Monday, May 17, 2010

कुछ सवाल - स्त्री ( मुक्ति या मौत )

कुछ दिन पहले मोबाइल पर एक एसएमएस आया ...
एक लड़की बस स्टॉप पर खड़ी थी
तभी वहां एक आदमी आया और बोला
ऐ चलती है क्या नौ से बारह
लड़की ने पलटकर देखा
और कहा
पापा
मैं
हूँ

मेरे छोटे भाई-बहिन जो इस सन्देश की गहराई को भांप नहीं सके उन्हें इस पर हंसी आ गई ..लेकिन मेरे सामने एक गंभीर दृश्य अंकित हो गया ..जिसने कई परतों को पलटना शुरू कर दिया.

उनमें से एक समसामयिक परत है निरुपमा की मौत का मामला ....ये मौत हत्या है या आत्महत्या इसकी गुथ्थी हर मामले की तरह न जाने कब तक सुलझेगी लेकिन कुछ उलझाने वाले सवाल ये है कि अगर सचमुच में निरुपमा की हत्या की गई है तो उसकी मुख्य वजह क्या है ......एक दूसरी जाति के लड़के से सम्बन्ध या फिर उसका बिन ब्याहे माँ बनना .......इस सवाल का जवाब तो हत्या करने वाले को ही ठीक-ठीक मालूम होगा. लेकिन अगर ये हत्या है तो इसे सिर्फ निरुपमा की हत्या नहीं माना जाना चाहिए ...हर उस लड़की के लिए मौत का एक प्रस्ताव पेश करने वाली इस घटना पर अलोक धन्वा के ये शब्द काफी कुछ कह जाने में मदद करते है ................. सिर्फ़ जन्म देना ही स्त्री होना नहीं है/तुम्हारे टैंक जैसे बन्द और मज़बूत/घर से बाहर/ लड़कियाँ काफ़ी बदल चुकी हैं/मैं तुम्हें यह इजाज़त नहीं दूँगा/कि तुम अब/ उनकी सम्भावना की भी तस्करी करो/वह कहीं भी हो सकती है/ गिर सकती है/बिखर सकती है/लेकिन वह खुद शमिल होगी सब में/ग़लतियाँ भी ख़ुद ही करेगी/सब कुछ देखेगी/शुरू से अन्त तक/अपना अन्त भी देखती हुई जायेगी/किसी दूसरे की मृत्यु नहीं मरेगी।

मेरा ये सब लिखना लड़कियों के घर से भागने को सही ठहराने के लिए नहीं है ...बल्कि अभिभावकों के संकीर्ण और अड़ियल रवैये को गलत बताने के लिए है ....क्योंकि घर से भागने की वजह कहीं न कहीं घर से मिलने वाले प्यार और सहयोग की कमी भी है

दूसरी बात जो इस घटना से उठी है उसमे स्त्री मुक्ति से जुड़े कुछ सवाल उठ खड़े हुए है .....आधुनिक संसाधनों का भरपूर प्रयोग करने वाले प्रहरी निरुपमा के प्रेंगनेंट होने की खबर सुनकर ये प्रश्न उठा रहे है क़ि उसके जैसी पढ़ी-लिखी लड़की को क्या गर्भ निरोधक के बारे में जानकारी नहीं थी ....अगर वह उनका इस्तेमाल करती तो शायद उसकी ये नियति न होती ................जाने माने लेखक और विचारक राजकिशोर का ताजतारीन लेख अखबार में पढ़ा तो स्त्री मुक्ति का ये प्रश्न और भी गहरा गया ....जादुई गोली के पचास साल ...यहाँ वो जादुई गोली का इस्तेमाल गर्भनिरोधक गोली के लिए कर रहे है ....वे कहते हैं ...इस गोली ने स्त्री समुदाय को एक बहुत बड़ी प्राकृतिक जंजीर से मुक्ति दी है ..अगर ये गोली न होती तो यौन क्रांति भी न होती . यौन क्रांति न होती तो स्त्री स्वंत्रता के आयाम भी बहुत सीमित रह जाते ..इस गोली ने एक महतवपूर्ण सत्य से हमारा साक्षात्कार कराया है क़ि यौन समागम कोई इतनी बड़ी घटना नहीं है जितना इसे बना दिया गया है ...यह वैसा ही है जैसा एक मानव व्यवहार है जैसे खाना, पीना या चलना-फिरना ........

