Saturday, March 27, 2010

इंडिया बनाम भारतवर्ष

~शंकर शरण

अंग्रेजी कहावत है, नाम में क्या रखा है! लेकिन दक्षिण अफ्रीका में यह कहने पर लोग आपकी ओर अजीब निगाहों से देखेंगे कि कैसा अहमक है! पिछले कुछ महीनों से वहां के कुछ बड़े शहरों, प्रांतों के नाम बदलने को लेकर देशव्यापी विवाद चल रहा है। प्रीटोरिया, पॉटचेफ्स्ट्रोम, पीटर्सबर्ग, पीट रेटिफ आदि शहरों, प्रांतों के नाम बदलने का प्रस्ताव है। तर्क है कि जो नाम लोगों को चोट पहुंचाते हैं, उन्हें बदला ही जाना चाहिए।
यह विषय वहां इतना गंभीर है कि साउथ अफ्रीका ज्योग्राफीकल नेम काउंसिल (एसएजीएनसी) नामक एक सरकारी आयोग इस पर सार्वजनिक सुनवाई कर रहा है। प्रीटोरिया का नाम बदलने की घोषणा हो चुकी थी। किसी कारण उसे अभी स्थगित कर दिया गया है। प्रीटोरिया पहले त्सवाने कहलाता था जिसे गोरे अफ्रीकियों ने बदल कर प्रीटोरिया किया था। त्सवाने वहां के किसी पुराने प्रतिष्ठित राजा के नाम से बना था जिसके वंशज अभी तक वहां हैं।
इस प्रकार नामों को बदलने का अभियान और विवाद वहां लंबे समय से चल रहा है। पिछले दस वर्ष में वहां 916 स्थानों के नाम बदले जा चुके हैं। इनमें केवल शहर नहीं; नदियों, पहाड़ों, बांधों और हवाई अड्डों तक के नाम हैं। सैकड़ों सड़कों के बदले गए नाम अतिरिक्त हैं। वहां की एफपीपी पार्टी के नेता पीटर मुलडर ने संसद में कहा कि ऐतिहासिक स्थलों के नाम बदलने के सवाल पर अगले बीस वर्ष तक वहां झगड़ा चलता रहेगा। उनकी पार्टी और कुछ अन्य संगठन प्रीटोरिया नाम बनाए रखना चाहते हैं।
इसलिए नाम में बहुत कुछ है। यह केवल दक्षिण अफ्रीका की बात नहीं। पूरी दुनिया में स्थानों के नाम रखना या पूर्ववत करना सदैव गंभीर राजनीतिक और सांस्कृतिक महत्त्व रखता है। जैसे किसी को जबरन महान बनाने या अपदस्थ करने की चाह। इन सबका महत्त्व है जिसे हल्के से नहीं लेना चाहिए। इसीलिए कम्युनिज्म के पतन के बाद रूस, यूक्रेन, मध्य एशिया और पूरे पूर्वी यूरोप में असंख्य शहरों, भवनों, सड़कों के नाम बदले गए। रूस में लेनिनग्राद को पुन: सेंट पीटर्सबर्ग, स्तालिनग्राद को वोल्गोग्राद आदि किया गया। कई बार यह सब भारी आवेग और भावनात्मक ज्वार के साथ हुआ। हमारे पड़ोस में भी सीलोन ने अपना नाम श्रीलंका और बर्मा ने म्यांमा कर लिया। खुद ग्रेट ब्रिटेन ने अपनी आधिकारिक संज्ञा बदल कर यूनाइटेड किंगडम की। इन सबके पीछे गहरी सांस्कृतिक, राजनीतिक भावनाएं होती हैं।
हमारे देश में भी शब्द और नाम गंभीर माने रखते हैं। अंग्रेजों ने यहां अपने शासकों, जनरलों के नाम पर असंख्य स्थानों के नाम रखे, कवियों-कलाकारों के नाम पर नहीं। फिर, जब 1940 में मुसलिम लीग ने मुसलमानों के अलग देश की मांग की और आखिरकार उसे लिया तो उसका नाम पाकिस्तान रखा। जैसा जर्मनी, कोरिया आदि के विभाजनों में हुआ था- पूर्वी जर्मनी, पश्चिमी जर्मनी और उत्तरी कोरिया, दक्षिणी कोरिया- वे भी नए देश का नाम ‘पश्चिमी भारत’ या ‘पश्चिमी हिंदुस्तान’ रख सकते थे। पर उन्होंने अलग मजहबी नाम रखा। इसके पीछे एक पहचान छोड़ने और दूसरी अपनाने की चाहत थी। यहां तक कि अपने को मुगलों का उत्तराधिकारी मानते हुए भी मुसलिम नेताओं ने मुगलिया शब्द ‘हिंदुस्तान’ भी नहीं अपनाया। क्यों?
इसलिए कि शब्द कोई उपयोगिता के निर्जीव उपकरण नहीं होते। वे किसी भाषा और संस्कृति की थाती होते हैं। कई शब्द तो अपने आप में संग्रहालय होते हैं, जिनमें किसी समाज की सहस्रों वर्ष पुरानी परंपरा, स्मृति, रीति और ज्ञान संघनित रहता है। इसीलिए जब कोई किसी भाषा या शब्द को छोड़ता है तो जाने-अनजाने उसके पीछे की पूरी अच्छी या बुरी परंपरा भी छोड़ता है। इसीलिए श्रीलंका ने ‘सीलोन’ को त्याग कर औपनिवेशिक दासता के अवशेष से मुक्ति पाने का प्रयास किया। हमने वह आज तक नहीं किया है।
सन 1947 में हमसे जो सबसे बड़ी भूलें हुईं उनमें से एक यह थी कि स्वतंत्र होने के बाद भी देश का नाम ‘इंडिया’ रहने दिया। लब्ध-प्रतिष्ठित विद्वान संपादक गिरिलाल जैन ने लिखा था कि स्वतंत्र भारत में इंडिया नामक इस ‘एक शब्द ने भारी तबाही की’। यह बात उन्होंने इस्लामी समस्या के संदर्भ में लिखी थी। अगर देश का नाम भारत होता, तो भारतीयता से जुड़ने के लिए यहां किसी से अनुरोध नहीं करना पड़ता! गिरिलाल जी के अनुसार, इंडिया ने पहले इंडियन और हिंदू को अलग कर दिया। उससे भी बुरा यह कि उसने ‘इंडियन’ को हिंदू से बड़ा बना दिया। अगर यह न हुआ होता तो आज सेक्युलरिज्म, डाइवर्सिटी, ह्यूमन राइट्स और मल्टी-कल्टी का शब्द-जाल और फंदा रचने वालों का काम इतना सरल न रहा होता। अगर देश का नाम भारत या हिंदुस्तान भी रहता तो इस देश के मुसलमान स्वयं को भारतीय मुसलमान कहते। इन्हें अरब में अब भी ‘हिंदवी’ या ‘हिंदू मुसलमान’ ही कहा जाता है। सदियों से विदेशी लोग भारतवासियों को ‘हिंदू’ ही कहते रहे और आज भी कहते हैं।
यह पूरी दुनिया में हमारी पहचान है, जिससे मुसलमान भी जुड़े थे। क्योंकि वे सब हिंदुओं से धर्मांतरित हुए भारतीय ही हैं (यह महात्मा गांधी ही नहीं, फारूक अब्दुल्ला भी कहते हैं)। अगर देश का सही नाम पुनर्स्थापित कर लिया जाता, तो आज भी मुसलमान स्वयं को हिंदू या हिंदवी ही कहते जो एक ही बात है। यह विचित्र है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे अनेक प्रांतों और शहरों के नाम बदले, लेकिन देश का नाम यथावत छोड़ा हुआ है। जिन लोगों ने मद्रास को तमिलनाडु, बोंबे को मुंबई, कैलकटा को कोलकाता या बैंगलोर को बंगलुरु, उड़ीसा को ओडीशा आदि पुनर्नामांकित करना जरूरी समझा- उन्हें सबसे पहले इंडिया शब्द को विस्थापित करना चाहिए था। क्योंकि यह वह शब्द है जो हमें पददलित करने और दास बनाने वालों ने हम पर थोपा था।
विदेशियों द्वारा जबरन दिए गए नामों को त्यागना अच्छा ही नहीं, आवश्यक भी है। इसमें अपनी पहचान के महत्त्व और उसमें गौरव की भावना है। इसीलिए अब तक जब भी भारत में औपनिवेशिक नामों को बदल स्वदेशी नाम अपनाए गए, हमारे देश के अंग्रेजी-प्रेमी और पश्चिमोन्मुखी वर्ग ने विरोध नहीं किया है। पर यह उन्हें पसंद भी नहीं आया। क्योंकि वे जानते हैं कि बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। ऐसे में एक दिन अंग्रेजी को भी राज-सिंहासन से उतरना पड़ेगा। इसीलिए, जब देश का नाम पुनर्स्थापित करने की बात उठेगी, वे विरोध करेंगे। चाहे इंडिया को बदलकर भारतवर्ष करने में किसी भाषा, क्षेत्र, जाति या संप्रदाय को आपत्ति न हो। वैसे भी भारतवर्ष ऐसा शब्द है जो भारत की सभी भाषाओं में प्रयुक्त होता रहा है। बल्कि जिस कारण मद्रास, बोम्बे, कैलकटा, त्रिवेंद्रम आदि को बदला गया, वह कारण देश का नाम बदलने के लिए और भी उपयुक्त है। इंडिया शब्द भारत पर ब्रिटिश शासन का सीधा ध्यान दिलाता है। आधिकारिक नाम में इंडिया का पहला प्रयोग ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ में किया गया था जिसने हमें गुलाम बना कर दुर्गति की। पर जब वह इस देश में व्यापार करने आई थी तो यह देश स्वयं को भारतवर्ष या हिंदुस्तान कहता था। क्या हम अपना नाम भी अपना नहीं रखा सकते?
अगर देश का नाम पुन: भारतवर्ष कर लिया जाए तो यह हम सब को स्वत: इस भूमि की गौरवशाली सभ्यता, संस्कृति से जोड़ता रहेगा जो पूरे विश्व में अनूठी है। अन्यथा आज हमें अपनी ही थाती के बचाव के लिए उन मूढ़ रेडिकलों,वामपंथियों, मिशनरी एजेंटों, ग्लोबल सिटिजनों से बहस करनी पड़ती है जो हर विदेशी नारे को हम पर थोपने और हमें किसी न किसी बाहरी सूत्रधार का अनुचर बनाने के लिए लगे रहते हैं।
इसीलिए जब देश का नाम भारतवर्ष या हिंदुस्तान करने का प्रयास होगा- इसका सबसे कड़ा विरोध यही सेक्युलर-वामपंथी बौद्धिक करेंगे। उन्हें ‘भारतीयता’ और ‘हिंदू’ शब्द और इनके भाव से घोर शत्रुता है। यही उनकी मूल सैद्धांतिक टेक है। इसीलिए चाहे वे कैलकटा, बांबे आदि पर विरोध न कर सकें, पर इंडिया को बदलने के प्रस्ताव पर वे चुप नहीं बैठेंगे। यह इसका एक और प्रमाण होगा कि नामों के पीछे कितनी बड़ी सांस्कृतिक, राजनीतिक मनोभावनाएं रहती हैं। वस्तुत: समस्या यही है कि जिस प्रकार कोलकाता, चेन्नई और मुंबई के लिए स्थानीय जनता की सशक्त भावना थी, उस प्रकार भारतवर्ष के लिए नहीं दिखती। इसलिए नहीं कि इसकी चाह रखने वाले देश में कम हैं। बल्कि ठीक इसीलिए कि भारतवर्ष की भावना कोई स्थानीयता की नहीं, राष्ट्रीयता की भावना है। लिहाजा, देशभक्ति और राष्ट्रवाद से किसी न किसी कारण दूर रहने वाले, या किसी न किसी प्रकार के ‘अंतरराष्ट्रीयतावाद’ से अधिक जुड़ाव रखने वाले उग्र होकर इसका विरोध करेंगे।
यानी चूंकि इंडिया शब्द को बदल कर भारतवर्ष करना राष्ट्रीय प्रश्न है, इसीलिए राष्ट्रीय भाव को कमतर मानने वाली विचारधाराएं, हर तरह के गुट और गिरोह एकजुट होकर इसका प्रतिकार करेंगे। वे हर तरह की ‘अल्पसंख्यक’ भावना उभारेंगे और आधुनिकता के तर्क लाएंगे।
वैसे भी, उत्तर भारत की सांस्कृतिक-राजनीतिक चेतना और स्वाभिमान मंद है। यहां वैचारिक दासता, आपसी कलह, विश्वास, भेद और क्षुद्र स्वार्थ अधिक है। इन्हीं पर विदेशी, हानिकारक विचारों का भी अधिक प्रभाव है। वे बाहरी हमलावरों, पराए आक्रामक विचारों आदि के सामने झुक जाने, उनके दीन अनुकरण को ही ‘समन्वय’, ‘संगम’, ‘अनेकता में एकता’ आदि बताते रहे हैं। यह दासता भरी आत्मप्रवंचना है।
डॉ राममनोहर लोहिया ने आजीवन इसी आत्मप्रवंचना की सर्वाधिक आलोचना की थी जो विदेशियों से हार जाने के बाद ‘आत्मसमर्पण को सामंजस्य’ बताती रही है। अत: इस कथित हिंदी क्षेत्र से किसी पहलकदमी की आशा नहीं। इनमें अपने वास्तविक अवलंब को पहचानने और टिकने के बदले हर तरह के विदेशी विचारों, नकलों, दुराशाओं, शत्रु शक्तियों की सदाशयता पर आस लगाने की प्रवृत्ति है। इसीलिए उनमें भारतवर्ष नाम की पुनर्स्थापना की कोई ललक या चाह भी आज तक नहीं जगी है। अच्छा हो कि देश का नाम पुनर्स्थापित करने का अभियान किसी तमिल, मराठी या कन्नड़ हस्ती की ओर से आरंभ हो। यहां काम दक्षिण अफ्रीका की तुलना में आसान है, पर हमारा आत्मबल क्षीण है।

(जनसत्ता से साभार)

