प्रशेन ह. क्यावल द्वारा फिल्म समीक्षा
जन्नत और राज़ के बाद इमरान हाशमी की फिल्म "तुम मिले" भारी भीड़ के साथ सिनेमागृहों में आई है। इससे ये तो साबित होता है के भट्ट, उनका संगीत और इमरान बॉक्स ऑफिस पर भीड़ ज़रूर इकट्ठा कर सकते हैं। पर क्या यह फिल्म दर्शकों की भीड़ लगातार जुटाने में सफल हो पायेगी?
कथा सारांश:
अक्षय (इमरान) एक उभरते हुए पेंटर (नहीं आर्टिस्ट) हैं जो केप टाऊन में अपनी पेंटिंग का कोर्स करते-करते एक रेस्तरां में वेटर की नौकरी करते हैं। एक बार आर्टिस्ट कार्नर पे पैंट करते समय वे एक ग्रुप को भाषण देती हुयी संजना (सोहा अली खान) को देखते ही उसके दीवाने हो जाते हैं, पर शर्मीले अक्षय कुछ नहीं कह पाते हैं।
फिर से जब बार-बार उनकी मुलाकात होती है तो उनमें दोस्ती हो जाती है और धीरे धीरे प्यार। संजना एक सुलझी हुयी और बेहद अमीर लड़की है। वो खुद भी अपने जिंदगी में दिन ब दिन तरक्की कर रही है। पर अक्षय एक मूडी आर्टिस्ट है जो अपने मन के मर्जी जो चाहे वो करते है। फिर भी वे दोनों एक दूसरे में खो जाते है और लिव-इन रिलेशन रखते हैं।
पर अक्षय की जिंदगी में कुछ ख़ास नहीं हो पाता है और वह दिन ब दिन मायूस होता जाता है। इसी वजह से उन दोनों के रिश्तों में दरारें आने लगती हैं और एक दिन वे अपने अपने अलग रास्तें चले जाते हैं।
पर किस्मत से वे फिर से मुंबई में मिलते हैं। वह भी 26 जुलाई 2005 के दिन। दोनों हवाई जहाज में मिलते है और बाद में मुंबई में। उस दिन की खौफनाक बारिश की न्यूज़ सुन कर अक्षय संजना के बारे में सोचता है ... और आगे क्या होता है? यही कहानी है 'तुम मिले' की।
पटकथा:
26 जुलाई के वाकये के अलावा कहानी में कुछ नयापन नहीं है... पर किरदार और संवाद कहानी को दिलचस्प बनाते हैं। किरदारों को बारीकी से तराशा गया है पर कथा छोटी सी होने के कारण अंकुर तिवारी की पटकथा एक ही जगह पर ही घुमती रहती है। और फ्लैशबैक और वर्तमान का जो आगे पीछे होना है वह सामान्य दर्शक के सर के ऊपर से जाता है और कहानी के बहाव को उसी तरह तोड़ता है जैसे 25 जुलाई के पानी ने कई दीवारें ढह गयीं।
दिग्दर्शन:
जन्नत जैसी सफल फिल्म देने वाले कुणाल देशमुख इस बार कमजोर पटकथा के हाथ मात खा गए। किरदारों को बहुत खूबी से प्रस्तुत किया है दिग्दर्शक ने। फिल्म में जो भी जान है वह किरदारों के चित्रण से ही बची है। पर फिर भी फिल्म बहुत जगह पर सवाल करने पर मजबूर करती है। अक्षय का किरदार इतना मन मौजी है और एक जगह टिक नहीं पता.... इस सच्चाई को बार बार बता कर हाई लाइट करने वाले कुणाल ये बताना भूल जाते हैं कि ऐसा क्या हुआ था कि जिसकी वजह से संजना को छोड़ने के बाद अक्षय लाइफ में एक दम सेट हो गए?
