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Saturday, June 26, 2010

आसन, भाषण और अब शासन के गुरू - बाबा रामदेव

हमारी एक बड़ी बहन सरीखी मित्र जो एक अच्छी गाइनकोलॉजिस्ट भी हैं, यह बात सत्य है जहां वे अपना चिकित्सालय चलाती है, अधिकतकर बच्चों ने उन्ही के शुभ हाथो से जन्म लिया। उनके अच्छे स्वभाव के कारण युवा से लेकर बुजुर्ग तक बड़ी संख्या में उनके प्रशंसक भी हैं सो उन्होने चुनाव लड़ने का मन बना लिया। एक बड़े राजनैतिक दल ने उनको टिकट भी दे दिया। उन्हे लग रहा था जिले के बड़ी संख्या में उपलब्ध प्रशंसक उनके पक्ष में मतदान कर उन्हे विजय श्री दिलवा देगें। परन्तु ऐसा नही हुआ, चुनाव में उन्हे निराशा हाथ लगी। पिछले लोकसभा चुनाव में आन्ध्र प्रदेश के सिने सुपर स्टर चिरंजीवी को भी कुछ ऐसा ही भ्रम हो गया उन्होने भी पूरे प्रदेश में अपने प्रत्याशी लड़ाये। प्रचार के समय उनकी सभाओं में अप्रत्याशित भीड़ भी उमड़ती थी मानो उक्त प्रदेश की सभी सीटें वे ही जीत रहे हों। विपक्षी दल भी सकते में आ गये। उन्हे भी भ्रम हो गया कि आन्ध्र की राजनीति में चिरंजीवी का एकछत्र राज्य होने वाला है। पर ऐसा नहीं हुआ। सिनेमा प्रेमियों ने भीड़ द्वारा उनका उत्साह तो बढ़़ाया पर वोट नहीं दिये। जनता ने इन्हे भी राजनीति के क्षेत्र में ससम्मान नकार दिया। इसी प्रकार का भ्रम जय गुरू देव को भी हो गया था। प्राप्त परिणाम से उन्हे लगभग ढाई दशक गुमनामी के अंधेरे में रहना पड़ा जब तक उस समय की पीढ़ी विषय को पूरी तरह भूल नहीं गयी। इसी प्रकार न जाने कितने विभिन्न क्षेत्रों में अत्यधिक सम्मान प्राप्त व्यक्तियों ने अपनी लोकप्रियता को मतपेटी तक पहुंचाने का प्रयास किया परन्तु वे असफल ही रहे। व्यक्तिगत स्तर पर तो विभिन्न चुनावों में लड़ने वालो की बाढ़ सी आ जाती है। लगभग हर सीट पर कोई न कोई गैर राजनैतिक व्यक्ति अपना भाग्य आजमाता है। हार या जीत जाने पर पलटकर क्षेत्र का मुंह नहीं देखता। मेगा सुपर स्टार अमिताभ बच्चन से अच्छा उदाहरण और नहीं हो सकता।
वर्तमान में योग गुरू रामदेव जी को भी कुछ उपरोक्त नामी-गिरामी हस्तियों की तरह भ्रम उत्पन्न हो गया। उन्हे लग रहा है वे अपनी लोकप्रियता को राजनैतिक क्षेत्र में भुना सकते है। परन्तु उन्हे यह जानना चाहिए समाज आप के साथ किस विषय पर खड़ा है। स्वामी जी को यह बात भली भॉति समझकर कदम उठाना चाहिए कि जनता किसे प्यार देती है किसे सम्मान और वह किसे नोट देती है और किसे वोट। रामदेवा जी को जानना चाहिए जनता उनके साथ कपाल-भाति मे तो है पर राजनीति में साथ दे ऐसा बिल्कुल भी आवश्यक नहीं।
