Saturday, January 24, 2009

सोने का पिंजर (2)

दूसरा अध्याय

क्या धरा है ऐसी ममता में जहाँ की धरती पर मच्छर हैं, मक्खी हैं।

चूल्हे पर चाय का पानी चढ़ा है, अल्मारी से शक्कर का डिब्बा जैसे ही उतारा तो पता लगा कि अरे शक्कर तो है ही नहीं। अब चाय कैसे बने? बैठकखाने में मेहमान बैठे हैं। माँ धीरे से बेटी को पुकारती है, और फुसफुसाहट करती हुई बेटी को समझाती है कि ‘पीछे के दरवाजे से जा और पड़ौस की काकी से एक कटोरी शक्कर माँग ला।’ शक्कर पीछे के दरवाजे से आ जाती है। लेकिन तुम्हारे यहाँ, बहुत कठिन है, रीत गये डिब्बे में शक्कर की आवक, वह भी पीछे के दरवाजे से। बेटा-बहू नौकरी पर गए, माँ अकेली है। घर का सारा काम निपट गया है, अब घर की डोली पर बैठकर पास वाली से बातें करेंगे। कितना सकून भरा है यह क्षण। एक पल भी एकान्त नहीं, अकेले होने का डर नहीं।
तुम्हारे पास एकान्त-साधना का बहुत समय है। बेटा-बहू या बेटी-दामाद नौकरी पर गए और अकेले हो गए बूढ़ा-बूढ़ी।
बूढ़ा बोलने लगा कि "अरी भागवान कैसे सुंदर दिन आए हैं, सारा जीवन बीत गया लेकिन तुझ से एकान्त में बात करने का अवसर ही नहीं मिला। अब देख यहाँ केवल तू है और मैं हूँ। सारा दिन अपना है।"
बुढ़िया भी खुश हो गयी, बोली कि "हाँ तुम सच कहते हो। और देखो कैसा आराम भी है! नल में गर्म और ठण्डा पानी दोनों ही आते हैं, फटाफट बर्तन साफ हो जाते हैं। अपने देस में तो मरी महरी के सौ नखरे थे, कभी आती और कभी नहीं। सर्दी में उसे गर्म पानी चाहिए था तो पहले मरी सिगड़ी पर गर्म करके देती थी पानी और बाद में जब गैस आ गयी तब उस पर पानी गर्म करके देती थी, तभी उसके हाथ चलते थे। यहाँ सारे नखरों से ही दूर हैं, देखों तो हम कैसे सब मिलजुल कर काम कर लेते हैं।" फिर हँसकर बोली कि "वहाँ तो तुम भी खटिया तोड़ते थे, लेकिन यहाँ तो मेरे साथ हाथ बँटा ही लेते हो।"
बूढ़ा बोला कि "मेरे मन में विचार आता है कि हम गाँव में बेचारी बड़ी बहू को बेकार में ही डाँटते रहते थे। सारा काम वो ही करती थी, तू भी खटिया पर पड़ी चाय पीती थी और बेचारी बहू खाना भी वहीं खिला देती थी। तब भी तू उसे गाली दिए बिना रहती नहीं थी। आज क्या हुआ तेरी जुबान को? अब तो तू एकदम चुपचाप है, कभी तूने अपने हाथ से पानी भी नहीं पीया और यहाँ तो तू बर्तन भी माँज रही है।"
सब समय-समय का खेल है। क्या करें, अब दोनों ही नौकरी करे हैं तो हमें भी तो कुछ करना ही पड़ेगा न! फिर ठाले बैठे यहाँ करे भी तो क्या? मरा टी.वी. पर भी तो अंग्रेजी में ही गिट-पिट आती रहे है। फिर अचानक ही मायूस हो जाती है और बोलती है कि "जी, अपने देस कब चलोगे?"
"क्यों यहाँ आने को तू ही तो बड़ी तड़प रही थी।"
"वो तो सही है, लेकिन अपने घर-बार की याद आने लगी है। पड़ौसन की बहु के बाल-बच्चा होने वाला था, अब तक हो गया होगा। घर में गीत गँवे होंगे। सारी ही मुहल्ले की औरते आयी होंगी।"
"लेकिन तेरे बिना तो गीतों में मजा ही नहीं आया होगा। तेरा गला ही तो सबसे अच्छा था।"
"अजी ऐसा नहीं करें कि अपन भी यहाँ गीत गवा लें।"
"कहाँ गवाएँगी? आस-पड़ौस से गौरी-काली औरतों को बुलाएँगी कि मेरे साथ गीत गाओ।"
"नहीं जी, तुम तो मजाक करो हो, मैं कह रही थी कि एक दिन मंदिर ही चलें, वहाँ भजन ही गाएँगे।"
"चल अच्छा है, बेटे को आने दे, बात करेंगे।"
"अरे अपन ही चल चलें, नीचे मोटर-गाड़ी कुछ तो मिल ही जाएगी, पूछते-पूछते चले जाएँगे।"
"नीचे मोटर-गाड़ी? यहाँ तेरा शहर है जो घर के बाहर ही टेम्पों मिल जाएगा? तूने देखा नहीं कैसी बड़ी-बड़ी सड़कें हैं। सड़कों पर बस गाड़ियाँ ही दौड़ती रहे हैं, आदमी तो दिखे ही ना है। किससे पूछेगी रास्ता? अब बेटे को आने ही दे।"
"अरे बेटा तो नौकरी से थका-हारा आएगा, रात को। तब कौन सा मन्दिर और कौन से भजन?"
"अब के शनिवार को कह देखेंगे।" बूढ़े ने आश्वासन दिया।
"कल ही तो शनिवार है। आज शाम को ही बात चलाएँगे।"
शुक्रवार की शाम है, बेटा-बहू दोनों ही काम से जल्दी आ गए हैं। आते ही बेटा बोला कि "माँ, कल हम सब घूमने जाएँगे। बहुत दिनों से कहीं गए नहीं हैं तो इस वीकेंड पर समुद्र किनारे घूमेंगे। वहाँ के होटल की बुकिंग बहुत मुश्किल से मिली है।"
"बेटा हम वहाँ जाकर क्या करेंगे? हमें कहीं किसी मंदिर में ही छोड़ आ। सारा दिन भजन गाने में ही निकल जाएगा।"
"अरे यहाँ इतना आसान नहीं है, जितना अपने गाँव में था। वहाँ छोड़ भी दूँगा तो सारा दिन क्या करोगे? फिर आप मेरा मूड मत बिगाड़ो। बस मैं जैसा कहता हूँ वैसा करो।
समुद्र किनारे देखना कैसी-कैसी मछलियाँ हैं? ऐसा सी-वर्ल्‍ड तुम्हारे गाँव में नहीं है।"
"बेटा, गाँव तो वह तेरा भी है।"
"हाँ, वही।" बेटे ने बड़ी अनिच्छा से कहा।

