Monday, May 11, 2009

प्रथम बार वोट देने वालों का सरोकार काम से - एक चुनाव झलकी

प्रेमचंद सहजवाला

लोकसभा 2009 पर मैं अभी तक तीन बड़ी रिपोर्ट्स दे चुका हूँ. पर ब-तौर एक झलकी प्रस्तुत करने के मुझे लगा कि ज़रा उन नौजवान मतदाताओं से साक्षात्कार किया जाए, जो मन में पहली बार वोट डालने का उत्साह लिए घर से निकले थे. सन् '84 में जब राजीव गाँधी देश के प्रधानमंत्री बने तो अपने 5 - वर्षीय कार्य-काल में जो काम किए, उन में से एक महत्वपूर्ण काम यह था कि पहले मतदान करने के लिए न्यूनतम आयु 21 वर्ष होती थी, उसे राजीव गाँधी ने घटा कर 18 वर्ष किया. देश की युवा पीढ़ी बेहद प्रसन्न थी. युवा पीढ़ी को देश की समस्याओं पर गौर करने और अपने निर्वाचन-क्षेत्र के प्रतिनिधियों का मूल्यांकन करने की प्रेरणा मिली. दिनांक 7 मई 2009 को दिल्ली में भी बहुत इंतज़ार के बाद मतदान की सरगर्मी आई. मैं इस दिन नई दिल्ली लोकसभा सीट के अलग अलग मतदान केन्द्रों पर जायजा लेने घूम रहा था. कुछ देर के लिए मेरी नज़र उन नौजवान मतदाताओं को खोज रही थी, जिन्हें बेसब्री से इंतज़ार था कि पहली बार वोट देने वाली शुभ सुबह आए तो वे वोट देने जाएँ. इस बात में दो राय हो ही नहीं सकती कि वरिष्ठ पीढ़ी कि तुलना में युवा पीढ़ी अधिक प्रखर भी है, और बेहद आशावान भी. अलबत्ता कुछ युवक-युवतियां राजनेताओं के गिरते चारित्रिक स्तर के कारण खिन्न भी थे और कुछ तो कतिपय उन बड़ों जैसी बातें भी कर रहे थे जो कहते रहते हैं कि सब के सब चोर हैं बाबूजी. आख़िर किसे पसंद करें. मैंने बहुत पहले किसी चुनाव में 'साप्ताहिक हिन्दुस्तान' पत्रिका में एक कार्टून देखा था कि एक आदमी एक मोटा से लेंस ले कर बहुत सारे टोपी-धारी नेताओं को एक एक कर के गौर से देख रहा था. किसी के पूछने पर उस ने कहा कि आज चुनाव है. मैं देख रहा हूँ कि इन में सब से कम बुरा कौन सा है, क्यों कि अच्छा मिलना तो ना-मुमकिन है न!

पर 7 मई वृहस्पतिवार को अधिकाँश युवकों युवतियों में मुझे एक बहुत उत्साहवर्द्धक आशा-वादिता भी दिखी. नौजवानों का कहना है कि अगर नौजवानों को मौका दिया जाएगा तो मुमकिन है कि देश को एक नई और स्वस्थ दृष्टि भी दे सकें और काम भी बहुत कर सकें. 'दिल्ली का दंगल', जैसा कि इसे माना गया है, मुख्यतः दो ही पहलवान पार्टियों के बीच रहा है. कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी (भाजपा). मैं जितने भी नव-मतदाताओं से मिला (पहली बार वोट देने वाले), वे सब मुख्यतः इन्हीं दो पार्टियों के बीच बँटे हुए थे, भले ही वोटिंग-मशीन पर 40 या उस से भी ज्यादा नाम लिखे हों. किसी का चुनाव-चिह्न आसमान पर खिंचा तीर-कमान था तो किसी का
डबलरोटी या केक या बल्लेबाज़ वगैरह. पर नज़र सब की या तो हाथ पर थी या कमल पर. यह बताना मुश्किल कि कमल खिलेगा या हाथ हंसेगा. पर एक बात सब में गज़ब की समानता रखती थी कि सब का सरोकार काम करने वाले से ही था. इस निर्वाचन-क्षेत्र में कोई विजय गोयल (भाजपा) की तारीफ़ कर रहा था कि उस ने चांदनी-चौक में बहुत काम किया और हमेशा कोई न कोई नई योजना बनाता रहता है तो कोई अजय माकन के लिए तारीफों के पुल बाँध रहा था कि अब उन्होंने यमुना नदी को साफ़ करने का वादा किया है, जो कि बहुत ज़रूरी काम है. कुछ युवतियों में बहस भी ठनी क्यों कि किसी किसी को सोनिया-प्रियंका अच्छी लगती हैं तो उस के विरोध में दूसरी का कहना है कि अच्छी महिलाएं भाजपा में भी हैं, सोनिया-प्रियंका बड़ी फैमिली की हैं, इसलिए हर कोई उनकी तरफ़ है. बहरहाल जो बात मन को खुश करने वाली थी, वो यह कि युवा पीढ़ी देश से बहुत प्यार करती है और चाहती है कि देश को केवल बातें करने वाले निकम्मे नेताओं से छुटकारा मिले और देश में कुछ कर गुज़रने का वातावरण बने. यह सोच ही आशा का वह दीपक है, जिस की रौशनी में भरष्टाचार और आतंकवाद का अँधेरा भी पार हो जाएगा, ऐसी आशा की जा सकती है.


--प्रेमचंद सहजवाला

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बैठकबाज का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

प्रेमचंद सहजवाला का लेव्ख ,,,,, याने ,,, टाइम पास
हूहू हाहा

नया कवि
दिल्ली

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