रामदेव कब स्वामी से लेकर योग गुरू बन गये उनके शब्द, शिक्षा, प्रवचन-भाषणों में परिवर्तित होते चले गये पता हीं नहीं चला। देखते ही देखते हरिद्वार की सड़कों पर साइकिल से चलने वाला एक साधारण व्यक्ति किस प्रकार लगभग 10 वर्षों में करीब सत्तर हजार करोड़ रूपये का स्वामी बन गया। आज स्वामी जी के पास विदेशों में भी अकूत अचल सम्पत्ति है। यह बात सत्य है भारत से विलुप्त हो चुके योग विज्ञान को उन्होने पुनः सार्वजनिक किया। इस विषय पर उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाय कम होगी। परन्तु उसकी आड़ में धन का जो खेल चला वह उनके उक्त सम्मान का कम करता है। योग की कक्षा लगा सिनेमा की तरह श्रेणीगत टिकटों की बिक्री उनकी उक्त लोकप्रियता पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। उनकी यौगिक क्रियाओं की सी0डी0 तथा साहित्य की ऊॅची कीमतों पर बिक्री भी उनके योग व्यवसायीकरण की तरफ इंगित करती है। आज वे नमक, शरबत टूथब्रश तथा अचार सहित विभिन्न छोटी-छोटी दैनिक उपयोग की वस्तुओं की भी बिक्री करने लगे। सुना जा रहा है जल्द ही वे मिनरल वाटर बनाने का भी संयत्र लगाने जा रहे है।
स्वामी जी के योग आसन तथा प्राणायाम के ज्ञान को जनता ने सिर ऑखों पर बैठाया। उनके प्रवचन से लेकर दन्त मंजन तक समाज ने स्वीकार किये। परन्तु राजनीति में भाग्य आजमाने का फैसला उनके लिए निश्चित ही मुश्किले खड़ी करेगी। वे किस प्रकार रजनीति में शुचिता की बात करेंगे। क्या जनता उनसे यह नहीं पूछेगी उनका इतना बड़़ा आर्थिक ताना-बाना किस सामाजिक शुचिता की उपलब्धि है।
स्वामी जी जिस प्रकार बीमारों का इलाज करते-करते भगवा वस्त्रों की आड़ ले राजनैतिक जनसमर्थन प्राप्त करने का प्रयास एवं प्रधानमंत्री पद की लिप्सा पाले अपने जनकल्याण के स्वरूप का व्यापारीकरण एवं अब राजनीतिकरण किया है। समाज सब देख रहा है। जिस तरह बाबा ने वर्ष 2014 में होने वाले आम लोकसभा चुनाव में सभी 542 सीटों पर अपने प्रत्याशी खड़े करने की घोषणा की है। इस प्रकार की घोषणा किसी भी एक व्यक्ति ने पूर्व में भारत के इतिहास में नहीं की। उनकी व्यवस्थित राजनैतिक तैयारियों को देखते हुए ऐसा लगता है उनके पीछे कई बड़े समूह है जो देशी भी हो सकते है तथा विदेशी भी। बाबा की योग कक्षाओ, आयुर्वेदिक दवाओं, दिनचर्या की साधारण वस्तुओं से लेकर योग साहित्य तक की व्यवस्थित मार्केटिंग उक्त शक को और पुख्ता करती है। उक्त व्यवस्था में बाबा के विश्वस्त साथी बालकिशन महाराज जी का नाम आता है। परन्तु मार्केटिंग ऐसे कठिन विषय को महज एक व्यक्ति संचालित कर रहा है, जो समझ से परे है।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय राजनीति में जहॉ काग्रेस पार्टी स्वाधीनता के रथ पर सवार होकर आयी वहीं जनसंघ (वर्तमान भाजपा) ने प्रखर राष्ट्रवाद तथा हिन्दुत्व के साथ राजनीति का दामन पकड़। जय प्रकार प्रकाश नारायण जी ने युवाओं के साथ अपनी राजनैतिक पारी खेली वही कम्युनिस्ट मजदूरों के सहारे राजनैतिक अखाड़े में अपनी उपस्थिति बनाये है। बात एकदम स्पष्ट है हर दल के साथ एक न एक महत्वपूर्ण समाज जुडा है या था। जो उनके आधार मत की तरह हमेशा उनके साथ खड़ा रहा। हर राष्ट्रीय दल का अपना एक गौरवशाली इतिहास है न कि स्वामी रामदेव जी की तरह आसन, भाषण, तथा अन्त में शासन की अभिलाषा वाली सिर्फ बेचैनी।
