Showing posts with label social values. Show all posts
Showing posts with label social values. Show all posts

Friday, May 22, 2009

शाम तक क्या बेचें....

हिंदुस्तान के बाक़ी इलाकों के बारे में नहीं जानता, मगर बिहार में बीबीसी आज भी सबसे ज़्यादा सुना जाना वाला रेडियो है.....हालांकि, प्राइवेट एफएम वहां भी दस्तक दे चुका है, मगर वहां का श्रोता अब भी रेडियो के फटाफट संस्करण से ज़्यादा रेडियो के समझदार संस्करण को तरजीह देता है.....ब्लॉगिंग पर बीबीसी भी सजग है और वहां अक्सर नज़र जाती है.....एक बढिया लेख वुसतुल्लाह ख़ान साहब का पढ़ा तो जी हुआ बैठक पर सबको पढ़ाया जाए....मीडिया के हाल के चरित्र और चेहरे पर ऐसी छींटाकशी कम ही पढ़ने को मिलती है.....
संपादक


जो फटीचर लतीफ़ा मैं आपको सुना रहा हूँ. ये लतीफ़ा पाकिस्तान में पठानों पर और भारत में सरदारों पर रखकर सुनाया जाता है.

एक सरदार जी/ख़ान साहब, तेज़ गर्मी में ठेले पर फ़ालसे बेच रहे थे. एक ग्राहक आया, पूछा भाई साहब फ़ालसे क्या हिसाब बेच रहे हो. ठेले वाले ने कहा 70 रुपये किलो. ग्राहक ने कहा सब तौल दो. रेहड़ी वाले ने कहा कि सब फ़ालसे तुम ले गए तो शाम तक क्या बेचूंगा!!!

अब आप पूछेंगे यह वर्षों पुराना लतीफ़ा सुनाने का क्या मतलब है??? मतलब यह है कि मुझ जैसे सैंकड़ों पत्रकारों और राजनीतिक टीकाकारों को सोलह मई के नतीजों की वजह से भारतीय जनता से मायूसी हुई है.

हम तो पिछले दो महीने से यह सोच कर अपने क़लम के भाले और ज़ुबानों की छुरियाँ तेज़ किए बैठे थे कि हिसाब-किताब, आँकड़े और सितारों की चाल बता रही है कि किसी भी पार्टी को चुनावों में बहुमत नहीं मिलेगा.

ऐसे में सरकार बनाने के लिए राजनेताओं में ख़ूब जूता चलेगा. धौंस और घूस से काम लिया जाएगा. तब कहीं जा कर 15-20 दिन बाद एक ऐसी सरकार की शकल उभरेगी जो शायद दो ढाई साल भी न निकाल पाए. फिर मध्यावधि चुनाव होंगे और फिर हम मीडिया वालों का धँधा चमकेगा.

मगर भोले वोटरों को शायद अंदाज़ा ही नहीं कि उसने हमारे अंदाज़ों पर बर्फ़ीला पानी उंडेल कर मीडिया को कितना नुक़सान पहुँचाया है.

वोटरों की इस हरकत से अगले 15-20 दिन तक की योजना बनाने वाले चैनलों, और समाचार पत्रों से जुड़े सैंकड़ो राजनीतिक टीकाकारों, विश्लेषकों, लेखकों, ग्राफ़िक डिज़ाइनरों, हाई प्रोफ़ाइल ऐंकरों, कैमरामैनों, कैमरे के आगे खड़े होकर नए राज़ खोलने की आदत में लगे रिपोर्टरों और एक्सक्लूसिव इंटरव्यू की दौड़ में हिस्सा लेने वाले संपादकों के करोड़ों रुपये डूब गए जो उन्हें फ़ीस और आने-जाने के ख़र्चे के रुप में मिल सकते थे.
हम सबके दिल में अरमान था कि आने वाले कई दिनों तक हाथी का चीटियों के साथ, शेर का बकरी के साथ और बिल्ली का चूहे के साथ राजनीतिक तोड़-जोड़ बैठाएं. रंगीन ग्राफ़िक्स और टिप्पणियों की मदद से अपनी-अपनी मनपसंद सरकार बनाएंगे, मिटाएंगे और फिर बनाएंगे. ख़ुद भी मज़े लेंगे और देखने, सुनने और पढ़ने वालों को भी मज़ा करवाएंगे.

लेकिन 15-20 दिन तक जो सर्कस लगना था वो 16 मई की शाम तक शामियाने के बाँस के साथ गढ़ने से पहले ही लद गया.

और अब हम सब मीडियाकर्मी विश्लेषक 46 डिग्री सेल्सियस में सच्चाई के तपते सूरज तले वोट के फ़ैसले की गर्म ज़मीन पर बैठे ये सोच रहे हैं कि सारे फ़ालसे वोटर ले गया, अब शाम तक क्या बेचें!

लेकिन मायूसी की कोई बात नहीं. गिरते हैं शहसवार ही मैदान-ए-जंग में. 2004 में भी यही हुआ था. आने दें 2014 के चुनाव. हमने भी फ़ालसे की जगह तरबूज़ और कटहल का ठेला न लगाया तो नाम बदल देना. यह वोटर ख़ुद को आख़िर समझता क्या है!!!