Friday, March 12, 2010

महिला आरक्षण के सख्त विरोध में

O राजकिशोर

महिला आरक्षण विधेयक अगर पास हो गया तो कोई प्रलय नहीं आ जाएगा। लेकिन मीडिया में और खासकर महिला जगत में इसे लेकर उत्सव का जो माहौल है, वह लगभाग अश्लील जान पड़ता है। इनके मूड से ऐसा लगता है जैसे जन्नत का एक तिहाई हिस्सा महिलाओं को सौंप दिया जाने वाला है और कुछ गंवार लोग इसके विरोध में लट्ठ लेकर घूम रहे हैं। जो आरक्षण के भीतर आरक्षण चाहते हैं, उनकी जाति चिंता उनकी समाज चिंता के स्तर का पर्दाफाश करती है। पुराने द्विज संस्कारों की भुतही नकल करते हुए पिछड़ी जातियों के ये तथाकथित नेता आमतौर पर अपनी बहू-बेटियों को सार्वजनिक जीवन में उतरने से रोकते हैं। लेकिन जब स्त्री मात्र के लिए विधायिका की कुछ जगहें स्थायी रूप से खाली कराने का मौका आता है तब ये चौंक कर जाग उठते हैं और अपना फर्रा पेश कर देते हैं कि जब तक हमारे समुदाय की स्त्रियों को उनका हिस्सा नहीं दिया जाता, तब तक हम यह कानून नहीं बनने देंगे। इन शूरवीरों में यह कहने की हिम्मत नहीं है कि महिलाओं को तमाम तरह की नौकरियों और पदों में एक-तिहाई या उससे ज्यादा हिस्सा दो, ताकि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और सामाजिक रूप से सम्मानित महसूस कर सकें।

यह हिम्मत तो द्विजों में भी नहीं हैं, क्योंकि उनका एक बड़ा हिस्सा वास्तव में स्त्री-विरोधी है और नहीं चाहता कि स्त्रियों को आगे लाने के लिए कुछ दिनों के लिए खुद पीछे बैठा जाए। चूंकि लोकसभा में 543 और विधानसभाओं में कुल सीटों की संख्या 4,109 है, इसलिए अगर लोकसभा में181 और विधानसभाओं में कुल मिला कर 1,167 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित कर दी जाती हैं तो पुरुष वर्ग का, वास्तविक जीवन में, कोई नुकसान होने वाला नहीं है।

पुरुषों की दरियादिली, जो अन्य मामलों में कम ही दिखाई पड़ती है, इस खास मामले में कबड्डी-कबड्डी का ध्वनि-घोष कर रही है, तो यह बहुत रहस्यमय नहीं है। वे बहुत कम कीमत चुका कर दानवीर का तमगा खरीदना चाहते हैं। असल बेचैनी सामान्य पुरुष सांसदों और विधायकों में है लेकिन वे कुछ बोलने की स्थिति में नहीं हैं क्योंकि उनके आका किसी भी कीमत पर लोकसभा का अगला चुनाव जीतना चाहते हैं। इनके लिए चुनावी जीत देश और उसके भविष्य से ज्यादा महत्त्वपूर्ण है। स्त्रियों के शुभैषी शायद यह उम्मीद कर रहे हैं कि संसदीय जीवन में स्त्रियों के इतनी बड़ी संख्या में उतरने से राजनीति का चरित्र ही बदल जाएगा। मेरी भविष्यवाणी यह है कि राजनीति का चरित्र बदले या न बदले, स्त्रियों का चरित्र जरूर बदल जाएगा। वे पुरुष मुट्ठियों में बंधे चुनाव टिकट के लिए जन सेवा के बल पर नहीं, बल्कि अपने स्त्रीत्व के बल पर वीभत्स और दयनीय प्रतिद्वंद्विता करेंगी, जैसे पुरुषों को पैसे, बाहुबल और शक्ति पीठों से सामीप्य के आधार पर प्रतिद्वंद्विता करते हुए देखा जाता है।

