Sunday, November 29, 2009

एक डिस्टर्ब्ड जिन्न

रात के दस बज चुके तो मैंने चैन की सांस ली कि चलो भगवान की दया से आज कोई पड़ोसी कुछ लेने नहीं आया। भगवान का धन्यवाद कम्प्लीट करने ही वाला था कि दरवाजे पर दस्तक हुई, एक बार, दो बार, तीन बार। लो भाई साहब, अपने गांव की कहावत है कि पड़ोसी को याद करो और पड़ोसी हाजिर। खुद को खुद ही गालियां देते हुए दरवाजा खोलने उठा कि यार ! ये किस मुहल्ले में आकर बस गया तू? जहां के आदर्श जनों को ये भी शऊर नहीं कि कम से कम मांगने तो टाइम से आ जाना चाहिए। दरवाजा खोला तो पहचानते देर न लगी। सामने जिन्न! हवा निकल गई। बड़ा चौड़ा होकर उठा था कि पड़ोसी को वो झाड़ूंगा! वो झाड़ूंगा कि सात जन्मों तक मांगना भूल जाएगा । पर सामने जिन्न देखा तो बरसों से याद हनुमान चालीसा एकदम भूल गया।
‘नमस्कार सर!’ उसने ऐसे दोनों हाथ जोड़े जैसे चुनाव के दिनों में वोट मांगने वाले जोड़ते हैं।
‘कौन?? अलादीन का जिन्न? मैं मन ही मन खुश हुआ कि चलो अब अपने दिन भी फिरे।’
‘नहीं सर!’
‘तो कौन सा जिन्न? आलू-प्याज जिन्न?’
‘नहीं सर!’ उसने चेहरे पर ऐसी मुस्कराहट बिखेरी जैसी कभी विवाह से पूर्व अपने चेहरे पर हुआ करती थी।
‘तो चीनी-पत्ती जिन्न?’
‘सर नहीं! वह तो आपके पड़ोस वालों के घर डेरा जमाए बैठा है।’
‘सब्जी-भाजी जिन्न?’
‘नहीं सर!’
‘आटा-दाल जिन्न?’
‘नहीं, साहब नहीं!’ कह उसने अपना सिर पीटा। बडी दया आई मुझे यह करते उस पर। जिस देश में जिन्न की यह दशा हो वहां आम आदमी की क्या दशा होगी? पर यहां है ही कौन जो इस बात का अंदाजा लगाए।
‘तो यार अब ये नया जिन्न कहां से आ गया? अच्छा तो मुर्गीदाना जिन्न?’ मैंने जिन्नों के भार तले दबे दिमाग पर थोड़ा और भार डाल करंट जिन्न याद कर पूछा।
‘नहीं।’ अबके वह मुस्कुराया। मेरी हालत पर ही मुस्कराया होगा। अपनी हालत पर तो यहां कोई नहीं मुस्कराता। और वह तो ठहरा जिन्न।
‘तो जिन्ना का जिन्न?’
‘उसे तो सोए हुए फिर बड़े दिन हो गए। वाह! क्या कमाल का जिन्न था! जागा। पार्टी के कई कभी न सोने वाले बंदों को गहरी नींद सुला फिर सो गया।’
‘तो बाबरी मस्जिद का जिन्न?’
‘नहीं।’
‘तो मेरे बाप हो आखिर कौन से जिन्न? क्या ये देश अब जिन्नों के अधीन ही होगा? क्या इस देश पर क्या अब जिन्न ही राज करेंगे?’
‘नहीं भाई साहब! भीतर आने को नहीं कहोगे? ठंड लग रही है। बुरा न मानों तो भीतर चाय का कप भी हो जाए और बात भी। मैं परेशान करने वाला जिन्न नहीं, परेशान हुआ जिन्न हूँ।’ कह वह भीतर झांकने लगा।
‘देखो जिन्न साहब ! आप मेरे यहां गलती से आ गए हैं शायद! ये कब्रिस्तान नहीं। वार्ड नंबर 14 का हाउस नंबर 125 है।’ कह मैंने दरवाजा बंद करना चाहा तो उसने दोनों हाथ एकबार फिर जोड़े। बड़े दिनों बाद अपने सामने किसी को हाथ जोड़े देखा तो अपना मन लबालब दया से भर आया घोर सूखे के बावजूद भी। और मैं न चाहते हुए भी उसे भीतर ले गया। जितने को मैं चाय बना कर लाया तब तक वह हीटर सेक काफी चुस्त हो चुका था। जिन्नों के बारे में जो अब तक मेरी राय थी बदलते देर न लगी। मैंने चाय की चुस्की ले चुटकी लेते पूछा,‘अच्छा तो एक बात बताओ.....’
‘पर ये मत पूछना कि लूटमार कब खत्म होगी। और जो चाहो पूछो।’ कह उसने गहरी सांस ली। लगा बंदा लूटमार का शिकार हो ही ज्यों जिन्न बना हो।
‘ये जिन्न बोतल से बाहर आते कैसे हैं? जबकि बोतल के ढक्कन पर देश के अति जिम्मेदार लोग जमे होते हैं।’
‘अपराधी जेल से बाहर बिना ताला खुले कैसे आते हैं? और ये तो जिन्न हैं जिन्न! आका ने हुक्म दिया तो आ गए। किसीको मरवा गए तो किसीको संजीवनी पिलवा गए। सरकारी फाइलों और सरकारी पाइपों की लीकेज आजतक कोई रोक सका? असल में ये हमारी फाइलों और पाइपों का वंशानुगत मैन्यूफैक्चरिंग डिफेक्ट है। कुछ समझे?’ हालांकि मैं कुछ न समझा था पर अपने को बुद्धिजीवी घोषित करने के लिए मैंने उसके आगे सहज मुंडी हिला दी,‘ तो तुम किस किस्म के जिन्न हो?’
‘मैं तो आपजिओं का सताया जिन्न हूं।’
‘मतलब!!!’
‘ आपजिओं ने अब तो कब्रिस्तान को भी हथियाना शुरू कर दिया है। अब वहां रहें तो कहां? तुम्हारे मुहल्ले में कोई कमरा किराए के लिए खाली हो तो... किराए की चिंता नहीं। बस कोई परेशान करने वाला न हो। कम से कम मरने के बाद कौन चैन से रहना नहीं चाहता?’ मित्रो! पहली बार एक परेशान जिन्न देखा, वरना आजतक संसद और फुटपाथ वालों दोनों को ये जिन्न परेशान करते रहे।


-अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, सोलन-173212 हि.प्र.

Saturday, November 28, 2009

महात्मा जोतीबा फुले का ब्राह्मणवाद से संघर्ष

क्रांतिकारी समाज सुधारक ज्योतिराव गोविंदराव फुले की 119वीं पुण्यतिथि पर विशेष

ब्रिटिश काल में सामाजिक न्याय की एक बड़ी लड़ाई लड़ने वाले महान योद्धा महात्मा जोतीबाराव फुले का स्थान भारतीय सामाजिक क्रान्तिकारियों में सबसे महत्वपूर्ण है। हजारों वर्षों से भारत में शूद्रों, अतिशूद्रों और स्त्रियों पर होनेवाले अत्याचारों के विरूद्ध उनके संघर्षों के कारण ही ब्रिटिशराज में परिवर्तन आने शुरू हुये और अंग्रेज शासकों द्वारा नये कानून बनाये गये। जोतीबा ने भारतीय समाज की सबसे बड़ी बीमारी जाति व्यवस्था और उसकी जड़ ब्राह्मणवाद को न केवल समझा बल्कि उस पर जबरदस्त प्रहार भी किये जो परिवर्तनवादी जन आन्दोलन के इतिहास मे स्वर्ण अक्षरो में दर्ज है। इसी कारण डॉ. अम्बेडकर ने उन्हें अपना गुरू माना और उनके सामाजिक दर्शन को अपने आन्दोलन का मुख्य आधार बनाया। ब्राह्मणवाद और पुरोहित वर्ग दोनों से ही जोतीबा का संघर्ष तब तक चला जब तक वे जीवित रहे। उनके आन्दोलन का केन्द्र हिन्दु धर्म की वे तमाम कुरीतिया और परम्पराये रहीं जो ब्राह्मणवाद की सदियो से पोषक रही है और जिसके कारण ही देश के बहुसंख्यक नागरिक वर्ग को शिक्षा समेत सभी मानवाधिकारों से सदियों तक वंचित रहना पड़ा।

ब्राह्मणवर्ग विशेषकर पुरोहितों ने अपने हितों को सुरक्षित रखने के लिये ही वर्ण व्यवस्था की स्थापना की थी। अंततः पीड़ित बहुसंख्यक जनता, प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इसका विरोध ही करती रही। वर्ण व्यवस्था से लाभ उठाने वाला दूसरा वर्ग शासकों का था, जिन्होंने पुरोहितों के हितों को अगर बढ़ाया नहीं तो घटाया भी नहीं। अंग्रेज शासकों ने भी उसी नीति का अनुसरण किया, उनके द्वारा ब्राह्मणों के बीच शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिये जो कुछ किया गया उसका लिखित प्रमाण उपलब्ध है। बरतानिया सरकार भी ब्राह्मणों को तुष्ट करने और उनका सहयोग प्राप्त करने में अपने पूर्ववर्ती शासकों से पीछे नहीं रही। उनकी मान्यता थी कि साम्राज्य के स्थायित्व के लिये यह जरूरी है। अंततः 1813 के चार्टर एक्ट में शिक्षा पर खर्च करने के लिये जो एक लाख रूपये का प्रावधान किया गया था उसका एक अंश ब्राह्मणों की शिक्षा पर खर्च किया जाने लगा। बनारस संस्कृत महाविद्यालय की स्थापना (1791) से लेकर 1820-21 तक उसमें तथा दिल्ली, आगरा और पुणे स्थित सभी महाविद्यालयों में भरती केवल छात्रवृत्ति प्राप्त विद्यार्थियों तक ही सीमित थी जो सभी ब्राह्मण थे। 1820-21 के बाद, मांग को देखते हुये, यद्यापि इन महाविद्यालयों में गैर- ब्राह्मण विद्यार्थियों की भी भरती होने लगी, पर छात्रवृत्ति केवल ब्राह्मण विद्यार्थियो को ही दी जाती रही। 1836 मे इस योजना को समाप्त करने का निर्णय लिया गया जो 1838 से लागू हुआ। इसके परिणाम स्वरूप जहाँ 1833 मे दिल्ली महाविद्यालय मे 431 छात्र थे जिनमें से 377 छात्रों को छात्रवृत्ति मिलती थी। वहाँ 1840-41 मे छात्रों की संख्या घटकर मात्र 155 रह गयी। 1838 के बाद अंग्रेजी शासन ने ”इनकिलट्रेशन“ नाम से एक नयी योजना की शुरूआत की जिसका उद्देश्य था कि पहले ऊपर के वर्ग यानी ब्राह्मणों को शिक्षित किया जाय, ऐसा करने से शिक्षा स्वतः ही निचले स्तर तक पहुंच जायेगी। अंग्रेज सरकार का जमीनी सच्चाइयों से कोई सरोकार नहीं था, अगर वे इस ओर जरासा भी ध्यान देते तो उन्हें यह समझते देर नहीं लगती कि, जिस वर्ग ने सदियों से निम्नवर्ग को पढ़ने के अधिकार और अवसरों से बराबर वंचित रखा, भला वे क्योंकर उन्हें पढ़ाते, अंततः वह योजना बुरी तरह असफल रही। उसके बाद 1854 में ”वूडस डीस्पैच” आया, जिसके अन्तर्गत सरकार ने जनता को शिक्षित करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया। यह जिम्मेदारी किस प्रकार निभायी गयी इसके साक्षी हंटर कमीशन (1881) मे जोतीबा के दिये गये वे प्रतिवेदन है, जिसमें कई जगह यह बताया गया है, कि किस प्रकार ब्राह्मण शिक्षको और विद्यार्थियो ने निम्न वर्ग के गरीब विद्यार्थियो की शिक्षा के मार्ग में रोड़े अटकाये।

लेखिका- सुजाता पारमीता

20 मार्च 1955 को दिल्ली में जन्म। यहीं के भारतीय मास कम्यूनिकेशन संस्थान से डिप्लोमा, फिर पुणे के फिल्म इंस्टीट्यूट से आगे की पढ़ाई।
दिल्ली की पहली दलित सांस्कृतिक संस्था 'आव्हान थिएटर सिनेमा एंच मास मीडिया' की संस्थापिका। आजकल मुम्बई में दलित, आदिवासी, पिछड़े वर्ग और महिलाओं की सांस्कृतिक विरासत पर काम कर रही हैं। हंस, कथादेश, महानगर, अन्यथा में कई कहानियाँ और लेख प्रकाशित। 'जाति पर हिन्दी सिनेमा' और 'आदिवासी चित्रकला' पर पुस्तक लिखने में व्यस्त।
जोतीबा धार्मिक कार्यों में ब्राह्मण पुराहितों की सहायता लेने के विरूद्ध थे। इसलिये जनमानस में चेतना के प्रसार के लिये उन्होंने दो पुस्तकें लिखी - पुरोहितों का पर्दाफाश (1867) और ब्रिटिश साम्राज्य में ब्राह्मणी वेश में गुलामी (1873) पहली पुस्तक मे जोतीबा ने बताया कि किस प्रकार जन्म से मरण तक विभिन्न कर्मकाडों द्वारा पुरोहित यजमानों का आर्थिक शोषण करते हैं और दूसरी पुस्तक में किस प्रकार लोगों की अशिक्षा अज्ञानता तथा अन्धविश्वास का लाभ उठाकर ब्राह्मणों ने शूद्रों और अतिशूद्रों को गुलाम बना रखा है। उन्होंने 1872 में इसी आशय का एक घोषणापत्र भी प्रकाशित किया। जोतीबा सिर्फ पुस्तक लिखकर बैठ जाने वाले व्यक्ति नहीं थे, इसीलिये 24 सितम्बर 1873 को उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं की एक सभा आयोजित की, जिसमें मार्गदर्शन के लिये सत्यशोधक समाज नाम से एक केद्रीय सगंठन बनाया गया। बाद में कई स्थानों पर उसकी अन्य शाखायें स्थापित की गयीं।

जोतीबा ने ब्राह्मण पुरोहित के बिना ही दो विधवा विवाह सम्पन्न कराये। पहला विवाह दिसम्बर 1873 में और दूसरा उसी के पाँच महीने बाद मई 1874 में। ब्राह्मणों ने विवाह रोकने के लिये क्या कुछ नहीं किया पर सफल न हो सके। इसके बाद जोतीबा के एक अनुयायी ने भी अपने बेटे का विवाह ब्राह्मण पुरोहित के बिना सम्पन्न कराया इस पर पुरोहित मामले को न्यायालय में ले गया। अवर जज जो स्वयं ब्राह्मण थे उस पुरोहित के पक्ष में ही निर्णय दिया। इस निर्णय से खिन्न जोतीबा ने जिला न्यायाधीश के यहाँ अपील की। जिला न्यायधीश ने निचले न्यायालय के फैसले के विरूद्ध निर्णय दिया। पुरोहित कहाँ हार मानने वाला था उसने उस निर्णय के बाद मुम्बई उच्च न्यायालय में अपील दायर की परन्तु वहाँ भी वह हार गया। इस प्रकरण के बाद से पुणे का ब्राह्मणवर्ग जोतीबा के खिलाफ हो गया।

यहाँ इसीसे मिलते-जुलते एक अन्य मुकदमे का जिक्र करना जरूरी है। 1878 पुणे में एक व्यक्ति ने अपने पुश्तैनी पुरोहित की बजाय अन्य पुरोहित से अपने बेटे की शादी करवायी प्रभावित पुरोहित ने महादेव गोविन्द रानडे के न्यायालय में जो उन दिनों पुणे में ही प्रथम श्रेणी के अवर जज थे, मुकदमा दायर किया जिसमें दक्षिणा के अलावा हरजाने की भी मांग की। रानडे ने पुरोहित के पक्ष में निर्णय दिया और आगे कहा कि वादी को बुलाना या ना बुलाना प्रतिवादी की इच्छा पर निर्भर नहीं करता। लेकिन बाद में जिला और उच्च दोनों ही न्यायालयों ने न्यायमूर्ती रानडे के इस फैसले को रद्द कर दिया अन्यथा इसके दूरगामी परिणाम घातक हो सकते थे। ब्राह्मण पुरोहितों के बिना वैद्य विवाह सम्पन्न नहीं हो सकते इस परम्परावादी दलिल को अमान्य करने वाला बम्बई न्यायालय तीसरा न्यायालय था। बंगाल तथा तत्कालीन पश्चिमोत्तर उच्चतर न्यायालाय इसे पहले ही अस्वीकार कर चुके थे, बाद में मद्रास उच्चतर न्यायालय ने भी इसे नामंजुर कर दिया था जिसके बाद तो यह विवाद का विषय ही नहीं रहा। जोतीबा के लिये ये बड़ी जीत साबित हुयी।

विभिन्न भारतीय प्रांतों में पहले से ही प्रचलित दक्षिणा प्रथा को अंग्रेज शासकों ने अपने शासन काल में भी जारी रखा। बारहाल उन्होंने दक्षिणा कोष की अधिकतम सीमा 50,000 रूपये वार्षिक निर्धारित कर दी। कई अन्य उपाय भी किये गये जिनसे दक्षिणा पाने वाले ब्राह्मणों की संख्या कम होती गयी। एक बार तय किया गया कि बची हुयी राशि में से प्रतिवर्ष 20,000 रूपये पुणे महाविद्यालय को दिये जायेंगे क्योंकि उसमें अधिकतर ब्राह्मण ही पढ़ते-पढ़ाते थे। एक बार जब कोष मे 3,000 रूपये अतिरिक्त बच गये तो पुणे के कुछ सुधारवादी ब्राह्मणों ने गवर्नर को आवेदन दिया कि इस बची हुयी राशि को आधे-आधे भाग मे बाँट कर संस्कृत और मराठी में मौलिक साहित्य तैयार करने वाले साहित्यकारों को परितोषिक के रूप में दे दिये जायँ। लेकिन पुणे के परम्परावादी ब्राह्मणों ने इसे जाति विरोधी मान कर इसके लिये पहल करने वालों को दंडित करने के लिए एक समिती गठित की और सभा के लिए एक दिन भी निश्चित किया। जब समझाने से काम नहीं बना तब सुधारवादियों ने जोतीबा से भेंट कर मदद मांगी। जोतीबा ने तब कुछ दलित बस्तियों में से 200 हट्टे-कट्टे जवान लड़के जमा किये और जुलूस बनाकर निर्धारित स्थान पर पहुँचे। जोतीबा के साथ उन लोगों को देखकर, वहा जमा हुये ब्राह्मणों के होश उड़ गये, लेकिन जोतीबा के सुझावों पर उन्होंने अपनी सहमति दे दी और वे समझौते के लिए राजी हो गये। बाद मे गवर्नर ने भी बची हुयी राशी को साहित्य सृजन के कार्य पर खर्च किये जाने की अनुमति दे दी।

