Thursday, August 26, 2010

एक बीमारी, जो दोस्तों से भी प्यारी है...

कमाल की चीज़ है ये टेंशन..इसके जलवे हर जगह देखने में नजर आते हैं और इतनी पॉपुलर होती जा रही है ये..हाँ जी, ऐसा ही है..लेकिन गलतफहमी ना हो आपको तो इसलिये लाजिमी है बताना कि यह किसी चिड़िया का नाम नहीं है और ना ही कोई ऐक्ट्रेस, माडल या ब्यूटी प्रोडक्ट है..बल्कि एक खास तरह का सरदर्द है..या सोशल बीमारी..इसी तरह ही इसकी व्याख्या की जा सकती है..आजकल लोगों को जरा-जरा सी बात पर टेंशन हो जाती है...कोई जरा सी बात पूछो तो बिदक जाते हैं..टेंशन हो जाती है..तो सोचा कि आज टेंशन के बारे कुछ मेंशन किया जाये...लोग कहते तो रहते हैं कि '' यार कोई टेंशन नहीं देने का या लेने का '' तो सवाल उठता है कि लोग फिर क्यों टेंशन देते या लेते है...ये टेंशन एक लाइलाज बीमारी हो रही है..अब कुछ लोग नेट पर काम करते हुये नेट पर ही खाने का ऑर्डर देकर पेट भरते हैं..बीबी को टेंशन नहीं देने का...या फिर बीबी को घर पर रोज खाना बनाने की सोचकर टेंशन हो जाती है ..दोस्त अपने दोस्त का हाल पूछते हैं तो कहेंगे '' कैसे हो पाल..तुम्हें कोई टेंशन तो नहीं होगी एक बात के बारे में सलाह लेनी है ''


एक वह दिन था जब लोग चटर-पटर जब देखो अपने घरों के आँगन, वरामदे, दरवाजे पर खड़े, छत पर बैठे, या फिर किसी चौपाल में, दूकानों में या कहीं पिकनिक पर बातें करते हुए दिखते थे..खुलकर बातें करते थे और खुलकर हँसते थे. स्टेशन ट्रेन, बस, दुकानों, फुटपाथ जहाँ देखो मस्त होकर बातें करते थे और सहायता करने में भी कोई टेंशन नहीं होती थी उन्हें..लेकिन अब आजकल कमरे में बंद करके अपना काम करते हैं, नेट पर जोक पसंद करते हैं और अगर बीच में कोई दखल दे आकर तो टेंशन हो जाती है. फैमिली के संग बात करना या बोलना मुश्किल..सब अजनबी से हो गये..सब नेट पर बिजी...दोस्तों के लिये समय है लेकिन दुखियारी बीवी के लिये नहीं...लेकिन उसमे भी कब टेंशन घुस जाये कुछ पता नहीं..वेटर को सर्व करने में टेंशन, हसबैंड को बीबी के साथ में शापिंग जाने की बात सुनकर टेंशन..बच्चों को माँ-बाप से टेंशन..तो दुनिया क्या फिर गूँगी हो जाये..अरे भाई, कोई हद से ज्यादा बात करे या किसी बात की इन्तहां हो जाये तब टेंशन हो तो अलग बात है..कहीं जाते हुए घर के बाहर कोई पड़ोसी दिख गया तो हाय, हेलो कर ली लेकिन उसके बाद हाल पूछते ही जबाब सुनने से वक्त जाया न हो जाये ये सोचकर उनको टेंशन होने लगती है..किसी बात का सिलसिला चला तो लोग बहाने करके चलते बनते हैं. डाक्टर मरीजों की चिकित्सा करते हैं तो कुछ दिनों बाद उस मरीज की बीमारी में दिलचस्पी ख़तम हो जाती है और अपनी टेंशन का मेंशन करने लगते हैं...तो मरीज़ को भी अपनी समस्या को मेंशन करते हुये टेंशन होने लगती है..और अपना इलाज खुद करने लगता है..जिस डाक्टर को मरीज की बीमारी की कहानियाँ सुन कर टेंशन होती है वो क्या खाक सही इलाज करेगा...डाक्टर ऊबे-ऊबे से दिखते हैं सभी मरीजों से..उनका वक्त कटा, पैसे मिले..मरीज भाड़ में जाये..जॉब को सीरियसली नहीं लेते..क्योंकि मरीजों से उन्हें टेंशन मिलती है. मन काँप जाता है कि जैसे इंसान किसी और ग्रह के प्राणी की विचित्र हरकतें सीख गया हो..बच्चे को उसके कमरे से खाने को बुलाओ तो उसे नेट पर ईमेल भेजना पड़ता है ऐसा सुना है किसी से...'' जानी डिअर, कम डाउन योर डिनर इज वेटिंग फार यू..मील इज गेटिंग कोल्ड. योर डैडी एंड आई आर वेटिंग ''..उसे पुकार कर बुलाओ तो कहेगा कि टेंशन मत दो बार-बार कहकर..अब तो मित्रों से भी बोलते डर लगता है..चारों तरफ टेंशन ही टेंशन दिखती है..हवा भी खिड़की से आती है तो उसे भी शायद टेंशन हो जाती होगी..किसी भिखारी को अगर पैसे दो तो उसके चेहरे पर संतोष की जगह टेंशन दिखने लगती है..दुकानदार से किसी चीज़ के बारे में तोल-मोल करो तो उसे टेंशन हो जाती है..लोग टेंशन देने या लेने की तमीज और तहजीब के बारे में सिर्फ अपने ही लिये सोचते हैं ..किसी का समय लेने में टेंशन नहीं लेकिन अपना समय देने में टेंशन हो जाती है..आखिर क्यों सब लोग चाहते हैं कि उनकी बातों से दूसरों को टेंशन ना हो लेकिन उनको दूसरों की बातों से टेंशन हो जाती है..और तो और खुद के लिये भी कुछ करते हैं लोग तब भी टेंशन नाम की इस बला से पिंड नहीं छूटता. घर का काम हो या बाहर का, पैकिंग करो, यात्रा करो, कहीं किसी की शादी-ब्याह में जाओ..हर जगह ही टेंशन इंतज़ार करती रहती है आपका. किसी से हेलो करना भूल जाओ, तो बाद में आपको टेंशन..ये सोचकर कि ना जाने उस इन्सान ने आपकी तहजीब के बारे में क्या सोचा होगा..ये जालिम '' टेंशन '' शब्द बहुत कमाल दिखाता है..इस टेंशन का क्या कहीं कोई इलाज़ है ? नहीं..शायद नहीं...मेरे ख्याल से यह आधुनिक बीमारी लाइलाज है.

आज कल जिसे इसका अर्थ भी नहीं पता है वो भी अनजाने में इसका शिकार बन गया है...ये जमाना ही टेंशन का है...जो लोग इससे जरा सा मुक्त हैं या जिनके पास कोई अच्छी चीज़ है तो उनकी ख़ुशी देखकर औरों को टेंशन होने लगती है..किसी के बिन चाहे ही ये चिपक जाती है..इसलिये अब जानकर इतना विचित्र नहीं लगता..जहाँ देखो वहाँ एक फैशन सा हो गया है कहने का 'अरे यार आजकल मैं बहुत टेंशन में हूँ .' आप किसी को पता है कि नहीं पर अब इसका इलाज करने वाले लोग भी हैं ( लोग ठीक नहीं होते है वो अलग बात है ) ये लोग पैसा बनाने के चक्कर में हैं..और जिन्हें अंग्रेजी में सायकोलोजिस्ट बोलते हैं या अमेरिका में श्रिंक नाम से जाने जाते हैं..वहाँ पर तो ये धंधा खूब जोरों पर चल रहा है..पर क्या टेंशन दूर होती है उनके पास जाने से..मेरे ख्याल से नहीं..बल्कि शायद बढ़ जाती होगी जेब से मोटी फीस देने पर..पैसे वाले लोगों के लिये श्रिंक के पास जाना और मोटी फीस देकर डींग मारना एक फैशन सा बन रहा है वहाँ..अब तो हमें बनाने वाले उस ईश्वर को भी शायद टेंशन हो रही होगी.

और अब मुझको भी टेंशन हो रही है सोचकर कि कहीं आप में से किसी को इस लेख को पढ़कर टेंशन तो नहीं होने लगी है..तो चलती हूँ..बाईईईई...दोबारा फिर मिलेंगे कभी...

शन्नो अग्रवाल

Tuesday, August 24, 2010

यही दुआ है मेरे भैया, तेरा-मेरा साथ रहे....

कहते हैं ये रेशम का धागा जब बहन अपने भाई की कलाई पर बांधती है तो दुआएँ बांधती है अपनी, दुआ करती है कि उसके भाई को दुनिया की कोई बुराई छू भी ना पाए, और भाई बदले में वचन देता है कि हर मुश्किल में वो अपनी बहन की रक्षा करेगा. बदलते वक़्त के साथ इस रेशम के धागे के रंग रूप बदल गए लेकिन इतने बदलाव के बाद भी भाई बहन के इस अटूट प्रेम में कोई कमी नहीं आई, राखी का ये त्यौहार भारत भर में, बड़े प्रेम के साथ मनाया जाता है. आज इस सुन्दर त्यौहार पर हमने सोचा क्यूँ न कुछ बहनों के विचार इस त्यौहार के सन्दर्भ में इकट्टे किये जाए,

दिल्ली से राशिका कहती हैं : मेरा अपना कोई भाई नहीं है, पर मेरे पड़ोस में मेरे एक भाई हैं जो कि मुस्लिम हैं, पर कई सालों से मैं उन्हें राखी बांधती आ रही हूँ, और याद भी नहीं इस बात को कितना वक्त हुआ, हर साल मैं उन्हें राखी बांधती हूँ, ढेर सारा स्नेह, और प्यारे से गिफ्ट्स भाई मुझे हर साल तोहफे में देते हैं, और साथ ही हमेशा से वो हर मुश्किल में, हर खुशी में, हर तकलीफ में साथ ही खड़े मिले हैं. एक बहन को और क्या चाहिए.

मेरे पड़ोस में एक छोटी सी बच्ची जिसकी उम्र है पाँच साल, कहती हैं, मैं तो राखी पे भैया से बहुत सारे पैसे लेती हूँ. :)

ऋतु और इनु का कहना है कि, हम दो बहने हैं, और हम दोनों से छोटा है हमारा भाई, छोटे थे तो त्यौहार को खेल समझ कर मनाते थे, अब समझ आई है, तो ईश्वर से बस यही दुआ करती हैं कि हमारे भाई को भगवान हमेशा बुरी बलाओं से बचाए.

पूनम का कहना है कि राखी आते ही एक ही बात ज़ेहन में आती है, गिफ्ट.. पूनम के दो बड़े भाई हैं, तो राखी के दिन तो पूनम जो जी में आता है भाई से माँग लेती है, और भाई अपनी प्यारी बहन को मन मर्ज़ी के गिफ्ट दिलाते हैं, पूनम कहती हैं, यह सब तो मजाक है, मैं ईश्वर से दुआ करती हूँ, कि वो मेरे भाई को हमेशा खुश रखे, वो जहाँ भी रहे खुशियाँ उनके साथ रहे.

अंबाला से ममता अपने भाई के लिए कहती हैं, 'जब शादी करके आ गई थी तब छोटे थे तुम...जब साल भर बाद मिलने गई तो चेहरे पर छोटी-छोटी दाढ़ी उग आई थी.....मैंने तुम्हें बड़ा होता नहीं देखा, बहुत मिस करती हूं तुम्हें...'

मेरा भाई बहुत नटखट है, हर बार गिफ्ट देने के नाम पे पहले खुद गिफ्ट मांगेगा.. पर बिना मांगे, हर बार उसे पता चल जाता है कि मुझे क्या चाहिए, और मेरी जरुरत की चीज़ें हाज़िर हो जाती है, मिठाई खिलाते वक्त कभी नाक पे कभी मुह पे लगा देता है, बड़ी मुश्किल से खिलाता है, पर मेरा भैया सबसे प्यारा है, मेरे लिए मेरा भाई मेरे सर की छत है जिसकी छाया में मैं महफूज़ हूँ, आज के दिन और हमेशा मेरी भी रब से बस यही दुआ है कि भगवान मेरे भाई को हर खुशी दे, और बुरी नज़र से बचाए.

दीपाली सांगवान

Saturday, August 21, 2010

बारिश बहा ले गई कपास और दलहन के दुख...

इस वर्ष जून में भले ही वर्षा कम हुई हो लेकिन जुलाई की वर्षा और अधिक भाव के कारण देश में कपास की बिजाई रिकार्ड स्तर पर पहुंच गई है। प्राप्त जानकारी के अनुसार 6 अगस्त तक देश के विभिन्न राज्यों में 103.37 लाख हैक्टेयर पर कपास की बिजाई की जा चुकी है जबकि गत वर्ष पूरे वर्ष में 103.29 लाख हैक्टेयर पर की गई थी। अभी तमिलनाडु में बिजाई जारी है और जानकारों का कहना है कि इस वर्ष रकबा 105 लाख हैक्टेयर के स्तर को पार कर जाएगा।
देश में बीटी कपास का रकबा दिनों दिन बढ़ता जा रहा है। इस वर्ष 103.37 लाख हैक्टेयर में से 91.10 लाख हैक्टेयर पर बीटी कपास की बिजाई की गई है। आंध्र प्रदेश में कपास का रकबा 10.26 लाख हैक्टेयर से बढ़ कर 15.96 लाख हैक्टेयर हो गया है जबकि महाराष्ट्र में 33.30 लाख हैक्टेयर से बढ़ कर 39.22 लाख हैक्टेयर हो गया है। इन दोनों ही राज्य में शानदार वर्षा हुई है और कपास का रिकार्ड उत्पादन होने का अनुमान है।
पंजाब और कर्नाटक में भी कपास की बिजाई अधिक क्षेत्र पर की गई है लेकिन गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और हरियाणा में रकबा कम हुआ है। व्यापारियों का कहना है कि चालू वर्ष में अधिक निर्यात के कारण देश के किसानों को कपास के ऊंचे भाव मिलें हैं। विश्व बाजार में कपास के भाव लगभग 87 सेंट प्रति पौंड के आसपास चल रहे हैं जबकि गत वर्ष 64 सेंट चल
रहे थे। सरकार घोषणा कर चुकी है कि वह नए सीजन के आरंभ में निर्यात पर लगे प्रतिबंध को समाप्त कर देगी। इससे आगामी दिनों में देश में कपास के भाव में तेजी का अनुमान है। इसे देखते हुए देश में कपास का उत्पादन 300 लाख गांठ (प्रति गांठ 170 किलो) से ऊपर पहुंच जाने का अनुमान है। वास्तव में बीटी काटन के कारण भारत विश्व में कपास का दूसरा सबसे बड़ा कपास उत्पादक देश बन गया है। कुछ वर्ष पूर्व तक इसका स्थान तीसरा था, लेकिन अब अमेरिका तीसरे स्थान पर पहुंच गया है। पहला स्थान चीन का है। जानकारी के लिए चीन विश्व का सबसे बड़ा कपास उत्पादक, आयातक और उपभोक्ता देश है। सूती कपड़े के निर्यात में भी चीन का स्थान पहला है।

दलहन अधिक

इस वर्ष देश में दलहनों की बिजाई भी किसानों ने अधिक की है। अनेक स्थानों पर किसानों ने तिलहन के स्थान पर दलहनों की बिजाई की है। इस वर्ष दलहनों की बिजाई 88.37 लाख हैक्टेयर पर की जा चुकी है। गत वर्ष की इसी अवधि की तुलना में यह लगभग 12 लाख हैक्टेयर अधिक है। अरहर की बिजाई 27.62 लाख हैक्टेयर से बढ़ कर 34.13 लाख हैक्टेयर पर हो गई
है। उड़द और मूंग का रकबा भी बढ़ा है लेकिन अरहर की तुलना में कम। तिलहन के क्षेत्रफल में केवल 3 लाख हैक्टेयर की वृद्धि हुई है और 153.20 लाख हैक्टेयर पर की गई है। मूंगफली का क्षेत्रफल 35.73 लाख हैक्टेयर से बढ़ कर 46 लाख हैक्टेयर पर
पहुंच गया है। इसका प्रमुख कारण समय पर वर्षा के कारण आंध्र प्रदेश में रकबा 8 लाख हैक्टेयर बढ़ कर 12.57 लाख हैक्टेयर हो गया है। अरंडी का रकबा भी कुछ बढ़ा हैट लेकिन सोयाबीन, तिल और सूरज मुखी की बिजाई गत वर्ष की तुलना में पीछे चल रही है। मध्य प्रदेश और राजस्थान में सोयाबीन का रकबा कम है।

चावल व मोटे अनाज
चावल का रकबा 225.75 लाख हैक्टेयर से बढ़ कर 244.83 लाख हैक्टेयर हो गया। मक्का के रकबे में में लगभग 3 लाख हैक्टेयर की बिजाई हुई है। बाजरा का रकबा 64.14 लाख हैक्टेयर से बढ़ कर 75.90 लाख हैक्टेयर हो गया लेकिन ज्वार
का रकबा कुछ कम हुआ है।

राजेश शर्मा

Friday, August 20, 2010

वो कौन थी-1

रघुनाथ त्रिपाठी महुआ न्यूज़ चैनल में नौकरी करते हैं....दुबले-पतले से दिखते हैं, मगर ज़िंदगी का भारी अनुभव है....बैठक पर उनका पहला लेख आया है.....एक अनुभव है, जो उन्होंने किसी बारीक लम्हे में महसूस किया था...थोड़ा लंबा लेख था, इसीलिए दो भाग में लगाने का फैसला किया है...बैठक पर इनका स्वागत करें....

