~शंकर शरण
अंग्रेजी कहावत है, नाम में क्या रखा है! लेकिन दक्षिण अफ्रीका में यह कहने पर लोग आपकी ओर अजीब निगाहों से देखेंगे कि कैसा अहमक है! पिछले कुछ महीनों से वहां के कुछ बड़े शहरों, प्रांतों के नाम बदलने को लेकर देशव्यापी विवाद चल रहा है। प्रीटोरिया, पॉटचेफ्स्ट्रोम, पीटर्सबर्ग, पीट रेटिफ आदि शहरों, प्रांतों के नाम बदलने का प्रस्ताव है। तर्क है कि जो नाम लोगों को चोट पहुंचाते हैं, उन्हें बदला ही जाना चाहिए।
यह विषय वहां इतना गंभीर है कि साउथ अफ्रीका ज्योग्राफीकल नेम काउंसिल (एसएजीएनसी) नामक एक सरकारी आयोग इस पर सार्वजनिक सुनवाई कर रहा है। प्रीटोरिया का नाम बदलने की घोषणा हो चुकी थी। किसी कारण उसे अभी स्थगित कर दिया गया है। प्रीटोरिया पहले त्सवाने कहलाता था जिसे गोरे अफ्रीकियों ने बदल कर प्रीटोरिया किया था। त्सवाने वहां के किसी पुराने प्रतिष्ठित राजा के नाम से बना था जिसके वंशज अभी तक वहां हैं।
इस प्रकार नामों को बदलने का अभियान और विवाद वहां लंबे समय से चल रहा है। पिछले दस वर्ष में वहां 916 स्थानों के नाम बदले जा चुके हैं। इनमें केवल शहर नहीं; नदियों, पहाड़ों, बांधों और हवाई अड्डों तक के नाम हैं। सैकड़ों सड़कों के बदले गए नाम अतिरिक्त हैं। वहां की एफपीपी पार्टी के नेता पीटर मुलडर ने संसद में कहा कि ऐतिहासिक स्थलों के नाम बदलने के सवाल पर अगले बीस वर्ष तक वहां झगड़ा चलता रहेगा। उनकी पार्टी और कुछ अन्य संगठन प्रीटोरिया नाम बनाए रखना चाहते हैं।
इसलिए नाम में बहुत कुछ है। यह केवल दक्षिण अफ्रीका की बात नहीं। पूरी दुनिया में स्थानों के नाम रखना या पूर्ववत करना सदैव गंभीर राजनीतिक और सांस्कृतिक महत्त्व रखता है। जैसे किसी को जबरन महान बनाने या अपदस्थ करने की चाह। इन सबका महत्त्व है जिसे हल्के से नहीं लेना चाहिए। इसीलिए कम्युनिज्म के पतन के बाद रूस, यूक्रेन, मध्य एशिया और पूरे पूर्वी यूरोप में असंख्य शहरों, भवनों, सड़कों के नाम बदले गए। रूस में लेनिनग्राद को पुन: सेंट पीटर्सबर्ग, स्तालिनग्राद को वोल्गोग्राद आदि किया गया। कई बार यह सब भारी आवेग और भावनात्मक ज्वार के साथ हुआ। हमारे पड़ोस में भी सीलोन ने अपना नाम श्रीलंका और बर्मा ने म्यांमा कर लिया। खुद ग्रेट ब्रिटेन ने अपनी आधिकारिक संज्ञा बदल कर यूनाइटेड किंगडम की। इन सबके पीछे गहरी सांस्कृतिक, राजनीतिक भावनाएं होती हैं।
हमारे देश में भी शब्द और नाम गंभीर माने रखते हैं। अंग्रेजों ने यहां अपने शासकों, जनरलों के नाम पर असंख्य स्थानों के नाम रखे, कवियों-कलाकारों के नाम पर नहीं। फिर, जब 1940 में मुसलिम लीग ने मुसलमानों के अलग देश की मांग की और आखिरकार उसे लिया तो उसका नाम पाकिस्तान रखा। जैसा जर्मनी, कोरिया आदि के विभाजनों में हुआ था- पूर्वी जर्मनी, पश्चिमी जर्मनी और उत्तरी कोरिया, दक्षिणी कोरिया- वे भी नए देश का नाम ‘पश्चिमी भारत’ या ‘पश्चिमी हिंदुस्तान’ रख सकते थे। पर उन्होंने अलग मजहबी नाम रखा। इसके पीछे एक पहचान छोड़ने और दूसरी अपनाने की चाहत थी। यहां तक कि अपने को मुगलों का उत्तराधिकारी मानते हुए भी मुसलिम नेताओं ने मुगलिया शब्द ‘हिंदुस्तान’ भी नहीं अपनाया। क्यों?