बड़ौदा राज मे बहुत वर्षो से ब्राह्मणो को रोज मुफ्त खिचडी बांटने की प्रथा चली आ रही थी। राजकोष से इस प्रथा पर प्रतिवर्ष एक मोटी रकम खर्च की जाती थी। जोतीबा ने 1884 मे बड़ौदा महाराज को इसके संबध में लिखा और उनसे जा कर मिले। उन्होंने महाराज को समझाया की जब कठोर परिश्रम कर राजकोष भरने वाले किसान भूखे-नंगे जीवन जी रहे हैं तो ब्राह्मणों पर इतना खर्च करना कहाँ तक उचित है। उसके बाद बड़ौदा राज मे खिचड़ी बाँटने की प्रथा को समाप्त कर दिया गया।

जोतीबा के जीवनकाल में पुणे जिले में जमींदार और साहूकार प्रायः सभी ब्राह्मण ही थे। सरकारी कार्यालयों में भी निम्न और मध्यम स्तर पर काम करने वाले सभी कर्मचारी ब्राह्मण थे। अतः गरीब दलित और पिछड़े वर्ग के लोगों को कहीं से भी न्याय नहीं मिलता। जोतीबा ने इस स्थिति से निपटने के लिये ”दीनबन्धु“ नाम की एक पत्रिका निकाली। उसके बाद उन्होंने खेतिहरो की चाबुक (1873) शीर्षक से एक पुस्तक लिखी जिसमें गरीब किसानों की समस्याएँ उसके कारण और निदान पर प्रकाश डाला गया। सरकारी कर्मचारीयो के शोषण से गरीब जनता की रक्षा के लिये जोतीबा ने अपनी पुस्तक में यह मांग रखी की सरकारी नौकरीयो में ब्राह्मणों की नियुक्ति उनकी जनसंख्या के अनुपात से अधिक ना की जाय बाकी बचे स्थानों पर शूद्रों-अतिशूद्रों के होनहार युवको को प्रशिक्षित कर नियुक्त किया गया। पुरोहितों के चुंगल से शूद्रों की रक्षा करने के लिये उन्होंने प्राईमरी शिक्षा को अनिवार्य बनाने की मांग की। जोतीबा ने शूद्रों, अतिशूद्रों और किसानों के कल्याण के लिये जो सुझाव उस वक्त बताये थे इतने वर्षों बाद आज कार्यान्वित किये जा रहे है। जिनमें नदियों पर बांध बांधना, कुएँ खोदने के लिये सरकार द्वारा गरीबों को वित्तीय सहायता प्रदान करना, समय-समय पर प्रदर्शनी लगाकर स्वरोजगार के साधन उपलब्ध कराना, अच्छी नस्ल के मवेशियों का आयात करना तथा वैज्ञानिक ढंग से खेती की शिक्षा जनमानस तक पहुँचाना शामिल हैं। पुणे जिले की जुनार तहसील में 1884 में जोतीबा ने गरीब किसानों पर होने वाले जुल्मों के विरोध में देश का पहला किसान सत्याग्रह किया जो सालभर तक चला और तभी समाप्त हुआ जब जमींदार, साहूकार और सरकार के प्रतिनिधियों ने स्वयं आकर जोतीबा से समझौता किया।

दलितों के बीच चेतना जगाने और दलित नेतृत्व तैयार करने के लिये जोतिबा निरन्तर दलित बस्तियों में आया-जाया करते थे। जोतिबा भारतीय मजदूर आन्दोलन के जन्मदाताओं में प्रमुख थे। वे जब भी मुंबई जाते अपने प्रवास के दौरान मजदूर बस्तियों में भी जरूर जाते। नारायणराव लोखंडे जिन्होंने 1880 में देश का प्रथम मजदूर संगठन "बम्बई मीलहैड" की स्थापना की थी। उनके अनुयायी और सत्य शोधक समाज के प्रमुख सदस्य थे। 1889 मे बम्बई नगरपालिका और अलिबाग नगरपालिका के दलित मजदूरों ने जो सफल हड़ताल की थी वह भी जोतीबा के प्रयासों का ही नतीजा था।

आज शिवाजी महाराज पर अपना दावा ठोंकने वालों को यह शायद ही याद हो कि जोतिबा ने ही रायगढ जाकर पत्थर और पत्तियों के ढेर तले दबी जीर्ण शीर्ण अवस्था में पड़ी शिवाजी महाराज की समाधी को ढूँढ़ निकाला और उसकी मरमत्त भी करवाई। बाद में उन्होंने शिवाजी महाराज पर एक छन्दबद्ध जीवनी भी लिखी।

स्मृतियाँ और पुराण शूद्रों और स्त्रियों के खिलाफ वह अध्यादेश है जो उनके जीवन को पूरी तरह से नियन्त्रित करता है। उन्हें गुलामी में जीने के लिये बाध्य करता है, आज भी जिसका असर भारत के सभी धर्मो पर समान रूप से दिखायी देता है। अस्पृशता, देवदासी प्रथा, सती प्रथा, बालविवाह, कन्याभ्रूण हत्या, बेगारी और विधवा विवाह पर पाबन्दी जैसी अनेक अमानवीय धार्मिक प्रथाएँ हैं, जो देश के लगभग सभी राज्यों में अगर आज जिंदा है, तो इसके पीछे भी पुरोहित वर्ग का ही हाथ है। हालाँकि जोतीबा के समय में कानून सती प्रथा को बन्द किया जा चुका था और कहीं-कहीं विधवा विवाह होने लगे थे। पर महिलाओं की सामाजिक, शैक्षिक और आर्थिक स्थिति में कोई विशेष अन्तर नहीं आया था। जोतीबा ने विष्णू शास्त्री पंड़ित द्वारा चलाये जा रहे विधवा विवाह आन्दोलन में पूरा सहयोग दिया। उन्होंने बाल-विवाह और बहुविवाह का भी खुलकर विरोध किया। उनके द्वारा लिखी गयी ”सतसार“ नामक एक पुस्तिका में भी स्त्रियों की स्थिति पर रोशनी डाली गयी है। यहाँ विशेष रूप से ऐसी दो घटनाओं का जिक्र जरूरी है जो साबित करती हैं कि जोतीबा के विचार इन मुद्दों पर कितने कठोर थे। एक बार जब महादेव गोविन्द रानडे जो उन दिनों पुणे में जज थे, जोतीबा को बताया कि उनकी भी एक बाल विधवा बहन है, तो उन्होंने दुखी हो कर पूछा कि उसका विवाह क्यों नहीं किया गया। जब रानाडे से जबाब देते नहीं बना और वे टाल-मटोल करने लगे तो पास बैठे जोतीबा भड़क गये और गुस्से में बोले "राव साहब, आप अपने आप को आगे से समाज सुधारक ना ही कहें तो अच्छा होगा"। बाद में जोतीबा ने रानडे को दूसरी बार तब फटकारा जब उन्हें पता चला कि अपनी पहली पत्नी के मरने के बाद उन्होने 32 वर्ष की उम्र में एक 11 वर्ष की बच्ची से दूसरा विवाह किया।

जोतीबा की राय में अशिक्षा, अज्ञानता और अन्धविश्वास स्त्रियों और शूद्रों की मुक्ति में सबसे बड़ी बाधायें थीं। अततः उन्होंने लड़कियों के लिये तीन स्कूल खोले- पहला जुलाई 1851 में, दूसरा उसके तुरन्त दो महिने बाद और तीसरा एक वर्ष बाद सितम्बर 1852 में। तीसरे स्कूल में दलित लड़के भी भर्ती किये गये। वे एक रात्रि पाठशाला भी चलाया करते थे। जोतीबा की पत्नि सावित्रीबाई फुले जिन्हें भारत की प्रथम हिन्दु महिला सामाजिक कार्यकर्ता और अध्यापिका होने का गौरव हासिल है उस स्कूल मे पढ़ाया करती थीं। दलितों के लिये पहला पुस्तकालय भी जोतीबा ने ही खोला था। उन्होंने 1868 में अपने पीने के पानी के हौज से दलितों को पानी लेने की अनुमती दे दी थी।

ब्राह्मणवाद से शूद्रों, अतिशूद्रों और स्त्रियों के सम्मान और अधिकार के लिये शायद ही किसी ने इतना संघर्ष किया जितना कि जोतीबा ने किया। आज भी अनके विचार सभी भारतीय दलित और स्त्रीवादी आन्दोलन के लिये मार्गदर्शक की भूमिका निभा रहे हैं, जब पूँजीवाद और भुमंडलीकरण की बदौलत उपजी भयानक असमानता की चपेट में आया गरीब दलित और आदिवासी वर्ग लगातार मर रहा है।

Tuesday, November 24, 2009

आपका पेट फल

मेषः- आपने जो कुछ पिछले कई महीनों से पेट काट कर जमा किया है अब उसे मन मसोस कर आटे दाल पर खर्च करना ही होगा। आपको भीतर ही भीतर किसी मेहमान के आने की चिंता हर पल सताएगी। इस चिंता के कारण न तो आप दिन में जागे रह सकेंगे और न ही रात को घर वालों को चैन से सोने देंगे। गणेश जी का कहना है कि घर में खर्च को देखते हुए संयम बरतें नही तो घर में हंगामा हो सकता है। उपाय- पीपल को रोज सुबह पानी चढ़ाएं।

वृषः- चाह कर भी आप अपने घर आने वाले मेहमानों को टाल कर भी नहीं टाल पाएंगे। असल में उनके अपने घर में आटा दाल खत्म हो चुके हैं। जितना वे पड़ोस से बेशरम बन ले सकते थे, उतना ले चुके हैं। कुल मिलाकर उनके पास अब आपके घर आने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं बचा है। इसलिए गणेश जी का कहना है कि जैसे भी हो उनको झेलें। उपाय- कुत्ते को रोटी दें।

मिथुनः-बढ़ती महंगाई को देख कर अब आपकी भी रिश्वत लेने की योजना सिरे चढ़ेगी। आपके साहब आपसे अपने लिए लंच न लाने पर नाराज हो सकते हैं। इसलिए गणेश जी का कहना है कि किसी अनहोनी से बचने के लिए आप अपने लिए लंच भले न ले जाएं पर साहब के लिए लंच जरूर ले जाएं। जिसकी आपने कई दिनों से गलत फाइल रोक रखी है वह आपके घर उल्टे पांव कुछ लेकर आने वाला है। जो कुछ दे, निःसंकोच ले लीजिए। उपाय- फिलहाल मौज करें।

कर्कः- औरों की जेब पर आप सपरिवार डट कर मौज मस्ती करेंगे। गणेश जी का कहना है कि आपका मंगल केंद्र में होने से लग रहा है कि आपकी सास आपको किचन का सारा सामान लेकर आएंगी और आपका पूरा महीना भरपेट खाकर कटेगा। उपाय- अपने पेट का ध्यान रखें।

सिंहः- आप अबके भी महंगाई से उबरने की बहुत कोशिश करेंगे पर गणेश जी साफ देख रहे हैं कि कुछ न कर पांएगे। सब्जी खाने से आपका पेट खराब हो सकता है। बच्चों के लाख कहने पर भी उनके साथ बाजार न जाएं। वे आपको केक खाने के लिए परेशान कर सकते हैं और आपके पास पैसे न होने के कारण आपको कलंकित होना पड़ सकता है। उपाय- कौवे का काग बलि दें।

कन्याः- आप सरकारी टूअर पर रहेंगे जिससे आपका पेट तो भर जाएगा पर घर के बाकी जनों को पड़ोसी के घर से आई तड़के की बास से ही प्रसन्न होना पड़ेगा। गणेश जी का कहना है कि माना आपने कई महीनों से मदिरा पान नहीं किया है सो आपका मन कर सकता है पर भलाई इसी में है कि मदिरा के पैसों से घर में बच्चों के लिए मिठाई ले आएं। उन्हें भी लगेगा कि उनके पापा सरकारी टूअर से आएं है। उपाय- साहब को कोई अच्छा सा गिफ्ट दें।

तुलाः- किचन के डिब्बे खाली देख आप खालीपन और निराशा का अनुभव कर पत्नी को पतिआने की असफल कोशिश यह कह करेंगे कि ये महंगाई और अधिक दिन जिंदा रहने वाली नहीं। सपने में ही फल मेवों के दर्शन होंगे। गणेश जी कहना है कि बीवी बच्चों को कुछ दिन उसके मायके भेज दें। भले ही बच्चों को स्कूल से एबसेंट करवानी पड़े। उपाय- मलका का दान करें।

वृश्चिकः-पड़ोसी का आप पूरा लाभ लेंगे। आप उसे जैसे चाहे खाने में महारत रखते हैं। इसलिए आपको कितनी भी महंगाई क्यों न हो जाए चिंता करने की कोई आवश्यकता नहीं। वैसे भी आप जब ते कुंआरे हैं, गणेश जी का कहना है तब तक आपके वारे न्यारे हैं। उपाय- जब तक कुंआरे हैं आपको कुछ करने की जरूरत नहीं।

धनुः-आप सब्जियों की परेशानियों के चलते अकेला रहना पसंद करेंगे । हो सकता है आपके मन में यह सुविचार भी आएं कि आपने विवाह क्यों किया। हो सकता है महंगाई को देख आपका मन वैराग्य की ओर भी प्रवृत हो। गणेश जी का कहना है कि आप अब शिली के बदले ईश्वर की शरण में अधिक समय बिताएंगे। शुभ रंग- अरबी का।

मकरः- आपका गुजारा हाथी की चाल चल रहा है। भगवान की दया से विभाग भी आपको अच्छा मिला है। पड़ोसी आपके घर से बासमती चावलों की खुशबू को सूंघ परेशान रहते हैं और इनकम टैक्स विभाग को भी सूचित करने की योजना बना रहे हैं। गणेश जी का कहना है कि कुछ दिन के लिए बासमती चावल बनाना बंद कर दें। वरना बुरा होते देर नहीं लगती। उपाय- शुद्ध देसी घी के दीए जलाएं।

कुंभ- आप घर में फल लाने में कामयाब होंगे। चीनी लाने के मामले में आपको अबके खुशी मिलेगी। इससे परिवार में आपका कद ऊंचा होगा। गणेश जी का मानना है कि बादाम छवारे लाने के लिए आपको कठोर निर्णय लेना पड़ सकता है। बच्चों द्वारा पुराने दिनों को याद करने पर आपको उनके विरोध का सामना करना पड़ सकता है। उपाय- सूखे नलके पर रोज सुबह चाय पिए बगैर जल चढ़ाएं।

मीनः- आपकी पत्नी रोटी बनाने के पुराने तरीकों को बचत वाला टच देगी। कम खर्च में वह अधिक जायकेदार भोजन बनाने की कोशिश करेगी ताकि आप महंगाई के नियंत्रण में रह सकें। गणेश जी का कहना है कि पड़ोसी द्वारा आपको सपरिवार अपने घर डिनर पर बुलाने के भी पूरे योग बन रहे हैं। आपको पिछले सारे बैर भुलाकर जेब के हित में दो दिन व्रत रख जरूर जाना चाहिए। उपाय-इधर उधर से उधार लेना शुरू कर दें।

अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, सोलन-173212 हि.प्र.

Friday, November 20, 2009

महंगाई नियरे राखिए,संसद कुटि छवाई


अंग्रेजी-कार्टून का हिन्दी अनुवाद । स्रोत- केगलकार्टून्स । अनुवादक- शैलेश भारतवासी

महंगाई में बंस गरीब का, हो गई अब कमाल। राम रहीम को छोड़ के, घर में सब बेहाल। थाली घर घर में फिरे, जीभ मरी मुख माहीं। दाल भात चहुं दिसि दिखे, पर पेट तो कछु नाहीं। जो दाल दे रोटी दे, मुझे तो वही सरकार। अब तो मूली के पत्ते भी, हो गए पहाड़। जान गवाय रोटी मिले, हर कोई लेए गवाए। दो रोटी जिसे मिले, अब वही स्वर्ग को जाय। कंट्रोल रेट सब झूठ है, मत भरमो जग कोय। चोर बाजारी किए बिना, यहां साध न होय।

डिग्री लिए रोए जग मुआ, नौकरी मिलि न कोय। मूंगफली जो बेच रहा, अब सोई पंडित होय। रेता र्इंटा चोरी के, दो कमरे लिए बनाय। तां चढ़ी बंदा बांग दे, पर रोटी कहां से पाय। दिन भर रोजा रखत है, राती भी कुछ न खाय। अब तो हर पल दिखत है, सबको बस खुदाय। रामू ‘यामू सलमान अब, क्या बाजार को जाई। सारा दिन मंते घूमे, सब खाली झोला आई। बकरी खाती गंद है, ताकि काढ़ी खाल। जो जनता को खात है, वो हो रहे तालो ताल। पेट में रोटी, रोटी में पेट, देखे जो वो ही ग्यानी। भूखा पेट रोटी में समाए, यह तत कहत है रानी।
मनवा चीनी में लिपटा, पंख घी लिपटाय। हाथ मले और सिर धुने, सरकार चुप रही जाए। आंखड़ियां झाई पड़ी, सब्जी निहारी निहारी, जीभड़िया छाले पड़े, दूध पुकारि पुकारि। बहुत दिनन से देखती, बाट तुम्हारी पनीर। फाकों से मुक्ति मिले, तो अमर हो ये सरीर।

जनता खड़ी बाजार में, लिए थालियां हाथ। जिसके घर रोटी मिले, ले जाए सबको साथ। हे प्रभु इतना दीजिओ, मेरा परिवार पल जाए। पड़ोसी भाड़ में जाए, साधु भाड़ में जाए।
सपने में रोटी मिली,सोबत दिया जगाय। आंखिन खोली तो क्या देखा,घर रोटी को हाय। बहुत दिनन से जोवता, बाट तुम्हारी लंच। जीभ तरसे तुझ मिलन को, मारे महंगाई के दंश। चोट सतानी महंगाई की,अंग अग जरजर होई। हंसने वाले हंस रहे, जनता मरी रोई रोई। रोटी रोटी न कहो, रोटी वाले बेईमान। जा पेट रोटी संचरै, वही यहां सुलतान। जो रोऊं तो जग हंसे, हंसों तो पेट दुखाई। अब तब तक मन में रोना है, जब तक कम न हो महंगाई। कै जनता को मार दे, या कम कर दे महंगाई। अब ये पेट की आग और, मुझसे सही न जाई। भूखा सारा देस है, क्या खावै क्या सोवे। आटा लाया जत्न से , बच्चे दूध को रोवै।

जनता को उपवास भाया, अब करे निरंतर उपवास। सिवाय रूखे सूखे के, कुछ नहीं उस के हाथ। आया था इस देस में, खाने को बहुरूप। आ कर यहां पर फंस गया, सब जगह भूख ही भूख। अरहर से कल मिला, लाहौरिया भरपूरि। सकल पाप देखत गए, ज्यों सांई मिला हजूरि। अल्लाह को था ढूंढता, कल चानक मिलिया आई, सोचा था उसको खाऊंगा, पर उसने मेरी खाई। मार्किट में हाहाकार, जीव जीव भटकाहिं, छिलके वाले छिलके चुगै,मटरों से नजर चुराहिं। निम्न वर्ग समाज का, रटे कंटरोल कंटरोल,वो क्या जाने बेचारा, क्या सत्ता को झोल। जनता कुत्ता सरकार की,गली गली भटकाए। गली वाले भी खुद बेचारे, और गली में जाए। बंदे ये जग बाजार का, खाला का घर नाहीं। कीमत दे माल ले जा, तब घर में चूल्हा जलाहीं।

रोटी न रिश्ते उपजै, रोटी तो हाट बिकाहीं। लालू पालू जेहि रूचै, नोट दे ले जाहीं। ऐसा मिला न कोय जो,घर आए को दे खिलाए। घर आए साधु तो अब , दरवाजा खुद बंद हुई जाय । महंगाई महंगाई करे मरे , हर मानुस की जात। स्वर्ग में खाएंगे, क्या दाल क्या भात। खिलावन वाले तो मुए, मुए अब खावनहार। सौ सौ ढाबे थे जहां, अब जमा घटाकर चार। साधु आप ही खाइए, और न खिलाइए कोय। आप खाए सुख उपजे, और खिलाए दुख होय। हाट बाजार ह्वै ह्वै गया ,केती बार गरीब। हर बार वहां बिकती देखी, उसने एक सलीब। हम घर बांधा आपणा, अब चूल्हा चैका बंद। न जीने का अधिकार उसे , जेब हो जिसकी तंग। जिनि वोट पाए ते जिए, वोटर अब चालनहार। उनते पाछै पूंगरे, संभलें वे करतार।

महंगाई नियरे राखिए,संसद कुटि छवाई। बिन दवा बिन दारू कै, पेट रहे सफाई।


अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड,
नजदीक मेन वाटर टैंक, सोलन-173212 हि.प्र.

