समय के साथ हर चीज बदल जाती है, लोग बदल जाते हैं, समय खुद भी बदलता रहता है! इस संसार मे परिवर्तन के अलाव कुछ भी स्थाई नही है! पहले भी जब बदलाव बहुत धीमे धीमे हुआ करता था तब भी बहुत से लोग बदलाव को विद्रोह की संज्ञा दिया करते थे और फिर कब खुद बदल जाते थे उन्हे भी पता नही चल पात था और आजकल जब बदलाव फैशन बन गया है और आंधी की तरह जीवन मे आता है, बहुत से लोग अब भी खुशी से इसे स्वीकार नही कर पाते, यह और बात है कि परिवर्तन से वे भी नही बच पाते हैं।
आजकल क्रिकेट सभी खेलों मे सबसे अधिक परिवर्तनशील और प्रगतिशील हो रहा है, इस खेल से जुड़े लोगों मे जैसे होड़ सी लगी है, कौन ज्यादा परिवर्तन की वकालात कर सकता है। फिर चाहे उनके सुझाव खेल की बेहतरी के लिये हो या खबर बनाने के लिये या किसी इतर उद्देश्य के लिए इसकी किसीको क्या फिक्र।
एक बहस छिड़ी हुई है क्रिकेट जगत में, वन-डे मैच के प्रारूप मे परिवर्तन के संदर्भ में पक्ष-विपक्ष मे तर्क दिये जारहे हैं और सब कुछ इसलिये हो रहा है कि फटफट क्रिकेट के नये अवतार 20-20 मेचों ने अथाह कमाई के रास्ते खोल दिये हैं और अब खिलाड़ियोँ से लेकर खेल प्रशासकोँ तक को फ़टाफ़ट कमाई करने का जुनून सवार है, इस जुनून को खेल की बेहतरी का सर्व-सुलभ नाम देकर असली मकसद को छुपाने का जतन हो रहा है।
तर्क दिया जा रहा है कि 20-20 के जमाने मे लोगों की रूची 50-50 ओवरों के मेचों मे कम होने लगी है अत: इसमे सुधार करना चाहिये। किसी भी खेल प्रारूप मे बदलाव करना कोई बुराई का काम नही है, इससे पहले भी एकदिवसीय मेचों मे समय समय पर बदलाव किये गये हैं और उन्हे स्वीकार भी किया गया है, चाहे वह 60-60 ओवर से 50-50 का करने का निर्णय हो, पॉवर-प्ले हो, दिन-रात के मेच हो, परंतु यदि मंशा क्रिकेट की भलाई के अलावा कुछ और हो तो विवाद होना स्वभाविक ही है।
फिर 20-ट्वेंटी क्रिकेट चाहे समय की मांग न भी हो, एक सनसनी जरूर है, और किसी भी सनसनी से आप तब तक नही बच सकते जब तक आप अपनी प्रज्ञा का सही वक्त पर प्रयोग करना नही जानते, भारतीय उप-महाद्वीप मे क्रिकेट मे इस तरह की उम्मेद नही की जा सकती, और फिर जब क्रिकेट एक जुआ भी हो तब आप चाहेंगे की दाँव लगाने के जितने ज्यादा और जल्दी अवसर उपलब्ध हो उतना फायदा तब निश्चित ही हमे यह मान लेना कि भले एकदिवसिय मैच पुर्णत: खत्म न हो पर भविष्य बहुत अच्छा भी नही है, 20-ट्वेंटी क्रिकेट से बहुत चुनोतियाँ मिलने वाली हैं।
भारतीय उप-महाद्वीप खेल जगत मे क्रिकेट के लिये जुनून की हद तक पागलपन के लिये जान जाता है, अत: यहाँ क्रिकेट एक बहुत बडा व्यवसाय होना स्वभाविक है, चुंकि बात बहुत लोगों के आर्थिक हितों से जुडी है इसलिए किसी भी खेल का सिर्फ खेल रह पाना और भी कठिन है। क्रिकेट चलाने वाले संगठन की जिम्मेदारी केवल खेल और खिलाड़ियोँ के कल्याण तक सीमित नही रह गई है, करोड़ों रुपाय की कमाई देने वाली विज्ञापनदाता कम्पनियोँ के हितों के प्रति भी इनकी जिम्मेदारी बनती है। ऐसे अगर क्रिकेट के पुराने प्रारूपों को बदल कर नये प्रारूप लाये जाने की बात हो रही है तो इसमे इतनी हायतोबा मचाने वाली क्या बात है? जहाँ करोड़ों रूपये दॉव पर लगे हों तब निश्चय ही जिन लोगों का पैसा लगा है वे चाहेंगे कि उनके पैसे की पूरी कीमत वसूल हो, इसलिये खेल संगठन को उन्हे फयदा पहुँचाने वाली योजनाएँ एवं प्रारूप लाना ही होंगे।
जो लोग खेल के प्रारूप बदलने या न बदलने के लिये बयानबाजी मे लगे हैं उन लोगों के भी इस संगठन से प्रत्यक्ष य अप्रत्यक्ष हित जुड़े हैं, इसलिये निष्पक्ष और सार्थक बहस की उम्मीद करना स्वयं को अंधेरे मे रखना होगा, इन लोगों का काम केवल इन बदलावों के लिये माहौल तैयार करना है, और वह हो रहा है, अत: वन-डे क्रिकेट का भविष्य बहुत उज्वल प्रतीत नही होता है।
और महत्वपुर्ण प्रश्न यह भी है कि जो निर्णय दर्शकों की रूची के नाम पर किया जा रहा है क्य वस्तव मे उस निर्णय मे दर्शकों की रूची और भावनाओ को स्थान दिया गया है? क्या दर्शकों से राय ली गई है? जाहिर सी बात है, इस तरह के किसी भी निर्णय मे दर्शकों की भूमिका कैवल मूक-दर्शक की ही है।
---प्रदीप वर्मा
(लेखक लम्बे समय से हिन्द-युग्म से जुड़े हैं। समय-समय पर इनकी कविताएँ प्रकाशित होती रही हैं। बैठक पर पहली बार दस्तक दे रहे हैं।)
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
2 बैठकबाजों का कहना है :
क्रिकेट का भविष्य तो हमेशा उज्ज्वल है .खिलाडी तो गाढी कमाई कर रहे है ,चाहे वन -डे हो चाहे २० -ट्वेंटी .
दर्शक तो पैसा लुटा कर मजा लेता है .समायिक प्रथम आलेख के लिए आभार .अगले आलेख के इंतजार में .
बैठक पर स्वागत है...
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)