इस देश में मुद्दों की कमी नहीं। हर रोज़ एक नया मुद्दा सामने आता है। कभी व्यवस्था पर चर्चा, कभी सरकार तो कभी पुराने गढ़े मुर्दे उखाड़ने पर समय की बर्बादी। हम भी चर्चा करेंगे। हमारी सरकार ने सौ दिन भी तो पूरे किये हैं अभी। काफ़ी महीने पहले मैंने अपने एक लेख में लिखा था कि
चीन भारत का नम्बर एक शत्रु है। कुछ साथी जन साथ भी हुए। अब मीडिया भी यही कह रहा है। सरकार का रवैया अभी भी चीन को लेकर सख्त नहीं। चीन लद्दाख में घुस आया है। तवांग पर तो वो अपना हक जता ही चुका है। चीन भारत को हर ओर से घेर चुका है। लेकिन हम खामोश हैं। हम खामोश हैं क्योंकि हम डरते हैं(?)। चीन ने भारत की सीमा के अंदर आकर अपने देश का नाम लिखा। चीन ने बंगाल की खाड़ी में अपनी सेना का अड्डा बना रखा है जो हर वक्त भारत की अंतरिक्ष गतिविधियों पर नजर गड़ाये हुए है। वही हिन्द महासागर में श्रीलंका के साथ मिलकर दक्षिणॊ श्रीलंका के हम्बन्तोता में एक बन्दरगाह का निर्माण चल रहा है। ये गौरतलब है कि प्रभाकरण को मारने के लिये धनराशि चीन द्वारा ही मुहैया कराई गई। लेकिन हमारी सरकार अभी भी खामोश। यही बंदरगाह चीनी नौसेना का अड्डा बनने जा रहा है। जैसे श्रीलंका के साथ समझौता हुआ उसी तरह पाकिस्तान के साथ भी एक बन्दरगाह के लिये काम चल रहा है। और पाकिस्तान को परमाणु शक्ति बनाने का काम भी तो चीन ने ही किया है। फिर सरकार द्वारा ऐसी अनदेखी। चारों ओर से घेर कर हमला करने का इरादा है चीन का। इसके लिये हमारी क्या तैयारी है? क्या १९६२ दोहराया जायेगा। कश्मीर के हिस्से के साथ साथ अरूणाचल, सिक्किम और लद्दाख भी जायेगा?
दूसरा किस्सा हुआ झारखंड में जिसको मीडिया ने तरजीह नहीं दी। बीजेपी के विधायकों का इस्तीफ़ा। और हो भी क्यों न। पिछले नौ-दस महीने से राज्य में राष्ट्रपति शासन। राष्ट्रपति तो बस "नाम" है, देखा जाये तो केंद्र सरकार का शासन। झामुमो के शिबू सोरेन के हार जाने के बाद राज्य में केंद्र सरकार का कब्जा। कांग्रेस को मालूम है कि झारखंड में जीत की उम्मीद कम है। जब हरियाणा, महाराष्ट्र के चुनाव नवम्बर में करवाये जाने हैं तो झारखंड में अभी क्यों नहीं? कांग्रेस सरकार को किस बात का डर है कि संविधान को ही दरकिनार कर दिया। छह महीने से अधिक हो गये राष्ट्रपति शासन को और अभी तक चुनाव नहीं!!!
पिछले दिनों की एक और खबर, जो हमारी "सेक्युलर" मीडिया को नजर ही नहीं आई। वो था सांगली, महाराष्ट्र में गणेश विसर्जन के दौरान हमला किया जाना। अफ़जल खान का पेट फ़ाड़ते हुए शिवाजी दिखाये गये तो शायद कुछ लोगों से रहा नहीं गया। पंडाल पर हमला कर दिया। कहीं ये उल्टा हुआ होता, यानि अल्पसंख्यकों पर हमला हुआ होता तो मानवाधिकार वाले सामने आ चुके होते। वहाँ कर्फ़्यू लगाया गया। पुलिस पर दंगाइयों ने हमला किया पर प्रशासन व सेक्युलर मीडिया चुप रहा क्योंकि वो कुछ और "जरुरी" खबरें "बनाने" में लगे हुए थे। इसके बारे में समाचार पत्रों में भी नहीं आया और यदि आया तो कहीं थोड़ा सा कॉलम। पता नहीं ऐसा क्यों है? ये तो मेरे मीडिया मित्र ही बता सकते हैं कि मीडिया ने खबर को तवज्जो क्यों नहीं दी? एक उदाहरण देता हूँ। कोई कत्ल होता है तो लिखा जाता है कि "व्यक्ति का कत्ल हुआ"। और कहीं अल्पसंख्यक का कत्ल होता है तो... "मुस्लिम व्यक्ति का कत्ल हुआ".."ईसाई व्यक्ति का कत्ल हुआ"..या "सिख का कत्ल हुआ"... दोनों बातों में अंतर क्यों? क्या हर बार "व्यक्ति का कत्ल हुआ".. ऐसा नहीं लिखा जाता। बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक में फ़र्क क्यों? जवाब इस लेख को पढ़ने वाला हर मीडियाकर्मी दे।
बहरहाल अगला मुद्दा थोड़ा ताज़ा है और वो है आई.एस.आई चीफ़ का भारतीय उच्चायोग की इफ़्तार पार्टी में शामिल होना। पाकिस्तान में इफ़्तार पार्टी हुई और आई.एस.आई का मुखिया भी शामिल हुआ। कहा गया कि दोनों देशों में सम्बन्ध सुधारे जा रहे हैं। एक तरफ़ परमाणु मिसाइलों की तैयारी और मुम्बई में हुए हमले में ढुलमुल रवैया ऊपर से हमारी सरकार पाकिस्तान के साथ "सम्बन्ध" सुधारने लग रही है। ये क्या तरीका हुआ भई!! यहाँ तो पाकिस्तान का नहीं बल्कि हिन्दुस्तान का रवैया ढुलमुल लग रहा है। हमारा "महान" मीडिया और विपक्ष तो पड़ोसी के "गड़े मुर्दे" उखाड़ने में लगा हुआ है। इसीलिये हमें ही ये खबरें सामने लानी पड़ रही हैं।
तपन शर्मा
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5 बैठकबाजों का कहना है :
आज के जागरूक आलेख में पाँच अनुच्छेदों में पाँचों मुद्दे हमारे देश की वर्तमान गम्भीर दशा को दर्शाते हैं .सरकार कब जागेगी ? ,कब आक्रमक नीति अपनाएगी ? जटिल समस्या को समाधान समय पर मिलना चाहिए .