Tuesday, November 17, 2009

रामकृष्ण पाण्डेय- आंदोलनों में अपनी भूमिका तलाशने वाला पत्रकार

हिन्दी के वरिष्ठ पत्रकार और कवि रामकृष्ण पांडेय का सोमवार शाम निधन हो गया। न्यूज एजेंसी यूएनआई से रिटायर हुए रामकृष्ण पाण्डेय लम्बे समय से मधुमेह से पीड़ित थे। सोमवार, 16 नवम्बर को इनकी तबियत अचानक खराब हो गई जिसके बाद उन्हें अस्पताल ले जाया गया जहां उनका देहान्त हो गया। आज शाम उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। इनके परिवार में इनकी पत्नि के अलावा इनकी दो बेटियाँ भी हैं।

कम्यूनिस्ट आंदोलन से जुड़े रामकृष्ण पाण्डेय को इनके कुछ करीबी और जानकार कुछ यूँ करते हैं। हम इस माध्यम से हिन्द-युग्म की ओर से श्रद्धाँजलि दे रहे हैं।


वे अपनी भूमिका देश में चल रहे आंदोलनों में तलाशते थे

सुबह रंजित वर्मा से रामकृष्ण पाण्डेय की मृत्यु का समाचार सुनकर एकबारगी यकीन नहीं हुआ की हर हफ्ते हँसते-मुस्कराते मिलाने वाले पाण्डेय जी इतनी जल्दी धोखा दे जायेंगे। वे हमारे बीच एक अपरिहार्य उपस्थिति थे। हाल में ही उन्होंने यूएनआई में अपनी दूसरी पारी शुरू की थी और अपनी कई किताबों के प्रकाशन की योजनाएँ बना रहे थे। पाण्डेय जी से मेरा परिचय दस साल पहले हुआ था। वे जल्दी ही आत्मीय हो गए। काफी दिनों बाद उन्होंने अपना संकलन भी दिया। मिलना-
एक प्रतिबद्ध पत्रकार थे

रामकृष्ण पाण्डेय एक वरिष्ठ पत्रकार थे, कवि भी थे। वे इतने सज्जन थे कि किसी भी बात के लिए मना नहीं करते थे। हमेशा जन के लिए प्रतिबद्ध पत्रकार की तरह लगे रहे। वे इस वय में भी लगातार काम करते रहे, अपनी अस्वस्थता की ओर कभी ध्यान नहीं दिया। हालाँकि मेरा कभी उनसे बहुत व्यक्तिगत संबंध नहीं रहा, लेकिन प्रोफेशनल सम्बंध ज़रूर रहा। मैंने जब कभी भी उन्हें समयांतर के लिए लिखने के लिए कहा, उन्होंने अपनी तमाम व्यस्तताओं के बावज़ूद लिखा। अक्टूबर 2009 अंक में भी उनकी लिखी एक समीक्षा छपी है। उन्होंने कभी भी अपनी पीड़ा, अपनी बीमारी का प्रचार नहीं किया। कल जब उनकी मृत्यु का समाचार मिला तो पता चला कि वे पिछले 1 सप्ताह से गंभीर रूप से बीमार थे। यूएनआई के अलावा उन्होंने लघुपत्रिकाओं में प्रतिबद्ध किस्म का लेखन किया। इनके लेखों और कविताओं में समाज की चिंताएँ रिफ्लैक्ट होती हैं। इनका एक कविता-संग्रह भी प्रकाशित है। एक और तैयार है। आर्थिक रूप से अधिक सम्पन्न नहीं थे, इसके बावज़ूद भी वे जन संघर्ष और मानवीय पीड़ा की कलम बनते रहे।

--पंकज बिष्ट, संपादक- समयांतर
जुलना बाद में कम हो गया था लेकिन समयांतर में लगातार अपनी टिप्पणियों और लेखों से उन्होंने न केवल ध्यान खिंचा बल्कि समकालीन प्रश्नों पर बेहद सादे ढंग से लिखा। पिछले साल रंजित, कुमार मुकुल, अजय प्रकाश, पाण्डेय जी आदि ने मंडी हाउस में नियमित मिलने और रचना पाठ का एक कार्यक्रम शुरू किया जिसमे मैं भी शामिल हो गया, हालाँकि कुछ मित्रों ने निहित स्वार्थों के लिए तोड़फोड़ करने और हूट करने की कोशिश की लेकिन यह आयोजन लगातार चलता रहा। पाण्डेय जी अपनी बेबाक टिप्पणियों के कारण गोष्ठी के अनिवार्य हिस्सा थे। सही मायने में वे साहित्य के गंभीर अध्येता थे और समकालीनता बोध से भरे पूरे थे। कविता के नए सौंदर्य,सवाल,भाषा और चुनौतियों के प्रति वे निरंतर सचेत थे और नए से नए कवियों को लगातार पढ़ते थे। आनंद प्रकाश जी की तरह पाण्डेय जी नयी पीढ़ी में अपने समकालीन धुन्ध्ते इ अपनी जगह थे। स्वयं पाण्डेय जी हिंदी साहित्य की तथाकथित मुख्यधारा से पूरी तरह उपेक्षित थे लेकिन इसकी उन्हें परवाह ही कहाँ थी। वे अपनी भूमिका देश में चल रहे आंदोलनों में तलाशते थे और लगातार अपनी टिप्पणियों से उसमें भागीदार भी होते। पांडेय जी इस मामले में बेहद संकोची थे कि कोई उन्हें साहित्यकार माने ही। इसी झोंक में वे अपनी जगह ब्रेख्त या किसी और कवी की कविता सुनाने लगते। यह आज के आत्ममुग्ध लोगों की दुनिया में दुर्लभ बात है। शायद यह खूबी अपने दौर में एक गंभीर सांस्कृतिक कर्म के प्रति इमानदार सरोकारों से ही पैदा होती होती है। उनका जाना हमारे एक जरूरी दोस्त का जाना है लेकिन वे हमारी भावनाओं और संवेदना में हमेशा मौजूद रहेंगे।

--रामजी यादव, युवा कवि, सहसंपादक- पुस्तक वार्ता


पाण्डेय जी प्रगतिशील आंदोलन के लिए लगातार खाद-पानी का काम करते रहे

रामकृष्ण का बहुत लम्बा कैरियर रहा। पटना में जन्मे, वहीं से इनके कैरियर की शुरूआत हुई। पटना से जेएनयू आ गये।
बहुत अधिक परिचित नहीं था। हालाँकि उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व से लगातार प्रभावित ज़रूर रहा। उनके पत्रकारी कैरियर में कोई कंट्रोवर्सी नहीं रही, वे पूरी तरह बेदाग रहे। यही क्या कम बड़ी उपलब्धि है!

--विमल झा, फीचर संपादक, दैनिक भास्कर
कविताएँ लिखते रहे। पाण्डेय जी मूल रूप से कवि ही थे, लेकिन चूँकि बाद में पत्रकारिता से भी जुड़ गये,इसलिए एक लम्बा कैरियर पत्रकारीय भी रहा। पाण्डेय जी प्रगतिशील आंदोलन के लिए लगातार खाद-पानी का काम करते रहे। उनकी कविताएँ प्रमुख रूप से नंदकिशोर नवल द्वारा संपादित कविता संग्रह में प्रकाशित हुई, जिसमें इनके अलावा उदय प्रकाश और अरुण कमल की कविताएँ भी संकलित थीं। इनकी समझ बहुत ही अच्छी थी। मार्क्सवादी नज़रिया रखते थे। कविताओं की साफ समझ रखते थे। गोष्ठियों में जब किसी कविता पर अपने विचार देते थे तो कुछ न कुछ नया दृष्टिकोण लेकर उपस्तित होते थे। नई बात खोज ही लेते थे। युवा कवियों के बीच भी काफी लोकप्रिय थे। हालाँकि उनकी रचनाएँ समकालीनता से पूरी तरह लैश थीं, फिर भी उन्हें हिन्दी साहित्य में वह स्थान नहीं मिला, जिसके वे हक़दार थे। यह पूरे हिन्दी साहित्य के लिए चिंता की बात है।

--रंजीत वर्मा, कवि-लेखक

Monday, November 16, 2009

आजकल के बच्चे, बच्चे नहीं रहे

शनिवार को बाल-दिवस था। बाल-दिवस! चलो एक दिन के दिवस के बहाने बच्चों की सुध ली जाती है। शायद स्कूलों में कार्यक्रम होते होंगे। हमारे समय में तो होते थे। अब का पता नहीं। वैसे अब ज्यादा ध्यान दिया जाता है बच्चों पर। ज्यादा भाग्यशाली हैं आज के बच्चे। जैसे पाठ्यक्रम में बदलाव, परीक्षा समाप्त करना जैसे अनेक कदम उठाये जा रहे हैं।

बच्चे मतलब बचपन। आज से दस वर्ष पूर्व बचपन मतलब कॉमिक्स। पर अब हैं कार्टून, टीवी, विभिन्न चैनल। तब मोगली होता था, अब जैटिक्स जैसे चैनलों पर मारधाड़। तब चाचा चौधरी, मिनी, रमन, बिल्लू, नागराज और सुपर कमांडो ध्रुव में खो जाते थे। पर अब कब्जा है अमरीकी व चीनी कार्टून किरदारों का। माफ़ कीजियेगा सब के नाम नहीं पता। मेरी बुआ का लड़का है वो बता पायेगा।

चंपक, नंदन, चंदामामा व बालहंस पत्रिकायें कहीं खो गई हैं। अब बच्चों को इंतज़ार होता है शिनचैन की मूवी का। हैरी पॉटर का। इनसे बच्चा कुछ तो सीखता होगा? ऐसा कईं बार मैंने सोचा...सीखता तो होगा न?

बच्चे अब टीवी देखते ही नहीं बल्कि अब टीवी पर आने भी लगे हैं। अब परिवार को नहीं बल्कि दुनिया को हँसाने लगे हैं। माँ बोलने से पहले तो गाना गाने लगे हैं। चलना तो पैदा होने से पहले सीख लेते हैं पर चैनल पर अब नाचने लगे हैं। गर्मियों की छुट्टियों में नानी के जाते थे, फ़ालसे खाते थे पर अब "समर वेकेशन्स" हैं तो डांस और "सिंगिंग क्लासेस" भी जरूरी हैं। नहीं तो कोई न कोई हॉबी तो सीखनी ही होगी। बच्चे ही नहीं बच्चों के अभिभावक भी यही चाहते हैं। एक भी दिन बेकार न जाये। बच्चा अव्वल आना चाहिये।

पाठ्यक्रम में परिवर्तन हुआ। मैंने किसी से पूछा तो पता चला सुभद्रा कुमारी चौहान की रानी लक्ष्मीबाई की कविता अब गायब हो गई है। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उस कविता ने बच्चों का क्या बिगाड़ा है। ताँत्या टोपे पर एक पाठ हुआ करता था। काबुलीवाला और कदम्ब का पेड़ जैसी रचनायें अब किताब के पन्नों में नहीं, इतिहास के पन्नों में चली गईं हैं। राज्य स्तर के बोर्ड में जरूर ये आती होंगी, पर सीबीएसई इन्हें जरूर समाप्त करना चाह रहा है। हैरानी और परेशानी होती है कि बच्चों के पाठ्यक्रम से इनको हटा कर क्या मिला? सीबीएसई को महात्मा गाँधी के जंतर ने तो ऐसा नहीं कहा था!! क्या अब हैरी पॉटर में अपना वर्तमान और भविष्य खोजेंगे बच्चे?

अभी हाल ही में एक मित्र मिला जो सातवीं के बच्चे को ट्यूशन पढ़ाता है। माँ कहती है कि बेटा अव्वल आये। इसलिये उसे मोबाइल और इंटेरनेट दिया हुआ है। अब मोबाइल दिया है तो इस्तेमाल तो होगा ही बेशक क्लास के बीच में बात करनी हो। लैपटॉप पर चैटिंग जारी रहती है। एक मिनट के लिये भी बंद नहीं होता। पर लाडला अच्छे अंकों से पास होना चाहिये। कपिल सिब्बल ऐसे परिवारों के लिये परीक्षा समाप्त कर रहे हैं। एक शानदार कदम है उनका। इससे सूचना क्रांति में बहुत मदद मिलेगी। अभिभावक और मंत्री जी सही दिशा में जा रहे हैं।

"नानी तेरी मोरनी को मोर ले गये", "दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ", "हम भी अगर बच्चे होते", "नन्हा मुन्ना राही हूँ" जैसे अनेकों गीत हैं जो गुनगुनाये जाते थे, गाये जाते थे। सभी की जुबान पर थे। पर अब बच्चे अम्मा को "ग्रैंडमा" बुलाने लगे हैं तो गाने ऐसे क्यों बनेंगे? वैसे भी आजकल बच्चों के गाने तो दूर उन पर फ़िल्म कोई नहीं बनाता। हाँ, बच्चे जरूर बड़ों जैसी बातें करते हुए अलग अलग फ़िल्मों में दिख जायेंगे। कोई एंकर बन गया है तो कोई एड-जगत में नाम कमा रहा है। कोई धारावाहिकों में आता है तो कोई रियलीटि शो में आता है। यही आज का बचपन है!! बच्चे और अभिभावक इसी में खुश हैं।

बच्चे अब बच्चे नहीं रहे। बड़े हो गये हैं। शब्दकोश से बचपन शब्द कब गायब होगा ये तो वक्त ही बतायेगा। कुछ भी कहो, आजकल के बच्चे कामयाब जरूर हैं। क्या हुआ जो उन्होंने बचपन का "स्टापू" नहीं खेला(!), कम्प्यूटर पर ऑनलाइन गेम तो खेली है।

देर से ही सही, बाल(?)-दिवस की शुभकामनायें!

--तपन शर्मा

Sunday, November 15, 2009

तुम मिले : पर गुल नहीं खिले

प्रशेन ह. क्यावल द्वारा फिल्म समीक्षा

जन्नत और राज़ के बाद इमरान हाशमी की फिल्म "तुम मिले" भारी भीड़ के साथ सिनेमागृहों में आई है। इससे ये तो साबित होता है के भट्ट, उनका संगीत और इमरान बॉक्स ऑफिस पर भीड़ ज़रूर इकट्ठा कर सकते हैं। पर क्या यह फिल्म दर्शकों की भीड़ लगातार जुटाने में सफल हो पायेगी?

कथा सारांश:

अक्षय (इमरान) एक उभरते हुए पेंटर (नहीं आर्टिस्ट) हैं जो केप टाऊन में अपनी पेंटिंग का कोर्स करते-करते एक रेस्तरां में वेटर की नौकरी करते हैं। एक बार आर्टिस्ट कार्नर पे पैंट करते समय वे एक ग्रुप को भाषण देती हुयी संजना (सोहा अली खान) को देखते ही उसके दीवाने हो जाते हैं, पर शर्मीले अक्षय कुछ नहीं कह पाते हैं।

फिर से जब बार-बार उनकी मुलाकात होती है तो उनमें दोस्ती हो जाती है और धीरे धीरे प्यार। संजना एक सुलझी हुयी और बेहद अमीर लड़की है। वो खुद भी अपने जिंदगी में दिन ब दिन तरक्की कर रही है। पर अक्षय एक मूडी आर्टिस्ट है जो अपने मन के मर्जी जो चाहे वो करते है। फिर भी वे दोनों एक दूसरे में खो जाते है और लिव-इन रिलेशन रखते हैं।

पर अक्षय की जिंदगी में कुछ ख़ास नहीं हो पाता है और वह दिन ब दिन मायूस होता जाता है। इसी वजह से उन दोनों के रिश्तों में दरारें आने लगती हैं और एक दिन वे अपने अपने अलग रास्तें चले जाते हैं।

पर किस्मत से वे फिर से मुंबई में मिलते हैं। वह भी 26 जुलाई 2005 के दिन। दोनों हवाई जहाज में मिलते है और बाद में मुंबई में। उस दिन की खौफनाक बारिश की न्यूज़ सुन कर अक्षय संजना के बारे में सोचता है ... और आगे क्या होता है? यही कहानी है 'तुम मिले' की।

पटकथा:

26 जुलाई के वाकये के अलावा कहानी में कुछ नयापन नहीं है... पर किरदार और संवाद कहानी को दिलचस्प बनाते हैं। किरदारों को बारीकी से तराशा गया है पर कथा छोटी सी होने के कारण अंकुर तिवारी की पटकथा एक ही जगह पर ही घुमती रहती है। और फ्लैशबैक और वर्तमान का जो आगे पीछे होना है वह सामान्य दर्शक के सर के ऊपर से जाता है और कहानी के बहाव को उसी तरह तोड़ता है जैसे 25 जुलाई के पानी ने कई दीवारें ढह गयीं।

दिग्दर्शन:

जन्नत जैसी सफल फिल्म देने वाले कुणाल देशमुख इस बार कमजोर पटकथा के हाथ मात खा गए। किरदारों को बहुत खूबी से प्रस्तुत किया है दिग्दर्शक ने। फिल्म में जो भी जान है वह किरदारों के चित्रण से ही बची है। पर फिर भी फिल्म बहुत जगह पर सवाल करने पर मजबूर करती है। अक्षय का किरदार इतना मन मौजी है और एक जगह टिक नहीं पता.... इस सच्चाई को बार बार बता कर हाई लाइट करने वाले कुणाल ये बताना भूल जाते हैं कि ऐसा क्या हुआ था कि जिसकी वजह से संजना को छोड़ने के बाद अक्षय लाइफ में एक दम सेट हो गए?

