गया तो सब इसे कांग्रेसी ही समझेंगे, क्यों कि कांग्रेसी बहुत खाते पीते हैं न'! कोई कहता 'क्या बात करते हो भई? क्या जनसंघियों के खाने के दांत नहीं हैं? या उनकी पत्तल में कोई कुछ डालता नहीं. वो तो और भूखे हैं. पॉवर नहीं है न'!

- 'सब के सब एक ही थैली के हैं स्साले...'

बहरहाल. गोस्वामी जी कहीं भी चुनाव प्रचार करने नहीं जाते थे. जिस अन्नपूर्णा होटल का ज़िक्र ऊपर आया है, उस के साथ वाली तीन-मंज़िला इमारत में सब से ऊपर वाली मंज़िल गोस्वामी जी का घर. उस के ऊपर घर की छत. वहां एक बड़े से तख्त पर गोस्वामी जी ने खूबसूरत सा एक मंच बना रखा था. रंगीन डिज़ाइन-दार चद्दरों से ढका हुआ. मंच पर हर समय गोस्वामी जी हाथ में माइक लिए पल्थी मार कर विराजमान रहते. उन के पीछे एक और ऊंचे तख्त पर उन की सुंदर सी साइकिल रखी रहती, जो चुनाव में नामांकन भरते ही शायाद नई नई ख़रीदी गई थी. साइकिल बड़ी शानदार सी लगती. साइकिल के पीछे रंगीन कपड़े का एक विशाल सा बैनर होता, जिस पर लिखा होता-

जनता ने भर दी है हामी, एम एल ए होंगे गोस्वामी
जनता ने भर दी है हामी, एम एल ए होंगे गोस्वामी!

और केवल लिखे रहने से क्या होता है! गोस्वामी जी के हाथ में माइक जो है. सुबह सात बजे से रात ग्यारह बजे तक वे एक ही राग आलापते-

जनता ने भर दी है हामी, एम एल ए होंगे गोस्वामी!
जनता ने भर दी है हामी, एम एल ए होंगे गोस्वामी!

अब आप कल्पना करें ज़रा. सुबह नौ बजे के बाद ही सदर बाज़ार की पतली सी सड़क की हालत कुछ और पतली होनी शुरू हो जाती. सड़क पर लोगों का, रिक्शों का और रिक्शों में घूमते पोस्टरों का एक सैलाब सा. उस पर कई आवाज़ें एक साथ आती हैं:

जीतेगा भाई जीतेगा
दीपक वाला जीतेगा!

दीपक के बिल्ले भी बच्चे -बच्चे की कमीज़ पर होते, और दो बैलों की जोड़ी के भी. कांग्रेस का चलता फिरता ग्रामोफोन ज़ोर ज़ोर से बज रहा होता-

भूल न जाना भारत वालो किसी की होड़ा-होड़ी में
देख भाल कर मोहर लगाना दो बैलों की जोड़ी में
कांग्रेस ही पार करेगी इस भारत की नैया को
भूल न जाना भूल के देश की नैया के खेवैया को


इतने में एक लंबे से टेंपो को चारों तरफ़ से ढकते चार खूंखार शेर पहियों पर धीरे धीरे आगे बढ़ रहे होते. ये राजाराम चूड़ियों वाले के होते. शेरों के जबड़े इतने खूंखार तरीके से खुले होते, जैसे ये जनसंघ-कांग्रेस, दोनों को निगल जाएंगे. यह सारा सैलाब मानो इन शेरों को ही समर्पित है...

और इस सब के बीच लोगों के कानों में रस घोलता सा एक चुनावी भजन-

जनता ने भर दी है हामी, एम एल ए होंगे गोस्वामी!
लोग गर्दन में दर्द के बावजूद मुस्कराते और ऊपर देखते, क्यों कि केवल भजन की आवाज़ से ही पूरा मज़ा कहाँ आता है भला. गोस्वामी जी देखो तो, कितनी लय में आगे पीछे झूमते भी रहते हैं. जैसे विधान-सभा की बैकुंठ में पहुँच ही गए हों... जैसे ठुमरी में भाव बदल-बदल कर एक ही पंक्ति गई जाती है, 'पिया तोरी मुरली की धुन्न लागे प्यारी', 'पिया तोरी मुरली की धुन्न लागे प्यारी' कभी उलाहना तो कभी चुनौती. गोस्वामी जी भी सुर बदल बदल कर गाते-

जनता ने भर दी है हामी एम एल ए होंगे गोस्वामी...



