नाज़िम नक़वी फिर हाज़िर हैं...इस बार उन्होंने देश की व्यवस्था पर अपनी कलम चलायी है...वो व्यवस्था जो आज भी सरहदों
पर सियासत करने से बाज़ नहीं आती....अपने देश में दशकों से बस रहे बांग्लादेशियों की दुर्दशा पर पढिए उनका ये आलेख...
“वो बांग्लादेशी हैं और उन्हें बांग्लादेश में रहना चाहिये, इस समस्या को धर्म के आधार पर देखने की कोई ज़रूरत नहीं है...” क़रीब तीस दिन पुराने हमारे नये गृहमंत्री ने दो टूक ये कह दिया तो यकबयक कानों पर यक़ीन नहीं हुआ। सही भी तो है, वक़्त का तक़ाज़ा भी तो यही है। जब अपना घर आफ़तों का परकाला हो गया है तो परोपकार की किसको सूझती है। इतिहास में जाने की ज़रूरत नहीं कि बांग्लादेशी हमारे देश में लगभग तीन दशक पहले कैसे और किन परिस्थितियों में आये। लेकिन आज जब ये पता लगाना मुश्किल होता जा रहा है कि हमपर ख़तरनाक हमलावर हमारे अपने हैं या पड़ोसी तो ऐसे में पहला क़दम यही होना चाहिये कि उन लोगों को देश से निकाल दिया जाय जिनके पास न वीज़ा है न वर्क परमिट। लेकिन सवाल उठता है कि क्या ये काम एक बयान जितना आसान है? पिछले तीन दशकों में अगर एक बांग्लादेशी अवैध रूप से यहां बसा तो आज वो परिवार वाला हो चुका है। इन अवैध लोगों की वैध संतानें किस देश की कहलायेंगी? ये एक दो दिन की बात नहीं है। ये वो अवधि है जब व्यक्ति परिवार में परिवार ख़ानदान में और ख़ानदान जन समूह में बदल जाते हैं।
हैरत इस बात पर है कि आज कांग्रेसी सरकार का गृह मंत्रालय जिसे समस्या मान रहा है उसका जन्म ख़ुद उसकी ही नीतियों की कोख से हुआ है। 1983 में इंदिरा गांधी द्वारा एक क़ानून (आईएमडीटी एक्ट) की स्थापना की गई ताकि बांग्लादेशी प्रवासियों को असमी विद्रोह से बचाया जा सके। इस क़ानू के तहत शिकायतकर्ता को 10 रपये का एक फ़ार्म भरकर शिकायत दर्ज करानी होती थी। फिर वो शिकायत अगर सही पाई गई तो अवकाश प्राप्त जजों के उस ट्रिब्यूनल के पास जाती थी जो ये फ़ैसला कर सकते थे कि अमुक व्यक्ति को वापिस भेजा जाय या नहीं। दूसरी तरफ़ जिसके ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज की गई है उसे सिर्फ़ अपने नाम का राशन कार्ड दिखाना होता था। इस कानून के बाद वही हुआ, राशन कार्ड बनाने वाले भगवान हो गये। इससे भी रोचक ये कि 2005 में इस कानून पर देश की सर्वोच्च अदालत ने कहा कि “अवैध प्रवासी नागरिकों को पहचानने और उन्हें उनके देश भेजने की प्रक्रिया में ये कानून सबसे बड़ी अड़चन है।” इस देश में किसी भी चीज़, यहां तक की क़ानून, को सही और ग़लत साबित करने में 22 साल लग जाते हैं। जैसा कि इस एक्ट के साथ हुआ। इन बाइस वर्षों में क्या से क्या हो जाता है इसे बताने की ज़रूरत नहीं होनी चाहिये।
अगर इस दशकों पुरानी समस्या का सामधान इतना आसान नहीं है तो फिर एक कांग्रेसी गृहमंत्री का ये बयान कैसे गैर-सियासी हो सकता है। सियासी तौर पर तो ये भाजपा का मुद्दा रहा है और उसने जब-तब इसे उठाया भी। 2003 के पहले सप्ताह में आंतरिक सुरक्षा के लिये ख़तरा बन चुके लगभग दो करोड़ बांग्लादेशियों को वापिस उनके देश भेजने की घोषणा करते हुए अडवाणी जी ने तो इस अभियान की तारीख भी अप्रैल 2003, तय कर दी थी। फिर पता नहीं क्यों ये अभियान शुरू नहीं हो सका। शायद फ़ील गुड के फ़ील बैड में बदल जाने का अंदेशा रहा हो। उस समय अडवाणी ने भी यही कहा था कि इतनी बड़ी तादाद में ग़ैरक़ानूनी तरीक़े से रह रहे लोग दुश्मन देशों के एजेंट भी हो सकते हैं और आज यही ख़तरा चिदंबरम को भी है। उस समय के उप प्रधानमंत्री ने भी भारत के नागरिकों के लिए पहचान पत्र जारी किए जाने की बात कही थी, आज नेशनल पॉपुलेशन रजिस्टर (एनपीआर) बनाने की वही बात गृहमंत्री भी कर रहे हैं।