उस दिन बारिश हुई थी, तपती धरती की पूरी प्यास तो बारिश की बूंदे भी ना मिटा पाई लेकिन कुछ राहत जरूर हुई थी..दिल्ली में बारिश का होना भी खबर है...ऐसी खबर जिसके मायने हैं...वो पिछले दो दिन से अपने ऑफिस में था... नोडया सेक्टर 13 बी के दूसरे फ्लोर पर उसका ऑफिस था काम ज्यादा था लोग कम ...सो दो दिन से घर गया ही नहीं था... एक ही कपड़े में,बिना शेव किए,जुटा था काम पर मन थोड़ा अजीब सा हो रहा था लेकिन काम निपटाना था ...दूसरे दिन प्रियंका ने टोका भी था आप घर क्यों नहीं जाते ...उसने कहा था ये लोग ऐसे ही हैं..प्रियंका उसके साथ ही काम करती थी...प्रोडक्शन हाउस में उसके सिवा कुल 11 लोग ही थे ...दूरदर्शन और और दूसरे क्लाइंट के लिए प्रोग्राम बनता था वहां...एक और भी जरूरी काम था इसलिए भी वो रूक गया था.... ..उसे पहली सैलरी मिलनी थी...मिली नहीं थी लेकिन व्यस्त होने पर पर भी वो जब इस बारे में सोंचता तो एक झुरझुरी सी पूरे बदन में होती.....आखिरकार वो वक्त भी आया और उसे उसकी पहली सैलरी मिली.. पूरे चार हजार..... कैश में मिला था पैसा...100-100 के 40 नोट ...उसे तब 'वर्षा वशिष्ठ' की याद आई थी..'मुझे चांद चाहिए' की नायिका वर्षा वशिष्ठ ...पैसे जेब में डालने के बाद उसने सीधा बाथरूम का रूख किया ...दरवाजा बंद करने के बाद उसने जेब से पैसे निकाले थे और फिर उसे अपनी हथेलियों में फैला लिया था...फिर उसके रूपयों के गंध को अपने जेहन में उतारने की कोशिश की..ठीक वैसे ही जैसे वर्षा ने की थी ...वो उस पल को याद रखना चाहता था हमेशा के लिए ...बाद में उसे याद आया कि घर मां को भी इस बारे में बताना है...फोन पर उसने कहा कि वो इन पैसों को किसी के हाथ भेज देगा...मां ने कहा कि इसकी जरूरत नहीं है समझ लो मैने ले लिए ...हां हिदायत देते हुए कहा कि जूते जरूर खरीद लेना.. दिल्ली में अपने भाई के साथ वो रहता था जूते पहनने की आदत उसे थी नहीं और इस बात पर बड़ा भाई उससे हमेशा नाराज़ रहा करता था...भाई ने मां से शिकायत की थी ..तब उसने टाला था...अपने पैसे से जूते खरीदूंगा...सो इस बार बचने का कोई रास्ता नहीं था...कॉलेज के दिनों में भी हवाई चप्पलों में हास्टल से क्लासेज के लिए चला जाता ...जिंस खादी के कुर्ते और हवाई चप्पल उसकी पहचान बन गई थी...लोग कई बार उसे नाम से नहीं उसके कुर्ते से पहचान जाते..लेकिन प्रोडक्शन हाउस में लिबास बदलना पड़ा था उसे ..पैंट शर्ट पहनना पड़ता था ....बारिश अब रूक गई थी.कल के एपिसोड का एंकर शूट का काम भी खत्म हो गया था...रात के आठ बजे थे...उसने अंदाजा लगाया तुरंत निकला जाए तो 10.30 तक घर मुखर्जी नगर किराए के अपने घर पहुंच सकता है...उसने बॉस से इजाजत मांगी..बॉस ने जाने को कह तो दिया लेकिन ऐसे जैसे बहुत बड़ा एहसान किया हो... बाहर निकला तो बारिश की वजह से उमस बढी हुई थी बारिश तेज नहीं हुई थी लिहाजा सड़क साफ होने की बजाए कीचड़ से भरी थी...अब उसे लगा जूता खरीद ही लेना चाहिए...सेक्टर 13 बी से मेन रोड तक जाने में दस मिनट पैदल लगते थे रिक्सा उन दिनों उधर चलते नहीं थे पैदल ही जाना पड़ता था...सो कीचड़ से सने पैरों को लथेड़े वो बस स्टैंड तक जा रहा था ...नोएडा उस बस स्टैंड पर उस वक्त कम ही लोग होते थे ....अकेला निर्जीव से खड़ा रहता है था वो बस स्टैंड ..याद नहीं क्या नाम था लेकिन अब वहां काफी चहल-पहल रहती है... चमचमाती बिल्डिग में मैकडॉल्नड का और दूसरी कंपनियों के वजह की वहज से काफी चहल पहल रहती है...खैर वो जा अकेला घर जल्दी पहुंचने के लिए तेजी से चला जा रहा था...अभी एक जद्दोजहद और भी करनी थी..आईएसबीटी तक जाने के लिए 347 नंबर के बस में उस वक्त काफी भीड़ होती थी...बस 20 मिनट की देरी से आई थी भारी भीड़ के साथ....किसी तरह वो चढ तो गया लेकिन भीड़ इतनी ज्यादा थी कि उसे अपने हाथों के ना होने का एहसास होने लगा था..बारिश के बाद उमस काफी बढ़ गई थी लोगों के पसीने और खुद के पसीने से उसे उबकाई सी आने लगी...लेकिन ये रोजमर्रा की कवायद थी लिहाजा आदत तो नहीं समझौता कर ही लिया था.... समझौता भी कितना आसान सा शब्द है..जरा बोल कर देखिए एक अजीब का सकून का द्वंद उठता है...सपने टूटे तो कह दो समझौता कर लिया ...तरीके का काम ना मिले तो समझौता कर लो..समझौते की सीमा नहीं होती जब जी चाहे मन मुताबिक कर लो ...कम से कम किसी ग्रंथी से बचने के काम तो ये 'समझौता' आ ही जाता है...उसने भी सपने देखे थे...सपने अजीब से थे..ये सपना उसका अकेले का नहीं था चार दोस्तों ने एक साथ देखा था .......दोस्त थे इसलिए सपने भी साथ-साथ देखे थे... या यू समझ लीजिए दोस्त भी इसलिए बन गए क्योकि चारों के सपने एक जैसे थें.. रामजस हॉस्टल मे चारों जब शरूर में होते तो पूरी रात बहस करते...सुबह हो जाया करती ...बहस में कभी झगड़े जैसे बात नहीं हुई...दोस्त जो थे...किसी ने कभी किसी के पसंद को खराब नहीं कहा ...हॉस्टल में लोग डरते भी थे..लेकिन ये शायद ही किसी को पता था कि जब इलेक्सन होते तो चारों अपनी मर्जी से अपने लोगों के लिए काम करते....लोगों को लगता चारों किसी एक के लिए काम कर रहे हैं लेकिन ये हॉस्टल और कॉलेज इलेक्शन के तीन सालों में केवल एक बार हुआ था...जब चारों किसी एक का समर्थन किया था ..... चारों ने कभी किसी के लिए या फिर दोस्ती की खातिर भी समझौते नहीं किए.. लेकिन बाद मे सब ने समझौते किए...कुछ अलग करने का भूत उतर गया था एक ने ऑस्ट्रेलिया की राह पकड़ी आजकल वहीं किसी कॉलेज मे पढ़ा रहा है और बच्चों को समाज सुधार की प्रेरणा दे रहा है...गल्फ्रेंड से बनी नहीं.. इतना कायर नहीं था कि दुनिया छोड़ने की सोंचता लिहाजा देश छोड़ दिया......अब उससे तीनों का संपर्क भी नहीं है...एक ने इंश्योरेंस कंपनी ज्वाइन कर ली और लोगों का भला कर रहा है....एक आईपीएस है जम्मू कैडर पसंद ना आया तो गुजरात कैडर की लड़की पसंद कर ली, पत्नी आईएएस है दोनों मिलकर समाज सुधार रहे हैं...चौथा वो खुद था जिसने पत्रकारिता को पेशा चुना था और समाज सुधार का जरिया भी ...शुरू के दिनों में उसे लगा था तीनों से ज्यादा सही तो वहीं है लेकिन काम करते वक्त उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो आखिर कर क्या रहा है...उसने खीज़कर एक बार तीनों से कहा भी था..'ब्लडी होल सिस्टम इज फेक एंड फुल ऑफ हिप्पोक्रेशी' उसे दमघोटू भीड़ में कॉलेज के दिन याद आते रूम नंबर 77 में दो साल फिर रूम नंबर 88 के दो साल उसे याद आते ..इन चार सालों में उसमें बदलाव आया बड़ा बदलाव ..तब लोग उसे जानते थे लेकिन लोगों को वो पहचानता नहीं था...कॉलेज में जब निकलता तो कई अनजान चेहरे उससे हाथ मिलाते, गर्मजोशी से मिलते कई बार उसे अजीब भी लगता लेकिन कॉलेज में उसे लोग जानते थे....दो साल डिपार्टमेंट में अनअपोज्ड जेनरल सेकेट्री रहा ...हॉस्टल कमिटी में चारों साल उसके नाम को प्रोपोज किया गया..कभी किसी ने विरोध नहीं किया...तीसरे साल प्रेसिडेंट के लिए जोर देने पर भी वो नहीं माना...उसने ये समझ लिया था कि किंगमेकर किंग से ज्यादा मायने रखता हैं उसने प्रिसेडेंट बनवाया था जिसके नाम को उसने प्रोपोज किया किसी ने विरोध नहीं किया...कई बार पूरे पैनल को खुद डिसायड करता लोग मुहर लगाते...बीए ऑनर्स हिस्ट्री उसका सब्जेक्ट था उसे बखूबी पता था कि मध्यकाल में कभी राजा की नहीं चली थी हमेशा किंगमेकर का महत्व रहा ....कई बार वो गलती करता लेकिन पछतावा होने पर भी जाहिर नहीं करता ....इससे उसकी अकड़ जो कम होती...सैंकेण्ड इयर में जाते जाते उसने सिगरेट पीने शुरू कर दी थी...उसके एक सीनियर राम द्विवेदी ने इशारे में समझाने की कोशिश की थी वो हमेशा इशारे में बोलते ...उन्होनें कहा था कि हां भाई 'टफ लुक' के लिए ये जरूरी है...उसने उनकी बात तो समझ ली लेकिन मानी नहीं ...उसे अपने आप पर भरोसा था कि जब चाहेगा वो छोड़ देगा...लेकिन ये हो नहीं पाया उसकी आदत में ये शुमार हो गया...कई बार देर रात, गेट मैन रामबीर से बीड़ी मांगने की नौबत तक आ जाती...या फिर 'एमकेटी' यानि 'मजुना का टिला' जाने की पैदल नौबत आ जाती लेकिन फिकर किसी बात की थी नहीं,कोई रोकने वाला नहीं कोई टोकने वाला नहीं ...फर्स्ट इयर के लड़के 'फच्चे' यानि फ्रेशर हुए तो भेज दिया तलब पूरी करने का जोगाड़ लाने नहीं तो किसी को भी सोते जगाया और निकल पड़े .... एक बार मेस में थाली गंदी होने पर उसने थाली हॉल में नचाकर फेकी थी...जानबूझकर किया था उसने...अटेंडेट घबरा गया था उसने कहा गल्ति हो गई...बाद में उसका एक सीनियर जिसकी वो बहुत इज्जत करता था उठकर उसके पास आए थे..उन्होने कहा था चलो आज तुम्हे बाहर खिलाता हूं ,मेस का खाते खाते उब हो गई है...वो समझ गया था उसने गल्ति की है वो उनके साथ चला गया था वो राम द्विवेदी ही थे...फिजिक्स ऑनर्स के डियू टॉपर ,यूपी बोर्ड में उन्होने पहला स्थान हासिल किया था... बिडला मेमोरियल नैनीताल के बोर्डिंग में सालों बिताया था ... मेस के घटना की चर्चा उससे नहीं की ..ये बात उसे और भी खराब लगी थी...उसने हॉस्टल लौटते समय पूछा था सर (सीनियर को सर ही कहते थे)कुछ बोलेंगे नहीं ...उन्होने इतना कहा कि तुम समझदार हो ..चीजे बदलती हैं ..बाहर दुनिया आपको भी बर्दास्त नहीं करेगी...इतना गुस्सा ठीक नहीं है...गुस्से में भी इनर्जी होती हो उसे पॉजेटिव बनाओं...मुझे दिल्ली की बसों में तरह तरह के लोग मिलते लेकिन गुस्से पर काबू करना मैने तभी से सीखा था... बर्दाश्त करना उसके बाद से हीं उसने सीखा...आज भी लोगों को बर्दाश्त कर रहा है.कभी इसे समझौता करना उसने नहीं माना हमेशा यही माना की एवरी डाग्स हैव ए डे..समय बदलता है उसका भी समय बदलेगा...बस में जेबकतरे भी होते हैं अचानक उसके जेहन में ये बात आई...पसीना और तेजी से बहने लगा था...वो कर भी क्या सकता था...कोई उस वक्त उसकी जेब में हाथ डाल उसके पैसे निकाल भी लेता तो इसका एहसास होने के बावजूद वो कर भी क्या सकता था.......उसके बस में कुछ था भी नहीं यहां तक की उसका फिलहाल बस में खड़े होना भी ..तभी किसी औरत ने चीख कर कहा था ...वो उसके थोड़े ही आगे थी इसलिए उसकी आवाज़ सुनाई दे गई...लेकिन जिसके बारे में कहा था उसे देख नहीं पाया...औरत ने कहा था इतनी भीड़ में खड़े होने की जगह नहीं है और तूने उसे भी खड़ा कर रखा है....बस में जोरदार ठहाका लगा था...उसने सोंचा इतने लोगों की बीच कितनी परेशानी में उस महिला ने ये बात कही होगी...पहले उसने जरूर कुछ इशारा किया होगा लेकिन फिर भी लड़के के हरकतों से बाज ना आने पर अपनी और उसकी दोनों की फजीहत की होगी....

