Wednesday, June 30, 2010

एक प्यार भरी चिट्ठी, गुम हुई चिट्ठियों के नाम...

अमृत उपाध्याय बिहार के आरा से ताल्लुक रखते हैं....2005 से दैनिक प्रभात खबर में रिपोर्टिंग शुरू की, फिर एनडीटीवी में हाथ आज़माने के बाद निजी खबरिया चैनल महुआ न्यूज में बतौर एंकर/रिपोर्टर नौकरी निभा रहे हैं...बैठक पर आने का मन बहुत पहले बना चुके थे, फुरसत अब मिली है...बतौर पहला लेख एक मीठी-सी याद हमें भेजा है...आइए, उनकी चिट्ठी पढें

मेरे एक सहयोगी राकेश पाठक के पास स्याही वाली कलम है, जिससे वो सिग्नेचर किया करते हैं...मुझे बड़ा अच्छा लगता है, जब वो अपनी कमीज की जेब से कलम निकालते हैं और बड़ा सहेजकर उसे रखते हैं फिर, ये कलम उनके पिता जी ने दी थी। मुझे भी याद है पापा जो कलम देते थे मुझे, मैं भी सहेजकर रखा करता था और अक्सर उसी से अखबारों पर अपने शौक को पूरा किया करता था सिग्नेचर करके...कोई वजह तो नहीं थी हस्ताक्षर करने की, लेकिन किसी रद्दी जगह कई हस्ताक्षर करके भविष्य के सपने गढ़ा करता था मैं भी। और कलम का इस्तेमाल होता ही क्या था बचपन में.....बचपन से ज्यादा पाला तो नहीं पड़ा, फिर भी बचपन मतलब, जब छठी या सातवीं में पढ़ रहा था, तब चिट्ठियां लिखा करता था मैं....चिट्ठियों का सिलसिला चलता था तब...और फॉरमेट बिल्कुल तय था, 'पूज्य' से कहानी शुरू होती थी और 'पत्र के इंतजार में आपका फलां’ पर जाकर खत्म हो जाती थी...और हां दूसरी लाइन में होता था 'मैं यहां ठीक हूं आप सब कैसे हैं.... इसके बाद फिर शुरू हो जाता था हर शख्स की अलग-अलग खैरियत पूछने का सिलसिला...'फलां दीदी कैसी है..फलां चाचा कैसे हैं' वगैरह वगैरह...फिर पैरा चेंज के बाद 'यहां फलां ठीक हैं, भैया की पढ़ाई ठीक चल रही है...और सब लोग आप सब को याद करते हैं',....फिर अंतिम में 'जल्दी आइएगा' के बाद 'पत्र के इंतजार में' के साथ आपका के आगे रिश्ते का संबोधन..अब सोचने पर हंसी तो आती है लेकिन अफसोस भी होता है चिट्ठी नहीं लिख पाने का अब...कभी-कभार सोचता हूं, लिखूं चिट्ठी फिर से, लेकिन फिर सोचता हूं किसे...चिट्ठी लिखने को मैं मिस करता हूं आजकल....और स्याही वाली कलम को भी....पहली दफा जब टेलीफोन का दर्शन हुआ था तो घंटो लग जाते थे एसटीडी कॉल लगाने के लिए....उस समय कोई सूचना नहीं मिल पाती थी, जैसे आज मिल जाती है तुरंत, नॉट रीचेबल या फिर स्विच्ड ऑफ टाइप से। एसटीडी कॉल रेट महंगा होने और नेटवर्क की परेशानियों की वजह से चिट्ठियों का दौर बदस्तूर जारी रहा था...खूब चिट्ठी लिखा करते हम सब..और चिट्ठियों में अतिक्रमण भी खूब हुआ करता था, दीदी और भैया की चिट्ठी में सेंध मार कर कुछ अपनी तरफ से लिखने की फिराक होती थी तो अपनी चिट्ठी में किसी को लिखने देने में खीझ होती...मसलन एक ही चिट्ठी में पता चला कि भैया-दीदी ने भी लिख दिया और फिर मम्मी ने भी लिख दिया...और हां, डाकिए की आवाज़ बचपन में भावुकता के स्तर तक जेहन में समा जाती है...हमारी अगली पीढ़ी को तो शायद नसीब ही ना हो अब...लेकिन डाकिये का हांक लगाना और उसके पीछे हमारा इंतजार, चिट्ठी किसकी है ये जानने की और उसे जल्दी से खोल कर पढ़ लेने की उत्सुकता...कम्यूनिकेशन के नए जरिए आते गए और हमारे जेहन में चिट्ठियां बस यादें भर बन के रह गईं...और अब कलम की भी जरूरत कहां पड़ती है ज्यादा...कंप्यूटर पर उंगुलियां ठकठकाते रहने की आदत जो पड़ गई....लेकिन सचमुच बहुत याद आता है जब किसी की जेब में नई कलम देखकर ललचा जाता था मन, जब स्याही वाली कलम से सुंदर और मोती जैसे अक्षर उतारते थे मास्टर साहब, और जब उन्हीं अक्षरों से सजाकर खूबसूरत चिट्ठियां लिखने के दौरान कई दफे कागज फाड़ देते हम..सिर्फ इसलिए कि राइटिंग ठीक नहीं बैठी थी उन चार पंक्तियों में....स्याही वाली कलम की चर्चा आज ही हो रही थी सुबह, मेरे सहयोगी आलोक के साथ...तो यादें ताजा हो गईं जेहन में दबी हुईं थी जो...बचपन,कलम और चिट्ठियों की...और पापा की यादें जिनकी हैंडराइटिंग की नकल करके मैं स्याही वाली कलम से पोस्टकार्ड लिखने की कोशिश करता रहा था उन दिनों....

अमृत उपाध्याय

Tuesday, June 29, 2010

पृथ्वी पर इस्लाम का समय अब पूरा हो चुका है ?

अमेरिका में कार बम विस्फोट के सिलसिले में पाक-अमेरिकी नागरिक गिरफ्तार. ये कुछ दिनों पहले की खबर है और इस तरह की खबरें अमूमन हर थोड़े दिन में सुनने में आती हैं. दुनिया धीरे-धीरे दो भागों में बंटती जा रही है - एक इस्लामिक और एक गैर-इस्लामिक. ये सच है कि हर मुसलमान आतंकवादी नहीं होता और ये भी सच है कि दुनिया का 8० फीसदी आतंकवाद इस्लामिक आतंकवाद है. मेरी बात को अन्यथा कतई न लिया जाए, मैं एक धर्म के रूप में इस्लाम का सम्मान करता हूँ. मैं पैगम्बर मोहम्मद के जीवन से वाकिफ हूँ. मोहम्मद का पूरा जीवन लड़ाइयों में बीता लेकिन फिर भी उनका सन्देश शांति और भाईचारे का था. लडाइयां उनकी मजबूरी थी क्योंकि वो समय, वो परिस्थितियाँ कुछ और थी. आदमी जंगली था और आपसी लड़ाइयों में उलझा हुआ था, उसे एकजुट करने के लिए उन्होंने सबको जीता. लेकिन समय बदलने के साथ बहुत सी चीज़ें बेकार हो जाती हैं, सिर्फ वस्तुएं ही नहीं, विचार और क़ानून-कायदे भी बेकार हो जाते हैं. वो समय कब का बीत चुका. उस समय की दुनिया और आज की दुनिया में ज़मीन-आसमान का फर्क आ चुका है लेकिन इस्लाम के अनुयायी इसे स्वीकार करने से इनकार करते हैं, वे वक़्त के साथ चलने को अधर्म मानते हैं. वे आज भी वही जंगली और बर्बर जीवन शैली अपनाए रहना चाहते हैं. उनका समय, उनके विचार जड़ हो गए हैं, एक ही जगह रुक गए हैं और बहता पानी अगर रुक जाए तो वो सड़ जाता है. यही हुआ है. गैर-इस्लामिक लोग अगर इस्लाम को न समझ पायें तो बात समझ में आती है लेकिन इस्लाम का दुर्भाग्य ये है कि उसके अनुयायी ही उसे नहीं समझ पाए. आज क्या इस्लामिक और क्या गैर इस्लामिक सब उसे जिहाद का पर्याय ही मानते हैं मानो अगर क़त्ले-आम न हो तो वो इस्लाम ही नहीं है. मैं ऐसा नहीं कहता कि सभी मुस्लिम उसे जिहाद मानते हैं लेकिन ऐसा मानने वालों की तादाद बहुत ज्यादा है और समझ वालों की कम वरना पढ़े-लिखे और अच्छे घरों के नौजवान क्यों आतंकवादी बनाते. इस्लाम अपने शुद्ध रूप में खूबसूरत है लेकिन उस शुद्ध रूप को समझने वाले लोग कब के ख़त्म हो चुके जिस तरह अब हिन्दू धर्म के शुद्ध रूप को समझने वाले लोग भी कम होते जा रहे हैं. आज जो संस्कृति का झंडा उठाये हुए हैं वे कपड़ों को ही धर्म समझते हैं। उन्हें उसके उच्च मूल्यों का ज्ञान तो दूर, आभास भी नहीं है. वे ठीक इस्लामिक आतंकवादियों की कार्बन-कॉपी होते जा रहे हैं. खैर, हमारा विषय ये नहीं है, बात हो रही है इस्लाम की. सोचने वाली बात ये है कि अब जब दुनिया आगे की ओर बढ़ रही है ऐसे में इस्लाम का ये पिछड़ापन उसके लिए चुनौती है. कोशिश की जा सकती है कि उन्हें इस्लाम का सही अर्थ समझ में आये लेकिन जड़ हो चुकी बुद्धि में कुछ भी उतरना लगभग असंभव हो जाता है. तो क्या ऐसा कहा जा सकता है कि पृथ्वी पर इस्लाम का समय अब पूरा हो चुका है, उसे जो भलाई इंसान की करनी थी वो उसने कर दी और अब सिर्फ नुकसान ही उसकी झोली में बचा है जो उसके अपने ही लोगो ने डाला है.
इस्लामिक संस्कृति ने हमें बहुत सी खूबसूरत चीज़ें दी हैं इसमें कोई शक नहीं. बहुत सी समृद्ध कलाएं जैसे भवन निर्माण जिसका बेहतेरीन नमूना ताजमहल है. लेकिन ये सब इतिहास बन चुका है, मौजूदा स्थितियों में वो कुछ भी रचनात्मक नहीं दे रहा है बल्कि जो कुछ भी रचनात्मक है उसे ख़त्म कर रहा है.
इन परिस्थितियों में दो ही बातें हो सकती हैं, या तो मुस्लिम धर्म के कुछ ऐसे नुमाइंदे सामने आएं जो दुनिया को उसका सही मतलब समझाएं और उसे तरक्की के रास्ते पर ले जाएँ या फिर इस्लाम शांतिपूर्वक दुनिया से विदा हो जाए क्योंकि आखिर में जो बात मायने रखती है वो ये है कि इंसानियत बचनी चाहिए. मैं जानता हूँ कि मेरी बात व्यावहारिक नहीं है लेकिन फिर भी वो एक रास्ता तो है और एक बार बात सामने आ जाए तो पता नहीं कब वो जोर पकड़ ले. सारे फसाद की जड़ ये है कि धर्म को ज़रुरत से ज्यादा संजीदा बना दिया गया है. आखिर धर्म क्या है? वो जीने का एक तरीका है, या यूँ कहें कि शांतिपूर्वक जीने का तरीका है, अगर उसका ये बुनियादी उद्देश्य ही पूरा नहीं हो रहा है तो फिर वो क्यों है? एक बच्चा जब पैदा होता है तो वो किसी धर्म को साथ लेकर नहीं आता. सदियों पहले की दुनिया आज की तरह नहीं थी. तब लोग इस तरह जुड़े हुए नहीं थे. सबने अपनी-अपनी जगहों और परिस्थितियों के अनुसार अपने धर्म बनाए. आज पूरी दुनिया बहुत पास-पास आ गई है. ऐसे में बहुत सारे मतभेदों के साथ नहीं रहा जा सकता. जीने के नए रास्ते अपने आप सामने आते रहेंगे और ये इंसान को ही तय करना है कि कौन सा रास्ता इंसानियत के हक में है जिसे मंज़ूर किया जाए और किसे नकार दिया जाए. एक खूबसूरत सा ख़याल ये भी है कि सभी धर्मों की अच्छाइयों को लेकर एक विश्व-धर्म बने जिसे पूरी दुनिया के लोग माने तो दुनिया कितनी सुखी और सुन्दर हो.आखिर हर इंसान अदृश्य तारों से आपस में जुड़ा है, एक ही उर्जा ने सबको बाँध रखा है फिर अगर मनुष्यता का एक हिस्सा दूसरे को आहत करता है तो वो खुद भी चैन से कभी नहीं रह सकता.

अनिरुद्ध शर्मा

Sunday, June 27, 2010

दोहरी मानसिकता के शिकार हिंदी फिल्म समीक्षक और दर्शक

मैं कोई लेखक नहीं, कोई आलेखक भी नहीं, लेकिन हाँ अपनी बातों को यथासंभव (एक हद तक) रखने में यकीन रखता हूँ। मेरे पास सोचने-समझने की जो थोड़ी-सी शक्ति है, उसी की चहारदीवारी में विचारों की गुत्थम-गुत्थी, उठापटक चलती रहती है। दिन भर हर तरह के विचार दिमाग के कारखाने में कच्चे माल की तरह आते रहते हैं, लेकिन अमूमन यह कारखाना खराब हीं रहता है और इसलिए कभी-कभार हीं मैं किसी खास निष्कर्ष पर पहुँच पाता हूँ। फिर भी यह क्रम चलता रहता है क्योंकि मेरे हिसाब से अगर कोई कोशिश हीं न की जाए तो सफ़लता कहाँ से मिलेगी! सफलता हासिल करनी हो तो कारखाने के कल-पुर्जों को घिसना तो पड़ेगा हीं। घिसते-घिसते कोई एक पुर्जा तो होगा हीं जो हमारा काम कर जाएगा। वैसे भी कहते हैं कि दस बटेरों पर पत्थर चलाया जाए तो एक बटेर को तो हाथ आना हीं है। और जब कोई एक बटेर या कोई एक बात खुलकर सामने आ जाती है यानि कि जब मैं किसी मुद्दे पर पक्का हो जाता हूँ तो लगता है कि मैंने मैदान मार लिया हो, लगता है कि इसे औरों से भी बाँटा जाए। औरों को भी खबर की जाए कि आज मेरे पास क्या है। (मेरे पास माँ है...... के अंदाज में हीं) । सभी जानते हैं कि आज की दुनिया कितनी गतिशील, कितनी तेज-तर्रार है। इस आज की दुनिया में, अपने विचार रखने, अपनी सोच औरों से बाँटने के हज़ार तरीके हैं और इन हज़ार तरीकों में एक तरीका है आलेख लिखना। अब आप सोच रहे होंगे कि जहाँ मैंने शुरू में कहा कि "मैं कोई आलेखक नहीं", वहीं अभी "आलेख लिखने" की बात कर रहा हूँ। "आलेखक नहीं"- यह सच है, और इसलिए हो सकता है कि मैं इस आलेख के माध्यम से जो भी कुछ कहने जा रहा हूँ, उसमें सफल ना होऊँ (जिस तरह हज़ार चीजों पर माथा-पच्ची करने के बाद एकाध चीज हीं मेरे पल्ले पड़ती है, उसी तरह हज़ार शब्द उगल देने के बाद हो सकता है कि मेरा एकाध शब्द हीं मतलब का हो या फिर एक शब्द भी पल्ले पड़ने लायक न हो) , लेकिन यह तो मानना हीं पड़ेगा कि किसी से बिना मिले अपनी बात सब के बीच रखने का इससे अच्छा कोई तरीका नहीं। इसलिए दूसरा उपाय न पाकर डरते-डरते मैं "हिन्द-युग्म" के इस मंच "बैठक" पर आया हूँ।