कभी कभी तो कई लोग रुक कर खूब हँसते. जितने मोटे गोस्वामी जी, उतनी ही, उनसे मुकाबला सा करती उन की घरवाली. हालांकि जब वह छत पर प्रकट होती, तो हाथ में चाय का कप या पानी का गिलास लिए होती. पति की तरफ़ बढ़ते बढ़ते उसे भी ज़ोरों की हँसी आ रही होती. वह पति से माइक ले कर मोटी लेकिन बेहतर आवाज़ में गाती-

जनता ने भर दी है हामी एम एल ए होंगे गोस्वामी...
जनता ने भर दी है हामी एम एल ए होंगे गोस्वामी...


इस बीच गोस्वामी जी या तो चाय पी लेते या पानी-वानी. या थोड़े से अदृश्य हो कर खाना खा लेते. कभी उन की, कॉलेज में पढ़ने वाली, सांवली और अच्छे हाव-भाव वाली, आकर्षक, लम्बी सी बिटिया भी आ जाती. उसे तो और अधिक हँसी आती रहती, जिसे देख गोस्वामी भी मुस्करा देते. बेटी खड़े खड़े ही माइक ले कर सुरीली आवाज़ में गुनगुनाती सी, जैसे केवल साथ दे रही हो-

जनता ने...
चुनाव से दो दिन पहले ही शाम साढ़े चार बजे प्रचार बंद. सारा शोर-गुल थम गया. केवल दुकानों पर चिल्लाते लोग. और काउंटरों पर पड़ते मुक्के. या तेज़ तेज़ बहस कर के जाते लोग. गालियाँ भी उछलती. संवेदनाएं भी उमड़ती. शर्तें भी लगती. किसी किसी का रक्त-चाप भी 'हाई' हो जाता. और बस, इंतज़ार की घड़ी ख़त्म. चुनाव की सुबह आ गई. लोग सुबह से ही तैयार हो कर जाने लगे हैं. पार्टियों के कार्यकर्ताओं की साइकिलें दौड़ रही हैं. कैसे भी, दोपहर से पहले ही काफ़ी ऊंची-प्रतिशत में मतदाता मतदान केन्द्र पर पहुँच जाने चाहियें. बस, अधिक से अधिक मोहरें हमारी पार्टी के नाम लगें... नहीं तो... राजा राम का श्श्शेर ही गरजता रहेगा इस शहर में स्साला...

इस बीच गोस्वामी जी के क्या हाल हैं? क्या वे घर में आराम कर रहे हैं? अजी नहीं. जनता इतनी बड़ी हामी भर दे, और गोस्वामी जी आज के दिन भी घर बैठे रहें! गोस्वामी जी तो अपने उसी आसन पर विराजमान हैं. गोल-गोल से तकिये पर पीठ टिकाए. आज हाथ में माइक नहीं है, क्यों कि आज तो अनुमति ही नहीं है न!...

पर गोस्वामी जी अब लोगों के सैलाब को बढ़ते देख यह आभास देने लगे हैं कि सारी जनता उन से आशीर्वाद ले कर जा रही है. सो वे अच्छी तरह पल्थी मार कर हाथ जोड़ कर बैठ जाते हैं. जब उन्हें लगता है कि कुछ लोग ऊपर देख मुस्करा रहे हैं, तो वे मुस्करा कर दाहिनी हथेली से उन्हें आगे बढ़ने का इशारा कर देते हैं, जैसे सैलाब की लहर को आगे उलीच रहे हों. जब वे अदृश्य होते हैं तो उनके स्थान पर विराजमान है उन की घर वाली! बेटी आस-पास ही खड़ी-खड़ी नीचे की रौनक देख रही है, और मुस्कराती ऐसे है, जैसे न जाने किस हसरत से सब को जाता देख मुस्करा रही है. जैसे वह ख़ुद, उन का हिस्सा बन कर कहीं जाना चाहती है. लोग यहाँ से गुज़रते हुए खींईं खींईं करते अपने आगे बढ़ कर जाते हुए साथियों को रोक कर कहते जा हैं-

जनता ने भर दी है हामी!

और अब क्लाईमैक्स...

