फिल्म जब मणिरत्नम की हो तो उम्मीदों का बेताब होना लाज़मी है. कई दिनों के इंतज़ार और अटकलों के बाद 'रावण' रिलीज़ हुई. पिछली दो फिल्मों 'काइट्स' और 'राजनीति' से बेतरह खराब हुए ज़ायके को सुधारने के लिए 'रावण' का इंतज़ार था. बेशक़ निराशा नहीं हुई लेकिन फिर भी कुछ कमी रह गई. फिल्म अच्छी है लेकिन दिल तक नहीं पहुँचती. ऐसा लगता है जैसे मणिरत्नम के कहानी कहने में वो धार नहीं रही. ये मैं उनकी पिछली फिल्म गुरु को भी ध्यान में रखकर कह रहा हूँ. गुरु अपने आप में खराब फिल्म नहीं थी लेकिन वो कहानी इस लायक नहीं थी कि उसे मणिरत्नम जैसा फिल्मकार बनाए. एक भ्रष्ट आदमी के फर्श से अर्श तक पहुँचने कि कहानी लेकिन उसमे बड़ी बात क्या है? आजकल सभी लोग किसी न किसी तरह की जुगाड़ से ऊपर जाते हैं, हाँ, अगर अपने उसूलों पर कायम रहकर कोई वहां पहुंचे तो वो शख्स कहानी बन जाता है. और पीछे जाएँ तो याद आती है 'युवा', जिस पर मणिरत्नम के तगड़े दस्तखत थे. युवा की हर चीज़ मणिरत्नम के अद्वितीय होने को सिद्ध करती है. फिल्म में एक सशक्त सन्देश तो था ही मौजूद समस्या से निबटने का तरीका भी था. युवा दिलो-दिमाग को झकझोरती है. और भी पीछे जाएँ तो हर एक फिल्म चाहे वो 'रोजा' हो, 'बॉम्बे' हो या 'दिल से' हो, एक हूक सी पैदा करती है दिल में. और ये हूक ऐसी चीज़ है जो फिल्म को कला का दर्ज़ा देती है लेकिन आजकल दुर्लभ है. अब फिल्म का दर्ज़ा चने-चबैने के बराबर हो गया है, एक टाइम पास.
फिर से लौटते हैं रावण की तरफ. फिल्म की कहानी रामायण से प्रेरित है और वहां से शुरू होती है जहां रावण सीता का हरण करता है. यहाँ रावण उर्फ़ बीरा एक पिछड़े इलाक़े और पिछड़ी जाति का सरगना है जिससे लोग खौफ भी खाते हैं और मोहब्बत भी करते हैं. वो क्रूर है लेकिन उसका गुस्सा अन्याय के खिलाफ है और दिल की गहराइयों में कहीं कोमलता भी बरकरार है. राम उर्फ़ देव एक पुलिस अफसर है जो इलाके में नया है और बीरा को मिटाने का फैसला करता है. इसी कोशिश में बीरा की बहन को उठा कर थाने ले आया जाता है ठीक उस वक़्त जब उसके फेरे होने वाले हैं. उसे रात भर थाने में रखा जाता है और पूरा स्टाफ उसके साथ बलात्कार करता है. घर पहुँच कर बीरा को पूरी कहानी बताने के बाद वो आत्महत्या कर लेती है. यही वजह बनती है देव की पत्नी रागिनी के अपहरण की. बीरा उसे उठाता है जान से मारने के लिए लेकिन उसे बंदी बनाए रखने के दौरान वो उसके दिल की गहराइयों में उस नाज़ुकी को छू लेती है जो हमेशा छुपी रहती है और वो उसे मार नहीं पाता. जैसा कि मैंने कहा बीरा क्रूर है लेकिन शराफत उसके अन्दर मौजूद है, एक औरत को बंदी बनाता है लेकिन वासना से वो दूर है. उसे उसकी शुद्ध सुन्दरता दिखाई देती है. देव अपनी पत्नी की खोज करते हुए संजीवनी (हनुमान) से मिलता है जो इस काम में उसकी मदद करता है. आगे की कहानी बताकर मैं उनका मज़ा ख़राब नहीं करूँगा जो फिल्म देखने वाले हैं.