कहने को मेरे पास बहुत सारी बातें हैं। औरों की तरह फिल्मों से गहरा लगाव हैं, इसलिए पहली बार तो यही सोचा कि क्यों ना फिल्मों पर हीं कुछ लिख लूँ। वैसे भी लोगों की समीक्षाएँ (मेरे एक मित्र के अनुसार फिल्मों के समीक्षक अब समीक्षक नहीं रहे, ये आलोचक हो गए हैं..... और आलोचक भी ऐसे आलोचक नहीं जो गुणों और अवगुणों पर बराबर की नज़र रखते हों, बल्कि ऐसे आलोचक जो बस आलोचना करना हीं जानते हैं यानि कि मौका मिला नहीं कि बुराईयों का पुलिंदा लेकर बैठ गए) पढ-पढकर मेरे मन में भी यह इच्छा घर कर गई थी कि मैं क्या किसी से कम हूँ... मैं भी फिल्मों पर अपना ज्ञान झाड़ सकता हूँ। जब लोग बिलावज़ह किसी फिल्म (पढें: रावण) की अंतड़ियाँ तक निकालने पर तुले हैं तो किसी भले मानुष की तरह क्या यह मेरा फ़र्ज़ नहीं बनता कि मैं इन कसाईयों के "हक़" पर प्रश्न-चिह्न खड़ा करूँ। खुद तो आज तक एक सीन (दृश्य) तक सही से उकेर नहीं पाए (सपने में भी) और दूसरों की मेहनत पर भर-भर के कीचड़ उछालते हैं। नाम न लूँगा लेकिन आप इस वाक्ये से समझ जाएँगे.... हमारे यहाँ के एक बहुत बड़े फिल्म-आलोचक हैं जिनकी मक़बूलियत बस इसी कारण से है कि उन्होंने "फ़िज़ा" बनाई थी। अब "फ़िज़ा" का क्या हश्र हुआ था और उन्हीं के भाई-बंधुऒं (दूसरे फिल्म-आलोचकों) ने इसे कितने "स्टार" दिए थे, ये तो जग-जाहिर है.... फिर उन्हीं महोदय ने जब "काईट्स" की समीक्षा की तो "ऋत्विक" की खूब टाँग खींची और "राजनीति" को तो "राज-नट्टी" हीं कह दिया... यहाँ तक कि उन्होंने "मनोज वाजपेयी" को भी नहीं छोड़ा... कहा कि काठ-जैसी सूरत बनाए घूम रहे थे वे पूरी फिल्म में। अब कोई उनसे पूछे कि उनकी "फिज़ा" में भी तो यही दो कलाकार थे। उस समय उन्होंने इन दोनों से क्या अलग, क्या जुदा करवाया था। और अगर कुछ अलग नहीं करवा पाए थे तो "अनुराग बसु" और "प्रकाश झा" को वो क्या दूसरी दुनिया के निर्देशक समझते हैं जो वो कोई "जादू" कर देंगे। ऐसे "दोहरी सोच" वाले लोग जब तक "समीक्षा" करते रहेंगे, तब तक हमारी फिल्मों का भला नहीं हो सकता।

माफ़ कीजिएगा .... मैं भावनाओं में बह गया और ना-ना कहते-कहते बहुत कुछ कह गया। हाँ, तो इसी तरह करने को कई सारी बातें हैं। अभी-अभी मैंने "दोहरी सोच" के बारे में कुछ कहा..... तो यह "दोहरी सोच" "दोहरी मानसिकता" बस फिल्म-समीक्षकों तक हीं सीमित नहीं है, हम दर्शकों के बीच भी इसने अपना मकाम हासिल किया हुआ है। इसका सबसे बढिया उदाहरण है "हिन्दी फिल्मों" में किसी दृश्य या किसी खास तरह की अदायगी (या अदाकारों) को नकारने वाले लोगों में "अंग्रेजी फिल्मों" के उन्हीं दृश्यों या अदायगी को पूजने की प्रथा। यह बीमारी तो आजकल हर "सुसभ्य" शहरी इंसान में देखी जा सकती है। हिन्दी फिल्म में अगर किसी ने कहा कि "मैं मैं हूँ" तो लगे नाक-भौं सिकोड़ने, लगे उसकी बघ्घियाँ उधेड़ने लेकिन अगर किसी अंग्रेजी फिल्म में (जो कि उन "सुसभ्य" लोगों को भी पहली मर्तबा समझ में नहीं आती .... मसलन मैट्रिक्स, प्राईमर) किसी बड़े-से "सुसभ्य" कलाकार (मान लीजिए "अल पचीनो") ने चिघ्घार कर कहा "दिस ईज द वे आई ऐम" तो वही नाक-भौं सिकोड़ने वाले लोग सारे शर्मो-हया भूलकर तालियों की गड़गड़ाहट में डूब जाते हैं.... उस समय किसी को भी यह ध्यान नहीं आता कि भाई "इसमें नया क्या है"....क्या यह इंसान तीस-मार खान है कि इसने उसी "बेकार"-से संवाद को "बेजोर" बना दिया है... मुझे तो नहीं लगता..... फिर ऐसा क्यों है कि "हिन्दी-फिल्म" मे जो चीज उन "सुसभ्य" लोगों को "ओवर-एक्टिंग" लगती है, जो सिचुएशन्स, जो प्रस्तुतिकरण उन्हें "ढपोल-शंख" लगते हैं, वही सारी चीजें "अंग्रेजी फिल्मो" में जाकर "ग्रेट एक्टिंग" और "मारवेलस थिंकिंग" बन जाती हैं। भला कितने लोग हैं यहाँ जिन्होंने "नो स्मोकिंग" देखी है... मेरे हिसाब से बहुत कम हीं लग होंगे। "नो स्मोकिंग" कैसी फिल्म थी... अच्छी या बुरी.... यहाँ यह सवाल नहीं है, सवाल यह है कि अगर आपने इसी तरह कि प्रयोगधर्मी कोई अंग्रेजी फिल्म (मसलन "टेरेन्टिनो" की "पल्प फिक्शन") पसंद की है तो आपको "नो स्मोकिंग" भी पसंद आनी चाहिए थी। पसंद आना तो बाद की बात है.... आपको इस फिल्म को एक "ट्राई" तो जरूर हीं देना था। अगर आपने ऐसा नहीं किया है तो आप मेरी बातों को "प्रूव" कर रहे हैं कि "दोहरी मानसिकता" हम सब के अंदर है...... है ना? इतना कुछ पढकर आप सोचने लगे होंगे कि मैं अंग्रेजी फिल्मों से खुन्नस खाए बैठा हूँ, इसलिए मौका मिलते हीं मैंने सारा भंड़ास निकाल दिया... तो मैं बताए देता हूँ कि "अंग्रेजी फिल्मों" से मेरी कोई दुश्मनी नहीं है...... ना हीं कोई खुन्नस है, हाँ "भंड़ास" जरूर है, लेकिन वो फिल्मों के लिए नहीं है, बल्कि हमारी "तथाकथित" "प्रगति" और "शहरीपन" के लिए है....... फिल्में तो बस एक बहाना है (मुझे समाज का सच दिखाना है....... हा हा)

जब फिल्मों की हीं बात चल निकली है तो ज्यादा दूर क्या जाना....... अंग्रेजी फिल्में तो "हिन्दुस्तान" में आयात (इम्पोर्ट) होकर आती हैं..... लेकिन जो फिल्में हिन्दुस्तान में हीं बनती हैं, उनसे भी तो बिना कारण भेदभाव बरता जाता है। जी हाँ मैं "क्षेत्रीय" फिल्मों की बात कर रहा हूँ। "क्षेत्रीय" फिल्मों में भी दो तरह की "क्षेत्रीय" फिल्में आती हैं। एक "उत्तर भारतीय" ("राज ठाकरे" साहब.... मैंने आपका कोई "कॉपी राईट" तो भंग नहीं किया? यह शब्द कहने का हक़ सबसे ज्यादा आपको हीं है, लेकिन "एकमात्र" आपको नहीं) और दूसरा "दक्षिण भारतीय"। "दक्षिण भारतीय" फिल्मों के बारे में हमारे "दक्षिण भारतीय़" दोस्त एक-राय होते हैं और वे खुले-दिल से इन फिल्मों को स्वीकार करते हैं लेकिन हम "उत्तर भारतीय" उन फिल्मों को खिल्ली में उड़ा देते हैं। मेरे हिसाब से यह गलत है और यह नहीं होना चाहिए, लेकिन इससे भी ज्यादा गलत है "उत्तर भारतीय" फिल्मों का पूरे हिन्दुस्तान के लोगों द्वारा मजाक उड़ाया जाना। पहले दक्षिण भारतीय फिल्मों (तमिल, तेलगु, मलयालम, कन्नड़) की बात करते हैं.... मैं मानता हूँ कि इन भाषाओं में बनी कई सारी फिल्में हिंसा के इर्द-गिर्द बुनी होती हैं और कुछ दृश्य कल्पनातीत होते हैं, लेकिन ऐसा क्या इन्हीं फिल्मों में होता है... "हिन्दी" या फिर "अंग्रेजी" फिल्मों में नहीं। अगर सही से देखा जाए तो कौन-सा दृश्य कैसे फिल्माया जाना है, इस मामले में "दक्षिण भारतीय" फिल्में "हिदी" फिल्मों से कई कोस आगे हैं । "हिंदी" फिल्मों में जो आज दिखाया जा रहा है या जो प्रयोग आज किये जा रहे हैं, वैसे प्रयोग तमिल या तेलगु फिल्मों में दसियों साल पहले किए जा चुके हैं। "मार-धाड़" में अतिशय करने की प्रवृत्ति "अंग्रेजी" फिल्मों में भी तो खुलेआम नज़र आती है (मसलन : डाई हार्ड), लेकिन वहाँ तो कोई आश्चर्य नहीं जताता, फिर यहाँ क्यों? मैं इस बात को सराहता हूँ और सच कहिए तो बेहद पसंद करता हूँ कि "तमिल" या "तेलगु" जनता अपने फिल्मों से काफी हद तक जुड़ी रहती है, बस हम "उत्तर भारतीयों" को इन फिल्मों के बारे में अपना नजरिया बदलना है।

अब बात करते हैं अपने "उत्तर भारतीय" फिल्मों की। चूँकि मैं सोनपुर से हूँ जो "छपरा" जिला में आता है, तो इस लिहाज से "भोजपुरी" फिल्मों से इत्तेफ़ाक न रखना असंभव-सा है। मैं आजकल की "भोजपुरी" फिल्मों का उतना बड़ा प्रशंसक नहीं, जितन पिछले दशक की फिल्मों का हूँ, लेकिन हाँ....... मैं इन फिल्मों से (आज-कल की फिल्मों से) नफ़रत नहीं करता। मैं मानता हूँ कि इन फिल्मों का स्तर नीचे गया है, लेकिन इतना भी नीचे नहीं गया कि इनकी बात करना भी "पाप" हो। लोगों ने इन फिल्मों का ऐसा हव्वा बनाया हुआ है कि अगर कोई कहीं "भोजपुरी" बोलता भी दिख जाए तो उससे कोई अश्लील भोजपुरी गाना गाने को कहेंगे (हाँ कुछ अश्लील गाने बने जरूर हैं, लेकिन ऐसे गाने हर भाषा में बनते हैं) या फिर उससे कन्नी काटकर निकल जाएँगे। शायद इसीलिए हमारी यूपी-बिहार की भोजपुरी जनता अपने-आप को शहरी दिखाने के लिए "भोजपुरी" न जानने या फिर "भोजपुरी फिल्में" न देखने का स्वांग रचती हैं, ताकि लोग उन्हें "दूसरी / निकृष्ट" बिरादरी का न समझें। "भोजपुरी" की आज जो हालत है, उसमें इन "भोजपुर के नालायक संतानों" का सबसे बड़ा हाथ है। अगर बाहर के लोग हमें नीचा समझते हैं या नीचा दिखाते हैं तो हमारा फ़र्ज़ बनता है कि हम उन्हें "सच्चाई" से अवगत कराकर "सही" रास्ते पर ले आएँ, उन्हें "भोजपुरी" की विशाल संस्कृति के दर्शन करवाएँ। लेकिन तब क्या किया जाए , जब अपने हीं बीच के लोग अपनी माँ (भोजपुरी) को गाली देने लगें या फिर पहचानने से इनकार कर दें, तब तो हम असहाय हीं हो जाएँगे ना और तब दूसरों को हमारी अवहेलना करने से कौन रोकेगा? हममें से जितनों को भी यह लगता है कि "भोजपुरी" अब "पवित्र" नहीं रही (शायद यही सोचकर "घर" के लोग इससे दूर भागते हैं और "बाहर" के लोग इसके मज़े लते हैं) उनसे यह पूछा जाए (हाँ, मुझसे भी यह प्रश्न पूछा जाना चाहिए) कि इस हालत का जिम्मेदार कौन है?

मेरे हिसाब से तो "भोजपुरी" जैसी मीठी और "दिल को छूने वाली" जबान कोई और नहीं (उर्दू इसके आस-पास आती है) । "पारिवारिक फिल्मों" के मामले में इस भाषा का कोई सानी नहीं। मैं आज एक पुरानी फिल्म "माई" देख रहा था। इस फिल्म के एक दृश्य में जब लड़की की शादी होती है तो "शारदा सिन्हा" ("पद्म-श्री" से सम्मानित भोजपुरी की प्रख्यात लोक-गायिका) ब्याह के गीत गाती हैं (हमारे यहाँ ऐसे गीतों से हीं शादी में रौनक आती है)। मैं झूठ नहीं बोल रहा - इस गीत को सुनकर और इस दृश्य का मनन करके मुझे पिछले नवंबर में हुई अपनी बहन की शादी याद आ गई और बरबस हीं आँखों से आँसू आ गए। ऐसा इससे पहले मेरे साथ कभी नहीं हुआ था। तो आप हीं कहिए कि जो फिल्म, जो दृश्य, जो भाषा आपके अंतस को छू जाए वो "अश्लील" या "मज़ाक का पात्र" कैसे हो सकती है? यह बस कुछ लोगों के मन का भ्रम है या फिर कुछ लोगों की अधूरी जानकारी , जिसने इस भाषा की "मधुरता" को अर्श से उठाकर "फर्श" पे डाल दिया है। यही बात मैं "बांग्ला भाषा" और "बांग्ला फिल्मों" के बारे में भी कहना चाहूँगा। न जाने क्यों ज्यादातर लोगों को "बांग्ला भाषा" की बुराई करने से क्या हासिल होता है। ये लोग "बांग्ला फिल्मों" का "क ख ग घ" भी नहीं जानते, लेकिन "फिल्मों" की दुर्गति करने में रैन-दिवस लगे रहते हैं। और यहाँ भी इस दुर्गति में सबसे बड़ा हाथ हमारे कुछ "बंगाली बंधुओं" का हीं हैं। मैंने कई सारी "बांग्ला" फिल्में देखी है (हाल-फिलहाल में "अंतहीन") और मुझे लगता है कि संबंधों को दर्शाने में "बांग्ला" फिल्मों के सामने दूसरी भाषा की फिल्में कहीं नहीं ठहरतीं।

कुल मिलाकर.... मैं बस यही कहना चाहता हूँ कि आप किसी भी भाषा या किसी भी भाषा की फिल्म को अपने "पूर्वाग्रह" या फिर "दुराग्रह" के कारण न नकारें। "नकारने" की इस मनोवृत्ति को आप चाहें जो भी कहें, लेकिन मैं इसे "दोहरी मानसिकता" हीं कहूँगा।
बाकी बातें... अगली मुलाकात में! तब तक के लिए खुदा हाफ़िज़!!

विश्व दीपक
(लेखक हिंदयुग्म के बुनियादी सदस्यों में से एक हैं...कविता और आवाज पन्ने पर खूब कलम चला चुके हैं...बैठक पर पहली दफा आए हैं, संपादक की लाख मिन्नतों के बाद...)