शाम चार बजे ही गोस्वामी जी ख़ुद हरकत में आ जाते हैं. उन की जो साइकिल उन के पीछे रखी रही इतने दिन, वह उतर जाती है. देखते देखते वह साइकिल तिमंज़िले मकान की छत से उतर कर नीचे सड़क पर आ जाती है. वोट देने को बाकी आधा घंटा लगभग बचा है. गोस्वामी जी तड़कती-भड़कती धोती व कमीज़ पहने, जिस पर सोने के बटन चमकते हुए दूर से नज़र आ रहे हैं, नीचे अपनी साइकिल पर सवार नज़र आ रहे हैं. एक पत्रकार ने क्डिच कर के उन की एक तस्वीर ले ली. बहुत प्रसन्न हुए गोस्वामी जी. साथ में खड़ा है एक रिक्शा जिस का चालक अपेक्षाकृत कुछ कम तड़कते -भड़कते कमीज़-पाजामे में है. रिक्शे में विराजमान हैं उन की पत्नी और बेटी. अब ये तीनों ख़ुद वोट देने जाएंगे.

रास्ते में भीड़ है. संकरी सड़क पर कुछ ट्रैफिक जाम सा है. रिक्शा धीरे धीरे ही बढ़ पा रहा है. 'Polling Station' आ गया है. पर लगता है, देर हो गई है. वो देखो...

-'अरे ए! रुको न!' गोस्वामी जी की घरवाली चिल्लाती है.

'Polling Station' का फाटक बंद किया जा रहा है. गोस्वामी जी जैसे Olympian की तरह तेज़ी से साइकिल बढ़ा कर बंद होते फाटक में घुस जाते हैं. पत्नी और बेटी वाला रिक्शा भी आधे बंद हो चुके फाटक में घुसते घुसते लड़खड़ा सा जाता है. पत्नी फ़िर चिल्लाई- 'क्या कर रहे हो? रुको...

पर शुक्र, तीनों अन्दर पहुँच गए. और लो, तीनों वोट देने वाले कमरे में से हाज़िर हैं अब. मतदान अधिकारी नाम पूछ कर अपनी अंगुली मतदाता सूची पर दौड़ाते हैं, और सहसा चौंक से जाते हैं.

- 'गोस्वामी जी...आप ही हैं'?

- 'हाँ हाँ, मैंने अभी कहा न, मैं भी प्रत्याशी हूँ और यहाँ मेरा वोट भी है'!

- 'ये...ये...कैसे हो गया'?


- 'क्या कैसे हो गया? क्या कहना चाहते हो तुम'?...

- 'आप के नाम का वोट तो पहले ही दिया जा चुका है'!

- 'क्या बात करते हो. तुम लोग यहाँ बैठे बैठे करते क्या हो? मैं अभी 'चीफ मिनिस्टर' को फ़ोन करता हूँ. यहाँ एक इतने बड़े 'कैंडीडेट' का वोट ही कोई और दे गया! और आप लोग चुपचाप देखते रहे? आप को पता ही नहीं चला'!

- 'हम कोई यहाँ के लोगों को जानते थोड़ेई हैं'! मतदान अधिकारी लाचार.

- 'जानते नहीं हैं! लेकिन यहाँ पार्टियों के इतने लोग बैठे हैं'?


गोस्वामी जी को लगा कि ज़रूर, यह इन पार्टियों के कार्यकर्ताओं की ही शरारत होगी.

अधिकारी बोला - 'आप भी बिठाते किसी को'!

पर मूड ख़राब हो चुका था. गोस्वामी जी की घरवाली क्या करने लगी कि मतदान अधिकारी को अपना नाम बोल कर धमाके से कहने लगी- 'मेरा ढूँढिये. अंगुली पर निशान कहाँ पर लगाओगे'?
अधिकारी ने गोस्वामी जी की घरवाली और बिटिया के नाम ढूंढ लिए. मूड ख़राब सही, गोस्वामी जी चले आए. माँ-बेटी ने बारी-बारी कोने में जा कर छुप कर वोट दे दिए और मत-पेटी में डाल दिए. जब तीनों फाटक से बहार निकले तो कोई शरारती सा वर्कर पीछे से गुनगुनाने लगा- 'जनता ने भर दी है...' गोस्वामी जी की बिटिया ने पीछे पलट कर देखा. न जाने क्या सोच कर कभी गंभीरता से अपनी मुस्कराहट ढक देती, कभी मुस्कराहट से गंभीरता ढक देती. जैसे समझ न आ रहा हो, उसे अब कैसे भाव चेहरे पर लाने चाहियें. लड़का लपक कर कहीं दुबक गया.

अब तीसरा दिन है. मतगणना ज़ोर शोर से हो रही है. राजाराम शेर वाला जीत गया भईई... अरे अभी नतीजा कहाँ आया है यार, अफवाह तो न फैलाओ... वोही जीतेगा और किस में दम है भईई, राजाराम से पंगा ले ले...

