हॉलीवुड और बॉलीवुड की बहस बहुत पुरानी है और अक्सर लोग हॉलीवुड को हर तरह से बेहतर बताते हुए लम्बी-चौडी बहस करते हैं लेकिन यही लोग यहां पर बनी अच्छी फिल्म को सिरे से नकार देते हैं, ये कहकर कि यार फिल्म हल्की-फुल्की होनी चाहिये. दरअसल ये फर्क फिल्मों का नहीं, सोच का है और सोच से ही बनती है फिल्में. सिर्फ फिल्में ही नहीं ये फर्क जीवन के हर क्षेत्र में नज़र आता है चाहे वो खेल हों, विज्ञान हो या रोज़मर्रा के काम ही हों, हमारी जनता और उन्की जनता की सोच में बहुत अन्तर है. वहां लोग नये प्रयोगों के लिये हमेशा खुले होते है, और उसे प्रोत्साहित करते हैं जबकि हमारे यहां अधिकतर मानसिकता एक बंधी हुई लीक पर चलने की है, सदियों से जो निजाम चलता आया है वही चलेगा. उससे अलग जाने वाले को खामियाज़ा भुगतना पडता है. जीवन यापन के लिये अपना पेशा चुनने के वक्त भी आदमी इस लीक को छोड नहीं पाता है. यहां हर बच्चा डॉक्टर या इन्जीनियर बनने के लिये ही जन्म लेता है. यही कारण है कि हमारे यहां फैन्टेसी नही बनती हैं और वहां 'लॉर्ड ओफ द रिन्ग्स' के तीन सफल भाग बन जाते हैं.
खैर हम इस बहस में ज्यादा गहरे न उतरते हुए मुद्दे की बात पर आते हैं. मुद्दा है आज की फिल्म
'द क्यूरियस केस ऑफ बेन्जामिन बटन' जिसका विषय बिल्कुल नया है और साहसिक है. फिल्म एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है जो बूढा ही पैदा होता है और समय के साथ उसकी उम्र घटती जाती है... फिल्म की शुरुआत होती है द्वितीय विश्वयुद्ध खत्म होने के दिन से. उस रात एक बच्चा पैदा होता है जिसके पैदा होने के बाद उसकी मां की मौत हो जाती है. उसका पिता एक अमीर व्यवसायी है. वो जब उस बच्चे को देखता है तो उसे बेइन्तहां घृणा होती है, बच्चे के पूरे शरीर पर झुर्रियां हैं जैसे किसी 80 साल के बूढे के शरीर पर होती हैं. पिता उसे रात में एक वृद्धाश्रम में छोड देता है. वृद्धाश्रम की मालकिन एक बहुत ही सहृदय स्त्री है जो पहले ब्च्चे को देख कर घबराती है लेकिन फिर सहानुभूतिवश उसे अपने पास रख लेती है. सबको लगता है कि बच्चा मरने वाला है लेकिन समय के साथ जैसे-जैसे वो बडा होता है उसकी झुर्रियां कम होती हैं और शरीर की सारी समस्याएं खत्म होती जाती हैं. वो आंख खोलने के बाद ही से वृद्धों के बीच ही रहता है और उनसे ही उसकी मित्रता होती है. अजीब अहसास से गुज़रता है वो जब एक-एक करके उसके दोस्त दुनिया से विदा होते जाते हैं और उसकी उम्र कम होने लगती है.
ऐसी ही एक वृद्ध दोस्त की 5 साल की पोती कुछ दिनों के लिये वहां रहने आती है. उसकी दोस्ती बेन्जामिन से होती है, पहले ये दोस्ती एक बुजुर्ग व्यक्ति की दोस्ती होती है लेकिन यही दोस्ती आगे चलकर प्रेम बन जाती है. प्रेम कहानी को बहुत ही सुंदर ढंग से कहानी में गूंथा गया है. लडकी की उम्र बढती है और बेन्जामिन की उम्र घटती है. इस दौरान बेन्जामिन एक बोट पर नौकरी कर लेता है और कईं बरस बोट पर ही बिताता है जीवन के बहुत से उतार-चढावों से गुज़र कर वापस अपने घर, उसी वृद्धाश्रम में जाता है. ये वो वक्त है जब उसका बुढापा पूरी तरह से जा चुका है और वो एक खूबसूरत नौजवान है. यहां वो फिर से उसी लडकी से मिलता है जिसे वो हमेशा याद करता रहा है. दोनों शादी कर लेते हैं और उन्हें एक बच्ची भी होती है लेकिन बेन्जामिन अपनी घटती हुई उम्र से चिन्तित है, उसे लगता है कि जब उसकी बच्ची को एक पिता की छाया की ज़रूरत होगी, वो खुद इस हालत में होगा कि उसकी देखभाल के लिये किसी की ज़रूरत हो और उसकी पत्नी को 2 बच्चे पालने पडेंगे. वो अपनी पत्नी को बच्ची की सही परवरिश के लिये दूसरी शादी करने की सलाह देता है और एक दिन अपना सब कुछ बच्ची के नाम करके कहीं चला जाता है. कई साल इधर-उधर भटकने के बाद अन्त में वो फिर अपने घर पहुंचता है और अपनी पत्नी की गोद में दम तोडता है.