बाबा रामदेव अपनी योजना भर पूरा प्रयास कर रहे है कि उनकी राजनैतिक पारी की शुरूआत दमदार तरीके से हो। उनसे कोई छोटी सी चूक भी न हो जिसका परिणाम उन्हे भुगतना पड़े। इसीलिए देश में 18 प्रतिशत मुस्लिम मतदाताओं पर उन्होने प्रथम डोरे डालने प्रारम्भ किये। मुस्लिम उलमाओं से सम्पर्क उनकी मुस्लिम घेरे बन्दी का प्रथम चरण था। वैश्विक स्तर पर अपनी कट्टर छवि के लिए मशहूर देवबंद मदरसे में उनका जाना, अपने उद्बोधन का प्रारम्भ कुरान शरीफ की आयातों से करना उनकी राजनैतिक योजना का हिस्सा थी।
इसी वर्ष उनकी एक देशव्यापी आन्दोलन की तैयारी भी है। भारत स्वाभिमान ट्रस्ट जिसकी राजनैतिक इकाई अगला लोकसभा चुनाव लडे़गी। मजे की बात है केसरिया वस्त्र धारण किये स्वामी रामदेव ने अपनी राजनैतिक पार्टी का ध्वज वाहक हिन्दु धर्म को नहीं बनाया है। उन्हे भय है हिन्दू धर्म का विषय आते ही मुस्लिम मतदाता भड़क न जाये।
भारतीय संस्कृति में गुरू के स्थान को ईश्वर से भी उच्च आसन प्रदान किया गया है। वैश्विक योग गुरू के रूप में स्थापित रामदेव जी महाराज स्वयं को गुरू कहलाने में गौरवान्वित महसूस करते है। परन्तु स्वयं उनके गुरू शंकर देव जी कहां हैं। कभी उनके मुंह से अनायास भी नहीं निकलता इस भय से कि कहीं उनकी लोकप्रियता मे वे हिस्सेदार न हो जाये।
एक पुरानी कहावत है तेज दौड़ने वाला व्यक्ति उतनी ही तेजी से गिरता है। ऐसा लगता है मानेा स्वामी जी के साथ भी ऐसा ही कुछ घटित होने वाला है। वास्तव में रामदेव जी की माया का इन्द्रजाल समाप्त होने के कगार पर है। जिसका अन्तिम चरण उनके मन में भ्रम की स्थिति उत्पन्न कर रहा है। रामदेव जी से पहले भी बडे़-बडे़ स्वामी हुए। ओशो रजनीश जिनके पास धन-धर्म तथा समाज का एक बड़ा वर्ग था। उन्होने तो स्वयं को भगवान तक कहला लिया था। महेश योगी जिनका मुख्यालय हालैण्ड में था उनके शिष्यों में रामनाथ गोयनका से लेकर सत्ता के ऊॅचे-ऊॅचे लोग थे। परन्तु इस प्रकार का स्वप्न इन्होने भी नहीं देखा। कर्ण के द्वारा कुण्डल कवच का दान हो या रावण द्वारा सीता माता का छला जाना। भारतीय समाज हमेशा धर्म की ओट में ही ठगा गया है। बाबा राम देव जी ने संत वेश का उपयोग व्यापार में किया जिसे अब राजनीति मे करना चाहते है। जो निन्दनीय है। देश की जनता की परख बहुत तीखी होती है। वह समय आने पर अपना काम अवश्य करती है। आने वाला समय स्वामी जी के दिवास्वप्न को धूलधूसरित करेगा। उनके सफल योग गुरू से सफल व्यापारी उसके बाद उनकी प्रधान मंत्री पद की लालसा उन्हे लोकप्रियता के अन्तिम पड़ाव पर पहुंचा रही है।

