अनुभूति दिनकर के काव्य का केन्द्रीय तत्व है। अनुभूति की स्वच्छ अभिव्यक्ति के लिये वे कलाकारिता की भी उपेक्षा कर देते हैं। वास्तव में अनुभूति की तीव्रता और काव्य में उसके प्राथमिक महत्व को स्वच्छन्दतावादी काव्य में ही पुनर्प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। हिन्दी में छायावादी कवियों के काव्य में भी अनुभूति की यह विशिष्टता सन्निहित है किन्तु रहस्यमयता के घनावरण के कारण वहाँ अनुभूति को अभिव्यक्ति की स्वच्छंदता नहीं मिल पायी।
वस्तुत: कवि की आंतरिक भावना ही उसके काव्य में अभिव्यक्ति को प्राप्त करती है। इस कवि के काव्य के सबंध में भी यही बात सत्य है। एक ओर तो इनकी कविताओं में प्रेम-जनित भावपूर्ण अनुभूतियों का गहरा वेग है जिसमें उनकी मधुर-कोमल भावनाओं ने अनायास ही कल्पनामय अभिव्यक्ति को प्राप्त किया है तो दूसरी ओर दासता से मुक्ति का विद्रोही स्वर और सामाजिक कुरीतियों-विषमताओं के विरोध का कड़ा तेवर जो उनके व्यक्तित्व में व्याप्त स्वातन्त्र्य-भावना की अदम्य लालसा की ओर इंगित करता है। स्वातन्त्र्य-भावना के अंतर्गत देश की पराधीनता से विक्षुब्ध हमारे कवि ने आग्नेय भावों से समन्वित जिन कविताओं की रचना की है, वे किसी भी पराधीन देश के युवकों के रक्त को आलोड़ित-विलोड़ित कर देने में समर्थ है।वैसे तो सभी स्वच्छन्दतावादी कवियों के यहाँ स्वातन्त्र्य-भावना साहित्य का प्रमुख तत्व है किन्तु दिनकर के काव्य में इसका फैलाव राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक, व्यैक्तिक, साहित्यिक यानी हर स्तर पर देखा-परखा जा सकता है। ‘रेणुका’, ‘हुंकार’, ‘रसवंती’ से ‘कुरुक्षेत्र’,”सामधेनी’ ,”इतिहास के आँसू’ होते हुए ‘धूप और धुँआ’, ‘रश्मिरथी’, ‘नीम के पत्ते’, ‘नील कुसुम’ और फिर ‘नये सुभाषित’, ‘उर्वशी’ और ‘परशुराम की प्रतीक्षा’ तक - सभी काव्य-कृतियों में किसी -न- किसी रूप में स्वाधीनता की पुकार सुनायी देती है। यहाँ सिर्फ़ राजनीतिक जागरण की ही बातें हैं, स्वतन्त्रता की व्यापक अर्थ में अभिव्यक्ति हुई है। वर्ण-जाति के बंधनों की स्वतन्त्रता से लेकर सामान्य जनता के शोषण के विरुद्ध भी आवाज़ उठाते हुए उन्होंने आज़ादी का नगाड़ा बजाया है।
धार्मिक भाग्यवाद का तिरस्कार करते हुए कर्मवाद के महत्व की प्रतिष्ठा की है। धर्मस्थानों में पूँजी की बढ़ती हुई प्रभूता को देखकर उन्होंने इसकी तीव्र भर्त्सना की भी की है। कवि की यह स्वातंत्र्य-भावना साहित्य में भी सैद्धांतिक और व्यावहारिक दोनों स्तरों पर प्रतिफलित होती दिखाई देती है।
