Thursday, May 07, 2009

सन् 84 का दर्द और सिक्ख मत-दाता

समाज सेवक कुलदीप सिंह चन्ना के साथ अन्तरंग बातचीत - प्रेमचंद सहजवाला

उपरोक्त बातचीत के विषय में लिखने से पहले मुझे याद आ रहा है सन 2004, जब लोकसभा चुनाव परिणामों के बाद डॉ. मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री की शपथ ले रहे थे. शपथ-समारोह को देश के सभी चैनल दिखा रहे थे पर मैं यह कार्यक्रम देख रहा था बी.बी.सी पर. प्रारम्भ में ही बी.बी.सी पर दो पत्रकार बड़ी गरमागरम गुफ्तगू कर रहे थे. मनमोहन सिंह के शपथ लेने पर एक अजीब सा उत्साह पत्रकारों में भी था. एक पत्रकार दूसरे से भारत देश की तारीफ कर रहा था कि भारत एक सच्चे अर्थों में secular देश है जिस का राष्ट्रपति डॉ. ए.पी.जे अब्दुल कलाम मुस्लिम है और अब एक सिख नेता प्रधानमंत्री की शपथ लेने जा रहा है. यानी दोनों अल्प-संख्यक समुदायों से. पर दूसरे साथी पत्रकार ने उसे तुंरत रोकते हुए कहा कि ये दोनों शख्सियतें इन महत्वपूर्ण पदों पर इसलिए नहीं पहुँची कि वे अल्पसंख्यक हैं, वरन् दोनों ही देश की राजनैतिक मुख्यधारा के माध्यम से अपनी योग्यताओं के आधार पर आगे आए हैं. उस समय एक जिज्ञासा सब के मन में थी कि यदि सोनिया ने प्रधानमंत्री पद को अस्वीकार कर दिया तो आख़िर मनमोहन सिंह को ही क्यों चुना. कुछ लोग अपनी ओर से अटकल लगा रहे थे कि सन 1984 में इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद जिस नृशंस तरीके से अबोध सिक्खों की हत्याएं हुई, उस के बाद सिक्ख समुदाय कांग्रेस पार्टी को कभी क्षमा नहीं करेगा क्यों कि दिल्ली के कतिपय कांग्रेसी नेताओं पर यह इल्जाम लगता रहा है कि उन नृशंस हत्याओं के पीछे उन्हीं का हाथ है. इसलिए सोनिया जी सिक्ख समुदाय से अपने टूटे रिश्तों को जोड़ने के लिए उनके ज़ख्मों पर अपने तरीके से मरहम लगना चाहती हैं. पर जहाँ एक तरफ़ मनमोहन सिंह के पाँच वर्ष के शासन काल में बी.बी.सी पत्रकारों द्वारा कही हुई बात साबित हो गई कि वे किसी विशेष समुदाय के प्रधानमंत्री नहीं हैं, वहीं पाँच वर्षों में उन्होंने किसी भी समुदाय विशेष को प्रसन्न करने के लिए कोई अलग से कदम नहीं उठाया, वरन वे देश की आर्थिक स्थिति व आतंकवाद से जूझते रहे, जिसमें उन्हें कभी सफलता मिली कभी असफलता. पर हाल ही में मैंने जब अपने निर्वाचन क्षेत्र में अजय माकन का भाषण एक पत्रकार के रूप में कवर किया तो यह देख कर चकित था कि मंच पर अच्छी खासी मात्रा में सिख भी उपस्थित थे क्यों कि मानसरोवर गार्डन व राजौरी गार्डन के आसपास के इस इलाके में जहाँ भाषण हो रहा था, वहां सिक्ख जनसँख्या भी अच्छी खासी है. ऐसे में किसी के भी मन में यह जिज्ञासा होना स्वाभाविक है कि क्या सिख समुदाय कांग्रेस को क्षमा कर चुका है? या कि अब वह कांग्रेस के साथ इसलिए है कि कांग्रेस एक सिक्ख नेता को प्रधानमंत्री बनाए हुए है. दोनों प्रश्नों के उत्तर मेरे मन में मिले जुले से हैं. पिछले महीने जगदीश टाईट्लर को टिकट मिलने के सवाल पर एक सिख पत्रकार ने गृहमंत्री चिदंबरम पर जूता फेंक दिया. उधर अदालत जब टाईट्लर पर फ़ैसला देने वाली थी तब बाहर जमा सिख समुदाय व उस का आक्रोश काबिले-गौर था. पर उस भीड़ का थोड़ा सा विश्लेषण करने पर यह भी स्पष्ट था कि उस आक्रोश का नेतृत्व अकाली-दल कर रहा था. यानी सिक्ख परिवार, जिनके घरों से कई प्यारे लोग चले गए, उन के साथ न्याय तो जाने कब हो, पर उस पर राजनीती भी कम नहीं हो रही. यही कहना है इस इलाके के प्रसिद्ध समाज-सेवी सरदार कुलदीप सिंह चन्ना का कि सिक्ख समुदाय तो सदियों से अत्याचार सहन करता आ रहा है. उनकी लाचार आस्था है ईश्वर में कि ईश्वर कभी न कभी गुनाहगारों को सज़ा देगा ही, पर वे गुजरात में सन 2002 में हुई नृशंस मुस्लिम हत्याओं का सन्दर्भ दे कर कहते हैं कि कुछ पार्टियाँ सन 84 की नृशंस हत्याओं को केवल चुनाव के दौरान ही उठाती हैं. यह पूछने पर कि क्या मनमोहन सिंह के प्रति उन का उत्साह इसलिए है कि वे उन के ही मज़हब के हैं, यानी सिक्ख हैं, वे स्पष्ट रूप से कहते हैं कि नहीं, मनमोहन सिंह एक काबिल प्रधानमंत्री हैं जिन की विदेशों में भी बहुत अच्छी साख है. अलबत्ता वे कांग्रेस के प्रति आभार भी प्रकट करते हैं कि कांग्रेस ने ही देश को सिक्ख राष्ट्रपति दिया, सिक्ख सेना-अध्यक्ष दिया और अब सिक्ख प्रधान मंत्री. उनकी बात आइये, हम उनकी ही ज़बान से सुनें, शायद इसे सुनने से हम एक झलक सिक्ख समुदाय के हृदय की पा सकेंगे.



बातचीत-1बातचीत-2
-----बातचीत-3

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2 बैठकबाजों का कहना है :

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

कुलदीप सिंह का कहना ठीक है- सांप्रदायिक मुद्दे मुख्य रूप से चुनावों के समय ही उठाये ही जाते हैं। सिख समुदाय को भी धीरे-धीरे उस घटना को भूलना ही होगा।

Divya Narmada का कहना है कि -

भावनाएँ तो अनेक बार बहुसंख्यकों की भी आहत हुई हैं पर न तो किसी राजनैतिक दल ने उनकी कोइ चिंता की, न अल्प संख्यकों ने...शांतिप्रियता की अनदेखी करने की प्रवृत्ति के कारण अल्पसंख्यकों ने उग्र होकर अपनी बात कहने का तरीका अपनाया...जिसे अख़बारों और नेताओं दोनों से प्रोत्साहन मिला पर कोइ स्वस्थ परंपरा नहीं बनी.

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