रघुनाथ त्रिपाठी

Tuesday, August 17, 2010

देश का असली हीरो नत्था, जिसे हर हाल में मरना है...

अभी-अभी पीपली लाइव देखकर लौटा हूँ. मुझे लिखना तो थी समीक्षा लेकिन दिल नहीं करता कि इसकी एक फिल्म की तरह समीक्षा करूँ. क्योंकि सोचने वालों के लिए ये फिल्म एक फिल्म से कहीं ज्यादा है. ये सिर्फ एक तमाशा जिसमे कुछ कलाकार अपने जौहर का प्रदर्शन करते हैं, नहीं है. हालांकि फिल्म बनाने का तरीका ऐसा है कि हंसी-हंसी में बात हो जाए. आमिर खान ने फिर अपने आप को साबित किया...अपने आप को साबित करने से मेरा मतलब? कितने लोग हैं जो वो करते हैं जो वो करना चाहते हैं? बड़े-बड़ों से लेकर छोटे-छोटों तक हर कोई बाज़ार को देखकर चलता है, बड़ा आदमी उस चीज़ में पैसा लगाता है जिसके चलने की गारंटी हो और छोटा आदमी वो काम करता है जो चल रहा है. और फ़िल्मी दुनिया में ऐसे लकीर के फ़कीर भरे पड़े हैं. मैं खुद इस दुनिया में कुछ हद तक अन्दर जा चुका हूँ इसलिए मुझे पता है कि यहाँ एक कहानी फिल्म में तब्दील कैसे होती है. पैसे लगाने वाला सबसे पहला सवाल जो करेगा वो यही कि हीरो कौन है...अगर आपके पास एक चलता हुआ हीरो है तब तो आपकी कहानी किस्मतवाली है वरना आप कितने ही जूते रगड़ दीजिये कुछ नहीं होगा....तो ऐसे में नत्था को हीरो लेकर आपकी फिल्म कैसे बनेगी? फिर अगर हीरो आपके पास है भी तो गाँव की कहानी है सुनकर पहले तो लोग आप पर हँसेंगे और फिर आपकी कहानी कि ऐसी कि तैसी की जायेगी, उसमे आयटम सॉन्ग डाला जाएगा, कुछ गरमा-गरम डाला जाएगा और यो जेनेरेशन को ध्यान में रखकर धिन चक संगीत (?) बनाया जाएगा. ऐसे में अगर पीपली लाइव बनती है तो मैं कहूँगा कि निर्देशिका अनुषा रिज़वी की किस्मत ज़ोरदार है और आमिर खान को इस बात के लिए शाबाशी मिलनी ही चाहिए कि इस माहौल में रहते हुए भी वो ऐसी कहानियाँ चुनते हैं जो सचमुच कुछ कहती हैं. आप अगर पीपली लाइव देखें तो इसमें न तो कोई हीरो है, न कोई आयटम गर्ल है, न गरमा-गरम सीन हैं और न ही धिन चक संगीत है बल्कि ठेठ गावठी लोक संगीत है.
फिल्म की कहानी सभी को पता है, एक किसान अपनी ज़मीन को बिकने से बचने के लिए आत्महत्या की घोषणा करता है, करता क्या है उसका बड़ा भाई उससे ये करवाता है. फिर गन्दा खेल शुरू होता है मीडिया और राजनीति का. फिल्म को हास्य का रंग देकर बनाया गया है क्योंकि गंभीर बात न कोई करना चाहता है न सुनना चाहता है. और मैं तो कहूँगा कि हास्य का ये रंग भी सफल होगा इसमें संदेह ही है क्योंकि फिल्म देखने के बाद बाहर निकलने वाले संभ्रांत लोग बात को बिलकुल नहीं समझे, कुछ इसे आर्ट फिल्म कहकर खारिज करते पाए गए तो कुछ मुह बिगाड़ कर चले गए या फिर एक कॉमेडी फिल्म की रेटिंग दे कर चले गए. हो सकता है कुछ लोग उस बात को देख पाए हों जिसे फिल्मकार दिखाना चाहती थी, काश कि कुछ लोग तो हों ऐसे. कुछ लोगों की शिकायत है कि फिल्म मीडिया में उलझ कर रह गई लेकिन एक कहानी को आगे बढ़ने के लिए घटनाएं चाहिए और ये कहानी इसी तरह से आगे जा सकती थी जिस तरह इसे ले जाया गया है...मज़ाक-मज़ाक में गहरी बातें कही गई हैं क्योंकि सीधे-सीधे कोई बात कहना अब उपदेश कहलाता है. कुल मिलाकर फिल्म से जो उभर कर आता है वो एक ऐसे देश की सच्ची तस्वीर है जो हद दर्जे का भ्रष्ट है, संवेदनाहीन है और नकली है.
फिल्म में एक अंग्रेजी न्यूज़ चैनल की पत्रकार कहती है - "लोग डॉक्टर बनते हैं, इंजीनियर बनते हैं, हम जर्नलिस्ट हैं. ये हमारा पेशा है. और अगर तुम ये नहीं कर सकते तो तुम गलत पेशे में हो". ये बात वो कहती है एक ऐसे लोकल पत्रकार को जिसका ज़मीर उसे अन्दर से कचोट रहा है इस सब नाटक पर. ये इस देश की सबसे सच्ची तस्वीर है, यहाँ सब कुछ पेशा है....एक संगीतकार अगर संगीत के बारे में सोचता है तो वो गलत पेशे में है....एक कलाकार अगर कला के बारे में सोचता है तो वो गलत पेशे में है....एक डॉक्टर अगर मरीज़ के बारे में सोचता है तो वो गलत पेशे में है.....एक वकील अगर क़ानून और जुर्म के बारे में सोचता है तो वो गलत पेशे में है.......नेता अगर जनता के बारे में सोचता है तो वो गलत पेशे में है....हर किसी को वो माल बनाना है जो बिकता है...फिर चाहे उसके लिए उस मूल विचार की ही हत्या हो जाए जो उस काम के पीछे है. सब कुछ बाज़ार से चल रहा है....
और देश के महानगरों में रहने वाले लोगों को ये पता भी नहीं है कि उनके शायनिंग और २१वी सदी के इंडिया में ऐसी जगहें और ऐसे लोग और ऐसी जिंदगियां भी हैं. और मैं सचमुच ऐसे लोगों से मिला हूँ जिन्हें नहीं पता कि लोग इतने गरीब भी हो सकते हैं और इसी देश में रहते हैं. महीने के आखिर में जब मोटी-मोटी पगार उनकी जेबों में आती है तो उन्हें लगता है कि सभी की जेबों में ये पहुँच गई हैं. जबकि सच्चाई यही है कि असली इंडिया वही है जो इस फिल्म में दिखाया गया है. फिल्म के अंत में एक खेतिहर किसान आखिर में शहर पहुँच कर मजदूर हो जाता है और इस सन्देश के साथ कि १९९१ से २००१ के बीच ८० लाख किसान खेती छोड़कर मजदूर हो गए फिल्म ख़त्म हो जाती है. और आखिर वो आदमी क्या करे जिसका जीना मुश्किल हो जाए. खेती-किसानी की अगर बात करें तो अब तो ये हाल हैं कि खेती कोई करना नहीं चाहता. दूर क्यों जाएँ मैं अपनी खुद की कहूं तो मेरे पिताजी ने खेतों की ही बदौलत मुझे पढाया-लिखाया लेकिन मुझे हमेशा उससे दूर रखा...कोई भी आदमी जो खेती से जीवन बसर कर रहा है वो अपने बच्चों को ये कहकर डराता है कि पढ़ लो वरना खेती करना पड़ेगी जैसे खेती करना कोई बेहद गलीज काम हो. इस सब ने खेती को सबसे निचले स्तर पर ले जाकर पटक दिया है. ज्यादा से ज्यादा लोग खेत और गाँव छोड़कर शहर जाना और एक अदद नौकरी पाना चाहते हैं.....फिर यही दौड़ और चाह ऐसे लोग बनाती है जो बिना रीढ़ के हैं, जो तरक्की के लिए किसी के भी तलुवे चाट लेते हैं. सोचिये वो दिन जब सारे किसान खेती-किसानी छोड़ चुके होंगे और उनके बच्चे कहीं न कहीं नौकरी कर रहे होंगे....फिर उनके खाने के लिए अनाज कहाँ से आएगा...? और ऐसे बिना रीढ़ के नागरिक कैसा देश बनायेंगे?
बहुत सी बातें हैं....बातें ख़त्म नहीं हो सकती....सौ बातों कि एक बात ये कि मेरे ख़याल में ये देश तरक्की नहीं कर रहा है बल्कि ख़त्म हो रहा है. सब कुछ धीरे-धीरे नकली हो रहा है...अपनी सारी चीज़ें धिक्कारी जा रही हैं और एक अंधी दौड़ लगी हुई है. एक समय वो आएगा जब सब कुछ उधार होगा...अपना कुछ भी नहीं होगा. अब फिल्म की थोड़ी बातें करें तो एक बेहतरीन फिल्म है पीपली लाइव....अभिनय, निर्देशन, संगीत, संवाद...सब कुछ बेहतरीन. फिल्म में नत्था के बहुत थोड़े से संवाद हैं लेकिन वो अपने चेहरे और आँखों से वो सब कुछ कहता है. बहुत तकलीफ होती है ये देखकर कि किसान को हर किसी के पैर छूने पड़ते हैं, हर टटपुन्जिये के सामने गिडगिडाना पड़ता है. गरीब आदमी अपना स्वाभिमान कैसे बनाए रखे? अगर रखता है तो उसे आत्महत्या करनी ही पड़ेगी...नत्था तो हर तरह से मरेगा ही, या तो शर्म से या निराशा से या भूख से...समाज ऐसा ही बन गया है. नत्था की कहानी के बीच एक बहुत ही छोटी सी कहानी और भी है, हीरा महतो की...ऐसा किसान जिसकी ज़मीन नीलाम हो चुकी है और जो रोज़ बंजर ज़मीन से मिटटी खोदता है बेचने के लिए...उसके शरीर की हालत सब कुछ कहती है. और एक दिन उसी गड्ढे में वो मरा हुआ मिलता है...गाँव के लोकल पत्रकार का दिल दहल जाता है ये देखकर, उसे सब व्यर्थ लगने लगता है और किसी को भी चोट पहुंचेगी अगर उसके अन्दर भावनाएं हैं...ये एक छोटी सी कहानी उस सब नौटंकी की पोल खोलने के लिए जो मीडिया और नेता मचाये हुए हैं. फिल्म के हर कलाकार ने अपनी ज़िम्मेदारी बखूबी निभाई है. एक लम्बे समय के बाद राजपाल यादव को देखना बहुत अच्छा लगा. फिल्म में जो गाँव और जो घर दिखाया गया है वो बिलकुल असली है, इसी तरह के होते हैं गाँव और घर....कम से कम हमारे मध्यप्रदेश में तो हर तरफ यही तस्वीर है...गरीबी, गन्दगी और असुविधाएं...और फिल्म की शूटिंग भी मध्यप्रदेश के ही एक गाँव में हुई है. पहले उड़ान और अब पीपली लाइव...उम्मीद जगाती हैं कि कुछ अच्छे लोग पहुँच गए हैं फिल्म इंडस्ट्री में और हम और अच्छी फिल्मों की उम्मीद कर सकते हैं. अगर ४-५ भी आमिर के जैसे निर्माता हो जाएँ तो हमारी फिल्मों का कायापलट हो जाए. मैं ये सलाह दूंगा कि हर किसी को पीपली एक बार ज़रूर देखनी चाहिए क्योंकि जहां बाज़ार से सब कुछ तय होता है वहां अगर एक अच्छी चीज़ चल जाए तो आगे और अच्छी चीज़ मिलने की उम्मीद बढ जाती है.

अनिरुद्ध शर्मा

Sunday, August 15, 2010

असली पीपली लाइव

फ़िल्म जगत में बहुत कम ऐसी फ़िल्में आती हैं जिनका इंतज़ार महीनों से लोग किया करते हैं। उन्हीं में से एक फ़िल्म आई है ’पीपली लाइव’। अनुषा रिज़्वी द्वारा निर्देशित और आमिर खान प्रोडक्शन्स की यह फ़िल्म किसानों की आत्महत्या पर आधारित है। अब चूँकि पन्द्रह अगस्त नज़दीक था और दो दिनों की "छुट्टी" थी तो मेरी टीम ने सोचा कि क्यों न फ़िल्म देख ली जाये। बाहर भी जाना हो जायेगा और एक अच्छी फ़िल्म भी देख ली जायेगी। शुक्रवार दोपहर की टिकटें बुक करवाईं और हम पहुँच गये हॉल।
फ़िल्म की शुरुआत में ही ’देस मेरा रंग्रेज़’ बजा। "राई पहाड़ हैं कंकड़ शंकड़..बात है छोटी बड़ा बतंगड़.." और फिर आगे चलकर "जेब दरिदर, दिल समन्दर" दिल को छूने वाले बोल और इंडियन ओशन का टिपिकल संगीत। कहानी तो सब को मालूम है कि किसान कर्ज़ा न चुकाने की वजह से आत्महत्या करने का ऐलान कर देता है। हमारे यहाँ हर कोई अपने आप को फ़िल्म समीक्षक समझता है तो सोचा कि मैं भी अपने कुछ विचार रखूँ। हर समीक्षक अपने तरीके से किसी फ़िल्म को अंक देता है। पाँच में से जितने स्टार उतनी उम्दा फ़िल्म।
जिस कहानी को आधार बना कर आमिर खान और अनुषा रिज़्वी ने फ़िल्म बनाई उस लिहाज से ये मील का पत्थर साबित हो सकती थी। हो अभी भी सकती है क्योंकि इसके पीछे आमिर खान हैं। आज की तारीख में किसी फ़िल्म की सफ़लता का श्रेय काफ़ी हद तक की उसकी पब्लिसिटी को जाता है। शाहरूख और आमिर की फ़िल्में रिलीज़ होने से पहले ही हिट हो जाती हैं। इस फ़िल्म को भी देखने दर्शक जरूर पहुँचेंगे और आमिर होंगे मालामाल।
मुद्दे की बात पर आता हूँ। यह फ़िल्म आपको ’रंग दे बसंती’ अथवा ’तारे जमीन पर’ जैसी बिल्कुल नहीं लगेगी। इस फ़िल्म की शुरुआत गालियों से हुई तो समझ में आया कि इसे ’ए’ रेटिंग क्यों दी गई है। गाँव की देसी बोली दिखाने के लिये निर्देशक ने इनका प्रयोग किया। विशाल भारद्वाज से प्रेरित हुईं हैं शायद। खैर शुरुआत तो ठीक-ठाक हुई पर बीच में जाकर निर्देशिका उलझी हुई नजर आईं। करीबन एक घंटे तक मीडिया के बारे में ही दिखाती रहीं और मूल मुद्दा कहीं पीछे छूट गया। मीडिया कैसे बात का बतंगड़ और राई का पहाड़ बनाता है वो दिखलाया जाने लगा। ’नत्था’ के घर के बाहर मेला लग गया था। तरह तरह से मीडिया कर्मी "सबसे तेज़ खबर" दिखाने में लगे हुए थे। कोई जान बूझ कर नकली खबर बनाता दिखाया गया तो कोई लोगों से तरह तरह के सवाल पूछता है..वे ऊलजुलूल सवाल जो अमूमन प्रेस वाले पूछते हैं। दो लड़कियों को मंदिर के आगे बाल फ़ैलाते हुए दिखाया जाता है क्योंकि उन पर माता आ गई थी। इसी बीच ये भी दिखाया जाता है कि मीडिया राजनैतिक पार्टियों की कठपुतली के अलावा कुछ नहीं और इनका मकसद केवल टीआरपी बढ़ाना चाहें खबर हो ’हर कीमत पर’।
उस समय मैं दुविधा में था कि पौने दो घन्टे की फ़िल्म में सवा घंटे तक मीडिया वाले छाये रहते हैं और किसान की बात हाशिये पर होती है। लोग हँसते रहे क्योंकि हँसना सेहत के लिये लाभकारी है। शायद निर्देशिका कॉमेडी के जरिये अपनी बात पहुँचाना चाह रहीं हैं। हो सकता है। बीच में जब तीन -चार मिनट तक अंग्रेजी न्यूज़ चैनल पर किसानों की आत्महत्या की खबर आती है और केंद्रिय मंत्री नसीरुद्दीन शाह अंग्रेजी में ही जवाब देते हैं तो मेरी समझ के परे होता जाता है कि किसानों की बात किसानों तक ही नहीं पहुँचेगी तो कैसे काम चलेगा?
अंत में नत्था को गुड़गाँव की गगन चुम्बी निर्माणाधीन इमारतों में काम करते हुए दिखाया जाता है। आंकड़ों की मानें तो १९९१ से २००१ के बीच ८० लाख किसान खेती छोड़ चुके थे। मुझे लगता है कि ये संख्या अब कईं करोड़ों में होगी क्यों शहर "विकास" की ओर अग्रसर है। किसानों की खेती की जमीन ले कर उसी पर मॉल बनाने को विकास का दर्जा दिया जाता है। कुल मिलाकर जिस ’नत्था’ के लिये यह फ़िल्म बनाई गई उसको केवल आधे घंटे की कवरेज दी गई होगी। क्योंकि शायद आमिर खान भी जानते हैं कि नत्था को देखने कोई नहीं आता। लोग हॉल तक पहुँचेंगे और हँसते हुए लौटेंगे। ये फ़िल्म आपको कुछ भी सोचने पर मजबूर नहीं करती। ये ’रंग दे बसंती’की तरह दिलों में खून नहीं खौलाती, ये ’तारे जमीन पर’ की तरह आपको नहीं रुलाती। ये हँसाती है..आप हँसते हैं मीडिया हँसता है और ’नत्था’ रोता है।
जाते-जाते एक बात और। ’सब टीवी’ पर रात दस बजे एक धारावाहिक आता है "लापता गंज"। हर रोज़ आम आदमी से जुड़ी हुई बात को इसमें इतने सरल तरीके से बताया जाता है कि आदमी हँसबोल भी लेता है, गालियाँ भी नहीं सुननी पड़ती और दिल पर असर भी करती है बात। इसमें महँगाई पर भी दिखाया गया है, बड़ों का आदर करना भी, नेताओं और अफ़सरों का भ्रष्टाचार भी है, नाले में गिरे हुए ’प्रिंस’ को कवर करता मीडिया भी है। इसमें वो सब कुछ है है जो आम लोग की आम ज़िन्दगी पार असर करे। लोगों को इस सीरियल का नहीं पता होगा क्योंकि इसमें आमिर खान नहीं हैं। समीक्षक इसको रेट नहीं करेंगे क्योंकि यहाँ से पैसा नहीं मिलता। यदि आपको ’पीपली’ लाइव देखनी है तो आप ’लापतागंज’ देखिये। यही है असली ’पीपली’।