Saturday, June 26, 2010

आसन, भाषण और अब शासन के गुरू - बाबा रामदेव

हमारी एक बड़ी बहन सरीखी मित्र जो एक अच्छी गाइनकोलॉजिस्ट भी हैं, यह बात सत्य है जहां वे अपना चिकित्सालय चलाती है, अधिकतकर बच्चों ने उन्ही के शुभ हाथो से जन्म लिया। उनके अच्छे स्वभाव के कारण युवा से लेकर बुजुर्ग तक बड़ी संख्या में उनके प्रशंसक भी हैं सो उन्होने चुनाव लड़ने का मन बना लिया। एक बड़े राजनैतिक दल ने उनको टिकट भी दे दिया। उन्हे लग रहा था जिले के बड़ी संख्या में उपलब्ध प्रशंसक उनके पक्ष में मतदान कर उन्हे विजय श्री दिलवा देगें। परन्तु ऐसा नही हुआ, चुनाव में उन्हे निराशा हाथ लगी। पिछले लोकसभा चुनाव में आन्ध्र प्रदेश के सिने सुपर स्टर चिरंजीवी को भी कुछ ऐसा ही भ्रम हो गया उन्होने भी पूरे प्रदेश में अपने प्रत्याशी लड़ाये। प्रचार के समय उनकी सभाओं में अप्रत्याशित भीड़ भी उमड़ती थी मानो उक्त प्रदेश की सभी सीटें वे ही जीत रहे हों। विपक्षी दल भी सकते में आ गये। उन्हे भी भ्रम हो गया कि आन्ध्र की राजनीति में चिरंजीवी का एकछत्र राज्य होने वाला है। पर ऐसा नहीं हुआ। सिनेमा प्रेमियों ने भीड़ द्वारा उनका उत्साह तो बढ़़ाया पर वोट नहीं दिये। जनता ने इन्हे भी राजनीति के क्षेत्र में ससम्मान नकार दिया। इसी प्रकार का भ्रम जय गुरू देव को भी हो गया था। प्राप्त परिणाम से उन्हे लगभग ढाई दशक गुमनामी के अंधेरे में रहना पड़ा जब तक उस समय की पीढ़ी विषय को पूरी तरह भूल नहीं गयी। इसी प्रकार न जाने कितने विभिन्न क्षेत्रों में अत्यधिक सम्मान प्राप्त व्यक्तियों ने अपनी लोकप्रियता को मतपेटी तक पहुंचाने का प्रयास किया परन्तु वे असफल ही रहे। व्यक्तिगत स्तर पर तो विभिन्न चुनावों में लड़ने वालो की बाढ़ सी आ जाती है। लगभग हर सीट पर कोई न कोई गैर राजनैतिक व्यक्ति अपना भाग्य आजमाता है। हार या जीत जाने पर पलटकर क्षेत्र का मुंह नहीं देखता। मेगा सुपर स्टार अमिताभ बच्चन से अच्छा उदाहरण और नहीं हो सकता।
वर्तमान में योग गुरू रामदेव जी को भी कुछ उपरोक्त नामी-गिरामी हस्तियों की तरह भ्रम उत्पन्न हो गया। उन्हे लग रहा है वे अपनी लोकप्रियता को राजनैतिक क्षेत्र में भुना सकते है। परन्तु उन्हे यह जानना चाहिए समाज आप के साथ किस विषय पर खड़ा है। स्वामी जी को यह बात भली भॉति समझकर कदम उठाना चाहिए कि जनता किसे प्यार देती है किसे सम्मान और वह किसे नोट देती है और किसे वोट। रामदेवा जी को जानना चाहिए जनता उनके साथ कपाल-भाति मे तो है पर राजनीति में साथ दे ऐसा बिल्कुल भी आवश्यक नहीं।
रामदेव कब स्वामी से लेकर योग गुरू बन गये उनके शब्द, शिक्षा, प्रवचन-भाषणों में परिवर्तित होते चले गये पता हीं नहीं चला। देखते ही देखते हरिद्वार की सड़कों पर साइकिल से चलने वाला एक साधारण व्यक्ति किस प्रकार लगभग 10 वर्षों में करीब सत्तर हजार करोड़ रूपये का स्वामी बन गया। आज स्वामी जी के पास विदेशों में भी अकूत अचल सम्पत्ति है। यह बात सत्य है भारत से विलुप्त हो चुके योग विज्ञान को उन्होने पुनः सार्वजनिक किया। इस विषय पर उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाय कम होगी। परन्तु उसकी आड़ में धन का जो खेल चला वह उनके उक्त सम्मान का कम करता है। योग की कक्षा लगा सिनेमा की तरह श्रेणीगत टिकटों की बिक्री उनकी उक्त लोकप्रियता पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। उनकी यौगिक क्रियाओं की सी0डी0 तथा साहित्य की ऊॅची कीमतों पर बिक्री भी उनके योग व्यवसायीकरण की तरफ इंगित करती है। आज वे नमक, शरबत टूथब्रश तथा अचार सहित विभिन्न छोटी-छोटी दैनिक उपयोग की वस्तुओं की भी बिक्री करने लगे। सुना जा रहा है जल्द ही वे मिनरल वाटर बनाने का भी संयत्र लगाने जा रहे है।
स्वामी जी के योग आसन तथा प्राणायाम के ज्ञान को जनता ने सिर ऑखों पर बैठाया। उनके प्रवचन से लेकर दन्त मंजन तक समाज ने स्वीकार किये। परन्तु राजनीति में भाग्य आजमाने का फैसला उनके लिए निश्चित ही मुश्किले खड़ी करेगी। वे किस प्रकार रजनीति में शुचिता की बात करेंगे। क्या जनता उनसे यह नहीं पूछेगी उनका इतना बड़़ा आर्थिक ताना-बाना किस सामाजिक शुचिता की उपलब्धि है।
स्वामी जी जिस प्रकार बीमारों का इलाज करते-करते भगवा वस्त्रों की आड़ ले राजनैतिक जनसमर्थन प्राप्त करने का प्रयास एवं प्रधानमंत्री पद की लिप्सा पाले अपने जनकल्याण के स्वरूप का व्यापारीकरण एवं अब राजनीतिकरण किया है। समाज सब देख रहा है। जिस तरह बाबा ने वर्ष 2014 में होने वाले आम लोकसभा चुनाव में सभी 542 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े करने की घोषणा की है। इस प्रकार की घोषणा किसी भी एक व्यक्ति ने पूर्व में भारत के इतिहास में नहीं की। उनकी व्यवस्थित राजनैतिक तैयारियों को देखते हुए ऐसा लगता है उनके पीछे कई बड़े समूह है जो देशी भी हो सकते है तथा विदेशी भी। बाबा की योग कक्षाओ, आयुर्वेदिक दवाओं, दिनचर्या की साधारण वस्तुओं से लेकर योग साहित्य तक की व्यवस्थित मार्केटिंग उक्त शक को और पुख्ता करती है। उक्त व्यवस्था में बाबा के विश्वस्त साथी बालकिशन महाराज जी का नाम आता है। परन्तु मार्केटिंग ऐसे कठिन विषय को महज एक व्यक्ति संचालित कर रहा है, जो समझ से परे है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय राजनीति में जहॉ काग्रेस पार्टी स्वाधीनता के रथ पर सवार होकर आयी वहीं जनसंघ (वर्तमान भाजपा) ने प्रखर राष्ट्रवाद तथा हिन्दुत्व के साथ राजनीति का दामन पकड़। जय प्रकार प्रकाश नारायण जी ने युवाओं के साथ अपनी राजनैतिक पारी खेली वही कम्युनिस्ट मजदूरों के सहारे राजनैतिक अखाड़े में अपनी उपस्थिति बनाये है। बात एकदम स्पष्ट है हर दल के साथ एक न एक महत्वपूर्ण समाज जुडा है या था। जो उनके आधार मत की तरह हमेशा उनके साथ खड़ा रहा। हर राष्ट्रीय दल का अपना एक गौरवशाली इतिहास है न कि स्वामी रामदेव जी की तरह आसन, भाषण, तथा अन्त में शासन की अभिलाषा वाली सिर्फ बेचैनी।
बाबा रामदेव अपनी योजना भर पूरा प्रयास कर रहे है कि उनकी राजनैतिक पारी की शुरूआत दमदार तरीके से हो। उनसे कोई छोटी सी चूक भी न हो जिसका परिणाम उन्हे भुगतना पड़े। इसीलिए देश में 18 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं पर उन्होने प्रथम डोरे डालने प्रारम्भ किये। मुस्लिम उलमाओं से सम्पर्क उनकी मुस्लिम घेरे बन्दी का प्रथम चरण था। वैश्विक स्तर पर अपनी कट्टर छवि के लिए मशहूर देवबंद मदरसे में उनका जाना, अपने उद्बोधन का प्रारम्भ कुरान शरीफ की आयातों से करना उनकी राजनैतिक योजना का हिस्सा थी।
इसी वर्ष उनकी एक देशव्यापी आन्दोलन की तैयारी भी है। भारत स्वाभिमान ट्रस्ट जिसकी राजनैतिक इकाई अगला लोकसभा चुनाव लडे़गी। मजे की बात है केसरिया वस्त्र धारण किये स्वामी रामदेव ने अपनी राजनैतिक पार्टी का ध्वज वाहक हिन्दु धर्म को नहीं बनाया है। उन्हे भय है हिन्दू धर्म का विषय आते ही मुस्लिम मतदाता भड़क न जाये।
भारतीय संस्कृति में गुरू के स्थान को ईश्वर से भी उच्च आसन प्रदान किया गया है। वैश्विक योग गुरू के रूप में स्थापित रामदेव जी महाराज स्वयं को गुरू कहलाने में गौरवान्वित महसूस करते है। परन्तु स्वयं उनके गुरू शंकर देव जी कहां हैं। कभी उनके मुंह से अनायास भी नहीं निकलता इस भय से कि कहीं उनकी लोकप्रियता मे वे हिस्सेदार न हो जाये।
एक पुरानी कहावत है तेज दौड़ने वाला व्यक्ति उतनी ही तेजी से गिरता है। ऐसा लगता है मानेा स्वामी जी के साथ भी ऐसा ही कुछ घटित होने वाला है। वास्तव में रामदेव जी की माया का इन्द्रजाल समाप्त होने के कगार पर है। जिसका अन्तिम चरण उनके मन में भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर रहा है। रामदेव जी से पहले भी बडे़-बडे़ स्वामी हुए। ओशो रजनीश जिनके पास धन-धर्म तथा समाज का एक बड़ा वर्ग था। उन्होने तो स्वयं को भगवान तक कहला लिया था। महेश योगी जिनका मुख्यालय हालैण्ड में था उनके शिष्यों में रामनाथ गोयनका से लेकर सत्ता के ऊॅचे-ऊॅचे लोग थे। परन्तु इस प्रकार का स्वप्न इन्होने भी नहीं देखा। कर्ण के द्वारा कुण्डल कवच का दान हो या रावण द्वारा सीता माता का छला जाना। भारतीय समाज हमेशा धर्म की ओट में ही ठगा गया है। बाबा राम देव जी ने संत वेश का उपयोग व्यापार में किया जिसे अब राजनीति मे करना चाहते है। जो निन्दनीय है। देश की जनता की परख बहुत तीखी होती है। वह समय आने पर अपना काम अवश्य करती है। आने वाला समय स्वामी जी के दिवास्वप्न को धूलधूसरित करेगा। उनके सफल योग गुरू से सफल व्यापारी उसके बाद उनकी प्रधान मंत्री पद की लालसा उन्हे लोकप्रियता के अन्तिम पड़ाव पर पहुंचा रही है।

राघवेन्द्र सिंह

Tuesday, June 22, 2010

आपने कितनी बार बिन कहे किसी को आई लव यू बोला है...


ये क्या कि चंद क़दमों पर ही थक कर बैठ गए, तुम्हे तो साथ मेरा दूर तक निभाना था....किसी अपने से बिछड़ने का गम चाहे कितना ही छुपाया जाये पर भीतर कहीं टीस तो होती है. बचपन में पक्की सहेली बनाने का वो शौक और उसके रूठ जाने पर घंटों घर जाकर माँ से उसकी बुराई करते हुए अन्दर ही अन्दर उससे सुलह के तरीके खोजना आज भी याद आता है. सोचती हूँ चंद पल जिसके साथ खेल-खिलौने खेलती थी, उसके कुछ दिन मुझसे गुस्सा हो जाने पर कितना परेशान हो जाया करती थी. अगर जीवन भर का कोई साथी रूठ जाये या अलग हो जाये इस दुख की तो कल्पना करना भी सिहरन पैदा कर देता है ...हम कितने भी तटस्थ क्यों न हो जाएं, भावों से ख़ाली तो नहीं हो सकते न. आज कल तलाक तलाक तलाक का शोर ज़ोरों पर है... गौरतलब है की कैबिनेट हिन्दू विवाह अधिनियम में संशोधन करके तलाक की राह को आसान बनाने की तयारी कर रही है...महिला सशक्तिकरण के पैरोकार खूब खुश हैं ...वकील भी होंगे जब तलाक के मुक़दमे भर जायेंगे तो ....लेकिन बैठक पर मेरा ये मुद्दा उठाने का कारण बाकी सारी वजहों से बिलकुल अलग है...ये बात कानून से मतलब नही रखती , ये बात समाज से तारुफ़ नही करती , चलिए परिवार को भी पीछे छोड़ देते है, और तमाम अन्याय अत्याचार की घटनाओ के बावजूद दो लोगों में छुपे उस अदृश्य प्यार को तलाशते हैं जो हर रोज नही सिर्फ किसी ख़ास पल में नजर आता है ...जिस एक पल से दो अजनबी दुनिया के हर जानने वाले से ज्यादा आशना से हो जाते हैं, वो पल जिसमे जिंदगी को उसके बिना सोचना भी बेमानी लगता है, आप सोचते होंगे ये मेरे अति सकारात्मक विचार हैं लेकिन मैं निराधार आशावाद में यकीं नही रखती हूँ...ये बातें उन लम्हों को देखकर लिख रही हूँ जो मैंने किन्ही अनजान से पलों में आहिस्ता से आँखों के सामने प्रकट हुए संजीव से चित्रों में देखे है. दिन भर एक-दूसरे से लड़ने वाले बूढ़ा-बूढी जब बस पर चढ़ रहे थे और अम्मा नही चढ़ पाई तो बूढ़े बाबा ने उन्हें हाथ पकड़कर बस में चढाया और फिर चढ़ने के बाद एक धीमी सी मुस्कान दोनों के चेहरों पर दिखाई दी उनकी हर रोज की लड़ाई कितनी छोटी पड़ गई थी मेरे लिए जब उन्हें यूँ बिना शब्दों के एक-दूसरे से आई लव यू कहते महसूस किया .....
पड़ोस में रहने वाले उड़ीसा के साहू साहब ज़रा-ज़रा सी बात पर अपनी बीवी पर चिल्लाते हैं ..गाहे बगाहे हाथ भी उठा देते है ..जवाब में पत्नी भी आक्रोश व्यक्त करती हैं खाना परोसती जाती हैं और कुछ ये बातें कहती है "पता नही कौन से बुरे कर्म किये थे मैंने जो तुम्हारे जैसा पति मिला",'मेरी सारी जिन्दगी ही ख़राब हो गई तुमसे शादी करके ' और फिर जब मैंने देखा कि माँ बनने के बाद डॉक्टर ने उन्हें आराम करने के लिए कहा है कोई काम करना मना है और परिवार का भी कोई सदस्य यहाँ उनकी सेवा करने नही आ सकता तो वही साहू साहब जो खुद मुझे भी बहुत बुरे लगते थे जब बीवी पर चिलाते थे और मैं भी सोचती थी कि इन्हें अलग हो जाना चाहिए वही शख्स अपनी नौकरी और घर के काम दोनों एक साथ कितनी सहजता से कर रहा है...हल्की दिक्कतों के बाद भी पत्नी को काम नही करने देता...पूरे तीन महीने तक लगातार सेवा की, तब जबकि कोई माता-पिता, भाई-बहिन .....कोई नही आया सब आये औए हाल-चाल पूछ कर चले गए ...सोच किसी भी हद तक जा सकती हैं लेकिन उस वक़्त का सच ये था की जिसके साथ जिंदगी बर्बाद-सी हो गई लगती थी, वही जिंदगी को सहेज रहा था .....आप भी देखेंगे तो ऐसे कई उदाहरण मिल जायेंगे ...हालाँकि अपनी इन बातों से मैं ये नही कह रही कि किसी भी तरह से बदसलूकी और बदतमीजी सहते हुए, नाउमीदी की गर्त में गिरे हुए कुछ लम्हों का इन्तजार किया जाये लेकिन हाँ सुलह के रास्ते तलाशना लाज़मी है ....अगर मैंने लड़ते झगड़ते मियां-बीवी को बीच पनपते प्रेम को देखा है तो उस अकेलेपन को भी महसूस किया है जो मुझे शादी के एक साल बाद ही दहेज़ की वजह से अलग हुई मात्र २५ साल की एक लड़की के चेहरे पर हमेशा नजर आता है ...जो मुझसे कहती है पता है वो बुरे नही थे लेकिन उनके घर वालों को ही दहेज़ का लालच था उनकी वजह से हमें अलग होना पड़ा... आज मैंने अपने दम पर सब कुछ हासिल कर लिया है लेकिन न मेरे बच्चे के पास पापा है न मेरे पास कोई पार्टनर. मेट्रो शहरों का कल्चर बेशक हमें उन्मुक्त होने के लिए कहे लेकिन फिर यही महानगर भीड़ में उस तन्हा शख्स को बिलकुल अकेला छोड़ कर अलग हो लेता है ....और अकेलापन तो जो न करवाए वो अच्छा ....
जानती हूँ कि मेरी बात तथ्यों से परे लग रही होगी, आखिर आजादी अख्तियार करने के रस्ते में मैं कुछ भूले-बिसरे शब्द जो बिछा रही हूँ ......आप बताएं क्या मेरी बात बिलकुल बेमानी है .........