यह सारा मायालोक राजीव गांधी का खड़ा किया हुआ है, जिन्होंने शाह बानो नामक एक बेसहारा और बूढ़ी मुसलमान औरत से उसका मानवीय और संवैधानिक हक छीनने के लिए देश का कानून ही बदल डाला था। पंचायतों और नगर निकायों में स्त्रियों के लिए तैंतीस प्रतिशत आरक्षण देकर राजीव ने भारत के इतिहास में अपने दस्तखत जोड़ दिए हैं। पर यह कठोर सत्य बहुत आसानी और बेदर्दी से भुला दिया जाता है कि राजीव गांधी का लक्ष्य न तो पंचायतों को गांव की और न नगरपालिकाओं को शहर की संसद के रूप में विकसित करना था।

तब भी यह सच था और आज भी यही सच है कि स्थानीय निकाय केंद्र और राज्य सरकारों की विभिन्न योजनाओं को लागू करने की प्रशासनिक इकाइयां मात्र हैं और निर्वाचित सरपंच को सरकार द्वारा नियुक्त खंड विकास अधिकारी के सामने भीगी बिल्ली बन कर रहना पड़ता है।

महिलाओं के नए हिमायती-कांग्रेस, भाजपा, वामपंथी, सभी-पंचायतों और नगरपालिकों पर से सरकारी अंकुश हटाने के लिए अब भी राजी नहीं हैं। अपनी-अपनी पार्टियों में स्त्रियों को अधिक से अधिक जगह और सम्मान देने की बात तक उनके दिलों में पैदा नहीं होती। फिर भी वे महिला आरक्षण विधेयक के शैदाई बने हुए हैं, ताकि कोई एक दल अपने को महिला आरक्षण का एकमात्र पैरवीकार साबित कर वोटों का मैदान न चर जाए। पढ़ने-लिखने वाली महिलाएं भी खुश हैं कि लोकसभा की अध्यक्षता का काम एक महिला को सौंप दिया गया, तब जाकर संसद में महिलाओं के लिए अलग से एक टॉयलेट बन सका। अपनी बिरादरी को कानून के बल पर तैंतीस प्रतिशत तक ले जाने की ख्वाहिश रखने वाली महिला सांसद क्या अंधी हैं कि इसके पहले इस असाधारण स्त्री-विरोधी चूक पर उनकी नजर तक नहीं गई?

सरपंच या नगरपालिका अध्यक्ष का काम प्रशासनिक जिम्मेदारी का है। सरकार जैसी शक्ति न होते हुए भी बेचारों को, जिनके अधीन स्थानीय पुलिस तक नहीं होती, तमाम तरह के सरकारी काम निपटाने पड़ते हैं। इस व्यवस्था का सही विस्तार यह होता कि प्रशासन के विभिन्न स्तरों पर- चपरासी से लेकर मुख्य सचिव तक- स्त्रियों को तैंतीस या पचास प्रतिशत तक आरक्षण दे दिया जाता। इससे आम महिलाओं का ज्यादा भला और सशक्तीकरण भी होता। वर्तमान विधेयक स्त्रियों को पंद्रह सौ से भी कम सीटों के लिए आमंत्रित करता है। इसलिए महिला सशक्तीकरण की दृष्टि से भी यह विधेयक घाटे का सौदा है। दक्षिण एशिया में चुनिंदा सीटों पर महिलाओं को बैठते हुए हम पहले भी देख चुके हैं और आज भी देख रहे हैं। कौन दावा कर सकता है कि इससे राजनीति के चरित्र में कोई उल्लेखनीय फर्क आया है?