~ जय हिन्द।

--तपन शर्मा

Saturday, August 14, 2010

स्वतंत्रता दिवस और मेरी पॉजिटिव सोच

स्वतंत्रता दिवस के लिए कुछ लिखने बैठा तो इस बार सोचा था कि कुछ पॉजिटिव ही लिखूंगा…बहुत सोचा, कुछ अच्छी बातें आईं भी दिमाग में लेकिन हर चीज़ घूम कर फिर नकारात्मक हो जाती है. फिर मैंने सोचा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरी सोच ही नकारात्मक है लेकिन ये विचार भी आगे जाकर वहीँ पहुँच गया. अगर मेरी सोच नकारात्मक है तो ये सोच कैसे बनी, किसने बनाई….किसी भी इंसान का व्यक्तित्व कौन सी चीज़ें मिलकर बनाती हैं? उसका परिवार…उसके आस-पास का माहौल, समाज…फिर अगर मेरी सोच नकारात्मक दिशा में जा रही है तो उसका गहरा कारण है और मेरी ही नहीं इस देश में रहने वाले ज़्यादातर लोगों की सोच नकारात्मक है. ऐसा क्यों है? अभी कुछ दिन पहले ही मैं एक सर्वे पढ़ रहा था जिसके अनुसार भारत का नाम रहने लायक देशों की फेहरिस्त में बहुत नीचे था, साथ ही किस देश के लोग सबसे ज्यादा खुश रहते हैं, इसमें भी भारत का नाम बहुत नीचे है और इसके लिए सर्वे करने की ज़रुरत नहीं, हम अगर अपने आस-पास नज़र दौडाएं तो साफ़ हो जाएगा…सभी लम्बे-लम्बे चेहरे दिखाई देंगे. जीवन की वो उर्जा बहुत कम लोगो में दिखाई पड़ती है. हर आदमी डरा-सहमा सा जी रहा है. हर कोई असुरक्षा की भावना से लबालब भरा हुआ है. जीने का एकमात्र मक़सद सिर्फ पैसा कमाना है…सब घिसट रहे हैं. प्रतिभा का कोई मोल नहीं है, जो चीज़ बाज़ार में गर्म है सब के सब उस तरफ दौड़ पड़ते हैं. हर कोई अपने साथ जबरदस्ती कर रहा है. ऐसे में कोई खुश रहे भी तो कैसे? हर वक़्त तलवार लटकी है. वो काम कर रहे हैं जिसमे बुध्धि नहीं चलती लेकिन अपनी जगह से ज़रा भी हिल-डुल नहीं सकते, पीछे असुरक्षित लोगों की लम्बी कतार लगी है और ये कतार हर जगह है, एक जगह गई तो दूसरी जगह के लिए फिर कतार में लगना. ऐसे में सब येन-केन-प्रकारेण कोई जगह हासिल करने की जुगत में रहते हैं…भ्रष्टाचार को गाली दो लेकिन अपना मौका आये तो चूको मत. हर किसी के मुह से यही तर्क सुनाई देता है कि हम नहीं करेंगे तो दूसरा करेगा, क्या करें ज़माना ही ऐसा है करना पड़ता है...हर तरफ भ्रष्ट लोग, दोमुहे लोग, दोगले लोग, मौकापरस्त लोग, गन्दगी से भरे लोग………………………………………..
अब बात करें उस भारत की जिसके बारे में कहानियाँ कही जाती हैं, जिसे हर स्वतंत्रता दिवस पर महान बताया जाता है, ऐसा देश जिसमें सभी लोग प्रेम से भरे हुए हैं, एक के दर्द में सारे शामिल हो जाते हैं, जहां दया है, करुणा है, सत्य है, स्वाभिमान है. अच्छा लगा ना?
मुझे भी अच्छा लगता है ये सोचकर कि मैं ऐसे लोगों के बीच में हूँ जहां मैं आँखें बंद करके किसी पर भरोसा कर सकता हूँ…जहाँ अगर मैं बाज़ार में कुछ लेने जाता हूँ तो यकीन होता है कि मुझे जो मिलेगा वो अच्छा ही होगा उसमे बेईमानी की कोई गुंजाइश नहीं होगी. मैं दूधवाले को दूध लाने को कहूँगा तो मुझे दूध ही मिलेगा पानी नहीं और मुझे उससे उसके दामों के लिए झिकझिक नहीं करनी पड़ेगी. मैं जब रिक्शा में बैठता हूँ तो पहले मुझे २० मिनट कितने पैसे लोगे के शीर्षक से बहस नहीं करनी पड़ती, वो चुपचाप मुझे पंहुचा देता है और जो वाजिब दाम हैं वो मैं दे देता हूँ. जिसका जो काम है वो उसे अच्छी तरह से करता है. मुझे रोज़मर्रा की छोटी-छोटी बातों के लिए अपना खून नहीं जलाना पड़ता,…लेकिन ऐसा नहीं होता ना? सबका अनुभव इसका उल्टा ही होगा. आदमी को हर वक़्त चौकन्ना रहना पड़ता है कब कौन ठग ले कुछ नहीं कह सकते. इतना अविश्वास? अपने ही लोगों पर? लेकिन ऐसा है इसे कोई झुठला नहीं सकता. ये डर, ये असुरक्षा, ये तनाव, इन सबके साथ कोई खुल के कैसे जी सकता है? इंसान की आत्मा बंधी हुई रहती है, फडफडाती है…और ये आत्मा जब तक उड़ने के लिए खोल नहीं दी जाती तब तक किसी भी आजादी का क्या मतलब है?
अगर अंगरेजों की बात करें तो हम आज़ाद हैं लेकिन हमारी मानसिकता अब भी गुलामी में है. हर एक पीढ़ी के मन में पुरानी पीढ़ी इतना डर और असुरक्षा भर देती है कि आत्म सम्मान, उसूल वगैरह सब फ़ालतू लगने लगते हैं. ये ज़िन्दगी कोई गुलामों से बेहतर नहीं है…बात तो तब होगी कि हरेक आत्मा आज़ाद हो, वो जब चाहे पंख फैला कर आसमान में उड़ सके…….सब एक दूसरे के चेहरों से घबराए ना हो…
ये देश जो बातें अब तक दोहराता है (और सिर्फ दोहराता ही है, अमल में नहीं लाता), महानता की, उर्जा की, विद्वत्ता की ऐसा नहीं कि सब झूठ है, ऐसा एक ज़माना निश्चित रूप से था वरना ये वेद, ये उपनिषद क्या हैं? ऐसा संगीत जो आग जला दे या पानी बरसा दे...ये संगीत क्या है? वरना कृष्ण, बुद्ध, महावीर, नानक, कबीर, रामकृष्ण, विवेकानंद..............आदि-आदि, ये इतनी सारी महान आत्माएं क्या हैं? ये ज़मीन ज़रूर ही उपजाऊ रही होगी. वेद, उपनिषद हमारे ज्ञान का बेहतरीन नमूना बेशक हैं लेकिन कब तक इन्ही नामों के सहारे अपने को महान मनवाएंगे….अब और नया उपनिषद कोई क्यों नहीं लिखता…..हज़ारों सालों से क्यों भारत कुछ रचनात्मक नहीं कर पाया? ज़रुरत है आगे आने वाली पीढ़ी को इस तरह तैयार करने की कि वो कुछ मौलिक कर सके. अभी तो सब कुछ उधार ही चल रहा है, शिक्षा, संगीत, कला, भाषा….सब कुछ नक़ल है. और तुर्रा ये है कि इस नक़ल को ही अब ऊँची नज़र से देखा जाता है, हर वो इंसान जिसे अपनी खुद की किसी ऐसी चीज़ से प्यार हो पिछड़ा समझा जाता है.
ये देश फिर से उस उंचाई पर जा सकता है….हालात पूरी तरह निराशाजनक नहीं है….ज्यादा पुरानी बात नहीं है, अभी, इसी सदी में कुछ बहुत महान आत्माएं हुई हैं ....शिर्डी के साईं बाबा, कृष्णमूर्ति और ओशो……इतने महापुरुष आते हैं और चले जाते हैं लेकिन क्यों हम लोग सोये ही रह जाते हैं? अब भी समय है स्वतंत्रता दिवस एक मौका है अवलोकन का और कमियों को दूर करने का…हम इस तरह मनाएं ये दिन कि अपने अन्दर की हर तरह की गुलामी से हम आज़ाद हो जाएँ….किसी और की फिक्र छोड़ दें….एक आदमी अगर बदलता है तो उसके आस-पास का माहौल अपने आप बदलने लगता है, बिना कुछ किये ….कभी ना कभी आस-पास के लोग भी बदल जायेंगे. किसी शायर ने क्या अच्छी बात कही है - "कौन कहता है कि आसमान मे सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों"
तो इसी कामना के साथ कि हम अपनी हर तरह की गुलामी से आज़ाद हों ….स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ

-अनिरुद्ध शर्मा

Friday, August 13, 2010

लंदन में 15 अगस्त मनाना ज़ख्मों पर नमक छिड़कने जैसा है...

भारत देश हमारा प्यारा
झंडा ऊँचा रहे हमारा...

जब से अपने भारत देश ने अंग्रेजों के चंगुल से मुक्ति पाई है उसमे एक साल और बढ़ गया है..15 अगस्त के दिन भारत के हर शहर, गाँव, गली-कूचे..देशभक्ति से ओत-प्रोत लोगों की बातों से गुंजित होंगे...गाने-फ़िल्में, डांस आदि के कल्चरल प्रोग्राम होंगे, स्पीच होगी और सड़कों पर तरह-तरह की वेश-भूषा में परेड निकलेंगीं...और लोग भीड़ में धक्का खाते हुये, या घर की छतों से उन्हें देखने का आनंद उठायेंगे...... जिन्हें दिल्ली जाकर भीड़ में शामिल होकर लालकिले पर झंडा लहराते हुये देखने का व प्राइम मिनिस्टर की दी हुई स्पीच सुनने का और परेड देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं होगा वह अपने घर या चौपाल में बैठे टीवी पर ही देखकर दिल्ली में हुये उत्सव का आनंद लेने की कोशिश करेंगे. स्कूलों के बच्चे लाइन में खड़े होकर ( जैसा मुझे अपना बचपन याद आता है ) '' 'जन-गण-मन' और '' वन्देमातरम '' जैसे देशभक्ति के गाने गायेंगे..आसमान में पतंगें उड़ रही होंगी..क्या सीन होगा...और हम यहाँ बैठे हुए ज़ी टीवी पर उनकी कुछ झलकियाँ देखकर अपने देश के बारे में सोचकर अपनी आँखे नम करेंगें..क्योंकि यहाँ इतनी दूर रहकर टीवी की झलकियाँ ही तिरंगे को दिखाकर दिल में तरंगें पैदाकर हलचल मचाकर अपना गुजरा हुआ जमाना याद दिला देती हैं...इन तरंगों का भी उठना बहुत जरूरी है...कितने ही देशभक्त पतंगों की तरह देश पर कुर्बान हो गये. गाँधी जी ने, साथ में और भी तमाम देश-भक्तों ने पता नहीं क्या-क्या झेला देश की आजादी को प्राप्त करने के लिये और साथ में न जाने कितने और लोगों ने भी कुर्बानियाँ दीं जिनके नाम भी नहीं पता सबको.

लेकिन इतना सब कुछ हुआ..क्यों हुआ..देश को आजाद कराने के पीछे उन महान आत्माओं के सपने थे अपने देश की सुन्दर तस्वीर के. लेकिन लोग कैसे रहेंगे आजादी के बाद...और उनके इस दुनिया से जाने के बाद और उस आजादी का भविष्य में किस तरह इस्तेमाल किया जायेगा इसका उन लोगों को कोई अनुमान नहीं रहा होगा. जो गाँधी जी के सिद्धांत थे उनपर कितना अमल हो रहा है ? अहिंसा की जगह हिंसा का प्रयोग, शांति की जगह अशांति, बेईमानी, रिश्बतबाजी, हर जगह फैला आतंक, भ्रष्टाचार, दरिद्रता, अनैतिकता, पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव..और भी न जाने कितनी समस्यों से देश ग्रस्त हो चुका है...इनका निवारण करने की तरफ कौन से कदम उठे हैं ? गरीबी, अत्याचार, लोगों के प्रति अन्याय..किसी भी क्षेत्र में सुधार होता नजर नहीं आ रहा है...जनता टैक्स देती है लेकिन उसका सदुपयोग उनके इस्तेमाल के साधनों की तरफ नहीं बल्कि किसी और तरफ नाजायज रूप में खर्च होता है....

बिजली, सड़कें, गंदगी, पानी और महँगाई से सूखता लोगों का खून
लाचारी, मजबूरी, कानून का डर शांत कर देता है तब उनका जुनून.

