वे थे तो चार ही सरकारी बंदे पर अब चालीस पर भी भारी पड़ने लगे थे। आधे घंटे तक लगातार खाते रहने के बाद उनमें से एक ने बड़े रौब से दूसरे के पेट पर हाथ फेरते मुझसे पूछा,`जानते हो यहां हम लोग किसलिए आए हैं´
`मुहल्ले वालों को खाने के लिए।´ कहना तो चाहता था पर न जाने क्या सोचकर क्यों चुप रहा।
`असल में हम लोग यहां पर एक पुनर्वास की योजना लेकर सर्वे करने आए हैं।´ दूसरे ने जुगाली करते चौथी बार खाली होती थाली को घूरते कहा तो मुहल्ले के चार पांच जो वहां पर उपस्थित थे उन्हें लगा कि आज उनका खिलाना सार्थक हुआ। वरना आज तक तो पेट को मार-मार कर खिलाते ही रहे और नतीजा.... वहीं ढाक के तीन पात। मुझे भी लगा कि ऊपर वाले ने शायद मेरी मुफ्त की आवाज सुन ली। अब भगवान ने चाहा तो कम से कम मरूंगा तो अपने घर में। वरना आज तक अपनी तीन पीढ़ियों के सोलह संस्कार तो किराए के कमरों में ही हुए। जब भी कोई सस्ता सा पंडित हमारे यहां कोई संस्कार करवाने आता है तो उसके मंत्रों से अधिक जोर से मकान मालिक की पों पों गूंजती है। भगवान से तब मैंने पचासों बार तहेदिल से मन्नत की कि हे भगवान! अगर हमारे पास एक अपना कमरा और रसोई हो जाए तो उसका नाम आपके नाम पर ईश्वर सदन ही रखूं। पर अपने नाम पर अपने पास गुसलखाना भी नहीं हुआ। भगवान ने नहीं सुनी तो नहीं सुनी। हर बार वहां से एक ही बात लौट कर आई कि,`मुफ्त की सभी लाइनें व्यस्त हैं। कृपया थोड़ी देर बाद संपर्क करें। ´ पत्नी ने कई बार कहा भी कि मन्नत में सवा पांच का बांध ही रख लो। हो सकता है नंबर मिल ही जाए। पर साहब , अब क्या रिश्वत एक और केवल एक रास्ता भगवान के पास जाने का है तो रिश्वत के बगैर क्या बचा है। अब लो, वह भी बंद। सच्ची को, अब तो ऊपर वाला भी उस्ताद हो गया है। लगता है उसे भी अब जमाने की हवा लग गई। भारी भरकम जेब वालों की गलत फरियादें तक बिन कहे भी सुनता है। और हम जैसों के गले सूख जाते हैं उसे आवाज देते देते। भारी जेब के आगे कौन नहीं झुकता साहब. भरी जेब में बहुत शक्ति होती है। भगवान से भी कई गुणा अधिक। पैसा बड़ों बड़ों की आंखें फोड़ देता है। तभी तो वह भी उनकी ही कान लगाए सुनता है जिनके पास मन नहीं, भरी हुई जेब हो। झूठ बोल रहा होऊं तो फटी जेब, भरे मन से भगवान को बुला कर देख लो, उनका आना तो दूर किसी मंदिर में उनके दर्शन करने जाकर पंक्ति में खड़े होकर ही देख लीजिए। नोट वालों के तो वे दर्शन करने अंदर से दौडे़ चले आते हैं नंगे पांव। और हम जैसों को पुजारी के माध्यम से भी नहीं खुद ही उनकी ओर से पुजारी गुस्से में कहता है कि अभी भगवान सो रहे हैं। अगर हम जैसे हिम्मत कर पूछ ही बैठें कि कब जैसे जागेंगे तो आग बबूला होकर कहता है,` गरीबों से बहला फुसला कर उनके वोट ले सरकार बन खाने वाले ही जब नहीं जागते तो वे क्यों जागें´
`क्या वे सरकार से बड़े होते हैं" कुछ कहने के बदले पुजारी गालियां देता भगवान के पास जा बैठता है।