इसलिए कि शब्द कोई उपयोगिता के निर्जीव उपकरण नहीं होते। वे किसी भाषा और संस्कृति की थाती होते हैं। कई शब्द तो अपने आप में संग्रहालय होते हैं, जिनमें किसी समाज की सहस्रों वर्ष पुरानी परंपरा, स्मृति, रीति और ज्ञान संघनित रहता है। इसीलिए जब कोई किसी भाषा या शब्द को छोड़ता है तो जाने-अनजाने उसके पीछे की पूरी अच्छी या बुरी परंपरा भी छोड़ता है। इसीलिए श्रीलंका ने ‘सीलोन’ को त्याग कर औपनिवेशिक दासता के अवशेष से मुक्ति पाने का प्रयास किया। हमने वह आज तक नहीं किया है।
सन 1947 में हमसे जो सबसे बड़ी भूलें हुईं उनमें से एक यह थी कि स्वतंत्र होने के बाद भी देश का नाम ‘इंडिया’ रहने दिया। लब्ध-प्रतिष्ठित विद्वान संपादक गिरिलाल जैन ने लिखा था कि स्वतंत्र भारत में इंडिया नामक इस ‘एक शब्द ने भारी तबाही की’। यह बात उन्होंने इस्लामी समस्या के संदर्भ में लिखी थी। अगर देश का नाम भारत होता, तो भारतीयता से जुड़ने के लिए यहां किसी से अनुरोध नहीं करना पड़ता! गिरिलाल जी के अनुसार, इंडिया ने पहले इंडियन और हिंदू को अलग कर दिया। उससे भी बुरा यह कि उसने ‘इंडियन’ को हिंदू से बड़ा बना दिया। अगर यह न हुआ होता तो आज सेक्युलरिज्म, डाइवर्सिटी, ह्यूमन राइट्स और मल्टी-कल्टी का शब्द-जाल और फंदा रचने वालों का काम इतना सरल न रहा होता। अगर देश का नाम भारत या हिंदुस्तान भी रहता तो इस देश के मुसलमान स्वयं को भारतीय मुसलमान कहते। इन्हें अरब में अब भी ‘हिंदवी’ या ‘हिंदू मुसलमान’ ही कहा जाता है। सदियों से विदेशी लोग भारतवासियों को ‘हिंदू’ ही कहते रहे और आज भी कहते हैं।
यह पूरी दुनिया में हमारी पहचान है, जिससे मुसलमान भी जुड़े थे। क्योंकि वे सब हिंदुओं से धर्मांतरित हुए भारतीय ही हैं (यह महात्मा गांधी ही नहीं, फारूक अब्दुल्ला भी कहते हैं)। अगर देश का सही नाम पुनर्स्थापित कर लिया जाता, तो आज भी मुसलमान स्वयं को हिंदू या हिंदवी ही कहते जो एक ही बात है। यह विचित्र है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमारे अनेक प्रांतों और शहरों के नाम बदले, लेकिन देश का नाम यथावत छोड़ा हुआ है। जिन लोगों ने मद्रास को तमिलनाडु, बोंबे को मुंबई, कैलकटा को कोलकाता या बैंगलोर को बंगलुरु, उड़ीसा को ओडीशा आदि पुनर्नामांकित करना जरूरी समझा- उन्हें सबसे पहले इंडिया शब्द को विस्थापित करना चाहिए था। क्योंकि यह वह शब्द है जो हमें पददलित करने और दास बनाने वालों ने हम पर थोपा था।
विदेशियों द्वारा जबरन दिए गए नामों को त्यागना अच्छा ही नहीं, आवश्यक भी है। इसमें अपनी पहचान के महत्त्व और उसमें गौरव की भावना है। इसीलिए अब तक जब भी भारत में औपनिवेशिक नामों को बदल स्वदेशी नाम अपनाए गए, हमारे देश के अंग्रेजी-प्रेमी और पश्चिमोन्मुखी वर्ग ने विरोध नहीं किया है। पर यह उन्हें पसंद भी नहीं आया। क्योंकि वे जानते हैं कि बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी। ऐसे में एक दिन अंग्रेजी को भी राज-सिंहासन से उतरना पड़ेगा। इसीलिए, जब देश का नाम पुनर्स्थापित करने की बात उठेगी, वे विरोध करेंगे। चाहे इंडिया को बदलकर भारतवर्ष करने में किसी भाषा, क्षेत्र, जाति या संप्रदाय को आपत्ति न हो। वैसे भी भारतवर्ष ऐसा शब्द है जो भारत की सभी भाषाओं में प्रयुक्त होता रहा है। बल्कि जिस कारण मद्रास, बोम्बे, कैलकटा, त्रिवेंद्रम आदि को बदला गया, वह कारण देश का नाम बदलने के लिए और भी उपयुक्त है। इंडिया शब्द भारत पर ब्रिटिश शासन का सीधा ध्यान दिलाता है। आधिकारिक नाम में इंडिया का पहला प्रयोग ‘ईस्ट इंडिया कंपनी’ में किया गया था जिसने हमें गुलाम बना कर दुर्गति की। पर जब वह इस देश में व्यापार करने आई थी तो यह देश स्वयं को भारतवर्ष या हिंदुस्तान कहता था। क्या हम अपना नाम भी अपना नहीं रखा सकते?