यह सही है कि परिमाण में वृद्धि होने से गुण भी बदल जाता है, पर भारत की राजनीति यह नहीं होने जा रहा है। पुरुषों की तरह महिलाएं भी अपने समय और संस्कृति की उपज होती हैं। विधायिका में पिछड़ी जातियों और दलितों के बेशी संख्या में आने से बेईमानी और सत्तावाद बढ़ा है या कम हुआ है? अगर आप चाहते हैं कि पैसा, पद और पॉवर के इस दलदल में नाक तक धंसने का अधिकार स्त्रियों को भी मिलना चाहिए तो आप ऐसे समानतावादी हैं जो जन्नत और दोजख के फर्क को मिटा देना चाहता है। आपका एतराज यह है कि बदनीयती और बेईमानी पर किसी एक जेंडर का एकाधिकार क्यों हो? अगर लोकसभा का चुनाव लड़ने में दस-पंद्रह करोड़ और विधानसभा का चुनाव लड़ने पर दो-तीन करोड़ का न्यूनतम खर्च आता है, तो महिलाएं भी इसका जुगाड़ कर लेंगी। बेशक अपने पिता या पति की कमाई पर उनका अधिकार भरण-पोषण से ज्यादा न हो और अपनी कमाई पर वे सिर्फ अपना अधिकार रखना चाहें तो यह दांपत्य कलह का कारण बन जाता हो, लेकिन चूंकि सांसद और विधायक का पद हर तरह से लाभ का पद है, इसलिए महिला उम्मीदवारों को अपनी फाइनेंसिंग कराने में दिक्कत पेश नहीं आएगी।
चुन लिए जाने के बाद उन्हें यह कर्ज उतारना भी होगा, जो जनता की कमाई हड़पने के पाप में हिस्सेदारी के बगैर मुमकिन नहीं है। अंतत: सचाई यही ठहरती है कि इस विधेयक के माध्यम से लोभी और छलात्कारी पुरुष महिलाओं को अपनी भ्रष्ट बिरादरी में शामिल करने पर आमादा हैं। यह बहुत खुशी की बात होगी अगर महिलाएं इस चक्रव्यूह को भेद सकें। लेकिन यह तैंतीस प्रतिशत और सड़सठ प्रतिशत यानी दीये और तूफान का मुकाबला होगा। फिर संसद के बाहर तो पुरुष वर्चस्व को बने ही रहना है।

मूल आपत्ति लेकिन दूसरी है। इसका संबंध राजनीति की परिभाषा से है। राजनीति क्या है? क्या यह पैसा, पद और पॉवर हासिल करने में प्रतिद्वंद्विता का खेल है? क्या राज्य की शक्तियां मंत्रियों, सांसदों और विधायकों को अधिक से अधिक लूट का अवसर देने के लिए हैं? जो भी व्यक्ति ऐसा सोचकर राजनीति में आता है या राजनीति में बना हुआ है, वह राजनीति, संविधान और जनता के साथ खुल्लमखुल्ला बलात्कार करता है। जब कोई व्यक्ति राजनीति में आरक्षण की मांग करता है तो यह मांग बलात्कारियों के इस नापाक क्लब में शामिल होने की मांग बन जाती है। कोई कह सकता है कि बेईमानी कहां नहीं है- धर्म में नहीं है, संस्कृति में नहीं है, शिक्षा में नहीं है या साहित्य में नहीं है? इसका त्वरित जवाब यह है कि भेड़ की खाल में कुछ भेड़िए भी टहल रहे हैं, इसलिए धर्म, संस्कृति, शिक्षा और साहित्य की परिभाषा तो नहीं बदल दी जाएगी? इसी तरह, अगर आज राजनीति अपने निम्नतम स्तर पर दिखाई पड़ रही है और राजनेता, एक वर्ग के रूप में, श्रद्धा और विश्वास के नहीं, बल्कि नफरत के पात्र हो गए हैं तो इससे प्रभावित होकर राजनीति की परिभाषा कैसे बदल दी जा सकती है? सांसद और विधायक चुने जाने पर संविधान की आत्मा और उसके शब्दों के अनुसार काम करने की जो शपथ ली जाती है, उस पर काली स्याही कैसे पोती जा सकती है?

राजनीति की एकमात्र वैध परिभाषा यह है कि यह जनता की सेवा करने का एक पवित्र माध्यम है। तकनीकी तौर पर तो हमारे मंत्री, सांसद, विधायक आदि भी जन सेवक (पब्लिक सरवेंट) कहलाते हैं और इसलिए उन्हें कुछ विशिष्ट अधिकार भी दिए गए हैं, लेकिन इनमें से प्राय: सभी पब्लिक को ही अपना सरवेंट समझते हैं।

यह राजनीति का खलनायकीकरण है। धीरोदात्त नायक तो वही राजनेता कहलाएगा, जिसे जनता की सेवा करने में आनंद आता है और जो अपने लिए कम से कम की कामना करता है। यही वह बिंदु है जहां आकर राजनीतिक और नैतिक का द्वंद्व मिट जाता है। इसी अर्थ में हर नैतिक कर्म एक राजनीतिक कर्म है और हर राजनीतिक कर्म एक नैतिक कर्म।

