Monday, January 19, 2009

"बे-तक्ख्ल्लुस" पूछता है : कौन-सा साहित्य पढें भाई?

मनु "बे-तक्ख्ल्लुस" हिंदयुग्म के मंच पर लगातार टेढ़ी-मेढ़ी लकीरें खींचते रहे हैं...हमारे यूनिपाठक भी हैं...कार्टूनों के ज़रिये कई बार उन्हॉने बेहद सहजता से महीन बातें कही हैं...इस बार उन्होंने कार्टून के साथ एक सवालनुमा ज़रूरी लेख भी भेजा है....साहित्य जगत में कथापाठ के आयोजन कम ही देखने-सुनने को मिलते हैं...15 जनवरी को गांधी प्रतिष्ठान भवन में जब हिंदयुग्म ने भी कथाकार तेजेंद्र शर्मा, गौरव सोलंकी का कथापाठ और असग़र वजाहत, अजय नावरिया और अभिषेक कश्यप को विमर्श करते सुना तो मनु के मन में एक सवाल बेचैन कर गया...ये सवाल उन्होंने अब सबसे पूछने का मन बनाया है...कोई जवाब हो तो बताएं....

हिंद युग्म द्वारा आयोजित कहानी पाठ:एक विमर्श, मेरी नज़र में एक बहुत ही सफल और ज्ञानवर्धक कार्यक्रम रहा मंच पर विराजमान कथाकारों के तालमेल से लेकर कथा-वाचन, लघु कथाएँ, तेजेंद्र जी का वो ड्रामाई अंदाज में किया कहानी पाठ जो कभी भी नहीं भूलेगा और उस पर सोने पे सुहागा ये के अंत में मंच पर बैठे माननीय लेखकों से कोई भी प्रश्न कहानी पर आप पूछ सकते हैं. एक बिंदास सा सवाल मन में कुलबुला तो रहा था काफ़ी देर से और पूछने की कोशिश भी की, मगर बस पूछा ही नहीं गया मंच पर कुछ तो ख़ुद का संकोच और कुछ दिल की लाचारी....के जाने किस को कैसा लग जाए...? ये "जाने किस को कैसा लग जाए" आमतौर पर सबके लिए नहीं सोचता अब... पर जब किसी के लिए सोचता हूँ तो पूरी शिद्दत से... खैर...छोडिये ..ये भी हो सकता है के ये सवाल वहाँ के बजाय यहाँ इस तरह तसल्ली से पूछा जाना होगादरअसल इस
कार्यक्रम के दौरान तेजेंद्र जी के लिए एक शब्द कहीं से कानों में उतरा था "प्रवासी लेखक" शुरू में कुछ अजीब सा लगा ..पर सोच कर देखा तो कुछ भी अजीब नहीं था अब भाई एक भारतीय जो विदेश में रह रहा है ..तो उसका तो
पूरा माहौल ही बदल गया न..? अब वहाँ का कल्चर अलग है..मान्यताएं अलग है..लोग अलग हैं ...सरकार अलग है...

कायदा...क़ानून...नेता..पुलिस...भ्रष्टाचार के तरीके...मौसम...मिजाज़ ...सब अलग हैं..वहाँ शायद ना तो राशन के लिए लम्बी लाइने हों और ना ये आदमखोर ब्लू लाइनें और भी जाने क्या क्या नेमतें आफतें हों जो यहाँ पर और विदेश में अलग अलग हों... सो लेखक का "प्रवासी लेखक " सुना जाना मुझे बड़े आराम से हज़म हो गया.. इसी महफ़िल में हालांकि शायद पुकारा ना गया हो पर एक नाम मुझे "महिला साहित्य जगत" से भी लगा इस महिला साहित्य पर झांकना वैसे तो मुझे कुछ अटपटा सा लगता है..कुछ झिझक सी महसूस करता हूँ कि जाने यहा पर क्या निकल आए, पर एक दिन सोचा कि यहाँ पर अचार और बड़ी-पापड की कोई बढिया रेसिपी भी तो हो सकती है...आख़िर महिलायें भी तो अच्छी कुक होती हैं...तो खान पान से सम्बंधित जानकारी महिला साहित्य में नहीं तो और कहाँ मिलेगी ...सो बड़ी-पापड की बड़ी
तमन्ना लेकर यहाँ भी ढूँढा ...पर ऐसा कुछ ना पाया ...बस साहित्य जैसा साहित्य था ..लेखन जैसा लेखन .....

