लोक सभा के चुनाव परिणामों से सिर्फ एक राहत महसूस की जा सकती है और वह यह है कि केंद्र में अस्थिरता का डर नहीं रहा। लेकिन यह राहत भी सिर्फ उनके लिए हैं जो किसी भी कीमत पर स्थिरता को तरजीह देते हैं। सरकार या शासन की स्थिरता अपने आपमें कोई काम्य चीज नहीं है। स्थिरता तब अच्छी होती है जब वह देश को बेहतर ढंग से चलाने का माध्यम बने। अगर बकवास नीतियों और बकवास नेतृत्व के बावजूद स्थिरता बनी रहती है, जैसा नरसिंह राव के जमाने में था, तो वह देश के लिए नुकसानदेह और कभी-कभी खतरनाक भी होती है। मनमोहन सिंह सरकार की उपलब्धियां ऐसी नहीं रही हैं कि उन्हें एक महान प्रधानमंत्री माना जा सके। इसी तरह, सोनिया गांधी दूसरे नेताओं की तुलना में ज्यादा प्रभावशाली साबित हुई हैं, पर यह कहना अतिशयोक्ति होगी कि उनके नेतृत्व में हम एक महान भारत का सृजन करने जा रहे हैं। न ही कांग्रेस के बारे में यह दावा किया जा सकता है कि उसका कायाकल्प हो चुका है और अब वह राष्ट्र निर्माण की ऐसिहासिक भूमिका का निर्वाह करने जा रही है।
ये सब ऐसी खामखयालियां हैं जो कांग्रेस को इतनी अधिक सीटें मिलने से पैदा हुई हैं। वैसे, इन सीटों की संख्या इतनी भी नहीं है कि बहुमत के लिए उसे अन्य दलों का सहारा न लेना पड़े। इसलिए सीटों की संख्या पर इतराने का कोई वास्तविक कारण दिखाई नहीं देता। राजीव गांधी को 1984 में तीन-चौथाई बहुमत मिला था। लेकिन उनके शासन की कौन-सी उपलब्धियां आज याद आती हैं? बोफोर्स का दाग अभी तक नहीं मिट पाया है। इसी तरह, नरसिंहराव को बहुमत तो नहीं मिल पाया था, पर धीरे-धीरे तोड़-फोड़ की अपनी कुशलता के कारण उन्होंने कांग्रेस पार्टी के लिए बहुमत का प्रबंध कर लिया था। लेकिन अंत में हुआ क्या? आज उन्हें देश के सबसे निस्तेज प्रधानमंत्री के रूप में याद किया जाता है। बाबरी मस्जिद कांड उन्हीं के समय में घटित हुआ था।
फिर कांग्रेस की इस अप्रत्याशित जीत की व्याख्या कैसे की जाए? इस व्याख्या पर ही निर्भर है कि हम वर्तमान राजनीति से क्या उम्मीद करते हैं। अगर कोई यह कहता है कि अब क्षेत्रीय दलों की उपयोगिता समाप्त हो चुकी है तथा यह उनके पराभव का समय है, तो यह मिथक है। बीजू जनता दल, तृणमूल कांग्रेस, द्रमुक, बिहार का जनता दल (यूनाइटेड), उत्तर प्रदेश का समाजवादी दल, बहुजन समाज पार्टी आदि क्षेत्रीय दल नहीं तो और क्या हैं? यह जरूर है कि जिन क्षेत्रीय दलों की उपयोगिता बची हुई है, वे दल ही बचे हैं; जिन्होंने अपनी उपयोगिता का खुद ही भक्षण कर डाला है, वे ढलाव के शिकार हुए हैं। लेकिन यह तो राष्ट्रीय दलों के साथ भी होता रहा है। कांग्रेस और भाजपा, दोनों कई-कई बार नीचे जा चुकी हैं और फिर उभरी हैं। इसी तरह, क्षेत्रीय दल भी नीचे-ऊपर आते-जाते रहे हैं। इस राजनीतिक चक्र को भूल कर किसी एक चुनाव के आधार पर कोई बड़ा निष्कर्ष निकालने की जल्दबाजी राजनीतिक विश्लेषण के बचकानेपन के अलावा कुछ नहीं है।