`काहे का सर्वे करने आए हैं माई-बाप, गरीबी का या गरीबों का´
` गरीबी और गरीबों का सर्वे बहुत हो लिया यार! सरकार को सर्वे करते करते शर्म आ गई पर न तो गरीबों को शर्म आई और न ही गरीबी को।´
`तो´
हम सर्वे करने आए हैं कि तुम्हारे मुहल्ले में कितने कुत्ते, बिल्लियां, उल्लू , गीदड़ आदि हैं। सरकार उनके पुनर्वास के लिए वचनबद्ध है।` कह वह प्लेट में से मुट्ठा भर भूनी मूंगफली उठाने के बाद भैंसा हुआ। दूसरा जेब से माचिस की तिल्ली निकाल अपने सड़े दांत कुरेदता रहा। मैं कुछ कहता इससे पहले मुहल्ले के सबसे आदरणीय ने दोनों हाथ जोड़कर कहा,` साहब! हम कुत्ते ही हैं। दिन रात भौंकते रहते हैं। पर चोर हैं कि अपनी सी कर ही लेता है। हम बिल्लियां ही हैं। दिन रात रोटी के लिए लड़ते रहते हैं। पर किसी के हिस्से रोटी को कौर तक नहीं आता। हजू़र! हम गीदड़ ही हैं। सबके खाने के बाद जो जूठन बचती है, उसी पर बरसों से जी रहे हैं। सरकार, हम ही उल्लू हैं। दिन में तो कुछ दिखता नहीं, ‘शायद रात में ही कुछ दिख जाए। इसलिए रात रात भर पैदा होने के बाद से आज तक जाग रहे हैं। क्या सरकार हमें सच्ची को बसाने की सोच रही है´
` हद है यार! ये हम किस मुहल्ले में आ गए.. यहां कोई आदमी भी है क्या´ और वे तयशुदा सर्वे किए बिना ही वहां से चले गए।
हिंदी के साथ कुछ क्षण-
हिंदी हिंदी दिवस आयोजन से एकबार फिर आहत हो अपने लोक लौट रही थी कि अचानक मिल गई। मैंने दौड़ते दौड़ते उससे पूछा,`फिर कैसा रहा हमारा श्राद्ध´
`देसी बरतनों में अंग्रेजी पकवान अच्छे लगे। और वे तुम्हारे इस लोक में पैदा होने के बाद भी अज्ञात रहने वाले हिंदी प्रेमी सचमुच कमाल के थे। अब तो मेरी समीक्षा करते हुए समीक्षक अपना नाम भी छुपाने लगे हैं। वे खाते तो हिंदी हैं पर कै अंग्रेजी में करते हैं। वे मेरे लिए हाय आदरणीय हैं जो आज के दौर में जब कि आदमी नाम के लिए मर रहा है और एक वे हैं कि नाम छुपा साहित्य की समझ तो भूले ही हैं मेरी समझ भी भूले जा रहे हैं। मुझमें किसीकी प्रशंसा करने में वह दम कहां जो अंग्रेजी में हैं। ज्ञात होने के मारधाड़ी दौर में अज्ञातों को मेरा ‘शत-शत नमन!
अशोक गौतम
गौतम निवास,अप्पर सेरी रोड,
नजदीक मेन वाटर टैंक सोलन-173212 हि0प्र0
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6 बैठकबाजों का कहना है :
देश में सिर्फ जानवर बचे हैं...
क्योंकि जानवर इन्सान हो गये हैं।
सुन्दर आलेख तीखे व्यंग्य के साथ !
Ekdam sahi charo taraf bhukhe hokar
ghum rahe hai..jaanwar..badhayi badhiya vyang
मानव बनाम जानवर बना हुआ है आज इंसान .आलेख ने इंसान पर तीखा व्यंग्य कसा है आज इंसान वास्तव में कुत्ता ,बिल्ली, उल्लू आदि ही बना हुआ है .सर्वे मजेदार लगा .
सही कटाक्ष...
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