अमृत उपाध्याय बिहार के आरा से ताल्लुक रखते हैं....2005 से दैनिक प्रभात खबर में रिपोर्टिंग शुरू की, फिर एनडीटीवी में हाथ आज़माने के बाद निजी खबरिया चैनल महुआ न्यूज में बतौर एंकर/रिपोर्टर नौकरी निभा रहे हैं...बैठक पर आने का मन बहुत पहले बना चुके थे, फुरसत अब मिली है...बतौर पहला लेख एक मीठी-सी याद हमें भेजा है...आइए, उनकी चिट्ठी पढें
मेरे एक सहयोगी राकेश पाठक के पास स्याही वाली कलम है, जिससे वो सिग्नेचर किया करते हैं...मुझे बड़ा अच्छा लगता है, जब वो अपनी कमीज की जेब से कलम निकालते हैं और बड़ा सहेजकर उसे रखते हैं फिर, ये कलम उनके पिता जी ने दी थी। मुझे भी याद है पापा जो कलम देते थे मुझे, मैं भी सहेजकर रखा करता था और अक्सर उसी से अखबारों पर अपने शौक को पूरा किया करता था सिग्नेचर करके...कोई वजह तो नहीं थी हस्ताक्षर करने की, लेकिन किसी रद्दी जगह कई हस्ताक्षर करके भविष्य के सपने गढ़ा करता था मैं भी। और कलम का इस्तेमाल होता ही क्या था बचपन में.....बचपन से ज्यादा पाला तो नहीं पड़ा, फिर भी बचपन मतलब, जब छठी या सातवीं में पढ़ रहा था, तब चिट्ठियां लिखा करता था मैं....चिट्ठियों का सिलसिला चलता था तब...और फॉरमेट बिल्कुल तय था, 'पूज्य' से कहानी शुरू होती थी और 'पत्र के इंतजार में आपका फलां’ पर जाकर खत्म हो जाती थी...और हां दूसरी लाइन में होता था 'मैं यहां ठीक हूं आप सब कैसे हैं.... इसके बाद फिर शुरू हो जाता था हर शख्स की अलग-अलग खैरियत पूछने का सिलसिला...'फलां दीदी कैसी है..फलां चाचा कैसे हैं' वगैरह वगैरह...फिर पैरा चेंज के बाद 'यहां फलां ठीक हैं, भैया की पढ़ाई ठीक चल रही है...और सब लोग आप सब को याद करते हैं',....फिर अंतिम में 'जल्दी आइएगा' के बाद 'पत्र के इंतजार में' के साथ आपका के आगे रिश्ते का संबोधन..अब सोचने पर हंसी तो आती है लेकिन अफसोस भी होता है चिट्ठी नहीं लिख पाने का अब...कभी-कभार सोचता हूं, लिखूं चिट्ठी फिर से, लेकिन फिर सोचता हूं किसे...चिट्ठी लिखने को मैं मिस करता हूं आजकल....और स्याही वाली कलम को भी....पहली दफा जब टेलीफोन का दर्शन हुआ था तो घंटो लग जाते थे एसटीडी कॉल लगाने के लिए....उस समय कोई सूचना नहीं मिल पाती थी, जैसे आज मिल जाती है तुरंत, नॉट रीचेबल या फिर स्विच्ड ऑफ टाइप से। एसटीडी कॉल रेट महंगा होने और नेटवर्क की परेशानियों की वजह से चिट्ठियों का दौर बदस्तूर जारी रहा था...खूब चिट्ठी लिखा करते हम सब..और चिट्ठियों में अतिक्रमण भी खूब हुआ करता था, दीदी और भैया की चिट्ठी में सेंध मार कर कुछ अपनी तरफ से लिखने की फिराक होती थी तो अपनी चिट्ठी में किसी को लिखने देने में खीझ होती...मसलन एक ही चिट्ठी में पता चला कि भैया-दीदी ने भी लिख दिया और फिर मम्मी ने भी लिख दिया...और हां, डाकिए की आवाज़ बचपन में भावुकता के स्तर तक जेहन में समा जाती है...हमारी अगली पीढ़ी को तो शायद नसीब ही ना हो अब...लेकिन डाकिये का हांक लगाना और उसके पीछे हमारा इंतजार, चिट्ठी किसकी है ये जानने की और उसे जल्दी से खोल कर पढ़ लेने की उत्सुकता...कम्यूनिकेशन के नए जरिए आते गए और हमारे जेहन में चिट्ठियां बस यादें भर बन के रह गईं...और अब कलम की भी जरूरत कहां पड़ती है ज्यादा...कंप्यूटर पर उंगुलियां ठकठकाते रहने की आदत जो पड़ गई....लेकिन सचमुच बहुत याद आता है जब किसी की जेब में नई कलम देखकर ललचा जाता था मन, जब स्याही वाली कलम से सुंदर और मोती जैसे अक्षर उतारते थे मास्टर साहब, और जब उन्हीं अक्षरों से सजाकर खूबसूरत चिट्ठियां लिखने के दौरान कई दफे कागज फाड़ देते हम..सिर्फ इसलिए कि राइटिंग ठीक नहीं बैठी थी उन चार पंक्तियों में....स्याही वाली कलम की चर्चा आज ही हो रही थी सुबह, मेरे सहयोगी आलोक के साथ...तो यादें ताजा हो गईं जेहन में दबी हुईं थी जो...बचपन,कलम और चिट्ठियों की...और पापा की यादें जिनकी हैंडराइटिंग की नकल करके मैं स्याही वाली कलम से पोस्टकार्ड लिखने की कोशिश करता रहा था उन दिनों....
