Monday, November 09, 2009

क्या आप 'वंदेमातरम्' को राष्ट्रगीत मानते हैं?

हाल ही में देवबंद,उ प्र में हुए जमीयत-ए-उलेमा-ए-हिन्द के सम्मेलन में वंदेमातरम के विरोध में फ़तवा जारी किया गया। देश के गृहमंत्री चिदम्बरम व योगगुरु रामदेव भी वहाँ उपस्थित थे। चूँकि वंदेमातरम देश भक्ति से जुड़ा गीत है (ऐसा इसके आजादी के समय किये गये इस्तेमाल से कहा जा सकता है), इसलिये कुछ संस्थानों व संतों ने इस फ़तवे का विरोध किया। हालाँकि कांग्रेस के सलमान खुर्शीद व भाजपा के मुख्तार अब्बास नकवी, जो दोनों खुद भी मुस्लिम हैं, दोनों ने ही इस फ़तवे पर ऐतराज़ जताया है।

आनन्द मठ: बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय द्वारा रचित यही वह बांग्ला उपन्यास है जिसका एक गीत राष्ट्रगीत बन गया। लेकिन इसके राष्ट्रगीत बनने के बाद से अब तक यह विवादों से घिरा रहा है। वैसे हमारे देश में कोई भी ऐसी घटना या व्यक्ति नहीं जिस पर विवाद न हुआ हो। चाहें मोहनदास करमचंद गाँधी हों या "जन गण मन"। हमारा इतिहास ही ऐसा रहा है। आज भी बदस्तूर जारी है। वैसे आज बात करेंगे वंदेमातरम की। पिछले वर्ष ये उपन्यास पढ़ा था और जैसे जैसे पढ़ता गया वैसे वैसे कौतूहल जागा कि आखिर मुस्लिम समुदाय इससे नाराज़ क्यों है? जब सरकार इसको स्कूलों में गाने को कहती है तो चारों ओर से विरोध की आवाज़ें क्यों उठती हैं? इंटेरनेट पर काफी खोजबीन की तो कुछ बातें पता चली। आगे हम आनन्दमठ के कुछ आंश भी पढ़ते रहेंगे।

आइये जानने की कोशिश करते हैं इसके कुछ शुरूआती अंशों से:

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समुद्र आलोड़ित हुआ, तब उत्तर मिला-तुमने बाजी क्या रखी है?
प्रत्यूत्तर मिला,मैंने ज़िन्दगी बाजी पर चढ़ाई है।
उत्तर मिला, जीवन तुच्छ है,सब कुछ होमना होगा।
और है ही क्या? और क्या दूँ?
तब उत्तर मिला, भक्ति।
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यह उपन्यास १८८२ में प्रकाशित हुआ, किन्तु वंदेमातरम १८७५ में लिखा जा चुका था। ये कहानी है संन्यासी विद्रोह की जो १७६५-७० के बीच प्रकाश में आया। आइये जानते हैं इसकी पृष्ठभूमि को। १७५७ में सिराजुद्दोला नाम का नवाब बंगाल पर राज करता था। यही वो समय भी था जब अंग्रेज़, ईस्ट इंडिया कम्पनी के नाम से कलकत्ता के रास्ते भारत में घुसना चाहते थे। नवाब अंग्रेज़ को खिलाफ था और उनके खिलाफ लोगों को एकत्रित करता था। परन्तु किसी हिन्दू को ऊँचा दर्जा दिये जाने के विरोध में मीर जाफर नाम के एक दरबारी ने नवाब के खिलाफ बगावत कर दी। उसी साल पलासी का युद्ध हुआ। मीर जाफर अंग्रेज़ों से जा मिला और सिराज को बंगाल छोड़ना पड़ा। आगे कुछ सालों तक मीर जाफर और उसका जमाई मीर कासिम बंगाल में नवाब बन कर रहे। ये वो समय था जब नवाब अंग्रेज़ों की कठपुतलियाँ बन कर रहते थे। राज नवाब का, पैसा अंग्रेज़ों का। अंग्रेज़ ही लोगों से कर लिया करते थे। एक तरह से उन्हीं का ही कब्जा हो गया था। उसी का नतीजा था संन्यासी विद्रोह। कहते हैं कि १८५७ पहली क्रांति थी अंग्रेज़ों के खिलाफ पर लगता है कि उससे पहले भी कईं क्रांतियाँ संन्यासी विद्रोह के रूप में कलकत्ता ने देखी हैं।

संन्यासी समूह उन लोगों का समूह था जो इकट्ठे हुए थे अंग्रेज़ों के खिलाफ। सब कुछ छोड़ कर भारत माँ को आज़ाद कराने में जान की बाजी लगा रहे थे। १७६५ के आसपास ही बंगाल में सूखा पड़ा और वहाँ लाखों की तादाद में मौतें हुईं। जनता में आक्रोश फूट पड़ा था। और वो आक्रोश था नवाबों पर। ’नजाफी’ हुकूमत के खिलाफ।

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वन्दे मातरम्
सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्
शस्यश्यामलां मातरम् |

महेंद्र गीत सुनकर विस्मित हुए। उन्होंने पूछा- माता कौन?

