अगर एक साथ बी आर चोपड़ा की महाभारत, रामानंद सागर की रामायण, मनमोहन देसाई का मसाला और गॉडफादर की झलक देखनी हो तो ‘राजनीति’ देखनी चाहिए...बस यही है कि निर्देशक प्रकाश झा से तीन घंटे के दौरान कम ही भेंट हो पाएगी...बॉलीवुड के एक दर्जन फॉर्मूले को एक साथ पेश करने में ही प्रकाश झा का टाइम पास हो जाता है और फिल्म खत्म हो जाती है....फिल्म में इतनी गुत्थियां हैं कि आप आंखे फाड़े ‘आगे क्या होगा’ के लिए फिल्म देखते जाते हैं और आखिर में होता कुछ नहीं है, बरसों पुरानी परंपरा के तहत सब हीरो-विलेन इत्यादि गोलियां खा-खाकर अपना रोल खत्म करते जाते हैं....बचपन में मां कभी किसी पुराने स्वेटर को उघाड़ने के लिए कहती थी, तो हम बड़े मज़े से ऊन खींचते जाते थे और स्वेटर उघड़ता रहता था...लेकिन, एक जगह ऊन के धागे उलझते तो खीझ कर उलझन भरा गोला मां के हाथों में थमाकर भाग जाते थे खेलने...यही काम प्रकाश झा ने किया...बड़े मज़े से पूरी फिल्म में परतें उघाड़ते रहे और कहानियां उलझाते रहे, लेकिन आखिरी आधे घंटे में दर्शकों से ज़बरदस्ती सीट खाल करवा दी कि जाईए अब क्या बचा है फिल्म में, सब मर जाएंगे, कुछ नया थोड़े ही होना है...आप हिंदुस्तान में हैं और भारत के महाकाव्य महाभारत का एक हज़ारवां रीमेक देख रहे हैं...हम इससे छेड़छाड़ नहीं कर सकते....
दरअसल, मानने को तो ये फिल्म किसी एक सिरे से पकड़ कर समझी जा सकती है....एक मुख्य कहानी है और कई कहानियां (सब-प्लॉट्स) साथ-साथ चलते रहते हैं...पर, ये निर्भर दर्शक पर करता है कि वो मुख्य कहानी किसे मानता है....मान लें कि मुख्य कहानी एक भाई का दूसरे भाई से अटूट प्यार है और लक्ष्मण अपनी (लोग कहते रहे कि ये महाभारत है, मगर हमने रामायण ढूंढ लिया) भक्ति में सब कुछ कुर्बान कर देता है...इस बीच उसे अपने पिता के हत्यारों से बदला भी लेना है और अमेरिका लौट जाना है...इसके इर्द-गिर्द सारी कहानियां रची गई हैं...जैसे, भाई कोई साधारण लोग नहीं हैं, देश के सबसे प्रभावी राजनैतिक खानदान के चिराग हैं...उनके पास गाड़ी है, बंगला है, प्रॉपर्टी है, बैंक बैलेंस है और मां भी है....बस नहीं है तो कुर्सी....तो इस कुर्सी को पाने के लिए उन्हें अपने ही भाईयों से मुकाबला करना है और फिर भाई-भाई-चचेरा भाई-नाजायज़ भाई एक दूसरे से उलझते रहते हैं और स्टार न्यूज़ पर खबर देख-देखकर दांत पीसते रहते हैं...