फ़िर एक और चेहरा दिखा "दलित-लेखक"....अब ये क्या बला है..? यूँ तो वहाँ पर एक "बाल-लेखन" वाला चेहरा भी
मौजूद था ..पर उसकी छोडिये .....प्रवासी की तरह ही बच्चों की दुनिया भी एकदम अलग होती है...सो इस बाल-साहित्य को भी अलग ही रखा जाना चाहिए .....मगर ये बाकी के सब अलग अलग रास्ते क्यूं...? दलित या महिला क्या
किसी और परिवेश में रहते हैं..? क्या ये किसी और समाज का अंग है..? क्या इनकी सभी समस्यायें मुख्यधारा से अलग हैं..? अगर मैंने कुछ लिखा है तो क्या वो "पुरूष-लेखन" है....? क्या अपने लेखन में इन शब्दों का प्रयोग इतना ज़रूरी हो गया है....कि आपको इनके बगैर पहचाना ही ना जाए....? ये शब्द समय समय पर अपना रूप अवश्य बदलते रहे पर कभी भी हमारे अंतर्मन से विदा नहीं हुए क्या इन्हें विदा नहीं हो जाना चाहिए...? इनके प्रयोग से हम परस्पर जुडाव महसूस करते हैं या अलगाव...? अगर जुडाव महसूस करते हैं तो क्या सोचकर और अलगाव महसूस करते हैं तो इन शब्दों से मुक्त क्यूं नहीं हो जाते....? क्या लेखक वर्ग को इस तरह से बांटना ठीक है...? हम क्यूं रोते हैं अंग्रेजों को...नेताओं को......धरम वालों को...जात वालों को...और सरहदों को ...कि हाय हाय, इन्होने सब ने हमें बाँट रखा
है....वरना हम तो....!! जी नहीं , कोई किसी को नहीं बाँट सकता ...कोई मुझे बतायेगा के जो सवाल मैं उठा रहा हूँ उसके लिए नेता, धर्म, सांसद, पुलिस, क़ानून या सिस्टम ..... कौन जिम्मेवार है.........??? शायद कोई
नहीं न..? हाँ, कोई भी नहीं...हम ख़ुद ही बनते फिरते हैं बँटे हुए ..हमीं को स्वाद नहीं आता बगैर अलगाव के...हमें कुछ और बांटने को नहीं मिला तो यूँ ....अपनी कलम को ही आधार बनाकर हम ने एक दूसरे से ख़ुद को अलग अलग कर
लिया...बाँट लिया......! वाह री एकता और अखंडता के लिए चलने वाली कलम...वाह...क्या खूब...???

एक दिन इन शब्दों को कभी न कभी बहुत ही भयावह शक्ल अख्तियार करना लाजिम है तो क्यूं नहीं इस काम को आज ही कर लें...ज़रा सोचिये इन शब्दों को साहित्य के साथ चस्पां कर देने से क्या हो जाता है ...और हटा देने से क्या हो जायेगा...?क्या इस से कोई लाभ है... है तो क्या है...और अगर वाकई कुछ है भी तो शायद इसके बदले दूसरे को हानि भी होगी जब महिला, पुरूष,दलित,सवर्ण,युवा आदि सब एक ही ढाँचे में जी रहे हैं तो ऐसा क्यूं जरूरी है..अगर एक महिला को महिला होने के नाते कुछ अलग समस्या है भी तो पुरूष को भी तो है....यही बात बाकी सब जगह भी लागू होती है....और फ़िर भी आपको लगता है कि आपकी व्यक्तिगत समस्यायें ही समाज की या समूचे राष्ट्र की समस्या है तो माफ़ कीजिये कि आप देश को, समाज को जोड़ने का काम नहीं कर रहे.....और ज्यादा तोड़ रहे हैं, खोखला कर रहे हैं....जिसका आने वाला रूप मेरे हिसाब से ज्यादा घिनौना होगा ........