सवाल यह भी है : अगर राष्ट्रीय दलों का जमाना सचमुच लौट आया है, तो यह सिर्फ कांग्रेस के लिए ही क्यों लौटा? भाजपा को भी तो राष्ट्रीय दल माना जाता है। सच पूछिए तो दोनों में से कोई भी व्यापक और सच्चे अर्थों में राष्ट्रीय दल नहीं है। इसीलिए जिस अर्थ में कांग्रेस राष्ट्रीय दल है, उसी अर्थ में भाजपा भी राष्ट्रीय दल है। उसी अर्थ में बसपा भी राष्ट्रीय दल बनने की कोशिश कर रही है। राष्ट्रीय दलों की वापसी का समय आ गया है, तो इसका लाभ कांग्रेस के प्रतिद्वंद्वी दलों को भी मिलना चाहिए था, जो नहीं हुआ है। इसलिए यह स्थापना भी निराधार प्रतीत होता है।
फिर कांग्रेस की जीत को कैसे समझा जाए? इसका मुख्य कारण यह प्रतीत होता है कि कांग्रेस का कोई ऐसा विकल्प चुनाव मैदान में नहीं था जिसे कांग्रेस से बेहतर कहा जा सके। चुनाव की घोषणा के पहले ही लालकृष्ण आडवाणी ने अपने को भावी प्रधानमंत्री घोषित कर दिया था। इस नाते भाजपा ही मुख्य प्रतिद्वंद्वी थी। भाजपा अपने सांप्रदायिक चेहरे के साथ-साथ हर अर्थ में दक्षिणपंथी पार्टी है। कांग्रेस को मध्यमार्गी दल माना जाता है, पर उसकी आर्थिक नीतियां भी पूरी तरह से दक्षिणपंथी हैं। अमेरिका से नजदीकी कांग्रेस भी चाहती है और भाजपा भी। यह जरूर है कि कांग्रेस का एक इतिहास, भले ही वह मुखौटा ही हो, गरीबी हटाओ का भी है, जो भाजपा का नहीं है। भाजपा उद्योगपतियों और व्यापारियों की ही नहीं, सवर्ण जातियों की भी पार्टी मानी जाती है। दूसरी ओर, कांग्रेस भी उद्योगपतियों और व्यापारियों की पार्टी है, पर वह गरीबों का नाम भी लेती रहती है और उनके लिए समय-समय पर कुछ कार्यक्रम भी बनाती रहती है। राष्ट्रीय ग्रामीण राजगार गारंटी योजना उसी ने लागू की थी, जिसका कुछ इलाकों में अच्छा असर पड़ा है। इस दृष्टि से देखा जाए, तो मतदाताओं ने कांग्रेस को चुन कर कुछ भी गलत नहीं किया।
कांग्रेस को असली चुनौती तब मिलती जब उसके मुकाबले कोई सचमुच का वामपंथी दल या दल समूह खड़ा होता। वामपंथी दलों ने यही सोच कर तीसरा मोर्चा बनाया था। लेकिन क्या यह वास्तव में तीसरा मोर्चा था? सबसे बड़ी मुश्किल यह थी कि इसका नेतृत्व कर रहे सीपीएम और अन्य वामपंथी दल स्वयं केरल और प. बंगाल में अपनी वामपंथी साख लुटा चुके थे। गरीब किसानों का दमन करने के मामले में वे किसी भी अन्य दल के मुकाबले ज्यादा क्रूर साबित हुए हैं। केरल के सीपीएम में घमासान चल रहा था। तीसरा मोर्चा बनाने के लिए जिन दलों का साथ लिया गया, वे अपने-अपने राज्य में राजनीतिक रूप से दिवालिया हो चुके थे। गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा होने का ऑटोमेटिक मतलब प्रगतिशील या जनवादी नहीं होता। फिर इनमें से अनेक दल ऐसे भी हैं जो अतीत में भाजपा के साथ रह चुके हैं। इसलिए उनकी विश्वसनीयता भी खटाई में थी। सच पूछा जाए तो तीसरा मोर्चा इतना बोगस था कि उसे वोट देने के बारे में कोई गंभीरता से सोच ही नहीं सकता था। इस तरह, बिना कुछ ज्यादा किए-कराए सत्ता एक तरह से मुफ्त में कांग्रेस की झोली में आ गिरी।
