भारत एक कृषि प्रधान देश है और तिलहन उत्पादन के क्षेत्रफल में विश्व में भारत का स्थान चौथा है लेकिन कम उत्पादकता के कारण देश में खाद्य तेलों का आयात दिनों दिन बढ़ता ही जा रहा है। आज स्थिति यह हो गई है कि खाद्य तेलों के आयात बिल का नम्बर कच्चे तेल के आयात बिल के बाद आता है।
पिछले कुछ वर्षों से खाद्य तेलों का आयात बढ़ता ही जा रहा है। यदि चालू तेल वर्ष 2008-09 (नवम्बर-अक्टूबर) की बात करें तो मार्च तक के 34.34 लाख टन खाद्य तेलों का आयात किया जा चुका है जबकि गत वर्ष इसी अवधि में 19.34 लाख टन का आयात किया गया था। वास्तव में इस वर्ष के आरंभ से ही महीने दर महीने खाद्य तेलों का आयात बढ़ता आ रहा है और आगामी महीनों में भी इसके जारी रहने का अनुमान है।
तेल वर्ष 2005-06 के दौरान कुल 44.16 लाख टन खाद्य तेलों का आयात किया गया था जो 2006-07 में बढ़ कर 47.14 लाख टन और गत वर्ष यानि 2007-08 में बढ़ कर 56.08 लाख टन के स्तर पर पहुंच गया था।
खाद्य तेलों के आयात की वर्तमान स्थिति को देखते हुए चालू वर्ष में आयात 70 लाख टन तक पहुंच सकता है। क्योंकि आयात शुल्क न होने के कारण आयात सस्ता पड़ रहा है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि देश में तिलहनों का उत्पादन कम होता है और खाद्य तेलों की मांग को पूरा करने के लिए आयात पर निर्भर होना पड़ता है। लेकिन चिंता का विषय यह है कि यह निर्भरता दिनों दिन बढ़ती जा रही है।
कोई समय था जब खाद्य तेलों के आयात पर निर्भरता केवल 10 प्रतिशत ही थी लेकिन अब यह 50 प्रतिशत से ऊपर पहुंच चुकी है। देश में खाद्य तेलों की सालाना मांग लगभग 110 लाख टन है।
खाद्य तेलों पर विदेशी निर्भरता बढ़ते जाने कारण सरकारी नीतियां हैं। गत वर्ष जब देश में मंहगाई बढ़ रही तो खाद्य तेलों के भाव भी पीछे नहीं थे। विदेशों में भी खाद्य तेलों के भाव रिकार्ड स्तर पर थे। इन पर काबू पाने के लिए सरकार ने पहले खाद्य तेलों पर आयात शुल्क कम किया और बाद में कच्चे तेलों पर तो आयात शुल्क समाप्त ही कर दिया।
इसी बीच, विश्व बाजार में खाद्य तेलों के भाव में लगभग 40 प्रतिशत की गिरावट आ गई लेकिन चुनाव को देखते हुए सरकार ने आयात शुल्क नीति में कोई परिवर्तन नहीं किया। इससे आयातकों ने खाद्य तेलों का आयात अधिक मात्रा में किया (भले ही इससे किसानों को नुकसान हो रहा है।) और आज देश में आयातित खाद्य तेलों की बाढ़ आ गई है।
इससे न केवल देश के तिलहन उत्पादक किसानों को अपेक्षा से कम भाव मिल रहे हैं अपितु सूरजमुखी उत्पादकों को तो सरकार द्वारा तय न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल रहे हैं।
इसके अलावा खाद्य तेल उद्योग भी बुरी तरह प्रभावित हो रहा है क्योंकि भारी मात्रा में रिफाईंड तेलों का आयात किया जा रहा है जबकि देश के रिफाईंनिंग उद्योग की स्थापित क्षमता बेकार पड़ी है।
सस्ते खाद्य तेलों के आयात का असर आगामी वर्षो में और भी भंयकर होगा क्योंकि किसानों की दिलचस्पी तिलहन उत्पादन में कम होती जा रही है। तिलहन उत्पादन कम होने से देश के खाद्य तेल उद्योग पर भी प्रतिकूल असर पड़ेगा।
ऐसे में बेहतर होगा कि सरकार उपभोक्ता के हितों के साथ-साथ तिलहन उत्पादक किसानों की हितों का भी ध्यान करे। अन्यथा कुछ वर्षों बाद खाद्य तेल उद्योग केवल इतिहास बन कर रह सकता है।
--राजेश शर्मा
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बैठकबाज का कहना है :
चिंतनीय हालात हैं, उत्पादन में ह्रास.
खपत बढ़ रही निरंतर, आप करें विश्वास..
आप करें विश्वास, किस तरह खा पाएंगे?
लगा न नेता को, वे कैसे जी पायेंगे?
सतत बढा आयात, न इसको खेल मानिये.
गायब या मंहगा होगा, अब तेल जानिए..
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