Saturday, November 07, 2009

व्यंग्य- यार, बाजार गया था!!

दफ्तर में आज भी बैठने को मन नहीं किया सो दोपहर को बिन छुट्टी दिए घर आ गया। दफ्तर में रहता तो भी कौन से पहाड़ उल्ट देता! दफ्तर में मुझे देखते ही बंदे तो बंदे, अब तो फाइलें भी थर्र-थर्र कांपने लगती हैं। मुझे देखते ही काम करवाने आए वालों की तरह इन्हें भी छुपने को जगह नहीं मिलती और लाख कोशिश करने के बाद भी महीनों-महीनों चपरासी को नहीं मिलतीं। दफ्तर में अब सीनियर बंदा हो गया हूं। इसलिए अवकाश देने से ऊपर उठ चुका हूं। दफ्तर से आकर अभी जूते भी नहीं खोले थे कि मुहल्ले में हलचल कुछ अधिक ही होती लगी। सभी थे कि वर्मा के घर की ओर दौड़े जा रहे थे। घरवाली भी बदहवास सी लगी।
मैंने न चाहते हुए भी पूछ लिया,‘ क्या बात हो गई? ये मुहल्ले वाले कहां जा रहे हैं?’
‘वर्मा के घर।’
‘क्यों? क्या हो गया ऐसा वहां कि....’ फरलो का सारा मजा किरकिरा हो गया। नहीं तो आते-आते सोचा था कि आज तो टीवी के आगे मजे से पांच बजे तक पसरा रहूंगा।
‘ कह रहे हैं कि उन्हें कुछ हो गया।’ न चाहते हुए भी मुहल्ले की मर्यादा को बचाए रखने के लिए वर्मे के घर की ओर देखा ही था कि सामने चारपाई पर पांच-सात जनों के पीछे आठ दस किसी को उठा कर हमारे मुहल्ले की ओर आते दिखे तो मन कुछ कांपा। यार वर्मे को सच्ची कुछ हो गया होगा तो संडे को ताश खेलने वाला चौथा कहां से आएगा? बिल देने के लिए घंटों लाइन में खड़ा कैसे होऊंगा? बेचारा कितना नेक बंदा था! कोई भी काम बता दो, कभी न नहीं करता था। भाई साहब, आप रहते होंगे मुहल्ले में प्रेम के लिए। मैं तो स्वार्थवश मुहल्ले में तो मुहल्ले में, अपने घर रह रहा हूं। अगर मुझे किसी की जरूरत न होती तो बाप की कसम! मुहल्ले में रहना तो दूर, मुहल्ले की ओर देखता भी नहीं। बाय गॉड! मुझे पता नहीं एकाएक शरम कहां से आई कि मैं वर्मे के घर चला गया। वहां उस आंगन में मुहल्ले वालों को रेला देखा तो परेशान हो गया। लगा जैसे सभी उसके मरे होने के इंतजार में रोने की रिहर्सल कर रहे हों। असल में क्या है न कि मैं आजतक औरों को परेशान देख कर कभी परेशान नहीं हुआ बल्कि औरों की परेशानी से अपने आराम को परेशान होते देख ही परेशान होता रहा हूँ।
‘क्या कहीं गिर गए थे?’
‘नहीं। उनके सिर की तरफ लगे ने मुँह में कुछ बड़बडा़ते कहा। वर्मा बिल्कुल शांत चारपाई पर पड़ा हुआ। औरों के कंधों पर चढ़ने का मजा ही कुछ और होता है! चाहे मरने पर ही यह मौका क्यों न मिले।
‘ तो क्या कहीं गाड़ी गुड़ी से टकरा गए?’
‘नहीं।’ उनके पांव की ओर लगे ने हँसी रोकते हुए कहा।
‘तो दफ्तर में किसी से हाथापाई तो नहीं हो गई?’ अब जनता पगलाने भी लग गई है भाई साहब। घर का सारा गुस्सा हम ईमानदार कर्मचारियों पर उतारने लगी है। चाहती है दो टूटे हाथों से सौ हाथों का काम करें। साले रिश्वत के चार पैसे क्या हाथ में रख देते हैं, सोचते हैं बंदा गुलाम बना लिया। अरे भैया! ये तो साला रिश्वत का खून मुंह लग गया है, वरना हम तो न काम करते और न रिश्वत ही लेते।
‘नहीं। थोड़ा हाथ दो।’
‘यार! माफ करना। मैंने तो आज तक दफ्तर में भी कलम तक नहीं उठाई तो इस बंदे को कैसे उठाऊंगा? आखिर इन्हें हुआ क्या??’
‘होना क्या यार! बाजार गया था।’ वर्मे ने चारपाई पर पड़े हुए संवेदनाएं बटोरना शुरू किया। उसे उठाने वाले बंदे किराए के थे सो चुप रहे। मुहल्ले वाले होते तो उसे गिरा कर कभी के जा चुके होते।
‘तो क्या वहां लाला से हाथापाई हो गई?’
‘नहीं।’ उसने करहाते हुए कहा।
‘तो??’
‘तो क्या! प्याज को छुआ भर था कि साले ने ऐसी दुल्लती मारी.. ऐसी दुल्लती मारी कि... चीनी को प्यार से देखा भर ही था कि चीनी ने गाल पर तड़ातड़ घूंसे दे मारे। गाल सहलाने ही लगा था कि दाईं ओर से काले कलूटे माश से अचानक नजर मिल गई। फिर क्या था! माश ने आव देखा न ताव। बाजू ही मरोड़ दी। इससे पहले कि मैं संभल पाता आलू पर गलती से हाथ पड़ गया। बस फिर क्या था! आलू ने सिर पर टचाटच लगा दी। उसके बाद क्या हुआ! मुझे कुछ पता नहीं। बस! मैं बेहोश हो गया।’
‘अब कैसा फील कर रहा है?’
‘ अब तो भगवान से हाथ जोड़ यही विनती है कि वह मुझे श्मशान भेज दे पर बाजार न भेजे।’ कह वह फिर बेहोश हो गया। सरकार! वर्मे को होश में कब तक ला रहे हो? पानी का बिल भी देना था जमा कराने को उसके पास मुझे तो।

--अशोक गौतम
गौतम निवास, अप्पर सेरी रोड,
नजदीक मेन वाटर टैंक सोलन-173212 हि.प्र.

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