हिमानी दीवान

Monday, June 21, 2010

उम्मीद से कम, लेकिन देखने के काबिल है 'रावण'

फिल्म जब मणिरत्नम की हो तो उम्मीदों का बेताब होना लाज़मी है. कई दिनों के इंतज़ार और अटकलों के बाद 'रावण' रिलीज़ हुई. पिछली दो फिल्मों 'काइट्स' और 'राजनीति' से बेतरह खराब हुए ज़ायके को सुधारने के लिए 'रावण' का इंतज़ार था. बेशक़ निराशा नहीं हुई लेकिन फिर भी कुछ कमी रह गई. फिल्म अच्छी है लेकिन दिल तक नहीं पहुँचती. ऐसा लगता है जैसे मणिरत्नम के कहानी कहने में वो धार नहीं रही. ये मैं उनकी पिछली फिल्म गुरु को भी ध्यान में रखकर कह रहा हूँ. गुरु अपने आप में खराब फिल्म नहीं थी लेकिन वो कहानी इस लायक नहीं थी कि उसे मणिरत्नम जैसा फिल्मकार बनाए. एक भ्रष्ट आदमी के फर्श से अर्श तक पहुँचने कि कहानी लेकिन उसमे बड़ी बात क्या है? आजकल सभी लोग किसी न किसी तरह की जुगाड़ से ऊपर जाते हैं, हाँ, अगर अपने उसूलों पर कायम रहकर कोई वहां पहुंचे तो वो शख्स कहानी बन जाता है. और पीछे जाएँ तो याद आती है 'युवा', जिस पर मणिरत्नम के तगड़े दस्तखत थे. युवा की हर चीज़ मणिरत्नम के अद्वितीय होने को सिद्ध करती है. फिल्म में एक सशक्त सन्देश तो था ही मौजूद समस्या से निबटने का तरीका भी था. युवा दिलो-दिमाग को झकझोरती है. और भी पीछे जाएँ तो हर एक फिल्म चाहे वो 'रोजा' हो, 'बॉम्बे' हो या 'दिल से' हो, एक हूक सी पैदा करती है दिल में. और ये हूक ऐसी चीज़ है जो फिल्म को कला का दर्ज़ा देती है लेकिन आजकल दुर्लभ है. अब फिल्म का दर्ज़ा चने-चबैने के बराबर हो गया है, एक टाइम पास.
फिर से लौटते हैं रावण की तरफ. फिल्म की कहानी रामायण से प्रेरित है और वहां से शुरू होती है जहां रावण सीता का हरण करता है. यहाँ रावण उर्फ़ बीरा एक पिछड़े इलाक़े और पिछड़ी जाति का सरगना है जिससे लोग खौफ भी खाते हैं और मोहब्बत भी करते हैं. वो क्रूर है लेकिन उसका गुस्सा अन्याय के खिलाफ है और दिल की गहराइयों में कहीं कोमलता भी बरकरार है. राम उर्फ़ देव एक पुलिस अफसर है जो इलाके में नया है और बीरा को मिटाने का फैसला करता है. इसी कोशिश में बीरा की बहन को उठा कर थाने ले आया जाता है ठीक उस वक़्त जब उसके फेरे होने वाले हैं. उसे रात भर थाने में रखा जाता है और पूरा स्टाफ उसके साथ बलात्कार करता है. घर पहुँच कर बीरा को पूरी कहानी बताने के बाद वो आत्महत्या कर लेती है. यही वजह बनती है देव की पत्नी रागिनी के अपहरण की. बीरा उसे उठाता है जान से मारने के लिए लेकिन उसे बंदी बनाए रखने के दौरान वो उसके दिल की गहराइयों में उस नाज़ुकी को छू लेती है जो हमेशा छुपी रहती है और वो उसे मार नहीं पाता. जैसा कि मैंने कहा बीरा क्रूर है लेकिन शराफत उसके अन्दर मौजूद है, एक औरत को बंदी बनाता है लेकिन वासना से वो दूर है. उसे उसकी शुद्ध सुन्दरता दिखाई देती है. देव अपनी पत्नी की खोज करते हुए संजीवनी (हनुमान) से मिलता है जो इस काम में उसकी मदद करता है. आगे की कहानी बताकर मैं उनका मज़ा ख़राब नहीं करूँगा जो फिल्म देखने वाले हैं.
फिल्म की कहानी सामान्य ही है लेकिन फिर आखिर ज़्यादातर फिल्मों की कहानी सामान्य ही होती है, फर्क होता है उसे कहने के तरीके में, उसके भावों के उभार में. यहाँ कहानी सामान्य होते हुए भी फिल्म बोर नहीं करती लेकिन भावों के उभार में कमी रह गई. कुछ दोष स्क्रीनप्ले का है और कुछ अभिनय का. जैसा कि मणिरत्नम की फिल्मों में होता है, कहानी में किसी न किसी सामाजिक मुद्दे का एक तार जो आपको सोचने पर मजबूर करता है , वो यहाँ नहीं है. हालांकि उसका ज़िक्र ज़रूर है लेकिन वो इतना असरदार नहीं है कि ज़हन में उभर के आ सके. बीरा समाज के दबे-कुचले वर्ग का प्रतिनिधि है लेकिन इस तथ्य को लेकर यही छोड़ दिया गया है. इसी तरह कुछ और भाव हैं फिल्म में जो दिल को छू सकते थे लेकिन उन्हें भी शुरू करके बहुत आगे तक नहीं ले जाया गया जैसे बीरा के मन में धीरे-धीरे रागिनी के लिए प्रेम का जन्म होना और रागिनी का बीरा के बारे में नजरिया बदलना, ये सब समझ में आता है लेकिन उस शिद्दत से महसूस नहीं होता. बीरा के प्रेम की आग हम तक आंच नहीं पहुंचाती या रागिनी की करुणा हमारे अन्दर उथल-पुथल नहीं मचाती. ये सब नहीं होता इसकी एक बड़ी वजह संवाद हैं. संवादों में वो तीखापन, वो धार नहीं है जो सुनने वाले के कानों से दिल में उतर जाए. अभिनय की अगर बात करें तो सभी में कुछ कमी रह गई है. अभिषेक बच्चन बीरा के रूप में उतने खतरनाक नहीं लगे जितना उन्हें लगना चाहिए था, इससे ज्यादा खौफनाक वे युवा में लगे हैं. इसी तरह जब प्रेम मन में पैदा हुआ है तो उससे दर्द भी पैदा होता है क्योंकि वो ना हासिल होने के लिए है, वो दर्द उनके भावों में नहीं आ पाया. ऐश्वर्या आखिर कुछ अभिनय सीख गई हैं, हालांकि उसमे अब भी वो उंचाई नहीं है लेकिन उन्होंने अपने आप को इस फिल्म में पीछे छोड़ा है. देव के रूप में विक्रम के करने के लिए कुछ ख़ास था नहीं लेकिन उनके व्यक्तित्व में दम है और जितना किया है वो अच्छा है. गोविंदा एक ऐसे कलाकार है जिन्होंने अपनी प्रतिभा फूहड़ फिल्मों में बर्बाद कर दी वरना हमें अभिनय के कुछ बेहतरीन नमूने देखने को मिल सकते थे. गोविंदा बेशक एक बेहतरीन अभिनेता है और बिरले ही ऐसा हुआ है कि वे किसी अच्छे फिल्मकार के साथ किसी अच्छी फिल्म में नज़र आये हों. हनुमान के रूप में गोविंदा का अभिनय ज़रूर अच्छा है. इस दूसरी पारी में उनसे कुछ अच्छा करने की उम्मीद है. रवि किशन अच्छे अभिनेता हैं और उनके अभिनय में नज़र आता है कि ये दिल से किया गया है.
फिल्म का जो सबसे अच्छा और सबसे खूबसूरत पहलू है वो है सिनेमेटोग्राफी, फिल्म की हर एक फ्रेम बेहतरीन है. प्रकृति की खूबसूरती को पूरी तरह से परदे पर उतारा गया है. इस बात पर हम इसे एक ओरगेनिक फिल्म कह सकते हैं. पूरी फिल्म में पहाड़, नदी और बारिश की खूबसूरती फैली हुई है. फिल्म में प्रकृति खुद एक किरदार की तरह मौजूद है.
संगीत की क्या बात करें ए आर रहमान लिख देना ही काफी है. जैसा कि हमेशा होता है उनके गीत धीरे-धीरे असर करते हैं और ज़हन में घुलने लगते हैं. रहमान के गीत जितनी बार सुनें कुछ नया मिलता जाता है, कोई छुपा हुआ इंस्ट्रूमेंट, कोई धीमी सी मेलोडी. बड़ा दुःख हुआ ये देखकर कि एक गीत 'उड़ जा' जो रहमान की ही आवाज़ में है, फिल्म में तो है लेकिन फिल्म के ऑडियो में नहीं है. बैकग्राउंड म्यूजिक बेहतरीन है. हर एक सिचुएशन को रहमान का संगीत अलग ही प्रभाव दे देता है. वे ऐसे साज़ इस्तेमाल करते हैं जो किसी ने सोचे न हो और उनका असर जबरदस्त होता है.
ऊपर मैंने काफी खामियां गिनाई हैं लेकिन अगर फिल्म के सम्पूर्ण प्रभाव की बात करें तो फिल्म अच्छी कही जा सकती है और एक बार ज़रूर देखी जानी चाहिए. कुछ खामियां ज़रूर हैं लेकिन फिर भी देखने लायक है.

मैं इसे ५ में से ३.५ अंक दूंगा.

अनिरुद्ध शर्मा
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Wednesday, June 16, 2010

दो रुपये में घर-घर पहुंचेगा आंदोलन...

झारखंड का सबसे चर्चित अखबार है प्रभात खबर....अखबार का नारा है ' अखबार नहीं आंदोलन ' ...पत्रकारिता के हर स्वरूप में प्रभात खबर का नाम अदब से लिया जाता है....इसके प्रधान संपादक हरिवंश जी के साथ काम करने का मौका मुझे भी कुछ सालों पहले मिला है...अब टीवी के हाईफाई संपादकों के बीच हरिवंश जी की सादगी याद आती है....तब अखबार की कीमत तीन-साढ़े तीन रुपये थी और हाल के दिनों मे चार रुपये ...अचानक इस खबर पर नज़र पड़ी कि अखबार अब दो रुपये में मिलेगा, उसी पुरानी गुणवत्ता के साथ....झारखंड में दैनिक भास्कर जल्द ही आने वाला है, जिसकी कीमत कम ही होती है...हिंदुस्तान और दैनिक जागरण पहले ही वहां चार रुपये में बिककर होड़ में बने हैं...  ऐसे में एक अखबार की कीमत आधी हो जाना सुखद भी है और चुनौती भी कि कहीं एक अच्छा अखबार बाज़ार की बेरहमी से बंद न हो जाए....प्रभात खबर के मुताबिक कीमत कम करने की वजह बस इतनी है कि पूरे झारखंड को दो रुपये में अखबार मिलेगा, तो आंदोलन का सपना सच हो सकेगा....काश ! यही सच हो....प्रभात खबर ने कीमत कम करने को लेकर संपादकीय में जो कहा, वो आपके सामने हैं...वैसे, आप क्या कहते हैं....


पाठकों को दो रुपये में प्रभात खबर


'पढ़ेगा पूरा झारखंड’ अभियान के तहत आज (15 जून, 2010) से प्रभात खबर पाठकों के लिए दो रुपये में उपलब्ध है. चार रुपये में नहीं. एक अखबार की लागत कीमत लगभग नौ रुपये है. पर पाठकों को दो रुपये में क्यों? झारखंड बने 10 वर्ष होने को हैं. सात मुख्यमंत्री जा चुके हैं. अब आठवें की तलाश जारी है. न सरकार स्थिर है, न विधानसभा. इस तरह न विकास हो रहा है. न राज्य आगे जा रहा है. दुनिया को 21वीं शताब्दी में ज्ञान का युग (नॉलेज ऐरा) कहा गया है.

सूचना क्रांति का दौर. यानी सूचनाएं ही लोगों को या समाज को जागरूक या संपन्न बनाती हैं. सूचनाएं अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे, तो झारखंड में एक नयी चेतना पैदा होगी. आंदोलन और बदलाव की नयी भूख और बेचैनी होगी. राज्य में जन-जन तक राज्य की सूचनाएं पहुंचे, बदलती दुनिया की खबरें पहुंचे, देश के कोने-कोने में आ रहे बदलावों की सूचना पहुंचे, तो सही अर्थो में एक नया आंदोलन पैदा होगा. आंदोलन सृजन का. आंदोलन प्रगति का.

आंदोलन विकास का. इसलिए जन-जन तक सूचनाएं पहुंचाने के लिए ही प्रभात खबर ने पाठकों को दो रुपये में अखबार उपलब्ध कराने का ऐतिहासिक निर्णय किया है, ताकि घर-घर अखबार खरीद और पढ़ सके. अब आप पाठकों से गुजारिश है कि आप ‘पढ़ें अखबार’ आंदोलन चलायें. अखबार को पास, पड़ोस, समाज हर जगह फ़ैलायें. यह सूचना युग है. इसमें शिक्षा और ज्ञान ही इंसान को आगे ले जा सकते हैं. प्रभात खबर ज्ञान का मंच बने. यह हमारी कोशिश होगी.

लंबे समय से झारखंड में यह चर्चा हो रही थी कि अखबारों की कीमत अधिक होने के कारण बड़ी संख्या में लोग अखबार नहीं खरीद पाते. बीच-बीच में अखबार समूहों ने सर्वे कराये, उसमें भी यह बात सामने आयी. झारखंड की आबादी तीन करोड़ से ज्यादा है, लेकिन उस अनुपात में यहां अखबार नहीं बिकते.

इसका सबसे प्रमुख कारण है, अखबारों का दाम ज्यादा होना. समय-समय पर पाठकों के सुझाव आये, कीमत दो रुपये रखने का. लेकिन न्यूज प्रिंट और अन्य सामग्रियों के बढ़ते भाव से यह संभव नहीं हो सका था. प्रभात खबर प्रबंधन ने महसूस किया कि दाम घटाने से झारखंड का एक बड़ा तबका, जिसकी संख्या लाखों में हो सकती है, अखबार खरीद सकता है, अखबार पढ़ सकता है.