फिल्म कई जगह पर सच्चाई से जुडी लगती है और कई जगह सच्चाई से एकदम जुदा... बनावटी! अक्षय के मित्र की जब जान जाती है तो वह बिलकुल बनावटी-सा लगता है और ना ही उन्हें कुछ खास त्याग कर के मरते हुए दिखाया गया है जिससे दर्शक उसकी मौत से जुड़ पाए।

अभिनय:

अभिनय के विभाग में सब लोग खरे उतरे हैं। इमरान अपने किरदार में जान डाल देते हैं। सोहा भी किरदार को परदे पर जीवित करने में कामयाब होती हैं। पर उन्हें अपने चेहरे और गालों का कुछ करना चाहिए। बहुत सारी जगहों पे वे इमरान से बड़ी लगती हैं। इमरान के मित्र बने कलाकार भी छाप छोड़ जाते हैं।

चित्रांकन और स्पेशल एफ्फेक्ट्स :

केप टाऊन की सुन्दरता और मुंबई की बदहाली दोनों सक्षम रूप से दिखाते है छायाकार प्रकाश कुट्टी। मुंबई के बाढ़ के स्पेशल इफेक्ट बहुत ही कम है और टीवी पे आने वाले प्रोमो छोड़ कर बाकि फिल्म में कुछ ज्यादा नहीं हैं। और वहीं दर्शक ठगा हुआ महसूस करता है।

संगीत और पार्श्वसंगीत:

प्रीतम का संगीत जबरदस्त है और हिट है। पार्श्वसंगीत दृश्यानुरूप है।

संकलन:

कहानी का फ्लो कमज़ोर पटकथा के कारण बिगाडा हुआ है, इसलिए संकलन भी कमजोर लगता है। फिल्म के दूसरे भाग में जहाँ कहानी को जोर पकड़ना था, वहीं कहानी दम तोड़ देती है। पर मुझे लगता है, फ्लैशबैक को टुकडों में ना दिखाते हुए एक सटीक तरीके से प्रर्दशित किया जाता तो फ्लो बना रहता, और दुसरे भाग में बाढ़ की कहानी को सच्चाई से पेश किया गया रहता तो फिल्म अच्छी हो सकती थी।

निर्माण की गुणवत्ता:

विशेष फिल्म्स की निर्माण गुणवत्ता हर फिल्म के साथ बढ़ती जा रही है और ये अच्छे संकेत हैं। कम लागत में अच्छी फिल्में बनाने वाला भट्ट परिवार हर बार अच्छी कहानी बयान करता हुआ नजर आता है। पर इसबार वे पटकथा के चयन में कहीं चुक गए हैं। और बजट के कमी के कारण बाढ़ की कहानी में कई जगह समझौता हुआ है। और यहीं पर दर्शक नाराज हो जाते हैं।

लेखा-जोखा:

*** (3.5 तारे)
26 जुलाई को सिर्फ एक चाल की तरह दर्शकों को सिनेमाघरों में लाने के लिए इस्तेमाल किया गया है। इसी वजह से इंसानी रिश्तों और भावनाओं को सफलता पूर्वक चित्रित करने वाली फिल्म दूसरे भाग में बाढ़ की कहानी को एक उचे स्तर पर ले जाने में असमर्थ होती है। और ये फिल्म २०१२ जैसे फिल्म के सामने रिलीज़ कर के भट्ट परिवार ने बहुत बड़ी गलती की है। अगर फिल्म अकेली आती तो काश प्रचार और प्रसिद्धि के भरोसे चल गयी होती। पिछली बार भी हैरी पॉटर के सामने जश्न रिलीज़ कर के एक गलती कर चुका था भट्ट परिवार। अगली बार बड़ी हिंदी फिल्मों के साथ-साथ हॉलीवुड फिल्मों को भी रिलीज़ डेट फायनल करते समय ध्यान में रखने की ज़रूरत है।

प्रोमोस, संगीत, इमरान और भट्ट परिवार का ट्रैक रिकॉर्ड के चलते फिल्म को ओपनिंग तो अच्छी मिली है लेकिन दर्शक इसमें 26 जुलाई की कहानी अधिक देखना चाहते थे ना कि केप टाऊन की।

ये फिल्म सिनेमाघरों में जाके देखने की सलाह तो मै आपको नहीं दे सकता पर टीवी और डीवीडी पे आप घर में ये फिल्म ज़रूर देख सकते हैं।

चित्रपट समीक्षक:--- प्रशेन ह.क्यावल

Wednesday, November 11, 2009

नो हींदी नो हींदी नो हींदी!!

अब आप को अपणे बारे में क्या क्या बताऊं? बस इतणा जाण लेओ कि मैं अपणी जिंदगी में जो कुछ भी आज तक बणा दुर्घटणावस ही बणा। मैं पति नहीं होणा चाता था। पर हो गया ! मैं चोर होणा चाता था पर मास्टर होणा नहीं चाता था। वो तो चुणाव में अपणे नेता जी के पोस्टर लगाए, और बो बदकिस्मती से चुणाव जीत गए और उण्होंणे मास्टरी की नौकरी का पेपर लीक करवा मेरे हाथ सौंप मुझे अपणे कर्ज से मुक्त किया। उस वक्त मैंणे उणसे कहा भी था,‘ नेता जी! मुझे पटवारी बणा दीजिए, मुझे पुलिस में भर्ती करवा दीजिए पर मास्टर तो मत बणाइए। मुझे पढ़णे पढ़ाणे से बहुत डर लगता है।’ तो वे मंद मंद मुस्कराते कहे थे,‘बचुआ आज हर नौकरी में रिस्क है। कुछ खाओ भी णहीं तो भी जणता शक की नजर से देखे है। और मास्टर हो के जो मण कहे करो, कोई कुछ नहीं कहणे वाला। देश निर्माता का फट्टा माथे पे लगाओ और मौज मणाओ।

और उणके आशीर्वाद से प्राइमरी स्कूल का मास्टर हो गिया। सच्ची को मास्टर होणे के आज की डेट में बहुत फादे हैं। गांव वाले सबकुछ फ्री में दे जाते हैं और हम भी मास्टरी का प्रसाद समझ मजे से खा लेते हैं। भगवाण उण नेता जी को स्वर्ग दे जो मेरी पुकार सुण रहा हो। ण वे चुणाव लड़ते, ण मैं उणके पोस्टर लगाणे के लिए दिण रात एक करता और ण वे मेरी भक्ति पर प्रसण्ण हो मास्टरी का पेपर लीक करवा मुझ तक पहुंचाते और ण मैं आज मास्टर शब्द अंग्रेजी तो अंग्रेजी हींदी में भी गलत लिखणे वाला मास्टर हो पाता।

आज तो साहब हम बड़ों बड़ों को पटखणी देते हैं और सीणा चैड़ा कर कते हैं कि है कोई पूरे विभाग में अपणे जैसा मास्टर कि जो स्कूल टाइम में ही स्कूल के पीछे जुए वालों को जमाए, बच्चों को सारा साल कुछ ण पढ़ाए पर परीक्षा में अपणे हर बच्चे को फस्र्ट क्लास में पास कराए!

जबसे स्कूल में सरकार की खिचड़ी चली है अपणे तो साब चांदी है। सारा दिण बच्चों का पूरी लग्ण से खिचड़ी पकाते हैं , पहले खुद खाते हैं फिर बच्चों को खिलाते हैं और जो बच जाती है उसे घर में शाम को बीवी बच्चों को ले जाते हैं। अब अकेला मास्टर स्कूल में क्या क्या करे? खिचड़ी का हिसाब, बच्चों का हिसाब, ऊपर से हिसाब का हिसाब!

बच्चों के मा बाप मुझसे बहुत खुश है। कहते हैं,‘क्या हुआ जो कुछ णहीं पढ़ा रहा है, बच्चे तो कते हैं कि स्कूल मास्टर खिचड़ी उणकी माओं से कई गुणा स्वाद बणा रहा है। बिणा पढ़ाए ही बच्चों को पूरे इलाके में फ्रस्ट ला रहा है। ऐसे में ये पढ़ाए तो इसके पढ़ाए बच्चे पता णहीं क्या तबाही मचाए। हमारे स्कूल में मास्टर जी णहीं, मास्टर जी के वेश में कोई जादूगर हैं आए। भगवाण करे ये मरणे के बाद भी यहां से ण जाए। ’ खिचड़ी बणाणे में पूरे विभाग में कोई मेरा साणी णहीं। मैं बच्चों को सारा दिण डटकर खिचड़ी खिलाता हूं और कभी कभार जो खिचड़ी का माच ण लगा होवे तो उण्हें अंग्रेजी उण्हीकी जबाण में पढ़ाता हूं।

कल सुणार का लड़का रोता हुआ आया तो मैंणे उससे पूछा,‘ रो कयों रा है? कल क्या खिचड़ी में मिर्च ज्यादा थी?’
‘णाहीं।’
‘तो क्या नमक ज्यादा थिया?’
‘णाहीं।’
‘तो क्या खिचड़ा खा खा के कब्ज हो गया?’
‘णाही!’
‘तो क्या आज खिचड़ी वाली थाली किताबों के साथ घर भुल आया?’
‘णाहीं। गुरू जी! मारोगे तो णाहीं?’
‘ णाही! खुल के बोल,अरे पगले जब हमणे कूछ करवाए ही णाहीं तो मारेंगे काहे।’
‘मैं हींदी बोलणा चाहे हूं।’
‘का करेगा हींदी बोलके? अपणी बोली बोल अपणी। हुणा जिणा है जो! हींदी तेरे बाप ने बोली?’
‘णाही!’
‘तेरे मास्टर णे बोली?’
‘णाही।’
‘तो तेरे को हींदी बोलने का दौरा कहां से आ पड़ा रे? पिटेगा हींदी बोलेगा तो, सड़क में भी और संसद में भी। टांग बाजू तुड़वाणे का जादा सौक है तो जा कबड्डी खेल आ, दंगा कर आ पर हींदी मत बोल। हींदी के दिण आजकाल बुरे चले हो रे बिटुआ। मास्टर का कहणा माण और जा अपणी थाली धो कर ला, खिचड़ी तैयार है। ’
‘पर हींदी हमार रास्टर भासा है ण?’
‘कौण कहे है रे देसभक्त?? जा णहीं तो तेरे बाप से कहे दूंगा कि तेरा बेटा आजकाल बिगड़ रहा है। ऐसी उटपटांग भासा सीखेगा कहेगा ण तो कहीं का ण रहेगा। तू बड़ा होकर बड़ा बणणा चाहे हो ण?’
‘हा।’
‘ तो सबकुछ सीख पर हींदी ण सीख। हिंदुस्थान में सबकुछ बोलते हैं पर हींदी हुींदू णहीं कहते। समझा!’
‘ णा। समझा हो माटर समझा।’

अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड, सोलन-173212 हि.प्र.

Monday, November 09, 2009

क्या आप 'वंदेमातरम्' को राष्ट्रगीत मानते हैं?

हाल ही में देवबंद,उ प्र में हुए जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिन्द के सम्मेलन में वंदेमातरम के विरोध में फ़तवा जारी किया गया। देश के गृहमंत्री चिदम्बरम व योगगुरु रामदेव भी वहाँ उपस्थित थे। चूँकि वंदेमातरम देश भक्ति से जुड़ा गीत है (ऐसा इसके आजादी के समय किये गये इस्तेमाल से कहा जा सकता है), इसलिये कुछ संस्थानों व संतों ने इस फ़तवे का विरोध किया। हालाँकि कांग्रेस के सलमान खुर्शीद व भाजपा के मुख्तार अब्बास नकवी, जो दोनों खुद भी मुस्लिम हैं, दोनों ने ही इस फ़तवे पर ऐतराज़ जताया है।

आनन्द मठ: बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित यही वह बांग्ला उपन्यास है जिसका एक गीत राष्ट्रगीत बन गया। लेकिन इसके राष्ट्रगीत बनने के बाद से अब तक यह विवादों से घिरा रहा है। वैसे हमारे देश में कोई भी ऐसी घटना या व्यक्ति नहीं जिस पर विवाद न हुआ हो। चाहें मोहनदास करमचंद गाँधी हों या "जन गण मन"। हमारा इतिहास ही ऐसा रहा है। आज भी बदस्तूर जारी है। वैसे आज बात करेंगे वंदेमातरम की। पिछले वर्ष ये उपन्यास पढ़ा था और जैसे जैसे पढ़ता गया वैसे वैसे कौतूहल जागा कि आखिर मुस्लिम समुदाय इससे नाराज़ क्यों है? जब सरकार इसको स्कूलों में गाने को कहती है तो चारों ओर से विरोध की आवाज़ें क्यों उठती हैं? इंटेरनेट पर काफी खोजबीन की तो कुछ बातें पता चली। आगे हम आनन्दमठ के कुछ आंश भी पढ़ते रहेंगे।

आइये जानने की कोशिश करते हैं इसके कुछ शुरूआती अंशों से:

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समुद्र आलोड़ित हुआ, तब उत्तर मिला-तुमने बाजी क्या रखी है?
प्रत्यूत्तर मिला,मैंने ज़िन्दगी बाजी पर चढ़ाई है।
उत्तर मिला, जीवन तुच्छ है,सब कुछ होमना होगा।
और है ही क्या? और क्या दूँ?
तब उत्तर मिला, भक्ति।
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यह उपन्यास १८८२ में प्रकाशित हुआ, किन्तु वंदेमातरम १८७५ में लिखा जा चुका था। ये कहानी है संन्यासी विद्रोह की जो १७६५-७० के बीच प्रकाश में आया। आइये जानते हैं इसकी पृष्ठभूमि को। १७५७ में सिराजुद्दोला नाम का नवाब बंगाल पर राज करता था। यही वो समय भी था जब अंग्रेज़, ईस्ट इंडिया कम्पनी के नाम से कलकत्ता के रास्ते भारत में घुसना चाहते थे। नवाब अंग्रेज़ को खिलाफ था और उनके खिलाफ लोगों को एकत्रित करता था। परन्तु किसी हिन्दू को ऊँचा दर्जा दिये जाने के विरोध में मीर जाफर नाम के एक दरबारी ने नवाब के खिलाफ बगावत कर दी। उसी साल पलासी का युद्ध हुआ। मीर जाफर अंग्रेज़ों से जा मिला और सिराज को बंगाल छोड़ना पड़ा। आगे कुछ सालों तक मीर जाफर और उसका जमाई मीर कासिम बंगाल में नवाब बन कर रहे। ये वो समय था जब नवाब अंग्रेज़ों की कठपुतलियाँ बन कर रहते थे। राज नवाब का, पैसा अंग्रेज़ों का। अंग्रेज़ ही लोगों से कर लिया करते थे। एक तरह से उन्हीं का ही कब्जा हो गया था। उसी का नतीजा था संन्यासी विद्रोह। कहते हैं कि १८५७ पहली क्रांति थी अंग्रेज़ों के खिलाफ पर लगता है कि उससे पहले भी कईं क्रांतियाँ संन्यासी विद्रोह के रूप में कलकत्ता ने देखी हैं।

संन्यासी समूह उन लोगों का समूह था जो इकट्ठे हुए थे अंग्रेज़ों के खिलाफ। सब कुछ छोड़ कर भारत माँ को आज़ाद कराने में जान की बाजी लगा रहे थे। १७६५ के आसपास ही बंगाल में सूखा पड़ा और वहाँ लाखों की तादाद में मौतें हुईं। जनता में आक्रोश फूट पड़ा था। और वो आक्रोश था नवाबों पर। ’नजाफी’ हुकूमत के खिलाफ।

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वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
शस्यश्यामलां मातरम् |

महेंद्र गीत सुनकर विस्मित हुए। उन्होंने पूछा- माता कौन?

उत्तर दिये बिना भवानंद गाते रहे:

शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम् ||

महेंद्र बोले-ये तो देश है, माँ नहीं।

भवानंद ने कहा, हम लोग दूसरी किसी माँ को नहीं मानते, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। हम कहते हैं, जन्मभूमि ही हमारी माता है। हमारी न कोई माँ है, न बाप, न भाई, न बन्धु, न पत्नी, न पुत्र, न घर, न द्वार- हमारे लिये केवल सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलां ....

महेंद्र ने पूछा-तुम लोग कौन हो?

भवानन्द ने कहा-हम संतान हैं।

किसकी संतान।

भवानन्द बोले-माँ की संतान।
.....
.....
.....