देखा तुमने, कैसे बेटा अपने ही गाँव को अपना कहने में शर्म कर रहा है। वह तुम्हें अपना बता रहा है। भला तुम उसके कैसे हो सकते हो? तुम क्या नहीं जानते कि मनुष्य की तन की और मन की जरूरते अलग-अलग होती हैं। तन कुछ और चाहता है और मन कुछ और। तन तो सारे ही सुख चाहता है लेकिन मन अपने अतीत में ही लौट जाना चाहता है। मुझे लगता है कि तुमने दुनिया को कितना दिया है इसका हिसाब तो मेरे पास नहीं है, लेकिन लोगों के मन के संतोष को तुमने जरूर छीन लिया है। सारे ही सुखों के बीच भारतीय व्यक्ति तुम्हारी धरती पर रहता है, लेकिन उसका मन उसे अपनी धरती की ओर खींचता है। मैं अपने मन की बात बताऊँ, मेरी उम्र 57 वर्ष होने को है, मैंने अपना बचपन जिस धरती पर बिताया उसे छूटे तैतीस वर्ष से भी अधिक हो गए। लेकिन आज भी सपने चाहे किसी के आएँ, सपने में घर तो वहीं बचपन का होता है। यह क्या रहस्य है, मुझे अभी तक समझ नहीं आया! मैं तुम्हें बस इतना ही कहना चाहती हूँ कि मन का ऐसा ही रहस्य है। बचपन का स्वाद ही उसकी जुबान पर होता है। बचपन में जब माँ गुड़ का हलुवा बनाती थी, तो उसकी महक आज भी नथुनों में बसी है। तुम्हारे यहाँ कहाँ है वह महक? बस जब मन उस बचपन की महक के लिए तड़पता है तब तुम्हारे गुदगुदे बिस्तर पर उसे नींद नहीं आती। यौवन में तो मन के ऊपर तन हावी रहता है लेकिन जैसे ही यौवन ढलने लगता है, मन अपना करतब दिखाना शुरू कर देता है।
यौवन में तुम्हारी चकाचौंध सभी को तो अपनी ओर आकर्षित करती है। भारत के घर से बाहर कदम रखते ही नाक पर रूमाल रखना पड़ता है। टूटी सड़क पर, पानी का जमाव आम बात है। घर से धुले-साफ कपड़े पहनकर बाहर निकले, सड़क पर आए और तेज गति से आती मोटर-साइकिल ने छपाक से पानी को उछाल दिया। सफेद कलफ लगे कपड़े कीचड़ से सन गए। कहीं कच्ची बस्तियाँ बसी हैं, नीले प्लास्टिक के कपड़ों से तने है छोटे-छोटे घर। वहीं सूअर भी हैं और कुत्ते भी। मनुष्य के बच्चे और जानवरों के बच्चों में अंतर नहीं दिखायी देता इन बस्तियों में। एक तरफ ऐसी बस्तियाँ हैं तो दूसरी तरफ आलीशान कोठियाँ खड़ी हैं। यही अन्तर लोगों को तुम्हारी ओर आकर्षित करता है। सपने सत्य करने के लिए तुम्हारी धरती उन्हें पुकारती है। वे अपने चारों तरफ पसरी गन्दगी को मिटाने का संकल्प नहीं लेते, अपितु स्वयं ही भागने का मार्ग ढूँढ लेते हैं। जरा सा पढ़ने में तेज क्या हुआ, वह सपने में तुम्हें ही देखता है। पंजाब का लड़का तो तुम्हारे यहाँ ही ढाबा खोलना चाहता है। उसे पता है कि भारत की जीभ बहुत चटोरी होती है, उसे यहीं के मसालों की आदत होती है। वह तुम्हारे यहाँ आ जाता है अपना तंदूर लेकर। नान बनने लगती है, भटूरे बनने लगते हैं।
