प्रशेन ह. क्यावल द्वारा फिल्म समीक्षा
मधुर भंडारकर आज एक ब्रांड है जो मेनस्ट्रीम सिनेमा में सच्चाई से भरपूर कहानी को बखूबी पेश करते हैं और फिल्म को कॉमर्शियल प्रसिद्धि भी दिलाते हैं। आर्ट फिल्म और मेनस्ट्रीम कॉमर्शियल फिल्मों का ये मेल उनके बाएं हाथ का खेल है, इसीलिए उन्हें और उनके कलाकारों को बार-बार नेशनल अवार्ड से नवाजा गया है।
'चांदनी बार' में बार बाला, 'सत्ता' में सत्ता की गलियारों में फँसे नेता, 'कारपोरेट' में कारपोरेट जगत के स्पर्धापूर्ण जगत में घिरी बिपाशा, 'पेज-3' में मीडिया और सोसाइटी का पर्दाफाश करने वाली कोंकणा और 'फैशन' में प्रियंका चोपड़ा की मादक अदाएं पेश करने वाली मधुर की फिल्में इन्हीं फिल्मों के स्त्री पात्रों के लिए भी जानी जाती हैं। पर पहली बार वे पुरुष किरदार को मुख्य विषय बना कर फिल्म पेश कर रहे हैं।
देखते है मधुर का ये प्रयत्न क्या रंग लता है।
कथा सारांश:
पराग दीक्षित (नील नितिन मुकेश) एक कामयाब इन्सान है जिसकी जिंदगी पूरी तरह से सेट है। अभी-अभी पराग को प्रमोशन की खुशखबरी मिली है और उसकी गर्लफ्रेंड, मानसी (मुग्धा गोडसे) के साथ उसका भविष्य उज्ज्वल है। ऐसी सुख-शांति पूर्वक ऐश-ओ-आराम से भरी पूरी जिंदगी बिताने वाले पराग अपने रूम मेट, केशव राठोड़ (जिग्नेश जोशी) के साथ फ्लैट शेयर करता है। उसके रूम मेट की हरकतें मानसी को हरदम खटकती हैं। पर लड़कों में ये सब चलता है ऐसे बोल के पराग उन्हें नजर अंदाज कर देता है।
पर एक दिन जब पराग ऑफिस से निकलते वक्त अपनी आलिशान कार में जिग्नेश को लिफ्ट देके घर की ओर जा रहा होता है तभी पुलिस उनके कार का पीछा करती है। केशव पराग को कार भगाने बोलता है पर पराग रुक जाता है और कार से बाहर उतरते वक्त पुलिस उसे दबोच लेती है। केशव कार से दौड़ने लगता है और पुलिस पे फायरिंग करता है। पुलिस के जवाबी फायरिंग में केशव घायल हो के बेहोश हो जाता है। पुलिस को पराग के कार के पिछले सीट पे केशव की बैग मिलती है जिसमे 3.5 करोड़ का ड्रग्स मिलता है। पुलिस पराग को थाने ले जाती है।
सभी सबूत पराग के खिलाफ होने के कारण पराग को बेल नहीं मिलती और उसपे चार्जशीट फाइल होके केस कोर्ट में आने तक 2 साल बीत जाते हैं। उस दौरान जेल का माहौल और अनुभव पराग को पूरी तरह से तोड़ देते हैं, पर मानसी की माँ (नवनी परिहार) से मुलाकात और जेल के नए दोस्तों से मिलने वाले सहारे के भरोसे पराग कोर्ट के फैसले तक खुद को संभाल कर दिन बिताता है।
पर कोर्ट का फैसला क्या होता है? उसके बाद पराग के साथ क्या होता है... यही कहानी है जेल की।
पटकथा:
मधुर भंडारकर ने अनुराधा तिवारी और मनोज त्यागी के साथ मिल कर एक सशक्त पटकथा लिखी है। मधुर की बाकी फिल्मों की तरह इस फिल्म में भी समाज के हर तबके से आये कैदियों के रूप में अनगिनत किरदार और उनकी कहानियाँ हैं। इनके जरिये भारतीय जेलों का हदय-विदारक चित्र स्क्रीन पे उतरा गया है।
दिग्दर्शन:
एक के बाद एक सफल और अवार्ड विनिंग फिल्में दे कर मधुर खुद को बार-बार एक सशक्त निर्देशक के तौर पे पेश करने में सफल हुए है। ये फिल्म भी उसी बात पर मुहर लगाती है। मधुर व्यावसायिक सफलता और फिल्म के बिज़नस को ध्यान में न रखते हुए, उन्हें जो विषय भाते हैं, उन्हीं पे कहानी बनाते हैं और उस विषय से पूरी ईमानदारी रखते है। यही एक कारण है जिसके कारण हम उन्हें मास्टर स्टोरी टेलर बोल सकते हैं। विषय के साथ प्रामाणिक रह कर उन्होंने एक जबदस्त प्रभावी फिल्म बनायी है जो दर्शकों को अन्दर से हिला देती है।
अभिनय:
मधुर की फिल्में कहानी के विषय के साथ-साथ उसके कलाकारों के अभिनय के लिए भी जानी जाती है। इसीलिए तो उनके मुख्य कलाकार को बार-बार नेशनल अवार्ड मिलता है। पहली बार मधुर ने पुरुष पात्र को मुख्य भूमिका दे कर फिल्म बनायी है और उसके लिए नील नितिन मुकेश को लिया है। ये नील के लिए अपने आप में एक बड़ी कामयाबी है। और नील ने मधुर के विश्वास पर खरे उतरे हैं। पराग दीक्षित की सभी भावनाएँ उन्होंने अपने अभिनय से परदे पर जिन्दा कर दी है। जेल में जो उनके दोस्त बनते हैं, वेह नवाब (मनोज बाजपेई), कबीर (आर्य बब्बर) इतने सारे कलाकारों में विशेष रूप से उभर कर आते हैं।
मुग्धा गोडसे का ज्यादा रोल ना होने के कारण वह कुछ खास नहीं कर पाई हैं। पर बाकी सभी कलाकारों के सामान उन्होंने भी पूरी ईमानदारी से अपने किरदार को निभाया है।
चित्रांकन:
कल्पेश भंडारकर ने जेल के बंधे हुए वातावरण को जीवित किया है। लाइट और कलर टोन का उपयोग करते हुए उन्होंने जले का भयंकर मंज़र दर्शकों तक पहुँचाया है।
संगीत और पार्श्वसंगीत:
संगीत के लिए बहुत सारे संगीतकारों से गाने बनवाने के बावजूद संगीत में दम नहीं है पर वह कहानी में ऐसी जगह आते हैं कि ज्यादा बाधा नहीं डालते हैं।
संकलन:
पटकथा और निर्देशक की मेहनत का सम्मान करते हुए देवेन्द्र मुर्देश्वरे ने अप्रतिम संकलन कौशल का प्रदर्शन किया है।
निर्माण की गुणवत्ता:
शैलेन्द्र सिंह द्वारा निर्मित इस फिल्म में निर्माण की गुणवत्ता अच्छी है। प्रसिद्ध कला निर्देशक नितिन चंद्रकांत देसाई ने बड़ा सा जेल का सेट बनाया है जो सच्चाई से मिलता जुलता है। 90% फिल्म उसी सेट में चित्रित है।
लेखा-जोखा:
***(3 तारे)
यह फिल्म पूरी तौर से एक आर्ट फिल्म है। मधुर ने कहानी के साथ ईमानदारी रखते हुए जैसी है वैसी सच्चाई बयां की है। पर यह सच्चाई दर्शको को घुटन महसूस कराती है। दर्शको को खुद जेल में होने की सी भावना आती है। जो दिल से सख्त है उन्हें ये फिल्म बोरियत भरी भी लग सकती है। जिन्हें ऐसे डार्क और घुटन भरी फिल्में पसंद हैं, वे ज़रूर इस मूवी को देखें। आर्ट फिल्म की तौर पे इस मूवी को अवार्ड तो ज़रूर मिलेंगे पर सामान्य दर्शक जो मनोरंजन के लिए फिल्म देखने जाते हैं, उन्हें ये फिल्म देखनी की सलाह नहीं दे सकता।
चित्रपट समीक्षक--- प्रशेन ह.क्यावल
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