आज महान देशभक्त और महामानव नेता जी सुभाष चंद्र बोस की ११२वीं जयंती है। इस महापुरूष के जीवन की कुछ बातें सँजोकर लाई हैं शोभा महेन्द्रू॰॰॰
हमारे इतिहास में सुभाष के अतिरिक्त ऐसा कोई व्यक्तित्व नहीं हुआ जो एक साथ महान सेनापति, वीर सैनिक, राजनीति का अद्भुत खिलाड़ी और अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पुरूषों, नेताओं के समकक्ष साधिकार बैठकर चर्चा करने वाला, तथा कूटनीतिज्ञ हो। उन्होंने करीब-करीब पूरे यूरोप में भारत की स्वतंत्रता के लिए अलख जगाया। वे प्रकृति से साधु, ईश्वर भक्त तथा तन एवं मन से देशभक्त थे। एक ऐसा व्यक्तित्व जिसका मार्ग कभी भी स्वार्थों ने नहीं रोका, जिसके पाँव लक्ष्य से पीछे नहीं हटे, जिसने जो भी स्वप्न देखे, उन्हें साधा और जिसमें सच्चाई के सामने खड़े होने की अद्भुत क्षमता थी।
अल्पावस्था में अंग्रेजों का भारतीयों के साथ व्यहार देखकर पूछ बैठे- दादा हमें कक्षा में आगे की सीटों पर बैठने क्यों नहीं दिया जाता? वह जो भी करता, आत्म विश्वास से करता। अंग्रेज अध्यापक उसके अंक देखकर हैरान रह जाते। कक्षा में सबसे अधिक अंक लाने पर भी जब छात्रवृत्ति अंग्रेज बालक को मिली तो उखड़ गया। मिशनरी स्कूल छोड़ दिया। उसी समय अरविन्द ने कहा- हममें से प्रत्येक भारतीय को डायनमो बनना चाहिए जिससे कि हममें से यदि एक भी खड़ा हो जाए तो हमारे आस-पास हजारों व्यक्ति प्रकाशवान हो जाएँ। अरविन्द के शब्द उसके मस्तिष्क में गूँजते थे।
सुभाष सोचते- हम अनुगमन किसका करें? भारतीय जब चुपचाप कष्ट सहते तो वे सोचते-धन्य हैं ये वीर प्रसूत। ऐसे लोगों से क्या आशा की जा सकती है?
वे अंग्रेजी शिक्षा को निषेधात्मक शिक्षा मानते थे। किन्तु पिता ने समझाया -हम भारतीय जब तक अंग्रेजों से प्रशासनिक पद नहीं छीनेंगें, तब तक देश का भला कैसे होगा? सुभाष आई सी एस की परीक्षा में बैठे। वे प्रतियोगिता में उत्तीर्ण ही नहीं हुए, चतुर्थ स्थान पर रहे। किन्तु देश की दशा से अनभिज्ञ नहीं थे। नौकरी से त्याग पत्र दे दिया। सारा देश हैरान रह गया। उन्हें समझाते हुए कहा गया- तुम जानते भी हो कि तुम लाखों भारतीयों के सरताज़ होगे?हज़ारों हज़ार तुम्हारे देशवासी तुम्हें नमन करेंगें? सुभाष ने कहा- मैं लोगों पर नहीं उनके मनों पर राज्य करना चाहता हूँ। उनका हृदय सम्राट बनना चाहता हूँ।
वे नौकरी छोड़ भारत आ गए। २३ वर्ष का नवयुवक विदेश से स्वदेशी बनकर लौटा। इस समय पूरा देश किसी नेतृत्व की प्रतीक्षा कर रहा था। सुभाष पूरे देश को अपने साथ ले चल पड़े। वे गाँधी जी से मिले। उनके विचार जाने, पर उनको यह बात समझ नहीं आई कि आन्दोलनकारी हँसते-हँसते लाठियाँ खा लेंगे। कब तक? वे चितरंजन दास जी के पास गए। उन्होंने उनको देश को समझने और जानने को कहा। सुभाष देश भर में घूमें और निष्कर्ष निकाला- हमारी सामाजिक स्थिति बद्तर है, जाति-पाति तो है ही, गरीब और अमीर की खाई भी समाज को बाँटे हुए है। निरक्षरता देश के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। इसके लिए संयुक्त प्रयासों की आवश्यकता है।
कांग्रेस के अधिवेशन में उन्होंने कहा- मैं देश से अंग्रेजों को निकालना चाहता हूँ। मैं अहिंसा में विश्वास रखता हूँ किन्तु इस रास्ते पर चलकर स्वतंत्रता काफी देर से मिलने की आशा है। उन्होंने क्रान्तिकारियों को सशक्त बनने को कहा। वे चाहते थे कि अंग्रेज भयभीत होकर भाग खड़े हों। वे देश सेवा के काम पर लग गए। दिन देखा ना रात। उनकी सफलता देख देशबन्धु ने कहा था- मैं एक बात समझ गया हूँ कि तुम देश के लिए रत्न सिद्ध होगे।
