Thursday, March 25, 2010

एक भाषा हुआ करती है

आज से हम हिन्दी भाषा, साहित्य, इसमें बाज़ार और बनियाबाज़ी की घुसपैठ पर युवा कहानीकार अभिषेक कश्यप की पड़तालों की शृंखला का प्रकाशन शुरू कर रहे हैं। 'हिन्दीबाज़ी' नामक इस स्तम्भ के अंतर्गत प्रत्येक वृहस्पतिवार को अभिषेक कश्यप हिन्दी भाषा और भाषाबाजों की नीयत पर रोशनी डालेंगे॰॰॰॰॰



एक भाषा हुआ करती है!
~अभिषेक कश्यप*

हिंदी शायद संसार की इकलौती ऐसी भाषा है जिसके परजीवी मलाई-रबड़ी पर पलते हैं और श्रमजीवी आर्थिक तंगी, अभाव, वंचना और अपमान का शिकार होते हैं। यह कड़वा सच है कि हिन्दी को जिन मनीषियों ने आधुनिक दृष्टि दी, नये मुहावरों, वाक्य-विन्यासों से लैस किया, अपने कृतित्व के जरिए जिन्होंने हिंदी को जनता की जुबान बना दी, उन्हें अपमानित, प्रताडि़त और विक्षिप्त होना पड़ा। उनमें से ज्यादातर मनीषियों को ताउम्र दो वक्त की रोटी की जद्दोजहज के बीच एक कठिन जिद के बूते अपनी रचनात्मक प्रतिभा को बचाए रखना पड़ा। एक ऐसी भाषा जिसमें साँस लेते हुए रघुवीर सहाय अपमानित हुए, मुक्तिबोध अभाव, वंचना और लंबी बीमारी से ग्रस्त होकर मरे, महाकवि निराला अर्द्ध-विक्षिप्त हुए और भुवनेश्वर ने मानसिक संतुलन खोकर भीख मांगते हुए दम तोड़ा। इसके उलट जो परजीवी हुए, प्रबंधन कुशल रहे वे हिन्दी की मलाई-रबड़ी खा-खाकर अघाते रहे।
हिंदी के परजीवी बनकर भ्रष्ट नेताओं, अफसरों, चमचों और मसखरों ने ताकत और सत्ता हासिल की। विश्वविद्यालय, सरकारी अकादमियां और सार्वजनिक उपक्रमों के हिंदी विभाग तो इन परजीवियों के सबसे सुरक्षित, सबसे आरामदेह शरणगाह रहे हैं। यहां मोटी तनख्वाह के साथ सेमिनारों, गोष्ठियों, कार्यशालाओं की मौज-मस्ती और विश्व हिंदी सम्मेलनों, विदेश यात्राओं का सुख भोगते हुए ये परजीवी हिंदी के उन श्रमजीवियों को हिकारत की नजर से देखते हैं जिनके लिए हिंदी और भाषा का संस्कार ही जीवन है। ये वे लोग हैं जो हिंदी भाषा और साहित्य के लिए घर फूँक तमाशा देखने में तनिक संकोच नहीं करते। जो अपनी मेहनत की कमाई से लघु पत्रिकाएँ निकालते हैं, कहानियाँ-कविताएँ लिखकर हिन्दी ही नहीं अहिंदी भाषी प्रदेशों के वाशिंदों को भी हिंदी भाषा और साहित्य से जुडऩे के लिए प्रेरित करते हैं। देशभर में ऐसी सैकड़ों प्रतिभाएं हैं जो छोटी-मोटी नौकरियां, धंधे यहां तक कि किसी बनिये के दुकान पर हजार-पन्द्रह सौ की बेगारी खटते हुए भी तमाम अभावों के बावजूद हिंदी के लिए वह कर रही हैं, विश्वविद्यालयों के मुफ्तखोर हिंदी प्राध्यापक, सरकारी अकादमियां और सार्वजनिक उपक्रमों के हिंदी विभाग जिसकी कल्पना तक नहीं कर सकते। खासकर विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग के प्राध्यापक कहे जाने वाले मसखरे तो प्रतिभाहीन नकलचियों को ‘फंटूशलाल जी की कविताओं में स्त्री-विमर्श’ सरीखे निरर्थक विषयों पर पीएचडी की डिग्री बाँटने में ही व्यस्त हैं। और सरकार ऐसे मसखरों और नकलची शोध छात्रों को तनख्वाह-वजीफे के साथ तरह-तरह की सुविधाएँ देकर धन्य होती है।
हमारे समय के अत्यंत महत्वपूर्ण कवि-कथाकार उदय प्रकाश ने अपनी भाषा-शृंखला की लंबी कविता ‘एक भाषा हुआ करती है’ में इस हौलनाक विडंबना को कुछ इस तरह अभिव्यक्त किया है-
‘एक भाषा है जिसे बोलते वैज्ञानिक और समाजविद और तीसरे दर्जे के जोकर
और हमारे समय की सम्मानित वेश्याएँ और क्रांतिकारी सब शर्माते हैं
जिसके व्याकरण और हिज्जों की भयावह भूलें ही
कुलशील, वर्ग और नस्ल की श्रेष्ठता प्रमाणित करती हैं
बहुत अधिक बोली-लिखी, सुनी-पढ़ी जाती
गाती बजाती एक बहुत कमाऊ और बिकाऊ बड़ी भाषा
दुनिया के सबसे बदहाल और सबसे असाक्षर, सबसे गरीब और
सबसे खूंखार सबसे काहिल और सबसे थके-लुटे लोगों की भाषा
अस्सी करोड़ या नब्बे करोड़ या एक अरब भुक्खड़ों, नंगों और गरीब-लफंगों की जनसंख्या की भाषा
वह भाषा जिसे वक्त-जरूरत तस्कर, हत्यारे, नेता,
दलाल, अफसर, भंडुए, रंडियाँ और जुनूनी
नौजवान भी बोला करते हैं
वह भाषा जिसमें
लिखता हुआ हर ईमानदार कवि पागल हो जाता है
आत्मघात करती हैं प्रतिभाएँ
‘ईश्वर’ कहते ही आने लगती है जिसमें अक्सर बारूद की गंध
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एक हौलनाक विभाजक रेखा के नीचे जीनेवाले सत्तर करोड़ से ज्यादा लोगों के आंसू और पसीने और खून में लिथड़ी एक भाषा
पिछली सदी का चिथड़ा हो चुका डाकिया अभी भी जिसमें बाँटता है
सभ्यता के इतिहास की सबसे असभ्य और सबसे दर्दनाक चिट्ठियाँ
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भाषा जिसमें सिर्फ कूल्हे मटकाने और स्त्रियों को अपनी छाती हिलाने की छूट है
जिसमें दंडनीय है विज्ञान और अर्थशास्त्र और शासन-सत्ता से संबंधित विमर्श
प्रतिबंधित हैं जिसमें ज्ञान और सूचना की प्रणालियां वर्जित हैं विचार
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भाषा जिसमें उड़ते हैं वायुयानों में चापलूस
शाल ओढ़ते हैं मसखरे
चाकर टांगते हैं तमगे
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अपनी देह और आत्मा के घावों को और तो और अपने बच्चों और पत्नी तक से छुपाता
राजधानी में कोई कवि जिस भाषा के अंधकार में
दिनभर के अपमान और थोड़े से अचार के साथ
खाता है पिछले रोज की बची हुई रोटियां
और मृत्यु के बाद पारिश्रमिक भेजने वाले किसी
राष्ट्रीय अखबार या मुनाफाखोर प्रकाशक के लिए
तैयार करता है एक और नयी पांडुलिपि।’

