Wednesday, December 09, 2009

सवाल मानसिकता बदलने का है

बड़ी अजीब बात है। जलवायु परिवर्तन पर पूरी दुनिया की परेशानियां बढ़ती जा रही हैं। परेशानी ये है कि पहली बार एक ऐसी बात पर लोगों को अपना पैसा, समय और दिमाग़ ख़र्च करना पड़ रहा है जिससे कोई फ़ायदा नहीं उठाया जा सकता। वरना हर चिंता और हर फ़िक्र को धंधे में बदल देना हमारे बाएं हाथ का खेल है। बीमारी, लाचारी, धर्म, मजबूरी और सुकून की चाह, हर चीज़ का कारोबार करना और उससे मुनाफ़ा कमा लेना हमें अच्छी तरह आता है। लेकिन दुनिया का गर्म होना एक ऐसा मुद्दा है जो कारोबर नहीं बन पा रहा है, उल्टे संयम बरतने पर मजबूर कर रहा है।
हमारे देश की संसद भी बेवक़्त थोपी गई लिब्राहन रिपोर्ट से कुछ वक़्त निकालकर अगर दुनिया बचाने की इस मुहिम में शामिल होती है तो महज़ इतना कर पाती है कि हमारे सांसद और सियासी पार्टियों का विरोध दर्ज कर ले। दुनिया के मंच पर हम जैसे ही इस बात का ऐलान करते हैं कि 2020 तक हम कार्बन उत्सर्जन में 20-25 प्रतिशत की कमी लाने की कोशिश करेंगे, एक कोहराम मच जाता है। राज्य सभा में हंगामा और वॉक-आउट करके नाराज़गी जताई जाती है। विपक्ष का इल्ज़ाम है कि सरकार अमरीकी दबाव में झुक कर ये बयान देने पर मजबूर हुई है।
सवाल ये है कि क्या हमारे पास इतना वक़्त है कि हम इस घोषणा को सियासी चश्में से देखें। कोपेनहेगन में जलवायु परिवर्तन पर हो रहे सम्मेलन के मौक़े पर एक एतिहासिक क़दम उठाते हुए 45 देशों के 56 अख़बारों ने एक संयुक्त संपादकीय लिखा है। ज़ाहिर है कि इस संपादकीय में गर्म होती दुनिया के ख़तरे और उससे वक़्त रहते निपटने के लिए पूरी मानवता द्वारा क़दम उठाने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया गया है। आजतक कभी ऐसा नहीं हुआ कि पूरी दुनिया के अख़बार किसी एक विषय पर इस तरह से एक आवाज़ बने हों। इस संपादकीय को जलवायु परिवर्तन से उपजी आशंकाओं पर एक सार्थक दस्तावेज़ माना जा सकता है। वक्त बहस और मुबाहिसे का नहीं है। इस संपादकीय की शुरूआत में ही ये कह दिया गया है कि “इस विषय पर वैज्ञानिक-पत्रिकाओं में पहले भी चर्चा होती रही है कि सारी गड़बड़ी इंसानों की ही की हुई है यह शताब्दियों की गड़बड़ी का नतीजा है और इसके अपने आप ख़त्म होने की संभावना बिलकुल नहीं है। लेकिन अब मुद्दा यह नहीं है। अब चर्चा का विषय यह है कि हमारे पास अब इस मुसीबत से बचने के लिए कितना वक़्त रह गया है।”
ऐसे हालात में हमारी संसद में नेता प्रतिपक्ष का ये कहना कि कार्बन कटौती का हमारा एक तरफा फैसला गलत है “हमने अपने पत्ते खोलकर गलत किया है...”, निराशाजनक है। एक तरह से ये चिंता ठीक भी है कि हमें अंतर्राष्ट्रीय मंच पर किसी दबाव में आकर वो फैसले नहीं करने चाहिए जो देश के विकास में बाधा डालते हों, क्योंकि विकासशील देशों की अपेक्षा विकसित देशों ने ज्यादा खतरनाक माहौल बनाया है और उन्हें अब इस असुरक्षा से दुनिया को बचाने में भी ज्यादा बड़ी भूमिका भी निभानी चाहिए। जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर पिछली तमाम कोशिशों में ये भी देखने को मिला है कि विकसित देश किसी न किसी बहाने के आधार पर अंकुश की बाध्यता से बच निकलने में कामयाब होते रहे हैं, लेकिन अब गर्म होती दुनिया किस ख़तरनाक मोड़ पर आकर खड़ी हो गई है इसका अंदाज़ा अमरीकी सरकार के उस बयान से लगाया जा सकता है जिसमें पहली बार आधिकारिक तौर पर ये मान गया है कि ग्रीन हाउस गैसें इंसान की सेहत के लिए बेहद ख़तरनाक हैं। ये भी माना जा रहा है कि इस घोषणा के बाद बराक ओबामा बिना सीनेट की मंज़ूरी लिए कार्बन उत्सर्जन में कटौती का निर्देश जारी कर सकते हैं।