देखो, जो साँप होता है, रेंगकर चलता है, उससे नीच जीव मुझे कोई नहीं दिखाई पड़ता। पर उसके भी कंधे पर पैर रख दो तो वह भी फन उठाकर खड़ा हो जाता है। देखो, जितने देश हैं, मगध, मिथिला,काशी, कांची, दिल्ली, कश्मीर किस शहर में ऐसी दुर्दशा है कि मनुष्य भूखों मर रहा है और घास खा रहा है, जंगली काँटे खा रहा है। दीमक की मिट्टी खा रहा है, जंगली लतायें खा रहा है! किस देश में आदमी सियार, कुत्ते और मुर्दा खाते हैं?.... बहू-बेटियों की खैरियत नहीं है...राजा के साथ सम्बंध तो यह है कि रक्षा करे, पर हमारे मुसलमान राजा रक्षा कहाँ कर रहे हैं? इन नशेबाज़ मुसट्टों को निकाल बाहर न किया जाये तो हिन्दू की हिन्दुआई नहीं रह सकती।

महेंद्र ने पूछा, बाहर कैसे करोगे?
-मारकर
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शायद ये वाक्य हमारे मुस्लिम समुदाय को अच्छे नहीं लगे। हो सकता है। किन्तु ये वाक्य कब और किस परिस्थिति में कहे गये ये जानने की जरूरत भी तो है। इस बारे में मैं कुछ नहीं कहूँगा। आगे के कुछ पन्नों में भारत माँ को देवी का दर्जा दिया गया है। इस्लाम में मूर्ति पूजा की खिलाफत है। और इस्लाम में केवल खुदा ही पूजा जाता है। इसी उपन्यास में मुसलमानों के घर जलाने की बात भी कही गई है। शायद यह बात भी वंदेमातरम के खिलाफ जा रही है।

अब जानते हैं कि संतान दल में किस प्रकार से प्रतिज्ञा ली जाती है-

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तुम दीक्षित होना चाह्ते हो?
हाँ, हम पर कृपा कीजिये।
तुम लोग ईश्वर के समक्ष प्रतिज्ञा करो। क्या सन्तान धर्म के नियमों का पालन करोगे?
हाँ।
भाई-बहन?
परित्याग करूँगा।
पत्नी और पुत्र?
परित्याग करूँगा।
रिश्तेदार, दास-दासी त्याग करोगे?
सब कुछ त्याग करूँगा।
धन, सम्पत्ति, भोग, सब त्याग दोगे?
त्याग करूँगा।
जितेंद्रिये बनोगे और कभी स्त्रियों के साथ आसन पर नहीं बैठोगे?
नहीं बैठूँगा, जितेंद्रिये बनूँगा।
रिश्तेदारों के लिये धन नहीं कमाऒगे, उसे वैष्ण्वों के धनागार में दे दोगे?
दे दूँगा।
कभी युद्ध में पीठ नहीं दिखाऒगे?
नहीं।
यदि प्रतिज्ञा भंग हुई तो?
तो जलती चिता में प्रवेश करके या कहर खा कर प्राण दे दूँगा।
तुम लोग जात-पात छोड़ सकोगे? सब समान जाति के हैं, इस महाव्रत में ब्राह्मण-शूद्र में कोई फर्क नहीं।
हम जात-पात नहीं मानेंगे। हम सब एक ही माँ के संतान हैं।
तब सत्यानंद ने कहा, तथास्तु, अब तुम वंदेमातरम गाओ।
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इसमें संन्यासी/संतान व्रत की कर्त्तव्यनिष्ठा और समर्पण का पता चलता है कि किस प्रकार जन्मभूमि पर ये वीर सेना अपने प्राणन्योछावर करने को तत्पर थी।
बंकिमचंद्र के इस उपन्यास में कुछ हद तक मुसलमानों (नजाफी हुकूमत) और काफी हद तक अंग्रेज़ों दोनों के खिलाफ कहा गया है। उन्होंने ये सब १८वीं सदी की घटनाओं को ध्यान में रख कर किया, किन्तु चाह केवल इतनी कि मातृभूमि को कोई आँच न आये।

यही गीत आगे चल कर एक क्रांतिकारी गीत बन गया। जब १८९५ में पहली बार इसका संगीत दिया गया तब बंकिमचंद्र (१८३८-१८९४) इस दुनिया में नहीं थे। हर तरफ वंदेमातरम की ही गूँज सुनाई दी जाने लगी। अंग्रेज़ों ने इस उपन्यास पर प्रतिबंध तक लगा दिया। १९३७ में टैगोर ने इस गीत का विरोध भी किया क्योंकि उनका मानना था कि मुसलमान "१० हाथ वाली देवियों" की पूजा नहीं करेंगे। १९५० में राजेंद्र प्रसाद ने इसे राष्ट्रगीत का दर्जा दिया। इस गीत के केवल पहले दो छंद ही गाये जाने की बात कही जाने लगी क्योंकि आगे की पंक्तियों में भारत को ’दुर्गा’ तुल्य माना गया।

हालाँकि मुस्लिम बिरादरी में इस गीत को कुछ लोगों ने अपनाया भी है। और सिख व ईसाइ समुदाय भी इसको मान रहा है। इस उपन्यास की क्रांतिकारी विचारधारा ने सामाजिक व राजनीतिक चेतना को जागृत करने का काम किया। कांग्रेस के अधिवेशन में ही इसको प्रथम बार गाया गया और यही गीत आगे चल कर स्वतंत्रता का पर्याय बना। और विडम्बना यह कि आज कांग्रेस सरकार गृहमंत्री इसके विरोध पर मुहर लगा आते हैं।

मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश करी है कि मैं वंदेमातरम पर हो रहे विवाद और आनन्दमठ (संन्यासी विद्रोह) की कहानी को आप तक पहुँचा पाऊँ। अब मैं पाठकों पर छोड़ता हूँ कि वे (१८वी सदी के घटनाक्रम को ध्यान में रखकर) सच्ची देशभक्ति व समर्पण अथवा त्याग के प्रतीक इस गीत को राष्ट्रगीत मानें या नहीं।

सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम
शस्यश्यामलां मातरम्......।
शुभ्र ज्योत्सना-पुलकित यामिनीम्
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्
सुखदां, वरदां मातरम्।।
वन्दे मातरम्.....
सप्तकोटिकण्ठ-कलकल निनादकराले,
द्विसप्तकोटि भुजैधर्ृत खरकरवाले,
अबला केनो मां तुमि एतो बले!
बहुबलधारिणीम् नमामि तारिणीम्
रिपुदलवारिणीम् मातरम्॥ वन्दे....
तुमी विद्या, तुमी धर्म,
तुमी हरि, तुमी कर्म,
त्वं हि प्राण : शरीरे।
बाहुते तुमी मां शक्ति,
हृदये तुमी मां भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गड़ी मन्दिरे-मन्दिरे।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरण धारिणीं,
कमला कमल-दल-विहारिणीं,
वाणी विद्यादायिनीं नमामि त्वं
नमामि कमलां, अमलां, अतुलाम,
सुजलां, सुफलां, मातरम्
वन्दे मातरम्॥
श्यामलां, सरलां, सुस्मितां, भूषिताम्
धरणी, भरणी मातरम्॥
वन्दे मातरम्..

जय हिन्द।

यहाँ भी देखें:
http://en.wikipedia.org/wiki/Vande_Maataram
http://en.wikipedia.org/wiki/Anandamatha
http://en.wikipedia.org/wiki/Sannyasi_Rebellion
http://en.wikipedia.org/wiki/Nawab_of_Bengal
http://en.wikipedia.org/wiki/Bankimchandra_Chattopadhyay

--तपन शर्मा

Sunday, November 08, 2009

जेल- सच ज्यादा नाटकीय

प्रशेन ह. क्यावल द्वारा फिल्म समीक्षा

मधुर भंडारकर आज एक ब्रांड है जो मेनस्ट्रीम सिनेमा में सच्चाई से भरपूर कहानी को बखूबी पेश करते हैं और फिल्म को कॉमर्शियल प्रसिद्धि भी दिलाते हैं। आर्ट फिल्म और मेनस्ट्रीम कॉमर्शियल फिल्मों का ये मेल उनके बाएं हाथ का खेल है, इसीलिए उन्हें और उनके कलाकारों को बार-बार नेशनल अवार्ड से नवाजा गया है।

'चांदनी बार' में बार बाला, 'सत्ता' में सत्ता की गलियारों में फँसे नेता, 'कारपोरेट' में कारपोरेट जगत के स्पर्धापूर्ण जगत में घिरी बिपाशा, 'पेज-3' में मीडिया और सोसाइटी का पर्दाफाश करने वाली कोंकणा और 'फैशन' में प्रियंका चोपड़ा की मादक अदाएं पेश करने वाली मधुर की फिल्में इन्हीं फिल्मों के स्त्री पात्रों के लिए भी जानी जाती हैं। पर पहली बार वे पुरुष किरदार को मुख्य विषय बना कर फिल्म पेश कर रहे हैं।

देखते है मधुर का ये प्रयत्न क्या रंग लता है।

कथा सारांश:

पराग दीक्षित (नील नितिन मुकेश) एक कामयाब इन्सान है जिसकी जिंदगी पूरी तरह से सेट है। अभी-अभी पराग को प्रमोशन की खुशखबरी मिली है और उसकी गर्लफ्रेंड, मानसी (मुग्धा गोडसे) के साथ उसका भविष्य उज्ज्वल है। ऐसी सुख-शांति पूर्वक ऐश-ओ-आराम से भरी पूरी जिंदगी बिताने वाले पराग अपने रूम मेट, केशव राठोड़ (जिग्नेश जोशी) के साथ फ्लैट शेयर करता है। उसके रूम मेट की हरकतें मानसी को हरदम खटकती हैं। पर लड़कों में ये सब चलता है ऐसे बोल के पराग उन्हें नजर अंदाज कर देता है।

पर एक दिन जब पराग ऑफिस से निकलते वक्त अपनी आलिशान कार में जिग्नेश को लिफ्ट देके घर की ओर जा रहा होता है तभी पुलिस उनके कार का पीछा करती है। केशव पराग को कार भगाने बोलता है पर पराग रुक जाता है और कार से बाहर उतरते वक्त पुलिस उसे दबोच लेती है। केशव कार से दौड़ने लगता है और पुलिस पे फायरिंग करता है। पुलिस के जवाबी फायरिंग में केशव घायल हो के बेहोश हो जाता है। पुलिस को पराग के कार के पिछले सीट पे केशव की बैग मिलती है जिसमे 3.5 करोड़ का ड्रग्स मिलता है। पुलिस पराग को थाने ले जाती है।

सभी सबूत पराग के खिलाफ होने के कारण पराग को बेल नहीं मिलती और उसपे चार्जशीट फाइल होके केस कोर्ट में आने तक 2 साल बीत जाते हैं। उस दौरान जेल का माहौल और अनुभव पराग को पूरी तरह से तोड़ देते हैं, पर मानसी की माँ (नवनी परिहार) से मुलाकात और जेल के नए दोस्तों से मिलने वाले सहारे के भरोसे पराग कोर्ट के फैसले तक खुद को संभाल कर दिन बिताता है।

पर कोर्ट का फैसला क्या होता है? उसके बाद पराग के साथ क्या होता है... यही कहानी है जेल की।

पटकथा:

मधुर भंडारकर ने अनुराधा तिवारी और मनोज त्यागी के साथ मिल कर एक सशक्त पटकथा लिखी है। मधुर की बाकी फिल्मों की तरह इस फिल्म में भी समाज के हर तबके से आये कैदियों के रूप में अनगिनत किरदार और उनकी कहानियाँ हैं। इनके जरिये भारतीय जेलों का हदय-विदारक चित्र स्क्रीन पे उतरा गया है।

दिग्दर्शन:

एक के बाद एक सफल और अवार्ड विनिंग फिल्में दे कर मधुर खुद को बार-बार एक सशक्त निर्देशक के तौर पे पेश करने में सफल हुए है। ये फिल्म भी उसी बात पर मुहर लगाती है। मधुर व्यावसायिक सफलता और फिल्म के बिज़नस को ध्यान में न रखते हुए, उन्हें जो विषय भाते हैं, उन्हीं पे कहानी बनाते हैं और उस विषय से पूरी ईमानदारी रखते है। यही एक कारण है जिसके कारण हम उन्हें मास्टर स्टोरी टेलर बोल सकते हैं। विषय के साथ प्रामाणिक रह कर उन्होंने एक जबदस्त प्रभावी फिल्म बनायी है जो दर्शकों को अन्दर से हिला देती है।

अभिनय:

मधुर की फिल्में कहानी के विषय के साथ-साथ उसके कलाकारों के अभिनय के लिए भी जानी जाती है। इसीलिए तो उनके मुख्य कलाकार को बार-बार नेशनल अवार्ड मिलता है। पहली बार मधुर ने पुरुष पात्र को मुख्य भूमिका दे कर फिल्म बनायी है और उसके लिए नील नितिन मुकेश को लिया है। ये नील के लिए अपने आप में एक बड़ी कामयाबी है। और नील ने मधुर के विश्वास पर खरे उतरे हैं। पराग दीक्षित की सभी भावनाएँ उन्होंने अपने अभिनय से परदे पर जिन्दा कर दी है। जेल में जो उनके दोस्त बनते हैं, वेह नवाब (मनोज बाजपेई), कबीर (आर्य बब्बर) इतने सारे कलाकारों में विशेष रूप से उभर कर आते हैं।

मुग्धा गोडसे का ज्यादा रोल ना होने के कारण वह कुछ खास नहीं कर पाई हैं। पर बाकी सभी कलाकारों के सामान उन्होंने भी पूरी ईमानदारी से अपने किरदार को निभाया है।

चित्रांकन:

कल्पेश भंडारकर ने जेल के बंधे हुए वातावरण को जीवित किया है। लाइट और कलर टोन का उपयोग करते हुए उन्होंने जले का भयंकर मंज़र दर्शकों तक पहुँचाया है।

संगीत और पार्श्वसंगीत:

संगीत के लिए बहुत सारे संगीतकारों से गाने बनवाने के बावजूद संगीत में दम नहीं है पर वह कहानी में ऐसी जगह आते हैं कि ज्यादा बाधा नहीं डालते हैं।

संकलन:

पटकथा और निर्देशक की मेहनत का सम्मान करते हुए देवेन्द्र मुर्देश्वरे ने अप्रतिम संकलन कौशल का प्रदर्शन किया है।

निर्माण की गुणवत्ता:

शैलेन्द्र सिंह द्वारा निर्मित इस फिल्म में निर्माण की गुणवत्ता अच्छी है। प्रसिद्ध कला निर्देशक नितिन चंद्रकांत देसाई ने बड़ा सा जेल का सेट बनाया है जो सच्चाई से मिलता जुलता है। 90% फिल्म उसी सेट में चित्रित है।

लेखा-जोखा:

***(3 तारे)
यह फिल्म पूरी तौर से एक आर्ट फिल्म है। मधुर ने कहानी के साथ ईमानदारी रखते हुए जैसी है वैसी सच्चाई बयां की है। पर यह सच्चाई दर्शको को घुटन महसूस कराती है। दर्शको को खुद जेल में होने की सी भावना आती है। जो दिल से सख्त है उन्हें ये फिल्म बोरियत भरी भी लग सकती है। जिन्हें ऐसे डार्क और घुटन भरी फिल्में पसंद हैं, वे ज़रूर इस मूवी को देखें। आर्ट फिल्म की तौर पे इस मूवी को अवार्ड तो ज़रूर मिलेंगे पर सामान्य दर्शक जो मनोरंजन के लिए फिल्म देखने जाते हैं, उन्हें ये फिल्म देखनी की सलाह नहीं दे सकता।

चित्रपट समीक्षक--- प्रशेन ह.क्यावल

Saturday, November 07, 2009

व्यंग्य- यार, बाजार गया था!!

दफ्तर में आज भी बैठने को मन नहीं किया सो दोपहर को बिन छुट्टी दिए घर आ गया। दफ्तर में रहता तो भी कौन से पहाड़ उल्ट देता! दफ्तर में मुझे देखते ही बंदे तो बंदे, अब तो फाइलें भी थर्र-थर्र कांपने लगती हैं। मुझे देखते ही काम करवाने आए वालों की तरह इन्हें भी छुपने को जगह नहीं मिलती और लाख कोशिश करने के बाद भी महीनों-महीनों चपरासी को नहीं मिलतीं। दफ्तर में अब सीनियर बंदा हो गया हूं। इसलिए अवकाश देने से ऊपर उठ चुका हूं। दफ्तर से आकर अभी जूते भी नहीं खोले थे कि मुहल्ले में हलचल कुछ अधिक ही होती लगी। सभी थे कि वर्मा के घर की ओर दौड़े जा रहे थे। घरवाली भी बदहवास सी लगी।
मैंने न चाहते हुए भी पूछ लिया,‘ क्या बात हो गई? ये मुहल्ले वाले कहां जा रहे हैं?’
‘वर्मा के घर।’
‘क्यों? क्या हो गया ऐसा वहां कि....’ फरलो का सारा मजा किरकिरा हो गया। नहीं तो आते-आते सोचा था कि आज तो टीवी के आगे मजे से पांच बजे तक पसरा रहूंगा।
‘ कह रहे हैं कि उन्हें कुछ हो गया।’ न चाहते हुए भी मुहल्ले की मर्यादा को बचाए रखने के लिए वर्मे के घर की ओर देखा ही था कि सामने चारपाई पर पांच-सात जनों के पीछे आठ दस किसी को उठा कर हमारे मुहल्ले की ओर आते दिखे तो मन कुछ कांपा। यार वर्मे को सच्ची कुछ हो गया होगा तो संडे को ताश खेलने वाला चौथा कहां से आएगा? बिल देने के लिए घंटों लाइन में खड़ा कैसे होऊंगा? बेचारा कितना नेक बंदा था! कोई भी काम बता दो, कभी न नहीं करता था। भाई साहब, आप रहते होंगे मुहल्ले में प्रेम के लिए। मैं तो स्वार्थवश मुहल्ले में तो मुहल्ले में, अपने घर रह रहा हूं। अगर मुझे किसी की जरूरत न होती तो बाप की कसम! मुहल्ले में रहना तो दूर, मुहल्ले की ओर देखता भी नहीं। बाय गॉड! मुझे पता नहीं एकाएक शरम कहां से आई कि मैं वर्मे के घर चला गया। वहां उस आंगन में मुहल्ले वालों को रेला देखा तो परेशान हो गया। लगा जैसे सभी उसके मरे होने के इंतजार में रोने की रिहर्सल कर रहे हों। असल में क्या है न कि मैं आजतक औरों को परेशान देख कर कभी परेशान नहीं हुआ बल्कि औरों की परेशानी से अपने आराम को परेशान होते देख ही परेशान होता रहा हूँ।
‘क्या कहीं गिर गए थे?’
‘नहीं। उनके सिर की तरफ लगे ने मुँह में कुछ बड़बडा़ते कहा। वर्मा बिल्कुल शांत चारपाई पर पड़ा हुआ। औरों के कंधों पर चढ़ने का मजा ही कुछ और होता है! चाहे मरने पर ही यह मौका क्यों न मिले।
‘ तो क्या कहीं गाड़ी गुड़ी से टकरा गए?’
‘नहीं।’ उनके पांव की ओर लगे ने हँसी रोकते हुए कहा।
‘तो दफ्तर में किसी से हाथापाई तो नहीं हो गई?’ अब जनता पगलाने भी लग गई है भाई साहब। घर का सारा गुस्सा हम ईमानदार कर्मचारियों पर उतारने लगी है। चाहती है दो टूटे हाथों से सौ हाथों का काम करें। साले रिश्वत के चार पैसे क्या हाथ में रख देते हैं, सोचते हैं बंदा गुलाम बना लिया। अरे भैया! ये तो साला रिश्वत का खून मुंह लग गया है, वरना हम तो न काम करते और न रिश्वत ही लेते।
‘नहीं। थोड़ा हाथ दो।’
‘यार! माफ करना। मैंने तो आज तक दफ्तर में भी कलम तक नहीं उठाई तो इस बंदे को कैसे उठाऊंगा? आखिर इन्हें हुआ क्या??’
‘होना क्या यार! बाजार गया था।’ वर्मे ने चारपाई पर पड़े हुए संवेदनाएं बटोरना शुरू किया। उसे उठाने वाले बंदे किराए के थे सो चुप रहे। मुहल्ले वाले होते तो उसे गिरा कर कभी के जा चुके होते।
‘तो क्या वहां लाला से हाथापाई हो गई?’
‘नहीं।’ उसने करहाते हुए कहा।
‘तो??’
‘तो क्या! प्याज को छुआ भर था कि साले ने ऐसी दुल्लती मारी.. ऐसी दुल्लती मारी कि... चीनी को प्यार से देखा भर ही था कि चीनी ने गाल पर तड़ातड़ घूंसे दे मारे। गाल सहलाने ही लगा था कि दाईं ओर से काले कलूटे माश से अचानक नजर मिल गई। फिर क्या था! माश ने आव देखा न ताव। बाजू ही मरोड़ दी। इससे पहले कि मैं संभल पाता आलू पर गलती से हाथ पड़ गया। बस फिर क्या था! आलू ने सिर पर टचाटच लगा दी। उसके बाद क्या हुआ! मुझे कुछ पता नहीं। बस! मैं बेहोश हो गया।’
‘अब कैसा फील कर रहा है?’
‘ अब तो भगवान से हाथ जोड़ यही विनती है कि वह मुझे श्मशान भेज दे पर बाजार न भेजे।’ कह वह फिर बेहोश हो गया। सरकार! वर्मे को होश में कब तक ला रहे हो? पानी का बिल भी देना था जमा कराने को उसके पास मुझे तो।

--अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड,
नजदीक मेन वाटर टैंक सोलन-173212 हि.प्र.