यह हर कोई जानता है कि प्रभात खबर ने झारखंड राज्य के निर्माण और उसके पुनर्निर्माण में अहम भूमिका अदा की है. झारखंड के प्रमुख सवालों पर अभियान चलाया. जब भी झारखंड के विकास की बात उठी, प्रभात खबर ने समझौता नहीं किया. लेकिन अखबार की कीमत के कारण यह आवाज झारखंड के जन-जन तक नहीं पहुंच सकी.

यह सूचना का युग है. जब तक हर व्यक्ति तक सूचना नहीं पहुंचेगी, कोई भी सामाजिक आंदोलन सफल नहीं होगा. प्रभात खबर चाहता है कि झारखंड के लोग जागरूक बनें, उनमें जनचेतना फ़ैले और यह आंदोलन का रूप ले. इसके लिए जरूरी है कि राज्य का हर व्यक्ति अखबार खरीद कर पढ़े. इसी प्रयास से नये झारखंड के उदय का रास्ता खुलेगा, नयी चेतना आयेगी. गांव-गांव, घर-घर अखबार चेतना के वाहक के रूप में फ़ैलेगा-पसरेगा. इस तरह अखबार एक सृजनात्मक आंदोलन को आकार देगा. पाठकों के सहयोग से. पाठकों के बूते. पाठकों की बदौलत.

प्रभात खबर प्रबंधन

Monday, June 14, 2010

राम बाजार जाता है लेकिन राधा रोटी क्यों बनाती है....

हिमानी का ये आलेख क़रीब दो हफ्ते पहले आया था....तब दसवीं और बारहवीं के नतीजों का वक्त था और हिमानी को अपने रिज़ल्ट वाले दिन याद आए होंगे तो उन्होंने लड़कियों से जुड़े कुछ ज़रूरी सवाल बैठक पर भेज दिए....देर से ही सही, ये आलेख अब भी वो सवाल लिए खड़ा है....इसे दस साल पहले भी पढ़ा जा सकता था और दस साल बाद भी शायद ही स्थिति बदले....



मैं साक्षर हूँ लेकिन आजाद नही


अच्छे अंकों की खुशी और आगे बढऩे के सपनों के बीच आ रही है एक सोच । वह

रुढि़वादी सोच जो प्रगति के पथ पर कदम बढ़ा रही लड़की को रोककर कहती है कि यहीं

रुक जाओ या रास्ता बदल लो। एक लड़की हो तुम क्या करोगी ज्यादा पढ़कर,बहुत आगे

बढ़कर। आधुनिकता के आंचल ने काफी हद तक कुरीतियों को ढक दिया है लेकिन कुछ

विचार कुछ जगहों पर आज भी तटस्थ हैं। दसवीं और बारहवीं की परीक्षा के नतीजे आ गए
है। लडकियां हर बार की तरह इस बार भी अव्वल हैं लेकिन वो कितना आगे बढ़ पाएंगी ये आज

२१ वी सदी में भी एक बड़ा सवाल है ..और सिर्फ गाँव कस्बों में नही शहरों में भी

..........................
शिक्षा के स्तर पर बेशक लड़कियां कितना ही अच्छा प्रदर्शन क्यूं न करें, बावजूद

इसके समाज में उन्हें अपना स्थान बनाने के लिए लड़कों जितनी सुविधाएं और साहस

नहीं मिल पाता है। परीक्षा के नतीजे घोषित होने पर बेशक मोहल्ले-पड़ोस में

मिठाई बांटी जाए लेकिन जब बात आगे की पढ़ाई की आती है तो अक्सर जवाब में एक मौन

मिलता है जो अस्वीकृति की सहज अभिव्यक्ति करता है।

शिक्षा व्यवस्था

'राम बाजार जाता है' , 'राधा रोटी बनाती है' .... पहली कक्षा में जब हम शब्द जोड़ कर

वाक्य पढऩा और लिखना शुरू करते हैं तो कुछ इस तरह के ही वाक्य सामने आते हैं।

राम लड़का है तो वह बाजार जायेगा और राधा लड़की है तो वह रोटी ही बनाएगी। बाजार

और रोटी सरीखे ये संकेतसूचक शब्द शिक्षा से मिलने वाली जागरुकता और

आत्मनिर्भरता की पूंजी पर छुपकर कड़ा प्रहार करते हैं। हालांकि कल्पना चावला से

लेकर इंदिरा नूई तक किसी उदाहरण को नकारा नहीं जा सकता लेकिन ये उदाहरण और भी

हों इसके लिए शिक्षा को खानापूर्ति की बजाए संभावनाओं के खजाने के रूप में

ग्रहण करना होगा।

पंख है पर उड़ नहीं सकती हैं वो

10 वीं में चाहे उसने जिला स्तर पर टॉप किया हो या फिर 12वीं में उसके अच्छे

नंबर आए हो लेकिन आगे की पढ़ाई के लिए उसके पास सिर्फ पास कोर्स के ही विकल्प

होते हैं। बीए(पास), बीकॉम(पास) या फिर बहुत हुआ तो बीएससी। घर से दूर अपने

ड्रीम कॉलेज में वह दाखिला नहीं ले सकती क्योंकि कॉलेज घर से काफी दूर है।

इंजीनियरिंग में दाखिला लेकर क्या करोगी, आखिर में तो घर-गृहस्थी ही संभालनी

हैं। 12 वीं के बाद एक लड़की क्या करना चाहती है ये पहले ही तय होता है लेकिन

लड़का जो चाहे वो कर सकता है। बेशक बदलते परिवेश ने काफी हद तक हालातों को बदला

है, लेकिन अब तक ये बदलाव सर्वव्यापी नहीं हो पाया है। गांव-कस्बों से लेकर

शहरों तक आज भी ऐसे चेहरों की कमी नहीं है जिन पर एक तरफ अच्छे अंको की खुशी है

तो दूसरी तरफ माथे पर आगे न बढ़ पाने की शिकन। अगर बरसों पुराना ये परिदृश्य न

होता तो देश को अब तक न जाने कितनी ही कल्पना और इंदिरा मिल गई होती।

न आजादी, न इजाज़त

उच्च शिक्षा के लिए सबसे अहम जरूरत है अच्छे अंक। जहां लड़कियों के लिए उच्च

शिक्षा की बात की जाती है तो एक जरुरत और बढ़ जाती है। वो है इजाज़त। अच्छे अंक

और उच्च शिक्षा में दाखिले की योग्यता पूरी करने के बाद भी लड़कियों को चाहिए

होती है इजाज़त। ये आज्ञा देने में अक्सर सांचों में ठिठके अभिभावक संकोच करते

हैं। लड़कों की तरह अपनी पसंद का कैरियर और जिंदगी चुनने की आजादी उन्हें नहीं

दी जाती है। सभ्यता-संस्कृति और संस्कार के सांचों में ढालकर सामाजिक आधार पर

तो उसे कमजोर बना ही दिया जाता है साथ ही उसका कोई आर्थिक आधार भी नहीं होता

जिससे वह अपनी पृष्ठभूमि तलाश सके..

हिमानी दीवान

Friday, June 11, 2010

प्रकाश झा को अब फिल्म नहीं, 'राजनीति' करनी चाहिए...


अगर एक साथ बी आर चोपड़ा की महाभारत, रामानंद सागर की रामायण, मनमोहन देसाई का मसाला और गॉडफादर की झलक देखनी हो तो ‘राजनीति’ देखनी चाहिए...बस यही है कि निर्देशक प्रकाश झा से तीन घंटे के दौरान कम ही भेंट हो पाएगी...बॉलीवुड के एक दर्जन फॉर्मूले को एक साथ पेश करने में ही प्रकाश झा का टाइम पास हो जाता है और फिल्म खत्म हो जाती है....फिल्म में इतनी गुत्थियां हैं कि आप आंखे फाड़े ‘आगे क्या होगा’ के लिए फिल्म देखते जाते हैं और आखिर में होता कुछ नहीं है, बरसों पुरानी परंपरा के तहत सब हीरो-विलेन इत्यादि गोलियां खा-खाकर अपना रोल खत्म करते जाते हैं....बचपन में मां कभी किसी पुराने स्वेटर को उघाड़ने के लिए कहती थी, तो हम बड़े मज़े से ऊन खींचते जाते थे और स्वेटर उघड़ता रहता था...लेकिन, एक जगह ऊन के धागे उलझते तो खीझ कर उलझन भरा गोला मां के हाथों में थमाकर भाग जाते थे खेलने...यही काम प्रकाश झा ने किया...बड़े मज़े से पूरी फिल्म में परतें उघाड़ते रहे और कहानियां उलझाते रहे, लेकिन आखिरी आधे घंटे में दर्शकों से ज़बरदस्ती सीट खाल करवा दी कि जाईए अब क्या बचा है फिल्म में, सब मर जाएंगे, कुछ नया थोड़े ही होना है...आप हिंदुस्तान में हैं और भारत के महाकाव्य महाभारत का एक हज़ारवां रीमेक देख रहे हैं...हम इससे छेड़छाड़ नहीं कर सकते....

दरअसल, मानने को तो ये फिल्म किसी एक सिरे से पकड़ कर समझी जा सकती है....एक मुख्य कहानी है और कई कहानियां (सब-प्लॉट्स) साथ-साथ चलते रहते हैं...पर, ये निर्भर दर्शक पर करता है कि वो मुख्य कहानी किसे मानता है....मान लें कि मुख्य कहानी एक भाई का दूसरे भाई से अटूट प्यार है और लक्ष्मण अपनी (लोग कहते रहे कि ये महाभारत है, मगर हमने रामायण ढूंढ लिया) भक्ति में सब कुछ कुर्बान कर देता है...इस बीच उसे अपने पिता के हत्यारों से बदला भी लेना है और अमेरिका लौट जाना है...इसके इर्द-गिर्द सारी कहानियां रची गई हैं...जैसे, भाई कोई साधारण लोग नहीं हैं, देश के सबसे प्रभावी राजनैतिक खानदान के चिराग हैं...उनके पास गाड़ी है, बंगला है, प्रॉपर्टी है, बैंक बैलेंस है और मां भी है....बस नहीं है तो कुर्सी....तो इस कुर्सी को पाने के लिए उन्हें अपने ही भाईयों से मुकाबला करना है और फिर भाई-भाई-चचेरा भाई-नाजायज़ भाई एक दूसरे से उलझते रहते हैं और स्टार न्यूज़ पर खबर देख-देखकर दांत पीसते रहते हैं...

फिल्म की शुरूआत में ही इतने सारे रिश्तों से दर्शकों का पाला पड़ता है कि आधा घंटा ये समझने में निकल जाता है कि कौन किसका क्या लगता है....फिर, जब तक ये थोड़ा-बहुत समझ आता है, कहानी का रस मिलना शुरू हो जाता है...फिल्म का बीच का हिस्सा बेहद कसा हुआ है और यही वो हिस्सा है जिसकी वजह से राजनीति देखने वालों की तादाद घटी नहीं है...प्रकाश झा कहानी का शिल्प गढ़ने में कितने उस्ताद हैं, यही हिस्सा साबित करता है...एक के बाद एक कहानी इतनी पलटी मारती है कि देखने वाले की आंखें पर्दे से हटती ही नहीं....एक मंच पर मनोज वाजपेयी मुख्यमंत्री की दावेदारी करने के लिए भीड़ जुटा चुके हैं और अचानक अर्जुन रामपाल और उसका मास्टरमाइंड भाई रणबीर कपूर उसी मंच पर प्रकट होकर सारा खेल उलट देते हैं....ये ग़ज़ब का सीन था, जिसमें रणबीर कपूर की अभिनय क्षमता निखर कर सामने आई है...इस फिल्म की सबसे बड़ी खोज रणबीर ही हैं, जिन्हें प्रकाश झा ने तराश कर हीरा कर दिया है । इस फिल्म के बाद से रणबीर कपूर किसी फिल्म में अकेले हीरो हुए तो भी पैसा लगाने की आप सोच सकते हैं। ये गलती कैटरीना कैफ पर मत कीजिएगा..कतई नहीं। प्रकाश झा जैसे ठेठ बिहारी भी कैटरीना से हिंदी नहीं बोलवा सके तो उसका कुछ नहीं हो सकता...प्रकाश झा ने उन्हें क्यों अपनी फिल्म में लिया, समझ में नहीं आता। अगर खानदान की बहू का राजनीति मे मज़बूती से उभरना सोनिया गांधी से मिलता हुआ दिखाने के लिए किया गया तो उतनी देर के लिए ठीक था। लेकिन, बाक़ी फिल्म सिर्फ इसी एक वजह से उन्हें दी गई, ये तो गलत है। कोई गधी भी उनसे बेहतर एक्टिंग कर सकती थी। इतने बढ़िया डायलॉग रट-रट कर जब कैटरीना बोल रही थीं तो रणबीर तो इंकार हीं करेंगे ना। हमें तो कैटरीना के सीरियस सीन देखकर भयंकर हंसी आ रही थी। यही गलती अर्जुन रामपाल को लेकर भी हुई है....उनकी जगह कोई और होता तो भी फिल्म चलनी ही थी। एक झबरीले बाल वाला फैशनेबल-सा, छिछोरा-सा नेता किस राज्य का मुख्यमंत्री बन सकता है, प्रकाश झा ही जानते होंगे । अच्छे सीन्स भी मार दिये हैं अर्जुन रामपाल ने। जब पार्टी कार्यकर्ता टिकट के लिए अर्जुन रामपाल से संबंध बनाती है तो संबंध बनाने के बाद अर्जुन एक सीरियस डायलॉग बोलते हैं, राजनीति कोई पब्लिक ट्रांसपोर्ट की बस नहीं, जो हर कोई सवार हो जाए….साफ दिखता है कि रट्टा मारकर बोल रहे हैं, मज़ा ही नहीं आता। कुछ ब्लॉग्स पर अर्जुन रामपाल को युधिष्ठिर बताया गया है। भाईयों के क्रम की वजह से ऐसा मानना गुनाह नहीं है, मगर अर्जुन अय्याश भी है और क़ातिल भी, फिर युधिष्ठिर कैसे हो सकते हैं, समझ नहीं आता।
अगर महाभारत से प्रेरणा की बात है, तो सिर्फ कुंती और कर्ण ही मुझे ढूंढने से मिलते हैं। कुंती और कर्ण का एक बोरिंग सीन भी है आखिर में, बिल्कुल ज़बरदस्ती का । सदियों से फिल्मी मां जो करती आई है, वही कुंती भी करती है। अपने बेटे को इमोशनली ब्लैकमेल करने की कोशिश करती है, मगर नाजायज़ बेटा मां..मां...मां....कहने के बजाय पलटकर चला जाता है। ये कर्ण अजय देवगन बने हैं, जो पूरी फिल्म में एंग्री यंग मैन बने फिरे हैं..एक कबड्डी चैंपियन अचानक दलित नेता बन जाता है और फिर बस्ती का भला करने के बजाय अपने ‘पॉलिटिकल गॉडब्रदर’ यानी मनोज वाजपेयी यानी दुर्योधन के तलवे चाटता रहता है। अजय देवगन का गुस्सा फिज़ूल का दिखता है। दलित नेता शोषित है, तो चेहरा हमेशा तना ही रहेगा, ये कोई ज़रूरी थोड़े ही है।

यहीं पर आकर प्रकाश झा फिल्म को क्लासिक होने से बचा लेते हैं। एक मसाला फिल्म की तरह गोलियों से सब एक-दूसरे को निढाल करते रहते हैं और हीरो को कुछ नहीं होता। नाना पाटेकर मामाजी के रोल में एकदम फिट हैं...उन्हें शकुनी छोड़कर कृष्ण मानने का मन तब तक नहीं होता जब आखिर में वो रणबीर यानी महाभारत के हिसाब से अर्जुन को अंग्रेज़ी में गीता का उपदेश देते हैं कि ‘कम ऑन, शूट दुर्योधन’....

