फिल्म चर्चा
गुमराह जो सन 1963 में आई थी, बी आर चोपड़ा की बेहतरीन फिल्मों में से एक है, और उनकी अन्य फिल्मों की तरह इसमें भी एक सामाजिक मुद्दे को उठाया गया था। फिल्म शुरू होती है रामायण के एक दृश्य से जिसमें रावण राम की कुटिया के सामने भिक्षा माँगने आता है। जब लक्ष्मन राम की पुकार सुन कर जंगल में गये हैं और सीता की सुरक्षा के लिये लक्षमण रेखा खींच कर गए हैं। सीता रावण की बातों में आकर उसे पार कर लेती हैं और रावण उनका अपहरण कर लेता है। बस यही फिल्म की थीम है। एक स्त्री के अपनी मर्यादा को लांघने का और उससे उपजी परिस्थितियों का।
मीना (माला सिन्हा) और कमला (निरुपा रॉय) नैनीताल के एक व्यापारी की दो बेटियाँ हैं। मीना राजेंद्र (सुनील दत्त) से प्रेम करती है जो कि एक चित्रकार और गायक है। कमला शादीशुदा है और उसके पति अशोक (अशोक कुमार) बंबई में एक वकील हैं। कमला के दो बच्चे हैं जो अपनी मौसी से बहुत प्रेम करते हैं। कमला अपने तीसरे बच्चे के प्रसव के लिये नैनीताल आती है जब उसे मीना के प्रेम प्रसंग के बारे में पता चलता है और वो उसकी और राजेंद्र की शादी की बात अपने पिता के सामने रखने की हामी भरती है लेकिन उससे पहले ही बच्चे को जन्म देते समय उसकी मौत हो जाती है। अशोक को गहरा सदमा लगता है। मीना के पिता कमला के बच्चों के लिये चिंतित हैं कि उन्हें माँ की ज़रूरत है और अगर उनकी सौतेली माँ आई तो पता नहीं उनके साथ कैसा व्यवहार करे। इसी सोच के चलते वे मीना को अशोक से शादी करने के लिये राजी कर लेते हैं क्योंकि बच्चे मीना को माँ की तरह मानते हैं। मीना अपने प्रेम की कुर्बानी देकर अशोक से शादी कर लेती है और बंबई चली जाती है। कुछ दिनों बाद अचानक उसे राजेंद्र वहाँ मिल जाता है जिसकी एक गायक के रूप में अशोक से भी जान-पहचान हो जाती है। राजेंद्र मीना के घर आने-जाने लगता है और इस तरह उनका छुप-छुप कर मिलना फिर शुरू हो जाता है। मीना का मन उसके काबू में नहीं रहता और मना करते-करते भी वो उससे नियमित रूप से मिलने लगती है। एक दिन अचानक मीना के राजेंद्र से मिलकर लौटते हुए एक औरत लीला (शशिकला) पकड़ लेती है जो खुद को राजेंद्र की पत्नी बताती है, लीला उसे ब्लैकमेल करने लगती है। मीना राजेंद्र के प्रेम और लीला के डर के बीच बुरी तरह फंस जाती है। इधर अशोक के सामने भी वो घबराई सी रहती है। अंत में भेद खुलता है, इसमें एक रहस्य है जो मैं उजागर नहीं करूँगा वरना आपका फिल्म देखने का मज़ा कम हो जायेगा। मीना को अंत में अपने कर्तव्य का अहसास होता है और वो राजेंद्र से संबंध तोड़ लेती है।
फिल्म एक संवेदनशील कहानी को बहुत प्रभावी तरीके से कहती है। फिल्म का प्रवाह औरर घटनाक्रम मानवीय भावनाओं पर निर्देशक की मजबूत पकड़ दर्शाता है। कैसे इंसान अपनी भावनाओं के प्रवाह में कमज़ोर बनकर अपने कर्तव्य की अनदेखी करता है। फिल्म एक शादीशुदा औरत के मन की उलझन को रेशा-रेशा दिखाती है जहां वह अपने प्रेमी के लिये अपनी भावनाओं और अपने प्रति के लिये अपने कर्तव्य के बीच फंसी हुई है। आज के युग में ये फिल्म और भी प्रासंगिक है जब मन ही सब कुछ है और मन के कहने पर इन्सान कुछ भी करने में संकोच नहीं करता है। अपने लिए कोई कठोर निर्णय लेना आज के समय में लोगों के लिए असंभव लगता है फिल्म का एक संवाद थोड़े से शब्दों मे बहुत बड़ा फलसफा बयान कर देता है जो अशोक मीना के