फिल्म कई जगह पर सच्चाई से जुडी लगती है और कई जगह सच्चाई से एकदम जुदा... बनावटी! अक्षय के मित्र की जब जान जाती है तो वह बिलकुल बनावटी-सा लगता है और ना ही उन्हें कुछ खास त्याग कर के मरते हुए दिखाया गया है जिससे दर्शक उसकी मौत से जुड़ पाए।
अभिनय:
अभिनय के विभाग में सब लोग खरे उतरे हैं। इमरान अपने किरदार में जान डाल देते हैं। सोहा भी किरदार को परदे पर जीवित करने में कामयाब होती हैं। पर उन्हें अपने चेहरे और गालों का कुछ करना चाहिए। बहुत सारी जगहों पे वे इमरान से बड़ी लगती हैं। इमरान के मित्र बने कलाकार भी छाप छोड़ जाते हैं।
चित्रांकन और स्पेशल एफ्फेक्ट्स :
केप टाऊन की सुन्दरता और मुंबई की बदहाली दोनों सक्षम रूप से दिखाते है छायाकार प्रकाश कुट्टी। मुंबई के बाढ़ के स्पेशल इफेक्ट बहुत ही कम है और टीवी पे आने वाले प्रोमो छोड़ कर बाकि फिल्म में कुछ ज्यादा नहीं हैं। और वहीं दर्शक ठगा हुआ महसूस करता है।
संगीत और पार्श्वसंगीत:
प्रीतम का संगीत जबरदस्त है और हिट है। पार्श्वसंगीत दृश्यानुरूप है।
संकलन:
कहानी का फ्लो कमज़ोर पटकथा के कारण बिगाडा हुआ है, इसलिए संकलन भी कमजोर लगता है। फिल्म के दूसरे भाग में जहाँ कहानी को जोर पकड़ना था, वहीं कहानी दम तोड़ देती है। पर मुझे लगता है, फ्लैशबैक को टुकडों में ना दिखाते हुए एक सटीक तरीके से प्रर्दशित किया जाता तो फ्लो बना रहता, और दुसरे भाग में बाढ़ की कहानी को सच्चाई से पेश किया गया रहता तो फिल्म अच्छी हो सकती थी।
निर्माण की गुणवत्ता:
विशेष फिल्म्स की निर्माण गुणवत्ता हर फिल्म के साथ बढ़ती जा रही है और ये अच्छे संकेत हैं। कम लागत में अच्छी फिल्में बनाने वाला भट्ट परिवार हर बार अच्छी कहानी बयान करता हुआ नजर आता है। पर इसबार वे पटकथा के चयन में कहीं चुक गए हैं। और बजट के कमी के कारण बाढ़ की कहानी में कई जगह समझौता हुआ है। और यहीं पर दर्शक नाराज हो जाते हैं।
लेखा-जोखा:
*** (3.5 तारे)
26 जुलाई को सिर्फ एक चाल की तरह दर्शकों को सिनेमाघरों में लाने के लिए इस्तेमाल किया गया है। इसी वजह से इंसानी रिश्तों और भावनाओं को सफलता पूर्वक चित्रित करने वाली फिल्म दूसरे भाग में बाढ़ की कहानी को एक उचे स्तर पर ले जाने में असमर्थ होती है। और ये फिल्म २०१२ जैसे फिल्म के सामने रिलीज़ कर के भट्ट परिवार ने बहुत बड़ी गलती की है। अगर फिल्म अकेली आती तो काश प्रचार और प्रसिद्धि के भरोसे चल गयी होती। पिछली बार भी हैरी पॉटर के सामने जश्न रिलीज़ कर के एक गलती कर चुका था भट्ट परिवार। अगली बार बड़ी हिंदी फिल्मों के साथ-साथ हॉलीवुड फिल्मों को भी रिलीज़ डेट फायनल करते समय ध्यान में रखने की ज़रूरत है।
प्रोमोस, संगीत, इमरान और भट्ट परिवार का ट्रैक रिकॉर्ड के चलते फिल्म को ओपनिंग तो अच्छी मिली है लेकिन दर्शक इसमें 26 जुलाई की कहानी अधिक देखना चाहते थे ना कि केप टाऊन की।
ये फिल्म सिनेमाघरों में जाके देखने की सलाह तो मै आपको नहीं दे सकता पर टीवी और डीवीडी पे आप घर में ये फिल्म ज़रूर देख सकते हैं।
चित्रपट समीक्षक:--- प्रशेन ह.क्यावल
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