अंग्रेजों का दमन चक्र बढ़ता गया। बंगाल का शेर दहाड़ उठा- दमन चक्र की गति जैसे-जैसे बढ़ेगी, उसी अनुपात में हमारा आन्दोलन बढ़ेगा। यह तो एक मुकाबला है जिसमें जीत जनता की ही होगी। अंग्रेज जान गए कि जब तक सुभाष, दीनबन्धु, मौलाना और आज़ाद गिरिफ्तार नहीं होते, स्थिति में सुधार नहीं हो सकता। उन्होंने कहा- सबसे अधिक खतरनाक व्यक्तित्व सुभाष का है। इसने पूरे बंगाल को जीवित कर दिया है।
इन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। मातृभूमि के प्रति, उसकी पुन्य वेदी पर इनका पहला पुण्य दान था।
सुभाष ने जेल में चितरंजन दास जी से काफी अनुभव प्राप्त किया। उन्हें मुसलमानों से भी पूर्ण समर्थन मिला। वे कहते थे- मुसलमान इस देश से कोई अलग नहीं हैं। हम सब एक ही धारा में बह रहे हैं। आवश्यकता है सभी भेदभाव को समाप्त कर एक होकर अपने अधिकारों के लिए जूझने की। ६ महीनों में ज्ञान की गंगा कितनी बही, किसी ने न देखा किन्तु जब वह जेल से बाहर आए तो तप पूत बन चुके थे। इसी समय बंगाल बाढ़ ग्रस्त हो गया। सुभाष ने निष्ठावान युवकों को संगठित किया और बचाव कार्य आरम्भ कर दिया। लोग उन्हें देखकर सारे दुःख भूल जाते थे।
वे बाढ़ पीड़ितों के त्राता बन गए। सुभाष चितरंजन जी की प्रेरणा से २ पत्र चलाने लगे। साधारण से साधारण मुद्दों से लेकर सचिवालय की गुप्त खबरों का प्रकाशन बड़ी खूबी से किया। कोई भारतीय इतना दबंग हो सकता है- अंग्रेज हैरान थे। १९२४ को पुनः गिरफ्तार हुए। कुछ समय बाद उन्हें माँडले जेल ले जाया गया। सुभाष ने कहा- मैं इसे आज़ादी चाहने वालों का तीर्थ स्थल मानता हूँ। मेरा सौभाग्य है कि जिस स्थान को तिलक, लाला लाजपत राय, आदि क्रान्तिकारियों ने पवित्र किया, वहाँ मैं अपना शीष झुकाने आया हूँ।
सारा समय स्वाध्याय में लगाया। वहाँ जलवायु वर्षा, धूप, सर्दी का कोई बचाव ना था और जलवायु शिथिलता पैदा करती थी, जोड़ों के अकड़ जाने की बीमारी होती थी तथा बोर्ड लकड़ी के बने थे। अंग्रेज बार-बार उनको जेल भेजते रहे और रिहा करते रहे। उन्होंने एक सभा में कहा- यदि भारत ब्रिटेन के विरूद्ध लड़ाई में भाग ले तो उसे स्वतंत्रता मिल सकती है। उन्होंने गुप्त रूप से इसकी तैयारी शुरू कर दी। २५ जून को सिंगापुर रेडियो से उन्होंने सूचना दी कि आज़ाद हिन्द फौज का निर्माण हो चुका है। अंग्रेजों ने उनको बन्दी बनाना चाहा, पर वे चकमा देकर भाग गए।
२ जुलाई को सिंगापुर के विशाल मैदान में भारतीयों का आह्वान किया। उन्होंने अपनी फौज में महिलाओं को भी भर्ती किया। उनको बन्दूक चलाना और बम गिराना सिखाया। २१ अक्टूबर को उन्होंने प्रतिज्ञा की- मैं अपने देश भारत और भारतवासियों को स्वतंत्र कराने की प्रतिज्ञा करता हूँ। लोगों ने तन, मन और धन से इनका सहयोग किया। उन्होंने एक विशाल सभा में घोषणा की- तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा। कतार लग गई। सबसे पहले महिलाएँ आईं। आर्थिक सहायता के लिए उन्होंने अपने सुहाग के आभूषण भी इनकी झोली में डाल दिए।
१९४४ में उन्होंने जापान छोड़ा। १८ अगस्त को नेताजी विमान द्वारा जापान के लिए रवाना हुए और विमान दुर्घटना में उनकी मृत्यु हो गई। किसी को विश्वास ही नहीं हुआ। लोगों को लगा कि किसी दिन वे फिर सामने आ खड़े होंगे। आज इतने वर्षों बाद भी जन मानस उनकी राह देखता है। वे रहस्य थे ना, और रहस्य को भी कभी किसी ने जाना है ?