Friday, March 26, 2010

मध्य प्रदेश का दुर्भाग्य

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री का नया कारनामा. अब स्कूल में बच्चों को गीता पढना ज़रूरी है. क्या बात है, ये फैसला करके उन्होंने भगवान् कृष्ण से अपने लिए बहुत कुछ डिमांड कर डाला होगा, आखिर हमारे यहाँ धर्म का मतलब आम तौर पर मन्नत मांगना ही तो होता है और हमारे मुख्यमंत्री तो 'सिर्फ धार्मिक' ही हैं. ये अपने आप में एक बड़ा विषय है जिसके बारे में बाद में बात करेंगे, फिलहाल हम वापस अपने प्रिय मुख्यमंत्रीजी पर वापस आते हैं. गीता तो आपने थोप दी लेकिन क्या आपको खबर है कि जो पढाई ज़रूरी है एक बच्चे को आगे बढ़ने के लिए वो भी हो रही है या नहीं? स्वाभाविकतः नहीं, वरना मध्यप्रदेश को देश के सबसे पिछड़े राज्यों में एक नहीं गिना जाता. ये तथ्य है कि मध्यप्रदेश के बच्चों को बाहर जाकर प्रतियोगिता करना भारी पड़ता है. लेकिन मुख्यमंत्रीजी को इस सबसे कोई फर्क नहीं पड़ता बल्कि उन्होंने इतना सोचा भी होगा मुझे नहीं लगता. उनके अब तक के कार्यकाल में उन्होंने जो भी काम किये हैं वे उनकी बेहद सतही सोच को ही दर्शाते हैं. वो एक मुख्यमंत्री की तरह नहीं बल्कि किसी मोहल्ले की गणेश मंडली के अध्यक्ष की तरह सोचते हैं और राज्य को गणेश मंडल की तरह चला रहे हैं. स्कूलों में गीता पढ़वाएंगे लेकिन शिक्षक की जो फटीचर हालत है वो नहीं देखेंगे. प्राथमिक स्कूल के शिक्षक को एक दिहाड़ी मजदूर से भी कम मेहनताना मिलता है उसमे वो क्या शिक्षा देगा बच्चों को. सच्चाई तो ये है कि जो आदमी किसी भी काम के योग्य नहीं होता (शिक्षक बनने के भी ) वो शिक्षक बन जाता है. सभी हारे हुए और अयोग्य लोग शिक्षा देने के धंधे में लगे हुए हैं तो कोई आश्चर्य नहीं कि पूरे राज्य की तस्वीर भी ऐसी ही है. मुख्यमंत्री भी ऐसे ही शिक्षकों का परिणाम लगते हैं जिन्होंने शिक्षा में विचार को कभी जगह ही नहीं दी. वैसे तो मुख्यमंत्रीजी बहुत ही लचीले हैं जिन्होंने कभी कोई मजबूत फैसला नहीं लिया लेकिन अब तक जिन बातों पर वे कड़क हुए हैं वे उनकी सोच के दीवालियेपन को ही दिखाती हैं. बानगी देखिये - जब राज्य में १ महीने तक बारिश नहीं होती तो वे महांकाल के मंदिर में जाकर ५०००० पंडों के साथ भोजन करते हैं और भगवन को बारिश की अर्जी देते हैं. अब एक आम आदमी को इस तरह की हरकत के लिए मूर्ख होने का तमगा देकर माफ़ किया जा सकता है लेकिन एक राज्य के मुखिया को नहीं. लेकिन इस एक काम के सिवा मुख्यमंत्रीजी ने पानी के मुद्दे पर कोई विचार नहीं किया, उन्हें अब भी पानी का मेनेजमेंट पूरी तरह भगवन के हाथ में ही लगता है, उन्हें ये पता ही नहीं है कि हमें ही कुछ नियम बनाने होंगे, कुछ कदम उठाने होंगे ताकि सही समय पर बारिश हो और पर्याप्त हो. मालवा में भूमिगत जलस्तर भयावह स्थिति में है लेकिन वे बेखबर हैं उन्हें लगता है कि ऐसा हो ही नहीं सकता क्योंकि भगवन विष्णु अपने नाग पर नीचे बैठे हैं जो पानी कम नहीं होने देंगे. राज्य में पेडों की कटाई कोई मुद्दा ही नहीं है क्योंकि उन्हें लगता ही नहीं कि ये किसी काम के हैं. दूसरी ज़ोरदार आवाज़ उन्होंने उठाई थी एक मसाज सेंटर के बोर्ड के खिलाफ....?????....क्या कर रहे हैं ये आप? आपको राज्य की बागडोर इन ओछे कामों के लिए नहीं सौंपी गई है. आपका राज्य बहुत बहुत पिछड़ा हुआ है, कभी अपने कुए से बाहर निकल कर देखिये कि दुनिया बहुत बड़ी है. अपने आप को ऊपर उठाइये, अपने कुए को और गहरा मत खोदिये. लाडली लक्ष्मी योजना को क़ानून बनाने के लिए वे बहुत आक्रामक नज़र आये लेकिन राज्य में जो गुंडों का साम्राज्य फ़ैल गया है (जिसके आका उन्ही कि पार्टी और सरकार के लोग हैं) उस पर गौर करना उन्हें ज़रूरी नहीं लगता. जहाँ भी कोई सोच-समझ से सम्बंधित मुद्दा सामने आता है वे केंद्र सरकार के ऊपर पूरी जिम्मेदारी डाल कर सो जाते हैं. ८ साल हो गए हैं उनके शासन को लेकिन प्रदेश में बिजली की समस्या में रत्ती भर भी सुधार नहीं आया है बल्कि हालात और भी बदतर हुए हैं. पहले सर्दियों में तो बिजली मिल जाती थी अब तो पूरे साल बिजली मेहमान कि तरह आती है. लेकिन ये समस्या केंद्र सरकार कि है, हम तो बस मंदिर जायेंगे और धर्म बचायेंगे तो भाई पुजारी बन जाओ मुख्यमंत्री बन कर इतने लोगों की ज़िन्दगी क्यों खराब करते हो? कहने को तो उन्होंने अपनी एक वेब साईट भी बनाई है और उस पर नागरिक अपनी समस्याएँ बता सकते हैं लेकिन मुझे नहीं लगता की कोई कभी उसे देखने की ज़हमत भी उठाता होगा क्योंकि उनके आस-पास के लोग भी तो उभी की तरह के होंगे न जो भगवन भरोसे काम कर रहे हैं. मैंने कई बार उस पर पत्र लिखे लेकिन मुझे आज तक कोई जवाब नहीं आया.
हाँ, एक काम ज़रूर हो रहा है कि इंदौर में सड़कें बन रही हैं लेकिन शासन ऐसे लोगों के हाथ में है जो दूर तक कुछ सोच ही नहीं पाते या यूँ कहें कि सोच ही नहीं पाते. जब सड़के बनाई जाती है तो हर एक पहलु पर विचार किया जाता है. यहाँ सड़कें बन रही हैं लेकिन बारिश का पानी कहाँ जाएगा ये किसी ने नहीं सोचा. पानी कि निकासी कि कोई व्यवस्था नहीं है. सब तरफ कंक्रीट बिछा दिया है लेकिन ज़मीन में पानी कैसे जाएगा ये नहीं सोचा. नतीजा बारिश का पानी ज़मीन के अन्दर नहीं जाता, ज़मीन में पानी का स्तर कम होता जा रहा है. सड़कें बनाने के लिए बेहिचक हज़ारों पेड़ काट दिए जाते हैं लेकिन वापस पौधे लगाने के बारे में कोई नहीं सोचता. आश्चर्य तो ये है कि लोग भी ऐसा नहीं मानते कि सड़कों के आस-पास पेड़ होने चाहिए.
लेकिन जनाब नेता भी कोई आसमान से नहीं उतरता, वो भी जनता के बीच का ही एक आदमी होता है और मोटे तौर पर उसी जनता का चेहरा होता है. यथा राजा तथा प्रजा या यथा प्रजा तथा राजा. मध्य प्रदेश के लिए दोनों ही उक्तियाँ सही हैं. यहाँ जनता भी उलटे-सीधे गोरखधंधों में ही अपना समय ख़राब करती है, जो मुद्दे वास्तव में मुद्दे हैं उनसे उन्हें कोई सरोकार नहीं, फिर चाहे वो उनके अपने ही हित में क्यों न हो.

-अनिरुद्ध शर्मा

Thursday, March 25, 2010

एक भाषा हुआ करती है

आज से हम हिन्दी भाषा, साहित्य, इसमें बाज़ार और बनियाबाज़ी की घुसपैठ पर युवा कहानीकार अभिषेक कश्यप की पड़तालों की शृंखला का प्रकाशन शुरू कर रहे हैं। 'हिन्दीबाज़ी' नामक इस स्तम्भ के अंतर्गत प्रत्येक वृहस्पतिवार को अभिषेक कश्यप हिन्दी भाषा और भाषाबाजों की नीयत पर रोशनी डालेंगे॰॰॰॰॰



एक भाषा हुआ करती है!
~अभिषेक कश्यप*

हिंदी शायद संसार की इकलौती ऐसी भाषा है जिसके परजीवी मलाई-रबड़ी पर पलते हैं और श्रमजीवी आर्थिक तंगी, अभाव, वंचना और अपमान का शिकार होते हैं। यह कड़वा सच है कि हिन्दी को जिन मनीषियों ने आधुनिक दृष्टि दी, नये मुहावरों, वाक्य-विन्यासों से लैस किया, अपने कृतित्व के जरिए जिन्होंने हिंदी को जनता की जुबान बना दी, उन्हें अपमानित, प्रताडि़त और विक्षिप्त होना पड़ा। उनमें से ज्यादातर मनीषियों को ताउम्र दो वक्त की रोटी की जद्दोजहज के बीच एक कठिन जिद के बूते अपनी रचनात्मक प्रतिभा को बचाए रखना पड़ा। एक ऐसी भाषा जिसमें साँस लेते हुए रघुवीर सहाय अपमानित हुए, मुक्तिबोध अभाव, वंचना और लंबी बीमारी से ग्रस्त होकर मरे, महाकवि निराला अर्द्ध-विक्षिप्त हुए और भुवनेश्वर ने मानसिक संतुलन खोकर भीख मांगते हुए दम तोड़ा। इसके उलट जो परजीवी हुए, प्रबंधन कुशल रहे वे हिन्दी की मलाई-रबड़ी खा-खाकर अघाते रहे।
हिंदी के परजीवी बनकर भ्रष्ट नेताओं, अफसरों, चमचों और मसखरों ने ताकत और सत्ता हासिल की। विश्वविद्यालय, सरकारी अकादमियां और सार्वजनिक उपक्रमों के हिंदी विभाग तो इन परजीवियों के सबसे सुरक्षित, सबसे आरामदेह शरणगाह रहे हैं। यहां मोटी तनख्वाह के साथ सेमिनारों, गोष्ठियों, कार्यशालाओं की मौज-मस्ती और विश्व हिंदी सम्मेलनों, विदेश यात्राओं का सुख भोगते हुए ये परजीवी हिंदी के उन श्रमजीवियों को हिकारत की नजर से देखते हैं जिनके लिए हिंदी और भाषा का संस्कार ही जीवन है। ये वे लोग हैं जो हिंदी भाषा और साहित्य के लिए घर फूँक तमाशा देखने में तनिक संकोच नहीं करते। जो अपनी मेहनत की कमाई से लघु पत्रिकाएँ निकालते हैं, कहानियाँ-कविताएँ लिखकर हिन्दी ही नहीं अहिंदी भाषी प्रदेशों के वाशिंदों को भी हिंदी भाषा और साहित्य से जुडऩे के लिए प्रेरित करते हैं। देशभर में ऐसी सैकड़ों प्रतिभाएं हैं जो छोटी-मोटी नौकरियां, धंधे यहां तक कि किसी बनिये के दुकान पर हजार-पन्द्रह सौ की बेगारी खटते हुए भी तमाम अभावों के बावजूद हिंदी के लिए वह कर रही हैं, विश्वविद्यालयों के मुफ्तखोर हिंदी प्राध्यापक, सरकारी अकादमियां और सार्वजनिक उपक्रमों के हिंदी विभाग जिसकी कल्पना तक नहीं कर सकते। खासकर विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग के प्राध्यापक कहे जाने वाले मसखरे तो प्रतिभाहीन नकलचियों को ‘फंटूशलाल जी की कविताओं में स्त्री-विमर्श’ सरीखे निरर्थक विषयों पर पीएचडी की डिग्री बाँटने में ही व्यस्त हैं। और सरकार ऐसे मसखरों और नकलची शोध छात्रों को तनख्वाह-वजीफे के साथ तरह-तरह की सुविधाएँ देकर धन्य होती है।
हमारे समय के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि-कथाकार उदय प्रकाश ने अपनी भाषा-शृंखला की लंबी कविता ‘एक भाषा हुआ करती है’ में इस हौलनाक विडंबना को कुछ इस तरह अभिव्यक्त किया है-
‘एक भाषा है जिसे बोलते वैज्ञानिक और समाजविद और तीसरे दर्जे के जोकर
और हमारे समय की सम्मानित वेश्याएँ और क्रांतिकारी सब शर्माते हैं
जिसके व्याकरण और हिज्जों की भयावह भूलें ही
कुलशील, वर्ग और नस्ल की श्रेष्ठता प्रमाणित करती हैं
बहुत अधिक बोली-लिखी, सुनी-पढ़ी जाती
गाती बजाती एक बहुत कमाऊ और बिकाऊ बड़ी भाषा
दुनिया के सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर, सबसे गरीब और
सबसे खूंखार सबसे काहिल और सबसे थके-लुटे लोगों की भाषा
अस्सी करोड़ या नब्बे करोड़ या एक अरब भुक्खड़ों, नंगों और गरीब-लफंगों की जनसंख्या की भाषा
वह भाषा जिसे वक्त-जरूरत तस्कर, हत्यारे, नेता,
दलाल, अफसर, भंडुए, रंडियाँ और जुनूनी
नौजवान भी बोला करते हैं
वह भाषा जिसमें
लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है
आत्मघात करती हैं प्रतिभाएँ
‘ईश्वर’ कहते ही आने लगती है जिसमें अक्सर बारूद की गंध
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एक हौलनाक विभाजक रेखा के नीचे जीनेवाले सत्तर करोड़ से ज्यादा लोगों के आंसू और पसीने और खून में लिथड़ी एक भाषा
पिछली सदी का चिथड़ा हो चुका डाकिया अभी भी जिसमें बाँटता है
सभ्यता के इतिहास की सबसे असभ्य और सबसे दर्दनाक चिट्ठियाँ
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भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को अपनी छाती हिलाने की छूट है
जिसमें दंडनीय है विज्ञान और अर्थशास्त्र और शासन-सत्ता से संबंधित विमर्श
प्रतिबंधित हैं जिसमें ज्ञान और सूचना की प्रणालियां वर्जित हैं विचार
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भाषा जिसमें उड़ते हैं वायुयानों में चापलूस
शाल ओढ़ते हैं मसखरे
चाकर टांगते हैं तमगे
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अपनी देह और आत्मा के घावों को और तो और अपने बच्चों और पत्नी तक से छुपाता
राजधानी में कोई कवि जिस भाषा के अंधकार में
दिनभर के अपमान और थोड़े से अचार के साथ
खाता है पिछले रोज की बची हुई रोटियां
और मृत्यु के बाद पारिश्रमिक भेजने वाले किसी
राष्ट्रीय अखबार या मुनाफाखोर प्रकाशक के लिए
तैयार करता है एक और नयी पांडुलिपि।’

मित्रो! इस कविता से गुजरने के बाद क्या आपको हिंदी के अज्ञात कुलशील मानस पुत्रों, हिंदी के श्रमजीवियों की असहनीय व्यथा पर दु:ख नहीं हो रहा? क्या आपको विश्वविद्यालयों, अकादमियों, सार्वजनिक उपक्रमों में मलाई काटते हिंदी के परजीवियों और अपने नितांत निजी स्वार्थों व अश्लील महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए हिंदी का इस्तेमाल करने वाले तस्करों, नेताओं, दलालों, चमचों, मसखरों और भंडुओं पर गुस्सा नहीं आ रहा?
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*लेखक कहानीकार और स्वतंत्र पत्रकार हैं

Wednesday, March 24, 2010

स्टिंग कैमरा, मीडिया और धोखा..

