कई दिन से इक अजीब-सी उधेड़बुन में हूँ, कि ये किस तरह कि फिल्में बन रही हैं, ना कहानी, ना पटकथा, ना ही कोई ढंग का संगीत, गीत के तो क्या कहने, फिर भी लोग देख रहे हैं, पसंद कर रहे हैं, और इक तरफ जो अच्छी फिल्में बन रही हैं उन्हें कोई घास भी नहीं डालता.. बल्कि अब तो इक नया चलन चला है, फिल्में सीधा डीवीडी से बाज़ार में उतरने का. चलो ये भी ठीक ही है, कम से कम फालतू के खर्चे से तो बचे, और जो कमाया, कुछ जरुरी खर्चों के बाद, सीधा जेब में, लेकिन इक बात जो इन सब की आपाधापी में समझ नहीं आती वो ये है कि आज दर्शक देखना क्या चाहता हैं. चटपटी फिल्में, डेली सो़प, कॉमेडी या कुछ और.. और जैसे रियलिटी शो... कमाल की बात है, लोग कहते हैं व्यस्तता बढ़ गई है, इस लिए डेली सो़प देखने का मन नहीं करता, कौन कहानी के चक्कर में पड़े, कॉमेडी भली है, इक बार में ख़त्म तो हो जाती है, पर कोई ये पूछे कि अगर इक बार में ख़त्म हो जाती है तो फिनाले के इन्तेज़ार में काहे को रहते हो भैया, और कॉमेडी भी किस तरह की, कॉमेडी के नाम पर बेहूदा मज़ाक हो रहा है, आज इक कॉमेडी शो चल रहा था, जिसमें मज़ाक हो रहा था की जनाब का पेट खराब है और वो अपनी प्रेमिका का दरवाजा खटका रहे हैं की प्रिय दरवाज़ा खोल दो वरना मेरी पतलून खराब हो जायेगी. अब कहिये ये किस तरह का बेहूदा मज़ाक है. फिल्में भी तीन घंटे में ख़त्म हो जाती हैं, पर ऐसे कितने प्रतिशत लोग हैं, जो कि फिल्म को सच में देखने जाते हैं, इक सर्वे में बताया गया कि लगभग ४० प्रतिशत लोग तो यूँ ही घूमने के मकसद से पैसा बर्बाद करते हैं, २५ प्रतिशत पॉप कॉर्न का मज़ा लेने या दोस्तों के साथ चले जाते हैं, और जो बचे बाकी तीस प्रतिशत लोग, उनकी सुनता कौन है, बस धूम धड़ाका संगीत और हो गई पिक्चर हिट. कितने ही दिन हुए कोई गीत दिमाग पर नहीं छाया, वरना जब तक कोई फिल्म देखें और उसके गीत ज़हन में ना घूमें तो बात नहीं बनती, कोई बात, कोई सीन, कुछ भी तो याद नहीं रहता और फिल्म को मिलते हैं पांच स्टार, लोगो कि भीड़ को देख कर या जाने किस बात पर. डेली सो़प लोग देखना पसंद नहीं करते पर फिर भी देखते उसी को हैं, कहने को सभी कहते हैं कि वही सास-बहू का ड्रामा, वाही रोज़ की चिकचिक. फिर भी 75 फीसदी घरों में सात बजते ही अगर कुछ चलता है तो वो हैं डेली सो़प और रात ग्यारह बजे से पहले तो ख़त्म होने वाले नहीं, अब श्रीमती जी का बहाना करें या और कुछ देखते तो सब वही हैं, वरना अगर ना देखें तो डेली सो़प का बाज़ार इतना गर्म कैसे हो. रियलिटी शो की तो बात मत पूछिये. कोई पूछे कि क्या ये ड्रामा नहीं है. किसी को सोने नहीं दिया जाता तो किसी को अपशब्द सुनाये जा रहे हैं, खुलेआम, कहीं कोई स्वयंवर हुआ तो सभी को स्वयंवर का चस्का लग गया, फिर चाहे वो किसी का भी हो, चाहे लोग उसे पसंद ना करें पर बातें फिर भी उसी की करते हैं, देखा जाये तो रियलिटी शो भी किसी सास-बहू के ड्रामे से कहीं कम नहीं हैं, फर्क इतना है कि किरदार अलग हैं, और अब तो सास-बहू भी रियलिटी शो करेंगी, तो कहीं सासबहू ढूँढने निकली हैं रियलिटी शो के जरिये. और इन सबसे बढ़कर सबसे बुरा हाल है, न्यूज़ चैनलों का, न्यूज़ यानि के समाचार.. देश-विदेश की खबरें.. देश में क्या चल रहा है इस बारे में जानकारी, लेकिन क्या ये सब हो रहा है चैनलों पर, नहीं.. बल्कि उनपर तो चल रहा है, कि एक-दूसरे कि टांग कैसे खीची जाए, किसी शो को पकड़ लिया तो उसे बंद करा के ही छोडेंगे, बस तीन तीन घंटे तक वही चलता रहता है, शो ने दर्शकों के घर बर्बाद कर दिए, कोई इनसे पूछे क्या दर्शक बेवकूफ हैं, कि इक शो से अपना घर बर्बाद कर लेंगे, और अगर ऐसा है तो मत देखो ना, किसी ने जबरदस्ती तो नहीं की आपके साथ, अजीब है हमारा दर्शक वर्ग भी, देखेगा और फिर बुरा भी कहेगा. इक न्यूज़ चैनल पर इक कार्यक्रम देखा जिसमें इक घंटे की इक ख़ास कहानी दिखाई जाती है, कि हीरो अपनी प्रेमिका के कहीं और ब्याहे जाने पर सबका खून कर देता है, कहिये, क्या सीखेगा फिर हमारा समाज इस तरह के कार्यक्रमों से, और क्या ये खबर है, या चटपटा मसाला, सिर्फ अपने चैनल चलाने के लिए, यूँ ही तो इनकी टीआरपी बढती है ! कुल मिलकर, लोगो को कहानी, खबर, देश से कोई ख़ास सरोकार नहीं है, ना ही फर्क पड़ता है कि चल क्या रहा है, बस मसालेदार कुछ हो जाये. मेरी नानी कहा करती थी अपनी ख़ास हरयाणवी शैली में "बस रोला रुक्का चाहिए" यही कुछ दीखता है आज के दर्शक वर्ग के साथ भी. सबको मसाला चाहिए और वो भी शॉर्टकट में...