यही कारण है कि कांग्रेस पार्टी की जीत स्वयं उसके लिए भी अविश्सनीय है। जब मीडिया के लोग अनुमान लगा रहे थे कि किसी भी दल समूह को बहुमत नहीं मिलेगा, तो वे हवा में कबड्डी नहीं खेल रहे थे। यही आकलन स्वयं राजनीतिक दलों का भी था। राहुल गांधी तो विपक्ष में बैठने के लिए भी तैयार थे। लालकृष्ण आडवाणी की आशाएं भी धीरे-धीरे धूमिल हो रही थीं, क्योंकि तमाम प्रयासों के बावजूद भाजपा की कोई लहर नहीं बन पा रही थीष्। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का खयाल आसमान से नहीं टपका था। इससे भी आडवाणी का भविष्य कुछ धूमिल हुआ।
बहरहाल, जो होना था, हो चुका। एक मान्यता है कि जो हुआ, वही हो सकता था। अगर कुछ और हो सकता था, तो वह हुआ क्यों नहीं? इसलिए कांग्रेस के जीतने को एक ऐसिहासिक घटना मान कर चलना ही उचित है। सवाल अब यह है कि आगे क्या? यह सवाल इसलिए महत्वपूर्ण है कि फिलहाल कांग्रेस का कोई प्रगतिशील विकल्प उभरता दिखाई नहीं देता। वामपंथियों में आत्मपरीक्षण के कोई लक्षण दिखाई नहीं पड़ते। कायदे से प्रकाश करात को सीपीएम की शोचनीय पराजय के बाद अपने पद से तुरंत इस्तीफा दे देना चाहिए था। पर इसकी हलकी-सी आहट भी सुनाई नहीं देती। प. बंगाल की हार तो इतनी जबरदस्त है कि वहां के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य को एक दिन के लिए भी अपने पद पर रहने का नैतिक हक नहीं है। इसी तरह, तीसरा मोर्चा में शामिल अन्य दलों में भी अंत:परीक्षण का कोई साक्ष्य दिखाई नहीं देता। यानी, भविष्य का परिदृश्य अत्यधिक धूमिल जान पड़ता है।
क्या यह चिंता की बात नहीं है कि इतने बड़े देश में कोई राजनीतिक विकल्प न हो जो जरूरत पड़ने पर वर्तमान सत्तारूढ़ दल का स्थान ग्रहण कर सके? कांग्रेस सफल होती है तो और नहीं सफल होती है तो भी, अच्छा लोकतंत्र वही होता है जिसमें वर्तमान का विकल्प हमेशा मौजूद रहे। इसे ही असली विपक्ष कहा जाता है। मौजूदा लोक सभा का सबसे दैन्यपूर्ण पक्ष यह दिखाई देता है कि इसमें कोई मजबूत विपक्ष नहीं है। यह सत्ता को निरंकुश बनाने के लिए काफी है। चूंकि वर्तमान राजनीति में कांग्रेस का कोई ठीक-ठाक विकल्प उभरता दिखाई नहीं देता, इसलिए कम से कम जनतंत्र के हित में आवश्यक है कि इसके लिए ठोस प्रयास किया जाए। ऐसा न हो कि पांच साल बाद फिर चुनाव की घड़ी आए और हम हाथ पर हाथ धरे पछताते रहें कि हाय, हमारे पास कोई सार्थक विकल्प नहीं हैं। विकल्प दो-चार महीनों में खड़ा नहीं होता। इसके लिए पांच वर्ष भी कम हैं। पर पांच वर्ष की अवधि इतनी छोटी भी नहीं है कि कुछ हो ही न सके। सवाल सिर्फ इतना है कि देश की तकदीर बदलने की कोई राजनीतिक इच्छा हमारे मनों में खदबदा रही है या नहीं।
राजकिशोर
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2 बैठकबाजों का कहना है :
बिल्कुल सही विश्लेषण है .. 5 वर्षों में विपक्ष को मजबूत बनना होगा .. नहीं तो विकल्प के अभाव में यही पुनरावृत्ति होती रहेगी।
Uplabdh vikalpon mein behtar vikalp ka chayan kiya hai janta ne.
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