लव, सेक्स और धोखा....नाम बेहद अजीब है...उस दौर में जब हर हिंदी फिल्म के साथ अंग्रेजी टैग का रिवाज़ हो....हालांकि, फिल्म देखने के बाद साफ़ हो गया कि लव सेक्स और धोखा आजकल के फ़टाफ़ट संबंधों का कच्चा चिटठा है....फ़टाफ़ट संबंधों में पहले फ़टाफ़ट लव होता है, फिर सेक्स होता है और फिर एक तयशुदा धोखा....(जैसा कर्म करोगे, वैसा फल मिलेगा टाइप)....लव आजकल और कमीने से एक कदम आगे की फिल्म....अब सीधे-सीधे फिल्म की कहानी कहने का दौर रहा नहीं.....कि कैमरा ऑन किया, एक्शन बोला और एक लम्बा सा सीन चालू
है....फिर, वक़्त-बेवक्त बढ़िया बोल वाले गाने....दर्शक को सब कुछ मालूम होता था कि वो हॉल से क्या लेकर लौटेगा....एक साफ़-सुथरा सन्देश (जैसे सत्य हमेशा जीतता है या फिर माँ-बाप भगवन होते हैं टाइप) और मिश्री जैसे गाने.....इस फिल्म का गाना है 'तू नंगी अच्छी लगती है....तू गन्दी अच्छी लगती है.....' याद कीजिये 'देव डी'....मॉडर्न पारो अपने देव को नंगी तस्वीर भेजती है....और खेत में आमंत्रण भी देती है....ये मल्टीप्लेक्स दौर का सिनेमा है...आप परदे से सिर्फ दूरी के मामले में नजदीक नहीं होते, परदे पर चल रही फिल्म आपके आसपास की लग रही होती है....लव सेक्स और धोखा (टिकट काउंटर पर जल्दबाजी में एक लड़की इसे एल एस डी कह रही थी ) देखकर डर लगा मुझे....जैसे पूरी फिल्म कह रही हो "आप कैमरे की निगाह में हैं, २४ घंटे, स्टिंग कैमरे आपकी सेवा में सदैव तत्पर..."
देश की बड़ी आबादी शहरी हो रही है...जो खेत थे, वहाँ मॉल उग रहे हैं....मॉल्स में प्यार होता नहीं, किया जाता है.... गुप्त कैमरे को साक्षी मानकर......और फ़टाफ़ट किया जाता है....शिफ्ट में नौकरी करनी है, शिफ्ट के बाद प्यार-व्यार भी करना है....प्यार में कटौती करनी है....भूमिका बांधे बिना सीधा 'मुद्दे' पे आना है.... लड़की के साथ भी यही सब समस्याएं है....शिफ्ट वाली, कटौती वाली...मगर वो कहेगी नहीं, लड़की जो है.....फिल्म सब कुछ कहती है....स्टिंग कैमरा पूरी फिल्म का सूत्रधार जैसा है....फिल्म आगे बढती है और कैमरा गुस्ताखियाँ करता जाता है....किरदार कुछ नहीं कहते, कुछ नहीं करते....कैमरा सब कुछ करवा देता है.....कैमरे के आगे कहीं फिल्म तो कहीं पैसा बनाने की सनक में ज़िन्दगी धोखा खा जाती है (लव और सेक्स के बाद ) तो कहीं किसी को बर्बाद करने की सनक....मीडिया सबको बर्बाद कर रहा है....चालाक बना रहा है.....होशियार बना रहा है....ये फिल्म हमें बार-बार बताती है...इसके लिए निर्देशक दिबाकर का लाख-लाख धन्यवाद....मीडिया रेड लाइट इलाके के दलाल जैसा हो गया है की जहां जिस्म की बू आती है, वहाँ पान चबाता नज़र आ जाता है....अपना कैमरा घुसेड़ देता है....लड़की का इस्तेमाल होता है, चैनल को सुपरहिट बनाने के लिए....हिंदी चैनलों के न्यूज़ रूम में आधे घंटे के प्रोग्राम का नाम रखने के लिए जैसे 'कैची' नाम सोचे जाते हैं, फिल्म में उसकी एक झलक भर है....'फलां नंगा अच्छा लगता है....' आह, क्या नाम है....क्या तमाचा है दिबाकर जी.....
ये फिल्म नौसिखियों की कहानी है....जो फिल्म बनाना सीख रहे हैं, उनके लिए एक सन्देश कि फिल्म बनाना बेहद आसन है, अगर आप अपने समाज को पढ़ पाते हैं तो हर गली के आखिरी मकान में एक कहानी है जो कही जानी है....इसके लिए किसी बड़े सेट, बड़े स्टार की ज़रूरत नहीं है....एक हैंडी कैम भर चाहिए, जो बच्चों के बायें हाथ का खेल है आजकल....ये फिल्म बॉलीवुड के आने वाले दशक के लिए क्रांति है....फिल्म इतनी ओरिजिनल है कि अगर आप दो-चार साल किसी भी महानगर में रह चुके हैं, तो लगेगा ही नहीं कि आपने कोई फिल्म देखी है....सीधे-सीधे कहानी कहने-समझने का ज़माना अब रहा नहीं, इसीलिए भारतीय दर्शकों, हॉल जाएँ तो थोड़ी-बहुत बुद्धि भी साथ लेकर जाएँ, फिल्म का भरपूर आनंद ले पायेंगे....हॉल में फिल्म देखते वक़्त हर सीन पर युवा दर्शकों की विशेष टिप्पणियाँ फिल्म का जायका और बढ़ा देगी....
ये फिल्म उन तमाम मृगनयनियों की कहानी है, जिन्हें इंडियन आईडल बनने की जल्दी में बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है..... और जो चुकाने को तैयार भी हैं...ये आदर्शों को ढोती फिल्म नहीं है....ये आदर्शों को धोती फिल्म है....इस फिल्म को देखना इसीलिए ज़रूरी है क्योंकि देखने में ये फिल्म जैसी बिलकुल भी नहीं...ये हमारे आपके समय का सच है जहां सेक्स एक सीढ़ी की तरह है जिसे इस्तेमाल करना मर्द पहले से जानते थे, औरत अब सीख रही है.

--निखिल आनंद गिरि

Sunday, March 21, 2010

महिला आरक्षण बिल – एक लंबे सफर की शुरूआत (2)

0प्रेमचंद सहजवाला


॰॰॰प्रथम भाग से आगे

शास्त्रों को एक तरफ कर दें, तो भी इस पुरुष-प्रधान समाज में नारी-वेदना का एक लंबा इतिहास रहा है। केवल उदहारण के तौर पर सही, कोई सन् 1891 में ब्रिटिश द्वारा पारित ‘Age of Consent Bill’ को ही एक नज़र देख ले. यह बिल मुख्यतः पूना व बंगाल के समाज सुधारकों द्वारा दो दशक से भी अधिक तक चलाए गए अथक अभियान के बाद पारित हुआ. तत्कालीन ‘हिंदू विवाह अधिनियम’ (1860) के अनुसार किसी भी विवाहित लड़की का पति तब तक उस का शारीरिक संभोग नहीं कर सकता, जब तक कि वह 10 वर्ष की आयु की न हो जाए. सुधारकों ने इस बात के कड़े प्रयत्न शुरू कर दिये कि यह आयु कुछ वर्ष बढ़ाई जाए. बंबई में एक दस वर्ष व कुछ महीनों की लड़की के पति ने उस का संभोग किया तो वह इस प्रक्रिया को न सहन कर के मर गई. पुलिस ने उस के पति को गिरफ्तार कर के बलात्कार व हत्या का मुकदमा चलाया. लेकिन अदालत ने उसे इसीलिये बरी कर दिया कि कानूनन, वह लड़की क्योंकि दस वर्ष से बड़ी थी, इसलिए यह मृत्यु मात्र एक दुर्भाग्य है और पति किसी प्रकार के दंड का भोगी नहीं हो सकता. अंततः सुधारकों के गहरे प्रयासों के बाद ब्रिटिश ने विधेयक पारित कर के यह आयु दस से बढ़ा कर बारह कर दी. दुर्भाग्य कि देश के शास्त्रांध लोगों के गले यह विधेयक उतर नहीं पा रहा था. उन सब को पृथ्वी बुरी तरह कांपती महसूस हुई और लगा जैसे देवता सहसा खून के आंसू बहाने लगे हैं. नतीजतन इस विधेयक के विरुद्ध रैलियों का एक तांता लग गया. इस विधेयक के कड़े से कड़े विरोधियों में सब से अग्रणी थे लोकमान्य तिलक, जिन्होंने विधेयक की तथा उन तमाम लोगों की कड़ी भर्त्सना की जो कह रहे थे कि विधेयक किसी भी प्रकार से शास्त्रों की आत्मा को ठेस नहीं पहुंचाता. तिलक- अनुयायियों के कोप का भाजन बने प्रसिद्ध सुधारक गोपाल गणेश अगरकर, जिन का एक पुतला बना कर पुतले के एक हाथ में उबला हुआ अंडा और दूसरे में व्हिस्की की बोतल पकड़ा दी गई, ताकि वे ब्रिटिश की पश्चिमी संस्कृति के पिट्ठू से नज़र आएं ! पुतले को पूरे शहर में घुमाया गया और उस का अन्तिम संस्कार कर दिया गया। सुधारकों को तिलक यह कह कर लताड़ने लगे कि ‘अगर आप शास्त्रों के बारे में पता ही नहीं तो बेहतर कि आप सब अपनी ज़बान न खोलें’. कलकत्ता में दो लाख लोगों की एक महारैली होनी लगी और खूब त्राहि त्राहि मच गई. सुधारकों पर ढेरों ज़हर उगलने के बाद अनेक तो ऐसे भी थे जो एक शिष्ट-मंडल लंदन भेजना चाहते थे कि वहां जा कर महारानी विक्टोरिया के आगे साष्टांग प्रणाम किया जाए और उन्हें नमन कर के प्रार्थना की जाए कि कृपया हमारी ‘हिंदू सभ्यता’ को बचा लें! तिलक एक महान देशभक्त थे, लेकिन एक बार जब पूना में महिला-शिक्षा के विषय पर वाद-विवाद के उद्देश्य से एक जनसभा का आयोजन किया गया, तब तिलक समर्थक हर उस वक्ता की हूटिंग करने लगे, जो महिला-शिक्षा के पक्ष में बोल रहा था. यहाँ तक कि जब सभा में उपस्थित दो महिला विचारक भी बारी बारी बोलने आई तो सुधार-विरोधियों ने उन की भी हूटिंग कर दी. तिलक ने इसीलिये महिला-शिक्षा समर्थकों का इतना कोप अर्जित कर लिया कि वे जब स्वयं बोलने आए तो मंच पर टमाटरों, चप्पलों और अण्डों की धुआंधार वर्षा होने लगी. एक पोलिस- इंस्पेक्टर को मंच पर फुर्ती से छलांग लगानी पडी और तिलक को बांहों के घेरे में में घेर कर किसी प्रकार मंच से कहीं सुरक्षित जगह ले जाना पड़ा.

लेकिन भारतीय लोकतंत्र ने 28 दिसंबर 1885, से ले कर 9 मार्च 2010 तक, एक बेहद लंबा सफर तय किया है. यानी जब बंबई में ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ का जन्म हुआ, तब से उस दिन तक जब देश के वरिष्ठ लोगों के सदन राज्यसभा ने देश की अधिकाधिक महिलाओं को क़ानून निर्माता (सांसद) बनने के लिए सशक्तीकृत कर देने में पहला कदम उठाया. कम से कम भारत की शहरी महिला का चेहरा कोई कम कान्तिमय नहीं है और वह गौरवशाली तरीके से अपनी तमाम उपलब्धियों के होते पुरुष की प्रशंसा का पूरा अधिकार रखती है. ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ की प्रथम महिला अध्यक्ष ऐनी बेसेंट से ले कर भारतीय मूल की अंतरिक्ष-वैज्ञानिक सुनीता विलियम्स, जिस ने अधिक से अधिक समय तक अंतरिक्ष में रहने का गौरवशाली विश्व-कीर्तिमान स्थापित किया, यहाँ तक कि अंतरिक्ष में ‘मैरेथन’ दौड़ दौड़ने वाली विश्व की पहली महिला बनी, तक नारी के चेहरे की चमक के अंतहीन आयाम हैं, जिस में आज इस देश की प्रथम महिला राष्ट्रपति व लोकसभा की प्रथम महिला अध्यक्षा भी शामिल हैं. ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ की पहली भारतीय अध्यक्षा सरोजिनी नायडू जो कि आज़ादी के बाद भारत के किसी राज्य की पहली महिला राज्यपाल भी थी, भारत के किसी राज्य की पहली महिला मुख्यमंत्री सुचेता कृपालानी, ‘संयुक्त-राष्ट्र महासभा’ की भारत व विश्व में पहली महिला अध्यक्षा विजयलक्ष्मी पंडित, भारत की पहली व एकमात्र महिला प्रधानमंत्री तथा पहली महिला भारत-रत्न इंदिरा गाँधी, ‘रमन मैग्सेसे पुरस्कार’ प्राप्त करने वाली पहली भारतीय महिला तथा नोबेल-पुरस्कार प्राप्त एकमात्र भारतीय महिला मदर टेरेसा... इन सब को कोई हल्के तौर पर नहीं ले सकता... पहली ‘भारतीय पोलिस सेवा’ (IPS) अधिकारी किरण बेदी, गौरवशाली बचेन्द्री पाल जो हिमालय के सब से ऊंचे शिखर माऊँट एवरेस्ट पर पहुँचने वाली पहली भारतीय महिला थी तथा उतनी ही गौरवशाली संतोष यादव जिस ने वही करिश्मा जीवन में दो बार कर दिखाया... ये सब भी तो विश्व फलक पर भारत का नाम ऊंचा करने में शामिल रही! और पी.टी उषा (ओलंपिक फाईनल में पहुँचने वाली पहली भारतीय महिला जो केवल 0.01 सेकण्ड से पदक प्राप्त करते करते रह गयी), गीता जुत्शी, अंजू बौबी जार्ज, अपर्णा पोपट, अंजलि भागवत, करनम मालेश्वरी, सानिया मिर्ज़ा व सायना नेहवाल...और गिनती के लिए अनेकों और! ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ से केवल कुछ दिन बाद NDTV चैनल पर भारीय महिलाओं की उपलब्धियों का विश्लेषण करते हुए विनोद दुआ कह रहे थे कि ‘अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस’ पर ‘एयर इंडिया’ ने देश की महिलाओं के खाते में एक और सितारा जोड़ दिया, अपनी ‘सर्व-महिला उड़ान’, द्वारा जो मुंबई से शुरू हो कर 11 देशों से उड़ान भर्ती हुई न्यू यार्क पहुँची! (हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले के अनुसार जिस उड़ान में शराब का सेवन होता हो उस में कम से कम दो पुरुष अवश्य होने चाहियें. ‘टाईम्स ऑफ इंडिया’ ने 9 मार्च को पृष्ठ 15 पर पहले ही यह खबर दे दी थी कि –‘ केवल उन दो पुरुषों के अतिरिक्त 15 घंटे की लगातार उड़ान ने ‘सर्व-महिला क्रू’ के तौर पर कीर्तिमान स्थापित कर दिया होता’).