राघवेन्द्र सिंह

Friday, June 11, 2010

प्रकाश झा को अब फिल्म नहीं, 'राजनीति' करनी चाहिए...


अगर एक साथ बी आर चोपड़ा की महाभारत, रामानंद सागर की रामायण, मनमोहन देसाई का मसाला और गॉडफादर की झलक देखनी हो तो ‘राजनीति’ देखनी चाहिए...बस यही है कि निर्देशक प्रकाश झा से तीन घंटे के दौरान कम ही भेंट हो पाएगी...बॉलीवुड के एक दर्जन फॉर्मूले को एक साथ पेश करने में ही प्रकाश झा का टाइम पास हो जाता है और फिल्म खत्म हो जाती है....फिल्म में इतनी गुत्थियां हैं कि आप आंखे फाड़े ‘आगे क्या होगा’ के लिए फिल्म देखते जाते हैं और आखिर में होता कुछ नहीं है, बरसों पुरानी परंपरा के तहत सब हीरो-विलेन इत्यादि गोलियां खा-खाकर अपना रोल खत्म करते जाते हैं....बचपन में मां कभी किसी पुराने स्वेटर को उघाड़ने के लिए कहती थी, तो हम बड़े मज़े से ऊन खींचते जाते थे और स्वेटर उघड़ता रहता था...लेकिन, एक जगह ऊन के धागे उलझते तो खीझ कर उलझन भरा गोला मां के हाथों में थमाकर भाग जाते थे खेलने...यही काम प्रकाश झा ने किया...बड़े मज़े से पूरी फिल्म में परतें उघाड़ते रहे और कहानियां उलझाते रहे, लेकिन आखिरी आधे घंटे में दर्शकों से ज़बरदस्ती सीट खाल करवा दी कि जाईए अब क्या बचा है फिल्म में, सब मर जाएंगे, कुछ नया थोड़े ही होना है...आप हिंदुस्तान में हैं और भारत के महाकाव्य महाभारत का एक हज़ारवां रीमेक देख रहे हैं...हम इससे छेड़छाड़ नहीं कर सकते....

दरअसल, मानने को तो ये फिल्म किसी एक सिरे से पकड़ कर समझी जा सकती है....एक मुख्य कहानी है और कई कहानियां (सब-प्लॉट्स) साथ-साथ चलते रहते हैं...पर, ये निर्भर दर्शक पर करता है कि वो मुख्य कहानी किसे मानता है....मान लें कि मुख्य कहानी एक भाई का दूसरे भाई से अटूट प्यार है और लक्ष्मण अपनी (लोग कहते रहे कि ये महाभारत है, मगर हमने रामायण ढूंढ लिया) भक्ति में सब कुछ कुर्बान कर देता है...इस बीच उसे अपने पिता के हत्यारों से बदला भी लेना है और अमेरिका लौट जाना है...इसके इर्द-गिर्द सारी कहानियां रची गई हैं...जैसे, भाई कोई साधारण लोग नहीं हैं, देश के सबसे प्रभावी राजनैतिक खानदान के चिराग हैं...उनके पास गाड़ी है, बंगला है, प्रॉपर्टी है, बैंक बैलेंस है और मां भी है....बस नहीं है तो कुर्सी....तो इस कुर्सी को पाने के लिए उन्हें अपने ही भाईयों से मुकाबला करना है और फिर भाई-भाई-चचेरा भाई-नाजायज़ भाई एक दूसरे से उलझते रहते हैं और स्टार न्यूज़ पर खबर देख-देखकर दांत पीसते रहते हैं...