"क्यूं अलग ये राह पकड़ी, किसके बहकाए हो तुम,
"बे-तक्ख्ल्लुस" से ये क्यूं, मुंह फेर के बैठे हो तुम"


मनु

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14 बैठकबाजों का कहना है :

neelam का कहना है कि -

सोलह आने सच कहा है आपने साहित्य -साहित्य होता है इसका कोई विभाजन नही हो सकता सिवाय इसके कि अच्छा या बुरा ,इससे हमारा आशय सिर्फ़ यह है कि समाज को सही दिशा देने का काम भी साहित्यकारों का ही है ,किसी भी संकीर्ण विचारधारा को लेकर चलने का काम साहित्यकारों को शोभा नही देता है हम याद करते हैं अमीर
खुसरो को जिनसे बड़ी साहित्य के क्षेत्र में एकता की मिसाल न थी और शायद ही हो |

ये भी एक बात है अदावत की,
रोजा रखा जो हमने दावत की |
पहले आप ,पहले आप के चक्कर में ट्रेने छूट जाती हैं आप तो लखनऊ से हैं आपको तो पता ही है ,(इस पर भी कार्टून मत बनादिजियेगा क्षेत्रयीय साहित्य का )

manu का कहना है कि -

खुसरो के शानदार शेर के लिए शुक्रिया नीलम जी,मगर जाने कैसी ग़लत फहमी हुयी है ..........मैं तो दिल्ली से हूँ........शुरू से ही ..हाँ....लखनऊ शहर की तहजीब का बहुत ही कायल हूँ ............पर कभी देखा नहीं है....हाँ पढने और सुन ने को कभी भी मिस नहीं करता

neelam का कहना है कि -

एक बात और प्रवासी शब्द पर नावरिया जी का जो बयान था ,वो तो कतई हमे मंजूर नही ,जहां तक हमने सुना था कि श्याम जी ने कहा था कि अभी आपने एक मेट्रो की कहानी सुनी ,और एक प्रवासी की ,इसमे प्रवासी पर बवाल बना कर वो क्या दिखाना चाह रहे थे ,कहानी तो प्रवासी व्यक्ति पर ही थी ,उनका कहना की वहाँ पर लोग ज्यादा भारतीय हैं ,हम तो .......
खैर छोडिये इन सबको क्या रखा है इन बातों में वो तो एक समीक्षक के रूप में उपस्थित थे ,सिर्फ़ सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रशंसा ही की उन्होंने उनकी कहानियों की बड़े
बड़े शहरों में छोटी- छोटी बातें तो होती रहती हैं

अजित गुप्ता का कोना का कहना है कि -

मनु जी
साहित्‍य की इसी फिरकापरस्‍ती ने साहित्‍य को बहुत नुकसान पहुंचाया है। आपने प्रगतिशील साहित्‍य का उल्‍लेख नहीं किया? हमने जैसे पहले मनुष्‍यों के नाम के आगे जाति सूचक शब्‍द लगाने प्रारम्‍भ किए थे वैसे ही अब साहित्‍य के हो रहा है। राम और कृष्‍ण ने अपने आगे कुछ नहीं लगाया न दिनकर और प्रेमचन्‍द या महादेवी के आगे महिला लेखन या पुरुष लेखन जैसे शब्‍द लगाए गए। वर्तमान साहित्‍यकारों के पास लिखने का कम है लेकिन समाज को बांटने के लिए बहुत कुछ है। इस देश में राजनीति दृष्टिकोण से ही सबकुछ चलने लगा है। खैर आप मेरी शुभकामनाएं लें, आपने इतनी खूबसूरत तरीके से हम सबके मन की बात को यहॉं उकेरा है।
अजित गुप्‍ता

आलोक साहिल का कहना है कि -

ajit ji ki bat se ham bhi ittefaak rakhte hain.........
ALOK SINGH "SAHIL"

neelam का कहना है कि -

sher khusro ka nahi hai ,humne aapke sher ke badle sher likh diyatha ,kuch associate karne ki koshish ki thi magar maamla kuch jama nahi .

द्विजेन्द्र ‘द्विज’ का कहना है कि -

वाह- वाह
Manu strikes again !

ये सब अपना- अपना सामान बेचने का स्टण्ट है. अपना धन्धा है ,बाज़ार चमकाने के नुस्ख़े हैं.
साहित्य की निरंतर बढ रही इन क़िस्मों ने पाठक को व्यामोह की स्थिति में ला खड़ा किया है. प्यारे
भाई !
सुरेश चन्द्र 'शौक़' साहब ने शायद इसी लिए कहा होगा यह शेर :

" इस दौरे-सियासत में हर कोई ख़ुदा ठहरा
,
रखिये भी तो किस-किस की दहलीज़ पे सर
रखिये ? "

Nikhil का कहना है कि -

कार्टून भी बेहद अच्छा बना है...
लगे रहिए...

