Tuesday, September 15, 2009

शरीर का अंग बन गया है मोबाइल...

शन्नो अग्रवाल उत्तर प्रदेश के पीलीभीत जिले से ताल्लुक रखती हैं। 1969 में एम.ए. की पढ़ाई खत्म होते ही शादी हुई और सात समंदर पार लंदन जा बसीं। पति कंप्यूटर के क्षेत्र में नौकरीपेशा थे तो इन्होंने घर-गृहस्थी संभाल ली....बच्चों की परवरिश करने में शन्नो अपने सभी शौक भूल चुकी थीं...हिंदयुग्म से जुड़ने पर कविता-कहानी के इनके पुराने शौक वक्त मांगने लगे...अब चूंकि इनके बच्चे भी गृहस्थी बसा चुके हैं तो ब्लॉगिंग के ज़रिए इन्हें कहने-सुनने की फुर्सत मिल गई है...बैठक पर सात समंदर पार से इनका ये पहले लेख है...

मुझे भी बच्चों ने जिद करके खरीद कर दे ही दिया, हाँलाकि मुझे कभी इसकी जरूरत महसूस नहीं हुई किन्तु बच्चों की जिद के आगे सर झुका दिया क्योंकि यदि बाहर हुई और उन्हें नहीं पता कि कहाँ हूँ तो उनको बड़ी चिंता हो जाती थी. अब कम से कम पता लग जाता है कि मैं कहाँ हूँ. चलो कोई बात नहीं, मिस्ड काल मारो तो बिल बच्चे ही तो भरते है। ऐसी ही हिदायत दी गयी थी. खैर अपने को तो खुराफाती बातें करना नहीं आता सो कभी - कभी की बात रही.

जी हाँ, सारी दुनिया में ही जिसकी इतनी महिमा है और जिसके बिना अब किसी भी घर में चाहें वह देश हो या विदेश लोगों का काम ही नहीं चलता या बाहर जाओ तो खासतौर से बिना उसे साथ ले जाये हुए, मैं उसी मोबाइल की ही बात कर रही हूँ. और जिसके साथ के बिना जीवन में अब खालीपन सा लगता है. अगर घर पर भूल जाये उसे तो शायद पति अपनी पत्नी को उसकी अनुपस्थिति में इतना याद न करता होगा जितनी मोबाइल के साथ की कमी उसे खलती है अब. चाहे वह......चलिये, छोडिये भी पति-पत्नी की बात. तो फिर मैं जो बात कर रही हूँ वह है कि जिधर भी देखो उधर ही सब चटर-पटर बातों में उलझे होते हैं उसे कान से चिपकाये हुये. कुछ लोग उसे कहते हैं सेलफोन भी....सही कहा ना मैंने?

सोचती हूँ कि मोबाइल फोन न हुआ जैसे एक खिलौना हो गया. चाहे किसी और चीज की अकल हो या न हो लेकिन मोबाइल जरूर चाहिये. कितनी किसे जरूरत है उसकी परवाह करे बिना उसे पाने की हसरत सभी में फ़ैल चुकी है एक रोग की तरह. ना पूछिये अब.....बात करने की अकल हो या न हो पर उसे खरीद कर नक़ल जरूर करनी है. शॉपिंग को गयी हुई वापस आते हुए रिक्शे में बैठी सासू माँ को अचानक सूझती है मोबाइल निकाल कर अपनी बहू से बात करने की. कह रही हैं ' अरी सुन, जरा मुझे आज अपनी सहेली के यहाँ भी जाना है, तुझे बताना भूल गयी थी. और कहारिन आवे तो कहियो की माँ जी आज घर पर नहीं है इस समय, पैसे किसी और दिन ले जाये और यह भी सुन ......' अरे यह सब बेकार की बातें तो उनके घर में ना होने पर बहू भी बता सकती थी कहारिन को...लेकिन मोबाइल पर बात करने का मजा तो और ही है ना? किन्तु क्या इसकी वाकई में सभी को या अधिकतर लोगों को जरूरत है? सहेली के यहाँ जाकर भी तो फोन किया जा सकता था.