फिल्म की कहानी सामान्य ही है लेकिन फिर आखिर ज़्यादातर फिल्मों की कहानी सामान्य ही होती है, फर्क होता है उसे कहने के तरीके में, उसके भावों के उभार में. यहाँ कहानी सामान्य होते हुए भी फिल्म बोर नहीं करती लेकिन भावों के उभार में कमी रह गई. कुछ दोष स्क्रीनप्ले का है और कुछ अभिनय का. जैसा कि मणिरत्नम की फिल्मों में होता है, कहानी में किसी न किसी सामाजिक मुद्दे का एक तार जो आपको सोचने पर मजबूर करता है , वो यहाँ नहीं है. हालांकि उसका ज़िक्र ज़रूर है लेकिन वो इतना असरदार नहीं है कि ज़हन में उभर के आ सके. बीरा समाज के दबे-कुचले वर्ग का प्रतिनिधि है लेकिन इस तथ्य को लेकर यही छोड़ दिया गया है. इसी तरह कुछ और भाव हैं फिल्म में जो दिल को छू सकते थे लेकिन उन्हें भी शुरू करके बहुत आगे तक नहीं ले जाया गया जैसे बीरा के मन में धीरे-धीरे रागिनी के लिए प्रेम का जन्म होना और रागिनी का बीरा के बारे में नजरिया बदलना, ये सब समझ में आता है लेकिन उस शिद्दत से महसूस नहीं होता. बीरा के प्रेम की आग हम तक आंच नहीं पहुंचाती या रागिनी की करुणा हमारे अन्दर उथल-पुथल नहीं मचाती. ये सब नहीं होता इसकी एक बड़ी वजह संवाद हैं. संवादों में वो तीखापन, वो धार नहीं है जो सुनने वाले के कानों से दिल में उतर जाए. अभिनय की अगर बात करें तो सभी में कुछ कमी रह गई है. अभिषेक बच्चन बीरा के रूप में उतने खतरनाक नहीं लगे जितना उन्हें लगना चाहिए था, इससे ज्यादा खौफनाक वे युवा में लगे हैं. इसी तरह जब प्रेम मन में पैदा हुआ है तो उससे दर्द भी पैदा होता है क्योंकि वो ना हासिल होने के लिए है, वो दर्द उनके भावों में नहीं आ पाया. ऐश्वर्या आखिर कुछ अभिनय सीख गई हैं, हालांकि उसमे अब भी वो उंचाई नहीं है लेकिन उन्होंने अपने आप को इस फिल्म में पीछे छोड़ा है. देव के रूप में विक्रम के करने के लिए कुछ ख़ास था नहीं लेकिन उनके व्यक्तित्व में दम है और जितना किया है वो अच्छा है. गोविंदा एक ऐसे कलाकार है जिन्होंने अपनी प्रतिभा फूहड़ फिल्मों में बर्बाद कर दी वरना हमें अभिनय के कुछ बेहतरीन नमूने देखने को मिल सकते थे. गोविंदा बेशक एक बेहतरीन अभिनेता है और बिरले ही ऐसा हुआ है कि वे किसी अच्छे फिल्मकार के साथ किसी अच्छी फिल्म में नज़र आये हों. हनुमान के रूप में गोविंदा का अभिनय ज़रूर अच्छा है. इस दूसरी पारी में उनसे कुछ अच्छा करने की उम्मीद है. रवि किशन अच्छे अभिनेता हैं और उनके अभिनय में नज़र आता है कि ये दिल से किया गया है.