शाम तक रिक्शों से कार्यकर्त्ता लौटने लगे. राजाराम का जीतना तो चुनाव से पहले ही निश्चित था. मतगणना कभी भी ख़त्म हो. रात एक बजे, या उस से भी बाद. पर जीतेगा राजाराम शेर वाला ही. राजाराम चूड़ियों वाला. सब को चूड़ियाँ पहना दी उसने. परिणाम तो अगली सुबह आया, पर रात भर राजाराम के कार्यकर्ता देसी ठर्रे पी पी कर गलियों में या इधर उधर लुढ़के रहे...

...पार्टियों के कार्यकर्त्ता एक दूसरे को दोष देने लगे. 'तुम्हारी पार्टी ने टांग अड़ाई'. 'तुम्हारी पार्टी ने अड़ाई'...

पर अगली शाम शहर में एक अफवाह कैसी फ़ैली है! सच ही होगी न! कहते हैं, गोस्वामी जी के घर में झगड़ा मचा हुआ है. अखबार में किस को कितने वोट पड़े, सब आया है. 'अमर उजाला' में तो पूरे आंकड़े आए हैं. फिरोज़ाबाद के भी...राजाराम इतने लाख इतने हज़ार. जनसंघ इतने हज़ार. कांग्रेस इतने हज़ार... 'और... और वो गोस्वामी? गोस्वामी का भी तो बताओ'...

-'अरे यार वही तो झगड़ा पड़ा है उस के घर में'.


-'भई बताओ न, उसे कितने वोट पड़े! बेचारे ने भजन कर कर के गला बिठा दिया अपना!

-'गला-वाला ना बिठाया. जलेबी खाता रहा वो तो. इलेक्शन लड़ के अपनी ठरक पूरी कर रहा था. मोटा उतना ही रहा. जनसंघी देख कितने पतले हो गए. चिल्ला चिल्ला कर पागल हो गए. पर जित्ते फ़िर भी ना...हा हा'...

-'और कांग्रेसी स्साले'!

- 'कांग्रेसी तो इतना खावें इतना खावें कि आख्खा देश पतला हो जावे, कांग्रेसी ना होवें'!

- 'ही ही... पर प्यारे, गोस्वामी को कितने वोट पड़े'?

- 'जानते हो कितने'?

- 'पच्चीस? तीस'?
- 'अरे नहीं भईई, गोस्वामी को पड़ा सिर्फ़ एक वोट'!

- 'एक वोट! पर वोट तो उस की बीबी और बेटी दोनों ने दिया था! गोस्वामी का अपना वोट तो जनसंघी खा गए थे न'?


-'जनसंघी खा गए तुझे कैसे पता स्साले'?


- 'वो तो बताया ना, ज़्यादा भूखे हैं. पॉवर में जो नहीं हैं'!

- 'पर गोस्वामी के नाम सारे फ़िरोज़ाबाद में सिर्फ़ एक वोट पड़ा! गज़ब हो गया यार'!


- 'यही तो झगड़ा है. तुम लोग समझ नहीं पा रहे हो. गोस्वामी ने घर में झगड़ा खड़ा कर रखा है कि या तो मेरी बीबी या फ़िर बेटी, दोनो में से एक ने मेरे साथ गद्दारी की है. बेटी ज़िद पर कि 'बाप्पू मैन्ने तो आप को ही वोट दिया'. और बीबी भी बोल्ये 'मुन्नी के बापू मैंने साइकिल पर ही मोहर लगाई थी'...
अजीब सस्पेंस में फंस गया था सारा शहर...

लेखक- प्रेमचंद सहजवाला

Thursday, March 19, 2009

फिर भी कुंवारे रह गये अटलजी...