फिल्म की शुरूआत में ही इतने सारे रिश्तों से दर्शकों का पाला पड़ता है कि आधा घंटा ये समझने में निकल जाता है कि कौन किसका क्या लगता है....फिर, जब तक ये थोड़ा-बहुत समझ आता है, कहानी का रस मिलना शुरू हो जाता है...फिल्म का बीच का हिस्सा बेहद कसा हुआ है और यही वो हिस्सा है जिसकी वजह से राजनीति देखने वालों की तादाद घटी नहीं है...प्रकाश झा कहानी का शिल्प गढ़ने में कितने उस्ताद हैं, यही हिस्सा साबित करता है...एक के बाद एक कहानी इतनी पलटी मारती है कि देखने वाले की आंखें पर्दे से हटती ही नहीं....एक मंच पर मनोज वाजपेयी मुख्यमंत्री की दावेदारी करने के लिए भीड़ जुटा चुके हैं और अचानक अर्जुन रामपाल और उसका मास्टरमाइंड भाई रणबीर कपूर उसी मंच पर प्रकट होकर सारा खेल उलट देते हैं....ये ग़ज़ब का सीन था, जिसमें रणबीर कपूर की अभिनय क्षमता निखर कर सामने आई है...इस फिल्म की सबसे बड़ी खोज रणबीर ही हैं, जिन्हें प्रकाश झा ने तराश कर हीरा कर दिया है । इस फिल्म के बाद से रणबीर कपूर किसी फिल्म में अकेले हीरो हुए तो भी पैसा लगाने की आप सोच सकते हैं। ये गलती कैटरीना कैफ पर मत कीजिएगा..कतई नहीं। प्रकाश झा जैसे ठेठ बिहारी भी कैटरीना से हिंदी नहीं बोलवा सके तो उसका कुछ नहीं हो सकता...प्रकाश झा ने उन्हें क्यों अपनी फिल्म में लिया, समझ में नहीं आता। अगर खानदान की बहू का राजनीति मे मज़बूती से उभरना सोनिया गांधी से मिलता हुआ दिखाने के लिए किया गया तो उतनी देर के लिए ठीक था। लेकिन, बाक़ी फिल्म सिर्फ इसी एक वजह से उन्हें दी गई, ये तो गलत है। कोई गधी भी उनसे बेहतर एक्टिंग कर सकती थी। इतने बढ़िया डायलॉग रट-रट कर जब कैटरीना बोल रही थीं तो रणबीर तो इंकार हीं करेंगे ना। हमें तो कैटरीना के सीरियस सीन देखकर भयंकर हंसी आ रही थी। यही गलती अर्जुन रामपाल को लेकर भी हुई है....उनकी जगह कोई और होता तो भी फिल्म चलनी ही थी। एक झबरीले बाल वाला फैशनेबल-सा, छिछोरा-सा नेता किस राज्य का मुख्यमंत्री बन सकता है, प्रकाश झा ही जानते होंगे । अच्छे सीन्स भी मार दिये हैं अर्जुन रामपाल ने। जब पार्टी कार्यकर्ता टिकट के लिए अर्जुन रामपाल से संबंध बनाती है तो संबंध बनाने के बाद अर्जुन एक सीरियस डायलॉग बोलते हैं,
राजनीति कोई पब्लिक ट्रांसपोर्ट की बस नहीं, जो हर कोई सवार हो जाए….साफ दिखता है कि रट्टा मारकर बोल रहे हैं, मज़ा ही नहीं आता। कुछ ब्लॉग्स पर अर्जुन रामपाल को युधिष्ठिर बताया गया है। भाईयों के क्रम की वजह से ऐसा मानना गुनाह नहीं है, मगर अर्जुन अय्याश भी है और क़ातिल भी, फिर युधिष्ठिर कैसे हो सकते हैं, समझ नहीं आता।
अगर महाभारत से प्रेरणा की बात है, तो सिर्फ कुंती और कर्ण ही मुझे ढूंढने से मिलते हैं। कुंती और कर्ण का एक बोरिंग सीन भी है आखिर में, बिल्कुल ज़बरदस्ती का । सदियों से फिल्मी मां जो करती आई है, वही कुंती भी करती है। अपने बेटे को इमोशनली ब्लैकमेल करने की कोशिश करती है, मगर नाजायज़ बेटा मां..मां...मां....कहने के बजाय पलटकर चला जाता है। ये कर्ण अजय देवगन बने हैं, जो पूरी फिल्म में एंग्री यंग मैन बने फिरे हैं..एक कबड्डी चैंपियन अचानक दलित नेता बन जाता है और फिर बस्ती का भला करने के बजाय अपने ‘पॉलिटिकल गॉडब्रदर’ यानी मनोज वाजपेयी यानी दुर्योधन के तलवे चाटता रहता है। अजय देवगन का गुस्सा फिज़ूल का दिखता है। दलित नेता शोषित है, तो चेहरा हमेशा तना ही रहेगा, ये कोई ज़रूरी थोड़े ही है।
यहीं पर आकर प्रकाश झा फिल्म को क्लासिक होने से बचा लेते हैं। एक मसाला फिल्म की तरह गोलियों से सब एक-दूसरे को निढाल करते रहते हैं और हीरो को कुछ नहीं होता। नाना पाटेकर मामाजी के रोल में एकदम फिट हैं...उन्हें शकुनी छोड़कर कृष्ण मानने का मन तब तक नहीं होता जब आखिर में वो रणबीर यानी महाभारत के हिसाब से अर्जुन को अंग्रेज़ी में गीता का उपदेश देते हैं कि ‘कम ऑन, शूट दुर्योधन’....
