Sunday, June 06, 2010

तपती जमीन, तपते सवाल

पर्यावरण दिवस(5 जून) पर लेखों को ढूंढने के क्रम में पुण्यप्रसून वाजपेयी के ब्लॉग पर नज़र पड़ी...ज़ी न्यूज़ में प्राइम टाइम एंकर पुण्यप्रसून वाजपेयी की शैली में ख़बरें सुनना-देखना अलग अनुभव है। आधे घंटे का शो हो या घंटे भर का, उनकी अनूठी प्रस्तुति में समय कट जाता है.... मगर, ब्लॉग पर उनके लेखों की लंबाई ज़रा उबाऊ हो जाती है...ये लेख उबाऊ नहीं लगा क्योंकि मुद्दा बेहद ज़रूरी है...दिल्ली जैसे शहरों की आधुनिक आदतों का असर पहाड़ों में बसे कुदरती इलाकों पर दिखने लगा है...ये चिंता करने की फुर्सत तक किसके पास है?

पेड़ों को रखे आस-पास, तभी रहेगी मानसून की आस।

दिल्ली से रानीखेत की तरफ जाते पहाड़ के गांवों की दीवार पर लिखी इन पंक्तियों ने कई बार ध्यान खींचा। हर बार जेहन में यही सवाल उठा कि जो इलाके पेड़-जंगलों से घिरे हैं, जहां पहाड़ों की पूरी कतार है। वहां इन पंक्तियो के लिखे होने का मतलब कहीं भविष्य के संकट के एहसास के होने का तो नहीं है। क्योंकि समूचा उत्तर भारत जब लू के थपेड़ों से जूझता है, तब राहत के लिये उत्तराखंड के पहाड़ी इलाके ही एसी का काम करते हैं। पहाड़ पर मई-जून में भी मौसम गुलाबी ठंड सरीखा होता है, तो इसे महसूस करने बडी तादाद में लोगों का हुजुम वहां पहुंचता है। यही हुजुम पहाड़ की अर्थव्यवस्था को रोजगार में ढाल कर बिना नरेगा भी न्यूनतम जरुरत पूरा करने में समाजवादी भूमिका निभाता है। सामान ढोने से लेकर जंगली फलों को बेचने और होटलों में सेवा देने वालों से लेकर जंगलों में रास्ता दिखाने वालो की बन पडती है। सिलाई-कढाई से लेकर जंगली लकड़ी पर नक्कशी तक का हर वह हुनर जो महिलाओ के श्रम के साथ जुडता है, वह भी बाजारों में खूब बिकता है, और गरमियो का मौसम पहाड़ के लिये सुकुन और रोजगारपरक होकर कुछ यूं आता है कि पहाड़ का मुश्किल जीवन भी जमीन से जुड़ सा जाता है और अक्सर पहाड़ के लोग यही महसूस करते है कि जमीन पर आय चाहे ज्यादा है लेकिन सुकुन पहाड़ पर ज्यादा है। क्योंकि सुकुन की कीमत चुकाने में ही पहाड़ की रोजी रोटी मजे से चल जाती है।

लेकिन जमीन पर अगर आय असमान तरीके से बढ़े और सिर्फ एक तबके की बढ़े तो खतरा कितना बड़ा है, इसका एहसास जमीन पर रहते हुये चाहे थ्योरी के लिहाज से यही समझ में आता है कि देश के 10 से 15 करोड़ लोग अगर महीने में लाख रुपये से ज्यादा उड़ा देते हैं तो देश के 70 से 80 करोड़ लोगों की सालाना आय दस हजार रुपये भी नहीं है। करोड़ों परिवार के लिये एक रुपये का सिक्का भी जरुरत है और देश के पांच फीसदी लोगों के लिये दस-बीस रुपये का नोट भी चलन से बाहर हो चुका है। दिल्ली के किसी मंदिर पर भिखारी को एक रुपया देना अपनी फजीहत कराना है, पहाड पर एक रुपया किसी भी गरीब के पेट को राहत देने वाला है। लेकिन प्रैक्टिकल तौर पर पहाड़ में इसकी समझ पहली बार यही समझ में आयी कि जिस एक छोटे से तबके के लिये दस-बीस रुपये मायने नही रखते, वही छोटा सा तबका अपनी सुविधा के लिये जिस तरह जमीन पर सबकुछ हड़पने को आमादा है वैसे ही पहाड़ पर भी अपने सुकून के लिये वह सबकुछ हड़पने को तैयार हो चुका है और जो गर्मियां पहाड़ के लिये जीवनदायनी का काम करती हैं, चंद बरस में वही गरमी पहाड़ को भी गरम कर देगी और फिर पहाड़ का जीवन भी जमीन सरीखा हो जायेगा।

