शनिवार को बाल-दिवस था। बाल-दिवस! चलो एक दिन के दिवस के बहाने बच्चों की सुध ली जाती है। शायद स्कूलों में कार्यक्रम होते होंगे। हमारे समय में तो होते थे। अब का पता नहीं। वैसे अब ज्यादा ध्यान दिया जाता है बच्चों पर। ज्यादा भाग्यशाली हैं आज के बच्चे। जैसे पाठ्यक्रम में बदलाव, परीक्षा समाप्त करना जैसे अनेक कदम उठाये जा रहे हैं।
बच्चे मतलब बचपन। आज से दस वर्ष पूर्व बचपन मतलब कॉमिक्स। पर अब हैं कार्टून, टीवी, विभिन्न चैनल। तब मोगली होता था, अब जैटिक्स जैसे चैनलों पर मारधाड़। तब चाचा चौधरी, मिनी, रमन, बिल्लू, नागराज और सुपर कमांडो ध्रुव में खो जाते थे। पर अब कब्जा है अमरीकी व चीनी कार्टून किरदारों का। माफ़ कीजियेगा सब के नाम नहीं पता। मेरी बुआ का लड़का है वो बता पायेगा।
चंपक, नंदन, चंदामामा व बालहंस पत्रिकायें कहीं खो गई हैं। अब बच्चों को इंतज़ार होता है शिनचैन की मूवी का। हैरी पॉटर का। इनसे बच्चा कुछ तो सीखता होगा? ऐसा कईं बार मैंने सोचा...सीखता तो होगा न?
बच्चे अब टीवी देखते ही नहीं बल्कि अब टीवी पर आने भी लगे हैं। अब परिवार को नहीं बल्कि दुनिया को हँसाने लगे हैं। माँ बोलने से पहले तो गाना गाने लगे हैं। चलना तो पैदा होने से पहले सीख लेते हैं पर चैनल पर अब नाचने लगे हैं। गर्मियों की छुट्टियों में नानी के जाते थे, फ़ालसे खाते थे पर अब "समर वेकेशन्स" हैं तो डांस और "सिंगिंग क्लासेस" भी जरूरी हैं। नहीं तो कोई न कोई हॉबी तो सीखनी ही होगी। बच्चे ही नहीं बच्चों के अभिभावक भी यही चाहते हैं। एक भी दिन बेकार न जाये। बच्चा अव्वल आना चाहिये।
पाठ्यक्रम में परिवर्तन हुआ। मैंने किसी से पूछा तो पता चला सुभद्रा कुमारी चौहान की रानी लक्ष्मीबाई की कविता अब गायब हो गई है। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उस कविता ने बच्चों का क्या बिगाड़ा है। ताँत्या टोपे पर एक पाठ हुआ करता था। काबुलीवाला और कदम्ब का पेड़ जैसी रचनायें अब किताब के पन्नों में नहीं, इतिहास के पन्नों में चली गईं हैं। राज्य स्तर के बोर्ड में जरूर ये आती होंगी, पर सीबीएसई इन्हें जरूर समाप्त करना चाह रहा है। हैरानी और परेशानी होती है कि बच्चों के पाठ्यक्रम से इनको हटा कर क्या मिला? सीबीएसई को महात्मा गाँधी के जंतर ने तो ऐसा नहीं कहा था!! क्या अब हैरी पॉटर में अपना वर्तमान और भविष्य खोजेंगे बच्चे?
अभी हाल ही में एक मित्र मिला जो सातवीं के बच्चे को ट्यूशन पढ़ाता है। माँ कहती है कि बेटा अव्वल आये। इसलिये उसे मोबाइल और इंटेरनेट दिया हुआ है। अब मोबाइल दिया है तो इस्तेमाल तो होगा ही बेशक क्लास के बीच में बात करनी हो। लैपटॉप पर चैटिंग जारी रहती है। एक मिनट के लिये भी बंद नहीं होता। पर लाडला अच्छे अंकों से पास होना चाहिये। कपिल सिब्बल ऐसे परिवारों के लिये परीक्षा समाप्त कर रहे हैं। एक शानदार कदम है उनका। इससे सूचना क्रांति में बहुत मदद मिलेगी। अभिभावक और मंत्री जी सही दिशा में जा रहे हैं।
"नानी तेरी मोरनी को मोर ले गये", "दादी अम्मा दादी अम्मा मान जाओ", "हम भी अगर बच्चे होते", "नन्हा मुन्ना राही हूँ" जैसे अनेकों गीत हैं जो गुनगुनाये जाते थे, गाये जाते थे। सभी की जुबान पर थे। पर अब बच्चे अम्मा को "ग्रैंडमा" बुलाने लगे हैं तो गाने ऐसे क्यों बनेंगे? वैसे भी आजकल बच्चों के गाने तो दूर उन पर फ़िल्म कोई नहीं बनाता। हाँ, बच्चे जरूर बड़ों जैसी बातें करते हुए अलग अलग फ़िल्मों में दिख जायेंगे। कोई एंकर बन गया है तो कोई एड-जगत में नाम कमा रहा है। कोई धारावाहिकों में आता है तो कोई रियलीटि शो में आता है। यही आज का बचपन है!! बच्चे और अभिभावक इसी में खुश हैं।
बच्चे अब बच्चे नहीं रहे। बड़े हो गये हैं। शब्दकोश से बचपन शब्द कब गायब होगा ये तो वक्त ही बतायेगा। कुछ भी कहो, आजकल के बच्चे कामयाब जरूर हैं। क्या हुआ जो उन्होंने बचपन का "स्टापू" नहीं खेला(!), कम्प्यूटर पर ऑनलाइन गेम तो खेली है।
देर से ही सही, बाल(?)-दिवस की शुभकामनायें!
--तपन शर्मा
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
3 बैठकबाजों का कहना है :
ये मेरी रुचि का विषय है। इस पर तो विस्तार से टिप्पणी दूंगा। अभी दफ्तर की जल्दबाजी है इसलिए सिर्फ इतना कहूंगा कि मां को मम्मी (MUMMY)के रास्ते होते हुए मौम्स और पिता को डैड (DEAD)के रास्ते ड्युड तक कहते / पहुंचते इस जेनरेशन को कुछ दिन पहले तक घुटने या उससे भी ऊपर चरण-स्पर्श करते देखता था अब तो हलो-हाय से ही मामला निपट रहा है। लगता है इस संस्कृति ने मुझसे मेरी मां और पिता छीन लिया है।
आपने भारत के केवल ५-१०% ब्च्चों मध्यवर्गीय व शायद उच्चवर्गीय परिवारों के ब्च्चों क यथार्थ लिखा ।शेष ९० % ब्च्चों की भी सोचें तपन भाई-जिनमें से अधिकांश या तो कूड़ाबीनते हैं,होटलों घरों कारखानो .चाय के खोखों पर मजदूरी करते हैं या खेत में अपने मां बाप का हाथ बंटाते हैं उनकी भी सोचिए तपन जी
The dealer's selections, then, are automated on all plays, whereas the player at all times has the option of taking one or more of} playing cards. Double Attack Blackjack has liberal blackjack rules and the option of increasing one's wager after seeing the dealer's up card. This sport is dealt from a Spanish shoe, and blackjacks only pay even money. The aspect wager is often placed choegomachine.com in a delegated space next to the field for the principle wager.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)