अब ये सवाल उठाना बेमानी है कि आख़िर अभी तक हम इस समस्या से क्यों नहीं निपट पाये। किसे नहीं मालूम कि हूजी जैसे आतंकवादी संगठन बनाने वाले कौन हैं, आईएसआई, हूजी और असम के अलगाववादी गुटों का तालमेल किससे छुपा हुआ है, ये बांग्लादेशी किसका वोट बैंक हैं। ऐसे में क्या नहीं हो पाया इसपर कोई सवाल कैसे किया जा सकता है। हां ये सवाल ज़रूर उठता है कि आज इस सवाल के पीछे कौन सा गणित काम कर रहा है। आ़ज कांग्रेस को ये वोट बैंक बेमानी लग रहा है तो क्यों? गृहमंत्री पूरी लगन के साथ अपने पांच महीनों के इस छोटे से टारगेट पर काम कर रहे हैं ये सबको नज़र आ रहा है। मंत्रालय में बड़े बड़े अफ़सर देर रात तक फ़ाइलों से घिरे हुए देखे जा सकते हैं। सुरक्षा एजेंसियां हों या ख़ूफ़िया तंत्र सबको ज़िम्मेदारी ओढ़ने वाले सिस्टम के अंतर्गत लाया जा रहा है। फलां काम 15 जनवरी तक और फलां काम 20 जनवरी तक पूरा हो जाना चाहिये, ऐसे निर्देश आम हो गये हैं। लेकिन ये भी सच है कि चुनाव के नज़दीक चुनाव की तैय्यारियां भी इसी समय ही करनी हैं। सहयोगियों को साथ लाना है लेकिन राजनैतिक प्रतिद्वंदियों को भी ठिकाने लगाना है। हम जनप्रतिनिधि हैं और जनता के प्रति हमारी जवाबदेही है ये जुम्ले चुनावी मौसम के जुम्ले हैं जो इधर-उधर सुनाई पड़ने लगे हैं।
अगले चुनाव की रणनीति कांग्रेसी आंखों से देखिये तो असम से उसे ज़्यादा उम्मीद नहीं है। त्रिपुरा और वेस्ट बंगाल में उसका जनाधार पहले से ही खिसका हुआ है। यही वो इलाक़े हैं जहां बांग्लादेशी वोट बैंक के मायने हैं। कल तक वामपंथी उसके साथ थे तो उसे बांग्लादेशी घुसपैठ को नज़रअंदाज़ करना पड़ता था। आज वामपंथी हर मोड़ पर उसके ख़िलाफ़ खड़े हैं। संसद में उनके परम विरोधी तो वही हैं, भजपा से भी ज़्यादा। दूसरी अहम बात ये कि आंतरिक सुरक्षा की बात उठाते हुए भाजपा सरकार का घेराव इन्हीं बांग्लादेशियों के नाम पर कर सकती थी तो उसे पहले ही उठाकर कांग्रेस ने उसका ये कार्ड एक तरह से छीनने का प्रयास किया है। वैसे भी विरोध के लिये मुद्दों की तलाश में भाजपा हाथ-पैर मार रही है।
हम जैसे हैं सब कुछ वैसा होता है। हमारे देश में किसी समस्या से निपटने का हमारा तरीका क्या है इसे बांग्लादेशी समस्या के आइने में देखा जाना चाहिये। ये उसी देश में संभव है जहां “देर आये- दुरुस्त आये” या “भगवान के घर देर है अंधेर नहीं है”
जैसे मुहावरे जीने का आधार हों। हमें भगवान के न्याय पर भरोसा है तो हमारे सारे प्रश्न भी उसी के दरबार में जाते हैं। हम जब चाहते हैं उसे कटघरे में खड़ा कर देते हैं। और उसके ख़िलाफ़ उसी के फ़ैसले का इंतेज़ार करते हैं। ऐसे में मिनिस्टर फिनिस्टर, मंत्रालय-वंत्रालय या कानून फानून की क्या औकात जो हमारे दर्द को कम कर सके।
-नाज़िम नक़वी
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8 बैठकबाजों का कहना है :
|| उनके नाम औ नस्ल पे झगडे आज सियासत करती है,
चाहे जहाँ निकल पड़ते थे,बादल जैसे लोग थे वो ||
bilkul satik vishleshan nakavi sahab.
ye siyasat ke kutte hain,kya karein inka........