इसकी पहली आहट सबसे गर्म साल के उस दिन {18 मई 2010 } मुझे महसूस हुई जब दिल्ली का तापमान सौ बरस का रिकार्ड पार कर रहा था और कमोवेश हर न्यूज चैनल से लेकर हर अखबार पर भेजा-फ्राई शब्द के साथ गर्मी-लू की रिकार्ड जानकारी दी जा रही थी। इस दिन रानीखेत की सड़कों पर भी कर्फ्यू सरीखा माहौल था। तापमान 33 डिग्री पार कर चुका था। पेड़ों की पत्तियां भी खामोश थीं। चीड़-देवदार के पेड़ों की छांव भी उमस से जुझ रही थी । बाजार खाली थे। सालों साल स्वेटर बेच कर जीवन चलाने वालो की दुकानों पर ताले पड़े थे। कपडे पर महीन कारीगरी कर कुरते बना कर बेचने वाली महिलायें के जड़े-बूटे देखने वाला कोई नही था। और तो और दुनिया के सबसे बेहतरीन गोल्फ कोर्स में से एक रानीखेत का गोल्फ कोर्स शाम सात बजे तक भी सूनसान पड़ा था। और यह सब इसलिये कहीं ज्यादा महसूस हुआ क्योंकि रानीखेत अभी भी खुद को रानीखेत ही मानता है, जहां गर्मियों में होने का मतलब है खुशनुमा धूप। ठंडी बयार। गुलाबी शाम । और इन सब के बीच घरो में कही कोई पंखा नहीं। घर ही नहीं होटल और सराय में भी पंखों की कोई जगह नहीं। वहां की छतें आज भी खाली ही रहती हैं। छतों की दीवारो की ऊंचाई जरुर आठ फीट से बठकर दस फीट तक पहुंची है। लेकिन कोई इस शहर में मानता ही नहीं कि प्रकृतिक हवा कभी तकनीकी हवा के सामने कमजोर पड़ेंगी या मशीनी हवा पर शहर को टिकना पडेगा।

लेकिन पहली बार बीच मई के महिने में अगर रानीखेत ने गर्मियो के आगे घुटने टेके और पहली बार यहां के बहुसंख्य लोगों की आय डगमगाती नजर आयी तो चिंता की लकीर माथे पर उभरी कि रानीखेत का मौसम अगर इसी तरह हो गया तो उनका जीवन कैसे चलेगा। पहली बार इसी रानीखेत में यह भी नजर आया कि जमीन पर अपनी सुविधा के लिये मौसम बिगाड़ चुका देश का छोटा सा समूह, जो सबसे ताकतवर है,प्रभावी है, किसी भी बहुसंख्यक समाज पर भारी पडता है, अब पहाड़ को भी अपनी हद में लेने पर आमादा है। कॉरपोरेट सेक्टर के घनाड्य ही नही बल्कि सत्ता की राजनीति करने वाले सत्ता-धारियों और विपक्ष की राजनीति करने वालो की पूरी फौज ही पहाड़ों को खरीद रही है। सिर्फ रानीखेत में ही तीन हजार से ज्यादा छोटे बडे कॉटेज हैं जिन पर मालिकाना हक और किसी की नहीं बल्कि उसी समूह का है, जो ग्लोबल वार्मिग को लेकर सबसे ज्यादा हल्ला करता है। पहाड़ पर नाजायज तरीके से जमीन खरीद कर अपने लिये सुविधाओं को कैद में रखने वालो में रिटायर्ड भ्रष्ट नौकरशाहों से शुरु हुआ यह सिलसिला अब के प्रभावी नौकरशाहों, राजनीतिज्ञों और बिचौलियों की भूमिका निभाकर करोड़ों बनाने वाले से होते हुये तमाम कारपोरेट सेक्टर के प्रभावी लोगो तक जा पहुंचा है। बाहर का व्यक्ति पहाड़ पर सिर्फ सवा नाल जमीन ही खरीद सकता है। जिसकी कीमत तीन साल में दस गुना बढकर 20-25 लाख रुपये हो चुकी है। लेकिन यहां रईसों के औसतन काटेज की जमीन पांच से आठ नाल तक की है। यानी जमीन ही करोड़ों की। चूंकि प्रकृति के बीच में काटेज के इर्द-गिर्द प्रकृतिक जंगल बनाने को ही पूंजी लुटाने का असल हुनर माना जाता है तो कॉटेज की इर्द-गिर्द जमीन पर प्रकृति का जितना दोहन होता है, उसका असर यही हुआ है कि रानीखेत में बीते पांच साल में जितना क्रंकीट निर्माण के लिये पहुंचा है, उतना आजादी के बाद के पचपन सालों में नहीं पहुंचा। इन कॉटेजो के चारों तरफ औसतन 75 से लेकर 160 पेड़ तक काटे गये। और कॉटेज जंगल और हरियाली के बीच दिखायी दे, इसके लिये औसतन 15 से 25 पेड़ तक लगाये गये । अगर इसी अनुपात में सिर्फ रानीकेत को ही देखे तो करीब दस लाख पेड काटकर पैंतालिस हजार पेड लगाये गये। लेकिन पहाड़ों को रईस तबका जिस तेजी से हड़पना चाह रहा है, उसका नया असर पेड़ों का काटने से ज्यादा आसान पूरे जंगल में आग लगाकर पेड खत्म करने पर आ टिका है। खासकर चीड के पेड़ों से निकलने वाले तेल को निकाल कर पेडो को खोखला बनाकर आग लगाने का ठेका समूचे कुमायूं में जिस तेजी से फैला है, उसका असर यही हुआ है कि बीते तीन साल में छोटे-बडे सवा सौ पहाड़ बिक चुके हैं और पहाड़ों को पेड़ों से मुक्त करने के ठेके से लेकर पहाड़ों के अंदर आने वाले सैकड़ों परिवारों को जमीन बेचने के लिये मनाने के ठेके को सबसे मुनाफे का सौदा अब माना जाने लगा है। रईसो के निजी कॉटेज से शुरु हुआ सिलसिला अब पहाड़ों के बीच काटेज बनाकर बेचने के सिलसिले तक जा पहुंचा है।