कुछ लोगों को इसकी जरूरत एक फैशन की तरह होती है. अगर कुछ भी नहीं है बात करने को फिर भी टुन्न-टुन्न बजता रहता है और फोन करने वाले को इतना भी ख्याल नहीं की जिसको फोन करके अपनी बोरियत के पलों को बांटना चाहता है वह इंसान अभी-अभी अपनी दाढ़ उखड़वा कर डेंटिस्ट के यहाँ से आया है और इंजेक्शन के असर से मुंह भी नहीं खोल सकता. हाँ, कभी-कभी यह बहुत ही लाभदायक साबित हो सकता है. एक बार मैक्सिको में आये हुये भूचाल से एक शहर तहस नहस हो गया और वहां जब मलबे में से लोगों की लाशें निकाली जा रही थीं तो किसी का मोबाइल बजने लगा ...... मलबा हटा कर पता लगा की उस आदमी ने लोगों की आहट सुनकर बटन दाब दिया था. वह किसी तरह भगवान् की कृपा से जिन्दा बचकर निकल आया.

लेकिन किसी और जगह आप देखें तो......पत्नी घर से फोन पर पति के लेट होने के बारे में चिंता करती है और पति महाशय उस समय अपने ऑफिस की किसी काम करने वाली लेडी के साथ कॉफी और समोसे खाते हुए कुछ सुनहरे पलों को जी रहे होते हैं तो पत्नी को बता कर उसकी चिंता दूर करते हैं ' डार्लिंग, मैं अभी उस काफी हाउस के बाहर जो बस स्टाप के पास है वहां भीड़ में इंतज़ार कर रहा हूँ. दो बसें ठसाठस भरी हुई सामने से निकल गयीं उनमें तो चढ़ना भी मुश्किल था...इसीलिए लेट हो रहा हूँ, तुम खाना खा लेना मैंने कुछ लेट लंच खाया था इसलिए भूख नहीं है.' यदि पत्नी भोली हुई तो अविश्वास की परछाईं को भी अपने पर पड़ने नहीं देगी. वरना.... उसका माथा कभी न कभी तो ठनकना चाहिये.

बिस्तर में हैं तो छुपकर, या कभी - कभी दरवाजे पर की गई खटखट किसी ने ना सुनी हो तो घर के फोन पर, आप घर की चाबी भूल गये हों और पत्नी सहेली के यहाँ हो तो उसे वहां पर, बाहर कहीं खाना खा रहे हों तो वहां से, या टॉयलेट की सीट पर बैठे हों तो वहां आराम से हर जगह से इसका उपयोग करके बातचीत कर सकते हैं.
गर्लफ्रेंड और बॉयफ्रेंड के लिये तो और भी उपयोगी.....घर वालों की निगाहें बचाकर छत पर जाकर गुटरगूं कर सकतें हैं आपस में. तब कोई यह तो नहीं कहेगा की ' हाय-हाय देखो तो आजकल के बच्चों को, हमें पता भी न चला की कब हमारा बच्चा बड़ा हो गया और आज को यह दिन देखना पड़ रहा है हमें की इसने अपनी गर्लफ्रेंड भी ढूंढ ली. हमारे ज़माने में तो लड़के लोग लड़कों से और लड़कियां केवल लड़कियों से ही बातें करती थीं और लड़कियां तो रास्ते में निगाह झुका कर चलती थीं '. लेकिन कभी - कभी इसकी वजह से सब त्रस्त भी हो जाते हैं. बच्चे अब अधिकतर समय इसी पर दोस्तों से बात करने में गुजारते हैं और घर में बातचीत की उन्हें फुर्सत ही नहीं मिलती. बिना मतलब का बिल अलग से बढ़ता है. और हम अन्य चीजों के भाव ऊपर जाने की बातें करते रहते हैं. कभी-कभी इसपर फिजूल की करी बातों से और बकवास के टेक्स्ट भेज कर जो बिल बढ़ता है उसका क्या?