इसीलिए यह प्रश्न भी वैध है कि नैतिकता में आरक्षण कैसा? अच्छा बनने के लिए तैंतीस या पचास प्रतिशत आरक्षण की कामना क्यों? सेवा के क्षेत्र में विशेषाधिकार के लिए जगह कहां है? जो स्त्री या पुरुष जन सेवा करना चाहता है, उसकी राह कौन रोक सकता है? जो संसद या विधानसभा में पहुंच कर जनता की सेवा करना चाहता है, उसके लिए दरवाजा पहले से ही खुला हुआ है-लोगों की भलाई करने में अपने आप को झोंक दीजिए, लोग आपको अपने कंधों पर बैठा कर संसद और विधानसभा के दरवाजे तक ले जाएंगे।

अगर संसद या विधानसभा में सीट आरक्षित कर दिए जाने के बाद ही कोई जन सेवा के मैदान में उतरना चाहता है, तो उसकी नीयत पर शक करने का हमें पूरा हक है। महिला आरक्षण विधेयक राजनीति की पतित परिभाषा को मान्यता देता है और स्त्रियों को आमंत्रित करता है कि हम पुरुष जो कर रहे हैं, आओ तुम भी वही करो। अन्यथा यह विधेयक पेश करने के पहले सरकार चुनाव कानून में ऐसे संशोधन जरूर करती, जिससे गरीब से गरीब आदमी भी चुनाव लड़ना चाहे तो लड़ सके। जिस दिन ऐसा होगा, उस दिन सिर्फ तैंतीस प्रतिशत नहीं, सौ प्रतिशत सीटें महिलाओं के लिए खुल जाएंगी।

(जनसत्ता से साभार)

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8 बैठकबाजों का कहना है :

रेखा श्रीवास्तव का कहना है कि -

आरक्षण में आरक्षण कि चाल को अभी तक नहीं समझा जा रहा है, ये दलितों के लिए आरक्षण माँगने वाले अपने हाथ कि कमान जाने नहीं देना चाहते हैं, नहीं तो सारी सीटों पर पढ़ी लिखी महिलाएं काबिज हो जायेंगी . ये दलित भी होंगी लेकिन अपनी पार्टी से ये पढ़ी लिखी नहीं बल्कि अशिक्षित और गरीब महिलाओं को लाकर खड़ा करेंगे ताकि उनका पूरा पूरा फायदा खुद ही उठा सकें. ऐसा नहीं है कि दलितों में पढ़ी लिखी नहीं है और वे आगे नहीं आएँगी . पर उनको ये अंदेशा है कि वे कठपुतली बनने से इनकार न कर दें. ये अपने बहुत अधिक चालाक समझने वाले आरक्षित नेता पूरी संसद ही न खरीदलें.

Unknown का कहना है कि -

किसी ज़माने समाज की यह सोच थी कि अगर औरतें दफ्तरों में पराए मर्दों के साथ जा कर सारा सारा दिन काम करेंगी तो हर तरफ व्यभिचार फ़ैल जाएगा और कई परिवार टूट जाएंगे. पर वास्तव में क्या हर दफ्तर के कमरे कमरे में व्यभिचार पल रहा है? बल्कि देखा जाए तो महिलाओं में आत्मविश्वास भी बढ़ा है और आर्थिक स्तर भी सुधरा है. किसी किसी अपवाद मामले में विवाहोत्तर सम्बन्ध बन् जाते हैं पर दफ्तरी समाज उन्हें घिन की नज़र से से देखता है और कई मामलों में ऐसे सम्बन्ध को रुकवा भी देता है. इस लेख के लेखक उसी पुरानी मानसिकता के शिकार लगते हैं या फिर जैसे शरद यादव ने कहा था कि संसद बाल-कटी औरतों के लिए नहीं है, वैसे ही लेखक यह समझते हैं कि महिलाएं अपने स्त्रीत्व को खर्च कर के अपने राजनीतिक कैरियर बनाएंगी. उनका ध्यान इस बात पर नहीं है कि वर्त्तमान में भी सोनिया, सुषमा, ममता जयंती या मार्गरेट जैसी अनेक सभ्य महिलाऐं हैं जो दिन रात राजनीति में रह कर भी अपनी गरिमा ज्यों की त्यों बनाए हुए हैं. ऐसा आखिर क्यों सोचा जाए कि राजनीति में आने वाली हर महिला बस पुरुषों को पटा कर आगे बढ़ेगी? यह सोच अवश्य बेहद पुरानी सोच है और लेखक के मन के पूर्वाग्रह की ओर संकेत करती है.

