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Tuesday, June 22, 2010

आपने कितनी बार बिन कहे किसी को आई लव यू बोला है...


ये क्या कि चंद क़दमों पर ही थक कर बैठ गए, तुम्हे तो साथ मेरा दूर तक निभाना था....किसी अपने से बिछड़ने का गम चाहे कितना ही छुपाया जाये पर भीतर कहीं टीस तो होती है. बचपन में पक्की सहेली बनाने का वो शौक और उसके रूठ जाने पर घंटों घर जाकर माँ से उसकी बुराई करते हुए अन्दर ही अन्दर उससे सुलह के तरीके खोजना आज भी याद आता है. सोचती हूँ चंद पल जिसके साथ खेल-खिलौने खेलती थी, उसके कुछ दिन मुझसे गुस्सा हो जाने पर कितना परेशान हो जाया करती थी. अगर जीवन भर का कोई साथी रूठ जाये या अलग हो जाये इस दुख की तो कल्पना करना भी सिहरन पैदा कर देता है ...हम कितने भी तटस्थ क्यों न हो जाएं, भावों से ख़ाली तो नहीं हो सकते न. आज कल तलाक तलाक तलाक का शोर ज़ोरों पर है... गौरतलब है की कैबिनेट हिन्दू विवाह अधिनियम में संशोधन करके तलाक की राह को आसान बनाने की तयारी कर रही है...महिला सशक्तिकरण के पैरोकार खूब खुश हैं ...वकील भी होंगे जब तलाक के मुक़दमे भर जायेंगे तो ....लेकिन बैठक पर मेरा ये मुद्दा उठाने का कारण बाकी सारी वजहों से बिलकुल अलग है...ये बात कानून से मतलब नही रखती , ये बात समाज से तारुफ़ नही करती , चलिए परिवार को भी पीछे छोड़ देते है, और तमाम अन्याय अत्याचार की घटनाओ के बावजूद दो लोगों में छुपे उस अदृश्य प्यार को तलाशते हैं जो हर रोज नही सिर्फ किसी ख़ास पल में नजर आता है ...जिस एक पल से दो अजनबी दुनिया के हर जानने वाले से ज्यादा आशना से हो जाते हैं, वो पल जिसमे जिंदगी को उसके बिना सोचना भी बेमानी लगता है, आप सोचते होंगे ये मेरे अति सकारात्मक विचार हैं लेकिन मैं निराधार आशावाद में यकीं नही रखती हूँ...ये बातें उन लम्हों को देखकर लिख रही हूँ जो मैंने किन्ही अनजान से पलों में आहिस्ता से आँखों के सामने प्रकट हुए संजीव से चित्रों में देखे है. दिन भर एक-दूसरे से लड़ने वाले बूढ़ा-बूढी जब बस पर चढ़ रहे थे और अम्मा नही चढ़ पाई तो बूढ़े बाबा ने उन्हें हाथ पकड़कर बस में चढाया और फिर चढ़ने के बाद एक धीमी सी मुस्कान दोनों के चेहरों पर दिखाई दी उनकी हर रोज की लड़ाई कितनी छोटी पड़ गई थी मेरे लिए जब उन्हें यूँ बिना शब्दों के एक-दूसरे से आई लव यू कहते महसूस किया .....
पड़ोस में रहने वाले उड़ीसा के साहू साहब ज़रा-ज़रा सी बात पर अपनी बीवी पर चिल्लाते हैं ..गाहे बगाहे हाथ भी उठा देते है ..जवाब में पत्नी भी आक्रोश व्यक्त करती हैं खाना परोसती जाती हैं और कुछ ये बातें कहती है "पता नही कौन से बुरे कर्म किये थे मैंने जो तुम्हारे जैसा पति मिला",'मेरी सारी जिन्दगी ही ख़राब हो गई तुमसे शादी करके ' और फिर जब मैंने देखा कि माँ बनने के बाद डॉक्टर ने उन्हें आराम करने के लिए कहा है कोई काम करना मना है और परिवार का भी कोई सदस्य यहाँ उनकी सेवा करने नही आ सकता तो वही साहू साहब जो खुद मुझे भी बहुत बुरे लगते थे जब बीवी पर चिलाते थे और मैं भी सोचती थी कि इन्हें अलग हो जाना चाहिए वही शख्स अपनी नौकरी और घर के काम दोनों एक साथ कितनी सहजता से कर रहा है...हल्की दिक्कतों के बाद भी पत्नी को काम नही करने देता...पूरे तीन महीने तक लगातार सेवा की, तब जबकि कोई माता-पिता, भाई-बहिन .....कोई नही आया सब आये औए हाल-चाल पूछ कर चले गए ...सोच किसी भी हद तक जा सकती हैं लेकिन उस वक़्त का सच ये था की जिसके साथ जिंदगी बर्बाद-सी हो गई लगती थी, वही जिंदगी को सहेज रहा था .....आप भी देखेंगे तो ऐसे कई उदाहरण मिल जायेंगे ...हालाँकि अपनी इन बातों से मैं ये नही कह रही कि किसी भी तरह से बदसलूकी और बदतमीजी सहते हुए, नाउमीदी की गर्त में गिरे हुए कुछ लम्हों का इन्तजार किया जाये लेकिन हाँ सुलह के रास्ते तलाशना लाज़मी है ....अगर मैंने लड़ते झगड़ते मियां-बीवी को बीच पनपते प्रेम को देखा है तो उस अकेलेपन को भी महसूस किया है जो मुझे शादी के एक साल बाद ही दहेज़ की वजह से अलग हुई मात्र २५ साल की एक लड़की के चेहरे पर हमेशा नजर आता है ...जो मुझसे कहती है पता है वो बुरे नही थे लेकिन उनके घर वालों को ही दहेज़ का लालच था उनकी वजह से हमें अलग होना पड़ा... आज मैंने अपने दम पर सब कुछ हासिल कर लिया है लेकिन न मेरे बच्चे के पास पापा है न मेरे पास कोई पार्टनर. मेट्रो शहरों का कल्चर बेशक हमें उन्मुक्त होने के लिए कहे लेकिन फिर यही महानगर भीड़ में उस तन्हा शख्स को बिलकुल अकेला छोड़ कर अलग हो लेता है ....और अकेलापन तो जो न करवाए वो अच्छा ....
जानती हूँ कि मेरी बात तथ्यों से परे लग रही होगी, आखिर आजादी अख्तियार करने के रस्ते में मैं कुछ भूले-बिसरे शब्द जो बिछा रही हूँ ......आप बताएं क्या मेरी बात बिलकुल बेमानी है .........

हिमानी दीवान