बिल्डरो की जो फौज जमीन पर घरों का सपना दिखाकर मध्यम तबके के जीवन में खटास ला चुकी है, अब वह भी पहाड़ों पर शिरकत कर रइसों के सपनों को हर कीमत पर हकीकत का जामा पहनाने में जुटा है। और पहाड़ के समाज को तहस-नहस करने पर आ तुला है। जिस तरह सेज के लिये जमीन हथियाने का सिलसिला जमीन पर देखने में या और सैकड़ों सेज परियोजना को लाइसेंस मिलता चला गया, कुछ इसी तर्ज पर पहाड़ों पर बिल्डरों की योजनाओं को मान्यता मिलने लगी है। और पहाड़ी लोगों को मनमाफिक कीमत दी जा रही है, लेकिन इस मनमाफिक रकम की उम्र किसानी और जमीन मालिक होने का हक खत्म कर मजदूर में तब्दील करती जा रही है। सैकड़ों कॉटेज की रखवाली अब वही पहाड़ी परिवार बतौर नौकर कर रहे हैं, जिस जमीन के कभी वो मालिक होते थे । रानीखेत से 40 किलोमीटर दूर भीमताल के करीब एक बिल्डर ने अगर समूचा पहाड़ खरीद कर सवा-सवा करोड के करीब पचास कॉटेज बेचने का सपना पैदा किया है तो अल्मोडा के करीब एक बिल्डर का सपना हेलीकाप्टर से काटेज तक पहुंचाने का है। यानी जहां सड़क न पहुंच सके, उस इलाके के एक पहाड को खरीद कर अपने तरीके से कॉटेज बना कर सवा दो करोड में एक कॉटेज बेचने का सपना भी यहीं बसाया जा रहा है। लेकिन वर्तमान का सच रइसों की सुविधा तले कितने खतरनाक तरीके से पहाड़ों के साथ जीवन को भी खत्म कर रहा है, यह पहाड़ पर कब्जे और काटेज की सुविधा को साल में एक बार भोगने से समझा जा सकता है, जहां कॉटेज का मतलब है दो से तीन लोगों के रोजगार का आसरा बनना और औसतन 25 से 50 लोगों का रोजगार छीनना।

पहाड़ के रईसों के इस जीवन का नया सच यह भी है कि इन काटेज में पंखे भी है और एसी भी। यानी पहाड़ पर जमीन सरीखा जीवन जीने की इस अद्भभुत लालसा का आखिरी सच यह भी है कि पहाड का सुकुन अगर जमीन पर ना मिले तो भी पहाड पर जमीन सरीखा जीवन जीने में हर्ज क्या है। लेकिन संकट पहाड़ को भी जमीन में तब्दील करने पर आ टिका है जो मौत के एक नये सिलसिले को शुरु कर रहा है। क्योंकि पहाड़ पर गर्मी का मतलब जमीन पर आकर रोजगार तलाशना भर नहीं है बल्कि पारंपरिक जीवन खत्म होने पर मरना भी है। पहाड़ पर औसतन जीने की जो उम्र अस्सी पार रहती थी अब वह घटकर सत्तर पर आ टिकी है और बीते साल साठ पार में मरने वाले पहाड़ियों में 18 फीसदी का इजाफा हुआ है। इन परिस्थितियों में आर्थिक सुधार की थ्योरी नयी पीढियों के जरीये अब बुजुर्ग पहाड़ियों की सोच पर आन पड़ी है, जहा पहाड़ी भी मानने लगा है कि सबकुछ खरीदना और मुनाफा बनाना ही महत्वपूर्ण है। त्रासदी यह भी है कि पहाड़ों पर अब जिक्र वाकई दो ही स्लोगन का होता है। पहला , जब सोनिया गांधी कौसानी में अपना काटेज बना सकती है, तो दूसरे क्यों नहीं। और जब सरकार पेड़ काट कर विकास का सवाल उठा सकती है तो जंगल जला कर दुसरे क्यों नहीं। लेकिन पहाड़ों पर बारह महीने सालो साल रहने वाले अब एक ही स्लोगन लिखते है, पेडो को रखे आस-पास,तो ही रहेगी मानसून की आस।

पुण्य प्रसून वाजपेयी

(साभार)

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