हमें इस बात का अक्सर खेद अवश्य रहता है कि यही बात समस्त भारतीय भूखंड पर लागू नहीं होती. केवल कुछ ही दिन पहले एक दूरदर्शन चैनल पर एक बदकिस्मत महिला को दिखाया जा रहा था जिसे पंचायत ने सिर्फ इसलिए गांव की बिरादरी से बाहर कर दिया क्योंकि किसी बाहर से आए एक पुरुष अधिकारी ने उसे असावधानी से छू लिया! इस अभागी महिला के पति ने पत्नी को खोया हुआ दर्जा दिलाने के लिए इन्साफ के ठेकेदारों पर खूब मोटी चढ़ावे के तौर पर चढ़ाई! इन सर्वाधिक पिछड़ी हुई महिलाओं से ले कर सुष्मिता सेन व लारा दत्ता जिन्हें ‘ब्रह्माण्ड सुन्दरी’ जैसे गौरवशाली खिताबों से नवाज़ा गया तथा रीता फेरिया ऐश्वर्य राय डायना हेडन युक्ता मुखी व प्रियंका चोपड़ा जिन्हें ‘विश्व सुन्दरी’ खिताब के ताज पहनाए गए तक भारतीय नारी की एक अंतहीन विविधता है, जो बहुत प्रसन्नता-पूर्ण परिदृश्य प्रस्तुत नहीं करती. पृथ्वी के सब से बड़े लोकतंत्र जिस के साथ परमाणु शक्ति होने की पहचान संलग्न है, तथा जो विश्व-मार्केट का सर्वाधिक स्पर्धा-शील देश कहलाता है, व पास में रोबदार भारत-अमरीका परमाणु समझौता रखे है, को अभी अपनी नारी को Justice (न्याय) Liberty(स्वतंत्रता) व Equality(समानता) जो कि भारतीय संविधान की आत्मा हैं, दिलाने तक एक लंबा सफर तय करना है...

(क्रमशः)
(अगले अंक में: पिछले 14-15 वर्षों में किन कारणों से भटकता रहा ‘महिला आरक्षण बिल’– लालू-मुलायम की टुच्ची राजनीति और क्या अपनी महिलाओं के सन्दर्भ में मुस्लिम समाज की स्थिति हिंदू समाज से बेहतर है?)

Thursday, March 18, 2010

प्रयोगी रचनाशीलता का अप्रतिम हस्ताक्षर- मार्कण्डेय

अभी-अभी हमें एक दुःखद समाचार मिला कि प्रयोगी रचनाशीलता के अप्रतिम हस्ताक्षर मार्कण्डेय नहीं रहे। 80 का वय पार कर चुके मार्कण्डेय पिछले 3-4 सालों से केंसर से पीड़ित थे। लम्बे समय से हृदय रोग से जूझते रहे। 2 साल पहले उन्हें खाने की नली का केंसर हुआ, लेकिन इनकी जीवटता देखिए कि उन्होंने अपनी मज़बूत इच्छाशक्ति की बदौलत केंसर जैसी जानलेवा बीमारी को भी ठेंगा दिखा दिया। लेकिन 1-1॰5 महीने पहले इन्हें फेफड़े का केंसर हो गया। लेकिन इस बार दुर्भाग्य कि समय से इन्हें इस रोग की जानकारी नहीं मिली, लेकिन फिर भी इनकी बेटी डॉ॰ स्वस्ति जो खुद भी पेशे से एक डॉक्टर हैं, ने इन्हें दिल्ली के राजीव गाँधी केंसर संस्थान में एडमिट कराया। लेकिन इस केंसर ने आखिरकार हमसे साहित्य-जगत का एक और सितारा छीन ही लिया। 18 मार्च की शाम 5 बजे के आसपास मार्कण्डेय ने शरीर त्याग दिया। मार्कण्डेय शुरू से ही इलाहाबाद में रहे। इनकी दो बेटियाँ और 1 बेटा है। इलाहाबाद में यदि आप जायें तो पायेंगे कि उस शहर का कोई चाहे वह साहित्य का विद्यार्थी हो या पिर विज्ञान का, साहित्य से जब उसका नाता प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष किसी भी रूप से जुड़ता है तो शुरू में ही वह मार्कण्डेय का कालजयी उपन्यास अग्निबीज पढ़ जाता है। आज हम वरिष्ठ आलोचक आनंद प्रकाश के एक आलेख से मार्कण्डेय को श्रद्धासुमन अर्पित कर हैं॰॰॰॰ संपादक


प्रयोगी रचनाशीलता के अप्रतिम हस्ताक्षर मार्कण्डेय

आनंद प्रकाश

हिंदी कथाकार और चिंतक मार्कण्डेय का जीवट देखते बनता था। अस्सी बरस की आयु के मार्कण्डेय जो लंबे समय से बीमार चल रहे थे और पिछले पंद्रह बरसों से हृदय रोग और बाद में हुई केंसर जैसी जानलेवा बीमारी से जूझ रहे थे, इन दिनों फिर से दिल्ली में थे। उनका राजीव गांधी केंसर हस्पताल में इलाज हो रहा था और हस्पताल से निकटता को ध्यान में रखते हुए उन्होंने अस्थायी आवास की व्यवस्था रोहिणी के सैक्टर छह में की थी। इस आवास में उन्होंने लगभग एक महीना गुजारा। प्रबंध और चिकित्सा संयोजन की जिम्मेदारी मार्कण्डेय की बड़ी बिटिया डाक्टर स्वस्ति ने ली जो अपने लेखक पिता की सेवा में जी जान से जुटी थीं। ये मात्र सूचनाएं नहीं हैं, बल्कि उस सांस्कृतिक वातावरण की संकेतक हैं जिसका निर्माण अपनी जीवन शैली और व्यवहार के आधार पर स्वयं लेखक मार्कण्डेय ने किया था।

हिंदी में एक खास तरह की लेखन परंपरा उन्नीस सौ पचास के दशक में शुरू हुई। मार्कण्डेय उसके सिरमौर कहे जा सकते हैं, जो नई कहानी आंदोलन के पुरोधा थे और इस हैसियत से नई कहानी को लगातार जीवंत और सार्थक बनाने में जुटे थे। यह मार्कण्डेय के कारण ही संभव हो पाया कि मध्यवर्गीय कही जाने वाली और प्रायः नगरीय परिवेश को समर्पित नई कहानी गांव, जमीन और कृषि संबंधों पर केंद्रित हुई। आजादी के बाद सक्रिय हिंदी लेखकों में बिरले ही होंगे जिन्होंने मसलन भूदान जैसा मुद्दा उठाया और तथाकथित अशिक्षित समाज के सार्थक नायकत्व को प्रधानता दी। यह सिलसिला मार्कण्डेय की अनेकानेक कथा रचनाओं में देखने को मिला। पचास के दशक में एक समय तो ऐसा था जब मार्कण्डेय सप्ताह नहीं तो महीने के स्तर पर कहानी लिखते थे और उनकी बारह कहानियाँ तत्कालीन प्रसिद्ध पत्रिका ‘कल्पना’ में लगातार प्रकाशित हुई थीं। यही नहीं, उनकी एक भरीपूरी लेखमाला ‘कल्पना’ में ही उन दिनों छद्मनाम से छप रही थी। इस लेखमाला ने पचास और साठ के दशकों में विचारधारात्मक संचार का नया प्रतिमान कायम किया था और हिंदी कथा का बड़ा पाठक वर्ग साहित्य के कई अनछुए पहलुओं पर सोचने को बाध्य हुआ था। यह तब था जब मार्कण्डेय केवल अपने तर्कों के बल पर संस्कृति और कला के पक्षों का सूक्ष्म जायजा ले रहे थे। जब इस पूरे किस्से को मार्कण्डेय अपने अनोखे ढंग से बयान करते थे तो श्रोता अनायास आज से पांच-छह दशक पूर्व के काल में लौट जाता था। वह अलग वक्त था, उन दिनों बहसों की गंभीरता प्रासंगिक होती थी और साहित्य के हजारों-हजार पाठक वक्ती मसलों में दिलचस्पी लेते थे। मार्कण्डेय उस दौर के प्रेरणादायी हस्ताक्षर रहे हैं।

मार्कण्डेय के साथ आनंद प्रकाश

ग्रामीण जीवन की स्थितियों पर समस्यामूलक कहानियाँ लिखने के साथ साथ मार्कण्डेय ने कृषि संबंधी माहौल के जीवंत पात्रों को भी पहचाना और उन्हें इतिहास की गतिशील मूल्य व्यवस्था का वाहक बना कर पेश किया। कई प्रसंगों में उन्होंने उस भौगोलिक परिवेश को भी उकेरा जहां सांस्कृतिक मिथकों और प्रतीकों का असर देखने को मिलता है। इन सब चीजों के बीच उनकी भाषा का अलग ढंग भी नजर आया। इसके तहत मार्कण्डेय ने देशज शब्दों में अर्थ संकेतों की उपस्थिति दर्ज कराते हुए कहानियों को बहुआयामी बनाया। यह प्रेमचंद से हट कर था। प्रेमचंद में लोक कथा का ताना बाना दिखाई देता था, जबकि मार्कण्डेय में संभावित विचार की विभिन्न तहों पर बल था। जब मार्कण्डेय के पात्र अपने संवाद बोलते थे तो वे अपनी स्थिति के प्रति पूरी तरह सावधान नजर आते थे। इस आयाम को संभव बनाने के लिए मार्कण्डेय अनुभव की प्रस्तुति का रेखांकन करते थे। उनकी कोशिश रहती थी कि पात्र अपने व्यक्तित्व की संपूर्णता में उपस्थित हों। इस प्रक्रिया में लेखकीय रवैया और वैचारिक आग्रह पीछे छूट जाता था और पात्रों के अनुभव का निखार उजागर हो उठता था। मार्कण्डेय ने इसे अपनी कहानियों की विशिष्टता कहा और उन्हें नई कहानी आंदोलन की वैचारिक पहचान बतला कर पेश किया। यह सचेत रणनीति थी और मार्कण्डेय ने इसे पचास और साठ के दशकों के सांस्कृतिक माहौल से जोड़ कर देखा।

इस कथाकार ने कुछ दूसरी सूक्ष्म स्थितियों को भी अपनी रचना में स्थान दिया। बल्कि कहा जा सकता है कि मार्कण्डेय के नारी पात्रों में भावना की प्रबलता और साहसिकता पर अतिरिक्त जोर मिलता है। नारी पात्रों को उनकी कहानियों में जो प्रेरक तत्व हासिल है उसके सामने अनेक पुरुष पात्र फीके जान पड़ते हैं। ऐसा लगता है कि कई बार लेखक अपने नारी पात्र को कलात्मक सूक्ष्मता और सांकेतिकता से समृद्ध करता है। उनकी ‘माही’ शीर्षक कहानी को इसकी मिसाल कहा जा सकता है। इसी तरह उनकी अन्य कहानी ‘सूर्या’’ में यौन भावना का उद्वेग सामाजिक आचरण के नियमों को चुनौती देता प्रतीत होता है। इसी श्रेणी की अन्यतम कहानी ‘प्रिया सैनी’ है जहां एक कलाकार नारी-पात्र के नजरिये से मध्यवर्गीय मानसिकता और वैचारिक सीमा को गहरे ढंग से परिभाषित किया गया है।

फिर भी, ग्रामीण जीवन की कथा ही इस लेखक के सरोकारों का केंद्र रही है। उनकी चर्चित कहानी ‘बीच के लोग’ में पुरानी पीढ़ी और युवा पीढ़ी के बीच का अंतराल स्पष्ट देखा जा सकता है। क्या गांव में विद्यमान अंतर्विरोधों का हल सर्वस्वीकृत आम सहमति और सुधारवाद है, मसलन गांधीवाद जिसके तहत शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीते हैं, या फिर उस प्रसंग में शोषण से लड़ने के लिए नया संघर्षशील नजरिया अख्तियार करना आवश्यक है? ‘बीच के लोग’ कहानी का यह कथ्य सहसा सत्तर के दशक का प्रतिनिधि सच बन कर उभरता है। इसी आयाम को बाद में मार्कण्डेय ने अपने महत्वपूर्ण उपन्यास ‘अग्निबीज’ में भी विस्तृत फलक पर उभारने का गंभीर प्रयास किया।

मार्कण्डेय की कथा आलोचना से संबंधित पुस्तक ‘कहानी की बात’ का अलग से जिक्र करना जरूरी है। इसके अधिकतर निबंध भैरव प्रसाद गुप्त द्वारा संपादित पत्रिका ‘नई कहानियां’ में प्रकाशित हुए थे। यद्यपि इन निबंधों का चयन स्वयं मार्कण्डेय करते थे, लेकिन कई अवसरों पर भैरव के सुझावों से लाभ मिलने पर मार्कण्डेय के तर्कों का महत्व बढ़ जाता था। संभवतः यह भैरव के व्यक्तित्व का प्रभाव था कि मार्कण्डेय ने निजी प्रकरणों को बहस के दायरे से बाहर रखा और इस तरह विचार पक्षों और तर्कों को वस्तुपरक दिशा में बढ़ाया। यह निश्चित योजना के अधीन होता था और पत्रिका में व्यक्तिवादी मूल्यों तथा जीवनगत बूज्र्वा प्राथमिकताओं को अनावश्यक स्थान न मिलता था। भैरव का संपादकीय अनुशासन रचनाशीलता और आलोचना को बिखरने से बचाता था। इस संपादकीय व्यवहार की मूल्यवत्ता तब स्पष्ट हुई जब क्षुद्र हितों से परिचालित कुछ लेखकों ने भैरव को ‘नई कहानियां’ के संपादकत्व से हटाने की छद्म मुहिम चलाई। नये माहौल में ‘हमदमों’ और ‘दोस्तों’ की एकाएक बन आई और परिणामतः एक जीवंत पत्रिका धीरे धीरे अपनी विचार समर्थक नीति से स्खलित हो गई। द्रष्टव्य है कि भैरव के पत्रिका से हटने पर अचानक मार्कण्डेय का लेखन कम हो गया और उनकी विचार सामग्री पर तो जैसे रोक ही लग गई। फिर भी मार्कण्डेय का कहानी लेखन अभियान जारी रहा और संकलनों तथा छिटपुट पत्रिकाओं के माध्यम से उनकी रचनाएं पाठकों को कुछ अंतराल से ही सही, लेकिन उपलब्ध होती रहीं।