अनुभूति दिनकर के काव्य का केन्द्रीय तत्व है। अनुभूति की स्वच्छ अभिव्यक्ति के लिये वे कलाकारिता की भी उपेक्षा कर देते हैं। वास्तव में अनुभूति की तीव्रता और काव्य में उसके प्राथमिक महत्व को स्वच्छन्दतावादी काव्य में ही पुनर्प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। हिन्दी में छायावादी कवियों के काव्य में भी अनुभूति की यह विशिष्टता सन्निहित है किन्तु रहस्यमयता के घनावरण के कारण वहाँ अनुभूति को अभिव्यक्ति की स्वच्छंदता नहीं मिल पायी। दुर्दिन से दु:खी होकर अधिकांश छायावादी कवि गहनता से अंतर्मुखी होकर रोमांसवाद की पलायनवादी प्रेरणाओं से एकात्म हो रहे थे। जबकि दिनकर के काव्य में ऐसे स्थल अपवादस्वरुप ही मिलेंगे जिनमें भावों की धूमिलता अथवा अस्पष्टता हो अन्यथा सर्वत्र ही उनके काव्य में अनुभूति की स्वच्छंद अभिव्यक्ति का ही गुण विद्यमान है। उनकी अनुभूति में स्वच्छन्दतावादी कवियों के समान ही अन्तर्मुखता. भावातिरेकपन और सहज अभिव्यक्ति अदि गुण विद्यमान हैं तथा अनुभूति की सीमा है - ओज, प्रेम, नारी,प्रकृति और ग्राम्य जीवन की सुरम्य एवं कोमल अनुभूतियों का वर्णन।
दिनकर की विशेषता इस बात में है कि वे परिवेश और समय की धड़कन को चक्षु:श्रवा के समान अनुभव करते हुए अपनी अनुभूतियों को सर्वजनीन और उसका सामाजिकीकरण कर देते हैं। यह सामाजिकीकरण यहाँ कोई सायास यत्न नहीं होता वरन इसके पीछे कवि की वह संवेदना है जो स्वानुभूति की व्यैक्तिक सीमा को लाँघकर उसे राष्ट्र की विशद अनुभूति में बदल देती है। ‘हुंकार’ ‘और ‘परशुराम’ की प्रतीक्षा’ जैसी ओजस्विनी कृतियाँ इसकी प्रमाण हैं, देखिये-
देवि, कितना कटु सेवा-धर्म।
न अनुचर को निज पर अधिकार।
न छिपकर भी कर पाता हाय,
तड़पते अरमानों का प्यार।
फेंकता हूँ, लो तोड़-मरोड़
अरी निष्ठूरे! बीन के तार,
उठा चाँदी का उज्ज्वल शंख
फूंकता हूँ भैरव-हुंकार। [‘हुंकार’ से]
इस प्रकार कवि का समग्र व्यक्तित्व समाज के अधीन हो गया। उसने अपना हृदय सामाजिक और राष्ट्रीय भावनाओं को समर्पित कर दिया।
दिनकर के काव्य में अनुभूति को रमणीय रूप प्रदान करने में कल्पना का विशेष योग रहा है। वे कल्पना को किसी भी स्वच्छन्दवादी कवि से कुछ कदम आगे बढ़कर ही महत्व प्रदान करते हैं। स्पष्ट रूप से अपनी कल्पना विषयक धारणा को व्यक्त करते हुए उन्होंने इसे व्यक्ति-मात्र का अनिवार्य गुण बताया है। वे मानते हैं कि कल्पना की सहायता से विश्व को एक सूत्र में आबद्ध किया जा सकता है।
कविता के नये माध्यम यानी नये ढाँचे और नये छंद कविता की नवीनता के प्रमाण होते हैं। उनसे युगमानस की जड़ता टूटती है, उनसे यह आभास मिलता है कि काव्याकाश में नया नक्षत्र उदित हो रहा है। जब कविता पुराने छंदों की भूमि से नये छंदों के भीतर पाँव धरती है, तभी यह अनुभूति जगने लगती है कि कविता वहीं तक सीमित नहीं है जहाँ तक हम उसे समझते आये हैं बल्कि और भी नयी भूमियाँ है जहाँ कवि के चरण पर सकते हैं। नये छंदों से नयी भावदशा पकड़ी जाती है। नये छंदों से नयी आयु प्राप्त होती है