-शोभा महेन्द्रू
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15 बैठकबाजों का कहना है :
गोपाल सिंह नेपाली की कविता याद आ रही है-
"वो खून कहो किस मतलब का,
जिसमें परवश, न रवानी है,
जिसमें उबाल का नाम महीं,
वो खन नहीं है, पानी है...."
निखिल
सुभाष का व्यक्तित्व और उनके विचार हमेशा अनुकरणीय रहेंगे
सुभाष चंद्र देश के रत्न थे |
उनका प्रयास अविस्मर्णीय रहेगा |
याद आ रहा है - उनके कुछ छीपे प्रयासरत तथ्यों को श्याम बेनेगल ने अपने फ़िल्म में दिखाया है , जो कम लोगों को पता है |
उनके विचारों को बांटने के लिए शोभाजी का धन्यवाद |
अवनीश तिवारी
जय सुभाष जयहिंद
neta ji ko mera naman
ALOK SINGH "SAHIL"
नेताजी, हमारे देश में कांग्रेस द्बारा लाइ तुच्छ राजनीती के पहले शिकार थे | गांधीजी से असहमत होने पर उन्हें इंडियन नेशनल कांग्रेस से इस्तीफा देना पड़ा था | परन्तु जहाँ पर इरादे सच्चे और नेक हों वहां पैर कोई भी कठिनाई आए, रास्ते अपने आप खुल जाते हैं |
इंडियन नेशनल आर्मी उन नेक और फौलादी इरादों का परिणाम था | नेताजी से जुड़े बहुत प्रसंग हैं जो हमें अपने जीवन में कर्तव्य और कर्म से कार्य करने की प्रेरणा देते हैं |
नेताजी को शत शत नमन | जय हिंद | भारत माता की जय |
आत्मीय शोभा जी!
वन्देमातरम.
नेताजी पर सारगर्भित जानकारी देने के लिए धन्यवाद.
अंत में नेताजी की मृतु वायुयान दुर्घटना में होने की भ्रामक एवं तथ्यहीन बात नहीं पची. क्या इस का कोई प्रमाण है? नेताजी के निधन संबंधी जांच के लिए भारत शासन द्वारा गठित आयोक के समक्ष आए तथ्यों के अनुसार जिस विमान में नेताजी के दुर्घटनाग्रस्त होने की अफवाह है वह वास्तव में उड़ा ही नहीं था. यह झूटी कहानी अंग्रेजों को भ्रमित करने के लिए फैलाई गयी थी. अन्तिम आयोग की जाँच के निष्कर्ष राजनीतिक कारणों से घोषित नहीं किए गए पर छपे समाचारों को देखें तो विमान दुर्घटना में मृत्यु प्रमाणित नहीं होती.
बढ़िया लगा यह आलेख.नेता जी को नमन है
"नेता जी को नमन.."
Regards
नेता जी को नमन .शोभाजी बहुत अच्छा लगा आप का लेख देश को शायद आज भी किसी एसे का ही इंतजार है
सादर
रचना
शोभा जी, अच्छा याद कियाआपने नेता जी को...
अभिषेक भाई ने सही कहा... उस समय की कांग्रेस की राजनीति ही थी कि नेताजी अलग हुए.. शायद कांग्रेस उनके लायक ही नहीं थी....उन्होंने तो कुछ और ही ठान रखा था.. और जहाँ तक मेरी समझ है कि अंग्रेज द्वितीय विश्व युद्ध की वजह से कमजोरपड़ रहे थे और आज़ादी मिलनी ही थी.. इसमें कम से कम १९३९ के बाद तो अहिंसा या कांग्रेस का कोई रोल नहीं रहा। यदि ऐसा होता तो १९४२ का अंग्रेज़ों भारत छोड़ो का आंदोलन फ़्लॉप नहीं होता।
दूसरी बात आचार्य जी ने सही उठाई.. विमान दुर्घटना से उनकी मौत हुई ये रहस्य ही है.. कोई कहता है कि ७० के दशक में भी नेताजी उसके साथ रहे.. कोई कहता है कि उस विमान का मलबा ही नहीं मिला तो दुर्घटना कैसी?