सत्तर का दशक आया तो मार्कण्डेय को स्वतंत्र पत्रिका निकालने की जरूरत महसूस हुई। इस बड़े साइज़ के पन्नों में छपी पत्रिका को मार्कण्डेय ने ‘कथा’ के नाम से निकाला। इसका रूप भी पहले की अधिकतर पत्रिकाओं से भिन्न था। कथा में रचनाएं अवश्य छपती थीं, लेकिन वह मुख्यतः विचार की पत्रिका थी। फिर, इन विचारों का दायरा सांस्कृतिक मसलों तक सीमित न था, बल्कि वहां राजनीतिक परिप्रेक्ष्य पर भी भरपूर सामग्री दी जाती थी। ‘कथा’ के कुछ अंकों में बी0 टी0 रणदिवे जैसे राजनीतिक नेताओं-विचारकों के लेख ही नहीं प्रकाशित हुए बल्कि वैचारिक टकराहट के नजरिये से मसलन गुरु गोलवलकर के विचार भी दिये गए। इसी तरह नव लेखन पर विभिन्न आलोचकों से अपनी स्वतंत्र राय व्यक्त करने को कहा गया। ‘कथा’ के सामग्री चयन में मार्कण्डेय ने किसी संकुचित राजनीतिक आग्रह को स्थान न देकर विमर्श को तरजीह दी। अब भी किंचित बदले आकार में ‘कथा’ के अंक प्रकाशित होते हैं और इस पत्रिका का हर अंक हिंदी समाज के सामने उपलब्धि की भांति स्वीकार किया जाता है। पिछले ही दिनों ‘कथा’ का नया अंक आया है और उसे पाठक वर्ग की सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली है। इसी तरह पत्रिका के कुछ समय पहले छपे अंक में मार्कण्डेय ने हिंदी लेखकों से आग्रहपूर्वक माक्र्सवादी आलोचक ओम प्रकाश ग्रेवाल पर लिखने को कहा, ताकि पाठक को साहित्य चिंतन के वैकल्पिक परिप्रेक्ष्य से अवगत कराया जा सके। ऐसा संपादकीय विवेक समकालीन साहित्यिक पत्रकारिता में दुर्लभ है।

मार्कण्डेय के आयोजकीय योगदान पर प्रायः ध्यान नहीं दिया गया है। कम लोग परिचित हैं कि कई महत्वपूर्ण साहित्यिक सम्मेलनों का आयोजन मार्कण्डेय ने किया। इनमें प्रमुख सन 1974 का इलाहाबाद लेखक सम्मेलन है जिसमें लगभग दो सौ लेखकों ने शिरकत की थी। इस सम्मेलन में महादेवी वर्मा, यशपाल, सुमित्रानंदन पंत, हरिशंकर परसाई के साथ साथ भैरव प्रसाद गुप्त, अमरकांत, शेखर जोशी, विजयदेव नारायण साही, जगदीश गुप्त, गिरिराज किशोर के साथ साथ इसराइल, चंद्रभूषण तिवारी, सतीश जमाली, दूधनाथ सिंह, श्रीराम तिवारी और अनेक युवा लेखकों ने हिस्सा लिया था। इन लेखकों की सक्रियता और भागीदारी से उस समय जो माहौल बना उससे तत्कालीन रचना में उत्साह और आवेग का अनोखा संचार हुआ। ‘जनवादी लेखक संघ’ की स्थापना में भी मार्कण्डेय की भूमिका महत्वपूर्ण थी।

मार्कण्डेय योजनाओं के मास्टर कहे जाते हैं। उनके पास हर समय कोई न कोई नया विचार होता है जिसे अंजाम देने में उनका मस्तिष्क सदा सक्रिय रहता था। इस बार उनसे मिलने पर पता चला कि दूसरी भाषाओं में हिंदी रचनाओं का अनुवाद किया जाना कितना जरूरी है। यह कुछ समय पहले सोचे गए कार्यक्रम की अगली कड़ी थी जब उन्होंने एक प्रकाशक को लगभग तैयार कर लिया था कि हिंदी ग्रंथों की एक बड़ी सीरीज हिंदी के साथ साथ अंग्रेजी में भी प्रकाशित की जाएगी। इन दिनों वह ‘कथा’ के अगले अंक की तैयारी में जुटे हैं और पूरी तरह आश्वस्त हैं कि जल्द ही सुनिश्चित-सुनियोजित सामग्री के साथ पत्रिका का नया अंक पाठकों को मिलेगा।


आनंद प्रकाश, बी-4@ 3079, वसंत कुंज, नयी दिल्ली - 110 070 दूरभाषः 26896203

मैंने अपने लिये सबसे सेफेस्ट खान को चुना हैः करीना कपूर

आज कल करीना कपूर फिल्मों की व्यस्तता को छोड कर अपने परिवार के साथ व्यस्त हैं। और हो भी क्यों नहीं , क्योंकि हाल ही में उन्हें दूसरी बार मासी बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है। हमने उन्हें इस दूसरी बार मासी बनने की खुशी में बधाई देते हुए उनके व्यक्तिगत जीवन फिल्मों के बारे में लंबी बातचीत कर ली।

कैसा लग रहा है जब आपको दूसरी बार मासी बनने का सौभाग्य मिला है?
- यह तो अच्छा ही लग रहा है। नया बच्चा ‘कियान’ वाकई बहुत ही ख़ूबसूरत है। सामरिया बहुत कुछ संजय कपूर पर लगती है परन्तु यह नया बच्चा बहुत कुछ करिश्मा पर गया है। यह हमारे परिवार के लिए एक उत्सव मनाने का समय आया है क्योंकि बहुत दिनों बाद इस परिवार में लड़‌के का आगमन हुआ है।

आपकी फिल्म 3 ईडियट ने सफलता के सारे रिकार्ड तोड़ दिये हैं और आपने आमिर के साथ अपनी फिल्मी ज़मीन मजबूत कर ली है, कैसा लग रहा है आपको?
-मैं समझती हूँ कि यह सब इसलिए भी हुआ है क्योंकि यह राजू हिरानी की फिल्म थी तथा मैं और आमिर पहली बार साथ में आ रहे थे इसलिए लोगों को फिल्म से बहुत उम्मीद भी थी। मैं समझती हूँ कि हमारी जोड़ी को लोगों ने पसंद भी किया।

क्या आपने इस फिल्म को राजू और आमिर के होने के कारण किया?
-मेरी हर फिल्म में चाहे वो अच्छी हो या बुरी हो, मैंने दूसरे कलाकारों के सामने अपनी मौजूदगी को बनाए रखी है। मेरा ‘ एजन्ट विनोद ’ व ‘ गोलमाल 3 ’ में भी जबरदस्त रोल है। मैं अपनी हर फिल्म में बहुत मेहनत करती हूँ क्योंकि मैं अपने आपको एक स्टार के पहले एक अच्छे कलाकार के रूप में पेश करना चाहती हूँ। मुझे यह अच्छा नहीं लगता कि कोई मुझसे कहे कि मैं अपनी फिल्म में अच्छी लग रही थी क्योंकि मैं जानती हूं कि कोई भी मुझे अपनी खूबसूरती के लिए नहीं अपने टेलेंट के लिए अपनी फिल्म में लेता है। मैं यहां अपना टेलेंट दिखाने के लिए हूं न की अपनी खूबसूरती और इसी कारण से मुझे लडकों की प्रमुखता वाली फिल्म 3 ईडियट में भी लिया गया। मुझे लगता है कि मेरा दर्शक वर्ग मुझे ‘ कम्बक्त इश्क ’ जैसी फिल्मों में देखना पसंद नहीं करता है और यह गलती मैं दोबारा दोहराना नहीं चाहती।

फिल्मकुर्बानका रिव्यू अच्छा है फिर आपने उसमें काम क्यों नहीं किया?
- जरूरी नहीं कि मैं हर फिल्म करूँ। जो वक्त के अनुसार सही लगे वही करना चाहिए। एक एक्टर को एक एक्टर की तरह रहना चाहिए। ऐसा नहीं कि दो सुपरहिट देने के बाद कलाकार सुपर स्टार बन जाता है उसे अपनी फ्लाप फिल्मों का भी ध्यान रखना चाहिए क्योंकि दर्शकों कह निगाह में वह महत्वपूर्ण होता है।

आपकी फिल्म साइन करने के लिए एक लंबे प्रोसेस से गुजरना पड़ता है?
- कई बार ऐसा होता है और कई बार नहीं भी। हम एक्टर एक वैज्ञानिक की तरह होते है जो अलग-अलग प्रयोग करता रहता है। लोग जानते है कि करीना रिस्क ले सकती है और मैंने ‘चमेली’ जैसी फिल्म करना स्वीकार किया। मैं इस बात की परवाह नहीं करती कि लोग टशन के बारे में क्या कहते है। मैंने फिल्म में अपना किरदार को जीवंत करने के लिए अपनी बॉडी लेंगवेज को हर तरह से चेंज किया। कितनी एक्ट्रेसेस हैं जो इस प्रकार की चुनौती को स्वीकार कर पाती है वो भी इस पुरूष प्रधान इंडस्ट्री में। टशन मेरे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि है क्योंकि उसी दौरान मैं सैफ से मिली थी। कभी-कभी फ्लाप फिल्म भी एक्टर के लिए एक बडी न्यूज बन जाती है।

आप सभी खान कलाकारों में चुनने में क्या ध्यान करती हैं?
- मैंने अपने निजी जीवन के लिए सबसे सेफेस्ट खान का चुनाव कर लिया है। बाकी सभी खानों में सभी एक दूसरे से अलग लगते हैं। सैफ और मैं एक दूसरे के करीबी दोस्त हैं और आमिर और शाहरूख हमारे परिवार जैसे हैं। मेरी बहन सलमान को पसंद करती है।

पर सबमें हो रही प्रतिस्पर्धा जग जाहिर है?
- यहां केवल बीकाऊ 3 या 4 है तो यह प्रतिस्पर्धा तो होनी ही है लोगों के पास कोई चाइस भी तो नहीं है।

आज कल फिल्म इंडस्ट्री में आपको सबसे महंगी एक्ट्रेस के रूप में आंका जा रहा है?
- मैं नहीं जानती । पर आप बताइये हर दिन यह रिपोर्ट आती है कि फलानी एक्ट्रेस इतना लेती है, फलानी इतना। यदि सबसे ज्यादा प्राइज लेने वाली एक्टेªसों की लिस्ट बने तो शायद मेरा उसमें आखरी दस में नाम आयेगा।

आपके और सैफ के संबंधों को लेकर बहुत सारी चर्चाए होती रहती हैं आप उनको किस प्रकार से लेती हैं?
- मेरे व सैफ के संबंध स्पष्ट हैं। हमारे बारे में बहुत कुछ छपता रहता है कि आज हमनें शादी करली, कल तलाक हो गया इन सब गौसिफ का हम मजा भी लेते है। पर हां , जब हम शादी करेंगे तब सारा जमाना जान जाएगा। ये सब कुछ जल्द होने वाला भी है।

आप अपने व्यस्त समय में से परिवार के लिए समय किस प्रकार निकाल पाती हैं?
-मैं बहुत सा समय निकाल लेती हूँ। एक एक्टर के लिए जो लगातार काम कर रहा हो समय निकालना जरूरी है। मैं साल में चार फिल्मों से ज्यादा नहीं करती । मैंने अपने सेक्रेट्री से भी कह रखा है कि हर तीन महीनों के बाद मुझे ब्रेक चाहिए। मैं सारा साल एक साथ काम नहीं कर सकती।

सुना गया था कि आप भी आई पी एल टीम खरीदने वाली थीं?
- हम इसके लिए गये भी थे व पेपर वर्क भी पूरा किया था पर ये सब केंसल हो गया। यदि दोबारा मौका मिला तो यह सब सैफ के समझ का काम है मैं तो केवल फिल्मों के बारे में जानती हूं।

तो क्या आप प्रोडक्शन हाउस खोलने में रूचि रखती है?
- मैं अपने लिए तो फिल्म बनाने से रही। अभी तो बाहर की फिल्मों से ही समय नहीं मिल पा रहा हैं। अभी एक फिल्म मधुर भंडारकर के साथ करने का प्लान चल रहा है। पटकथा लिखी जा रही है पर अभी सब कुछ तय नहीं हुआ है।

‘मिलेंगे-मिलेंगे’ के बारे में रोज सुना जा रहा है पर पता नहीं कब मिलेंगे?
- यह तय हो चुका है कि फिल्म जल्द रिलीज होने जा रही है । मैंनें अपनी ओर से निर्माता बोनी कपूर को कह दिया है कि मैं फिल्म के प्रमोशन के लिए तैयार हूं । बाकी जो कुछ मीडिया में छप रहा है मेरे व ‘ााहिद के बारे में उसके लिए हम आदि हो चुके है।

प्रस्तुतिः अशोक भाटिया

Tuesday, March 16, 2010

सुनिए राजेन्द्र यादव का 93 मिनट का इंटरव्यू

पिछले 6 दशकों से रचनाकर्म में सक्रिय राजेन्द्र यादव साहित्य में महानायक की हैसियत रखते हैं। साल 2006 में वरिष्ठ आलोचक आनंद प्रकाश और युवा कवि-लेखक रामजी यादव की टीम (पीपुल्स विजन प्रोडक्शन कम्पनी) ने राजेन्द्र यादव का लम्बा इंटरव्यू लिया। पीपुल्स विजन यादव जी के समग्र व्यक्तित्व और कृतित्व पर फिल्म बना रहा है। यदि आप भी इस प्रोजेक्ट से किसी भी तरह से जुड़ना चाहें तो रामजी यादव से (yadav.ramji2@gmail.com या 9015634902 पर) संपर्क करें। इस साक्षात्कार में राजेन्द्र यादव ने कविता की विलुप्ति, कहानी-नई कहानी, दलित और महिला लेखन, मार्क्सवाद की भारत में असफलता, साहित्य और राजनीति के पारस्परिक संबंधों इत्यादि पर खुलकर बोला। हमें यह साक्षात्कार संग्रहणीय लगा और यह भी लगा कि शायद हिन्द-युग्म के बहुत-से पाठक भी इसे सुनकर ऐसा महसूस करेंगे कि बहुत कुछ जानने और समझने को मिला।