(सिनेमा हॉल की जगह मल्टीप्लेक्स लेते जा रहे हैं और आगे की सीट का दर्शक गायब होता जा रहा है....दीपाली की टीस के साथ इस वीडियो को देखना भी आपको शायद अच्छा लगे....)
दीपाली 'आब' (दीपाली कविताएं भी लिखती हैं। हिंदयुग्म पर कविताएं भी भेजती रही हैं। बैठक पर ये इनका पहला लेख है)
बहुत सुन्दर आलेख है ।ासल मे 90% लोग हास्य और व्यंग का अर्थ ही नहीं जानते ।सही व्यंग की मूल चेतना आहत करने की है चोट करने की है जब कि आजकल व्यंग के नाम पर फूहडपन परोसा जा रहा है ऐसे ही बाकी विधाओं मे है। बहुत बडिया विश्य उठाया है बधाई
पहले लोग घरों में या टोली में बैठकर गप-शप करके समय गुजारते थे और अब जेब में फालतू पैसा होने पर अपनी बोरियत दूर करते हैं टीवी देखकर या सिनेमा घरों में जाकर. कितना उसमें काम का है और कितना बेकाम का कौन परवाह करता है. मनोरंजन के साधन बढ़ रहे हैं और इंसान अपना समय जिम्मेदारिओं में या घर में अधिकतर गुजारना नहीं चाहता. किसी का साथ मिले और आउटिंग .......सिनेमा हो या कुछ और....
आज की हकीकत, पारदर्शिता को बयाँ करता सुंदर आलेख है .हास्य -व्यंग्य के नाम पर फूहडपन को परोसा जाता .जिन्हें सुनकर शर्म आ जाती है . दीपाली जी प्रथम सराहनीय प्रयास के लिए बधाई .
प्रथम post के लिए बधाईयाँ ..हाँ मुझे लगता है की लेख में थोडा और पैनापन लाया जा सकता था .. कहीं-कहीं भाषाई त्रुटियों ने मजा किरकिरा किया ..मसलन 'एक' की जगह बार-बार 'इक' लिखा जाना जैसे "इक न्यूज़ चैनल पर इक कार्यक्रम देखा जिसमें इक घंटे की इक ख़ास कहानी दिखाई जाती है" या "इक नया चलन चला है, फिल्में सीधा डीवीडी से बाज़ार में उतरने का. चलो ये भी ठीक ही है, कम से कम फालतू के खर्चे से तो बचे, और जो कमाया, कुछ जरुरी खर्चों के बाद, सीधा जेब में, लेकिन इक बात जो इन सब की आपाधापी में समझ नहीं आती"
अजी इक लिखना तो दीपाली जी शायरी की शायरी का अक्स है जो आलेख में दिख रहा है क्योंकि कई जगहों पर एक की जगह इक लिखा जाता है. वैसे आपने बहुत बारीकी से गलतियाँ पकड़ी हैं.
मैं एक बात यह कहना चाहूँगा अगर यह सब दिखाया जा रहा है तो सिर्फ इसलिए की लोग पसंद कर रहे हैं. गर लोग न पसंद करें तो ज़ाहिर सी बात है की मीडिया को अपनी सोच बदलना पड़ेगी. और वही पेश करना होगा जो लोग पसंद करें.वरना उन्हें काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है. बात चाहे फूहड़ कॉमेडी की करें या बिना स्क्रिप्ट की फिल्मो की कहीं न कही समाज ही इन्हें पसंद कर रही है तभी यह सब दिखाया जा रहा है.