इस फिल्म में द्रौपदी भी है, जिसके दो पुरुष हैं...एक रणबीर कपूर जो उसका हो नहीं पाता और दूसरा अर्जुन रामपाल जो रणबीर का बड़ा भाई है। सिंदूर लगाकर कैटरीना भारतीय बनने की पूरी कोशिश करती हैं, मगर मुंह खुलते ही दर्शक गला फाड़कर हंसता है। अचानक अपना पहला प्यार छोड़कर पति परमेश्वर से इमोशनली जुड़ने में कैटरीना को पंद्रह मिनट भी नहीं लगते और बिस्तर पर अर्जुन रामपाल और कैटरीना होते हैं तो दर्शक आवाज़ लगाते हैं- इसे भी मिल गया टिकट...

फिल्म की कहानी में विदेशी लड़की सारा क्यों आती है, मैं अब तक सोच रहा हूं। मुझे लगा कि वो आखिर में विदेशी बहू का मुद्दा बनकर राजनीति को सार्थक करेगी, मगर वो तो पहले ही ढेर हो जाती है। इस फिल्म में भारत का राजनैतिक इतिहास कई बार झांकी दिखाता है, जब बम धमाके में या गोली खाकर देश के बड़े लीडर जान गंवाते हैं। लेकिन, इससे आगे राजनीति में कुछ भी राजनैतिक नहीं है। सब कुछ एकता कपूर के सीरियल की तरह मसालेदार है, जो देखने में तो अच्छा लगता है, मगर प्रकाश झा के निर्देशन में देखना पचता नहीं है। कहीं-कहीं भारी-भरकम शब्दों को डायलॉग का हिस्सा बनाना भी नहीं जंचा, वो भी तब जब कैटरीना जैसी हीरोइन को मुंह खोलना हो। 21वीं सदी की कुंती कर्ण से कहेगी कि तुम मेरे ज्येष्ठ पुत्र हो कर्ण तो कौन कर्ण इस संवाद को सच मानेगा....एकाध मिनट का आइटम सांग प्रकाश झा ने फिल्म में क्यों डाला, पता नहीं। उसका न तो फिल्म की कहानी से कोई लेना-देना था, न गाने के बोल से।

सबसे मज़ेदार है कर्ण यानी अजय देवगन का राज़ खुलना कि वो किसी और की औलाद है। पालने वाली मां ने 30 सालों तक वो लाल कपड़ा साफ-सुथरा, नया—नवेला ही रखा जिसमें उसे बच्चा नदी में मिला था। ये सबूत तो मनमोहन देसाई से भी आगे की सोच निकला।

मनोज वाजपेई का अभिनय ज़बरदस्त है। वो पक्के दुर्योधन लगते हैं, लेकिन उनके सामने पांडव कहीं नहीं हैं। वो सब छोटे दुर्योधन हैं...कोई विधानसभा टिकट देने के नाम पर लड़की को सुला रहा है तो कोई रिमोट से कार उड़ा रहा है। मज़े की बात है कि दर्शक कहीं बोर नहीं होता। उसे वो सब कुछ मिलता है, जो एक फिल्म में वो ढूढता है। तीन-चार बेडसीन, पचास ग्राम आइटम सांग, भयंकर मारपीट और कैटरीना कैफ। ये फिल्म बिना किसी सोच के साथ देखने जाएं तो भरपूर मनोरंजन होगा। नसीरुद्दीन शाह एक सीन के लिए आते हैं और वो निशानी छोड़कर जाते हैं कि पूरी फिल्म बन जाती है। एक खूबसूरत डायलॉग भी उनके हिस्से आया है, जो पूरी फिल्म का सबसे साार्थक डायलॉग है 'भीड़ की तरफ जो भी दो रोटियां फेंकेगा, वो उसी का झंडा उठा लेगी'
प्रकाश झा खुद भी चुनाव लड़ चुके है और हार भी चुके हैं. ज़ाहिर है, राजनीति को रसीला बनाने में उनके खट्टे अनुभव भी काम आए होंगे। मगर, क्या भारतीय राजनीति सचमुच हिंसा और पारिवारिक दुश्मनी के आगे कुछ भी नहीं है। अगर ऐसा है भी तो प्रकाश झा को फिल्मकार की हैसियत से एक ज़िम्मेदारी भरा अंत ढूंढने की कोशिश करनी चाहिए थी, जैसा अंकुर में श्याम बेनेगल करते हैं। इतने उम्दा निर्देशक से इतनी अपेक्षा तो की ही जा सकती है। उनसे तो ये भी अपेक्षा है कि जिस भोपाल में इस फिल्म की शूटिंग हुई है,(पर्दे पर सबसे पहले भोपाल और एमपी की जनता को शुक्रिया करता हुआ संदेश आता है) उसी भोपाल के गैस हादसे पर भी एक फिल्म बनाएं और दर्शकों को बताएं कि कैसे हम गुलामी के बेहद करीब हैं..प्रकाश झा ऐसा कर सकते हैं।

निखिल आनंद गिरि

Wednesday, June 09, 2010

25 सालों से भोपाल जाग रहा है ?

2-3 दिसंबर की रात को जब जहरीली गैस ने पूरे भोपाल को मौत की नींद बांटनी शुरू की होगी, मेरी उम्र के लोग अपनी मां की गोद में छोटी-छोटी आंखे बंद किए निश्चिंत सो रहे होंगे....हमारी मांओं को भी तब सिर्फ अपने बेटों की तरक्की के सपने ही आते होंगे...फिर भी, अब जब 25 साल बाद इस घटना के पन्ने दोबारा देश भर में ज़हर फैला रहे हैं तो हमारा  खून भी खौल उठता है...ये सिर्फ हिंदुस्तान में ही मुमकिन है कि एक कंपनी पूरे शहर को तबाह कर दे और कंपनी का गुनाह तय कर पाने में 25 साल गुज़र जाएं....इस पूरे मामले ने 19 जज देखे, करोड़ों रुपए बर्बाद हुए और फैसला क्या आया.....दो साल की सज़ा वो भी ज़मानत पर रिहाई के साथ.....सज़ा उसको नहीं जिसका दोष जगज़ाहिर था...सज़ा उन छोटी मछलियों को जो उस वक्त सिर्फ अपनी सैलरी लेकर इंक्रीमेंट और प्रोमोशन के लालच में अमेरिकी बॉस की गुलामी करने को मजबूर थे......25 हज़ार मौतों के बाद भी एक एंडरसन भारत नहीं लाया जा सका...अमेरिका की बेशर्मी की हद देखिए कि इस मौके पर जब पत्थर का कलेजा भी पिघल जाता, वो कहता है कि इस फैसले के बाद आगे किसी जांच की गुंजाइश नहीं है और इस मुद्दे पर अब हर तरह से पर्दा गिर जाना चाहिए....अमेरिका इतनी बेहयाई से कह इसीलिए पा रहा है कि हम विदेशियों को सुनने और गुलामी करने के लिए ही बने हैं.....मनमोहन सिंह या फिर सुपर प्राइम मिनिस्टर सोनिया गांधी इस मुद्दे पर कोई सफाई नहीं दे रहे हैं.....वॉरेन एंडरसन 89 साल की उम्र में अमेरिका में मज़े ले रहा है और यहां उसकी लापरवाही की सज़ा भुगत रहे बेगुनाह अपने मुआवाज़े की रकम के लिए दर-दर भटक रहे हैं....मुमकिन है कि उनके मुआवज़े की रकम दलाल खा गए और अपने-अपने बंगले बनवा लिए.....वीरप्पा मोइली कहते हैं अभी एंडरसन का मामला बंद नहीं हुआ है.....वाह जी, अभी तो एंडरसन जी के गए 25 साल ही हुए हैं....कभी न कभी तो भारत आने का मन करेगा उनका....कभी न कभी तो मन होगा कि जवानी की यादें ताज़ा करें....तो जब भारत आएंगे फिर उन पर नए सिरे से सोचा जाएगा....अभी तो भारत की जनता 2 साल की सज़ा से ही खुश रहे..... जिस वक्त भोपाल हादसा हुआ, अर्जुन सिंह मुख्यमंत्री थे....मगर, उन्हें इस घटना की प्रतिक्रिया देने से पहले दस बार राजीव गांधी से मशवरा करना पड़ा.....तब तक मुंह छिपाए फिरते रहे....इस बीच एक काम ये हो गया कि एंडरसन जिसे लोकल पुलिस ने तुरंत गिरफ्तार कर लिया था, रात भर में ही ससम्मान जमानत दे दी गई और वो तभी अपने निजी विमान से अमेरिका उड़ गया...तब भोपाल अपने परिजनों के अंतिम संस्कार में व्यस्त था.....


कानून अंधा होता है, झूठी बात है...कानून देखता है कि फैसला किसके खिलाफ लेना है, ये देखने के बाद अंधा होने का ढोंग करता है.....हमें अफसोस है कि हमने उस पीढ़ी में होश संभाला जब हम पहले ही किसी और देश को बिक चुके हैं.....अभी न्यूक्लियर डील के तहत सिविल लियाबिलिटी बिल आना बाक़ी है...तब देश में कम से कम 18 परमाणु संयंत्र लगने हैं और वो भी रिहाइशी इलाकों में....कहीं एक भी चूक हुई तो पूरा देश ऊर्जारहित हो जाएगा.....मैं तो कहूंगा कि अदालतों के फैसले के कागज़ जांचे जाएं....कहीं ऐसा न हो कि नया खुलासा हो कि भारत की अदालतों के फैसलों पर आखिरी मुहर अमेरिका ही लगाता है....हम अपनी अगली पीढ़ी को एक सच की विरासत देना चाहते हैं....

एक और बात जो आज ही कहीं पढ़ रहा था......भोपाल में फैक्ट्री लगाए जाने के वक्त जब भारत ने अमेरिका से नुकसान के बारे में रिपोर्ट मांगी गई थी तो लिखा आया था कि भोपाल के उस इलाके में फैक्ट्री लगाना उतना ही नुकसानरहित है जितना चॉकलेट की फैक्ट्री लगाना....इस अमेरिका का झूठ तो हम तब से बर्दाश्त करते आ रहे हैं...और ये सब सरकारें करती आई हैं.....बीजेपी ने ही अपनी सत्ता के सात साल में क्या उखाड़ लिया....और हमारे इस लेख से भी क्या हो जाएगा....हम तो आज भी चैन की नींद सो ही लेंगे, भोपाल की आंखों में 25 सालों से नींद नहीं है....वो जाग रहा है क्योंकि उसकी पहचान पर अमेरिका के कुछ दलालों ने गैस की कालिख पोत दी है.....

शर्म...शर्म...शर्म.....
 
निखिल आनंद गिरि

Sunday, June 06, 2010

तपती जमीन, तपते सवाल

पर्यावरण दिवस(5 जून) पर लेखों को ढूंढने के क्रम में पुण्यप्रसून वाजपेयी के ब्लॉग पर नज़र पड़ी...ज़ी न्यूज़ में प्राइम टाइम एंकर पुण्यप्रसून वाजपेयी की शैली में ख़बरें सुनना-देखना अलग अनुभव है। आधे घंटे का शो हो या घंटे भर का, उनकी अनूठी प्रस्तुति में समय कट जाता है.... मगर, ब्लॉग पर उनके लेखों की लंबाई ज़रा उबाऊ हो जाती है...ये लेख उबाऊ नहीं लगा क्योंकि मुद्दा बेहद ज़रूरी है...दिल्ली जैसे शहरों की आधुनिक आदतों का असर पहाड़ों में बसे कुदरती इलाकों पर दिखने लगा है...ये चिंता करने की फुर्सत तक किसके पास है?

पेड़ों को रखे आस-पास, तभी रहेगी मानसून की आस।

दिल्ली से रानीखेत की तरफ जाते पहाड़ के गांवों की दीवार पर लिखी इन पंक्तियों ने कई बार ध्यान खींचा। हर बार जेहन में यही सवाल उठा कि जो इलाके पेड़-जंगलों से घिरे हैं, जहां पहाड़ों की पूरी कतार है। वहां इन पंक्तियो के लिखे होने का मतलब कहीं भविष्य के संकट के एहसास के होने का तो नहीं है। क्योंकि समूचा उत्तर भारत जब लू के थपेड़ों से जूझता है, तब राहत के लिये उत्तराखंड के पहाड़ी इलाके ही एसी का काम करते हैं। पहाड़ पर मई-जून में भी मौसम गुलाबी ठंड सरीखा होता है, तो इसे महसूस करने बडी तादाद में लोगों का हुजुम वहां पहुंचता है। यही हुजुम पहाड़ की अर्थव्यवस्था को रोजगार में ढाल कर बिना नरेगा भी न्यूनतम जरुरत पूरा करने में समाजवादी भूमिका निभाता है। सामान ढोने से लेकर जंगली फलों को बेचने और होटलों में सेवा देने वालों से लेकर जंगलों में रास्ता दिखाने वालो की बन पडती है। सिलाई-कढाई से लेकर जंगली लकड़ी पर नक्कशी तक का हर वह हुनर जो महिलाओ के श्रम के साथ जुडता है, वह भी बाजारों में खूब बिकता है, और गरमियो का मौसम पहाड़ के लिये सुकुन और रोजगारपरक होकर कुछ यूं आता है कि पहाड़ का मुश्किल जीवन भी जमीन से जुड़ सा जाता है और अक्सर पहाड़ के लोग यही महसूस करते है कि जमीन पर आय चाहे ज्यादा है लेकिन सुकुन पहाड़ पर ज्यादा है। क्योंकि सुकुन की कीमत चुकाने में ही पहाड़ की रोजी रोटी मजे से चल जाती है।

लेकिन जमीन पर अगर आय असमान तरीके से बढ़े और सिर्फ एक तबके की बढ़े तो खतरा कितना बड़ा है, इसका एहसास जमीन पर रहते हुये चाहे थ्योरी के लिहाज से यही समझ में आता है कि देश के 10 से 15 करोड़ लोग अगर महीने में लाख रुपये से ज्यादा उड़ा देते हैं तो देश के 70 से 80 करोड़ लोगों की सालाना आय दस हजार रुपये भी नहीं है। करोड़ों परिवार के लिये एक रुपये का सिक्का भी जरुरत है और देश के पांच फीसदी लोगों के लिये दस-बीस रुपये का नोट भी चलन से बाहर हो चुका है। दिल्ली के किसी मंदिर पर भिखारी को एक रुपया देना अपनी फजीहत कराना है, पहाड पर एक रुपया किसी भी गरीब के पेट को राहत देने वाला है। लेकिन प्रैक्टिकल तौर पर पहाड़ में इसकी समझ पहली बार यही समझ में आयी कि जिस एक छोटे से तबके के लिये दस-बीस रुपये मायने नही रखते, वही छोटा सा तबका अपनी सुविधा के लिये जिस तरह जमीन पर सबकुछ हड़पने को आमादा है वैसे ही पहाड़ पर भी अपने सुकून के लिये वह सबकुछ हड़पने को तैयार हो चुका है और जो गर्मियां पहाड़ के लिये जीवनदायनी का काम करती हैं, चंद बरस में वही गरमी पहाड़ को भी गरम कर देगी और फिर पहाड़ का जीवन भी जमीन सरीखा हो जायेगा।

इसकी पहली आहट सबसे गर्म साल के उस दिन {18 मई 2010 } मुझे महसूस हुई जब दिल्ली का तापमान सौ बरस का रिकार्ड पार कर रहा था और कमोवेश हर न्यूज चैनल से लेकर हर अखबार पर भेजा-फ्राई शब्द के साथ गर्मी-लू की रिकार्ड जानकारी दी जा रही थी। इस दिन रानीखेत की सड़कों पर भी कर्फ्यू सरीखा माहौल था। तापमान 33 डिग्री पार कर चुका था। पेड़ों की पत्तियां भी खामोश थीं। चीड़-देवदार के पेड़ों की छांव भी उमस से जुझ रही थी । बाजार खाली थे। सालों साल स्वेटर बेच कर जीवन चलाने वालो की दुकानों पर ताले पड़े थे। कपडे पर महीन कारीगरी कर कुरते बना कर बेचने वाली महिलायें के जड़े-बूटे देखने वाला कोई नही था। और तो और दुनिया के सबसे बेहतरीन गोल्फ कोर्स में से एक रानीखेत का गोल्फ कोर्स शाम सात बजे तक भी सूनसान पड़ा था। और यह सब इसलिये कहीं ज्यादा महसूस हुआ क्योंकि रानीखेत अभी भी खुद को रानीखेत ही मानता है, जहां गर्मियों में होने का मतलब है खुशनुमा धूप। ठंडी बयार। गुलाबी शाम । और इन सब के बीच घरो में कही कोई पंखा नहीं। घर ही नहीं होटल और सराय में भी पंखों की कोई जगह नहीं। वहां की छतें आज भी खाली ही रहती हैं। छतों की दीवारो की ऊंचाई जरुर आठ फीट से बठकर दस फीट तक पहुंची है। लेकिन कोई इस शहर में मानता ही नहीं कि प्रकृतिक हवा कभी तकनीकी हवा के सामने कमजोर पड़ेंगी या मशीनी हवा पर शहर को टिकना पडेगा।