तुम भी जानते हो कि भारत के खाने का जवाब नहीं, अतः आने दो पंजाबियों को। भारत से इतने इंजीनियर, डाक्टर यहाँ आएँ हैं, उन्हें भारत का खाना नहीं मिलेगा तब कहीं वे भाग नहीं जाएँ? तुमने उन्हें आने दिया। तुमने हर उसको आने दिया जो तुम्हारे काम का था। लेकिन तुमने उसे नहीं आने दिया जो तुम्हारे काम का नहीं था। इसी आवाजाही में हमारी अँगुली से भी हाथ छूट गया। तुम्हारे यहाँ की शिक्षा का एक स्तर है, ऐसा विश्वप्रसिद्ध हो चला है। हमारे जैसे लाखों माँ-बापों ने सोचा कि बेहतर शिक्षा जरूरी है। हम भी गाँव की देहरी से निकलकर बेहतर शिक्षा के लिए शहर आए थे तो आज हमारे बच्चों का भी अधिकार बनता है कि वे भी बेहतर शिक्षा पाएँ। हम गौरव से भरे हुए थे, कि हमने हमारे बच्चों को बेहतर शिक्षा का विकल्प दे दिया। हम भी फूले नहीं समा रहे थे, हम भी अपने आपको विशेष अनुभव करने लगे थे। लेकिन हमारी विशेषता तो हीनता में बदल गयी। तुम्हारी धरती का सम्मोहन ऐसा ही था। वे कहने लगे कि ऐसी स्वर्ग सी धरती पर बसने का सौभाग्य यदि हमें मिला है तब हम आपकी नरक सी धरती पर क्यों आएँ? हम रातों-रात हीन हो गए। हमारा प्रेम, हमारी ममता, इस धरती का जुड़ाव सभी कुछ जाया गया।
क्या धरा है ऐसी ममता में जहाँ की धरती पर मच्छर हैं, मक्खी हैं। अकेले स्वाद के लिए तो उस नरक में आकर नहीं रहा जा सकता। एक प्रश्न भारतीयों से तुम्हारे पास से आया कि तुम भी छोड़ दो इस धरती को।
कैसे छोड़ दें हम हमारी धरती को, हमारे सुख-दुख को? लेकिन बच्चों को लगने लगा कि एक बार यदि माँ-बाप इस धरती को देख लेंगे तब फिर भारत का नाम ही नहीं लेंगे। वे भी जुट जाएँगे, तुम्हारी धरती पर आने के लिए। यह बात तुम भी जानते हो, तभी तो तुमने इतने कड़े नियम बना रखे हैं। भारत में बसे माता-पिता बेचारे अपनी संतानों के मोह में तुम्हारे यहाँ का सुख देखने को लालायित हो उठते हैं। वे सोचते हैं कि एक बार तो जा ही आएँ। जैसे-तैसे पैसा एकत्र करते हैं, कभी बेटा भेजता है, कभी बेटी भेजती है और मन सपने देखने लगता है तुम्हारी धरती के। क्योंकि भारत में स्वर्ग के बाद दूसरे नम्बर पर तुम्हीं आते हो, बस एक बार तुम्हारे यहाँ जा आएँ, यही एकमात्र इच्छा रहती है। व्यक्ति बात-बात में तुम्हारा उदाहरण देता है कि जब मैं अमेरिका में था उन दिनों यह हुआ था, आदि, आदि। वह कैसे न कैसे बता ही देता है कि वह अमेरिका जा आया है। एक बार मैं एक मीटिंग में थी। मेरे पास एक घरेलू सी महिला बैठी थी। उसने अपनी कोई बात रखी लेकिन जो महिलाएँ स्वयं को बहुत ही पढ़ा-लिखा समझ रही थीं वे उनकी किसी भी बात पर ध्यान नहीं दे रही थीं। आखिर उन्होंने भी तुम्हारी ही तुरूप काम में ली। वे बोली कि -वेन आई वाज इन अमेरिका..........। इतना बोलना था कि वे अचानक विशेष हो गयीं। यह है तुम्हारा प्रभाव।
क्रमश:

डॉ अजित गुप्ता

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3 बैठकबाजों का कहना है :

निर्मला कपिला का कहना है कि -

आज पहली बार आपका बलोग देखा तो खुशी से झूम उठी पत्रिकाओं मे आपको पढ्ती रहती हूँ आपकी फैन हू सच मे जिस सोने के पिन्जर कि आप बात कर रहि हैण उसमे सौ फीसदी सच्चाई है मै भी अपने यात्रा संस्मरण लिख रही हूँ केवल भाव्नत्मक और संस्कृ्ति के संदर्भ मे छपने पर सब्से पहले आपको भेजूँगी आशा है अब आप्से मुलकात होती रहेगी

आलोक साहिल का कहना है कि -

ACHHI POST.......
sabse achhi bat ki is post ke chalte hame ek naya mehman mil gaya.
swagat hai aapka nirmala ji.
alok singh "sahil"

manu का कहना है कि -

अजीत जी ,
सही कहा है आपने ...ये जाने कैसा रहस्य है के आदमी कहीं भी रहे ...... सपनों में सदा वाहे घर दिखाई देता है.........आपका लेख पढ़ कर टिपण्णी देते देते कहीं खो जाता हूँ ...और बगैर टिपण्णी दिए ही आ जाता हूँ......जाने क्या होता है...मालूम नहीं..

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