फिल्म की शुरूआत में ही इतने सारे रिश्तों से दर्शकों का पाला पड़ता है कि आधा घंटा ये समझने में निकल जाता है कि कौन किसका क्या लगता है....फिर, जब तक ये थोड़ा-बहुत समझ आता है, कहानी का रस मिलना शुरू हो जाता है...फिल्म का बीच का हिस्सा बेहद कसा हुआ है और यही वो हिस्सा है जिसकी वजह से राजनीति देखने वालों की तादाद घटी नहीं है...प्रकाश झा कहानी का शिल्प गढ़ने में कितने उस्ताद हैं, यही हिस्सा साबित करता है...एक के बाद एक कहानी इतनी पलटी मारती है कि देखने वाले की आंखें पर्दे से हटती ही नहीं....एक मंच पर मनोज वाजपेयी मुख्यमंत्री की दावेदारी करने के लिए भीड़ जुटा चुके हैं और अचानक अर्जुन रामपाल और उसका मास्टरमाइंड भाई रणबीर कपूर उसी मंच पर प्रकट होकर सारा खेल उलट देते हैं....ये ग़ज़ब का सीन था, जिसमें रणबीर कपूर की अभिनय क्षमता निखर कर सामने आई है...इस फिल्म की सबसे बड़ी खोज रणबीर ही हैं, जिन्हें प्रकाश झा ने तराश कर हीरा कर दिया है । इस फिल्म के बाद से रणबीर कपूर किसी फिल्म में अकेले हीरो हुए तो भी पैसा लगाने की आप सोच सकते हैं। ये गलती कैटरीना कैफ पर मत कीजिएगा..कतई नहीं। प्रकाश झा जैसे ठेठ बिहारी भी कैटरीना से हिंदी नहीं बोलवा सके तो उसका कुछ नहीं हो सकता...प्रकाश झा ने उन्हें क्यों अपनी फिल्म में लिया, समझ में नहीं आता। अगर खानदान की बहू का राजनीति मे मज़बूती से उभरना सोनिया गांधी से मिलता हुआ दिखाने के लिए किया गया तो उतनी देर के लिए ठीक था। लेकिन, बाक़ी फिल्म सिर्फ इसी एक वजह से उन्हें दी गई, ये तो गलत है। कोई गधी भी उनसे बेहतर एक्टिंग कर सकती थी। इतने बढ़िया डायलॉग रट-रट कर जब कैटरीना बोल रही थीं तो रणबीर तो इंकार हीं करेंगे ना। हमें तो कैटरीना के सीरियस सीन देखकर भयंकर हंसी आ रही थी। यही गलती अर्जुन रामपाल को लेकर भी हुई है....उनकी जगह कोई और होता तो भी फिल्म चलनी ही थी। एक झबरीले बाल वाला फैशनेबल-सा, छिछोरा-सा नेता किस राज्य का मुख्यमंत्री बन सकता है, प्रकाश झा ही जानते होंगे । अच्छे सीन्स भी मार दिये हैं अर्जुन रामपाल ने। जब पार्टी कार्यकर्ता टिकट के लिए अर्जुन रामपाल से संबंध बनाती है तो संबंध बनाने के बाद अर्जुन एक सीरियस डायलॉग बोलते हैं, राजनीति कोई पब्लिक ट्रांसपोर्ट की बस नहीं, जो हर कोई सवार हो जाए….साफ दिखता है कि रट्टा मारकर बोल रहे हैं, मज़ा ही नहीं आता। कुछ ब्लॉग्स पर अर्जुन रामपाल को युधिष्ठिर बताया गया है। भाईयों के क्रम की वजह से ऐसा मानना गुनाह नहीं है, मगर अर्जुन अय्याश भी है और क़ातिल भी, फिर युधिष्ठिर कैसे हो सकते हैं, समझ नहीं आता।
अगर महाभारत से प्रेरणा की बात है, तो सिर्फ कुंती और कर्ण ही मुझे ढूंढने से मिलते हैं। कुंती और कर्ण का एक बोरिंग सीन भी है आखिर में, बिल्कुल ज़बरदस्ती का । सदियों से फिल्मी मां जो करती आई है, वही कुंती भी करती है। अपने बेटे को इमोशनली ब्लैकमेल करने की कोशिश करती है, मगर नाजायज़ बेटा मां..मां...मां....कहने के बजाय पलटकर चला जाता है। ये कर्ण अजय देवगन बने हैं, जो पूरी फिल्म में एंग्री यंग मैन बने फिरे हैं..एक कबड्डी चैंपियन अचानक दलित नेता बन जाता है और फिर बस्ती का भला करने के बजाय अपने ‘पॉलिटिकल गॉडब्रदर’ यानी मनोज वाजपेयी यानी दुर्योधन के तलवे चाटता रहता है। अजय देवगन का गुस्सा फिज़ूल का दिखता है। दलित नेता शोषित है, तो चेहरा हमेशा तना ही रहेगा, ये कोई ज़रूरी थोड़े ही है।

यहीं पर आकर प्रकाश झा फिल्म को क्लासिक होने से बचा लेते हैं। एक मसाला फिल्म की तरह गोलियों से सब एक-दूसरे को निढाल करते रहते हैं और हीरो को कुछ नहीं होता। नाना पाटेकर मामाजी के रोल में एकदम फिट हैं...उन्हें शकुनी छोड़कर कृष्ण मानने का मन तब तक नहीं होता जब आखिर में वो रणबीर यानी महाभारत के हिसाब से अर्जुन को अंग्रेज़ी में गीता का उपदेश देते हैं कि ‘कम ऑन, शूट दुर्योधन’....

इस फिल्म में द्रौपदी भी है, जिसके दो पुरुष हैं...एक रणबीर कपूर जो उसका हो नहीं पाता और दूसरा अर्जुन रामपाल जो रणबीर का बड़ा भाई है। सिंदूर लगाकर कैटरीना भारतीय बनने की पूरी कोशिश करती हैं, मगर मुंह खुलते ही दर्शक गला फाड़कर हंसता है। अचानक अपना पहला प्यार छोड़कर पति परमेश्वर से इमोशनली जुड़ने में कैटरीना को पंद्रह मिनट भी नहीं लगते और बिस्तर पर अर्जुन रामपाल और कैटरीना होते हैं तो दर्शक आवाज़ लगाते हैं- इसे भी मिल गया टिकट...