लेकिन पहली बार बीच मई के महिने में अगर रानीखेत ने गर्मियो के आगे घुटने टेके और पहली बार यहां के बहुसंख्य लोगों की आय डगमगाती नजर आयी तो चिंता की लकीर माथे पर उभरी कि रानीखेत का मौसम अगर इसी तरह हो गया तो उनका जीवन कैसे चलेगा। पहली बार इसी रानीखेत में यह भी नजर आया कि जमीन पर अपनी सुविधा के लिये मौसम बिगाड़ चुका देश का छोटा सा समूह, जो सबसे ताकतवर है,प्रभावी है, किसी भी बहुसंख्यक समाज पर भारी पडता है, अब पहाड़ को भी अपनी हद में लेने पर आमादा है। कॉरपोरेट सेक्टर के घनाड्य ही नही बल्कि सत्ता की राजनीति करने वाले सत्ता-धारियों और विपक्ष की राजनीति करने वालो की पूरी फौज ही पहाड़ों को खरीद रही है। सिर्फ रानीखेत में ही तीन हजार से ज्यादा छोटे बडे कॉटेज हैं जिन पर मालिकाना हक और किसी की नहीं बल्कि उसी समूह का है, जो ग्लोबल वार्मिग को लेकर सबसे ज्यादा हल्ला करता है। पहाड़ पर नाजायज तरीके से जमीन खरीद कर अपने लिये सुविधाओं को कैद में रखने वालो में रिटायर्ड भ्रष्ट नौकरशाहों से शुरु हुआ यह सिलसिला अब के प्रभावी नौकरशाहों, राजनीतिज्ञों और बिचौलियों की भूमिका निभाकर करोड़ों बनाने वाले से होते हुये तमाम कारपोरेट सेक्टर के प्रभावी लोगो तक जा पहुंचा है। बाहर का व्यक्ति पहाड़ पर सिर्फ सवा नाल जमीन ही खरीद सकता है। जिसकी कीमत तीन साल में दस गुना बढकर 20-25 लाख रुपये हो चुकी है। लेकिन यहां रईसों के औसतन काटेज की जमीन पांच से आठ नाल तक की है। यानी जमीन ही करोड़ों की। चूंकि प्रकृति के बीच में काटेज के इर्द-गिर्द प्रकृतिक जंगल बनाने को ही पूंजी लुटाने का असल हुनर माना जाता है तो कॉटेज की इर्द-गिर्द जमीन पर प्रकृति का जितना दोहन होता है, उसका असर यही हुआ है कि रानीखेत में बीते पांच साल में जितना क्रंकीट निर्माण के लिये पहुंचा है, उतना आजादी के बाद के पचपन सालों में नहीं पहुंचा। इन कॉटेजो के चारों तरफ औसतन 75 से लेकर 160 पेड़ तक काटे गये। और कॉटेज जंगल और हरियाली के बीच दिखायी दे, इसके लिये औसतन 15 से 25 पेड़ तक लगाये गये । अगर इसी अनुपात में सिर्फ रानीकेत को ही देखे तो करीब दस लाख पेड काटकर पैंतालिस हजार पेड लगाये गये। लेकिन पहाड़ों को रईस तबका जिस तेजी से हड़पना चाह रहा है, उसका नया असर पेड़ों का काटने से ज्यादा आसान पूरे जंगल में आग लगाकर पेड खत्म करने पर आ टिका है। खासकर चीड के पेड़ों से निकलने वाले तेल को निकाल कर पेडो को खोखला बनाकर आग लगाने का ठेका समूचे कुमायूं में जिस तेजी से फैला है, उसका असर यही हुआ है कि बीते तीन साल में छोटे-बडे सवा सौ पहाड़ बिक चुके हैं और पहाड़ों को पेड़ों से मुक्त करने के ठेके से लेकर पहाड़ों के अंदर आने वाले सैकड़ों परिवारों को जमीन बेचने के लिये मनाने के ठेके को सबसे मुनाफे का सौदा अब माना जाने लगा है। रईसो के निजी कॉटेज से शुरु हुआ सिलसिला अब पहाड़ों के बीच काटेज बनाकर बेचने के सिलसिले तक जा पहुंचा है।

बिल्डरो की जो फौज जमीन पर घरों का सपना दिखाकर मध्यम तबके के जीवन में खटास ला चुकी है, अब वह भी पहाड़ों पर शिरकत कर रइसों के सपनों को हर कीमत पर हकीकत का जामा पहनाने में जुटा है। और पहाड़ के समाज को तहस-नहस करने पर आ तुला है। जिस तरह सेज के लिये जमीन हथियाने का सिलसिला जमीन पर देखने में या और सैकड़ों सेज परियोजना को लाइसेंस मिलता चला गया, कुछ इसी तर्ज पर पहाड़ों पर बिल्डरों की योजनाओं को मान्यता मिलने लगी है। और पहाड़ी लोगों को मनमाफिक कीमत दी जा रही है, लेकिन इस मनमाफिक रकम की उम्र किसानी और जमीन मालिक होने का हक खत्म कर मजदूर में तब्दील करती जा रही है। सैकड़ों कॉटेज की रखवाली अब वही पहाड़ी परिवार बतौर नौकर कर रहे हैं, जिस जमीन के कभी वो मालिक होते थे । रानीखेत से 40 किलोमीटर दूर भीमताल के करीब एक बिल्डर ने अगर समूचा पहाड़ खरीद कर सवा-सवा करोड के करीब पचास कॉटेज बेचने का सपना पैदा किया है तो अल्मोडा के करीब एक बिल्डर का सपना हेलीकाप्टर से काटेज तक पहुंचाने का है। यानी जहां सड़क न पहुंच सके, उस इलाके के एक पहाड को खरीद कर अपने तरीके से कॉटेज बना कर सवा दो करोड में एक कॉटेज बेचने का सपना भी यहीं बसाया जा रहा है। लेकिन वर्तमान का सच रइसों की सुविधा तले कितने खतरनाक तरीके से पहाड़ों के साथ जीवन को भी खत्म कर रहा है, यह पहाड़ पर कब्जे और काटेज की सुविधा को साल में एक बार भोगने से समझा जा सकता है, जहां कॉटेज का मतलब है दो से तीन लोगों के रोजगार का आसरा बनना और औसतन 25 से 50 लोगों का रोजगार छीनना।

पहाड़ के रईसों के इस जीवन का नया सच यह भी है कि इन काटेज में पंखे भी है और एसी भी। यानी पहाड़ पर जमीन सरीखा जीवन जीने की इस अद्भभुत लालसा का आखिरी सच यह भी है कि पहाड का सुकुन अगर जमीन पर ना मिले तो भी पहाड पर जमीन सरीखा जीवन जीने में हर्ज क्या है। लेकिन संकट पहाड़ को भी जमीन में तब्दील करने पर आ टिका है जो मौत के एक नये सिलसिले को शुरु कर रहा है। क्योंकि पहाड़ पर गर्मी का मतलब जमीन पर आकर रोजगार तलाशना भर नहीं है बल्कि पारंपरिक जीवन खत्म होने पर मरना भी है। पहाड़ पर औसतन जीने की जो उम्र अस्सी पार रहती थी अब वह घटकर सत्तर पर आ टिकी है और बीते साल साठ पार में मरने वाले पहाड़ियों में 18 फीसदी का इजाफा हुआ है। इन परिस्थितियों में आर्थिक सुधार की थ्योरी नयी पीढियों के जरीये अब बुजुर्ग पहाड़ियों की सोच पर आन पड़ी है, जहा पहाड़ी भी मानने लगा है कि सबकुछ खरीदना और मुनाफा बनाना ही महत्वपूर्ण है। त्रासदी यह भी है कि पहाड़ों पर अब जिक्र वाकई दो ही स्लोगन का होता है। पहला , जब सोनिया गांधी कौसानी में अपना काटेज बना सकती है, तो दूसरे क्यों नहीं। और जब सरकार पेड़ काट कर विकास का सवाल उठा सकती है तो जंगल जला कर दुसरे क्यों नहीं। लेकिन पहाड़ों पर बारह महीने सालो साल रहने वाले अब एक ही स्लोगन लिखते है, पेडो को रखे आस-पास,तो ही रहेगी मानसून की आस।

पुण्य प्रसून वाजपेयी

(साभार)

Saturday, June 05, 2010

तलाश एक सच्चे राजनैतिक दल की

राष्‍ट्र की मुख्‍य भूमिका वाली कांग्रेस सरकार ने अपनी दूसरी पारी की प्रथम वर्षगाँठ मनाई। इस प्रकार डॉ0 मनमोहन सिंह जी लगातार प्रधानमंत्री पद पर सातवें वर्ष में प्रवेश कर पिछले 25 वर्षों में इस पद पर सबसे लम्‍बे समय तक रहने वाले प्रथम प्रधानमंत्री बन गये। जो व्‍यक्‍ति कांग्रेस में नेहरू गाँधी परिवार में पैदा न हुआ हो और उक्‍त पार्टी की मुख्‍य भूमिका के द्वारा इतने लम्‍बे समय तक देश के प्रधानमंत्री पद का निर्वाह किया हो, यह उसके लिए बहुत बड़ी उपलब्‍धि है। यदि हम यूपीए भाग-2 के प्रथम वर्ष का सिंहावलोकन करें तो पाएँगे 207 सांसदों के साथ कांग्रेस पार्टी के सत्‍ता संभालने के बावजूद यह गठबंधन लंगड़ा का लंगड़ा ही रहा। आत्‍मविश्‍वास से कमजोर यह सरकार संसद के हर सत्र में किसी न किसी विषय पर फंस जाती रही। सामाजिक क्षेत्र में सिर्फ गरीबी उन्‍मूलन के लिए सरकार का खर्च 1 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो गया। परन्‍तु नतीजों का कुछ अता-पता नहीं। खाद्यान्‍न सुरक्षा विधेयक भी लगभग पिछले 9 महीनों से राजनैतिक झंझावात में उलझा हुआ है, देश की 70 प्रतिशत आबादी की आजीविका अभी भी कृषि आधारित है। जिसके कारण देश में बहुत बड़ी आर्थिक असमानता है। लगभग 200 जिलों में नक्‍सलवाद इसी का नतीजा है। अफजल गुरू जैसे कुख्‍यात आतंकी को सहेज कर रख मुस्‍लिम तुष्‍टिीकरण का विभत्‍स स्‍वरूप दिखाया है, इस सरकार ने। इसके अतिरिक्‍त जलवायु परिवर्तन, बी. टी. बैगन से लेकर माओवादियों से निपटने के तरीके पर आपस में एक दूसरे की टाँग खिंचाई की गई। फिर भी मनमोहन सिंह जी के पास उन्‍हें झेलने के अलावा दूसरा रास्‍ता नहीं था। क्‍योंकि छाया ग्रह की तरह कार्य करने वाले प्रधानमंत्री डॉ0 मनमोहन सिंह जी के हाथ एक निश्‍चित सीमा तक ही खुले हैं। यदि हम यूपीए द्वितीय भाग का आकलन करें तो पायेंगे इस पंचवर्षीय में उनका लक्ष्‍य मुख्‍य रूप से उत्तर प्रदेश रहने वाला है। कांग्रेस सुप्रीमो के गृह प्रदेश तथा देश की सबसे ज्‍यादा लोकसभा सीटों वाला प्रदेश होने के कारण वे उत्तर प्रदेश में अपना जनाधार बढ़ाना चाहते हैं। परन्‍तु जिस प्रकार टोटकों के सहारे युवराज राहुल गाँधी अपना कद बढ़ाना चाहते हैं, असम्‍भव सा दिखता है। दलितों के घर भोजन कर, उनके बच्‍चों को पुचकारना, उनके यहाँ रात व्‍यतीत करना सिर्फ उनके द्वारा समर्थन हासिल करने का हल्‍का प्रयास मात्र है।
राहुल गाँधी की स्‍पष्‍टवादिता या आदर्शवादिता के चर्चे प्रायः पढ़ने को मिलते हैं। समाज का सामान्‍य वर्ग अन्‍जाने में उनका मौखिक प्रचार माध्‍यम बनता जा रहा है। उक्‍त राजकुमार की छोटी-छोटी राजनैतिक स्‍पष्‍टवादिता समाज का भावनात्‍मक शोषण करती है। वे इतने ही आदर्शवादी हैं तो बताएँ आज देश विभिन्‍न ज्‍वलंत समस्‍याओं से गुजर रहा है आतंकवाद, मंहगाई सरीखे विषय मनुष्‍य को सशरीर निगल जाने पर आमादा हैं। देश का शायद ही कोई भाग हो जहाँ अमन-चैन कायम हो। परन्‍तु जिस प्रकार कहा जाता है, रोम जल रहा था और नीरो उक्‍त तबाही से बेपरवाह बाँसुरी बजा रहा था। ठीक उसी प्रकार सम्‍पूर्ण भारतवर्ष उन्‍हीं की सत्‍ता रहते हुए बड़े नाजुक दौर से गुजर रहा है। परन्‍तु उक्‍त युवराज सभी समस्‍याओं को नजरंदाज कर अपने हल्‍के राजनैतिक हथकंडे अपनाने पर आमादा है।
राष्‍ट्रीय राजनीति, समर का युद्ध क्षेत्र हमेशा से उत्‍तर प्रदेश रहा है। चूँकि यहाँ 80 लोकसभा सीटें हैं अतः राष्‍ट्रीय राजनीति के योद्धा इस क्षेत्र में अपनी-अपनी पूरी ऊर्जा लगाते हैं। वर्तमान में कांग्रेस तथा भाजपा दो ऐसी राजनैतिक ताकतें हैं जो उत्‍तर प्रदेश में अपनी जोर आजमाइश का पूरा मन बनाए हुए हैं। जिसमें एक की केन्‍द में सरकार तथा दूसरा मुख्‍य विपक्षी दल की भूमिका में है। जनाधार के हिसाब से भी दोनों की स्‍थितियाँ लगभग प्रदेश में समान हैं। कांग्रेस के युवराज राहुल गाँधी अपने समय का अधिक भाग उत्‍तर प्रदेश में देते हैं तो वहीं उनकी बड़ी बहन प्रियंका सहित उनकी माँ सोनिया गाँधी भी उत्‍तर प्रदेश में अपना दखल बनाए हुए हैं। केन्‍द्र की योजनाओं के दुरुपयोग रोकने के बहाने प्रदेश सरकार पर दबाव बनाने की रणनीति उनकी राजनैतिक योजना का हिस्‍सा है। कांग्रेस किसी भी सूरत में उत्‍तर प्रदेश में अपना आधार बढ़ाने पर आमादा है। वहीं राष्‍ट्रीय राजनीति का दूसरा महत्‍वपूर्ण किरदार भारतीय जनता पार्टी भी उत्‍तर प्रदेश में अपना जनाधार बढ़ाना चाहती है। इसी लिए इस प्रदेश के सभी निर्णय भाजपा राष्‍ट्रीय नेतृत्‍व बड़ी सूझ-बूझ से कर रहा है। उक्‍त पार्टी के शीर्ष राजनेताओं ने नेहरू - गांधी परिवार के सामने प्रदेश अध्‍यक्ष के रूप में सूर्य प्रताप शाही जी को लाये हैं। श्री शाही जी अपने निर्णायक व्‍यक्‍तित्‍व के रूप में जाने जाते हैं। वाह्य, आंतरिक व्‍यक्‍तित्‍व तथा विश्‍वास से लबरेज प्रदेश अध्‍यक्ष बनने के बाद वे सड़क मार्ग से पश्‍चिमी उत्‍तर प्रदेश से दौरा कर लखनऊ पहुँचे रास्‍ते भर उनका अभूतपूर्व स्‍वागत उनकी लोकप्रियता एवं समाज में उनकी विश्‍वसनीयता दर्शाता है। उत्‍तर प्रदेश इकाई के वे पहले अध्‍यक्ष हैं जिनकी दूसरी पीढ़ी भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश प्रमुख का दायित्‍व निभा रही है। इसके पहले इनके चाचा श्री रवीन्‍द्र किशोर शाही जनसंघ (वर्तमान भाजपा) के उत्‍तर प्रदेश के अध्‍यक्ष रह चुके हैं। अब तक श्री शाही जी की राजनैतिक यात्रा विद्यार्थी परिषद से लेकर वर्तमान भाजपा तक बिना किसी समझौते के पूरी हुई है। एक साफ-सुथरी एवं संघर्षशील छवि के सहारे वे प्रदेश भाजपा के सारथी के तौर पर 15वीं लोकसभा के सेमी फाइनल उत्‍तर प्रदेश विधान सभा चुनाव 2012 के लिए तैयार है। वहीं कांग्रेस पार्टी की मुखिया सोनिया गांधी सपरिवार उत्‍तर प्रदेश में अपना दखल बनाए हुए हैं। इस प्रदेश की मुख्‍यमंत्री मायावती जिसने प्रथम बार अपने बूते सरकार बनाई वे तथा यहां के पूर्व मुख्‍यमंत्री मुलायम सिंह यादव दोनों अपने जातिवादी समीकरणों के साथ हाजिर हैं। केन्‍द्र की कांग्रेस पार्टी को 13वीं लोकसभा चुनाव की तुलना में 14वीं लोकसभा में लगभग 2 प्रतिशत वोट बढ़कर मिला, जिसके कारण उन्‍हें सीधे 61 सीटों का फायदा हुआ तथा जातीय राजनीति के आधार पर मलाई खानेवाले मुलायम सिंह, लालू प्रसाद तथा मायावती सरीखे राजनेताओं को भारी नुकसान झेलना पड़ा। बिहार में जिस मुस्‍लिम यादव समीकरण के सहारे लालू प्रसाद यादव पिछले दो दशकों से बिहार पर निष्‍कंटक राज किये हुए थे नितिश कुमार के विकास के जादू के आगे उक्‍त जातीय गठबंधन टूटा। बिहार के लोगों ने पहली बार अपने यहां विकास देखा, तो वे इतने खुश हुए कि उन्‍होंने विधानसभा तथा लोकसभा चुनाव के सीमित अंतराल में ही नितिश कुमार को विकास पुरुष का दर्जा दे डाला। इसी प्रकार तामिलनाडु में भी जाति आधारित राजनैतिक दलों में उदासीनता देखने को मिली। पिछले 15 वर्षों से वन्‍नियार समुदाय की राजनीति करने वाले दल पररलि मक्‍कल काच्‍चि (पीएमके) का सभी 7 सीटों पर सफाया हो गया।
देश की जनता जाति आधारित राजनीति से आजिज आ चुकी है। क्षेत्रीय दलों ने पूरे देश का सत्‍यानाश कर रखा है। उन्‍हें तलाश है उस नेतृत्‍व की जो उन्‍हें तथा उनके बच्‍चों को उचित शिक्षा, साधन तथा सुरक्षा उपलब्‍ध करा सके। वर्ष 2009 की चौदहवीं लोकसभा चुनाव में जिसकी एक झलक देखने को मिली। बड़ी-बड़ी क्षेत्रीय जातिवादी राजनैतिक ताकतें धूलधूसरित हो गईं। जातिवाद के आधार पर बने राजनैतिक तिलस्‍म चटक कर बिखर गये। जहां राष्‍ट्रीय राजनीति का महत्‍वपूर्ण राजनैतिक दल भारतीय जनता पार्टी को लगभग 3.5 प्रतिशत मतों का नुकसान अपनी कुछ गलतियों की वजह से उठाना पड़ा वहीं केंद्र में काबिज कांग्रस पार्टी विभिन्‍न राष्‍ट्रीय समस्‍याओं जैसे बेरोजगारी, आतंकवाद तथा मंहगाई पर बुरी तरह फेल हुई तथा नरेगा, ग्राम विद्युतीकरण योजना सरीखी विकासवादी योजनाओं के सहारे केन्‍द्रीय सत्‍ता पर काबिज हो गई। आज देश की जनता समझ चुकी है कि किस प्रकार मुलायम, लालू तथा मायावती सरीखे राजनेता अपनी जातिवादी समीकरण तथा राजनीति के तहत उनका लाभ सत्‍ता में आने के लिए किया तथा उसके बाद उन्‍हें निरीह छोड़ सत्‍तासुख का मदिरापान करने में व्‍यस्‍त हो गये। आज तलाश है देश की जनता को ऐसे राजनैतिक दल की जो उन्‍हें विकास की किरण तथा देश को सही मार्ग पर ला सके।