यदि आप उपर्युक्त प्लेयर से नहीं सुन पा रहे हैं या अपनी सुविधानुसार सुनना चाहते हैं तो यहाँ से डाउनलोड कर लें।

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा और गांधी शांति प्रतिष्ठान के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित मासिक कार्यक्रम "अनहद" में राजेन्द्र यादव का कथापाठ शुक्रवार, 19 मार्च 2010 की शाम 5‍ः30 बजे आयोजित होगा। अध्यक्षता निर्मला जैन करेंगी। जरूर पधारें।

Monday, March 15, 2010

महिला आरक्षण बिल - एक लंबे सफर की शुरूआत

0 प्रेमचंद सहजवाला

मंगलवार 9 मार्च 2010, ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस’ से एक दिन बाद का दिन भारतीय समाज के लिए एक ऐतिहासिक दिन है, जब विश्व के सब से बड़े लोकतंत्र के उच्च-सदन ने बाबा साहब के संविधान में रेखांकित ‘समानता’ शब्द की प्रगति के लिए एक बड़ी छलांग लगाई है. राज्य सभा ने संविधान का 108 वां संशोधन बिल पारित कर दिया है, जिसके अनुसार देश की लोकसभा व विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33% सीटें आरक्षित कर दी गई. यह एक लंबे सफर के लिए उठाया गया मात्र पहला कदम होते हुए भी एक बड़ी छलांग माना जा रहा है क्योंकि निम्न-सदन लोकसभा की तरह उच्च-सदन को भी इसे दो तिहाई बहुमत से पारित करना था और ऐसा करना टेढ़ी खीर ही माना जा रहा था. यू.पी.ए सरकार के विलंबित तिकड़मों, शरद यादव की जनता दल (यू) में दो फाड़ा जिसके अंतर्गत नितीश कुमार ने पार्टी के फैसले के विरुद्ध बगावत का झंडा गाड़ दिया तथा अन्य कारणों से बिल को 186:1 मतों से पारित होने में सफलता मिल गई.
दूरदर्शन चैनलों पर यह सब देख कर मुझे सहसा वह दिन याद आ गया जब बाबा साहेब आम्बेडकर देश के प्रथम क़ानून मंत्री की हैसियत से सदन में ‘हिंदू कोड बिल’ प्रस्तुत करते हुए कह रहे थे – ‘आखिर हमारे पास यह आज़ादी है किस लिए? हामारे पास आज़ादी अपने सामाजिक तंत्र में सुधार लाने के लिए है जो कि विषमताओं असमानताओं तथा अन्य बातों से भरा है और हमारे ‘मूल अधिकारों’ के प्रति कई विरोधाभास लिए मौजूद है (Dr. BR Ambedkar and untouchability by Chritoffe Jaffrelot p 115).
सदन में हिंदू कोड बिल के माध्यम से बाबा साहेब वास्तव में हिंदू नारी का सशक्तीकरण करना चाहते थे जिसमें बुद्ध, जैन तथा सिख धर्मं की नारियां भी सम्मिलित थी. बिल में कई प्रावधान थे जिन के माध्यम से वे नारी-पुरुष के बीच असमानता के प्रतीकों का उन्मूलन कर देना चाहते थे. उदाहरण के तौर पर बाबा साहेब ने तर्क दिया कि वर्त्तमान नियमों के अनुसार यदि किसी व्यक्ति का देहांत होता है तो उस की विधवा को, उस के बेटे की विधवा को (यदि वह मर चुका है और विवाहित था) और यहाँ तक कि उस के पोते की विधवा को (यदि वह भी मर चुका है और विवाहित था) संपत्ति में हिस्सा मिलता है. फिर अपनी पेट-जायी सगी बेटी को क्यों भुला दिया जाए? बाबा साहेब ‘कोड बिल’ द्वारा नारी अधिकारों में धुआंधार परिवर्तन करना चाहते थे ताकि वह समाज में पुरुष के बराबर खड़ी होने का साहस कर सके. मसलन उस समय तक पति के देहांत के बाद कोई भी नारी पति की संपत्ति पर केवल ‘Limited Estate’ (सीमित स्तर) जितना अधिकार सकती थी. वह उस संपत्ति से आने वाली आय का फायदा तो उठा सकती थी पर केवल कुछ कानूनी मसलों के अलावा उस का मूल-संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं था. लेकिन कोड बिल ने ‘Limited Estate’ को Absolute Estate (पूर्ण स्तर) में बदल कर नारी को पुरुष के बराबर ला कर खड़ा कर दिया ((The Essential Writings of BR Ambedkar p 498 and India After Gandhi by Ramchandra Guha pp 228-229). इसी प्रकार बिल ने गोद लेने के मसले पर भी नारी को सशक्तीकृत कर दिया, पुरुष पर यह बंधन डाल कर कि वह किसी भी बच्चे को गोद ले तो पत्नी की सहमति अनिवार्य रूप से ले ले तथा गोद लेने की इस क्रिया को वह असालत पंजीकृत ज़रूर करवा दे (Essential Writings… p 501). उस समय तक एक विवाहिता नारी की स्थिति यह थी कि यदि वह किसी कारण पति के साथ एक ही घर में नहीं रहती थी तो वह खुद को पति से एक पाई तक प्राप्त करने से वंचित कर देती थी. लेकिन इस बिल ने स्वीकारा कि निश्चय ही कुछ परिस्थितयां हैं जिन में यदि पत्नी पति से अलग रहती है तो वह कुछ ऐसे कारणों से ऐसा करती होगी जिन पर उस का वश नहीं है तथा उसे पति की ओर से कोई भी खर्चा न दिया जाना उस के साथ सरासर ना इंसाफी है (वही पुस्तक p 499). अतः इस बिल ने किसी विवाहिता को कुछ विशिष्ट परिस्थितयों यथा पति की कोई जघन्य बीमारी, उस के द्वारा किया जा रहा अत्याचार या वेश्या गमन या पत्नी के परित्यक्ता होने पर पति से खर्चे का अधिकार दिलाया. इस बिल ने तलाक का एक सर्वथा नया कदम भी उठा जिसका कि हिंदू समाज में इस से पहले कोई चलन था ही नहीं! बिल ने बहुनिष्ठता की जगह एकनिष्ठता को स्थापित किया क्यों कि हिंदू समाज में भी उस समय तक बहु-विवाह की प्रथा थी.
लेकिन दुर्भाग्य कि बाबा साहेब के इस बिल की पैदा होते ही हत्या करनी पड़ी क्योंकि इस बिल के विरोध में सहसा सदन के गणमान्य सदस्यों की एक सेना खड़ी हो गई और विरोध की ऐसी तेज़ आंधी आई कि बाबा साहेब का ह्रदय छलनी हो गया और उन्होंने कानून मंत्री के पद से ही इस्तीफ़ा दे दिया. पंडित नेहरु और बाबा साहेब के रास्ते अलग हो गए. जो महापुरुष इस बिल का विरोध कर रहे थे वे सब के सब Hindu Personal Law (हिंदू व्यक्तिगत क़ानून) के परम भक्त थे तथा जो महापुरुष इस बिल से सख्त नफरत करते थे उन के मुखिया कोई और नहीं, देश के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद थे ! कुछ वर्षों बाद जब तक पंडित नेहरु ने अनेक तिकडमों व संशोधनों से तथा बिल को कई हिस्सों में बाँटकर आखिर उसे पारित नहीं करवा कर छोड़ा तब तक नारी को शक्ति प्रदान करने वाला यह बिल देश के शास्त्र प्रेमी महापुरुषों की हठ की वेदी पर बालि चढ़ा रहा. पंडित नेहरु ने पहली बार विरोध की आंधी से घबरा कर सदन में यह बिल मतदान तक के लिए प्रस्तुत नहीं किया था क्योंकि विरोध के चक्रवात में उन की अपनी कुर्सी तक डूबने को आ गई थी. परन्तु इस बार उन्होंने सब को कड़ी चेतावनी भी दी और ‘व्हिप’ भी जारी किया. इस बिल का विरोध इतना प्रचंड रहा कि देश में एक जगह साधुओं ने एक महारैली कर डाली. साधुओं ने खोज बीन कर जिस हिंदू नारी को एक आदर्श नारी के रूप में प्रस्तुत किया, वह थी रामायण की सीता. रामायण की सीता ! जिस ने कुछ नहीं किया, फिर भी उसे महल से निकलना पड़ा, अग्नि से गुज़रना पड़ा और पृथ्वी में समा जाना पड़ा ! देश की ‘संविधान-सभा’ के उच्च-शिक्षित किन्तु शास्त्रांध कानून-निर्माता यह भी भूल गए कि हमारे पवित्र (!) शास्त्रों के नारियाँ तो हमेशा पुरुष की ज़ालिम तानाशाही की शिकार रही, चाहे वह अभागी द्रौपदी हो जिसे उस का सब से बड़ा पति युधिष्ठिर राजसी जुए में पापी दुर्योधन के हाथों हार गया, चाहे निर्दोष अहिल्या जिसे उस के पवित्र (!) ऋषि पति ने पत्थर बना दिया या सुलोचना ही क्यों न हो जिसे राम-रावण युद्ध में पति मेघनाथ के मरते ही समाज की पाप-मय ‘सती प्रथा’ के होते जल मरना पड़ा! बेचारी सावित्री ने तो खुद को बच्चे पैदा करने वाली एक मशीन ही समझा और एक दो नहीं पूरे सौ पुत्र मान डाले ताकि मृत्यु देवता यमराज उस के पति सत्यवान को जीवित लौटा दें! केवल कुछ बच्चों की मांग रखने पर भी यमराज उस के पति को जीवित वापस न करते क्या!...

(क्रमशः ... अगले अंक में सन 1891 में विवाहित लड़की संबंधी क़ानून की गत लोकमान्य तिलक जैसे महापुरुषों ने क्या बना दी...)

Sunday, March 14, 2010

शापित से बहुत कुछ सीखने को मिलाः श्वेता अग्रवाल

श्वेता अग्रवाल फिल्म ‘शापित’ से पहले टर्की की एक फिल्म ‘मिरार’ में और ओलिवर पॉलिस की स्विस जर्मन फिल्म ‘तंदूरी लव’ में भी अभिनय कर चुकी हैं। ‘स्टार प्लस’ पर प्रसारित धारावाहिक ‘देखो मगर प्यार से’ में मोटी-सी लडकी के किरदार में नज़र आ चुकीं श्वेता अग्रवाल इन दिनों फिल्म सर्जक विक्रम भट्ट की खोज के रूप में उनकी आगामी फिल्म ‘शॉपित’ में अभिनय करके चर्चा का विषय बनी हुई हैं। इस फिल्म में उनके हीरो है मे मशहूर संगीतकार उदित नारायण के बेटे आदित्य नारायण हैं। देखा जाए तो यह फिल्म श्वेता के लिए डेब्यू होगी व अपनी बॉलीवुड की पहली ही फिल्म विक्रम भट्ट की हॉरर फिल्म 'शापित’ से कर रही है।

प्रश्न- कैसा लग रहा है अपनी पहली बॉलीवुड फिल्म को करके ?
- पहले मैं बहुत ही डरी हुई थी कि बॉलीवुड में मेरी पहली फिल्म ही विक्रम भट्ट जैसे महान निर्देशक के साथ करने को मिल रही है । फिल्म 'शापित’ एक हॉरर फिल्म होने के साथ साथ प्रेम कहानी वाली भी फिल्म हैं। विक्रम भट्ट उन निर्देशकों में से हैं, जो अपने दर्शकों को अपनी फिल्म के द्वारा एक जगह पर बैठे रहने के लिए मजबूर कर देते हैं। मुझे पूरा यकीन हैं कि उनकी फिल्म ‘शापित’ दर्शकों निराश नहीं करेगी। इन्ही सब कारणों से मुझे इस फिल्म को करने में मजा आ रहा हैं।

प्रश्न- इस फिल्म में अपने किरदार के बारे में बताइए?
- इस फिल्म में मैंने काया का किरदार निभाया है जो कि एक रायल परिवार की कॉलेज में पढने वाली लडकी है । काया को इस बात की जानकारी नहीं है कि उसके परिवार को 300 साल पहले एक श्रॉप मिला था जिसकी वजह से इस परिवार की कोई लडकी जब भी शादी करना चाहेगी तो बुरी ताकत उसे खत्म कर देगी ।प्यार के सागर में डूबी काया अपने प्रेमी अमन से सगाई करके जैसे ही सगाई की अंगूठी पहनती हैं वैसे ही वह बुरी आत्मा उसके पीछे पड जाती हैं । तब काया के माता पिता काया को उसके शापित होने की बात बताते हैं। इसके बाद भी काया का प्रेमी अमन उससे रिश्ता नहीं तोडता क्योंकि काया और अमन ने तो पूरी जिन्दगी एक साथ रहने का इरादा पक्का किया हुआ हैं । फिर यह दोनों उस बुरी आत्मा से बचने के लिए क्या क्या नहीं करते हैं यह डरावना मंजर इस फिल्म में दिखाया गया है ।

प्रश्न- आपको नहीं लगता कि आपको अपना कैरियर हॉरर फिल्म से शुरू करना महंगा पड़ सकता हैं?
- मैं मानती हूं कि बॉलीवुड में हॉरर फिल्म के साथ कैरियर शुरू करना काफी रिस्की है। लेकिन मुझे इसमें कोई रिस्क नहीं लगता और न ही किसी से मेरी इस बारे में शिकायत है। मुझे विक्रम भट्ट की फिल्म होने से इस फिल्म पर पूरा भरोसा है। वैसे ‘शापित’ में पागलपन वाला हॉरर नहीं हैं। इसमें एक प्रेम कहानी है। काया और अमन एक दूसरे से बहुत ज्यादा प्यार करते हैं। वे एक दूसरे पर जान न्यौछावर करने वाला प्यार करते है। बुरी आत्मा से बचने के लिए वे क्या क्या नहीं करते हैं और बुरी आत्मा किस तरह उनका पीछा करता है और कई तरह के घटनाक्रम होते है। इस फिल्म की कहानी में रोचकता के साथ डरावनापन भी है।

प्रश्न- फिल्म की शूटिंग के दौरान क्या अनुभव रहा ?
- इस फिल्म में काम करना मेरे लिए बहुत बडी चुनौती के रूप में था क्योंकि मैं भी एक जगह बैठकर हॉरर को नहीं देख सकती थी। इसी वजह से इस फिल्म की शूटिंग के दौरान मैं खुद डरी हुई रहती थी। एक बार एक ऐसा दृश्य फिल्माया जा रहा था, जिसके लिए मुझे एक जगह बंद कर दिया जाता हैं। वहां मिट्टी थी, गंदगी थी और जगह इतनी सकरी थी कि मैं हिल डुल भी नहीं सकती थी। दीवार से चेहरा सटा हुआ था। मैं न बाहर वालों की आवाज सुन सकती थी, न बाहर वाले मेरी। कैमरा अपना काम कर रहा था। तभी अचानक एक मकड़ी वहां आ गयी। मकड़ी से तो मैं बहुत डरती हूं। मुझे लगा कि मेरी जिन्दगी खत्म हो गयी। मैं बुरी तरह डर व सहम गई थी। जैसे ही सीन ओ.के. हुआ व दरवाजा खुला, मैं जोर-जोर से रोने लगी। डरी सहमी मैं आधे घंटे तक रोती रही। विक्रम भट्ट वगैरह ने मुझे काफी समझाया। बडी मुश्किल से दो घंटे बाद मेरे अंदर का डर खत्म हुआ और मैं नॉर्मल हो सकी।