Friday, November 06, 2009

प्रभाष जोशी- एक प्रकाश-पुंज अस्त हो गया (श्रद्धाँजलि)

श्रद्धांजलि - प्रेमचंद सहजवाला

जीवनवृत्त
प्रभाष जोशी (जन्म- 15 जुलाई 1936, निधन- 05 नवम्बर 2009) हिन्दी पत्रकारिता के एक स्तंभ थे। ये हिंदी दैनिक 'जनसत्ता' के सम्पादक रह चुके हैं और सम्प्रति 'तहलका हिंदी' के लिये लिखते थे।

इंदौर (म॰प्र॰) में जन्मे प्रभाष जोशी ने 'नई दुनिया' के साथ अपने पत्रकारिता-कैरियर की शुरूआत की। नवंबर 1983 में वे जनसत्ता से जुड़े और इस अखबार के संस्थापक संपादक बने। नवंबर 1995 तक वे अखबार के प्रधान संपादक रहे लेकिन उसके बाद से अबतक वे जनसत्ता के सलाहकार संपादक के रूप में जुड़े रहे। उन्होंने अपनी लेखनी से राष्ट्रीयता को लगातार पुष्ट किया। वैचारिक प्रतिबद्धता का जहाँ तक सवाल है तो उन्होंने सत्य को सबसे बड़ा विचार माना. इसलिए वे संघ और वामपंथ पर समय-समय पर प्रहार करते रहे।

प्रभाष जोशी ने जनसत्ता को आम आदमी का अखबार बनाया। उन्होंने उस भाषा में लिखना-लिखवाना शुरू किया जो आम आदमी बोलता है। देखते ही देखते जनसत्ता आम आदमी की भाषा में बोलनेवाला अखबार हो गया. इससे न केवल भाषा समृद्ध हुई बल्कि बोलियों का भाषा के साथ एक सेतु निर्मित हुआ जिससे नये तरह के मुहावरे और अर्थ समाज में प्रचलित हुए।

अब तक उनकी प्रमुख पुस्तकें जो राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुई हैं वे हैं- हिन्दू होने का धर्म, मसि कागद और कागद कारे। अभी भी जनसत्ता में हर रविवार उनका कॉलम कागद-कारे छपता था। हाल में ही इन्होंने 'तहलका-हिन्दी' में 'औघट-घाट' नाम से स्तम्भ लिखना शुरू किया था।

ऊषा से प्रभाष जोशी का विवाह हुआ, जिससे इन्हें 2 बेट संदीप और सोपान तथा एक बेटी सोनल हुए। सोपान जोशी पर्यावरण की प्रसिद्ध पत्रिका 'डाऊन-टू-अर्थ' के प्रबंध संपादक हैं।

पुरस्कार एवं सम्मान- हिन्दी भाषा और साहित्य के विकास में योगदान के लिए साल 2007-08 का शलाका सम्मान।
विकिपीडिया से साभार
आज की सुबह सचमुच मेरे लिए एक दुखद समाचार लाई. दिन बहुत सामान्य तरीक़े से शुरू हुआ कि मोबाइल पर एक सन्देश आया, जिसे पढ़ कर हृदय को बहुत गहरा धक्का पहुंचा. सन्देश सुनीता शानू ने भेजा था - 'प्रभास जोशी जी नहीं रहे. आज का दिन बहुत दुखद है'. मैं इस खबर पर विश्वास करने को तैयार नहीं हूँ, इस लिए दो चार फ़ोन खड़खड़ा देता हूँ, पर सब के सब दोस्त मुझ पर कितना अत्याचार कर रहे हैं, कह रहे हैं 'हाँ, प्रभास जोशी नहीं रहे'!

हिंदी पत्रकारिता के महास्तंभ, 73 वर्षीय प्रभास जोशी जैसे पावन हृदय व्यक्ति बहुत कम मिलेंगे. 'जनसत्ता' समाचार पत्र को अख़बार जगत में चरमोत्कर्ष तक पहुंचाने वाली एक शख्सियत के रूप में मैं उन के नाम से पहले ही परिचित था. पर इस रूप में तो उनका परिचय जग-प्रसिद्ध रहा. इतना जान कर मैंने कौन से तीर मार लिए. पर क्या मैं खुद कभी उनके निकट खड़ा या बैठा भी था? ऐसा सौभाग्य भला मेरा कहाँ? पर हाँ, एक दिन वह शुभ घड़ी भी आ गई, जब दूरदर्शन के NDTV चैनल के स्टूडियो में मैं प्रभास जोशी के बहुत निकट बैठा था. यह पहली बार था कि ज्यों ही वे आए, मुझे उठ कर उनके चरण स्पर्श करने का मौका मिला. NDTV स्टूडियो में शूटिंग थी साप्ताहिक कार्यक्रम 'हम लोग' की, और उस में प्रभास जी व्यस्तता के कारण कुछ देर से आए थे. उन के आते ही मैं उत्तेजित सा था कि जिस महान शख्सियत की पवित्र छवि मैं मन में कई वर्षों से समेटे हूँ, वह महान शख्सियत अब स्टूडियो की इन सीढ़ियों पर मेरे सामने, वहां, केवल तीन चार कदम ही दूर बैठेगी. कितनी बढ़िया जिंदगी है मेरी. मैं ने जब कैमरा की परवाह किये बिना उठ कर उन के चरण स्पर्श किये, तो जो सौम्यता व आर्शीवाद के भाव उन के चेहरे पर आए, उन का वर्णन सचमुच मुश्किल है. मैं एक कहानीकार भी हूँ, सो उस गहराई, विद्वता और बड़प्पन से भरे चेहरे का चरित्र-चित्रांकन करने की चेष्टा करने लगा. कुछ वर्ष सोचता रहा, कि आखिर क्या भिन्न था, अन्य बड़े लोगों में और प्रभास जी में? यह बात जा कर मुझे तब समझ आई, जब इस वर्ष मैं 'हिंदी अकादमी' के एक कार्यक्रम में गया. 'हिंदी अकादमी' ने महात्मा गाँधी की विश्व-प्रसिद्ध पुस्तकों 'हिंद स्वराज' व 'सत्य के प्रयोग' को प्रकाशित कर के 18 अगस्त 2009 को दिल्ली की मुख्य-मंत्री शीला दीक्षित द्वारा उन के लोकार्पण का कार्यक्रम रखा था. दिल्ली के त्रिवेणी सभागार में मैं अपना कैमरा ले कर प्रविष्ट होता हूँ. अभी शीला जी का तो इंतज़ार है, हाल भी अभी आधा भरा है, पर दर्शक-गण में सब से पहली पंक्ति में वो... अपने प्रभास जी ही तो बैठे हैं! मैं तेज़-तेज़ कदम बढ़ाता हुआ वहीं पहुँचता हूँ और एक मौका और, उन के चरण स्पर्श करने का! 'राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय' की निदेशक डॉ. वर्षा दास के साथ बैठे प्रभास जी से मैं कहता हूँ - 'मैं NDTV में आप के साथ ही था'! और वे यह कह कर मुझे चकित कर देते हैं - 'याद आ गया!'. मैं उन्हें कहता हूँ - 'उस दिन NDTV के 'हम लोग' कार्यक्रम में इस बात पर चर्चा थी कि दूरदर्शन ग्लैमर का शिकार होता जा रहा है. केवल अभिनेता, क्रिकेटर और नेता ही दूरदर्शन पर छाए रहते हैं'. प्रभास जी मुस्कराते हैं, बहुत ही आत्मीयता भरी और प्रोत्साहन भरी मुस्कराहट. अपनी साहित्य व पत्रकारिता यात्रा में मैं हर किस्म के लोगों से मिला हूँ. कुछ ऐसे भी, जो एक कहानी छपते ही रातों-रात ओ. हेनरी या तोल्स्तॉय हो जाते हैं और कुछ ऐसे, जैसे प्रभास जी, जो छोटों से बात करें तो लगे, साहित्य से जुडे सभी लोग एक ही परिवार के तो हैं. 'हम लोग' कार्यक्रम में प्रभास जी दूरदर्शन मीडिया को लताड़ रहे हैं. कह रहे हैं- 'देश में कितने लोग भूखों मरते हैं, यह कोई खबर नहीं. पर अभिनेता मंदिरों में घूम रहे हैं, यह बड़ी खबर है'. स्टूडियो में ठहाका बिखेरते हुए प्रभास जी कार्यक्रम संचालक पंकज पचौरी से कह रहे हैं - 'आप के लिए कैटरिना कैफ बड़ी खबर है, पर सूखे में मर रहे लोग खबर नहीं हैं... बस नेता... अभिनेता...खिलाड़ी, इन तीनों के बीच ही तो झूलता है दूरदर्शन'...

प्रेमचंद सहजवाला प्रभास जोशी के साथ
...पहले देश की जनता सुबह होने का इंतज़ार करती थी कि अख़बार आए तो खबरें पढ़ें. दिन आधा बीते तो 'सांध्य टाईम्स' या 'evening news ' आ जाता था. कुछ शौकीन लोग आकाशवाणी पर हर घंटे 'पिप पिप पिप...' की ध्वनि बजते ही अशोक वाजपेयी या देवकी नंदन पांडे की कठोर आवाज़ों में समाचार सुनने बैठ जाते थे. पर जब से 'पल पल की खबर' देने वाले, या 'सब से तेज़' जैसे चैनल आए हैं, देश की सूरत ही बदल गई. खबरें घटती बाद में हैं, अचानक दूरदर्शन पर आ पहले ही जाती हैं शायद, कभी कभी तो मुझे ऐसा ही लगता है. किसी खबर को कई गुना सनसनीखेज़ बनाने की कला में माहिर चैनलों ने देश के आम आदमी को बहुत उत्तेजित सा कर दिया. मुझे एक रोचक प्रसंग याद आ रहा है, जब दिल्ली के गंगाराम हस्पताल के कमरा नं. 214 में प्रियंका गाँधी दाखिल थी और इंतज़ार था उनके वैवाहिक जीवन की पहली ख़ुशी का यानी पहली डिलिवरी का. दूरदर्शन के पत्रकार बेचैन से हस्पताल का कॉरिडोर पर कब्ज़ा किये थे और चैनलों के स्टूडियो से बेताब से समाचार संपादक चिल्ला कर पूछ रहे थे - 'हेलो दिव्या (मालिक लहरी), क्या कोई ताज़ा बुलेटिन आई है'? दिव्या मालिक लहरी बुरी तरह हिलती-डुलती, उत्तेजना में अपना संतुलन बिगाड़ती सी चिल्ला रही हैं 'नहीं आशुतोष, अभी तो डॉक्टर अन्दर किसी को जाने ही नहीं दे रहे'!... एक और चैनल पर एक और समाचार रीडर चिल्ला रहा है - 'प्रियंका गाँधी को क्या लग रहा है, उन्हें बेटा होगा या बेटी'?... मैं चकित हूँ. दूरदर्शन वाले चाहते हैं कि खबर पहले ही घट जाए, अगर नहीं घटेगी तो हम उसे घटवा कर ही दम लेंगे... मैं ने इसीलिए एक व्यंग्य शेर लिखा था:

खबरनवीस वहां पर खबर से पहले गए,
अगर न जाते तो ये वारदात होती क्या!


देशी पत्रकारिता के मज़बूत स्तम्भ
प्रभाष जोशी केवल इस मायने में वरिष्ठ नहीं थे कि वे एक राष्ट्रीय अखबार के संस्थापक, संपादक या वयोवृद्ध पत्रकार थे, बल्कि उन्होंने पत्रकारिता के लिए तय अभिव्यक्ति की आज़ादी और सरोकारों को लगातार विकसित करने का काम किया। और इस मामले में उनकी भूमिका अग्रणी थी। वे अपने कई संपादकीयों और बयानों को लेकर विवादों में भी घिरे और उसे स्वीकारा भी, लेकिन प्रभाष जोशी दरअस्ल पत्रकारीय अस्मिता और कर्तव्य की एक भारतीय परम्परा बनाने और जनसाधारण से उसे जोड़ने का निरंतर प्रयत्न करते रहे। इस प्रक्रिया में अंग्रेजीयत में डूबी बहुराष्ट्रीय आधुनिकता को उन्होंने पर्याप्त रूप से कोसा और इसके ख‌़िलाफ़ लिखते रहे। 'सेज़-विरोध' तथा विस्थापन विरोधी आंदोलनों से उन्होंने अपना एक जीवंत रिश्ता बनाया और यथार्थ को जानने के लिए लगातार जगह-जगह की यात्राएँ करते रहे। इससे ज़ाहीर होता है कि वे महज़ सूचनाओं के आधार पर विचार बनाने और गुरु-गंभीर टिप्पणीकारिता के क़तई ख़िलाफ़ थे। प्रभाष जी पत्रकारिता की जिस मर्यादा और गौरवपूर्ण अतीत के हिस्से थे, उसमें बेशक जातिवादी व्यवस्था और पूँजीवाद के नये गठजोड़ों को समूल ध्वस्त करने की कुबत न रही हो, लेकिन उसके प्रति सच्चा आलोचनात्मक रूख लगातार बना रहा। लोकतांत्रिक संस्थाओं की कार्यपद्धति और भारतीय जनता के साथ उनके संबंधों और कर्तव्यों को लेकर उन्होंने ताउम्र एक सचेतन पत्रकार की भूमिका निभाई। इसीलिए उनमें न केवल व्यक्तिगत ईमानदारी और कबीराना स्वभाव प्रचूर मात्रा में मौज़ूद रहा बल्कि आनेवाले समय में भी आदर्शवादी विचारशील और प्रतिबद्ध पत्रकारों को प्रभावित करने के लिए पर्याप्त चारित्रीक विशेषता रही है। वे अपने लेखन की वज़ह से समकालीन हिन्दी साहित्य और पत्रकारिता के बीच एक जीवंत-सेतु बनाते रहे। भाषा के साथ इनका संबंध और सूचनाओं के प्रति सुचिंता उन्हें लगातार किसी विचार, नीति और कानून को भारतीय जनता की खुशहाली की कसौटी पर कसने को प्रेरित करती थी जो वस्तुतः उन्हें अंतिम आदमी के प्रति जवाबदेही की गाँधी के परिकल्पना के नज़दीक ले जाती रही है। उनके निधन से एक बड़ी और गौरवशाली परम्परा बाधित हो गई है।

-रामजी यादव
पर बात तो प्रभास जोशी की हो रही थी, मैं शायरी क्यों करने लगा! पर बात दरअसल उस संतुलन की है, जो प्रिंट मीडिया में था, पर दूरदर्शन के आते ही वह संतुलन जाता रहा, भले ही प्रिंट मीडिया पर भी खबर को चटपटी बनाने और सनसनीखेज़ बनाने के इल्जाम अक्सर लगते रहे. पर प्रभास जोशी जैसे पत्रकार जिन अख़बारों में रहे वहां नहीं. यह लेख लिखते-लिखते मैंने हिंदी कवियत्री ममता किरण को फ़ोन किया और कहा कि प्रभास जी के बारे में आप क्या कहना चाहेंगी. ममता जी ने कहा कि वे 'जनसत्ता' में प्रभास जी के नियमित कालम 'कागद कारे' को लगातार पढ़ती रही और बेहद प्रभावित थी. उनके अनुसार प्रभास जी चाहे क्रिकेट हो या फिल्म, या राजनीती-जगत, देश के हर विषय पर लिखने में अपना सानी नहीं रखते थे. साथ ही यह कि वे चाहते तो सत्ता के नैकट्य का भरपूर लाभ उठा सकते थे, पर वैसा करना उनकी फितरत का हिस्सा नहीं था. ममता जी का फ़ोन रखा तो आकाशवाणी दिल्ली के निदेशक लक्ष्मीशंकर वाजपेयी ने जो सन्देश भेजा वह इस प्रकार है - 'प्रभास जी ने अनेक बंधी-बंधाई लीकों को तोड़कर हिंदी पत्रकारिता को नई भाषा, नई शैली, नया मुहावरा दिया. वे राष्ट्रीय जीवन में नैतिक मूल्यों के पहरेदार थे. इस नैतिक पतन के युग में उनका जाना नैतिकता की मशाल का बुझना है'. और ठीक उसी समय एक ओर सन्देश आया - 'पत्रकारिता जगत का एक और सितारा डूब गया. मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि'...