मित्रो! इस कविता से गुजरने के बाद क्या आपको हिंदी के अज्ञात कुलशील मानस पुत्रों, हिंदी के श्रमजीवियों की असहनीय व्यथा पर दु:ख नहीं हो रहा? क्या आपको विश्वविद्यालयों, अकादमियों, सार्वजनिक उपक्रमों में मलाई काटते हिंदी के परजीवियों और अपने नितांत निजी स्वार्थों व अश्लील महत्वकांक्षाओं को पूरा करने के लिए हिंदी का इस्तेमाल करने वाले तस्करों, नेताओं, दलालों, चमचों, मसखरों और भंडुओं पर गुस्सा नहीं आ रहा?
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*लेखक कहानीकार और स्वतंत्र पत्रकार हैं

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5 बैठकबाजों का कहना है :

शिक्षामित्र का कहना है कि -

बहुत अच्छी शुरुआत। स्वागत।

Jandunia का कहना है कि -

ये हिन्दी का दुर्भाग्य है कि उसे जो सम्मान मिलना चाहिए था नहीं मिला। दूसरी बात ये कि जब तक आप किसी भाषा को महत्व नहीं देंगे तब तक उसके विकास की गति तेज नहीं हो सकती। हिन्दी के विकास और सम्मान पर ध्यान देने की जरूरत है।

anupam goel का कहना है कि -

यह उदाहरण विश्व में शायद भारत में ही है जहाँ राष्ट्र भाषा की और राष्ट्र भाषा के श्रमजीवियों की ऐसी दुर्गति है !
समस्या से सभी अवगत हैं, लेकिन इतने अच्छे शब्दों में व्यक्त करने के लिए अभिषेक कश्यप जी बधाई के पात्र हैं.
साधुवाद.