निखिल

Anonymous का कहना है कि -

मनु जी बात आप की एकदम सही है साहित्य को मात्र साहित्य ही रहने देना चाहिए उस में ये विभाजन नही होना चाहिए
शायद लोग ख़ुद को एक वर्ग विशेष में प्रचलित करना चाहते हैं इसी लिए एसा करते हैं याफिर सहानभूति चाहते हैं .पर मेरा मानना है की सुंदर साहित्य किसी भी विशेषण का मोहताज नही होता .जैसे सूर्य की किरणे बदल को भेद के प्रकाश फैला ही लेती हैं वैसे ही ये साहित्य है .अच्छी रचना सभी पसंद करते हैं ,और बहुत दिनों तक याद भी रहती है .
इसी लिए लेखन पर ध्यान देना चाहिए न की किसी वर्ग विशेष का साहित्यकार होने पर .
ठीक कहा है की बात बिगडे उस से पहले ही सुधर ली जाए .
रोचक तरीके से लिखा है ,आप ने
कार्टून बहुत सुंदर है
सादर
रचना

तपन शर्मा Tapan Sharma का कहना है कि -

मुझे साहित्य का ज्ञान नहीं है.. न ही ज्यादा किताबें पढ़ी हैं...मेरा मानना है कि जो उपन्यास या कहानी जैसा परिवेश दिखाती है... वो उस थीम पर आधारित मानी जाती है...
मैं अपनी बात एक उदाहरण से समझा सकूँ शायद..
प्रेमचंद का निर्मला मैंने पढ़ा है और गबन, रंगभूमि भी... सब में अलग कहानी.. अलग बात... अब जिसने निर्मला पढ़ा वो कहेगा प्रेमचंद महिला साहित्य लिखते थे... जो जैसा पढ़ता गया वैसा साहित्य "परिभाषित" करता गया...

साहित्य या साहित्यकारों को बाँटना गलत है... शायद कहानियों को बाँटा जा सकता है.. :-)

Divya Narmada का कहना है कि -

मनुजी!
वंदे मातरम.
साहित्य वह जिसमें सबके ही की कामना-भावना हो. सद्भाव, साहचर्य, सहिष्णुता, सम्मिलन, सहकार, समग्रता एवं सातत्य के सप्त सोपान साहित्य और साहित्यकार होने के लिए पर करने होते हैं. अपने आपको वर्गों-उपवर्गों में बाँटकर, नाम छिपाकर अशालीन, अभद्र टिप्पणी कर स्वक्यम को तीसमारखां समझनेवाले साहित्य का भला तो नहीं करते.
आपने प्रश्न बिल्कुल सही पूछा है? उत्तर वे दें जो ख़ुद को किसी वर्ग विशेष में रखकर सुरक्षित महसूस करते हैं. मुझे यह विशेषण लगाना या समूहों में विभाजित करना कभी उचित नहीं लगा.
आप जातिगत विभाजन की चर्चा करना भूल गए. आजकल मैथिलीशरण गुप्त जयन्ती का आयोजन वैश्य सभाएं करती हैं जिसमें केवल वैश्य साहित्यकार बुलाये और सम्मानित किया जाते हैं. निराला पर ब्राम्हणों, प्रेमचंद-महादेवी पर कायस्थों, देवकी नंदन खत्री पर खत्री समाज यही कर रहे हैं. छोटे शहरों में यह प्रवृत्ति पनप चुकी है.
राजनैतिक विचारधारा के आधार पर प्रगतिशील, समाजवादी तथा भा.ज.प. की संस्कार भारती हैं. यह सब खेमबजी सिर्फ़ और सिर्फ़ स्वहित साधन के लिए है. जबलपुर में सर्व ब्राम्हण सभा के गुट ने साहित्यिक आयोजनों का ठेका लेना पेशा बना लिया है. मंह पर दस में से आठ कुर्सियों पर केवल ब्राम्हण होते हैं. नाम्चार के लिए एक- दो अन्य जिनसे कुछ स्वार्थ सधता हो.
अब तो नाम छिपाकर कायरों की भांति पीठ पर वार करने वाले साहित्यकारों का भी एक गुट बन गया है. अनाम, अज्ञात, गुमनाम, बेनाम लिखकर अपनी स्तरहीन रचना की प्रशंसा में पात्र भेजना, दूसरों पर स्तरहीन टिप्पणी करना, यह भी तो एक समूह है. अस्तु... आपको एक सही बात उठाने के लिए साधुवाद
..