कल्पना की संश्लेषणात्मक, अन्तर्वर्तनी और परिष्कारक आदि विभिन्न शक्तियों का उनके काव्य में अप्रतिम योग रहा है। कल्पना विषयक अपने विचारों में इन तीनों शक्तियों का नाम-भेद से महत्व भी स्वीकार किया है। कल्पना की इन शक्तियों ने स्मृति, मानवीकरण आदि का आधार ग्रहणकर उनके काव्य को संपुष्ट किया है तथा नारी, प्रकृति, राष्ट्र, मानव-महामानव एवं ईश्वर आदि विषयों को अपना संचरण-क्षेत्र बनाया है। नारी और प्रकृति को उनके काव्य में ओजस्वी भावों के समान ही कल्पनामय अभिव्यक्ति मिली है। दिनकर जी की कल्पना की समृद्धि की विशेषता यह है कि वह किसी भी प्रकार की संकीर्णता में आबद्ध नहीं रही है और उन्मुक्त रूप से ऐतिहासिक, पौराणिक, सामाजिक, प्राकृतिक और साहित्यिक क्षेत्रों से विषयानुकूल तत्व प्राप्तकर उसने श्रेष्टता के चरम शिखर का स्पर्श किया है। यही कारण है कि उनके काव्य में अभिव्यक्त अनुभू्तियों में कहीं भी अस्पष्टता और धूमिलता नहीं आ पायी है बल्कि सहज-सम्प्रेषणीय ही बनी है। अतएव स्वच्छन्दतावादी कवियों में काव्य में कल्पना के महत्व की प्रतिष्ठा देने वालों में दिनकर अग्रगण्य हैं। यूँ कहें कि कल्पना ने दिनकर के काव्य को नव्यता और भव्यता प्रदान करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी!यद्यपि दिनकर की ओजस्वी कविताओं की प्रसिद्धि साहित्य-जगत ही नहीं, बल्कि देश-भर में है और ‘उर्वशी’ के रचनाकार के रूप में भी उनके सुविज्ञ पाठक उनको जानते हैं, तथापि इन दोनों -ओज और शृंगारिक- भावधाराओं के साथ-साथ उनके काव्य की एक अन्य उल्लेखनीय विशेषता काव्य में प्रकृति के विविध सुरम्य रूपों की समाहिति है। विषय चाहे ओजस्वी भावनाओं का रहा हो अथवा शृंगार का, सर्वत्र ही प्रकृति किसी- न- किसी रूप में उनके काव्य की सहचरी बनकर आयी है। यदि यह कहा जाय कि प्रकृति उनके काव्य का एक प्रमुख अभिलक्षण है तो अत्युक्ति न होगी! इस कथन का प्रमाण उनकी प्रत्येक काव्य-कृति में मूर्तिमान है। उन्होंने प्रकृति को अपने से ही नहीं, मानव-मात्र से भी अभिन्न माना है।
जहाँ तक शिल्प का प्रश्न है, अपनी आंतरिक प्रकृति के अनुकूल शिल्प के परम्परागत बंधन को वे स्वीकार नहीं करते। सायास छंद-योजना की अपेक्षा भावानुकूल छंद-योजना दिनकर को प्रिय है। इसी कारण परम्परा-प्राप्त छंदोम के स्थान पर नये छंदों के निमार्ण की आवश्यकता पर बल देते हुए वे लिखते हैं कि-
“अब वे ही छंद कवियों के भीतर से नवीन अनुभूतियों को बाहर निकाल सकेंगे जिसमें संगीत कम, सुस्थिरता अधिक होगी,जो उड़ान की अपेक्षा चिन्तन के उपयुक्त होंगे।क्योंकि हमारी मनोदशाएँ परिवर्तित हो रही हैं और इन मनोदशाओं की अभिव्यक्ति वे छंद नहीं कर सकेंगे जो पहले से चले आ रहे हैं।”
क्योंकि वे मानते हैं कि-
“कविता के नये माध्यम यानी नये ढाँचे और नये छंद कविता की नवीनता के प्रमाण होते हैं। उनसे युगमानस की जड़ता टूटती है, उनसे यह आभास मिलता है कि काव्याकाश में नया नक्षत्र उदित हो रहा है। जब कविता पुराने छंदों की भूमि से नये छंदों के भीतर पाँव धरती है, तभी यह अनुभूति जगने लगती है कि कविता वहीं तक सीमित नहीं है जहाँ तक हम उसे समझते आये हैं बल्कि और भी नयी भूमियाँ है जहाँ कवि के चरण पर सकते हैं। नये छंदों से नयी भावदशा पकड़ी जाती है। नये छंदों से नयी आयु प्राप्त होती है।”