अगर बिना कोई तर्क किये इन शब्दों पर सहमति की मोहर लगा दी जाती है तो स्त्री विमर्श के लिए उठने वाले सभी सवाल खुद ही ढेर हो जायेंगे .....................लेकिन क्या ये इतना आसान होगा भावनात्मक और प्रयोगात्मक दोनों सूरतों में क्या शब्दों की ये आजादी समाज में अकार ले सकती है ...................ये बेहद पेचीदा प्रश्न है। सम्भोग अगर आजादी है तो ये समाज उसे कब क्या नाम देगा इसकी आजादी वो हमेशा से लेता आया है ......यूँ तो पत्नी ...नहीं तो प्रेमिका ........और वर्ना वेश्या

हिमानी दीवान

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

7 बैठकबाजों का कहना है :

Dr. Kumarendra Singh Sengar का कहना है कि -

आपकी बात सही है कि सेक्स एक सामान्य आचार विचार क्रिया की तरह है जैसे खाना पीना....फिर इतनी हाय तौबा क्यों? पोस्ट की शुरुआत में लड़की के कहने कि पापा मैं हूँ पर आपको क्यों गंभीरता दिखी....यहाँ भी आम क्रिया की तरह सेक्स को अपनाया जा सकता है?
सेक्स सामान्य क्रिया हो सकती है पर किसी विशेष के साथ...एक ढंग के साथ...जैसे खाने पीने को ही लें तो इसका भी ढंग है ये नहीं कि सुबह उठे तो खाना खा लिया और दोपहर में चाय नाश्ता कर रहे हैं...किसी के साथ कुछ भी खा लेना, कहीं भी खा लेना खाना नहीं कहा जाता.
सेक्स को लेकर बंदिश और इन बंदिशों को तोड़ने के लिए दिए जा रहे कुतर्कों ने ही समाज में विकृति पैदा की है. यदि सेक्स को लेकर बंदिश नहीं है तो फिर करने दो भाई बहिन को आपस में, बाप बेटी को आपस इमं, माँ बेटे को आपस में.........क्या जरूरत है बाहर मुंह मारने की...........क्या जरूरत है विवाह की..........
फिर से विचार करिए....सेक्स के नए ताजातरीन मुद्दे पर.....आवश्यकता....अनिवार्यता में अंतर होता है जनाब.......
जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड

Nikhil का कहना है कि -

''सम्भोग अगर आजादी है तो ये समाज उसे कब क्या नाम देगा इसकी आजादी वो हमेशा से लेता आया है ......यूँ तो पत्नी ...नहीं तो प्रेमिका ........और वर्ना वेश्या''

दुनिया में स्त्री विमर्श पर सारी बहसें इसी सवाल के साथ ख़त्म क्यों हो जाती है....क्या इससे आगे नहीं बढ़ा जा सकता...

Nikhil का कहना है कि -

कुमारेंद्र जी की प्रतिक्रिया पर भी बहस होनी चाहिए..