neeti sagar का कहना है कि -

क्या???? महाकवि निराला जी का इतना दुखद अंत हुआ था,
मुझे तो बहुत गुस्सा आ रहा है,अपनी हिंदी को ऊँचे मुकाम
तक पहुँचाने वाले कवि और लेखकों का जीवन सदैव संघर्षपूर्ण
रहता है और जीवन के अंतिम क्षणों में उन्हें ज़रूर अफ़सोस होता होगा
कि जिसके लिए उन्होंने अपनी सारी जिंदगी मिटा दी,वो हिंदी उनका दो
वक्त का पेट भी नहीं भर सकती,,,,,,

उमा का कहना है कि -

ज्ञान, संचार, संस्कृति के बाजार में बने रहने के लिए या लीड करने के लिए विकृति की जिस जिस अनिवार्यता को स्वीकार्य मान कर चल रहे हैं, उसमें भाषा के लिए तो इतनी ही जगह बचेगी जिसमें हम अपनी मर्यादाओं को संबोधित भर कर लें। ज्ञान, संचार, संस्कृति के नायक चाहते तो एक दबाव और स्थिति बनती जिसमें हिंदी भी सर उठाती और बोलियां भी। दरअसल भाषा के संकट को बोली के भविष्य से जोड़कर न देखने से जटिलता और भी बढ़ती गई। भाई, बेटे मरते रहें तो पिता कैसा विकास कर सकता है और पिता जो विकास करेगा वह विकास भी होगा इसकी क्या गारंटी ? इसके लिए भाषा और संवेदना, भाषा और समाज जैसे रिश्तों की पड़ताल करनी होगी। स्थानीय बोलियों और भाषाओं में शिक्षा की सुविधा भर देने से काम नहीं होगा, रोजगार के अवसर समान करने होंगे। ऐसा नहीं है कि सारी प्रतिभाओं का ठेका अंग्रेजी या हिंदी ने ले लिया है, पर सारे अवसर तो इन्हें ही मिल रहे हैं। एक कदम आगे बढ़कर कहें तो उस अंग्रेजी के पास सारे अवसर सिमट रहे हैं जिसे बोलनेवाले भारत से भी कम हैं। यह आंकड़ा है कि भारत अकेला ऐसा देश है जहां अंग्रेजी बोलनेवाले सर्वाधिक हैं। स्वाभाविक है कि बोलियां खतरे में पड़ी हैं।
करीब 6000 भाषाओं में से एक-चौथाई को बोलने वाले सिर्फ एक ही हजार लोग बचे हैं। इनमें से भी सिर्फ 600 भाषाएं ही फिलहाल सुरक्षित होने की श्रेणी में आती हैं। किसी नई भाषा के जन्मने का कोई उदाहरण भी हमारे सामने नहीं है। हां यह तथ्य उजागर जरूर हुआ है कि हर पखवारे एक भाषा मर रही है। भारत में भी की कई भाषाएं हैं जो विलुप्ति के कगार पर हैं. एक आंकड़े के मुताबिक 196 भाषाएं ऐसी हैं जिनके ग़ायब होने का ख़तरा है और विलुप्ति की ये दर दुनिया में सबसे ज़्यादा भारत में ही है। इसके बाद नंबर आता है अमेरिका का, जहां 192 ऐसी 1962 के एक सर्वे में भारत में 1,600 भाषाओं का अस्तित्व बताया गया था और 2002 के आंकड़े बताते हैं कि 122भाषाएं ही सक्रिय रह पाईं। दुनिया भर में इस वक्त चीनी, अंगरेजी, स्पेनिश, बांग्ला, हिंदी, पुर्तगाली, रूसी और जापानी कुल आठ भाषाओं का राज है। दो अरब 40 करोड़ लोग ये भाषाएं बोलते हैं। किसी भी देश में भाषा के विकास को देखना हो तो आप वहां के विकास में स्थानीयों की शिरकत का बैरोमीटर देखें। विकास के सहभागी तबकों को देखें। औद्योगीकृत केंद्रों में रोजगार के ढांचे को देखें। विकास के साझीदार जब विजातीय होंगे तो उनका संवेदनात्मक लगाव कितना होगा वहां के समाज से। भाई अभिषेक जी, मैंने अपने ब्लाग www.aatmahanta.blogspot.com पर गत 17 सितंबर को एक पोस्ट किया था – ‘राजभाषा हिंदी की साठवीं बरसी पर’ फुरसत निकाल कर इसे देख लें।
-उमा

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