ghughutibasuti का कहना है कि -

'मेरी भविष्यवाणी यह है कि राजनीति का चरित्र बदले या न बदले, स्त्रियों का चरित्र जरूर बदल जाएगा। वे पुरुष मुट्ठियों में बंधे चुनाव टिकट के लिए जन सेवा के बल पर नहीं, बल्कि अपने स्त्रीत्व के बल पर वीभत्स और दयनीय प्रतिद्वंद्विता करेंगी, जैसे पुरुषों को पैसे, बाहुबल और शक्ति पीठों से सामीप्य के आधार पर प्रतिद्वंद्विता करते हुए देखा जाता है।'
'आपका एतराज यह है कि बदनीयती और बेईमानी पर किसी एक जेंडर का एकाधिकार क्यों हो? अगर लोकसभा का चुनाव लड़ने में दस-पंद्रह करोड़ और विधानसभा का चुनाव लड़ने पर दो-तीन करोड़ का न्यूनतम खर्च आता है, तो महिलाएं भी इसका जुगाड़ कर लेंगी। बेशक अपने पिता या पति की कमाई पर उनका अधिकार भरण-पोषण से ज्यादा न हो और अपनी कमाई पर वे सिर्फ अपना अधिकार रखना चाहें तो यह दांपत्य कलह का कारण बन जाता हो, लेकिन चूंकि सांसद और विधायक का पद हर तरह से लाभ का पद है, इसलिए महिला उम्मीदवारों को अपनी फाइनेंसिंग कराने में दिक्कत पेश नहीं आएगी।'
यदि चुनाव व राजनीति इतनी भ्रष्ट ही हैं तो पुरुषों को भी इसके चंगुल से क्यों न बचाया जाए? राजकिशोर जी, इसके लिए लोकसभा व राज्य सभा को क्या बंद ही कर दिया जाए?
घुघूती बासूती

Unknown का कहना है कि -

दरअसल लेखक के विचार महिला आरक्षण के फ़ेवर में हैं या विरोध में,सबसे पहले तो वे यह तय करें. क्योकि शुरु में वे ये कहते नजर आ रहे है कि कुछ गंवार लोग इस आरक्षण के विरोध में लठ्ठ लिये लिये घूम रहे हैं क्योकि वे नही चाहते कि उनकी महिलायें सार्वजनिक क्षेत्रों में उतरे.उसके बाद महिलाओं के बारे में लेखक के पूर्वाग्रह किसी लठ्ठ मारों से कम भी नहीं. आज महिलाएं बिना आरक्ष्ण के ही हर क्षेत्र में अपनी सफ़ल उपस्थिति दर्ज करा रही है,फ़िर ऐसे में आरक्षण मिल जाय तो सोचिये क्या हो.

Anonymous का कहना है कि -

सहजवाला तो हैं ही महिलाओं के सेवक या भक्त. इसलिए वे चाहें तो सौ फ़ीसदी आरक्षण महिलाओं को दे दें. उन का क्या है. पर राजकिशोर के लेख में कोई संतुलन नहीं है. उनके सब विचार महिलाओं के खौफ से भरे हैं. इश्वर उन्हें बचाए - इक अजनबी

neeti sagar का कहना है कि -

कुछ गंवार लोग इसके विरोध में लट्ठ लेकर घूम रहे हैं।
इन शूरवीरों में यह कहने की हिम्मत नहीं है कि महिलाओं को तमाम तरह की नौकरियों और पदों में एक-तिहाई या उससे ज्यादा हिस्सा दो, ताकि वे आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर और सामाजिक रूप से सम्मानित महसूस कर सकें।
ऐसे बहुत से कथ्य स्त्री के पक्ष में आपने रखे,
जिससे विचार कर पाना थोडा मुश्किल हो रहा था की
आपने महिला आरक्षण के सख्त विरोध में लिखा है?

Unknown का कहना है कि -

Very Good Article.

Unknown का कहना है कि -

Very Good Article.

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