*राघवेन्द्र सिंह

Thursday, June 03, 2010

क्या इस देश में कोई वकील बनना चाहता है?

देश में करियर बनाने के विकल्पों पर बात हो तो शायद ही कोई युवा होगा जो ये कहेगा कि हमें तो वकील बनना है। ऐसी हालत तब है जब देश में कम से कम 900 विधि (यानी लॉ) कॉलेज हैं और 14 उच्चस्तरीय केंद्रीय विधि संस्थान हैं। अगर कुछ साल पहले (दस साल) तक की बात करें तो लॉ कॉलेजों का ये आंकड़ा देश में मौजूद कुल इंजीनियरिंग या मेडिकल कॉलेजों की संख्या पर भी बीस पड़ता था...(इन दो विभागों से तुलना इसीलिए क्योंकि देश में कैरियर के तौर पर इन्हीं दो विकल्पों को रामबाण माना जाता रहा है)। विडंबना ये है कि आज इंजीनियरिंग के पेशे में उम्र में बित्ते भर के छोकरे लाखों-करोड़ों में खेल रहे हैं और वकीलों की हालत ऐसी है कि ज़्यादातर दोधारी पतलून पहनकर दस-बीस रुपये की दिहाड़ी का जुगाड़ ढूंढते उम्र गुज़ार देते हैं ! ऐसा नहीं है कि देश में लॉ कॉलेज से निकलने वाले छात्रों को चमचमाता भविष्य नसीब ही नहीं होता, मगर उनकी संख्या बेहद कम है। ज़रा सोचिए, जिस देश में करोड़ों मामले तारीख के इंतज़ार में बरसों फाइलों में दबे रहते हैं, वहां इतने लॉ कॉलेज होने के बावजूद ऐसी दुर्दशा क्यों है ? अमूमन हर छोटे-बडे विश्वविद्यालय में विधिशास्त्र का अलग विभाग होता ही है। मगर, उन विभागों की दुर्दशा प्राइमरी स्कूलों से भी बदतर होती है। ऐसे में कल्पना भी नहीं की जा सकती कि उन संस्थानों से वकालत की डिग्री लेकर निकले विधि विशेषज्ञ ऐसी समझ रखते हों कि देश की सबसे विश्वसनीय संस्था न्यायपालिका को दुरुस्त बनाए रखने में अहम योगदान दे सकें।
दरअसल, हाल ही में विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने दिल्ली में आयोजित एक सेमिनार में इन्हीं सब मुद्दों पर चिंता ज़ाहिर करते हुए कहा कि विधि की शिक्षा में हर इलाके के लोगों को समान अवसर नहीं मिले तो सिर्फ वरिष्ठ जजों या अधिकारियों के बेटे ही जज की कुर्सी तक पहुंच पाएंगे। इस सम्मेलन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह भी उपस्थित थे और उन्होंने भी माना कि देश में विधि शिक्षा दोहरे तरीके से चल रही है और छोटे शहर-बड़े शहर, छोटे-संस्थानों-बड़े संस्थानों का फर्क वकीलों के स्तर पर साफ दिखाई देता है। उन्होंने कहा कि 50 साल पहले पूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि हमारे देश में विधि शिक्षा का स्तर दुनिया के मंच पर कहीं भी नहीं ठहरता और इसमें सुधार की ज़रूरत है। पचास साल बाद भी हालात और बदतर ही हुए हैं। ऐसे में प्रधानमंत्री या संबंधित मंत्री सिर्फ चिंता ज़ाहिर कर क्या बदलाव ला देंगे। आपके पास शक्तियां हैं, सोच है, लोग हैं, फिर आपको विधि शिक्षा की अहमियत क्यों नहीं समझ आती ? बहुतायत में पाए जाने वाले फटीचर वकीलों के लिए सिर्फ और सिर्फ सरकारें ज़िम्मेदार रही हैं।
मोइली कहते हैं कि देश भर में लॉ की पढ़ाई एक जैसी करने की कोशिश की जाएगी। एक राष्ट्रीय डाटाबेस तैयार किया जाएगा जिसमें देश भर के वकीलों और विधि से जुड़े छात्रों का ब्योरा होगा।
फिर, इसमें से प्रतिभावान लोगों की पहचान की जाएगी। क्या ऐसा संभव है ? और पहचान हो भी गई तो क्या करेंगे। देश में न्यायपालिका की जो वर्तमान स्थिति है उस पर गौर करें तो शायद ही कोई बड़ी अदालत हो जहां मामलों की सुनवाई क्षेत्रीय भाषाओं या फिर हिंदी में की जाती है। सुनवाई हो भी जाए तो पेचीदा कानूनी धाराएं और मामलों से जुड़ी कागज़ी कार्रवाई शत-प्रतिशत अंग्रेज़ी में होती है। अब देश की हालत देखें तो ठीक से अंग्रेज़ी बोलने-समझने वाले कितने लोग हैं ? जिन धाराओं में मुजरिम को सज़ा मिलती है, जिन अनुच्छेदों के तहत सुनवाई पूरी होती है, वो इतनी पेचीदा होती हैं कि गुनाह की सज़ा भुगतने वाले तक को पता नहीं होता कि न्यायपालिका की कार्रवाई किस दिशा में गई और उसे सज़ा किस-किस आधार पर मिली। हमारी न्यायिक शब्दावली किसी भी देशी भाषा से मेल नहीं खाती मगर देश के कई लॉ संस्थानों में पढ़ाई का माध्यम अब भी अंग्रेज़ी से अलग भाषाएं ही हैं। अब ऐसी पढाई कर निकलने वाला वकील न्यायिक पेंचों को कंठस्थ करने के बावजूद पहले ही ‘’हीन भावना’’ से ग्रसित हो जाता है क्योंकि उसे अंग्रेज़ी नहीं आती ! ऐसे में उसका जज बनने का सपना सपना ही रह जाता है और बहुतेरे वकीलों की जमात में चंद ‘’ साफ-सुथरे’’ वकील ही जज बनने का सपना देख पाते हैं।(और उनमें से गिनती भर ही, जो या तो वकालत की आबोहवा में पले-बढ़े हैं या फिर किसी न्यायिक पदधारी की संतान हैं, इस कुर्सी तक पहुंच पाते हैं।)
क्या भारत देश में कई होनहार जज सिर्फ इसी आधार पर नहीं बन पाएं कि उन्हें अंग्रेज़ी नहीं आती, कहीं से भी उचित है ?
देश में विधि शिक्षा में एक जैसी प्रणाली लागू करने की बात कहना आसान है, कर पाना लगभग नामुमकिन। लॉ की पढ़ाई की स्थिति देश में एक ही ट्रेन के अलग-अलग श्रेणी के डिब्बों जैसी है। पहली श्रेणी के डिब्बों में बैंगगलोर, पुणे के बेहतरीन लॉ स्कूल आते हैं जिनके उत्पाद संस्थान से बाहर निकलते ही अक्सर देश से बाहर निकल जाते हैं और फिर किसी लॉ फर्म या विदेशी कंपनी के विधि विशेषज्ञ बन डॉलर कमाते हैं। दूसरी श्रेणी और तीसरी श्रेणी के स्कूलों से निकले वकील अलग-अलग अदीलतों में जज बनने की दौड़ में घिसते रहते हैं और देश में हर रोज़ मामलों का अंबार बढ़ता जाता है। मतलब, देश के सबसे अच्छे वकील देश की हालत सुधारने के काम बिल्कुल भी नहीं आ सके और व्यवस्था पंगु ही रह गई। दोयम दर्जे के लॉ स्कूलों में बड़ी तादाद उन छात्रों की होती है, जो या तो 60 साल की नौकरी के बाद रिटायर हो चुके होते हैं या फिर जिनके पास युवा उम्र में ही बेरोज़गारी के मुहाने पर पहुंचकर वकालत करने के सिवा कोई चारा नहीं बचता !
क्या विधि यानी लॉ के कैरियर को बाक़ी चमकदार विकल्पों के साथ खड़ा नहीं किया जा सकता ? किया जा सकता है, अगर सरकारें चाहें तो। कानून की समझ की ज़रूरत किसे नहीं पड़ती। लगभग हर किसी को। मगर, कानून की बेहतर समझ रखते कितने लोग हैं। शायद न के बराबर लोग । सबसे पहले तो ज़रूरी ये होगा कि विधि की पढ़ाई को ‘आयातित (इंपोर्टेड) शैली’ से निकालकर देशी अंदाज़ में सरलीकृत किया जाए ताकि पढ़ाई रुचिकर बने और ज़्यादा से ज़्यादा लोग (युवा छात्र) विकल्पहीन होने से पहले भी इस विकल्प के बारे में सोच सकें। ऐसा करने में वक्त तो लगेगा मगर करना ज़रूरी है। देश में अच्छे वकीलों और जजों की सख्त दरकार है जो मामलों की समझ रखते हों और पेंडिंग मामलों को निपटाने में अहम भूमिका निभा सकते हों। हमारे देश में कई बदनसीब ऐसे भी हैं जो मामले की सुनवाई के चक्कर में आधी ज़िंदगी जेल में गुज़ार देते हैं और जब मामले की सुनवाई हो पाती है, तो उनको मुकर्रर सज़ा उनकी कैद में गुज़ारी गई ज़िंदगी से बेहद कम होती है।
इसके अलावा देश में अच्छे विधि शिक्षकों की बेहद कमी है। जब अच्छे शिक्षक ही नहीं होंगे, तो विधि की समझ रखने वाले अच्छे छात्र कहां से आएंगे। ये ज़िम्मेदारी वर्तमान जजों और वरिष्ठ अधिवक्ताओं को उठानी होगी ताकि न्यायपालिका का हिस्सा बनने वाली अगली पीढ़ी बेहतर समझ रखने वाली हो और वो भी बेहतर शिक्षक बन सके।
वीरप्पा मोइली, कपिल सिब्बल जैसे मंत्री अपने पूरे कार्यकाल में कई घोषणाएं करते दिखे हैं, मगर इन पर कितना अमल हो सका है, किसी से छिपा नहीं है। उनके बयान मुंगेरीलाल के हसीन सपनों की तरह आते हैं और गायब हो जाते हैं। मगर, विधि की पढ़ाई को लेकर सरकार का गंभीर होना ज़रूरी है क्योंकि न्यायपालिका बिना लाठी-डंडे के, सिर्फ विश्वास के ज़ोर पर चलने वाली संस्था है। इस संस्था से आम आदमी का विश्वास जुड़ा है। और, दयनीय शिक्षा प्रणाली से पास होकर वकील और जज बनने वालों पर कब तक हम विश्वास करेंगे, कहना मुश्किल है। पूरा लेख लिखने के बाद भी मेरा मन तो नहीं हुआ कि मैं वकील बन जाऊं। शायद इसीलिए कि वकालत की पढ़ाई से लेकर जज और न्यायपालिका का बाहरी-भीतरी ढांचा तक देशी नहीं लगता, समझ और पहुंच के लिहाज से बाहर की चीज़ लगता है। क्या आपको ऐसा नहीं लगता ?

निखिल आनंद गिरि