सोचिये अगर अमरीकी सीनेट में भी कोई यही कहकर ओबामा का रास्ता रोक लेता कि इस तरह अपने पत्ते खोलकर अमरीका ठीक नहीं कर रहा है क्योंकि अब इसी आधार पर उसे आगे बढ़ना होगा लिहाज़ा अमरीका को इस बाध्यकारी समझौते से बचना चाहिये था।
लेकिन हालात के मद्देनज़र अमरीकी सरकार ने ये पहल की है और उसका ये क़दम स्वागत के क़ाबिल है। 56 अख़बारों के संयुक्त संपादकीय में आगे लिखा गया है कि “दिक्क़त यह है कि विकसित या संपन्न देश जलवायु परिवर्तन पर होने वाली बहसों में वर्तमान आंकड़े पेश करने लगते हैं और कहते हैं कि विकासशील देशों को चाहिए कि वे अपना गैस उत्सर्जन कम करें, या एक बहस ये होने लगती है कि अमरीका और चीन आज की तारीख में सबसे ज्यादा प्रदूषण कर रहे हैं, उन्हें इस पर रोक लगाना चाहिए। सबको मालूम है कि इनमें से कोई भी बात स्वीकार नहीं होने वाली है। ये भी सबको मालूम है कि १८५० से अब तक जितना भी कार्बन डाई आक्साइड वातावरण में छोड़ा गया है उसका तीन चौथाई विकसित और औद्योगिक देशों की वजह से है। इसलिये विकसित देशों को पहल करनी पड़ेगी कि वे ऐसे उपाय करें कि अगले १० वर्षों में गैसों का उत्सर्जन स्तर ऐसा हो जाए जो १९९० तक था”।
हमारे नेताओं को और वार्ताकारों को ये समझना चाहिये कि जलवायु पर उठी चिंताएं अब बहस से आगे निकलकर यथार्थ के धरातल पर खड़ी हैं। इसके लिए पूरी दुनिया के साथ-साथ हमें भी संयम बरतना पड़ेगा। अगर भारत 20-25 फीसदी कटौती की अपनी तरफ़ से पेशकश कर रहा है तो ये भी अमरीकी सरकार की घोषणा की ही तरह स्वागत येग्य है। इस पहल को सियासी रंग नहीं दिया जाना चाहिए। एक सुनामी का कहर हम देख चुके हैं। वो जब आयेगी तो बस फिर आयेगी, दुनिया की कोई भी ताकत उसे नहीं रोक पायेगी, इसलिए हम सिर्फ यही कर सकते हैं कि उन लक्षणों को कम कर दें जो सुनामी जैसी स्थितियों के लिए मददगार होते हैं। इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर जागरूकता फैलानी होगी। व्यक्तिगत तौर पर भी बहुत सी ऐसी सावधानियां बरती जा सकती हैं जो कार्बन उत्सर्जन में बड़ी कटौती कर सकती हैं। एडस और कैंसर जैसी बीमारियां सिर्फ उनके लिए घातक हैं जिन्हें ये बीमारियां घेर लेती है लेकिन जलवायु में फैल रही गंदगी किसी को भी, कहीं भी चपेट में ले सकती है। इसलिए कोपेनहेगन में बिताए जा रहे 14 दिनों के बाद नतीजे अगर सकारात्मक न भी निकलें तो भी हमें अपने तौर पर कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने की अपनी प्रतिबद्धता से पीछे नहीं हटना चाहिए। सवाल मानसिकता बदलने का है।

--नाज़िम नक़वी

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बैठकबाज का कहना है :

मनोज कुमार का कहना है कि -

हमारे नेताओं को और वार्ताकारों को ये समझना चाहिये कि जलवायु पर उठी चिंताएं अब बहस से आगे निकलकर यथार्थ के धरातल पर खड़ी हैं। इसके लिए पूरी दुनिया के साथ-साथ हमें भी संयम बरतना पड़ेगा।
मैं सहमत हूं।

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