फिल्म का जो सबसे अच्छा और सबसे खूबसूरत पहलू है वो है सिनेमेटोग्राफी, फिल्म की हर एक फ्रेम बेहतरीन है. प्रकृति की खूबसूरती को पूरी तरह से परदे पर उतारा गया है. इस बात पर हम इसे एक ओरगेनिक फिल्म कह सकते हैं. पूरी फिल्म में पहाड़, नदी और बारिश की खूबसूरती फैली हुई है. फिल्म में प्रकृति खुद एक किरदार की तरह मौजूद है.
संगीत की क्या बात करें ए आर रहमान लिख देना ही काफी है. जैसा कि हमेशा होता है उनके गीत धीरे-धीरे असर करते हैं और ज़हन में घुलने लगते हैं. रहमान के गीत जितनी बार सुनें कुछ नया मिलता जाता है, कोई छुपा हुआ इंस्ट्रूमेंट, कोई धीमी सी मेलोडी. बड़ा दुःख हुआ ये देखकर कि एक गीत 'उड़ जा' जो रहमान की ही आवाज़ में है, फिल्म में तो है लेकिन फिल्म के ऑडियो में नहीं है. बैकग्राउंड म्यूजिक बेहतरीन है. हर एक सिचुएशन को रहमान का संगीत अलग ही प्रभाव दे देता है. वे ऐसे साज़ इस्तेमाल करते हैं जो किसी ने सोचे न हो और उनका असर जबरदस्त होता है.
ऊपर मैंने काफी खामियां गिनाई हैं लेकिन अगर फिल्म के सम्पूर्ण प्रभाव की बात करें तो फिल्म अच्छी कही जा सकती है और एक बार ज़रूर देखी जानी चाहिए. कुछ खामियां ज़रूर हैं लेकिन फिर भी देखने लायक है.
मैं इसे ५ में से ३.५ अंक दूंगा.
अनिरुद्ध शर्मा
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6 बैठकबाजों का कहना है :
ाच्छी जानकारी है। देखेंगे।अभार।
आपने कहानी न बताने की चाह रखते हुए भी रावण की सारी परते खोल अपने लेख में खोल दी हैं। रावण देखने के बाद मैं भी काफी हद तक आपकी बात से सहमत हूं दरअसल रावण के रुप में जो रायता मणिरत्नम ने सिनेमा में फैलाया है उसे चखने के लिए उन्हें समझदार आडियन्स चाहिए जो राम से इतर भी कुछ सोच सके औऱ जो बातें निरदेशक कमजोर संवाद और अभिनय की वजह से नहीं कह पाया उन्हें समझ सके। हालांकि अच्छे खासे पैसे खचॆ कर मल्टीप्लेक्स में फिल्म देखने के बाद उस समझने के लिए अलग से दिमाग दौड़ाना हमारी भागती दौड़ती युवा पीड़ी के लिए थोड़ा मुशिकल जरुर है।
फिल्म अभी देखी नहीं है.....वैसे समीक्षा ठीक लगी..
फिल्म की कहानी को रामायण से जोडना और फिल्म का नाम...'रावण' रखने से विसंगति पैदा हुई है!... इस वजह से दर्शक इसे दिल से स्वीकार नहीं कर रहे!... वैसे मणिरत्नम की जमाई हुई साख की वजह से फिल्म देखी जा सकती है!
पढ़ा तो कल ही लेकिन बिना देखे कुछ कहना मुनासिब नहीं था...इसलिए अब कह सकता हूं...
'खुबरसूत दिखने वाली साधारण फिल्म'
अलोक भाई ये फिल्म सामान्य नहीं है, कुछ कमियां जैसा कि अनुरुद्ध जी ने इशारा दिया, संवाद फिल्म की कमजोर कड़ी है, वैसे तमाम समीक्षाएँ एक तरफ़ रखिये, एक बार फिल्म जरूर देखें...केवल कुछ खास शोट्स काफी है मणि के जिससे आपके पैसे वसूल हो जायेगें.....
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