आलोक साहिल का कहना है कि -

कुमारेंद्र जी आपकी आपत्ति सही है...बिल्कुल वाजिब...लेकिन थोड़ा स्थिर होकर सोचें...
बात फकत सेक्स की नहीं...बात इससे आगे बढ़कर स्वतंत्रता की है...
आपका तर्क सही है कि..फिर बाहर मुंह मारने की क्या जरूरत...सही है...लेकिन मैं स्वतंत्र हूं...और अगर मुझे बाहर ही मुंह मारने में आनंद आ रहा है, तो आपको दर्द क्यों..अगर है, तो हम स्वतंत्र कहां...
अगली बात, मुझे पता है ऊपर वाली लाइन पढ़कर कोई (पढ़ा-लिखा) विवाहोत्तर संबंधों की दुहाई देना शुरू कर सकता है...
लेकिन आजादी के मायने क़ानून से परे जाना नहीं......
मैं तथाकथित सनातन धर्म या दकियानुसी नियम क़ानूनों की दुहाई नहीं दे सकता, लेकिन देश के क़ानून को मानना अपरिहार्य है...और वह हमें अपनी मर्जी से शादी करने पर बंदिश नहीं लगाता.....और अगर निरुपमा केस की ही बात करें...तो उसने कोई गुनाह नहीं किया था...मुझे पता है, भाषणबाज़ी करना अलग बात है और निरुपमा जैसी लड़कियों को घर में झेलना बिल्कुल अलग बात...लेकिन एक बार समझने की पहल तो की ही जा सकती है...इतना भी कठिन नहीं तथकथित समाज के सवालों का जवाब देना...और सनातन धर्म की बंदिशों से पार पाना...

अजय कुमार झा का कहना है कि -

आपने इस पूरे घटनाक्रम को एक अलग नज़रिए से देखा और दिखाया धन्यवाद इसके लिए सबसे पहले तो । ऐसी घटनाएं यदि समाज में एक बहस को न जन्म दे पाएं तो ऐसे समाज पर अफ़सोस ही हो सकता है । डा . सेंगर बडी ही बेबाकी से अपनी राय रख दी है , और मुझे लगता है कि अभी भारत का एक बडा समाज खुद मैं भी उस राय से इत्तेफ़ाक रखना चाहूंगा । आप बात को जिस नज़रिए से दिखा रहे हैं वो यदि समाज का पूरी तरह से पश्चिमीकरण हो जाए तो फ़िर शायद ये समझाने की जरूरत ही न पडे । मगर इससे पहले बहुत बडी खाई पाटनी है ।

अब जबकि पश्चिमी देश अपने यहां की संस्कृति को भारतीय परंपराओं का लबादा ओढाने में लगे हैं और वहां कीप वर्जिन जैसे अभियान चला कर बाकायदा इसकी घोषणा की जा रही है , तो ऐसे में भारतीय समाज के एक बहुत ही छोटे मगर प्रभावशाली वर्ग का अपनी बदलती प्रवृत्ति को ही समाज का चरित्र बताना और बनाना इतनी आसानी से संभव नहीं है निखिल जी ।

himani का कहना है कि -

कुमारेंदर जी ने मेरी बात ठीक से समझी ही नही ...सेक्स एक सामान्य क्रिया है खाने-पिने की तरह या फिर एक दुष्कर कर्म इस पे मैंने अपनी कोई राय नही दी है ..ये शब्द राजकिशोर जी के एक लेख से लिखे है ....मैंने यहाँ दो तिन बातों को लेकर एक साझा प्रश्न उठाया है की सूरते बदलती रहती हैं लेकिन शिकार स्त्री ही बनती है ...ऐसा क्यों होता है .......क्या सिर्फ इसलिए की वो एक स्त्री है ........और मान-मर्यादा और मंनोवल का सारा बोझ उसे ही उठाना है अपने शारीर के हर अंग पर कभी प्यार और कभी प्रताड़ना के रूप में

himani का कहना है कि -

निखिल जी ने कहा की इस सवाल से आगे बढा जाना चाहिए ..लेकिन आगे बढ़ने के पहले से रस्ते में पड़े सवालों का जवाब मिलना जरुरी है ....अभी तक तो इनही सवालों के घेरे में फंसकर मुक्ति और मौत के बीच एक अस्तित्व झूल रहा है ...

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)