प्रश्न- निर्देशक विक्रम भट्ट के साथ काम करने का क्या अनुभव रहा?
-बहुत ही अच्छा अनुभव रहा। मुझे उनसे बहुत कुछ सीखने को मिला। हर फिल्मकार की काम करने की अपनी अलग स्टाइल होती है। विक्रम भट्ट की तो स्टाइल ही अलग हैं। वह तो हमारे गुरू की तरह हमें काम के बारे में बता रहे थे। उन्होंने हमारी बहुत मदद की । वह खुद सीन करके बताते थे कि हमें किस प्रकार करना है। इसके बावजूद जब समस्या हल नहीं होती थी तो वह दृश्य में कुछ बदलाव भी करते थे। विक्रम भट्ट जी खुल विचारों के है। उनके साथ काम करके बहुत ही मजा आया। मैंने उनसे बहुत कुछ सीखा।

प्रश्न- क्या कारण है कि ‘शापित’ बन कर तैयार है और आपने अभी तक कोई दूसरी फिल्म साइन नहीं की है?
-मैं पिछले डेढ साल से ‘शापित’ के साथ इस तरह जुडी हुई हूँ कि कुछ और सोचने का मौका ही नहीं मिला। मेरे दिमाग में ही नहीं आया कि मुझे किसी नये प्रोजक्ट से भी जुडना चाहिए। अब जब आप लोग सवाल कर रहें हैं तो मुझे लगता हैं कि अब मुझे दूसरी तरफ भी ध्यान देना पडेगा। मुझे हर निर्माता-निर्देशक व कलाकार के साथ काम करना हैं बशर्ते अच्छी पटकथा व उसमें मेरा किरदार दमदार हो। मैं यहां तब तक रहूंगी जब तक मुझे काम मिलेगा और लोग मुझे परदे पर देखना पसंद करेंगे। मैं अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ परफार्मेंस देने का पूरा प्रयास करूंगी।

प्रश्न- आप अंतरराष्ट्रीय फिल्मों से पहले अपने कॉलेज के दिनों में ‘देखो मगर प्यार से’ एक धारावाहिक भी कर चुकी हैं तो क्या अब टी वी सीरियल भी करेंगी?
-फिलहाल तो मैं फिल्में ही करना चाहूँगी जो मेरी प्राथमिकता है पर भविष्य में कुछ अच्छा ऑफर मिला तो टी वी भी कर सकती हूँ।

प्रस्तुतिः अशोक भाटिया

Saturday, March 13, 2010

तलाश-भारत के महानायक की

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जिसने देश की आजादी में सराहनीय योगदान किया। स्वतन्त्रता आन्दोलन में उनके नेताओं की भूमिका को राष्ट्र नकार नहीं सकता। आज कांग्रेस पार्टी अपना 125 वॉ जन्म वर्ष मना रही है। 1885 में कांग्रेस का जन्म हुआ, जिसके संस्थापक ए0ओ0 ह्यूम जो एक रिटायर्ड अंग्रेज प्रशासनिक अधिकारी थे तथा प्रथम राष्ट्रीय अध्यक्ष डब्लू0सी0 बनर्जी हुए। ए0ओ0 ह्यूम, डब्लू सी0 बनर्जी से लेकर सोनियां गॉधी तक कांग्रेस पार्टी ने कई उतार चढ़ाव देखे। 1885 से लेकर 1905 तक लगातार 20 वर्षों तक कांग्रेस में उदारवादी गुट का प्रभाव रहा, जिसके प्रमुख नेता दादा भाई नौरोजी, सुरेन्द्र नाथ बनर्जी, फिरोज शाह मेहता, गोविन्द राना डे, गोपाल कृष्ण गोखले, मदन मोहन मालवीय थे। 1905 से 1919 के मध्य नव राष्ट्रवाद तथा गरम पंथियों का उदय हुआ जिसके प्रमुख नेताओं में बाल गंगाधर तिलक, विपिन चन्द्र पाल, लाला लाजपत राय (लाल-बाल-पाल) तथा अरविन्द घोष प्रमुख थे। लाल-बाल-पाल तथा अरविन्द्र घोष के प्रयासों के कारण प्रथम बार 1905 में कांग्रेस के बनारस राष्ट्रीय अधिवेशन में गोपाल कृष्ण गोखले की अध्यक्षता में स्वदेश तथा 1906 के कलकत्ता राष्ट्रीय अधिवेशन में दादा भाई नौरोजी की अध्यक्षता में पहली बार स्वराज की मांग रखी गयी।
स्वतन्त्र भारत पर सबसे अधिक शासन करने वाले उक्त राजनैतिक दल का चारित्रिक पतन देश की आजादी के बाद धीरे-धीरे प्रारम्भ हुआ। किसी समय
लेखक
राघवेन्द्र सिंह
117/के/145 अम्बेडकर नगर
गीता नगर, कानपुर - 25
फोन नं- 9415405284
उत्तर प्रदेश (भारत)
email: raghvendrasingh36@yahoo.com
ईमानदारी से कार्य एवं सभी को साथ ले चलने वाली कांग्रेस पार्टी आजादी के बाद अचानक एक परिवार की पार्टी होती चली गयी। उनके साथ काम करने वाले राजनेता अपने तुच्छ स्वार्थों के चलते एक परिवार के आधीन होते चले गये। जाने-अन्जाने पूरी पार्टी जो किसी समय स्वतन्त्रता आन्दोलन की मुख्य किरदार थी स्वयं परातन्त्र हो गयी। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने इस विषय पर आपत्तियॉ भी की, परन्तु उनके स्वर नक्कार खाने में तूते की आवाज बनकर रह गये। वर्तमान में कांग्रेस पार्टी सोनियॉ गांधी की इतालवी अंदाज के हिन्दी भाषणों एवं राहुल गांधी के टोटकों की पार्टी बनकर रह गयी। उक्त राज कुमार कभी दलित के घर में भोजन करते है तो कभी उनके बच्चे को गोंद में उठाकर पुचकारते, कभी उनके यहॉ रात बिताते है तो कभी ए0टी0एम0 से लाइन में लगकर पैसे निकालने से लेकर मैट्रो ट्रेन में सफर कर व्यवहारिक जनसमर्थन हासिल करने का प्रयास करते है। क्या उक्त सभी सामाजिक पैतरेबाजी एवं उनकी कारगुजारियां राजनैतिक जनसमर्थन की तरफ किंचित मात्र भी इंगित नहीं करती? क्या कभी किसी ने उनसे यह पूछने का प्रयास किया है, कि केन्द्र में आपकी ही सरकार है देश में आतंकवादी व्यक्तियों का जीवन छीन रहे है, बढ़ी हुयी प्रयोजित महंगाई सभी पायदान लांघ गरीब के मुह से निवाले हडपने पर आमादा है, अफजल गुरू जैसा कुख्यात आतंकी को आपकी पार्टी ने जिन्दा रख छोड़ा है तथा भारत की नेपाल, बांग्लादेश तथा पाकिस्तान सीमाए पूरी तरह असुरक्षित है। नकली नोट एवं हथियारों के साथ आतंकी उक्त सीमाओं से भारत में प्रवेश कर आतंकी गतिविधियों में संलग्न हैं क्या कभी किसी ने उनसे प्रश्न किया महाराष्ट्र में आपकी सरकार है आप वहॉ की मुख्य भूमिका में है आपकी सहयोगी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना उत्तर भारतीयों के साथ गैर मानवीय हरकते क्यों कर रही है। उन्हे महाराष्ट्र प्रदेश छोड़ने को क्यों मजबूर किया जा रहा है। क्या किसी पत्रकार मित्र ने राहुल गॉधी से यह जानने का प्रयास किया वर्ष 2007-08 में आपकी सरकार में गेंहू का समर्थन मूल्य 8.50 पैसे था, उसी समय विदेशों से 14.82 पैसे की दर से गेंहू क्यों आयात किया गया, वर्ष 2009-10 जब हमारे देश में आटा रू0 20/- प्रति किलों की दर से बिक रहा था तो सरकार ने 12.51 पैसे की दर से गेंहू क्यों विदशों में बेचा। वर्ष 2008-09 में गन्ने की सामान्य पैदावार के बावजूद सरकार ने 48 लाख टन चीनी विदेशों में रू0 12.50 प्रति किलो की दर से पहले बेची उसके बाद उक्त निर्यात से आयी किल्लत के कारण रू0 42.00 प्रति किलों की दर से चीनी आयात की। क्या उक्त कुछ आयात-निर्यात के आर्थिक खेल देश की बढ़ी हुयी महंगाई का कारण नहीं प्रतीत होते। क्या किसी ने उनसे यह पूछने की हिम्मत की देश मंे मजहब के आधार पर सर्वेक्षण कराने का कार्य आपकी पार्टी ने क्यों किया। क्या सच्चर कमेटी से रिपोर्ट बनवा ऐसा नही किया गया जैसा लगभग 90 वर्षो पहले अंग्रेजो ने मुस्लिम लीग को शह देकर करवाया था। रंगनाथ मिश्र आयोग बनवा अलग आरक्षण की मांग क्यांे उठवायी गयी। क्या मजहब के आधार पर आरक्षण की मांग किसी जिम्मेदार मुस्लिम नेता या संगठन ने की थी। देश का प्रधान मंत्री बनने को बेताब उक्त राजकुमार अपनी एयर कंडीशन्ड गाड़ी से घूम, फाइव स्टार होटलों का भोजन गरीब को झोपडी में कर यह जताने का प्रयास कर रहे है कि वे समाज से घुले मिले है। दुर्भाग्य की बात है हमारी लोकतान्त्रिक व्यवस्था के स्तम्भ पत्रकार बन्धु भी उनके अंदाजों को महिमा मंडित कहने में नही चूकते हैं।
राहुल गॉधी की स्पष्ट एवं आदर्शवादिता के चर्चे प्रायः पढ़ने एवं देखने को मिलते हैं। समाज का व्यक्ति अन्जाने में उनका मौखिक प्रचार माध्यम बनता जा रहा है, राजकुमार की छोटे-छोटे विषयों की स्पष्टवादिता समाज का भावनात्मक शोषण कर रही है। वे इतने ही आदर्शवादी है तो बताये आज देश विभिन्न ज्वलन्त समस्याओं से गुजर रहा है। आतंकवादी, महंगाई सरीखे विषय मानव को सशरीर निगल जाने को आमादा है। देश का शायद ही ऐसा कोई भाग हो जहॉ अमन चैन कायम हो। इसके अतिरिक्त देश में और भी कई ऐसे विषय है जिनकी जवाब देही से वे बच नहीं सकते। कहने को तो वे कह सकते है मैं प्रधानमंत्री नहीं हूँ आदि-आदि परन्तु पूरा देश जनता है मनमोहन राज किसके सामने दण्डवत है।
सिर्फ अभी मैं प्रधानमंत्री बनने लायक नहीं हूँ ! या इसी प्रकार के कुछ जुमलों से व्यक्ति स्पष्टवादी दिखने लगे तो यह न्यायोचित नहीं लगता। वे भली प्रकार जानते है उनके पास जो उपनाम की ताकत है, वही उन्हें अनिवार्य एवं अपरिहार्य बनाए हुए है जो कभी जाने वाली नहीं, अतः कांग्रेस पार्टी में उनका सर्वोच्च आसन सुरक्षित हैं वे कुछ भी बोले उससे उनकी विशिष्टता कम होने वाली नही। अतः वे भावनात्म्क कृत्यों एवं बयानो की खुली बाजीगरी कर लोकप्रियता हासिल करने का प्रयास कर रहे है। राहुल जी का यदि आप परिवारवाद विरोध देखें जो सिर्फ उनके बयानों तक ही सीमित हैं उनकी कथनी एवं करनी में जमीन आसमान का अन्तर है। राहुल के खास सिपहसालारों में मिलिंद देवडा, जितिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया, सचिन पायलट, कनिष्क इधर है क्या वे वंशवाद की श्रेणी में नहीं है, गरीबों के घर में गरीबी देखने वाले राहुल बाबा बयान देते है अगर 1992 में गॉधी परिवार का कोई प्रधानमंत्री होता तो बाबरी मस्जिद न टूटती इस वक्तव्य से सीधे तौर पर यह कहने का प्रयास करते है कांग्रेस पार्टी की हिफाजत एवं देश पर शासन करने की माद्दा शिर्फ गांधी परिवार के पास ही है। क्या उक्त बयान उनके शातिर दिमाग एवं परिवारवाद की तरफ इंगित नहीं करता। एक तरफ वे स्वयं सहित परिवारवाद के विरोधी एवं दूसरी तरफ स्वयं, मित्रों एवं बयानों के आधार पर परिवारवाद के पोषक दोनों ही भूमिका बाखूबी नहीं निभा रहे है वे। यदि उनकी 1992 वाली घटना मान भी ली जाये कि यदि उनके परिवार का कोई प्रधानमंत्री होता तो विवादित स्थल न टूटता तो 1984 के सिक्खों के कत्ले-आम के विषय में वे क्या कहेगें उस समय तो उनके परिवार का ही प्रधानमंत्री था। हमारे देश के युवराज राहुल गॉधी योग्य एवं सफल राजनेताओं की बात करते है। तो वे यह भूल जाते है भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में ही इनके रक्त सम्बन्धियों के अलावा भी योग्य एवे राष्ट्र भक्त राजनेता हुए है। लेकिन इनकी वैचारिक शक्ति शिर्फ अपने पिता श्री राजीव गांधी, माता श्रीमती सोनिया गांधी, दादी श्रीमती इन्दिरा गांधी तथा पर नाना श्री जवाहर लाल नेहरू ही देख सकती है। अन्य के चर्चें वे भूल कर के भी नहीं करते। फिर भी स्वयं को परिवारवाद के विरोधी के रूप में स्थापित करने पर आमदा है राहुल बाबा।
वास्तविकता तो यह है देश की गरीब एवं भावनाप्रधान जनता के साथ राहुल गांधी भावात्मक खेल बाखूबी खेल रहे हैं, वे राष्ट्रीय हित के विषयों पर न जाकर अपनी हल्की फुल्की गतिविधियों से भोली भाली जनता को रिझाने का प्रयास कर रहे है। उनके रास्ते पूर्व कांग्रेसी नेताओं से भिन्न हो सकते है परन्तु मंजिल एक है। देश का प्रधानमंत्री बनने की लालसा पाले वे यह भूल गये देश को एक ऐसे लौह पुरूष की तलाश है जो पूरे देश को एक सूत्र में पिरो सके, उनके हितो की रक्षा कर सके, अमेरिका जैसी ताकत को जवाब दे सके, चीन जैसे रंग बदलने वाले गिरगिट को दुरूस्त रख सके तथा पाकिस्तान जैसे बिगडैल को सबक सिखा सके। देश का नहीं चाहिए जो उपनाम की ताकत के माध्यम से देश के सर्वोच्च राजनैतिक आसन पर आसीन होना चाहता हो, उसे तालाश है ऐसे महानायक की जो सही मायने में देश को गति दे सके, साम्प्रदायिक सद्भावना रख सकें, महंगाई पर काबू, आतंकवाद पर लगाम तथा आतंकियो को दण्डित कर सके।