Divya Prakash का कहना है कि -

बेहद सटीक कार्टून .... बेहद सटीक लेख ...
रही बात जवाब देने की .... तो सारे जवाब आपने खुद ही दे दिए ....
हाँ मैं एकता ,अखंडता जैसे शब्दों के मतलब खुद ही समझने की कोशिश कर रहा हूँ ... हाँ कहीं-कहीं नैसर्गिक रूप से हम बिखरे हुए हैं ....जैसे की रंग बिखरे हुए हैं मौलिक रूप से ७ प्रकार से .....एक साथ हो जाता है तो भी अच्छा दिखता है ...लेकिन इन्द्रधनुष की अपनी खूबसूरती है और सूरज की किरण की अपनी रवानगी ...
नीलम जी ने बहुत अच्छा लिखा कि "साहित्य होता है इसका कोई विभाजन नही हो सकता सिवाय इसके कि अच्छा या बुरा " कम से कम इतना बिखराव कर कोई कर देता है शायद ...मैं तो कर देता हूँ जब भी कुछ पढता हूँ ...इसलिए इस विभाजन या बिखराव को बिलकुल नैसर्गिक मानता हूँ मैं ....रही बात साहित्य मैं विभिन्न प्रचलित विभाजनो की (जो कि cartoon मैं स्पष्ट हैं )
उनमे से कुछ सही भी लगते हैं मुझे....ज़रा सोचिये साहित्य की पूरी अभी तक की यात्रा को फिर से तय करना हो तो भी ... इनमे से कुछ प्रचलित विभाजनो कि सीधी चढ़नी ही पड़ेगी ...
आपके लेख के लिए बहुत बहुत धन्यवाद ....आज बहुत दिनों बाद थोडा सा लिखने का मौका दिया आपने ...
सदर
दिव्य प्रकाश
http://aaobakarkarein.blogspot.com/

Prakash Badal का कहना है कि -

भाई मनु पिछले कई दिनों से मन था कि आपका लेख पढ़ूँ, लेकिन इतनी व्यस्तताओं के बावजूद पढ़ नहीं पाया। आज वो तसल्ली भरा समय निकल आया जिसकी मुझे प्रतीक्षा थी। क्या खूब लिखा है आपने। दरअसल भारत की रगों में बाँटने की प्रवृत्ति काफी पुरानी है और इसी के चलते हम कई खेमों में बँट गए हैं। कहानियों में ही नहीं अन्य विधाओं में भी इस तरह का वर्गीरण होता है। कोई प्रगतिशील लेखक है तो कोई क्रांतिकारी लेखक, कोई दलित लेखक तो कोई महिला "क्ल्याण" लेखक मैं तो कई ऐसे लेखकों को जानता भी हूँ जो महिलाओं पर बड़े-बड़े भाषण देते हैं और उनके शोषण पर बड़े- बड़ॆ नारे लगाते हैं लेकिन अपने घर में रह रही महिला की शोषण की बातें भी ऐसे ही लोगों के बारे में सुनी जाति है। मैं ऐसे कई दलित वर्ग से संबंधित लेखकों को भी जानता हूँ जो अपने लेखन से दलित वर्ग में उत्थान क्राँति लाने की ठाने हुए है। ऐसे लेखकों को और कई समसामयिक विषय लिखने का आमंत्रण भी दें तो भी ये दलित विषेश लेखक ही बनना पसंद करते हैं। साहित्य में ऐसा वर्गीकरण साहित्यकारों की सोच का पिछड़ापन न कहा जाए तो और क्या। आप का लेख अगर इस वर्गीकरण की तंद्रा को तोड़ पाए तो क्या मज़ा आए। अच्छे लेख के लिए मेरी ओर से आपको ढेरो बधाई।

manu का कहना है कि -

अजीत जी, रचना जी ,आचार्या जी और मेरे भाई बादल जी ने कितनी ही ऐसी और बातों का जिक्र किया जो या तो मुझसे छूट गयीं थीं या मैं इनसे अनजान था.........आपके कमेंट से मेरा लेख मानो पूरा हो गया.........

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