फिल्म फैन्टेसी ना होते हुए एक भावनात्मक कहानी है. निर्देशक ने बडी ही खूबी से एक असामान्य आदमी और उससे जुडे लोगों की भावनाओं को प्रदर्शित किया है. फिल्म दिल को छूती है. बेन्जामिन के रूप में ब्राड पिट ने दिल जीत लिया. उनकी पहचान एक स्टाइलिश हीरो की है लेकिन उन्होने बेन्जामिन के गहरे मनोभावों को जिया है. दाद दी जानी चाहिये मेक-अप मैन को जिसने बेन्जामिन की हर उम्र को इतनी स्वाभाविकता से दिखाया है. फिल्म का विषय बहुत बडा था जिसकी वजह से ऐसा लगता है, अन्त में इसे बहुत जल्दी समेट लिया गया. फिल्म एक बार ज़रूर देखी जानी चाहिये.
मैं इसे 5 में से 4 दूंगा अनिरुद्ध शर्मा
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11 बैठकबाजों का कहना है :
Masalon ki kami nahi nayi nayi movie banane walon ko..
badhiya charcha...badhayi
मैंने इस फिल्म के बारे में सुना था अपने दोस्त से आज कहानी सुनकर फिल्म देखने का मन कर गाया, कहानी से लगता है बहुत ही acchi फिल्म होगी सच में ये देखने laayak होगा budhape से लेकर bachpan तक hero कैसे jeeya
मैं इसे पाच में से पाच दूंगा
बहुत ही बढ़िया कभी न भुलाए जाने वाली फिल्म है ..जरुर देखे
कहानी का सारांश तो बढिया लगा . ३/५ अंक दूंगी .
jo log ank dene kee baat kar rahe hai...apana chehra aaine men dekhanaa,,,,,,
film kee baare me kyaa pata hai aapko....,,,,
manju jee to kuchh bhi kahatee hai...,,,
anirudh 5 me se 5 de do kise bhee koi farak nahi hoga miyaa....,,,,
aapke ke is article ko me 5 me se 1/2 ank dunga.,....
jaao kuchh accha chori karake laao..,,,,,,,,,,
jaao kuchh accha chori karake laao..,,,,,,,,,,
kuch kaam aapke liye bhi to hona chaahiye .kch achcha bhi bolaa kijiye hamesha moonh me karela hi hota hai kya .aapke liye kahna chaahngi .
karela upar se neem chadha .
भाई अन्नोंय्मोउस जी ,
सादर नमस्ते .
बहुत दिनों बाद मेरे लिए कमेन्ट लिखा . तारीख १.९.२००९ से ११.९ .२००९ तक कहाँ गायब हो गये थे ? मेरे कमेन्ट पर टिप्पणी लिखने के लिए कितनी पगार मिलती है ? आज से मैं इस काम के लिए आप को मुंहमागी कीमत दूंगी .बेनाम को शुभ कामनाओं के साथ
मंजू गुप्ता .
choohe ki aulaad....
tu yahaan pe kyaa karne ataa hai...?
अभी फिर से पढ़ने के लिए बैठक खोली मनु जी आप का कमेन्ट पढ़ते ही हंसी आ गयी .
अनिरुस्द जी आपने एक नंबर किस बात का कट लिया. मैं तो इसे ५/५ दूंगा. बहुत ही नया आईडिया लगा फिल्म का. आपने भी बहुत खूब समीक्षा की.
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