उत्तर दिये बिना भवानंद गाते रहे:

शुभ्र ज्योत्स्ना पुलकित यामिनीम्
फुल्ल कुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्,
सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्
सुखदां वरदां मातरम् ||

महेंद्र बोले-ये तो देश है, माँ नहीं।

भवानंद ने कहा, हम लोग दूसरी किसी माँ को नहीं मानते, जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। हम कहते हैं, जन्मभूमि ही हमारी माता है। हमारी न कोई माँ है, न बाप, न भाई, न बन्धु, न पत्नी, न पुत्र, न घर, न द्वार- हमारे लिये केवल सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम् शस्यश्यामलां ....

महेंद्र ने पूछा-तुम लोग कौन हो?

भवानन्द ने कहा-हम संतान हैं।

किसकी संतान।

भवानन्द बोले-माँ की संतान।
.....
.....
.....

देखो, जो साँप होता है, रेंगकर चलता है, उससे नीच जीव मुझे कोई नहीं दिखाई पड़ता। पर उसके भी कंधे पर पैर रख दो तो वह भी फन उठाकर खड़ा हो जाता है। देखो, जितने देश हैं, मगध, मिथिला,काशी, कांची, दिल्ली, कश्मीर किस शहर में ऐसी दुर्दशा है कि मनुष्य भूखों मर रहा है और घास खा रहा है, जंगली काँटे खा रहा है। दीमक की मिट्टी खा रहा है, जंगली लतायें खा रहा है! किस देश में आदमी सियार, कुत्ते और मुर्दा खाते हैं?.... बहू-बेटियों की खैरियत नहीं है...राजा के साथ सम्बंध तो यह है कि रक्षा करे, पर हमारे मुसलमान राजा रक्षा कहाँ कर रहे हैं? इन नशेबाज़ मुसट्टों को निकाल बाहर न किया जाये तो हिन्दू की हिन्दुआई नहीं रह सकती।

महेंद्र ने पूछा, बाहर कैसे करोगे?
-मारकर
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शायद ये वाक्य हमारे मुस्लिम समुदाय को अच्छे नहीं लगे। हो सकता है। किन्तु ये वाक्य कब और किस परिस्थिति में कहे गये ये जानने की जरूरत भी तो है। इस बारे में मैं कुछ नहीं कहूँगा। आगे के कुछ पन्नों में भारत माँ को देवी का दर्जा दिया गया है। इस्लाम में मूर्ति पूजा की खिलाफत है। और इस्लाम में केवल खुदा ही पूजा जाता है। इसी उपन्यास में मुसलमानों के घर जलाने की बात भी कही गई है। शायद यह बात भी वंदेमातरम के खिलाफ जा रही है।

अब जानते हैं कि संतान दल में किस प्रकार से प्रतिज्ञा ली जाती है-

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तुम दीक्षित होना चाह्ते हो?
हाँ, हम पर कृपा कीजिये।
तुम लोग ईश्वर के समक्ष प्रतिज्ञा करो। क्या सन्तान धर्म के नियमों का पालन करोगे?
हाँ।
भाई-बहन?
परित्याग करूँगा।
पत्नी और पुत्र?
परित्याग करूँगा।
रिश्तेदार, दास-दासी त्याग करोगे?
सब कुछ त्याग करूँगा।
धन, सम्पत्ति, भोग, सब त्याग दोगे?
त्याग करूँगा।
जितेंद्रिये बनोगे और कभी स्त्रियों के साथ आसन पर नहीं बैठोगे?
नहीं बैठूँगा, जितेंद्रिये बनूँगा।
रिश्तेदारों के लिये धन नहीं कमाऒगे, उसे वैष्ण्वों के धनागार में दे दोगे?
दे दूँगा।
कभी युद्ध में पीठ नहीं दिखाऒगे?
नहीं।
यदि प्रतिज्ञा भंग हुई तो?
तो जलती चिता में प्रवेश करके या कहर खा कर प्राण दे दूँगा।
तुम लोग जात-पात छोड़ सकोगे? सब समान जाति के हैं, इस महाव्रत में ब्राह्मण-शूद्र में कोई फर्क नहीं।
हम जात-पात नहीं मानेंगे। हम सब एक ही माँ के संतान हैं।
तब सत्यानंद ने कहा, तथास्तु, अब तुम वंदेमातरम गाओ।
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इसमें संन्यासी/संतान व्रत की कर्त्तव्यनिष्ठा और समर्पण का पता चलता है कि किस प्रकार जन्मभूमि पर ये वीर सेना अपने प्राणन्योछावर करने को तत्पर थी।
बंकिमचंद्र के इस उपन्यास में कुछ हद तक मुसलमानों (नजाफी हुकूमत) और काफी हद तक अंग्रेज़ों दोनों के खिलाफ कहा गया है। उन्होंने ये सब १८वीं सदी की घटनाओं को ध्यान में रख कर किया, किन्तु चाह केवल इतनी कि मातृभूमि को कोई आँच न आये।