इन सब बातों को लिखते हुए, जिनसे आप सब लोग मुझसे अधिक परिचित हैं, सोचती हूँ कि कुछ लोगों के दिल में ये ख्याल आ रहा होगा या जिज्ञासा हो रही होगी कि मैं आप लोगों को बताऊँ कि यहाँ यू. के. में 15 अगस्त का दिन कैसे मनाया जाता है..लेकिन आपको शायद ताज्जुब होगा कि इतने साल यहाँ रहने के वावजूद भी मैंने इस बात पर कभी गौर नहीं किया था..मैं इस तरह के समारोह के बारे में अनजान रही थी..इस बारे में कुछ विदित ही नहीं हो पाया था अब तक. एक तो अंग्रेज लोग हमारे भारतीय स्वतंत्रता-दिवस को क्यों मनाने लगे..ये तो वही बात होगी कि किसी के हाथ से सुई लेकर उसी की आँख में चुभो दो..मतलब ये कि उन पर ज़ोर दो कि तुम लोग हमारे भारतीय स्वतंत्रता-दिवस को क्यों नहीं मनाते इस देश में. अरे भाई, जो हमारा देश छोड़ने पर मजबूर हुये उनको याद दिलाकर जले में नमक छिडकने जैसा हुआ कि नहीं ये ? इस बारे में कोई जश्न यहाँ खुले आम नहीं होता. हमारे अपने आजादी-दिवस पर भारतीयों के लिये न कोई छुट्टी का दिन रखा गया है ( इनके अपने त्योहारों के दिन होते हैं जिन पर छुट्टी होती है ) न कोई झंडा लहराना, न परेड न स्कूलों में कुछ..और न ही लाइब्रेरी में हमारे स्वतंत्रता दिवस को इस देश में मनाने के बारे में कोई जानकारी उपलब्ध है. लेकिन यहाँ कुछ जगहों पर जहाँ अधिक भारतीय रहते हैं वहाँ भारतीय लोग मिलकर किसी हाल वगैरा में लोकल काउंसिल की मदद से इस दिवस को मनाने का आयोजन रखते हैं..और लन्दन में भारतीय विद्या-भवन में भी इस अवसर पर समारोह मनाया जाता है जिसमे भारतीय नृत्य-गाना, सितार और तबला-वादन आदि का प्रोग्राम होता है. और भारतीय हाई कमिशनर '' रायल केनजिंगटन पैलेस गार्डेन '' नाम की बिल्डिंग के बाहर अपने देश का तिरंगा फहराता है और वहाँ के सुन्दर गार्डेन या हाल में स्पीच देता है...उसके बाद वहाँ पर कुछ कल्चरल प्रोग्राम होता है नाच-गाना इत्यादि...और खाने आदि का कार्यक्रम होता है...इस बार का प्रोग्राम है: 15 अगस्त को 10.30-3.00 तक के प्रोग्राम में 11 बजे सुबह भारतीय हाई कमिशनर नलिन सूरी अपने देश का तिरंगा ऊँचा करेंगे उसके बाद '' इंडियन जिमखाना क्लब '' में खाने का प्रबंध होगा जहाँ भारत के सभी क्षेत्रों के खाने के स्वाद के स्टाल होंगे व भारतीय कल्चरल प्रोग्राम भी होंगे जिसमे शायद भरत-नाट्यम नृत्य और संगीत आदि है.

आप सभी पाठकों को व हिन्दयुग्म से जुड़े सभी सदस्यों को इस स्वतंत्रता दिवस पर बधाई व मेरी शुभकामनायें...जय हिंद ! वन्देमातरम !

शन्नो अग्रवाल
(लेखिका ने लंदन से अपना अनुभव हमें भेजा है....तस्वीर लंदन के किसी पुराने समारोह की है, 15 अगस्त के मौके पर)

Thursday, August 12, 2010

चश्मा उतारकर देखिए कितना आज़ाद है मुल्क...

बिहार के किसी गांव में डायन बताकर जब सुखनी को नंगा कर दिया जाता है और भीड़ उसे निर्वस्त्र कर पीटती है, भोपाल में जब तथाकथित रामभक्त लड़के और लड़कियों को पकड़कर बेइज्जत करते हैं और छेड़खानी भी करते हैं तो राम के नाम पर माफ हो जाता है, महाराष्ट्र में जब अपनी मेहनत के बल पर पैदा अनाज को बेचकर कोई किसान मुट्ठी भर अनाज देखने और उसे पकाने की जद्दोजहद करते हुए अपनी जान दे देता है, छत्तीसगढ़ में नक्सली और पुलिस के बीच मौत का तांडव कराने वाले लोग जब नक्सलियों को आदमी जात से हटाकर देखते हैं और पुलिसवालों के घर पर पुक्का फाड़ कर चिल्लाने वाले लोगों का कलेजा ऐंठा जाता है, लेकिन सियासतदां के घर किसी लाश के जलने की बू कभी नहीं पहुंच पाती, और हमारी जेलों में बिना जुर्म के जिंदगी काटने वालों को हत्यारों के बाहर घूमने पर हंसी भी आती है और रोना भी..और हां जनाब इन सारी घटनाओं का किसी एक शहर या राज्य में होने का मुहर नहीं है, ये तो पूरे देश की आजाद तस्वीर के पीछे से झांकती घटनाएं हैं, तो सवाल है कि फिर देश तो आजाद है लेकिन क्या इन दबंग और गुंडातत्वों के अलावा हमें भी आजादी है बोलने की, सोचने की या फिर रोने और हंसने की भी, नहीं है। क्या ये आजादी उड़ीसा के एक आदिवासी की भी आजादी है जो रेल पर चढ़ने का सपना देखते देखते मौत के बिस्तर पर कराह रहा है,क्या जेसिका लाल को आजादी दिलाने के लिए जोर लगाने वाले लोगों ने रोज महिलाओं के देह में नजरें धंसाने के बाद उनकी निर्ममता से हत्या कर देने वाले लोगों के खिलाफ लड़ाई लड़ी है। क्या प्रिंस को बचाने वाले हाथ कोयला खदान में मरने वाले मजदूरों को बचाने के लिए भी उठ रहे हैं, नहीं क्योंकि उनपर कैमरे के रस का नशा नहीं चढ़ रहा है। दरअसल हम आजाद तो यकीनन हैं लेकिन ये आजादी बस कुछ खास तबके और लोगों के लिए है, उनके लिए है जो सहरसा में भूख से मरने वाले एक रिक्शे वाले की मौत को किसी भी हाल में भूख से मौत नहीं होना साबित कर देते हैं, उनके लिए है जो मुंबई की सड़कों पर सरेआम लोगों को पीटते चलते हैं क्योंकि वो उत्तर भारत से ताल्लुक रखते हैं, उनके लिए है जो खाद्य सुरक्षा पर हाईप्रोफाइल बैठक करते हैं 1600 से 2200 रूपये प्लेट वाले खाने की कई सौ थालियां फिकवां देते हैं ये सोचे बगैर कि इसी देश में कई लोग रोज भूखे मरते हैं जिन्हें मीडिया कवर नहीं करता और ना ही प्रशासन में कोई रिकॉर्ड दर्ज होता है, ताकि जलाने का पैसा सरकार की जेब ढीली ना कर दे...ये तमाम लोग आजाद हैं...लिखते समय हिचकिचाहट इसीलिए होती है क्योंकि आजादी के बारे में लिखते वक्त तो भाषणबाजी पर उतारू हो जाते हैं न हम. इसलिए खुद पर शर्म आती है क्यों अब ये बातें और इन्हें करने वालों पर कोई भरोसा नहीं बचा।
राष्ट्र के तौर पर हमारे देश की जब पहचान नहीं थी तो कवायद हुई कि पहले राष्ट्र के तौर पर हम संगठित और परिभाषित हों...1857 की क्रांति के असफल हो जाने के पीछे बस यही वजह थी कि हम संगठित राष्ट्रवाद की परिभाषा से अलग एक लड़ाई लड़ रहे थे जहां कुंअर सिंह की लड़ाई अपनी जायदाद छिन जाने की वजह से थी, नाना साहब की लड़ाई बेदखल हो जाने की वजह से थी, तो झांसी की रानी की लड़ाई की अपनी वजहें थीं। एक व्यापक उद्देश्य की कमी और अपने निजी मामलों के चलते अंग्रेजों से लोहा ले रहे लोगों की लड़ाई की वजह से ही ये एक राष्ट्रीय क्रांति के तौर पर परिभाषित नहीं हो सका....लेकिन वहां से देश के बुद्धिजीवियों और नेताओं ने इसकी समीक्षा करते हुए पहले देश को राष्ट्रीय भावना से भरने की कोशिश की..ये लंबा दौर रहा जिसमें लोगों को व्यापक उद्देश्य के लिए लड़ाई लड़ने को तैयार किया गया...जब आजादी मिली तो राष्ट्रीय भावना चरम पर थी...फिर आजादी के 63 सालों के बाद क्या वो भावना और मजबूत हुई है या फिर एक बार फिर अपनी अपनी लड़ाई में फंसने की नौबत आ गई है...जाहिर तौर पर अब महंगाई से आपके घर में नमक नहीं खरीदे जाने को लेकर संसद में सिरफुटव्वल करने वाले लोगों को भूख, गरीबी और महंगाई डायन से तब तक कोई सरोकार नहीं है जब तक उन्हें इसका सियासी फायदा दिख ना जाए...घर में तकिया में मुंह छिपा के रो लेने को आजादी मान लें तो हैं आजाद, नहीं तो मुंहतक्की करनी पड़ेगी जनाब, आजादी महसूस करने के लिए। खैर फिर भी चश्मे का रंग बदलता है इसमें शक नहीं है मुझे। हम कभी देश में महंगाई डायन की बात करते हैं तो विश्व में बढ़ती अपनी ताकत को पहचान कर खुश भी होते हैं..फिर अंदरूनी हालात पर चर्चा करते हैं और फिर कभी निराश हो जाते हैं..ऐसे में आजादी के आइने में अगर युवाओं चेहरों पर झुर्रियां और जवान शरीर पर बेड़ियां दिखें तो यकीनन दुख होगा, अगर हमाम में सभी नंगे हैं बोलकर हम अपनी नंगई पर बेहया बन जाएं तो हम आजादी के सही मायने के हिस्सा नहीं हैं...लेकिन फिर भी इस नंगई के खिलाफ लड़ने वाले भी हैं..कुछ लड़ रहे हैं तो कुछ तैयार बैठे हैं इस लड़ाई का कंधा बनने के लिए...ऐसे लोग अंदरूनी तौर पर आजादी को खा रही ताकतों से खींचने की फिराक में देह लहूलुहान कर रहे हैं...इन लोगों की नजर और मदद से आजादी के सही मायने की तलाश चल रही है कहीं इसी मिट्टी पर जहां हम आजाद होने का जश्न मनाकर भी कभी कभार आजाद महसूस नहीं कर पाते। लेकिन वाकई हम आजाद हैं सिर्फ इस आजादी की बयार मजदूरों के देह से लेकर डायन बताकर जलील की जाने वाली महिलाओं तक और आत्महत्या कर रहे किसानों से लेकर भूख से मर रहे लोगों तक पहुंचने की देर है...कि जब वो अपना हक जान सकेंगे और भूख से मर जाने से बेहतर खड़ा होकर सवाल करना सीख लेंगे...कि जब किसी मीडिया की बपौती का हिस्सा नहीं होगा किसके न्याय की लड़ाई लड़नी है और किसकी नहीं...कि जब न्याय की भीख मांगने वाले हाथ उठेंगे हक की आवाज के साथ...फिर आजादी के मायने इक बार फिर वही होंगे जिसका सपना कभी देखा गया होगा..यकीनन हम आजाद हैं क्योंकि सपनों को टूटने ना देने की मुहिम पर लगे कुछ लोग जिंदा हैं और जगे हुए हैं..और जगाने की कोशिश कर रहे हैं दूसरों को जिनके मन पर मूर्छा लग गयी है...और यही आस काले चश्मे का रंग फिर बदल देती है और फिर उम्मीद और जीत का शीश लगा कर फिर महसूस होता है कि हां हम हैं आजाद, देश आजाद है, हमारे लोग आजाद हैं, लिहाजा मैं भी हूं आजाद

अमृत उपाध्याय

Wednesday, August 11, 2010

धर्मशास्त्रों ने दी बालिका विवाह यानी मर्दों को 'बलात्कार' की आज़ादी?

भारत में बाल-विवाह को जनवृद्धि का एक जिम्मेदार कारण माना जाता है, पर इसका भी समुचित विवेचन नहीं किया जाता। बाल-विवाह वैसे तो लड़के-लड़की दोनो को फाँसने वाली घटना का नाम है, पर सामाजिक सच्चाई यह है कि लड़की इसकी चपेट में अधिक है। उसे बोझ, पराया धन, दूसरे की धरोहर आदि समझा जाता है और जल्दी-से जल्दी उसे ब्याह की लौह्–शृंखला पहना कर सिर का बोझ हल्का करना उचित समझा जाता है। आखिर ‘कन्यादान’ का भी तो महत्त्व है (मानो लड़की इन्सान नहीं,कोई चीज हो)। ‘राष्ट्रीय प्रतिदर्श सर्वेक्षण’(एन.एस.एस.) ५२वें का आँकड़ा है कि प्रति हज़ार में, ०-१४ उम्र-सीमा की ब्याही गयीं लड़कियाँ ४ हैं और लड़के भी चार हैं। पर १५-१९ वर्ष की वय सीमा में पुरुष के ब्याहों की संख्या जहाँ ५० (शहरी १९, ग्रामीण ६१) है, वहीं स्त्री के ब्याहों की संख्या २६४ (शहरी १२६, ग्रामीण ३१६) है। अर्थात्, १००० में ५० लड़के ही, पर लड़कियाँ २६४। यानी, प्रतिज़ार २१४ लड़कियाँ लड़कों की तुलना मे अधिक ब्याही जाती हैं। यानी, जैसे ही थोड़ी बड़ी हुई लड़की, समाज की आँखों में खटकने लगती है उस की बढ़ोतरी। उसे बिना किसी पुरुष की दासी बनाए,चैन् नहीं पाता वह । फिर तो, यह आँकड़ा सिर्फ़ बाल-विवाह का नहीं लगता। ५० लड़कियाँ ५० लड़कों के साथ विवाह में नाथ दी गयीं,तो भले दिलमेल सम्बन्ध नहीं बना, पर उम्रगत अनमेलपन की स्थिति तो प्रायः नहीं है। परन्तु, बाकी २१४ लड़कियाँ कहाँ जाती हैं? स्पष्ट है कि वे अपने से पर्याप्त बड़े या प्रौढ़ मर्द के साथ नत्थी कर दी जाती हैं। ग्रामीण क्षेत्र में तो यह संख्या और ज़्यादा है--३१६ लड़कियाँ, पर १६ लड़के। यानी, २५५ लड़कियाँ उम्र-दृष्टि से अनमेल-विवाह में धकेली जाती हैं।