मैं आपकी बात मानता हूँ की ये आलेख है और इसमें एक की जगह इक स्वीकार्य नहीं है लेकिन मुझे ऐसा लगा की शायद उन्होंने शायरी वाले अंदाज़ में एक और इक पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया.
aap sabhi ka bahut bahut shukriya mere is prayaas ko sarahne ke liye.
shamikh ji, aur anonymous ji ji main maanti hun kai galtiyan hai spelling mistakes hain. wo ek bhi aise hi aa gaya, agli baar se dhyaan rakhungi. aapne chhoti chhoti baarekiyon par dhyaan diya uske liye spl thanx :)
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
12 बैठकबाजों का कहना है :
बहुत सुन्दर आलेख है ।ासल मे 90% लोग हास्य और व्यंग का अर्थ ही नहीं जानते ।सही व्यंग की मूल चेतना आहत करने की है चोट करने की है जब कि आजकल व्यंग के नाम पर फूहडपन परोसा जा रहा है ऐसे ही बाकी विधाओं मे है। बहुत बडिया विश्य उठाया है बधाई
पहले लोग घरों में या टोली में बैठकर गप-शप करके समय गुजारते थे और अब जेब में फालतू पैसा होने पर अपनी बोरियत दूर करते हैं टीवी देखकर या सिनेमा घरों में जाकर. कितना उसमें काम का है और कितना बेकाम का कौन परवाह करता है. मनोरंजन के साधन बढ़ रहे हैं और इंसान अपना समय जिम्मेदारिओं में या घर में अधिकतर गुजारना नहीं चाहता. किसी का साथ मिले और आउटिंग .......सिनेमा हो या कुछ और....
आज की हकीकत, पारदर्शिता को बयाँ करता सुंदर आलेख है .हास्य -व्यंग्य के नाम पर फूहडपन को परोसा जाता .जिन्हें सुनकर शर्म आ जाती है . दीपाली जी प्रथम सराहनीय प्रयास के लिए बधाई .
कितने ही दिन हुए कोई गीत दिमाग पर नहीं छाया, वरना जब तक कोई फिल्म देखें और उसके गीत ज़हन में ना घूमें तो बात नहीं बनती,
bahut sahi kahaa deep ji...
ham bhi aksar sochte hain...
प्रथम post के लिए बधाईयाँ ..हाँ मुझे लगता है की लेख में थोडा और पैनापन लाया जा सकता था ..
कहीं-कहीं भाषाई त्रुटियों ने मजा किरकिरा किया ..मसलन 'एक' की जगह बार-बार 'इक' लिखा जाना
जैसे "इक न्यूज़ चैनल पर इक कार्यक्रम देखा जिसमें इक घंटे की इक ख़ास कहानी दिखाई जाती है"
या "इक नया चलन चला है, फिल्में सीधा डीवीडी से बाज़ार में उतरने का. चलो ये भी ठीक ही है, कम से कम फालतू के खर्चे से तो बचे, और जो कमाया, कुछ जरुरी खर्चों के बाद, सीधा जेब में, लेकिन इक बात जो इन सब की आपाधापी में समझ नहीं आती"
अजी इक लिखना तो दीपाली जी शायरी की शायरी का अक्स है जो आलेख में दिख रहा है क्योंकि कई जगहों पर एक की जगह इक लिखा जाता है. वैसे आपने बहुत बारीकी से गलतियाँ पकड़ी हैं.
दीपाली जी सबसे पहले पहले आलेख के लिए मुबारकबाद.
मैं एक बात यह कहना चाहूँगा अगर यह सब दिखाया जा रहा है तो सिर्फ इसलिए की लोग पसंद कर रहे हैं. गर लोग न पसंद करें तो ज़ाहिर सी बात है की मीडिया को अपनी सोच बदलना पड़ेगी. और वही पेश करना होगा जो लोग पसंद करें.वरना उन्हें काफी नुकसान उठाना पड़ सकता है. बात चाहे फूहड़ कॉमेडी की करें या बिना स्क्रिप्ट की फिल्मो की कहीं न कही समाज ही इन्हें पसंद कर रही है तभी यह सब दिखाया जा रहा है.
aur han deepali ji maine aapki pichli nazm par 1 comment kiya hai. dekhen
शामिख कैसी बाते करते हो..ये शायरी नहीं आलेख है और आलेख में 'एक' की जगह 'इक' स्वीकार्य नही है
मैं आपकी बात मानता हूँ की ये आलेख है और इसमें एक की जगह इक स्वीकार्य नहीं है लेकिन मुझे ऐसा लगा की शायद उन्होंने शायरी वाले अंदाज़ में एक और इक पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया.
aap sabhi ka bahut bahut shukriya mere is prayaas ko sarahne ke liye.
shamikh ji, aur anonymous ji
ji main maanti hun kai galtiyan hai spelling mistakes hain. wo ek bhi aise hi aa gaya, agli baar se dhyaan rakhungi.
aapne chhoti chhoti baarekiyon par dhyaan diya uske liye spl thanx :)
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)