यही गीत आगे चल कर एक क्रांतिकारी गीत बन गया। जब १८९५ में पहली बार इसका संगीत दिया गया तब बंकिमचंद्र (१८३८-१८९४) इस दुनिया में नहीं थे। हर तरफ वंदेमातरम की ही गूँज सुनाई दी जाने लगी। अंग्रेज़ों ने इस उपन्यास पर प्रतिबंध तक लगा दिया। १९३७ में टैगोर ने इस गीत का विरोध भी किया क्योंकि उनका मानना था कि मुसलमान "१० हाथ वाली देवियों" की पूजा नहीं करेंगे। १९५० में राजेंद्र प्रसाद ने इसे राष्ट्रगीत का दर्जा दिया। इस गीत के केवल पहले दो छंद ही गाये जाने की बात कही जाने लगी क्योंकि आगे की पंक्तियों में भारत को ’दुर्गा’ तुल्य माना गया।

हालाँकि मुस्लिम बिरादरी में इस गीत को कुछ लोगों ने अपनाया भी है। और सिख व ईसाइ समुदाय भी इसको मान रहा है। इस उपन्यास की क्रांतिकारी विचारधारा ने सामाजिक व राजनीतिक चेतना को जागृत करने का काम किया। कांग्रेस के अधिवेशन में ही इसको प्रथम बार गाया गया और यही गीत आगे चल कर स्वतंत्रता का पर्याय बना। और विडम्बना यह कि आज कांग्रेस सरकार गृहमंत्री इसके विरोध पर मुहर लगा आते हैं।

मैंने अपनी तरफ से पूरी कोशिश करी है कि मैं वंदेमातरम पर हो रहे विवाद और आनन्दमठ (संन्यासी विद्रोह) की कहानी को आप तक पहुँचा पाऊँ। अब मैं पाठकों पर छोड़ता हूँ कि वे (१८वी सदी के घटनाक्रम को ध्यान में रखकर) सच्ची देशभक्ति व समर्पण अथवा त्याग के प्रतीक इस गीत को राष्ट्रगीत मानें या नहीं।

सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम
शस्यश्यामलां मातरम्......।
शुभ्र ज्योत्सना-पुलकित यामिनीम्
फुल्लकुसुमित द्रुमदलशोभिनीम्
सुहासिनीं सुमधुरभाषिणीम्
सुखदां, वरदां मातरम्।।
वन्दे मातरम्.....
सप्तकोटिकण्ठ-कलकल निनादकराले,
द्विसप्तकोटि भुजैधर्ृत खरकरवाले,
अबला केनो मां तुमि एतो बले!
बहुबलधारिणीम् नमामि तारिणीम्
रिपुदलवारिणीम् मातरम्॥ वन्दे....
तुमी विद्या, तुमी धर्म,
तुमी हरि, तुमी कर्म,
त्वं हि प्राण : शरीरे।
बाहुते तुमी मां शक्ति,
हृदये तुमी मां भक्ति,
तोमारई प्रतिमा गड़ी मन्दिरे-मन्दिरे।
त्वं हि दुर्गा दशप्रहरण धारिणीं,
कमला कमल-दल-विहारिणीं,
वाणी विद्यादायिनीं नमामि त्वं
नमामि कमलां, अमलां, अतुलाम,
सुजलां, सुफलां, मातरम्
वन्दे मातरम्॥
श्यामलां, सरलां, सुस्मितां, भूषिताम्
धरणी, भरणी मातरम्॥
वन्दे मातरम्..