यह तय है कि लड़की जितने ही पहले यौन-जीवन में घसीटी जाएगी, उतने ही बच्चे पैदा करने को अभिशप्त होगी। पर, बात केवल इतनी नहीं है सीधी-सपाट। खेलने-खाने या स्कूल जाने के जो दिन होते हैं (और कौन से दिन ऐसे नहीं होने चाहिए लड़की के लिए? लड़के के लिए तो ऐसे दिन जीवन भर सम्भावित हैं), उन में लड़की बच्चा जनने को बाध्य हो जाती है। कम उम्र में गर्भवती बनायी जाती है, तो उस का गर्भकाल भी लम्बा खिंच जाता है और वह पीड़ादायी भी ज़्यादा होता है। उस में प्रसव-मौत अधिक सम्भावी हो जाती है। बच्चे भी कमजोर या मृत पैदा होते हैं। कम उम्र की लड़की अबोध होती है,साथ ही विवाह की बेड़ी में वह शिक्षा के अवसर से भी वंचित कर दी गयी होती है। इस कारण, अपनी पीड़ाओं तथा उस के कारणों को भी ना समझ पाती है और ज़्यादा घुटती रहती है। उस की देह को कब्जे में ले लेना उस के पति (जो प्रायः बड़ा या कभी-कभी अधेड़ तक होता है) के लिए ज़्यादा आसान होता है और आसान होता है उसे अपनी अन्धी हवस के गड्ढे में गिरा देना (याद कीजिए फ़िल्म ‘बैण्डेट क्वीन’), उसे यौन-रोग दे देना तथा उसकी मासूमियत में उस के पेट को भारी-बेडौल बना देना आसान होता है।

लड़की के बाल-विवाह की प्रथा भी तो एक दीर्घकालीन धार्मिक-सांस्कृतिक आधार रखती है। ‘संस्कार-मयूख’ में बौधायन का वचन है कि भले ही अयोग्य वर हो ,पर कन्या को रजस्वला होने के पूर्व ब्याह दें। ‘गौतमधर्मसूत्र’(१-२-२३) वस्त्र पहनने की समझ विकसित होते ही कन्या को ब्याहने की सीख देता है, तो ‘व्यास-स्मृति’(२३) भी कहती है कि अधोवस्त्र पहनने की उम्र होने पर ब्याहना चाहिए। फिर,‘संवर्त स्मृति’ ने तो विवाह-योग्य कन्याओं को चार आयु-वर्गों में बाँटा है---गौरी (८ वर्ष), रोहिणी (९ वर्ष), कन्या (१० वर्ष) और रजस्वला (१० वर्ष से अधिक)।

कन्या को छोटी अवस्था में ब्याहने यानी किसी मर्द के बिस्तर पर पटक देने के पीछे की सोच वैदिक काल से चली आ रही एक भय-धारणा की भ्रांति थी, जो स्त्री को भोग्या मानने वाली पुरुष-कामान्धता से उपजी थी। ऋग्वेद के एक मंत्र का भाव था कि कन्या के देह-विकास में सहायक माने जाने वाले सोम,गन्धर्व और अग्नि उस के प्रथम, द्वितीय व तृतीय पति (उपभोक्ता)बन सकते हैं; तब कोई मनुष्य (पुरुष) उस से ब्याह करे, तो उस को चौथा पति बनना पड़ेगा। ‘अत्रि-संहिता’ ने ऋग्वेदोक्त मन्त्र(१०-८५-४०) का भावानुवाद करते कुछ जोड़ कर कहा---

पूर्वं स्त्रियः सुरैर्भुक्ता सोमगन्धर्ववह्निभिः
भुंजते मानवाः पश्चात् नताःदुष्यन्तिकर्हिचित्।

लेखक- डॉ.रवीन्द्र कुमार पाठक
पाठक विगहा (गाँव), जम्होर, औरंगाबाद, (बिहार) में जन्मे रवीन्द्र कुमार पाठक का यह आलेख इन्हीं की हालिया प्रकाशित पुस्तक ‘जनसंख्या-समस्या के स्त्री-पाठ के रास्ते...’ से लिया गया है। रवीन्द्र ने NCERT द्वारा शिक्षकों के लिए भाषा और व्याकरण की पुस्तकों को तैयार करने में विशेषज्ञ के तौर पर सहयोग दिया है। इनकी 2 पुस्तकें प्रकाशित हैं और एक प्रेस में है। वर्तमान में जी.एल.ए.कॉलेज, मेदिनीनगर (डाल्टनगंज), झारखंड में व्याख्याता के पद पर कार्यरत हैं।
मो.- ०९८०१०९१६८२
ईमेल- rkpathakaubr@gmail.com
यानी, सोम-गन्धर्व-अग्नि – इन देवों द्वारा चखी जा कर भी कोई स्त्री जब मनुष्यों(मर्दों) द्वारा चखी जाती है , तब भी वह दूषित नहीं होती । वाह रे! क्या भाषा है! स्त्री-देह की पवित्रता इस उद्देश्य से घोषित की जा रही है कि पुरुष उसे पत्नी बनाने यानी चखने से इन्कार न कर दें ।(क्या यह किसी नारी-देह के दलाल-भड़ुवे की भाषा नहीं लगती?) फिर भी यह खटका तो लगा ही रहता था कि कहीं उक्त देव कन्या को पहले ही चख कर जूठी न कर दें। (कामुकों की देव-कल्पना भी तो कामुक रूप में ही होगी,वह भी वृद्ध देवों द्वारा बच्ची को यौन-बुभुक्षार्थ देखने वाली अनमेल कामुकता!) फिर जूठी हुई (नथ उतारी गयी) कन्या का दान(बिक्री?) कैसे किया जाएगा? अक्षतयोनि कन्या के दान में ही तो पुण्य मिलता है! यानी, कन्या रजस्वला हुई नहीं कि उस पर लार टपकाते औरतखोर मर्दों के हक में स्मृतिकारों ने व्यवस्था करनी शुरु कर दी। वहाँ भी करेले को नीम पर चढ़ाया गया, यानी एकमुखी अनमेल विवाह किये गये, अर्थात् कन्या के गले में पर्याप्त बड़े मर्द को लटका दिया गया। ‘मनुस्मृति’(९-९४) ने खुलेआम व्यवस्था दी—

त्रिंशवर्षोद्वहेत् कन्यां हृद्यांद्वादशवार्षिकीम्
त्र्यष्टवर्षोष्टवर्षी वा धर्मे सीदति सत्वरः ॥

यानी, १२ वर्षीया कन्या को ३० वर्षीय मर्द और ८ वर्षीया कन्या को २४ वर्षीय मर्द से विवाहित करना धर्मसंगत है। यानी, वर्तमान कानूनों की दृष्टि से जो बलात्कार है, उस की खुलेआम प्रेरणा हिन्दू-संस्कृति के संविधान कहे जाने वाले ‘मनुस्मृति’ ने दी है। कन्या की उम्र को हर हाल में छोटा रखने का का समर्थन ‘वसिष्ठस्मृति’(८-१),‘गौतमस्मृति’(४-१),‘याज्ञवल्क्य-स्मृति’(१-५२) ने भी किया है। आश्रम-व्यवस्था के शिथिल होने से धीरे-धीरे वर की भी आयु गिरी, जिस से ऐसी भी स्थितियाँ आने लगीं जिन में वर-कन्या की उम्र का भेद ज़्यादा न रह गया। तब,‘बालिका-वधू’ फ़िल्म और धारावाहिक की तरह उभयमुखी बाल-विवाह होने लगे। आज बड़ी संख्या में यह भी व्याप्त है। पर, इस में भी तो बच्ची अधिक पीड़ित होती है। कच्ची उम्र में दासता के संस्थान (विवाह) में भर्ती कर दी जाने से, ‘वधू’(घर की शोभा, रसोइया, प्रजनन-मशीन और समग्रतः घरेलू कैदी) के तमाम आरोपित मूल्यों-जिम्मेदारियों और उन में निहित अन्यायों को झेलती, बच्ची ही तो अधिक संत्रस्त होती है। उस का सब से भयंकर रूप होता है उस का असमय गर्भ से लद जाना। विशेषतः बच्चियों के लिए त्रासकारी---‘बाल-विवाह’ की इस कुरीति को संस्कृति के नाम पर ढोते रहने की अमानुषिक मूढ़ता इतनी आम रही है कि १८९२ ई. में महाराष्ट्र में जब उसे प्रतिबन्धित करने हेतु कानून लाया जा रहा था, तो उस का उग्र विरोध करने वाले पोंगापंथियों के नेता थे बाल गंगाधर तिलक।

बच्ची का अनमेल विवाह माने क्या ? उस का खेलना-कूदना,स्कूल जाना(यदि बाप-माँ ने भेजा है, तो) छुड़वा कर,उसे किसी लड़के(अक्सर बड़े-प्रौढ़ मर्द) की दासी बनाते हुए, चिर-परिचित माहौल से सदा-सदा के लिए काट कर, यौन-शोषण में डाल देने—यौन-रोग व गर्भ झेलने, बच्चे पालने तथा लद-फद कपड़ों व शृंगार को ढोते हुए घरेलू काम-काज करते रहने की अन्तहीन शोषण-चक्की के पाटों के बीच धीरे से रख देने का नाम है बाल-विवाह।

‘राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण’-१ (एन.एफ.एच.एस. - १) के अनुसार (२०-२४ वय-अन्तराल में विद्यमान) लड़कियों में से ५२.२% अठारह वर्ष के अन्दर ब्याह डाली गयी थीं । ‘एन.एफ.एच.एस.-२’ में यह आँकड़ा ५०% का था। हाल के सर्वेक्षण ‘एन.एफ.एच.एस.-३’ (२००५-०६ ई.) में यह आँकड़ा ४४.५%(शहरी २८.१%,ग्रामीण ५२.५%) है। शैक्षिक स्तर पर देखा जाए तो इन में अशिक्षित रहीं ७१.६% लड़कियाँ १८ वर्ष के भीतर किये गये विवाह की शिकार हैं । इसी तरह ८ वर्ष से कम अवधि तक शिक्षित हुईं ५५.१%, ८-९ साल तक पढ़ीं ३५.८% तथा १० साल या अधिक अवधि तक शिक्षित १२.८% लड़कियाँ ऐसी हैं; जो १८ साल से कम उम्र में ही ब्याही गयी हैं । २५-२९ वर्षीय लड़कों में से २९.३% (शहरी १६.७%, ग्रामीण ३६.५%) २१ वर्ष के भीतर ही ब्याह में गये दिखे। स्पष्टतः,‘एन.एफ.एच.एस.-३’ के अनुसार कम से कम आधी लड़कियाँ अपने से अधिक उम्र के लड़कों से ब्याही गयीं। ( एक तो इस सर्वे में लड़की को १८ तथा लड़कों को २१ वर्ष तक विवाहित देखने की अनमेल सोच काम कर ही रही है।)

‘यूनिसेफ’ ने १९८६-२००३ ई. के काल-खण्ड के अध्ययन से, २०-२४ वय-अन्तराल में आने वालीं उन लड़कियों का प्रतिशत में आँकड़ा पेश किया, जो १८ की उम्र तक ब्याह डाली गयी थीं—

भारत-४६ (शहरी २६, ग्रामीण ५४), पाकिस्तान-३२ (शहरी २१, ग्रामीण १५), श्रीलंका-१४ (शहरी १०, गामीण १५), नेपाल-५६ (शहरी ३८, ग्रामीण ५९), बांग्ला देश ६५ (शहरी ४८, ग्रामीण ७०), चांड-७१(शहरी ६५, ग्रामीण ७४), इण्डोनेशिया-२४ (शहरी १४, ग्रामीण ३५), द.अफ़्रिका-८(शहरी ५, ग्रामीण १२), सेंट्रल अफ़्रिकन रिपब्लिक-५७ (शहरी ५४, ग्रामीण ५९), मिस्र-२० (शहरी ११, ग्रामीण १४), माली-६५ (शहरी-४६, ग्रामीण-७४),घाना-३६ (शहरी २५, ग्रामीण ४२), मैक्सिको-२५ (शहरी ३१, ग्रामीण २१), सूडान-२७ (शहरी १९, ग्रामीण ३४), निगार-७७ (शहरी ४६, ग्रामीण ८६), यमन-४८(शहरी ४१, ग्रामीण ५२)।

बाल-विवाह से असमय गर्भ ढोने को मज़बूर बच्चियों का आँकड़ा यदि न देखें तो यह तस्वीर अधूरी रह जाती है। ‘विश्व बैंक’ की रिपोर्ट के अनुसार २००३ में १५-१९ वर्ष की २१% लड़कियाँ ‘माँ’ बनायी जा चुकी थीं। ‘एन.एफ.एच.एस.-३’ में यह आँकड़ा १६%(शहरी ८.७%,ग्रामीण १९) है, जो बिहार में २५%(ग्रामीण २७.६),उ.प्र.में१४.३%(ग्रामीण २७.६%),झारखण्ड में २७.५% (ग्रामीण ३२.७%) तथा उत्तरांचल में ६.२%(ग्रामीण ७.८%) है।

बाल विवाह और ऊपर से तमाम स्त्री-विरोधी मान्यताओं और व्यवस्थाओं की शिकार बनीं,कुपोषित हुईं लड़कियाँ जब प्रसव की नौबत तक पहुँचती हैं, तो बड़ी संख्या में वे मौत की भेंट चढ़ जाती हैं। उन के बच्चे भी मृत या बेहद कमजोर पैदा होते हैं। यदि बच्ची जनम जाती है, तो बेटे के भूखे इस समाज द्वारा उस की और उस बच्चीनुमा माँ की उपेक्षा शुरु हो जाती है। इस से वह और कमजोर हो जाती है। वह खुद कुपोषित है,तो उस के पास दूध कहाँ से बनेगा? दूध नहीं बना तो बच्ची को क्या पिलाएगी? वैसे दूध होने पर भी बच्ची सन्तान को कम ही समय तक स्तनपान कराने की छूट उसे समाज देता है,साथ ही बेटे की चाह में कुछ ही महीनों में पुनः गर्भ-धारण का दबाव उस पर डालता है। ऐसी स्थिति में ०-४ वर्ष की बच्चियों की मौत-दर ऊँची होती है। ‘एन.एस.एस.-१९८७’ के अनुसार प्रति हज़ार जीवित प्रसव पर इस उम्र की ३६.८ बच्चियाँ और ३३.६ बालक मर जाते हैं। ‘एन.एफ.एच.एस.-२’ के अनुसार प्रति हज़ार जीवित प्रसव पर, ०-५ वर्ष की उम्र के बीच में ही ९४.९ बच्चे मर जाते हैं, जिन में बच्चियाँ अधिक होती हैं। भारतीय बच्चियों में २५% अपना १५ वाँ जन्मदिन भी नहीं देख पाती हैं। इस तरह से प्रतिवर्ष लड़कों की अपेक्षा लड़कियाँ तीन लाख ज़्यादा मरती हैं।

इस समूची क्रूर व्यवस्था के परिणामस्वरूप माँ बनीं वे कमसिन लड़कियाँ यदि बच पाती हैं,तो उन की कंचन-काया मुर्दा-खण्डहर में असमय तब्दील हुई दिखाई देती है। जिन में महादेवी वर्मा,इन्दिरा गाँधी, किरण बेदी, कल्पना चावला, बछेन्द्री पाल, सुधा मूर्ति, पी.टी.उषा, सायना नेहवाल या ना जाने किस-किस की संभावना थी,पर वे ही बच्चा दर बच्चा जनते-पालते बन जाती हैं केवल घरेलू-बीमार प्रजनन-मशीन।

Tuesday, August 10, 2010

दिल्ली का बर्थडे और बिगड़ने की ख्वाहिश...