अमृत उपाध्याय
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8 बैठकबाजों का कहना है :
मेरे बचपन में तो स्याही वाली कलम थी..उसके बाद जाने कहां चली गई....चेलपार्क और कैमल जैसे इंक भी हुआ करते थे.....चिट्ठियां तो मैंने 2005-06 तक लिखी है, फिर अचानक ई-चिट्ठी लिखने की आदत पड़ गई तो वो आदत कम हो गई है.....हालांकि, अब भी लिखने का मन बहुत करता है.....आपके पोस्ट ने पुराने दिन याद दिला दिए....
पोस्ट ने कई पुरानी परते खोल दी एक जब मेरे पापा बाहर काम करते थे और खत में मेरे हाल-चाल के बारे में पूछा करते थे और दूसरा वो चिटिठयां जो मैं अपनी डायरी में उन तमाम लोगों को लिखा करती थी जिनसे खुद कुछ कह नहीं सकती थी। जैसे मम्मी आप बहुत अच्छी हो लेकिन आपने मुझे नया बैग मांगने पर डांटा क्यूं?? सच में आच भी पेंसिल से लिखी हुई वो चिटिठ्यां जिनमें शायद हर शब्द पर गलत मातरा चढ़ी हुई है पोस्ट होने की बांट जो रही है औऱ ये शिकायत आज भी ज्यों की त्यों बनी हुई है। खैर संपादक जी ने अच्छी पोस्ट को अच्छी फोटो से और भी सुंदर बना दिया है।
राकेश पाठक के लिए पिता की दी हुई कलम का महत्व कितना है.. मुझे भी बखूबी मालूम है.. लेकिन आपकी प्यार भरी चिट्ठी ने तो वाकई पुरानी यादें ताज़ा कर दी.. भाई साहब मैं तो ऐसा चिट्ठीकार था.. कि पहली चिट्ठी का जवाब बाद में ता... मैं उसकी रिमाइंडर चिट्ठी पहले लिख देता था.. कुछ इस तरह... आपको मेरी पहली चिट्ठी भी मिली होगी.. आपका जवाब नहीं मिला तो सोचा एक बार और आपसे बात करूं.. 10 पैसे के पोस्टकार्ड से शुरू किया था.. अब तो ये भी नहीं पता कि कितने का आता है... और मज़ेदार ये कि अंतर्रदेशीय पत्र का वो नीला रंग और उसनमें एक साथ कई लोगों की अलग-अलग लिखी बातें.. आज भी इंतज़ार रहता है सच.. विषय बहुत अच्छा चुना आपने.. कुछ गुदगुदाती यादें हमेशा रहती हैं.. अब तो सवाल ये भी आता है ज़ेहन में कि कि क्या आज से 10-15 साल पहले पैदा हुए बच्चे और आगे आने वाला नेक्ट जेनरेशन चिट्ठियों की चर्चा करने की हालत में भी होगा क्या?