मैंने जब NDTV के उस कार्यक्रम में यह कहा कि दूरदर्शन चैनल तो अभिनेता को सर चढा देते हैं, अभिनेता संजय दत्त पर कितने भी संगीन इल्ज़ाम हों, पर दूरदर्शन उस की खबर देते समय बड़े प्यार से उसे 'संजू बाबा' या 'मुन्ना भाई' कहते हैं, तब स्टूडियो में तालियों की गड़गडाहट हुई सो अलग, पर जैसे छोटा बच्चा शाबासी के लिए अपनी बात कह कर किसी बड़े की तरफ देखता है, मेरी नज़र भी अपनी बात कहते ही प्रभास जोशी पर टिक गई. जो मुस्कराहट उन के चेहरे पर आई, वह भी मैं कई दिन तक सोचता रहा, कि कैसी थी वह मुस्कराहट?... क्या था उस में? स्टूडियो में बाद में उन्होंने मेरी पीठ भी थपथपाई, और मैंने उनको अपना पूरा परिचय दे डाला (शुक्र कि यह नहीं कहा कि मैं तो हिंदी का मोपांसा या चार्ल्स डिकेंस हूँ). शायद उसी को याद कर के वे यहाँ, त्रिवेणी सभागार में कह रहे थे - 'याद आ गया'. और उनके चेहरे पर मुस्कराहट भरी रेखाओं से मैं समझ गया, वे साहित्यकारों पत्रकारों से मिल कर उन्हें कभी भूलते नहीं. सब को अपना समझते हैं, सो उनकी मुस्कराहट में वह आत्मीयता का मोती, मैं अपनी अदना सी शख्सियत में पिरो कर फूला नहीं समा रहा था. आत्मीयता ऐसी, जैसे वे अभी, मित्रों की तरह बैठ कर मेरे साथ बहुत देर तक गप्पें मारने लगेंगे...

शीला जी आईं तो उनके साथ-साथ प्रभास जी भी मंच तक पहुँच गए और कुछ ही मिनटों में गाँधी की पुस्तकों का विमोचन हो गया. त्रिवेणी सभागार की वह रिपोर्ट मैंने हिन्दयुग्म में ही 'गाँधी की पुस्तकों पर 'हिंदी अकादमी' द्वारा यादगार कार्यक्रम' शीर्षक से 24 अगस्त को दी थी. शीला जी अपना भाषण कर के व्यस्तता के कारण चली गई और मंच पर प्रभास जी छा गए. उन्होंने गाँधी पर अपने विचार जब प्रकट करने शुरू किये तब मेरी कई दिनों की गुत्थी सुलझी कि प्रभास जी को ही मैं एक दो मुलाकातों में अपना इतना करीबी क्यों समझने लगा हूँ. गाँधी मेरी भी स्तुत्य शख्सियत रहे, और प्रभास जी की बातों से लग रहा है, जैसे गाँधी की विरासत को मन में समेटे रखने वाले मुट्ठी भर भारतवासियों में से एक हैं प्रभास जी, जो समझा रहे हैं कि गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका से लौटते हुए 'हिंद स्वराज' 10 दिन में ही लिख डाली. जब उनका दाहिना हाथ थक गया तब उन्होंने बाएँ हाथ से लिखना शुरू किया. और कि उन्होंने वर्षा दास से कह कर बाएँ हाथ से लिखते हुए गाँधी का एक चित्र भी बनवाया था'...

गाँधी की अहिंसा और सादगी जैसे मूल्यों को आत्मसात करने वाले कितने लोग हैं देश में? पता नहीं. पर एक प्रभास जी तो हैं न, सामने ही, मैं उन्हें व्यक्तिगत रूप से जानने जो लगा हूँ, और इस समय मैं जिन के भाषण का विडियो-क्लिप मैं अपने मोबाइल में रिकॉर्ड करता जा रहा हूँ!...

और फिर गाँधी के सन्दर्भ में ही प्रभास जोशी के दर्शन एक बार फिर हो जाते हैं मुझे. कितनी खुशकिस्मत जिंदगी है मेरी. प्रभास जी तो वो आ रहे हैं... वो रहे... दि. 1 अक्रूबर 2009 को 'राष्ट्रीय गाँधी संग्रहालय' में आने का निमंत्रण मुझे स्वयं वर्षा दास जी ने ही कुछ दिन पहले दिया था और यह भी कहा था कि गाँधी की पुस्तक 'हिंद स्वराज' पर उस दिन प्रभास जी बोलेंगे... बस.. मैं कार्यक्रम के निर्धारित समय से पहले ही पहुँच जाता हूँ. कौन-कौन लोग आ गए हैं, यह ध्यान नहीं, पर इतनी देर की प्रतीक्षा के बाद देखो, प्रभास जी वो तो आ रहे हैं...

...प्रभास जी कह रहे हैं कि गाँधी का स्वराज न तो राजनैतिक स्वराज था, न सामाजिक, न ही वह आर्थिक स्वराज था, वह तो अध्यात्मिक स्वराज था...



...मुझे गर्व हो रहा है कि आज मैं फिर उनके भाषण का वीडियो बना रहा हूँ और घर आते ही उनका भाषण लैपटॉप में उतार कर उसे यूट्यूब में डाल देता हूँ, ताकि जो उनके विचार सुनना चाहें वे सुनें. इस कार्यक्रम की रिपोर्ट भी मैं ने हिन्दयुग्म में 'हिंद स्वराज' के 100 वर्ष और विचार-गोष्ठियों पुस्तक-विमोचनों का गर्मागर्म-सिलसिला' शीर्षक से दि. 10 अक्टूबर को दी थी. हिन्दयुग्म पर प्रभास जी के भाषण की विडियो क्लिप देख कर मैं बहुत प्रसन्न था. इसलिए भी कि वह विडियो क्लिप प्रभास जी का था और इसलिए भी कि प्रभास जी का वह विडियो क्लिप मैंने बनाया था.

मैंने कार्यक्रम के लगभग अंत में उठ कर यह पूछा था कि गाँधी जी तो रेल के भी खिलाफ थे, भला रेल के बिना हम सब कैसे रह सकते हैं... तब तो प्रभास जी ने कहा था कि अब काफी समय हो चुका है, हम लोग बाद में चाय पीते पीते-पीते भी बात कर सकते हैं, पर मैं एक बार फिर उनके चेहरे पर वही सौम्य मुस्कराहट देख अभिभूत था, क्यों कि वे मुस्कराते हुए मुझे ही संबोधित कर रहे थे...

...और चाय के दौरान मुझ से भी अधिक बड़े बड़े जिज्ञासु मुझ से बाज़ी मर ले गए और प्रभास जी को घेर लिया. मैं चाय देने वाले 'गाँधी संग्रहालय' के सेवाधारी से अपनी चाय बटोरता ही रह गया कि लोग वहां पहले ही पहुँच गए. पर मैं चाय समेत उस घेरे के बाहर पहुँच हल्की सी धक्का-मुक्की करते प्रभास जी के पास पहुँच जाता हूँ. प्रभास जी सब की जिज्ञासाओं को दूर करते गाँधी के मूल्यों की शाश्वतता बता रहे हैं, बारीकी से समझा रहे हैं, कि गाँधी जी ने जब-जब जो जो बात कही, तब तब उस का तात्पर्य क्या था. यही वह क्षति थी, जो मुझे लगा कि देश को हुई है, प्रभास जी के अचानक चले जाने के बाद. देश अब न्यूयार्क और शांघाई से बराबरी के रास्ते पर है. आधुनिकता अपने चरम पर है. पैसा भगवान हो गया है. आज का आदमी नंगा हो कर अपनी मूल्यहीनता ओर दिवालियेपन का प्रदर्शन कर रहा है. गाँधी के मानवीय मूल्यों को एक पूंजी की तरह सीने में संभाले दूसरों के बीच बांटने वाला आज सुबह चला गया. एक प्रकाश-पुंज अस्त हो गया... क्या इस से अधिक दुखद कोई खबर हो सकती है? नहीं, प्रभास जी जैसी शख्सियत, अन्यत्र मिलनी असंभव है...

...और इतनी बड़ी हस्ती की आत्मीयता से अब वंचित हो जाने की क्षति तो मेरी व्यक्तिगत क्षति है, शुद्ध व्यक्तिगत...

अजब प्रेम की गजब कहानी : हँसी के गुब्बारे

प्रशेन ह. क्यावल द्वारा फिल्म समीक्षा

"अंदाज अपना अपना" जैसी क्लासिक कॉमेडी फिल्म देने वाले राजकुमार संतोषी कई सालों से इस कथा प्रकार से दूर थे। उनकी बहुत सारी फिल्में भी बीच में फ्लॉप हुईं। इसी बीच ऐसे देखा गया कि एक संजीदा फिल्म से भी ज्यादा बिज़नेस एक औसत दर्जे की कॉमेडी फिल्म कर लेती है। शायद यही सोचकर एक हिट फिल्म देने की आस में राजकुमार संतोषी लेकर आये है, रणबीर कपूर और कैटरिना कैफ की "अजब प्रेम की गजब कहानी"।

शीर्षक से ही मजेदार लगने वाली ये फिल्म क्या दर्शकों का भरपूर मनोरंजन करने में कामयाब हो पाई है? क्या इस फिल्म में वह बात है जो दर्शकों को राजकुमार संतोषी के निर्देशन का लोहा मनवा सके?

कथा सारांश:

प्रेम (रणबीर कपूर) नामक एक मस्तमौला जवान अपने कलंदर दोस्तों के साथ ऊटी में एक "हैप्पी क्लब" नाम का ग्रुप चलाता है। प्रेम इस क्लब का स्वघोषित प्रेसिडेंट है और सदा ही वह टैग अपने शर्ट पे लगा कर घूमता है। इस क्लब का काम है मुसीबत में फँसे प्रेमियों की मदद करके उन्हें मिलाना। इसी चक्कर में वह अपने दोस्त के लिए एक लड़की को उठा कर के उनकी शादी करा देता है।

ये सब देख के जेनी (कैटरिना कैफ) नामक एक सुंदरी प्रेम और उसके दोस्तों को अगवा करने वाली टोली समझ बैठती है। जेनी के पिता प्रेम के ही दिलाये हुए फ्लैट को रेंट पे लेते है। प्रेम जेनी से मन ही मन में मुहब्बत कर बैठता है पर कुछ कह नहीं पता। लेकिन वह उसकी हर बात मानता है और उसके लिए कुछ भी करने को हमेशा तैयार रहता है। इसी चक्कर में वह जो उट-पटांग हरकतें करता है, वही इस फिल्म की कहानी है।

पटकथा:

कहानी तो छोटी और सीधी-साधी लगती है पर राजकुमार संतोषी ने पटकथा को कुछ इस तरह निखारा है कि फिल्म दर्शकों को पकड़े रखती है और हँसाने पे मजबूर भी करती है। पर कुछ कुछ गिग्स याने कॉमेडी दृश्य कामयाब होते हैं तो कुछ फीके पड़ते हैं।

कथा में नायक नायिका के पास आने और दूर जाने के सिलसिले बार-बार होने के कारण कभी-कभी कम असरदार लगते हैं। और विलन का ट्रैक बीच में ही घुसेड़ा हुआ सा लगता है।

आर. डी. तेलंग लिखित संवाद मजेदार है जो सीधे-साधे दृश्यों में भी जान डालते हैं।

दिग्दर्शन:

राजकुमार संतोष का संजीदा फिल्मों के साथ-साथ कॉमेडी में भी कोई हाथ नहीं पकड़ सकता, यह उन्होंने फिर से साबित कर दिया है। कैरिकेचर तरीके से शूट की गयी ये फिल्म बच्चों और बूढों सहित सभी को भर पेट हँसाएगी। राजकुमार संतोषी फिर से ये दिखा देते हैं कि उट-पटांग हरकतें और अश्लील हावभाव और संवादों के बिना भी कॉमेडी फिल्म बनायीं जा सकती है। एकदम साफ़ सुथरी और हँसी से भरपूर फिल्म बनाने के लिए राजकुमार संतोषी का हार्दिक अभिनन्दन।

पर ये बात ज़रूर है के वे फिल्म को और क्रिस्प बना सकते थे। एक दो गाने कम कर सकते थे और कुछ कम असरदार कॉमेडी को हटा सकते थे। फिल्म की लम्बाई कम भी होती तो चलता, मगर असर कम नहीं होना चाहिए। दर्शकों को कुछ और सोचने का मौका नहीं मिलना चाहिए।

अभिनय:

ये फिल्म पूरी की पूरी रणबीर कपूर के अभिनय गुणों को उजागर करती है। रणबीर ने जिस फुर्ती और समझदारी से इस किरदार को निभाया है कि उनके जेनरेशन का कोई भी अभिनेता उनके सामने फीका पड़ जाए। रणबीर स्क्रीन पर अपने प्रभाव से चमका देते हैं। उन्होंने एक पार्टी में डांस वाले दृश्य को आने वाले कई सालों के लिए यादगार बना दिया है। यह ऐसा दृश्य है जिसमें लोगों की हँसते-हँसते कुर्सी से नीचे गिरने की संभावना है। रणबीर वाकई अगले सुपर स्टार हैं।

उनके अलावा कैटरिना ने भी पहली बार कॉमेडी करते हुए भी अच्छी अदाकारी दिखाई है। वे दिखती भी ऐसी हैं कि किसी को भी दीवाना कर दें। बाकि सभी चरित्र कलाकारों ने भी पूरी ईमानदारी और लगन से अपना काम निभा कर फिल्म में पूरी तरह से योगदान दिया है। दर्शन जरीवाला, स्मिता जयकर, गोविन्द नामदेव आदि ने अच्छा अभिनय किया है। साजीद डॉन के किरदार में जाकिर हुसैन फिट नहीं बैठते। उनकी जगह किसी और को ये मौका देना चाहिए था। उपेन पटेल ठीक-ठाक हैं।

रणबीर के हैप्पी क्लब के मेम्बेर्स का किरदार करने वाले अभिनेताओं का अभिनन्दन। उन्हें अच्छे-खासे दृश्य और संवाद मिले हैं और उन्होंने उसमे चार-चाँद लगा दिए हैं।

चित्रांकन और स्पेशल एफ्फेक्ट्स:

चित्रांकन उत्तम दर्जे का है और निर्माण की गुणवत्ता को दर्शाता है. कैरिकेचर स्टाइल रहने के कारण राजकुमार संतोषी ने स्पेशल एफ्फेक्ट्स का खुले दिल से कॉमेडी करने में उपयोग किया है, और ५ मिनिट का वह दृश्य जहाँ प्रेम ऑफिस जाता है, वह दर्शकों को हँसा-हँसा के लोटपोट कर देता है।

संगीत और पार्श्वसंगीत:

प्रीतम का संगीत जबरदस्त है और हिट है. पर्श्वसंगीत दृश्यानुरूप है।

संकलन:

संगणकीय संकलन (कम्प्यूटराइज्ड एडीटिंग) सॉफ्टवेर के अच्छे गुणों का उपयोग करते हुए संकलक ने जो स्टाइल उसे किया है, वह फिल्म को और ज्यादा मोशन देता है और कहानी का फ्लो सही रखता है। पर वही.. अनावश्यक और गति में बाधा डालने वाले दृश्यों और गानों को उन्हें कम करना चाहिए था।

निर्माण की गुणवत्ता:

टिप्स के तौरानी भाइयों द्वारा निर्मित ये फिल्म कम लागत में ऊँचे दर्जे की गुणवत्ता और असरदार मनोरंजन का एक अच्छा उदाहरण है। फिल्म की बजट कण्ट्रोल में रख कर फिल्म के कंटेंट की ओर ज्यादा ध्यान देकर उन्होंने एक मिसाल कायम की है। और इसी कारण फिल्म सभी को मुनाफा देगी।

लेखा-जोखा:

*** 1/2 (3.5 तारे)
एक तारा साफ़ सुथरी मनोरंजक पेशकश के लिए जो पूरी फॅमिली एक साथ देख सकते हैं। एक तारा करिकेचर स्टाइल के दिग्दर्शन के लिए राजकुमार संतोषी को। एक तारा खास रणबीर कपूर के अदाकारी को। और आधा तारा सभी के अभिनय और फिल्म के संगीत को।

आप सभी घरवालों और दोस्तों के साथ ये फिल्म ज़रूर देखिये। आपका वीक-एंड हँसी के गुब्बारों से खेलते हुए बीतेगा।

चित्रपट समीक्षक: --- प्रशेन ह.क्यावल

Thursday, November 05, 2009

महात्मा गांधी के नाम एक ख़त

नीलेश माथुर गुवाहाटी में व्यापर करते हैं। कवि-हृदयी हैं। देश की हालत को बापू के नाम एक पत्र लिखकर बयाँ कर रहे हैं।

पूज्य बापू,

सादर प्रणाम, आशा ही नहीं हमें पूर्ण विश्वास है कि आप कुशलता से होंगे। हम सब भी यहाँ मजे में हैं। देश और समाज की स्थिति से आपको अवगत करवाने के लिए मैंने ये ख़त लिखना अपना कर्त्तव्य समझा। कुछ बातों के लिए हम आपसे माफ़ी चाहते हैं जैसे कि आपके बताए सत्य और अहिंसा के सिद्धांत में हमने कुछ परिवर्तन कर दिए हैं, इसे हमने बदल कर असत्य और हिंसा कर दिया है, और इसमें हमारे गांधीवादी राजनीतिज्ञों का बहुत बड़ा योगदान रहा है, वो हमें समय समय पर दिशाबोध कराते रहते हैं और हमारा मार्गदर्शन करते रहते हैं। इन्हीं के मार्गदर्शन में हम असत्य और हिंसा के मार्ग पर निरंतर अग्रसर हैं, बाकी सब ठीक है।

आपने हमें जो आज़ादी दिलवाई उसका हम भरपूर फायदा उठ रहे हैं। भ्रस्टाचार अपने चरम पर है, बाकी सब ठीक है।
हर सरकारी विभाग में आपकी तस्वीर दीवारों पर टँगवा दी गयी है और सभी नोटों पर भी आपकी तस्वीर छपवा दी गयी है। इन्हीं नोटों का लेना-देना हम घूस के रूप में धड़ल्ले से कर रहे हैं, बाकी सब ठीक है। स्वराज्य मिलने के बाद भी भूखे नंगे आपको हर तरफ नज़र आएँगे, उनके लिए हम और हमारी सरकार कुछ भी नहीं कर रहे हैं, हमारी सरकार गरीबी मिटाने की जगह गरीबों को ही मिटाने की योजना बना रही है, बाकी सब ठीक है।

बापू हमें अफ़सोस है की खादी को हम आज तक नहीं अपना सके हैं, हम आज भी विदेशी वस्त्रों और विदेशी वस्तुओं को ही प्राथमिकता देते हैं, बाकी सब ठीक है।

अस्पृश्यता आज भी उसी तरह कायम है। जिन दलितों का आप उत्थान करना चाहते थे, उनकी आज भी कमोबेश वही स्थिति है, बाकी सब ठीक है।