तपन जी आपके आलेख की एक खूबी यह होती है की आप काफी रिसर्च के बाद लिखते हैं (जहाँ तक मुझे लगता है और शायद मैं ठीक हूँ.). आपने अपने इस आलेख में भी बहुत गंभीर मुद्दों को बयां किया है.
लीजिए आपकी आलेख पर एक कविता याद आ गई.
आस-पास
दौड़ती-सी
एक-जैसी
दूरियां हैं
कैसे हम
कहीं पर
मिलेंगे
किसी बड़े मुद्दे पर
जरा सहमति नहीं
कोई भी
बिंदु नहीं
केंद्र
कान की चर्चा में
नाक को
पकड़ते हैं
नाक की चर्चा में
नेत्र
अपनी-अपनी
क्यारियों के
मौसमी गुलाब हम
कैसे
सदा एक-सा
खिलेंगे
वार्त्ता में कोई
निष्कर्ष
निकलता नहीं
कर्त्ता हैं
कई-कई
भूलों के
जाले-जैसा
बुनते हैं
सारे मसलों को
हम, अहं में
पलते उसूलों के
देश की समस्याओं की
चिंता
बस भाषणों में
कैसे
समाधान हम करेंगे
या तो
किसी मीटिंग में
धर्म घुस आता है
या तो
किसी समिति में
वाद
किसी-किसी बैठक को
साम्प्रदायिकता उठाती
किसी-किसी को
आतंकवाद
नियम और नीतियों को
एक-दूसरा
असह्य
कैसे हम एकता करेंगे
ऐसे एक-दूसरे को
कोसते रहे जो यदि
कैसे
कोई
वायदा
निभेगा
सुविधा की
पालकी में
सो के जननायको
यूं
कैसे कोई
कायदा
सधेगा
एक-एक
हिस्सा
अंग-अंग
इस देश का
यह पूछता है
तुमसे ओ वारिसो !
अपने ही
सुर में अकेले
हो के
गाओगे
तो कैसे
शेष सुरों में
ढलेंगे
शामिख भाई, चीन की करतूतों को तो मैंने नेट पर ढूँढा ही था.. जैसे श्रीलंका के बन्दरगाह के बारे में। और पाकिस्तान में इफ़्तार पार्टी के बारे में अखबार के बीच में किसी पन्ने पर लिखा था...
कुछ तो गड़बड़ है ही भाई। मुझे राजनेताओं या किसी धर्म से शिकायत नहीं.. बल्कि मीडिया से शिकायत रहती है। सारी फ़साद की जड़ ये मीडिया जो ढंग से खबर नहीं दिखाता और काफ़ी बार बात का बतंगड़ बना देता। कहावत है न तिल का ताड़ बना देना। नारद का काम ये लोग करते हैं..किसी के मुँह से कुछ उगलवायेंगे और दूसरे को सुनवायेंगे...
मेरे मीडिया मित्र मुझे माफ़ करें.. पर यह सच है..
तपन जी,
ऐसे मुद्दों पर आप कितनी गंभीरता से सोचते हैं और दिल में इसकी तपन महसूस करते हैं यह तारीफे-काबिल है. काश सरकार भी ऐसी ही होती.....लेकिन जिस प्रशाशन के हाथ में इन मुद्दों पर तवज्जो देने की जिम्मेदारी है वह तो देख और सुन कर भी निश्चिंत हैं. मीडिया अलग असलियत के बारे में आवाज़ नहीं उठाती. सरकार बहरी नहीं है बल्कि कानो में रुई लगाकर बैठी है और जो हो रहा है उसे होने देती है. पर क्यों? क्या होगा देश का? चीन कितना चंट, चालाक, चुस्त और चालबाज रहा है, कौन नहीं जानता? कब इन समस्याओं की सुधि ली जायेगी? यह सवाल शायद सबके दिमाग में गूँज कर सर पटकते हैं और फिर वहीँ दम तोड़ देते हैं. बस यही होता रहा है और चीन धीरे-धीरे नोचता जा रहा है इधर-उधर से.
और भी तमाम बाते जो देश में हो रही हैं उन्हें होने दिया जा रहा है. उम्मीद क्या करनी चाहिए और हो कुछ और जाता है.
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