बारे में पता चलने पर कहता है, मुझे पूरी तरह तो याद नहीं लेकिन उसका आशय कुछ यूँ था कि- “औरत ही घर बनाती है और घर से ही समाज बनता है, अगर औरत गलत रास्ते पर जाती है तो पूरा समाज भटक सकता है“। अशोक का पात्र बहुत ही समझदार दिखाया है जो अपनी पत्नी के बारे में पता चलने पर सीधे उससे झगड़ा नहीं करता बल्कि बहुत ही समझदारी से उसे सही रास्ते पर लाने की कोशिश करता है और अंत में भी उसे छूट देता है कि वो चाहे तो उसे छोड़कर जा सकती है।
निर्देशक के तौर पर बी आर चोपड़ा साहब को सलाम करना चाहिये। मैं उनका जबर्दस्त प्रसंशक बन गया हूँ। अशोक कुमार के बारे में तो मैं पहले भी कुछ नहीं कह पाया था, उनका अभिनय टिप्पणियों के परे है। वे महानतम हैं। माला सिन्हा उस ज़माने की ओवरएक्टिंग क्वीन थीं लेकिन इस फिल्म में शादी के बाद का हिस्सा उन्होंने बखूबी निभाया है। शादी के पहले बच्चों के साथ उनकी मस्ती कोफ्त पैदा करती है। इस रोल के लिये चोपड़ा साहब की पहली पसंद मीना कुमारी थी लेकिन किसी वजह से बात नहीं बनी। सुनील दत्त का मै बचपन से प्रसंशक हूँ लेकिन इस फिल्म में वे असहज लगे। शायद उनका व्यक्तित्व ऐसे कमज़ोर चरित्र के लिये उपयुक्त नहीं है, वे एक दबंग व्यक्तित्व के स्वामी थे। फिल्म का एक और मजबूत पक्ष संगीतकार रवि का मधुर संगीत है। चलो इक बार फिर से, आजा आजा जैसे मीठे गीत फिल्म देखने का मज़ा दोगुना कर देते हैं। बी आर चोपड़ा ने अपनी का संगीत हमेशा रवि से तैयार करवाया है और रवि ने हमेशा उन्हें अपना बेहतरीन दिया है।
फिल्म 5 में से 5 अंक पाने की हक़दार है।
--अनिरुद्ध शर्मा
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6 बैठकबाजों का कहना है :
आज का फ़िल्मी आलेख जीवन की हकीकत बताता है . घर को स्वर्ग -नर्क बनाना नारी के हाथ में होता है .मैं तो इसे
४/५ अंक दूंगी .बधाई .
यह फिल्म मैने भी देखी है.सभी का अभिनय काबिले तारीफ है.
कहानी तो अच्छी है ही.
फिल्म तो मैंने नहीं देखि लेकिन जैसी कहानी है उससे देखने को मन करता है. कहानी का आधार बहुत ही बढ़िया है कर्त्तव्य और प्रेम में से किसी एक को चुनना है.मैं इसे ४/५/५ दूंगा.
आपकी इस फिल्म समीक्षा को पढ़कर मुझे एक अंग्रेजी लेखक की कहानी "After twenty yer
ars" याद आ गई. वो भी दो दोस्तों के बीच कुछ कुछ इसी आधार पर है लेकिन उसमे प्रेम सीधे तौर पर प्रेम न होकर दोस्ती को प्रेम कह सकते हैं. शायद O' Henry की कहानी है.
जी हाँ शामिखजी, विषय तो बढ़िया है ही उसका प्रस्तुतीकरण बहुत ही बढ़िया है.
आप सभी की टिप्पणियों के लिए धन्यवाद्,
मैं खुद टिप्पणी ना कर पाने के लिए माफी चाहता हूँ, अभी मैं ज्यादा समय नहीं निकाल पाता हूँ, बस जल्दी में देख ही पाता हूँ.
इस फिल्मकार की सभी कृतियां लाजवाब और चिर स्मरणीय हैं । धारावाहिक महाभारत की भी कृपया विस्तार से समीक्षा प्रकाशित की जाय । इसमें नितीश भारद्वाज से कृष्ण की भूमिका में युदधभूमि पर अर्जुन के समक्ष बुलवाये गये संवाद व उस स्थिति का चित्रण अभूतपूर्व ही नहीं शायद आगे होगा भी या नहीं कह नहीं सकते । जिस व्यक्ति को गीता कठिन लगती है वह उस एपिसोड को देख कर उसकी महत्ता व सार्वकालिकता की सहज अनुभूति कर सकता है । बहरहाल आपने जिस चित्र का उल्लेख किया है वह निश्चय ही आपकी समीक्षा पर खरा उतरता है।
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