बूढे-बच्चे, जवान, अकल या बेअकल वाले, बाबू-अफसर, ठेले वाले, दुकानदार, चाट वाला या लोहार, कुल्फीवाला हो या सुनार. कोई फर्क नहीं किसी में. सबको इसका इस्तेमाल आता है और पता है आपको की यह खिलौना अकेले में बड़े काम का होता है. आप स्टेशन पर जब अकेले बैठे ऊब रहे हों तो चलो किसी से बात ही कर ली जाये वैसे तो फुर्सत नहीं मिलती है. या कहीं सुनसान जगह पर जा रहे हों और कोई खतरे वाली बात हो तो घर या पुलिस को फ़ोन करके सूचना तो दे सकते हैं, शॉपिंग पर गये हों तो पत्नी से उसकी पसंद का रंग पूछ सकते हैं (यदि उसे कभी अचानक से उपहार देकर खुश करने का मूड हो तो) आप क्या काम करते हैं, अधिक पढ़े - लिखे हैं या कम, कमजोर हैं या पहलवान, भिखारी हैं या कोचवान सभी को ही इसका चस्का लग गया है..... जिसे देखो वह इसपर बात करते हुये मस्त दिखता है.

आजकल तो लगता है की भिखारी भी इतने पैसे वाले और अक्लमंद हो गये हैं की सुना गया है कि कहीं कोई फोन पर रात में चाइनीज खाना आर्डर कर रहा था मोबाइल पर. अभी कुछ महीने पहले बरेली की स्टेशन पर बैठी ट्रेन का इंतज़ार कर रही थी की एक भिखारी एक पर्चा हाथ में लिये हुये आया और बेंच पर बैठे सज्ज़न से बोला ' बाबू जी जरा अपना फ़ोन दे दीजिये एक फोन करना है.'

एक दिन मायके में ही बाहर जाते हुये देखा कि ठेले पर सब्जी बेचने वाला खाली खड़ा है फिर अपना मोबाइल निकाला और बात करने लगा ' अरे सुनौ खाना बनि गऔ होइ तौ अम्मा और बाबू जी और बच्चन को खवाइ देउ हम भी कुछ देर में ठेलुआ संग घर पहुँचत हैं.'

कोई हंस रहा है या गाली दे रहा है उस समय किसी पर ध्यान नहीं जाता यदि आप पूरी तरह से बातचीत में मगन हैं तो. . . सड़क पार कर रहे हैं, कार चला रहे हैं तब भी इस पर बात करने की इतनी तलब होती है जैसे एक शराबी को पीने की. दिन हो या रात हो, आंधी हो या बरसात हो या कैसी भी खुराफात हो मोबाइल से बात करो तो फिर कोई बात हो.

शन्नो अग्रवाल

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4 बैठकबाजों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

पहले किसी का पोस्टकार्ड आता था तो उसे बार बार पढ़ने का मन करता था, और कोई अच्छा पत्र आता तो उसे बार बार तब तक पढ़ते थे जब तक उसका कोई नया पत्र नहीं आ जाता, यह पत्र लिखने की कला अब धीरे धीरे लुप्त होती जा रही है
हम इक्सवी सदी में जा रहे है , और इक्सवी सदी में मोबाइल ने दुरिया कम कर दी है यह बहुत अच्छी बात है
हर अच्छी चीज के अच्छे और बुरे दो पहलू होते है हमें उसके अच्छे पहलू को उपयोग में लेन है जिससे हमारी प्रगति में चार चाँद लग जायेंगे
धन्यवाद

विमल कुमार हेडा

विनोद कुमार पांडेय का कहना है कि -

मोबाइल बिना अब तो सब कुछ सूना -सूना लगता है...दिन बिताना भी पहाड़ सा लगता है..
बढ़िया लेख...बधाई

Manju Gupta का कहना है कि -

शन्नों जी को लाजवाब लंबे आलेख के लिए बधाई .शानदार
शीर्षक विषय वस्तु के अनुरूप है .

Shanno Aggarwal का कहना है कि -

मोबाइल की बात की, हो गये सभी 'बोर'
सब के सब चुप हो गये, करें मुझे 'इग्नोर'.

समय और पैसा अधिक, न होता है 'स्पेंट'
फिर भी लोग हिचक रहे, करने को 'कमेन्ट'.

विमल जी, विनोद जी और मंजू जी,
आप लोगों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये उसका हार्दिक धन्यबाद.

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