जय हिन्द।

यहाँ भी देखें:
http://en.wikipedia.org/wiki/Vande_Maataram
http://en.wikipedia.org/wiki/Anandamatha
http://en.wikipedia.org/wiki/Sannyasi_Rebellion
http://en.wikipedia.org/wiki/Nawab_of_Bengal
http://en.wikipedia.org/wiki/Bankimchandra_Chattopadhyay

--तपन शर्मा

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15 बैठकबाजों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

Rochak jankari dene ke liye aabhar ! 'vande mataram ' hamara rashtriye geet hai. ise ham kisi bhi rashtradrohi ke khushi ke liye bali nahi chada sakate.sabse pahle to aisi ghatnao ko tavajjo nahi di jani chahiye or na hi khaber banne dena chahiye. ye kuch logo ki sochi samghi sajish hai jo keval hindu muslim ki sanjha sanskrti ko todne ki kvayad hai.

Pramendra Pratap Singh का कहना है कि -

आज बैठकी में बहुत ही सार्थक चर्चा हुई है, इसे चुराने का मन कर रहा है। बहुत बहुत धन्‍यवाद

वंदे मातरम्

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

अच्छा आलेख। क्या तब तक कोई भी गीत किसी पूरे समूह का गीत बन सकता है जब तक उसका एक भी आदमी उस पर आपत्ति करे?

देवबन्द में साफ कहा गया है कि हम वतन से प्यार करते हैं, लेकिन उसकी पूजा नहीं कर सकते। क्या प्यार ही काफ़ी नहीं है और हर किसी को उसे अपने ढंग से कहने, मानने का हक़ है...

RAJ SINH का कहना है कि -

VANDE MATARAM !

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

गौरव भाई.. आपत्ति तो राज ठाकरे हिन्दी पर भी कर रहा है... तो हिन्दी को राजभाषा कहलाने का कोई हक नहीं रहा।
आपत्ति तो जन-गण-मन की भी हुई है। टैगोर ने ये गीत र्ब्रिटिश राजा के लिये लिखा था.. उसको भी मानने से इंकार कीजिये..
जब १९५० में वंदेमातरम के केवल दो छंद रखने को कहा गया तब किसी ने आपत्ति नहीं की..
अगर कोई एक समूह आपत्ति करने लगे तो राष्ट्रगीत कहलाने से मना कर दिया जाये। कुछ और तथ्य दीजिये। अथवा हिन्दी हिन्दी का राग हमें बंद कर देना चाहिये.. :-)
जिस नारे को बोल-बोल कर देश आजाद हुआ उस नारे को अब बोलने से मना कर दिया जाये.. हास्यास्पद है.. सोचियेगा..

सहसपुरिया का कहना है कि -

BAHUT ACHCHA LIKHA.THANKX
ZARA YAHI BAAT RAJ JAISE 'GHADO' KO BHI SAMJHA DIJIYE,GAANA BAJANA CHOR MUDDO KI BAAT KARNA SIKHIYE, VANDE MATRAM KEHNE SE MEHNGAI KAM NAHI HO JAYEGI..........

अजित गुप्ता का कोना का कहना है कि -

इस गीत को किसी भी परिस्थिति में गाया गया हो, यह विवाद का विषय हो नहीं सकता। जहाँ तक आपने लिखा है कि भारत को दुर्गा की संज्ञा दी है, वह तथ्‍य भ्रामक है। बल्कि इस गीत में तो यह कहा गया है कि भारत माता ही दुर्गा है, सरस्‍वती है। इसका विरोध यदि हिन्‍दु करते तो समझ आता कि गीतकार ने भारत माता को ही सर्वोच्‍च स्‍थान दिया शेष देवी देवताओं को उसके अन्‍दर ही समाहित कर दिया लेकिन मुस्लिमों का विरोध तो कतई समझ के बाहर है।

manu का कहना है कि -

विवाद जो भी हो..या ना हो...

लेकिन तपन जी ने हमें फिल्म ''आनंद मठ'' के बहुत से द्रशय ताजा करवा दिए....
अजीत, गीता बाली, भारत भूषन, पृथ्वी की लाजवाब अदाकारी से भरी वो फिल्म याद दिला दी..

आगे कुछ नहीं कहना...

काशिफ़ आरिफ़/Kashif Arif का कहना है कि -

तपन शर्मा जी, काफ़ी अच्छी जानकारी दी है आपने,


हम अपने मुल्क से प्यार करते है और आखिरी सांस तक करते रहेंगे, हम अपने देश के लिये जान दे सकते है और ले सकते है.....और इस जज़्बे को हमें किसी को साबित करने की ज़रुरत नही है.......