2005 था शायद....2005 ही था...5 अक्टूबर 2005...दिल्ली आए ज़्यादा समय नहीं गुज़रा था....नए-नए दोस्तों में दो-चार ‘अच्छे’ दोस्त बन गए थे...उन्हीं में से एक का जन्मदिन था...वो दिल्ली का ही रहनेवाला है.....मेरे कम ही दोस्त ऐसे हैं जिनके पिताओं ने दिल्ली में अपना घर बना लिया और यहीं के हैं....उनमें से एक था..उसके घर पर बर्थडे की पार्टी थी...हम भी आमंत्रित थे...मेरे लिए दिल्ली भी नई थी और किसी बर्थडे की पार्टी भी....अच्छा लग रहा था कि ‘दिल्ली’ के किसी दोस्त का बर्थडे है और वहां बुलाया गया हूं....हम दो-तीन दोस्त इकट्ठे घर पहुंचे तो देखा पार्टी शुरू नहीं हुई है....कुछ और दोस्त पहुंचे हुए हैं....तीन-चार लड़कियां भी थीं...मैं उन्हें जानता था...ज़्यादा तो नहीं, मगर पहचान भर दोस्ती थी....ये नहीं जानता था कि उनसे किसी एक ही पार्टी में मुलाकात होगी....घर में और कोई था नहीं.....दोस्त के मां-पिताजी शायद पुणे गए हुए थे....बस हम सात-आठ दोस्त ही थे और एक नौकर....
पार्टी शुरु हुई....दोस्तों में आपसी परिचय हुआ, थोड़ा हंसी-मज़ाक और फिर शराब परोसी गई...मैं पीता नहीं हूं, तो बाक़ी मुझे चौंककर देखने लगे...एक और दोस्त और नहीं पीता था...हम दोनों ने कोल्ड ड्रिंक पी और संतुष्ट रहे...फिर दो लड़कियों ने अपना गिफ्ट निकाला और उसे दिया....सबके सामने गिफ्ट खोलने को कहा गया....दोस्त ने खोला तो कांडम का डिब्बा था.....दस का पैक...मैंने कांडम पहली बार तभी देखा था, इतना नज़दीक से...थोडा संकोच हो रहा था मगर अचानक सबके सामने ‘भोला’ बनता तो बेवकूफी होती.....ऐसे बैठा रहा जैसे बडी नॉर्मल-सी बात हो मेरे लिए....हालांकि, कांडम को लेकर बहुत ज़्यादा सोचा नहीं था इससे पहले और ये तो बिल्कुल ही नहीं सोचा था कि दो लड़कियां एक दोस्त को कांडम भी गिफ्ट कर सकती हैं...फिर आपसी मज़ाक शुरू हुआ....दोस्त से कहा गया कि वो कांडम खोले और लगाकर दिखाए....फिर किसी तरह से ये सब टाला गया और हंसी-मज़ाक की वजहें बदलती रहीं...मेरे लिए ये सब बिल्कुल नया था...मैं अब तक बहुत असहज महसूस कर चुका था....इन सबके बीच शराब का नशा परवान पर था और औपचारिक हंसी-मज़ाक अब गाली-गलौज तक पहुंच चुका था....किसी दोस्त ने मुझसे भी दो-चार बातें कहीं जो मुझे अच्छी नहीं लगीं....उस रात किसी को वापस नहीं जाना था....खा-पीकर वहीं सो जाना था और सुबह अपने-अपने घर जाना था....ये मेरे पिछले पार्टी अनुभवों से अलग था...मुझे ये बर्दाश्त नहीं हुआ.....जब सब पी लिए और नींद में जाने लगे तो मैं ढाई बजे रात को नौकर से दरवाज़ा खुलवाकर उसके घर से निकल गया...एक और दोस्त भी साथ में था जिसने पी नहीं थी....हम जैसे-तैसे वापस अपने कमरे तक पहुंच गए और उस रात को भूलने की कोशिश करने लगे..उस रात को मैं न चाहते हुए भी बिगड़ गया था...
वो रात भूल भी चुका था कि अचानक पांच साल बाद फिर याद आ गई....9 अगस्त मेरा जन्मदिन होता है...8 अगस्त की रात से इतने फोन कॉल्स आते हैं कि बैटरी चार्ज में लगाकर ही बात करनी पड़ती है...एकाध गिफ्ट भी मिलते हैं...डायरी, पेन, किताबें, शर्ट, डियोड्रेंट वगैरह....इस बार दो कांडम मिले...ऑफिस के एक साथी ने दिया....बाद में कहा गया कि मज़ाक है....शुक्र है, मुझे कांडम खोलकर दिखाने और पहनने के लिए नहीं कहा गया था...इस बार ये मज़ाक बुरा नहीं लगा.....अच्छा लगा...शायद उम्र का असर हो....शायद दिल्ली के तोहफों की आदत लग गई हो....लाख प्रचार देख लें बिंदास बोल, मगर कांडम से शर्म जुड़ी हुई है....हाथ में कांडम लेकर बहुत अच्छा नहीं लगता....जन्मदिन के दिन भी नहीं....मज़ाक के तौर पर तो बिल्कुल भी नहीं...कांडम कोई मज़ाक की चीज़ तो है नहीं...शायद ये अहसास दिलाने की चीज़ है कि जन्मदिन बड़ा होने के लिए होते हैं...
खैर, जन्मदिन से जुड़ी कई यादें हैं....कांडम दिल्ली से जुड़ी हुई याद है...सबसे अलग.....जब स्कूल में था तो एक दोस्त ने जन्मदिन पर एक कैसेट गिफ्ट किया था....कुमार सानू की आवाज़ में किशोर कुमार के हिट गाने....कई दिनों तक संभाल कर रखा....पहला गाना था ‘समझौता ग़मों से कर लो, समझौता....’..फिर एक दिन वो कैसेट टूट गई.....मुझे बुरा लगा था..वो बुरा लगना याद है अब तक....वो गाना भी कभी भूल नहीं पाया....न ही वो लड़की जिसने कैसेट दी थी....उस लड़की से पूछूंगा, इस जन्मदिन पर याद क्यों नहीं किया.... क्या मुझे गिफ्ट नहीं दोगी इस बार....कैसेट न सही, कांडम ही सही....मज़ाक में ही....प्लीज़...दिल्ली के बर्थडे में बिगड़ना ज़रूरी-है....इस रात को चाहकर भी बिगड़ नहीं पाया.....


निखिल आनंद गिरि

Monday, August 09, 2010

मेरा नाम तरुण है याद रखियेगा

करीबन २ साल पहले जब मैं दिल्ली में अंध विद्यालय में गया था तब सोचा नहीं था कि दोबारा ऐसा मौका मिल पायेगा । पिछले सप्ताह अपनी कम्पनी के माध्यम से एक ऐसे संस्थान में जाने का मौका मिला जहाँ उन बच्चों को पढ़ाया जाता है जो बच्चे एक आम स्कूल में नहीं जा सकते। बच्चों के मानसिक विकास हेतु बनाया गया यह संस्थान है "रोटरी इंस्टीट्यूट फ़ॉर स्पेशल चिल्ड्रन"। इस स्कूल की स्थापना लगभग १४ वर्ष पूर्व हुई लेकिन गत वर्ष ही इसे Rotary Club द्वारा चलाया जाने लगा है।

मिलकर मनाएँ आज़ादी
बैठक पर आज़ादी का पर्व मनाने का मन हुआ है.....9 अगस्त से 15 अगस्त तक हम वैसे लेख आमंत्रित करते हैं जो देश की तस्वीर तय करें, आज़ाद देश की तस्वीर....सच्ची तस्वीर...ये लेख किसी भी मुद्दे पर हो सकता है.... आपबीती भी हो सकती है....किसी मोहल्ले, गांव, शहर या आदमी की कहानी भी हो सकती है जिसके लिए आज़ादी के मायने हमसे अलग हैं....कोई फोटो भी हो सकती है, जो इस मौके पर बांटी जा सके....वक्त ज़रा कम है, मगर आप हमारे साथ होंगे, ऐसा यकीन है... यह इस शृंखला की पहली पोस्ट है.....13 अगस्त तक आखिरी पोस्ट भेजें ताकि हमें भी पढ़ने का वक्त मिले...
संपादक
वहाँ जाकर पता चला कि वहाँ ४ से ४० वर्ष की आयु तक के बच्चे पढ़ते हैं। ४० साल के बच्चे!! सुबह दस से दोपहर दो बजे ये सभी बच्चे स्कूल में आते हैं। उन्हें बोलना सिखाया जाता है, उनके दिमाग के विकास के लिये तरह तरह के खेल-खिलाये जाते हैं। कुछ बच्चों को बोलने में तकलीफ़ थी तो किसी को सुनने में दिक्कत। हम १२-१५ लोग थे। हमने वहाँ बच्चों से बात की, उनके साथ वे पल बाँटे जिन्हें शायद वे और हम दोनों याद रखेंगे। वहाँ बच्चों के लिये संगीत का भी प्रबंध था। रंग दे बसंती के गीत पर जिस तरह से वो नाच रहे थे उस उत्साह से शायद हम न नाच पायें। मोहे मोहे तू रंग दे बसंती.. मुझे नहीं पता कि उन्हें इस गीत के मतलब पता हैं या नहीं, नहीं पता कि उन्हें स्वतंत्रता दिवस या आज़ादी का मायने पता हैं, पर इतना जरूर है कि वे सचमुच में आज़ाद हैं। आज़ाद हैं द्वेष से, आज़ाद हैं ईर्ष्या से, उन्हें परवाह नहीं है इस दुनिया की, तेज़ी से बढ़ते कम्पीटीशन की, वे मुक्त हैं, वे स्वतंत्र हैं।

मेरे एक साथी के मुताबिक ये लोग "Pure State" में हैं। इनका मन बेहद साफ़ है। हम जिस भी क्लास रूम में जाते वहाँ सभी बच्चे अपने आप ही खड़े हो जाते। कोई नमस्ते से हाथ जोड़ता दिखा तो कोई पैर छूने के लिये दौड़ा।

मदर टेरेसा का फ़ोटो दिखा जो दर्शाता है कि इन बच्चों को किस तरह के प्यार और ममता की जरूरत है।

स्कूल में ७-८ कमरे हैं। हर उम्र और मानसिक स्तर के आधार पर साठ बच्चों को बाँटा जाता है।


जानवर, फूलों और खेल-कूद के सामान की तस्वीरें दीवारों पर टँगी दिखाईं दी।


खेल-कूद की तस्वीर ने मुझे आकर्षित किया। दरअसल, मैं हैरान था कि जिस गरीब तबके से ये बच्चे यहाँ पढ़ने व सीखने आते हैं उनके लिये इस तस्वीर में रगबी, गोल्फ़ व बॉलिंग जैसे महँगे और अमीरों के खेल दर्शाये गये थे।

एक कमरे में हमने यह चित्र बना हुआ पाया।

"Lord's grace is enough for us"। भगवान की हम पर असीम कृपा है। यही वाक्य इन बच्चों को हिम्मत बँधाता होगा। अगर हर व्यक्ति यही सोचने लगेगा तो यह दुनिया कितनी खुशहाल हो जायेगी। लेकिन हम यह नहीं समझ सकते। इसकी समझ तो इन बच्चों को ही होगी। फिर कैसे हम "गर्व" से स्वयं को समझदार कहते हैं? झूठा गर्व!! झूठा अहम!!
ये संस्थान "Special Children" के लिये है। ये लोग स्पेशल हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। ये हमसे नहीं सीखते अपितु हम इनसे कुछ न कुछ जरूर सीख सकते हैं। इनकी दुनिया छोटी जरूर है पर बहुत "बड़ी" है। तरुण नाम के एक "बच्चे" ने शेर की मिमिकरी की। तरुण ने हमें अमिताभ बच्चन की तरह भी कर के दिखाया जैसा उन्होंने "पा" में किया था। चंद और तस्वीरें आप के लिये शायद आपके दिल और दिमाग पर वो छाप छोड़ जाये जिसे लेकर हम लोग वहाँ से वापिस लौट आये।






चलते-चलते दो वीडियो भी आपके लिये। एक में है तरूण और दूसरे में रंग दे बसंती पर झूमते ये बच्चे आज़ादी का जश्न मनाते हुए।





जाते हुए तरुण ने हम से कहा "मेरा नाम तरुण है याद रखियेगा"....याद रहेगा.....



--तपन शर्मा

Friday, August 06, 2010

हाँ जी हाँ, हम तो छिनाल हैं ही

पिछला हफ्ता छिनाल-प्रकरण का था। प्रेमचंद सहजवाला इस मुद्दे पर जितनी मुँह, उतनी बात लेकर आये थे। आज पढ़िए रंगकर्मी और कथाकार विभा रानी के विचार॰॰॰॰

लोग बहुत दुखी हैं। एक पुलिसवाले ने हम लेखिकाओं को छिनाल क्या कह दिया, दुनिया उसके ऊपर टूट पडी है। इनिस्टर-मिनिस्टर तक मुआमला खींच ले गए। अपने यहां भी ना। लोग सारी हद्द ही पार कर देते हैं। भला बताइये कि जब हम बंद कमरे में किसी को गलियाते हैं, तब सोचते हैं कि हम क्या कर रहे हैं?