ALOK SINGH "SAHIL"
क्या बात है मनु जी... कितना दर्द है आपके शब्दों में...
नाज़िम
नाजिम जी को नमस्कार.
अगर ये तीसरी टिपण्णी वाकई आपकी है तो आपका बहुत शुक्रिया ..
आपकी दी जमीन पे कहने का वाकई अलग मज़ा है.....अगली महफ़िल के इंतज़ार में...
मनु
जमशेदपुर में जब था, वहां एक रिफयूजी कॉलोनी हुआ करती थी...लोग उन्हें ढकईया(ढाका से भागे लोग) कहकर बुलाते थे..ऐसे कई और भी किस्से हैं जिनपर सीरियस बातचीत ज़रूरी है...सियासत से कुछ नहीं होने वाला...अवाम जागे तो कुछ हल हो सकता है...इस पर और भी लेख पढने की इच्छा है...
त्रासदी तो ये भी है कि देश में ही कई इलाकों में लोग बिदेसिया की तरह जी रहे है....कहां-कहां तक बात की जाए...
कांग्रेस क्यों बदल गई है.. यह सोचने का विषय है। आज पूर्वोत्तर में हिंसा में शामिल संगठनों में बांग्लादेशी तादाद अधिक है। हमें शुरु से ही सतर्क रहना चाहिये था... लेकिन तब हमने राशन कार्ड बाँटे वोट के लिये... जैसा बोया जायेगा.. वैसी फसल मिलेगी...
सरकार को कब तक हम दोषी मानते रहेंगे? अगर आप बंगलादेशी लोगों की बात करते हैं तो आपको जानकर हैरत होगी की केवल दिल्ली में २० लाख बंगलादेशी हैं| इन में से ज्यादातर रिक्शा एंवं मजदूरी का काम करते हैं ७० प्रतिशत घर में काम करने वाली बाई आज की तारिख में बंगलादेशी हैं| क्या आपने या हम में से किसी ने आज तक यह प्रयास किया की हम पता करें की हमारे घर पैर काम करने वाली बाई क्या बंगलादेशी है? नही, सीधा सा इसका कारण है की अपने घर के सफाई में हाथ गंदे कौन करे| सरकार को तो हमेशा दोषी ठेराया जा रहा है, उसका कारन है की हम इतने मानसिक तौर पैर विक्सित नहीं हैं की अपनी गलती स्वीकार करें| प्रतिदिन ६००० बंगलादेशी हमारी सीमा को पार कर पूर्वांचल के राज्यों में प्रवेश कर जाते हैं| क्या हम में से किसी ने सरकार के विरोध में PIL दर्ज करी है क्या? नहीं|
किंतु हम परस्पर समाचार देखते हैं और सकरार के द्वारा लिए गए कदमों को न काफ़ी बता कर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं| सवाल कांग्रेस अथवा भारतीय जनता पार्टी का नहीं है| सवाल है की क्या आम नागरिक आने वाले खतरे के लिए कितना सचेत है और अपने प्रयासों से कितना बदलाव लाना चाहता है?
दिनकर का लेख 'नेता नही नागरिक चाहिए' आज पचास साल भी प्रासंगिक है. आज़ादी के बाद नेता, अफसर, व्यापारी ही पैदा किए गए सुयोग्य नागरिक भी हों यह कभी किसी ने नहीं चाहा. हर एक और सब अधिकार चाहते हैं कर्तव्य के बिना. बंगला देशियों को भारत में प्रवेश कोई भारतीय ही देता है. उन्हें छिपाने, रोजगार देने और राशन कार्ड या अन्य पहचान पात्र भी भारतीय ही देते हैं सरकार किसी भी दल की हो मंत्री सीमा पर नहीं होगा. संतरी याने आम आदमी ख़ुद सचेत न हो तो कोई उसे जगा नहीं सकता.
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