भाषा और शब्द-चयन पर भी उनके यही विचार हैं। उन्होंने अपनी भाषा को समर्थ बनाने के लिये जहां एक ओर तत्सम, तद्भव, देशज और प्रान्तीय शब्दों का भावानुकूल चयन किया वहाँ दूसरी ओर प्रचलित विदेशी शब्दों का प्रयोग भी निर्बाध रूप में किया है। उनकी काव्य-भाषा में शब्द-शक्ति, उक्ति-वैचित्र्य तथा परम्परागत एवं नये मुहावरों और लोकोक्तियों के प्रयोग से वह तीखापन आ गया है जो किसी श्रेष्ठ काव्य-भाषा का गुण हो सकता है।
शिल्प के सबंध में, इस तरह निश्चय ही दिनकर ने पूर्ण स्वच्छन्दता का प्रयोग किया है। बदलते युग-बोध और परिवर्तित काव्य-विषयों की सहज अभिव्यक्ति के लिये उन्होंने नये छंद का निर्माण भी किया जो ‘दिनकर-छंद’ के नाम से सुविख्यात है जैसे कि उनकी कविता ‘कस्मै देवाय’ में। अत: दिनकर को साहित्य के आभिजात्य से मुक्ति की परम्परा की एक प्रमुख कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिये। एक अर्थ में उन्होंने अपने समय को तो शब्द दिये ही, आने वाले समय की कविता के लिये व्यापक पृष्ठभूमि भी रची। कहीं परम्परा का तत्व ग्रहण भी किया तो उसे नया बनाकर। छन्दों के समान ही उनके काव्य में प्रयुक्त रूप-विधाओं के नवीन प्रयोग भी इसी ओर संकेत करते हैं।
अगर मैं अपने विचार का उपसंहार करना चाहूँ तो कहना पड़ेगा कि पश्चिमी और भारतीय मनीषीयों ने स्वच्छन्दतावाद के जो निष्कर्ष हमारे सामने रखे हैं वे हैं- स्वातंत्र्य-भावना, अनुभूति, कल्पना, प्रकृति-चित्रण और शिल्पगत स्वतंत्रता की प्रधानता का होना। ...और इन निकषों पर दिनकर का काव्य स्वच्छन्दतावादी काव्यधारा की संपूर्ण विशेषताओं से समन्वित-परिलक्षित होता है।
अत: स्वच्छन्दतावादी काव्यधारा के श्रेष्ठ कवि के रूप में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का आकलन निर्विवाद और असंदिग्ध होगा।
-सुशील कुमार (लेखक हिन्दी के सुपरिचित कवि है)
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5 बैठकबाजों का कहना है :
बिल्कुल सही कहा आपने..
मैने इनके काव्य में एक अलग की आकर्षण देखी है...बहुत बढ़िया .लेख..
रामधारी सिंह 'दिनकर' जी की जन्म शताब्दी पर प्रभावशाली आलेख पढ़ने को मिला . जिसमें स्वच्छन्द भावनाओं का प्रखर आशावाद और उनका गरिमामय , प्रेरणादायी व्यक्तित्व का पता लगा . उनकी कविता है -लोहे के पेड़ हरे होंगे ,तू गान प्रेम का गाता चल .....आभार
सुन्दर आलेख
महत्वपूर्ण योगदान देने वाले कवियों को यह एक सच्ची श्रद्धान्जलि है.
दिमkक्र जी ज्ैसे महान साहित्यकार के बारे मे विस्तार से जानकारी बहुत अच्छी लगी उनको नमन श्रद्धाँजली
दिनकर जीके बारे में बहुत ही ज्यादा और अच्छी जानकारी मिली. सुशील जी आपको आलेख के लिए मुबारकबाद.
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