अगर देश का नाम पुन: भारतवर्ष कर लिया जाए तो यह हम सब को स्वत: इस भूमि की गौरवशाली सभ्यता, संस्कृति से जोड़ता रहेगा जो पूरे विश्व में अनूठी है। अन्यथा आज हमें अपनी ही थाती के बचाव के लिए उन मूढ़ रेडिकलों,वामपंथियों, मिशनरी एजेंटों, ग्लोबल सिटिजनों से बहस करनी पड़ती है जो हर विदेशी नारे को हम पर थोपने और हमें किसी न किसी बाहरी सूत्रधार का अनुचर बनाने के लिए लगे रहते हैं।
इसीलिए जब देश का नाम भारतवर्ष या हिंदुस्तान करने का प्रयास होगा- इसका सबसे कड़ा विरोध यही सेक्युलर-वामपंथी बौद्धिक करेंगे। उन्हें ‘भारतीयता’ और ‘हिंदू’ शब्द और इनके भाव से घोर शत्रुता है। यही उनकी मूल सैद्धांतिक टेक है। इसीलिए चाहे वे कैलकटा, बांबे आदि पर विरोध न कर सकें, पर इंडिया को बदलने के प्रस्ताव पर वे चुप नहीं बैठेंगे। यह इसका एक और प्रमाण होगा कि नामों के पीछे कितनी बड़ी सांस्कृतिक, राजनीतिक मनोभावनाएं रहती हैं। वस्तुत: समस्या यही है कि जिस प्रकार कोलकाता, चेन्नई और मुंबई के लिए स्थानीय जनता की सशक्त भावना थी, उस प्रकार भारतवर्ष के लिए नहीं दिखती। इसलिए नहीं कि इसकी चाह रखने वाले देश में कम हैं। बल्कि ठीक इसीलिए कि भारतवर्ष की भावना कोई स्थानीयता की नहीं, राष्ट्रीयता की भावना है। लिहाजा, देशभक्ति और राष्ट्रवाद से किसी न किसी कारण दूर रहने वाले, या किसी न किसी प्रकार के ‘अंतरराष्ट्रीयतावाद’ से अधिक जुड़ाव रखने वाले उग्र होकर इसका विरोध करेंगे।
यानी चूंकि इंडिया शब्द को बदल कर भारतवर्ष करना राष्ट्रीय प्रश्न है, इसीलिए राष्ट्रीय भाव को कमतर मानने वाली विचारधाराएं, हर तरह के गुट और गिरोह एकजुट होकर इसका प्रतिकार करेंगे। वे हर तरह की ‘अल्पसंख्यक’ भावना उभारेंगे और आधुनिकता के तर्क लाएंगे।
वैसे भी, उत्तर भारत की सांस्कृतिक-राजनीतिक चेतना और स्वाभिमान मंद है। यहां वैचारिक दासता, आपसी कलह, विश्वास, भेद और क्षुद्र स्वार्थ अधिक है। इन्हीं पर विदेशी, हानिकारक विचारों का भी अधिक प्रभाव है। वे बाहरी हमलावरों, पराए आक्रामक विचारों आदि के सामने झुक जाने, उनके दीन अनुकरण को ही ‘समन्वय’, ‘संगम’, ‘अनेकता में एकता’ आदि बताते रहे हैं। यह दासता भरी आत्मप्रवंचना है।
डॉ राममनोहर लोहिया ने आजीवन इसी आत्मप्रवंचना की सर्वाधिक आलोचना की थी जो विदेशियों से हार जाने के बाद ‘आत्मसमर्पण को सामंजस्य’ बताती रही है। अत: इस कथित हिंदी क्षेत्र से किसी पहलकदमी की आशा नहीं। इनमें अपने वास्तविक अवलंब को पहचानने और टिकने के बदले हर तरह के विदेशी विचारों, नकलों, दुराशाओं, शत्रु शक्तियों की सदाशयता पर आस लगाने की प्रवृत्ति है। इसीलिए उनमें भारतवर्ष नाम की पुनर्स्थापना की कोई ललक या चाह भी आज तक नहीं जगी है। अच्छा हो कि देश का नाम पुनर्स्थापित करने का अभियान किसी तमिल, मराठी या कन्नड़ हस्ती की ओर से आरंभ हो। यहां काम दक्षिण अफ्रीका की तुलना में आसान है, पर हमारा आत्मबल क्षीण है।
(जनसत्ता से साभार)