" हम देशप्रेमी है देशभक्त नही है"

हम अपने देश की पुजा नही कर सकते है... बाकी बातों को पढने के लिये ये लेख पढें..!!

http://qur-aninhindi.blogspot.com/2009/11/no-indian-muslim-is-patriostic.html

वन्दे मातरम का अनुवाद और उसका इतिहास ये सब यहां बताया है ज़रा देखें

http://hamarianjuman.blogspot.com/2009/11/vande-matram-islamic-answer.html


mukesh का कहना है कि -

दरअसल गलती वन्दे मातरम का विरोध करने वालो का नही है अपितु इस पूरे उत्पन्न स्थिति का जिम्मेवार कांग्रेस है,जिसने आजादी के बाद पटेल जी के देशहित से कही अधिक नेहरू जी के वोट-बैंक वाली विचारो को तरजीह दी.और आज भी दिया जा रहा है. हिन्दु,हिन्दी,हिन्दुस्तान- जो है भारत के प्राण.गौर कीजिये, इन तीनो का विरोध हो रहा है.ऐसे मे इतिहास नही, वर्तमान पर बहस होनी चाहिये.

Anonymous का कहना है कि -

इतिहास में बहुत सी गलतियां होती रही हैं चाहे वह हिन्दुओं की तरफ़ से हों या फ़िर मुसलमानों की तरफ़ से। इसका ये कत्तई मतलब नहीं कि हम भी उन्हीं गलतियों दुहराएं। हमें सुधार लाना होगा। पटेल हों नेहरु हों या फ़िर गांधी जी क्या इनमें भी आपसी मतभेद नहीं रहा होगा ? हिन्दुस्तान की आजादी में मुस्लिमों का भी उतना ही योगदान है जितना हिन्दुओं का। गीत की दुहाई देकर इन्हें बांटना उचित नहीं! आप कोई भी गीत ले लिजिए उसे समझने का सभी का अपना_अपना द्र्ष्टिकोण होता है। आप चाहें तो हर गाने में आपको आपत्ति दिखाइ पड सकती है। बेवजह तनाव उत्पन्न करना वोट बैंक की साजिश है। हमारे युवाओं को सोचना होगा कि हमें ऐसे मसलों पर ध्यान नहीं देना चाहिए। क्योंकि अपनी असफ़लता छिपाने के लिए ही इस तरीके से ध्यान बंटाया जाता है।

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

काशिफ़ जी,

आपके ब्लॉग पर गया.. पूरा नहीं पढ़ पाया अभी शुरु ही किया था कि मुझे लगा कि मैं कुछ टिप्प्पणी करूँ..

आप लिखते हैं:

इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका में आनन्दमठ की रचना के उद्देश्य पर प्रकाश डालते हुए रमेशचन्द्र ने लिखा है
&ß The General Moral of the ' Ananda Math' then, is that British Rule and British Education are to be accepted as the only alternative to Mussalman oppression.ß
अर्थात् अंग्रेजी शासन और शिक्षा को स्वीकार करना ही मुस्लिम शोषण तथा दमन से बचने का एकमात्र विकल्प है।


मेरे हिसाब से:

ये तो उस समय और उस राज्य के हिसाब से बिल्कुल सही था। क्योंकि तुलना मीर जाफ़र और मीर मीर कासिम के राज की देश के बाकी हिस्से से हो रही थी।....

आप तब के हालात के हिसाब से इसे देखिये.. Generalize मत करिये...

neelam का कहना है कि -

bandemaatram ko raastrageet n maanne bale loon ko unke soort-e haal par chor dena chaahiye ,ye hote kaun hain ,sirf baat -baat me fatwa -kya moolya hai is fatwe ka saniyamirja tenis khelengi to fatwa .
is fatwe ko maariye goli ,inki jara (fatwa) jara si baaton ko pakad ke baithenge to hum tarakki nahi kar paayenge aur wo to hone dena nahi hai .
lekh wakai jaankaari poorn hai uske liye badhaai sweekaaren

amita sinha का कहना है कि -

bilkul sahi baat kahi hai neelam ji ne,mai bhi unse sahmat hu....

amita sinha का कहना है कि -

vande matram ko rastra geet to mante hai lekin jan gan man , jo angrejo ka stuti gaan hai panchan chalisa hai,wo hamara rastra gaan kaise ho sakta hai ? use rastra gaan nahi maan sakte ..

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