बापू आजकल हम सत्याग्रह नहीं करते, हमने विरोध जताने के नए तरीके इजाद किये हैं। आज कल हम विरोध स्वरुप बंद का आयोजन करते हैं और उग्र प्रदर्शन करते हैं, जिसमें कि तोड़फोड़ और आगज़नी की जाती है, बाकी सब ठीक है।
जिस पाकिस्तान की भलाई के लिए आपने अनशन किये थे, वही पाकिस्तान आज हमें आँख दिखाता है, आधा काश्मीर तो उसने पहले ही हड़प लिया था, अब उसे पूरा काश्मीर चाहिए। आतंकियों की वो भरपूर मदद कर रहा है। हमारे देश में वो आतंक का नंगा नाच कर रहा है। आये दिन बम के धमाके हो रहे हैं और हजारों बेगुनाह फिजूल में अपनी जान गँवा रहे हैं, बाकी सब ठीक है।

बांग्लादेश के साथ भी हम पूरी उदारता से पेश आ रहे हैं, वहां के नागरिकों को हमने अपने देश में आने और रहने की पूरी आज़ादी दे रखी है, करोड़ों की संख्या में वे लोग यहाँ आकर मजे में रह रहे हैं, और हमारे ही लोग उनकी वजह से भूखे मर रहे हैं, बाकी सब ठीक है।

बापू हम साम्प्रदायिक भाईचारा आज तक भी कायम नहीं कर पाए हैं। धर्म के नाम पर हम आये दिन खून बहाते हैं। आज हमारे देश में धर्म के नाम पर वोटों की राजनीति खूब चल रही है। साम्प्रदायिक हिंसा आज तक जारी है। बाकी सब ठीक है।

बापू आज आप साक्षात यहाँ होते तो आपको खून के आंसू रोना पड़ता, बापू आपने नाहक ही इतना कष्ट सहा और हमें आज़ादी दिलवाई, हो सके तो हमें माफ़ करना।

आपका अपना-
एक गैर जिम्मेदार भारतीय नागरिक

Wednesday, November 04, 2009

यह केवल उत्सवधर्मी विश्विविद्यालय नहीं रहेगा- विभूति नारायण राय

पिछले दिनों हिन्द-युग्म के रामजी यादव और शैलेश भारतवासी ने महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति विभूति नारायण राय से बात की। विभूति नारायण राय हिन्दी के चर्चित लेखक और साहित्यकार हैं जिनकी दंगों के दौरान पुलिस के सांप्रदायिक रवैये पर लिखी पुस्तक 'शहर में कर्फ़्यू' बहुत प्रसिद्ध रही। विभूति उ॰ प्र॰ में पुलिस महानिदेशक के पद पर कार्य कर चुके हैं। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय हिन्दी भाषा को समर्पित दुनिया का एक मात्र विश्वविद्यालय है। तो हमने जानने की कोशिश की कि हिन्दी भाषा-साहित्य की गाड़ी में गति लाने के लिए इनका विश्वविद्यालय क्या कुछ करने जा रहा है॰॰॰॰॰


(इंटरव्यू को उपर्युक्त प्लेयर से सुन भी सकते हैं)

रामजी यादव- महात्मा गाँधी अंतरर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की स्थापना लगभग 10-12 वर्ष पहले हुई थी। पूरी दुनिया में फैला हुआ जो हिन्दी समाज है, उसके प्रति हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए यह उत्तरदायी है। लेकिन यह एक उत्सवधर्मी विश्वविद्यालय के रूप में विख्यात है। और लगभग इसकी उत्सवधर्मिता इसके कुलपति की महात्वकांक्षाओं तक सीमित करके देखी जाती है। इस पूरी छवि को आप कैसे बदलेंगे?

वी एन राय- विश्वविद्यालय केवल उत्सवधर्मिता का केन्द्र न रहे, बल्कि गंभीर अध्ययन और शोध का क्षेत्र भी बने, और इसके साथ-साथ इस विश्वविद्यालय की हिन्दी को अंतर्राष्ट्रीय भाषा के रूप में ज़रूरी उपकरण प्रदान करने की जो इसकी खास भूमिका है, उसे पूरा करने में भी इसका सक्रिय योगदान हो, इस समय दिशा में यह विश्वविद्यालय काम कर रहा है। इस वर्ष नये विभाग खुले हैं। मानवशास्त्र और फिल्म-थिएटर दो विभाग शुरू किये गये हैं। इसके अलावा डायस्पोरा स्ट्डीज का नया विभाग शुरू होने वाला है। ये तीनों नये विभाग महात्मा गाँधी अंतरर्राष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय की उस भूमिका को निभाने में भी मदद करेंगे, जिसकी कल्पना इस विश्ववविद्यालय के एक्ट में की गई है और प्रथम अंतरर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में इसकी निर्मिती के पीछे जो एक परिकल्पना रही है। इसे अंतरर्राष्ट्रीय स्वरूप देने के लिए, शायद आप अवगत हों, विश्वविद्यालय एक बहुत महात्वपकांक्षी योजना पर काम कर रहा है वो है कि हिन्दी में जो कुछ भी बहुत महत्वपूर्ण है, उसे ऑनलाइन किया जाये ताकि दुनिया के कोने-कोने में बैठे हिन्दी के पठक उन्हें पढ़ सके। हमारी कोशिश है कि दिसम्बर 2009 तक लगभग 100000 पृष्ठ ऑनलाइन कर दिये जायें। इसके अलावा हम इन सभी महत्वपूर्ण कृतियों को दुनिया की तमाम भाषाओं में जैसे चीनी, जापानी, अरबी, फ्रेंच इत्यादि में अनुवाद करके ऑनलाइन करना चाहते हैं।

रामजी यादव- एक चीज़ मानी जाती है कि हिन्दी एक बड़ी भाषा है जो तमाम तरह के संघर्षों से निकली है। लेकिन हिन्दी में विचारों की स्थिति बहुत दयनीय है। एक विश्वविद्यालय के रूप में आपका विश्वविद्यालय किस तरह का प्रयास कर रहा है कि हिन्दी में विचार मौलिक पैदा हों और दुनिया के दूसरे अनुशासनों से इनका संबंध बने?

वी एन राय- इसके लिए भी हमने कुछ महात्वकांक्षी योजनाएँ बनाई है। हमारे विश्वविद्यालय का जो पाठ्यक्रम है वो गैरपारम्परिक पाठ्यक्रम हैं। जो विषय हमारे यहाँ पढ़ाये जा रहे हैं वह भारत के बहुत कम विश्वविद्यालयों में पढ़ाये जाते हैं। जैसे स्त्री-अध्ययन है, शांति और अहिंसा है, हिन्दी माध्यम में मानव-शास्त्र है, फिल्म और थिएटर या डायस्पोरा स्ट्डीज की पढ़ाई है। अनुवाद भी एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है, जिसमें हमारे यहाँ पढ़ाई हो रही है। लेकिन ज्ञान के इन अनुशासनों में मौलिक पुस्तकों की कमी है, मौलिक तो छोड़ दीजिए जो एक आधार बन सकती हों, ऐसे पाठ्यपुस्तकों की कमी है। इसलिए हमने योजना बनाई है कि हम ज्ञान के इन सारे अनुशासनों में जो कुछ भी महत्वपूर्ण अंग्रेजी या अन्य भाषाओं में उपलब्ध है, उसके कुछ चुनिंदा अंशों का अनुवाद हो और उसे छापें। और यह योजना शुरू भी हो गई है, हमने स्त्री-अध्ययन के लिए 10 पुस्तकों को चुना है जिसका साल भर में हम अनुवाद करा लेंगे। इसके बाद अन्य अनुशासनों में जायेंगे।

शैलेश भारतवासी- सवाल हमारा यह था कि जो हिन्दी का साहित्यिक या वैचारिक परिदृश्य हैं, वो पूर्णतया मौलिक नहीं है। विश्वविद्यालय की तरफ से ऐस कोई प्रयास है जिससे मौलिक विचार निकलकर आये?

उत्तर- मौलिक लेखन को भी हम प्रोत्साहन देंगे, लेकिन सवाल यह है कि मौलिक लेखन के लिए भी आधारभूत सामग्री उपलब्ध हो, जिन्हें पढ़कर आप अपनी बेसिक तैयारी कर सकें। दुर्भाग्य से गंभीर समाज शास्त्रीय विषयों पर हिन्दी में मौलिक सामग्री या तो बहुत कम है या ज्यादातर अनुवाद के माध्यम से मिल रही है। पर हमारा प्रयास यह होगा कि जब हम महत्वपूर्ण चीज़ों का अनुवाद करायेंगे तो निश्चित रूप से उन्हें पढ़कर जो मौलिक सोचने वाले हैं, वे मौलिक लेखन करेंगे और उन्हें भी हम प्रकाशित करेंगे।

रामजी यादव- क्या दुनिया के अन्य देशों के विश्ववद्यालयों में जहाँ प्राच्य विद्या किसी न किसी रूप में पढ़ाई जाती है, उनके साथ विश्वविद्यालय का कोई अंतर्संबंध बन रहा है?

वी एन राय- जी, हम यह कोशिश कर रहे हैं कि बाहर के 100 विश्वविद्यालयों में जहाँ हिन्दी किसी न किसी रूप में पढ़ाई जाती है, भाषा के तौर पर, प्राच्य विद्या का एक अंग होकर या साउथ-एशिया पर विभाग हैं, उनमें हिन्दी का इनपुट है, इन सभी विश्वविद्यालयों के बीच में हम एक समन्वय सेतु का काम करें, उनमें जो अध्यापक हिन्दी पढ़ा रहे हैं, उनके लिए रिफ्रेशर कोर्सेस यहाँ पर हम संचालित करें, उनके लिए ज़रूरी पाठ्य-सामग्री का निर्माण करायें और सबसे बड़ी चीज़ है कि विदेशों से बहुत सारे लोग जो हिन्दी सीखने के लिए भारत आना चाहते हैं, उनके लिए हमारा विश्ववद्यालय एक बड़े केन्द्र की तरह काम करें, इस दिशा में भी काम चल रहा है।

शैलेश भारतवासी- जहाँ एक ओर आप विदेशी विश्वविद्यालयों से अंतर्संबंध बनाने की कोशिश कर रहे हैं,वहीं अपने ही देश के बहुत से लोग जो हिन्दी भाषा या साहित्य में ही अपनी पढ़ाई कर चुके हैं या कर रहे हैं, उन्हें भी आपके विश्वविद्यालय के बारे में पता नहीं है। ऐसे लोगों के लिए भी इस विश्वविद्यालय का नाम एक नई चीज़ है। तो क्या आप चाहते ही नहीं कि सभी लोगों तक इसकी जानकारी पहुँचेया कोई और बात है?

वी एन राय- नहीं-नहीं, आपकी बात सही है। विश्वविद्यालय को बने 11 साल से ज्यादा हो गये, लेकिन दुर्भाग्य से बहुत बड़ा हिन्दी समाज इससे परिचित नहीं है, या उसका बहुत रागात्मक संबंध नहीं बन पाया या कोई फ्रुटफुल इंटरेक्शन नहीं हो पाया। ऐसा नहीं है कि हम नहीं चाहते, और हम इसके लिए हम प्रयास भी कर रहे हैं। मसलन हमारी वेबसाइट ही देखिए। हालाँकि हिन्दी-समाज बहुत तकनीकी समाज नहीं है, बहुत कम लोग हिन्दी वेबसाइट देखते हैं। लेकिन मुझे देखकर बहुत खुशी होती है कि हमारी वेबसाइट को रोज़ाना 150-200 लोग आते हैं और वो भी दुनिया के विभिन्न हिस्सों से आते हैं। तो ऐसा नहीं है, धीरे-धीरे लोगों ने इसे जानना शुरू किया है।

शैलेश भारतवासी- लेकिन यहीं पर मैं रोकूँगा, आपने कहाँ कि आप 150-200 लोगों से संतुष्ट हैं (कुलपति ने यहीं रोककर इंकार किया), मेरा कहना है कि आपको 150 विजिटरों से आशा की एक किरण नज़र आती है। मैं एक साहित्यिक-सांस्कृतिक वेबसाइट चलाता हूँ, जिसे रोज़ाना 10,000 हिट्स मिलते हैं (यह दुनिया भर की वेबसाइटों के एस्टीमेटेड हिट्स निकालने वाली वेबसाइट का आँकड़ा है), फिर भी मैं संतुष्ट नहीं हूँ और इसे एक बहुत छोटी संख्या मानता हूँ। आपकी वेबसाइट पर मैं 2-3 बार गया भी हूँ। मेरा जो अनुभव है वह कहता है कि इसमें जो तकनीक इस्तेमाल की जा रही है वह बहुत प्रयोक्ता-मित्र नहीं है, वह समय के साथ नहीं चल रही है। क्या इस दिशा में कोई परिवर्तन हो रहा है?

वी एन राय- पिछले 5-6 महीनों में जो परिवर्तन हुए हैं, उसमें दो महत्वपूर्ण योजनाओं को शामिल किया जा रहा है। एक तो मैंने पहले भी बताया कि हिन्दी के महत्वपूर्ण लेखन के 1 लाख पृष्ठ ऑनलाइन किये जायेंगे और हिन्दी के जो समकालीन रचनाकार हैं, लेखक है, उनकी प्रोफाइल, इनके पते वेबसाइट पर डाल रहे हैं ताकि दुनिया भर में फैले इनके प्रसंशक, इनके पाठक, प्रकाशक इनसे संपर्क कर सकें। तकनीक के स्तर पर भी हम परिवर्तन करने की कोशिश कर रहे हैं। हमारा विश्वविद्यालय कोई तकनीकी विश्वविद्यालय तो है नहीं, फिर भी हम सीख करके, दूसरों की सहायता लेकर अच्छा करने की कोशिश कर रहे हैं।

रामजी यादव- भारत में एक बहुत बड़ा क्षेत्र है, जिसमें गैर हिन्दी क्षेत्रों में हिन्दी का विकास हो रहा है, जिससे नये तरह के डायलेक्ट्स बन रहे हैं, भाषा जिस तरह से बन रही है, बाज़ार दूसरी तरह से इन चीज़ों को विकसित कर रहा है। इस पूरी पद्धति में भाषा का विश्वविद्यालय होने की वजह से, विश्वविद्यालय किस रूप से देशज और भदेस को मुख्यधारा का विषय बना सकता है?

वी एन राय- इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दी की बोलियाँ हिन्दी के लिए खाद हैं। आज हम जिसे हिन्दी भाषा कह रहे हैं, वह भी एक समय बोली थी। खड़ी बोली। जब आप 'हिन्दी' शब्द का उच्चारण करते हैं तो 'खड़ी बोली' दिमाग में आती है। आज से 130 साल पहले भारतेन्दु तक यह नहीं मानते थे कि 'खड़ी बोली' में कविता भी लिखी जा सकती है। गद्य की भाषा तो 'खड़ी बोली' थी, लेकिन पद्य की भाषा ब्रजभाषा रखते थे भारतेन्दु। छायावाद आते-आते लगभग यह स्पष्ट हुआ कि 'खड़ी बोली' ही 'हिन्दी' होगी। और एक मानकीकरण शुरू हुआ। 30-40 साल बहुत संघर्ष चला। संस्कृतनिष्ठ हिन्दी होगी, उर्दू, अरबी-फ़ारसी के शब्दों के साथ हम कैसा व्यवहार करेंगे, कैसे हम इस भाषा को पूरे देश के लिए एक मानक और एक स्वीकार्य भाषा बना पायेंगे, यह सारे संघर्ष चलते-चलते कमोबेश यह तय हो गया है कि 'खड़ी बोली' ही हिन्दी होगी और सभी बोलियाँ इसे मदद करेंगी, खाद का काम करेंगी। लेकिन दुर्भाग्य से एक दूसरी प्रवृत्ति दिखलाई दे रही है, जो मेरे हिसाब से खतरनाक है। बहुत सारी बोलियाँ इस छटपटाहट में हैं कि वो हिन्दी को रिप्लेस करके एक स्वतंत्र भाषा जैसी स्थिति हासिल करें। विश्व भोजपुरी सम्मेलन में भाग लेने अभी मैं मॉरिशस गया था,, वहाँ भी बहुत सारे लोग अतिरिक्त उत्साह में यह कह रहे थे कि हिन्दी क्या है, हमारी राष्ट्रभाषा तो भोजपुरी है, मातृभाषा भोजपुरी है। अभी कुछ महीने पहले छत्तीसगढ़ में भी ऐसा ही हुआ कि वहाँ के एक बड़े कार्यक्रम में जब एक राजनेता हिन्दी में बोलने लगे तो जनता में से कुछ लोग कहने लगे ये कौन सी भाषा इस्तेमाल कर रहे हो, छत्तीसगढ़ी हमारी राजभाषा है। यह एक डिवाइसिव, फूट डालने वाली स्थिति है, जिससे हमें बचना होगा। मतलब हमें यह ध्यान रखना होगा कि ये बोलियाँ हिन्दी के लिए खाद भी बनें और हिन्दी का नुकसान भी न करें। हमारा विश्वविद्यालय चूँकि हिन्दी का अकेला ऐसा विश्वविद्यालय है, इसलिए इस दिशा में निश्चित ही महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायेगा। हमलोग फरवरी-मार्च में बोलियों को लेकर एक सम्मेलन करने जा रहे हैं। हिन्दी का लोक बहुत समृद्ध है, कई अर्थों में बहुत प्रगतिशील है। अगर आप देखें तो पूरी दुनिया में इतनी विविधता लिए हुए लोक दिखलाई नहीं देगा। हमें इस प्रवृत्ति पर नज़र रखनी पड़ेगी कि वो लोक आगे जाकर नुकसान न करे, यह खाद का काम करे न कि विषबेन बन जाय।

शैलेश भारतवासी- यह तो हमारी बोलियों की बात है। दक्षिण भारतीय जो गैर हिन्दी भाषी हैं, हालाँकि हिन्दी को वे सम्पूर्ण भारत की भाषा के तौर पर देखते हैं, लेकिन उनकी शिकायत रहती है कि हिन्दी हमारी राजभाषा है, चलो हम इसे सीख लेते हैं, लेकिन हिन्दीभाषी हमारी भाषा को नहीं सीखते। क्या विश्वविद्यालय कोई इस तरह का कार्यक्रम चलाया रहा है जिससे गैरहिन्दी भाषा को सीखने पर प्रोत्साहन मिले?

वी एन राय- देखिए यह तो सरकारी स्तर पर ही हो सकता है। यह बात आपने बिल्कुल सही कही कि त्रिभाषा कार्यक्रम को लेकर सबसे अधिक बेईमानी हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही हुई। हम यह तो चाहते थे कि जो अहिन्दी भाषी क्षेत्र हैं, वहाँ तो शुरू से बच्चे हिन्दी पढ़े, लेकिन जब हमारे यहाँ तीसरी भाषा की बात आई तो हमने संस्कृत को डाल दिया जो किसी भी जनसमूह की भाषा नहीं थी। हमें कोई जीवित भाषा सीखनी चाहिए थी। लेकिन विश्वविद्यालय का तो बहुत सीमित दायरा होता है। हम तो सरकार से बस अपील कर सकते हैं।