इस फिल्म में द्रौपदी भी है, जिसके दो पुरुष हैं...एक रणबीर कपूर जो उसका हो नहीं पाता और दूसरा अर्जुन रामपाल जो रणबीर का बड़ा भाई है। सिंदूर लगाकर कैटरीना भारतीय बनने की पूरी कोशिश करती हैं, मगर मुंह खुलते ही दर्शक गला फाड़कर हंसता है। अचानक अपना पहला प्यार छोड़कर पति परमेश्वर से इमोशनली जुड़ने में कैटरीना को पंद्रह मिनट भी नहीं लगते और बिस्तर पर अर्जुन रामपाल और कैटरीना होते हैं तो दर्शक आवाज़ लगाते हैं-
इसे भी मिल गया टिकट...फिल्म की कहानी में विदेशी लड़की सारा क्यों आती है, मैं अब तक सोच रहा हूं। मुझे लगा कि वो आखिर में विदेशी बहू का मुद्दा बनकर राजनीति को सार्थक करेगी, मगर वो तो पहले ही ढेर हो जाती है। इस फिल्म में भारत का राजनैतिक इतिहास कई बार झांकी दिखाता है, जब बम धमाके में या गोली खाकर देश के बड़े लीडर जान गंवाते हैं। लेकिन, इससे आगे राजनीति में कुछ भी राजनैतिक नहीं है। सब कुछ एकता कपूर के सीरियल की तरह मसालेदार है, जो देखने में तो अच्छा लगता है, मगर प्रकाश झा के निर्देशन में देखना पचता नहीं है। कहीं-कहीं भारी-भरकम शब्दों को डायलॉग का हिस्सा बनाना भी नहीं जंचा, वो भी तब जब कैटरीना जैसी हीरोइन को मुंह खोलना हो। 21वीं सदी की कुंती कर्ण से कहेगी कि तुम मेरे ज्येष्ठ पुत्र हो कर्ण तो कौन कर्ण इस संवाद को सच मानेगा....एकाध मिनट का आइटम सांग प्रकाश झा ने फिल्म में क्यों डाला, पता नहीं। उसका न तो फिल्म की कहानी से कोई लेना-देना था, न गाने के बोल से।
सबसे मज़ेदार है कर्ण यानी अजय देवगन का राज़ खुलना कि वो किसी और की औलाद है। पालने वाली मां ने 30 सालों तक वो लाल कपड़ा साफ-सुथरा, नया—नवेला ही रखा जिसमें उसे बच्चा नदी में मिला था। ये सबूत तो मनमोहन देसाई से भी आगे की सोच निकला।
मनोज वाजपेई का अभिनय ज़बरदस्त है। वो पक्के दुर्योधन लगते हैं, लेकिन उनके सामने पांडव कहीं नहीं हैं। वो सब छोटे दुर्योधन हैं...कोई विधानसभा टिकट देने के नाम पर लड़की को सुला रहा है तो कोई रिमोट से कार उड़ा रहा है। मज़े की बात है कि दर्शक कहीं बोर नहीं होता। उसे वो सब कुछ मिलता है, जो एक फिल्म में वो ढूढता है। तीन-चार बेडसीन, पचास ग्राम आइटम सांग, भयंकर मारपीट और कैटरीना कैफ। ये फिल्म बिना किसी सोच के साथ देखने जाएं तो भरपूर मनोरंजन होगा। नसीरुद्दीन शाह एक सीन के लिए आते हैं और वो निशानी छोड़कर जाते हैं कि पूरी फिल्म बन जाती है। एक खूबसूरत डायलॉग भी उनके हिस्से आया है, जो पूरी फिल्म का सबसे साार्थक डायलॉग है
'भीड़ की तरफ जो भी दो रोटियां फेंकेगा, वो उसी का झंडा उठा लेगी' प्रकाश झा खुद भी चुनाव लड़ चुके है और हार भी चुके हैं. ज़ाहिर है, राजनीति को रसीला बनाने में उनके खट्टे अनुभव भी काम आए होंगे। मगर, क्या भारतीय राजनीति सचमुच हिंसा और पारिवारिक दुश्मनी के आगे कुछ भी नहीं है। अगर ऐसा है भी तो प्रकाश झा को फिल्मकार की हैसियत से एक ज़िम्मेदारी भरा अंत ढूंढने की कोशिश करनी चाहिए थी, जैसा अंकुर में श्याम बेनेगल करते हैं। इतने उम्दा निर्देशक से इतनी अपेक्षा तो की ही जा सकती है। उनसे तो ये भी अपेक्षा है कि जिस भोपाल में इस फिल्म की शूटिंग हुई है,(पर्दे पर सबसे पहले भोपाल और एमपी की जनता को शुक्रिया करता हुआ संदेश आता है) उसी भोपाल के गैस हादसे पर भी एक फिल्म बनाएं और दर्शकों को बताएं कि कैसे हम गुलामी के बेहद करीब हैं..प्रकाश झा ऐसा कर सकते हैं।
निखिल आनंद गिरि