लोकसभा चुनाव : यादों के झरोखे से

चुनाव की प्रतीक्षा शायद लोकतान्त्रिक देश के हर नागरिक को बेसब्री से रहती है. पर मुझे यहाँ कुछ बेहद दिलचस्प और सच्ची सच्ची बातें याद आ रही हैं, जो मुझे भूलती ही नहीं हैं. सच्ची!
सन 80 के चुनावों की बात है. चौधरी चरण सिंह की सरकार गिरने के बाद मध्यावधि चुनाव हो रहे थे. हर आदमी की तरह मुझे भी बेसब्री से इंतज़ार था, यह जानने का कि अब की सरकार किस की बनेगी आख़िर. मैं एक दिन दिल्ली की सड़कें नाप रहा था, यह देखने के लिए की चुनाव की तैयारियों की सरगर्मी कहाँ तक पहुँची. एक जगह मैं एक दीवार की तरफ़ बढ़ रहा था, जहाँ पहले जब भी आता था, तो एक Matrimonial कंपनी का विज्ञापन मोटे मोटे व काले अक्षरों में छपा होता था “योग्य जीवन साथी के लिए, संपर्क करें डी सी अरोड़ा Matrimonials, 28 रेगड़पुरा दिल्ली”.
पर समय के साथ उस के अक्षर काफ़ी फीके भी पड़ चुके थे. उस पर हुआ यह कि उसको मिटाने की कोशिश कर के उस पर भारतीय जनता पार्टी ने अपना चुनावी विज्ञापन मोटे काले अक्षरों में छाप दिया था. पर पुराना विज्ञापन पूरी तरह मिटा कहाँ था! और उस पर चुनाव का विज्ञापन! मैं दीवार के नज़दीक पहुँचते पहुँचते उस पर लिखे को पढने की निरंतर कोशिश करता जा रहा था. ऊपर तो यही लिखा था, योग्य जीवन साथी के लिए...
पर दीवार के एकदम सामने पहुँचा तो हैरान था. पुराना नया विज्ञापन मिल कर कुछ इस तरह पढ़े जा रहे थे:
योग्य जीवन साथी के लिए
नई दिल्ली से
अटल बिहारी वाजपेयी
को चुनें!

बहराहाल, मुझे फ़िर सन 77 के चुनावों की भी एक बात याद आ गई. सन 77 में क्या हुआ था कि इंदिरा गाँधी के विरुद्ध देश में आक्रोश की लहर फ़ैल गई थी, क्यों कि पिछले 19 महीने से देश की सभी प्रमुख विरोधी पार्टियों के नेताओं को इंदिरा सरकार ने गिरफ्तार कर रखा था. सन 75 में देश में आपातकाल की घोषणा होते ही सब विरोधी नेता गिरफ्तार हो गए थे. पर ज्यों ही चुनाव घोषित हुए, और नेताओं को जेलों से निकाला गया तो सभी पार्टियों ने मिल कर एक नई पार्टी बनाई 'जनता पार्टी'. चुनाव में इस पार्टी की तूफानी लहर थी. मैं तब सोनीपत में तैनात था. हर दूसरे तीसरे दिन दिल्ली भाग आता था. चुनावी तैयारियों की रौनक देखने के लिए. एक दिन मैं ट्रेन से सब्ज़ी मंडी स्टेशन उतर कर राजेन्द्र नगर अपने घर जाने के लिए एक मिनी बस में बैठ गया. बस खचाखच भरी थी पर सौभाग्य से सब से पिछली, छह मुसाफिरों वाली सीट से ज्यों ही एक मुसाफिर उठा, मैंने लपक कर उस सीट पर कब्ज़ा कर लिया. काफ़ी सिकुड़ कर बैठना पड़ा. दम घुट सा रहा था. पर राहत पाने को ज्यों ही थोड़ी सी हवा मिली तो मैं अच्छी तरह बैठ कर पास बैठे एक सरदार लड़के जो किशोरावस्था में था, से चुनाव की बातें करने लगा. मैंने कहा - 'कहो भाई, यहाँ दिल्ली में किस का ज़ोर है? लड़का उत्तेजना में शुरू हो गया - 'सत्तों दी सत्तों जनता पार्टी!'

मैं बोला कैसे?
वह उसी उत्तेजना में बोलता गया - 'समझ लो नई दिल्ली से वाजपेयी जित्ते-जिताए! चांदनी चौक से सिकंदर बख्त को कोई हराने वाला पैदा नहीं हुआ. जी, करोल बाग़ की सीट भी अपनी ही समझो. साउथ दिल्ली बाहरी दिल्ली पूर्वी दिल्ली पश्चिमी दिल्ली! सब अपनी ही हैं जी!
मैंने अपनी अक्कलमंदी दिखने की कोशिश की. उसे रोकते हुए कहा - अरे भाई चुनाव है, अभी से क्या भरोसा!

मेरी बात पर उस किशोर का जैसे दिल टूट गया. मुझ से जबरन दूर सरकता और किसी और ही दिशा में देखता हुआ मायूस सा बोला - फ़िर तुसी पुछिया ही क्यों?
मैं सचमुच, चुनाव की लहर में अपनी अक्कलमंदी दिखाने की कोशिश का नतीजा देख रहा था. उस लड़के की मायूसी पर फ़िर वही प्रश्न था - फ़िर तुसी पुछिया ही क्यों...

अब चुनाव 2009 में कोई wave ही नहीं है….. खूब बोरियत होती है ना!

प्रेमचंद सहजवाला