फिल्म की कहानी में विदेशी लड़की सारा क्यों आती है, मैं अब तक सोच रहा हूं। मुझे लगा कि वो आखिर में विदेशी बहू का मुद्दा बनकर राजनीति को सार्थक करेगी, मगर वो तो पहले ही ढेर हो जाती है। इस फिल्म में भारत का राजनैतिक इतिहास कई बार झांकी दिखाता है, जब बम धमाके में या गोली खाकर देश के बड़े लीडर जान गंवाते हैं। लेकिन, इससे आगे राजनीति में कुछ भी राजनैतिक नहीं है। सब कुछ एकता कपूर के सीरियल की तरह मसालेदार है, जो देखने में तो अच्छा लगता है, मगर प्रकाश झा के निर्देशन में देखना पचता नहीं है। कहीं-कहीं भारी-भरकम शब्दों को डायलॉग का हिस्सा बनाना भी नहीं जंचा, वो भी तब जब कैटरीना जैसी हीरोइन को मुंह खोलना हो। 21वीं सदी की कुंती कर्ण से कहेगी कि तुम मेरे ज्येष्ठ पुत्र हो कर्ण तो कौन कर्ण इस संवाद को सच मानेगा....एकाध मिनट का आइटम सांग प्रकाश झा ने फिल्म में क्यों डाला, पता नहीं। उसका न तो फिल्म की कहानी से कोई लेना-देना था, न गाने के बोल से।

सबसे मज़ेदार है कर्ण यानी अजय देवगन का राज़ खुलना कि वो किसी और की औलाद है। पालने वाली मां ने 30 सालों तक वो लाल कपड़ा साफ-सुथरा, नया—नवेला ही रखा जिसमें उसे बच्चा नदी में मिला था। ये सबूत तो मनमोहन देसाई से भी आगे की सोच निकला।

मनोज वाजपेई का अभिनय ज़बरदस्त है। वो पक्के दुर्योधन लगते हैं, लेकिन उनके सामने पांडव कहीं नहीं हैं। वो सब छोटे दुर्योधन हैं...कोई विधानसभा टिकट देने के नाम पर लड़की को सुला रहा है तो कोई रिमोट से कार उड़ा रहा है। मज़े की बात है कि दर्शक कहीं बोर नहीं होता। उसे वो सब कुछ मिलता है, जो एक फिल्म में वो ढूढता है। तीन-चार बेडसीन, पचास ग्राम आइटम सांग, भयंकर मारपीट और कैटरीना कैफ। ये फिल्म बिना किसी सोच के साथ देखने जाएं तो भरपूर मनोरंजन होगा। नसीरुद्दीन शाह एक सीन के लिए आते हैं और वो निशानी छोड़कर जाते हैं कि पूरी फिल्म बन जाती है। एक खूबसूरत डायलॉग भी उनके हिस्से आया है, जो पूरी फिल्म का सबसे साार्थक डायलॉग है 'भीड़ की तरफ जो भी दो रोटियां फेंकेगा, वो उसी का झंडा उठा लेगी'
प्रकाश झा खुद भी चुनाव लड़ चुके है और हार भी चुके हैं. ज़ाहिर है, राजनीति को रसीला बनाने में उनके खट्टे अनुभव भी काम आए होंगे। मगर, क्या भारतीय राजनीति सचमुच हिंसा और पारिवारिक दुश्मनी के आगे कुछ भी नहीं है। अगर ऐसा है भी तो प्रकाश झा को फिल्मकार की हैसियत से एक ज़िम्मेदारी भरा अंत ढूंढने की कोशिश करनी चाहिए थी, जैसा अंकुर में श्याम बेनेगल करते हैं। इतने उम्दा निर्देशक से इतनी अपेक्षा तो की ही जा सकती है। उनसे तो ये भी अपेक्षा है कि जिस भोपाल में इस फिल्म की शूटिंग हुई है,(पर्दे पर सबसे पहले भोपाल और एमपी की जनता को शुक्रिया करता हुआ संदेश आता है) उसी भोपाल के गैस हादसे पर भी एक फिल्म बनाएं और दर्शकों को बताएं कि कैसे हम गुलामी के बेहद करीब हैं..प्रकाश झा ऐसा कर सकते हैं।

निखिल आनंद गिरि