हमारा मीडिया भी भूल गया है तो राजनेताओं को क्या कहें... हैरानी होती है कि यदि कोई राष्ट्रपति या राष्ट्रपिता का जन्मदिन होता तो दिल्ली में "घाटों" पर भीड़ लग जाती है...
जो भी हो हम तो नेताजी को याद कर सकते हैं..
जय हिंद.. भारत माता की जय...
निखिल भाई.. ये पंक्तियाँ जोशभर देती है...
ख़ूनी हस्ताक्षर
वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें उबाल का नाम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का, आ सके देश के काम नहीं।
वह खून कहो किस मतलब का, जिसमें जीवन, न रवानी है!
जो परवश होकर बहता है, वह खून नहीं, पानी है!
उस दिन लोगों ने सही-सही, खूं की कीमत पहचानी थी।
जिस दिन सुभाष ने बर्मा में, मॉंगी उनसे कुरबानी थी।
बोले, स्वतंत्रता की खातिर, बलिदान तुम्हें करना होगा।
तुम बहुत जी चुके जग में, लेकिन आगे मरना होगा।
आज़ादी के चरणें में जो, जयमाल चढ़ाई जाएगी।
वह सुनो, तुम्हारे शीशों के, फूलों से गूँथी जाएगी।
आजादी का इतिहास कहीं काली स्याही लिख पाती है
इसको लिखने के लिए खूनकी नदी बहाई जाती है।
ये कहते-कहते वक्ता की, ऑंखें में खून उतर आया!
मुख रक्त-वर्ण हो दमक उठा, दमकी उनकी रक्तिम काया!
आजानु-बाहु ऊँची करके, वे बोले,”रक्त मुझे देना।
इसके बदले भारत की, आज़ादी तुम मुझसे लेना।”
हो गई उथल-पुथल, सीने में दिल न समाते थे।
स्वर इनकलाब के नारों के, कोसों तक छाए जाते थे।
“हम देंगे-देंगे खून”, शब्द बस यही सुनाई देते थे।
रण में जाने को युवक खड़े, तैयार दिखाई देते थे।
बोले सुभाष,” इस तरह नहीं, बातों से मतलब सरता है।
लो, यह कागज़, कौन यहॉं, आकर हस्ताक्षर करता है?
इसको भरनेवाले जन को, सर्वस्व-समर्पण करना है।
अपना तन-मन-धन-जन-जीवन, माता को अर्पण करना है।
पर यह साधारण पत्र नहीं, आज़ादी का परवाना है।
इस पर तुमको अपने तन का, कुछ उज्जवल रक्त गिराना है!
वह आगे आए जिसके तन में, भारतीय ख़ूँ बहता हो।
वह आगे आए जो अपने को, हिंदुस्तानी कहता हो!
वह आगे आए, जो इस पर, खूनी हस्ताक्षर करता हो!
मैं कफ़न बढ़ाता हूँ, आए, जो इसको हँसकर लेता हो!”
सारी जनता हुंकार उठी- हम आते हैं, हम आते हैं!
माता के चरणों में यह लो, हम अपना रक्त चढ़ाते हैं!
साहस से बढ़े युबक उस दिन, देखा, बढ़ते ही आते थे!
चाकू-छुरी कटारियों से, वे अपना रक्त गिराते थे!
फिर उस रक्त की स्याही में, वे अपनी कलम डुबाते थे!
आज़ादी के परवाने पर, हस्ताक्षर करते जाते थे!
उस दिन तारों ने देखा था, हिंदुस्तानी विश्वास नया।
जब लिखा था रणवीरों ने, ख़ूँ से अपना इतिहास नया।
शुक्रिया तपन भाई.....इस कविता पर मैंने पहली बार कविता वाचन प्रतियोगिता का पुरस्कार जीता था....अब भी खूब जोश में पढता हूं..
निखिल
सुभाष जी को शायद देश मे एक ही दिन याद किया जाता है इस बार परीक्षा की वजह से टीवी नही देख पाया, पर भगत सिहं जी के जन्म दिवस पर तो इलेक्ट्रोनिक मीडिया ने उन पर शायद ही कुछ दिखाया था
सुभाष जी से भी शायद इन्होने ऐसा ही किया होगा, ये मीडिया भी बहुत भेदभाव करता है इनहे सिर्फ २ अकटूबर और १४ नवंवर ही नजर आता है
शोभा जी,
आपने भी शायद नेता जी से भेदभाव किया है, आपने ये क्यो नही बताया नेता जी जब काग्रेस मे जीते थे तो उन्हे किसी महान व्यकित (गांधी जी) ने कहा था कि मेरे candidate(सीता रम्यया-शायद ये ही नाम था) की हार मेरी हार है जिस वजह से उन्होने (नेता जी) काग्रेस छोडी थी
सुमित भारद्वाज
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