--राघवेन्द्र सिंह

Friday, March 12, 2010

महिला आरक्षण के सख्त विरोध में

O राजकिशोर

महिला आरक्षण विधेयक अगर पास हो गया तो कोई प्रलय नहीं आ जाएगा। लेकिन मीडिया में और खासकर महिला जगत में इसे लेकर उत्सव का जो माहौल है, वह लगभाग अश्लील जान पड़ता है। इनके मूड से ऐसा लगता है जैसे जन्नत का एक तिहाई हिस्सा महिलाओं को सौंप दिया जाने वाला है और कुछ गंवार लोग इसके विरोध में लट्ठ लेकर घूम रहे हैं। जो आरक्षण के भीतर आरक्षण चाहते हैं, उनकी जाति चिंता उनकी समाज चिंता के स्तर का पर्दाफाश करती है। पुराने द्विज संस्कारों की भुतही नकल करते हुए पिछड़ी जातियों के ये तथाकथित नेता आमतौर पर अपनी बहू-बेटियों को सार्वजनिक जीवन में उतरने से रोकते हैं। लेकिन जब स्त्री मात्र के लिए विधायिका की कुछ जगहें स्थायी रूप से खाली कराने का मौका आता है तब ये चौंक कर जाग उठते हैं और अपना फर्रा पेश कर देते हैं कि जब तक हमारे समुदाय की स्त्रियों को उनका हिस्सा नहीं दिया जाता, तब तक हम यह कानून नहीं बनने देंगे। इन शूरवीरों में यह कहने की हिम्मत नहीं है कि महिलाओं को तमाम तरह की नौकरियों और पदों में एक-तिहाई या उससे ज्यादा हिस्सा दो, ताकि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और सामाजिक रूप से सम्मानित महसूस कर सकें।

यह हिम्मत तो द्विजों में भी नहीं हैं, क्योंकि उनका एक बड़ा हिस्सा वास्तव में स्त्री-विरोधी है और नहीं चाहता कि स्त्रियों को आगे लाने के लिए कुछ दिनों के लिए खुद पीछे बैठा जाए। चूंकि लोकसभा में 543 और विधानसभाओं में कुल सीटों की संख्या 4,109 है, इसलिए अगर लोकसभा में181 और विधानसभाओं में कुल मिला कर 1,167 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी जाती हैं तो पुरुष वर्ग का, वास्तविक जीवन में, कोई नुकसान होने वाला नहीं है।

पुरुषों की दरियादिली, जो अन्य मामलों में कम ही दिखाई पड़ती है, इस खास मामले में कबड्डी-कबड्डी का ध्वनि-घोष कर रही है, तो यह बहुत रहस्यमय नहीं है। वे बहुत कम कीमत चुका कर दानवीर का तमगा खरीदना चाहते हैं। असल बेचैनी सामान्य पुरुष सांसदों और विधायकों में है लेकिन वे कुछ बोलने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि उनके आका किसी भी कीमत पर लोकसभा का अगला चुनाव जीतना चाहते हैं। इनके लिए चुनावी जीत देश और उसके भविष्य से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। स्त्रियों के शुभैषी शायद यह उम्मीद कर रहे हैं कि संसदीय जीवन में स्त्रियों के इतनी बड़ी संख्या में उतरने से राजनीति का चरित्र ही बदल जाएगा। मेरी भविष्यवाणी यह है कि राजनीति का चरित्र बदले या न बदले, स्त्रियों का चरित्र जरूर बदल जाएगा। वे पुरुष मुट्ठियों में बंधे चुनाव टिकट के लिए जन सेवा के बल पर नहीं, बल्कि अपने स्त्रीत्व के बल पर वीभत्स और दयनीय प्रतिद्वंद्विता करेंगी, जैसे पुरुषों को पैसे, बाहुबल और शक्ति पीठों से सामीप्य के आधार पर प्रतिद्वंद्विता करते हुए देखा जाता है।

यह सारा मायालोक राजीव गांधी का खड़ा किया हुआ है, जिन्होंने शाह बानो नामक एक बेसहारा और बूढ़ी मुसलमान औरत से उसका मानवीय और संवैधानिक हक छीनने के लिए देश का कानून ही बदल डाला था। पंचायतों और नगर निकायों में स्त्रियों के लिए तैंतीस प्रतिशत आरक्षण देकर राजीव ने भारत के इतिहास में अपने दस्तखत जोड़ दिए हैं। पर यह कठोर सत्य बहुत आसानी और बेदर्दी से भुला दिया जाता है कि राजीव गांधी का लक्ष्य न तो पंचायतों को गांव की और न नगरपालिकाओं को शहर की संसद के रूप में विकसित करना था।

तब भी यह सच था और आज भी यही सच है कि स्थानीय निकाय केंद्र और राज्य सरकारों की विभिन्न योजनाओं को लागू करने की प्रशासनिक इकाइयां मात्र हैं और निर्वाचित सरपंच को सरकार द्वारा नियुक्त खंड विकास अधिकारी के सामने भीगी बिल्ली बन कर रहना पड़ता है।

महिलाओं के नए हिमायती-कांग्रेस, भाजपा, वामपंथी, सभी-पंचायतों और नगरपालिकों पर से सरकारी अंकुश हटाने के लिए अब भी राजी नहीं हैं। अपनी-अपनी पार्टियों में स्त्रियों को अधिक से अधिक जगह और सम्मान देने की बात तक उनके दिलों में पैदा नहीं होती। फिर भी वे महिला आरक्षण विधेयक के शैदाई बने हुए हैं, ताकि कोई एक दल अपने को महिला आरक्षण का एकमात्र पैरवीकार साबित कर वोटों का मैदान न चर जाए। पढ़ने-लिखने वाली महिलाएं भी खुश हैं कि लोकसभा की अध्यक्षता का काम एक महिला को सौंप दिया गया, तब जाकर संसद में महिलाओं के लिए अलग से एक टॉयलेट बन सका। अपनी बिरादरी को कानून के बल पर तैंतीस प्रतिशत तक ले जाने की ख्वाहिश रखने वाली महिला सांसद क्या अंधी हैं कि इसके पहले इस असाधारण स्त्री-विरोधी चूक पर उनकी नजर तक नहीं गई?

सरपंच या नगरपालिका अध्यक्ष का काम प्रशासनिक जिम्मेदारी का है। सरकार जैसी शक्ति न होते हुए भी बेचारों को, जिनके अधीन स्थानीय पुलिस तक नहीं होती, तमाम तरह के सरकारी काम निपटाने पड़ते हैं। इस व्यवस्था का सही विस्तार यह होता कि प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर- चपरासी से लेकर मुख्य सचिव तक- स्त्रियों को तैंतीस या पचास प्रतिशत तक आरक्षण दे दिया जाता। इससे आम महिलाओं का ज्यादा भला और सशक्तीकरण भी होता। वर्तमान विधेयक स्त्रियों को पंद्रह सौ से भी कम सीटों के लिए आमंत्रित करता है। इसलिए महिला सशक्तीकरण की दृष्टि से भी यह विधेयक घाटे का सौदा है। दक्षिण एशिया में चुनिंदा सीटों पर महिलाओं को बैठते हुए हम पहले भी देख चुके हैं और आज भी देख रहे हैं। कौन दावा कर सकता है कि इससे राजनीति के चरित्र में कोई उल्लेखनीय फर्क आया है?

यह सही है कि परिमाण में वृद्धि होने से गुण भी बदल जाता है, पर भारत की राजनीति यह नहीं होने जा रहा है। पुरुषों की तरह महिलाएं भी अपने समय और संस्कृति की उपज होती हैं। विधायिका में पिछड़ी जातियों और दलितों के बेशी संख्या में आने से बेईमानी और सत्तावाद बढ़ा है या कम हुआ है? अगर आप चाहते हैं कि पैसा, पद और पॉवर के इस दलदल में नाक तक धंसने का अधिकार स्त्रियों को भी मिलना चाहिए तो आप ऐसे समानतावादी हैं जो जन्नत और दोजख के फर्क को मिटा देना चाहता है। आपका एतराज यह है कि बदनीयती और बेईमानी पर किसी एक जेंडर का एकाधिकार क्यों हो? अगर लोकसभा का चुनाव लड़ने में दस-पंद्रह करोड़ और विधानसभा का चुनाव लड़ने पर दो-तीन करोड़ का न्यूनतम खर्च आता है, तो महिलाएं भी इसका जुगाड़ कर लेंगी। बेशक अपने पिता या पति की कमाई पर उनका अधिकार भरण-पोषण से ज्यादा न हो और अपनी कमाई पर वे सिर्फ अपना अधिकार रखना चाहें तो यह दांपत्य कलह का कारण बन जाता हो, लेकिन चूंकि सांसद और विधायक का पद हर तरह से लाभ का पद है, इसलिए महिला उम्मीदवारों को अपनी फाइनेंसिंग कराने में दिक्कत पेश नहीं आएगी।
चुन लिए जाने के बाद उन्हें यह कर्ज उतारना भी होगा, जो जनता की कमाई हड़पने के पाप में हिस्सेदारी के बगैर मुमकिन नहीं है। अंतत: सचाई यही ठहरती है कि इस विधेयक के माध्यम से लोभी और छलात्कारी पुरुष महिलाओं को अपनी भ्रष्ट बिरादरी में शामिल करने पर आमादा हैं। यह बहुत खुशी की बात होगी अगर महिलाएं इस चक्रव्यूह को भेद सकें। लेकिन यह तैंतीस प्रतिशत और सड़सठ प्रतिशत यानी दीये और तूफान का मुकाबला होगा। फिर संसद के बाहर तो पुरुष वर्चस्व को बने ही रहना है।

मूल आपत्ति लेकिन दूसरी है। इसका संबंध राजनीति की परिभाषा से है। राजनीति क्या है? क्या यह पैसा, पद और पॉवर हासिल करने में प्रतिद्वंद्विता का खेल है? क्या राज्य की शक्तियां मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को अधिक से अधिक लूट का अवसर देने के लिए हैं? जो भी व्यक्ति ऐसा सोचकर राजनीति में आता है या राजनीति में बना हुआ है, वह राजनीति, संविधान और जनता के साथ खुल्लमखुल्ला बलात्कार करता है। जब कोई व्यक्ति राजनीति में आरक्षण की मांग करता है तो यह मांग बलात्कारियों के इस नापाक क्लब में शामिल होने की मांग बन जाती है। कोई कह सकता है कि बेईमानी कहां नहीं है- धर्म में नहीं है, संस्कृति में नहीं है, शिक्षा में नहीं है या साहित्य में नहीं है? इसका त्वरित जवाब यह है कि भेड़ की खाल में कुछ भेड़िए भी टहल रहे हैं, इसलिए धर्म, संस्कृति, शिक्षा और साहित्य की परिभाषा तो नहीं बदल दी जाएगी? इसी तरह, अगर आज राजनीति अपने निम्नतम स्तर पर दिखाई पड़ रही है और राजनेता, एक वर्ग के रूप में, श्रद्धा और विश्वास के नहीं, बल्कि नफरत के पात्र हो गए हैं तो इससे प्रभावित होकर राजनीति की परिभाषा कैसे बदल दी जा सकती है? सांसद और विधायक चुने जाने पर संविधान की आत्मा और उसके शब्दों के अनुसार काम करने की जो शपथ ली जाती है, उस पर काली स्याही कैसे पोती जा सकती है?

राजनीति की एकमात्र वैध परिभाषा यह है कि यह जनता की सेवा करने का एक पवित्र माध्यम है। तकनीकी तौर पर तो हमारे मंत्री, सांसद, विधायक आदि भी जन सेवक (पब्लिक सरवेंट) कहलाते हैं और इसलिए उन्हें कुछ विशिष्ट अधिकार भी दिए गए हैं, लेकिन इनमें से प्राय: सभी पब्लिक को ही अपना सरवेंट समझते हैं।

यह राजनीति का खलनायकीकरण है। धीरोदात्त नायक तो वही राजनेता कहलाएगा, जिसे जनता की सेवा करने में आनंद आता है और जो अपने लिए कम से कम की कामना करता है। यही वह बिंदु है जहां आकर राजनीतिक और नैतिक का द्वंद्व मिट जाता है। इसी अर्थ में हर नैतिक कर्म एक राजनीतिक कर्म है और हर राजनीतिक कर्म एक नैतिक कर्म।

इसीलिए यह प्रश्न भी वैध है कि नैतिकता में आरक्षण कैसा? अच्छा बनने के लिए तैंतीस या पचास प्रतिशत आरक्षण की कामना क्यों? सेवा के क्षेत्र में विशेषाधिकार के लिए जगह कहां है? जो स्त्री या पुरुष जन सेवा करना चाहता है, उसकी राह कौन रोक सकता है? जो संसद या विधानसभा में पहुंच कर जनता की सेवा करना चाहता है, उसके लिए दरवाजा पहले से ही खुला हुआ है-लोगों की भलाई करने में अपने आप को झोंक दीजिए, लोग आपको अपने कंधों पर बैठा कर संसद और विधानसभा के दरवाजे तक ले जाएंगे।

अगर संसद या विधानसभा में सीट आरक्षित कर दिए जाने के बाद ही कोई जन सेवा के मैदान में उतरना चाहता है, तो उसकी नीयत पर शक करने का हमें पूरा हक है। महिला आरक्षण विधेयक राजनीति की पतित परिभाषा को मान्यता देता है और स्त्रियों को आमंत्रित करता है कि हम पुरुष जो कर रहे हैं, आओ तुम भी वही करो। अन्यथा यह विधेयक पेश करने के पहले सरकार चुनाव कानून में ऐसे संशोधन जरूर करती, जिससे गरीब से गरीब आदमी भी चुनाव लड़ना चाहे तो लड़ सके। जिस दिन ऐसा होगा, उस दिन सिर्फ तैंतीस प्रतिशत नहीं, सौ प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए खुल जाएंगी।

(जनसत्ता से साभार)