चिठ्ठियां लिखनेका एक अनोखा ही आनंद था!...तब अक्षरों की सुंदरता पर कितना ध्यान दिया जाता था!... लिफाफों के रंगों पर ध्यान दिया जाता था!... फिल्म 'सरस्वतिचंन्द्र' का वह गीत... फूल तुम्हे भेजा है खतमें...कितना लोकप्रिय हुआ था!... चिठ्ठी के इंतजार में डाकिए की अहमियत कितनी बढी हुई थी!...आएगी जरुर चिठ्ठी मेरे नाम की, तब देखना.. गीत गाते हुए आंसू बहाती नायिका!
अमृतजी ने एस.एम.एस और ई-मेल के भीड भडाके में चिठ्ठी की याद ताजा की है, धन्यवाद!
राकेश तिवारी जी की बात अको आगे बढ़ाता हूँ।
दूरदर्शन पर जो सीरियल आते थे उनमें आखिर में एक सवाल पूछा जाता था। ये बात १९९० के बाद की है। और जवाब हम पोस्टकार्ड से भेजा करते थे। चिट्ठी मैंने देखी है पर लिखी कभी नहीं। दिल्ली जैसे शहर में जन्म लेने का एक खामियाजा यह भी है.. :-)
लेकिन पोस्टकार्ड का इस्तेमाल खूब किया। पापा पोस्ट-ऑफ़िस से ढेर सारे पोस्टकार्ड एक साथ ले आते थे और हम जवाब लिख कर दूरदर्शन भेजते थे।
अब १० पैसे के पोस्टकार्ड की जगह ३ या छह रूपये के एस.एम.एस. ने ले ली है... पर अब मैं एस.एम.एस नहीं करता। रीयलिटी शो इनसे पैसे बनाने लगे हैं..सारा मजा किरकिरा हो चुका है.. अब न पोस्टकार्ड कर पाते हैं..और न ही एस.एम.एस... वाह री किस्मत!!!
ये आलेख बहुत से लोगों की कहानी है। आज सब कुछ सपना सा लगता है मै तो आज भी कभी कभार अपने लेखक भाईयों को खत लिख्ती हूँ। एक दो तो ऐसे हैं जोखत न लिखने पर नाराज़ होते हैं और फोन पर बात नही करते जब तक पोस्ट कार्ड उन्हें न मिले और दूर दराज के लेखक आपसी संवाद के लिये आज भी पोस्ट कार्ड का प्रयोग करते हैं मगर ये सब उन तक ही महफूज़ रहेगा। उसके बाद तो बच्छों को पता ही नही होगा कि पोस्ट कार्ड क्या हैं। धन्यवाद इस आलेख के लिये।
मैं क्या बोलु...कुछ समझ में नहीं आ रहा है...मैं बस इतना ही कहूंगा...हमने कभी चिट्ठी के बारे में जाना ही नही...क्योंकि हमें इसकी कभी भी जरुरत ही नहीं पड़ी...क्योंकि हम मां-पापा सब एक साथ ही रहते थे...पापा का घर से कुछ दुरी पर ऑफिस था...पापा रोज सुबह जाते और शाम को घर आ जाते...तो इतने देर के फासले में भला चिट्ठी का क्या काम...हां लेकिन जब कभी किसी की पड़ोस में चिट्ठी आती थी तो बड़ी उत्सुकता रहती थी कि ये जानने की चिट्ठी कहां से आई है और कितने दिन में पहूंची है...हम गांव के लड़को के हाथ में जब चिट्ठी आता था तो सब सबसे पहले दिनांक देखते थे...किसी दिनांक का मोहर उस पर लगा हुआ है...जहां से ये चिट्ठी चली है...पता चलता कि भजने वाले ने ये चिट्ठी एक महीने पहले भेजी है...और एक महीने से डाक बाबू के बक्से में पड़ी हुई थी...तब जाकर उनका मन हुआ देने का तो चले आते थे देने के लिए...हां एक बात थी किसी का मनिऑडर आता था तो थोड़ा जल्दी पहूंचा दिया करते थे क्योंकि मनिऑडर देने पर उनको कुछ सलामी जो मिल जाता था...
वाकई..कभी बंडल में पिरोकर रखी हुई चिट्ठियां जाने कहां गुम हो गई है..खैर-खबर के साथ-साथ प्यार,खिसियाहट समेटे उन भावनाओं को कितनी खामोशी से समझ लिया जाता था...जाने कहां गए वो दिन...
पूजा मिश्रा
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