अपने शास्त्रों में तो कहा ही गया है कि मन और आत्मा को शुद्ध रखो. इसका सबसे सरलतम उपाय है अपने मन की बात उजागर कर दो, मन को शान्ति मिल जाएगी. सो पुलिसवाले ने कर दिया. वह डंडे के बल पर भी यह कर सकता था. आखिर रुचिका भी तो लडकी थी ना.
अब अपने विभूति भाई स्वनाम धन्य हैं. अपने कुल खान्दान के विभूति होंगे, अपनी अर्धांगिनी के नारायण होंगे, अपनी पुलिसिया रोब से कभी कभार उतर कर कुछ कुछ राय भी दे देते होंगे. अब इसी में एक राय दे दी कि हम “छिनाल” हैं तो क्या हो गया भाई? कोई पहाड टूट गया कि ज्वालामुखी फट पडी.
छम्मकछल्लो तो खुश है कि उन्होंने इस बहाने से अपनी पहचान भी करा दी. नही समझे? भई, गौर करने की बात है कि हमलोगों को छिनाल या वेश्या या रंडी कौन बनाता है? हमसे खेलने के लिए, हमसे हमारे तथाकथित मदमाते सौंदर्य और देह का लुत्फ उठाने के लिए, हम पर तथाकथित जान निछावर करने के लिए हमारे पास क्या किसी गांव घर से कोई लडकी या औरत आती है? वे सब ही तो बनाते हैं हमें छिनाल या रंडी. तो अपने इस सृजनकारी ब्रह्मा के स्वरूप को उन्होंने खुद ही ज़ाहिर किया है भाई? पुलिसवाले आदमी हैं, इसलिए कलेजे में इतना दम भी है कि इसे बता दिया. वरना अपने स्वनाम धन्य लेखक लोग तो कहते -कहते और करते- करते स्वर्ग सिधार गए कि “भई, दारू और रात साढे नौ बजे के बाद मुझे औरतों की चड्ढियां छोडकर और कुछ नहीं दिखाई देता." इतने ही स्वनाम धन्य लेखकों की ही अगली कडी हैं अपने विभूति भाई.
इतना ही नहीं, अपने लेखकों की जमात जब एक दूसरे से मिलती है तो खास पलों में खास तरीके से टिहकारी-पिहकारी ली जाती है, “क्यों? केवल लिखते ही रहे और छापते ही रहे कि किसी को भोगा भी? और साले, भोगोगे ही नहीं तो भोगा हुआ यथार्थ कहां से लिख पाओगे?”
मूढमति छम्मकछल्लो को इसके बाद ही पता चल सका कि भोगे हुए यथार्थ की हक़ीक़त क्या है? वह तो अपने लेखन की धुन में सारा आकाश ही अपने हवाले कर बैठी थी और मान बैठी थी कि भोगा हुआ यथार्थ लिखने के लिए स्थितियों को भोगने की नहीं, उसे सम्वेदना के स्तर पर जीने की ज़रूरत है. वह तर्क पर तर्क देती रहती थी कि भला बताइये, कि कातिल पर लिखने के लिए किसी का कत्ल करना ज़रूरी है? बलात्कृता पर लिखने के लिए क्या खुद ही बलात्कार की यातना से गुजर आएं? छम्मकछल्लो ने अपनी कायरता में इन लोगों से सवाल नहीं किए. अब समझ में आया कि नहीं जी नहीं, पहले अपना बलात्कार करवाइये, फिर उस पर लिखिए और फिर देखिए, भोगे हुए यथार्थ के दर्द की सिसकी में उनकी सिसकारी भरती आवाज़! आह! ओह!
छम्मकछल्लो तो बहुत खुश है कि पुलिस के नाम को उन्होंने और भी उजागर कर दिया. छम्मकछल्लो जब भी पुलिस पर और उसकी व्यवस्था पर विश्वास करने की कोशिश करती है, तभी उसके साथ ऐसा-वैसा कुछ हो जाता है. छम्मकछल्लो के एक फूफा ससुर हैं. दारोगा थे. अब सेवानिवृत्त हैं, कई सालों से. वे कहते थे कि रेप करनेवालों के तो सबसे पहले लिंग ही काट देने चाहिये, फिर आगे कोई कार्रवाई होनी चाहिये.” छम्मकछल्लो के एक औए रिश्तेदार आई जी हैं. वे कहते हैं कि बलात्कार से घृणित कर्म तो और कोई दूसरा हो ही नहीं सकता. छम्मकछल्लो के कुछ मित्र हैं जेल अधीक्षक. वे सब भी कहते हैं कि हमें सोच कर हैरानी होती है कि लोग कैसे ऐसा गर्हित कर्म कर जाते हैं. वे बताते हैं कि जेल में जब इसका आरोपी आता है तो सबसे पहले तो अंदर के दूसरे ही कैदी उसकी खूब ठुकाई कर देते हैं. कोई भी उससे बात नहीं करता. रेप के अक्यूज्ड को दूसरे कैदी भी अच्छी नज़रों से नहीं देखते.” छम्मकछल्लो ने जब रेप पर एक लेख लिखा था तो एक सह्र्दय पाठक ने बडे ठसक के साथ उससे पूछा था, “आप जो ऐसे लिखती हैं तो क्या आपका कभी बलात्कार हुआ है?” और अगर नहीं हुआ है तो कैसे लिख सकती हैं आप इस पर?” मतलब कि फिर से वही भोगा हुआ यथार्थ.
अब छम्मकछल्लो सगर्व कह सकती है कि हां जी हां, उसके साथ बलात्कार हुआ है. भाई लोग उसे लेखिका मानें या न मानें वह तो अपने आपको मानती ही है. वह यह भी मानती है कि जिस तरह से घरेलू हिंसा दिखाने के लिए शरीर पर जले, कटे या सिगरेट के दाग के निशान ज़रूरी नहीं, उसी तरह बलात्कार करने के लिए किसी के शरीर पर जबरन काबू करना जरूरी नही. इस मानसिक बलात्कार से विभूति भाई ने तो एक साथ ही साठ हज़ार रानियों और आठ पटरानियों का सुख उठा लिया. भाई जी, हम आपके नतमस्तक हैं कि आपने अपने करतब से हम सबको इतना ऊंचा स्थान बख्श दिया. जहां तक बात चटखारे लेने की है तो जब स्वनाम धन्य लेखक भाई लोग सेक्स पर लिखते हैं तब क्या लोग चटखारे नहीं लेते? सेक्स को हम सबने अचार, पकौडे, मुरब्बे की तरह ही चटखारेदार, रसीला, मुंह में पानी ला देनेवाला बना दिया है तो सेक्स पर कोई भी लिखेगा, मज़े तो लेगा ही. सभी मंटो नहीं बन सकते कि उनके सेक्स प्रधान अफसाने बदन को झुरझुरा कर रख दे और आप एक पल को सेक्स को ही भूल जाएं या सेक्स से घृणा करने लग जाएं.
इसलिए हे इस धरती की लेखिकाओं, माफ कीजिए, हिंदी की लेखिकाओं, अब इन सब बातों पर हाय तोबा करना बंद कीजिए. अपने यहां वैसे भी एक कहावत है कि “हाथी चले बाज़ार, कुत्ते भूंके हज़ार.” तो बताइये कि उनके भूंकने के डर से क्या हाथी बाज़ार में निकलना बंद कर दे? हिंदी के, जी हां हिंदी के ये सडे गले, अपनी ही कुंठाओं और झूठे अहंकार में ग्रस्त ये लेखक लोग इस तरह की बातें करते रहेंगे, अपना तालिबानी रूप दिखाते रहेंगे. हर देश में, हर प्रदेश में, हर घर में फंदा तो हम औरतों पर ही कसा जाता है ना! इससे क्या फर्क़ पडता है कि आप लेखिका हैं. लेखिका से पहले आप औरत हैं महज औरत, इसलिए छुप छुप कर उनकी नीयत का निशाना बनते रहिये, उनके मौज की कथाओं को कहते सुनते रहिये. बस अपने बारे में बापू के तीन बंदरों की तरह ना बोलिए, ना सुनिए, ना कहिए. हां, उनकी बातों को शिरोधार्य करती रहिए. आखिरकार आप इस महान सीता सावित्रीवाले परम्परागत देश की है, जहां विष्णु और इंद्र जैसे देवतागण वृन्दा और अहल्या के साथ छल भी करते रहने के बावज़ूद पूजे जाते रहे हैं, पूजे जाते रहेंगे. आखिर अपनी एक गलत हरक़त से सदा के लिए बहिष्कृत थोडे ना हो जा सकते हैं? यह मर्दवादी समाज है, सो मर्दोंवाली प्रथा ही चलेगी. हमारे हिसाब से रहो, वरना छिनाल कहलाओ.

विभा रानी

क्या सरकार प्रायोजित बाबरी कांड-2 करीब है?

6 दिसम्बर, 1992 एक ऐसा दुर्भाग्यशाली दिन जब धार्मिक विद्वेष का ऐसा गुबार उठा कि संख्या बल के समक्ष अयोध्या के विवादित धार्मिक स्थल को समाप्त होना पड़ा। विवादित ढॉचा ध्वस्त हो गया परन्तु अभी भी यक्ष प्रश्न है ऐसी स्थिति आयी कैसे? सर्वे भवन्तु सुखिनः को आधार मानने वाला, सर्व धर्म समभाव की सुखद कल्पना लिए, वसुधैव कुटुम्बकम् से गौरव की अनुभूति करने वाला, अहिंसा परमो धर्मा का मूल वैचारिक सहिष्णु कहलाने वाला हिन्दू समाज अचानक आक्रामक कैसे हो गया। गंगा-जमुनी संस्कृति का निर्मल जल रक्त रंजित किन परिस्थितियों में हुआ। आपसी एकता के माध्यम से गुलामी की जंजीर तोड़ने वाले एक दूसरे से क्यों भय खाने लगे, विचारणीय है। यदि हम अपने इतिहास पर गौर करे तो पायेगें कि 1847 से 1857 के बीच नवाब वाजिद अली शाह ने अयोध्या के उक्त विवादित स्थल के झगड़े को समाप्त करने के लिए प्रयास किए उन्होने तीन सदस्यीय समिति का गठन किया जिसमें एक हिन्दू, एक मुसलमान तथा एक ईस्ट इण्डिया कम्पनी का सदस्य निष्पक्ष की भूमिका में था। जिस समिति ने उक्त स्थल के बारें में बताया ‘‘मीर बाकी ने किसी भवन की तोड़कर इसे बनवाया था क्योंकि इस पर साफ तौर पर लिखा है यह फरिश्तों के अवतरण का स्थल है। इसमें भवन का मलबा भी लगा है।’’ 1857 के समय अमीर अली तथा बहादुर शाह जफर ने फरमान जारी किया जिसके अनुसार ‘‘हिन्दुओं के खुदा रामचन्द्र जी की पैदाइश की जगह जो बाबरी मस्जिद बनी है वह हिन्दुओं को बाखुशी सौप दी जाये क्योंकि हिन्दु-मुसलमान नाइन्तफाकी की सबसे बड़ी जड़ यही है’’ सुल्तानपुर गजेटियर के पृष्ठ 36 पर कर्नल मार्टिन ने लिखा है अयोध्या की बाबरी मस्जिद को हिन्दुओं को (मुसलमानों द्वारा) वापस देने की खबर से हममें (अंग्रेजो में) घबराहट फैल गयी और यह लगने लगा कि हिन्दुस्तान से अंग्रेज खत्म हो जायेगे। 1857 की क्रान्ति असफल होने के बाद अंग्रेजो ने 18 मार्च, 1858 में कुबेर टीला में इमली के पेड़ पर अमीर अली तथा बाबा राम चरण दास को हजारों हिन्दुओं तथा मुसलमानो के समाने फांसी दे दी। इस सन्दर्भ में मार्टिन लिखते है- जिसके बाद फैजाबाद में बलवाइयों की कमर टूट गयी और तमाम फैजाबाद जिले में हमारा रौब गालिब हो गया। इस प्रकार राम जन्म भूमि बाबरी मस्जिद विवाद समाप्त होते होते रह गया। कुछ राष्ट्रवादी मुस्लिम संगठनों ने भी सितम्बर 1992 में विवादित स्थल को 10 किमी0 दूर ले जाने का प्रस्ताव रखा परन्तु धर्मनिरपेक्ष कांग्रेसी सरकार तक इनकी आवाज नहीं पहुँची। मुस्लिम समाज के साहित्यकारों ने भी उक्त विवादित स्थल को भगवान राम का जन्म स्थान माना। अबुल फजल ने 1598 ई0 में अकबरनामा/आईना-ए-अकबरी में उस स्थान को राम का निवास स्थान बताया। 1856 में लखनऊ से प्रकाशित पुस्तक हदीका-ए-शहदा के पृष्ठ 4-7 के अनुसार मथुरा-बनारस-अवध की मस्जिदें, मंदिरों को तोड़कर बनायी गयी थी। 1878 ई. में हाजी मो0 हसन ने अपनी पुस्तक जिया-ए-अख्तर के पृष्ठ 38-39 में राजा रामचन्द्र के महल सराय और सीता की रसोई को तुड़वाना वर्णित है। 1885 ई. में मौलवी अब्दुल करीम की पुस्तक गुलगस्ते हालात-ए-अयोध्या अवध के अनुसार भी जन्म स्थान और सीता रसोई भवनों को तोड़कर उस स्थान पर बाबर बादशाह ने एक मस्जिद बनवायी। 1909 के अल्लामा मो0 जनमुलगानी खॉ रामपुरी की पुस्तक तारीखे-ए-अवध के अनुसार भी बाबर ने जन्म स्थान को मिस्मार करके मस्जिद बनवायी। 1785 ई. में आस्ट्रेलिया के जेसुइट पादरी जोसेफ टीफेनथेलर जो 1766 से 1771 तक अवध में रहे जिनकी पुस्तक के पृष्ठ 252-254 जिसका अनुवाद श्री शेर सिंह आई0ए0एस0 ने किया जिसमें भी एक किले जिसे राम कोट कहते थे गिरा तीन गुम्मदों वाली मस्जिद बनवाने का जिक्र है। इनसाइक्लोपीडिया ऑफ इण्डिया-सर्जन जनरल एडवर्ड वेलफेयर (1858) के अनुसार भी हिन्दुओं के कम से कम तीन पवित्र स्थलों पर मस्जिद बनवाने को जिक्र है जिसमें राम जन्म भूमि शामिल है। 1880 ई0 की फैजाबाद समझौता रिपोर्ट में भी बाबर द्वारा 1528 में राम जन्म भूमि पर जिसे तोड़ मस्जिद का निर्माण बताया गया। 1881 की फैजाबाद के इम्पीरियल गजट में भी मुसलमानों द्वारा तीन मस्जिदें बनवाये जाने का जिक्र है। जो जन्म स्थान, त्रेता ठाकुर तथा स्वर्ग द्वार है। इसी प्रकार फाइजाबाद (फैजाबाद) गजेटियर ग्रन्थ ग्प्ट एच0आर नेविल के अनुसार (1928 ई0) भी 1525 में बाबर का 7 दिन अयोध्या में रूक कर प्रचीन मंदिरों के ध्वस्तीकरण एवं मस्जिद के निर्माण का जिक्र है। जो पृष्ठ 155 पर अंकित है। 1902 के बाराबंकी जिला गजेटियर में एक रिपोर्ट एच0आर नेविल ने भी जन्म स्थान का जिक्र एवं विवाद की बात स्वीकार की।
इसी प्रकार मुस्लिम शायरों तथा विद्वानों ने विवादित स्थल पर राम मंदिर की बात स्वीकारी है। अबुल फजल मुगल काल के एक लेखक थे। जिन्होने आइना-ए-अकबरी में अवध (अयोध्या) को महापुरूष राम की निवास स्थान बताया। ‘‘औरंगजेब आलमगीर’’ में स्पष्ट (पृष्ठ संख्या 623-630) रूप से विस्तार को दिया गया काफिरों (हिन्दुओं) ने इस स्थान (राम जन्म भूमि) की मुक्ति के लिए 30 बार आक्रमण किये 1664 ई0 में एैसे ही किये गये आक्रमण में दस हजार हिन्दू हताहत हुए। सहीफा-ए-नसैर बहादुर शाही (1700-1800) यह पुस्तक औरंगजेब की पौत्री तथा बहादुर शाह जफर की पुत्री बंगारू अमातुज्ज-जोहर द्वारा लिखी है। जिसके अनुसार (पृष्ठ 4-7) मथुरा बनारस और अवध (अयोध्या) में काफिरों (हिन्दुओ) के इबादतगाह है जिन्हे वे गुनहगार व काफिर कन्हैया की पैदाइशखाना, सीता की रसोई व हनुमान की यादगार मानते हैं जिसके बारे में हिन्दू मानते है कि यह रामचन्द्र ने लंका पर फतह हासिल करने के बाद बनवाया था। इस्लाम की ताकत के आगे यह सब नेस्तनाबूद कर दिया गया और इन सब मुकामों पर मस्जिद तामीर कर दी गयी। बादशाहों को चाहिए कि वे मस्जिदों को जुमे की नमाज से महरूम न रखे, बल्कि यह लाज़मी कर दिया जाय कि वहॉ बुतों की इबादत न हो, शंख की आवाज मुसलमानों के कानों में न पहुचे। बाबरी मस्जिद का विवरण पुस्तक के नवे अध्याय में जिसका शीर्षक ‘‘वाजिद अली और उनका अहद’’ में लिखा है- पहले वक्तो के सुल्तानों ने इस्लाम की बेहतरी के लिए और कुफ्र को दबाने के लिए काम किये। इस तरह फैजाबाद और अवध (अयोध्या) को भी कुफ्र से छुटकारा दिलाया गया। अवध में एक बहुत बड़ी इबादत गाह थी और राम के वालिद की राजधानी थी जहॉ एक बड़ा सा मन्दिर बना हुआ था। वहॉ एक मजिस्द तामीर करा दी गयी। जन्म स्थान का मंदिर राम की पैदाइशगाह थी जिसके बराबर में सीता की रसोई थी। सीता राम की बीबी का नाम था। उसी जगह पर बाबर बादशाह ने मूसा आसिकान की निगहबानी में एक सर बुलन्द मस्जिद तामीर करायी। वह मस्जिद आज भी सीता पाक (सीता की रसोई) के नाम से जानी जाती है।
न्यायिक व्यवस्था के अनुसार भी सन् 1885 में फैजाबाद जिले के न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश कर्नल चेमियर ने एक नागरिक अपील संख्या 27 में कहा यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मस्जिद का निर्माण हिन्दुओं के एक पवित्र स्थल पर भवन तोड़कर किया गया है चूंकि यह घटना 356 वर्ष पूर्व की है इसलिए अब इसमें कुछ करना कठिन है। अयोध्या के उक्त विवादित स्थल के मालिकाना हक को लेकर पिछले 60 वर्षों से चल रही सुनवाई लखनऊ उच्च न्यायालय में 26 जुलाई को पूरी हो गयी। जिसका कि फैसला मध्य सितम्बर में आने की पूरी सम्भावना है। इस सन्दर्भ में उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एस.यू. खान, न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल तथा न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा की विशेष पीठ ने 27 जुलाई, 2010 को दोनो पक्षों के अधिवक्ताओं को सिविल संहिता प्रक्रिया की धारा-89 के तहत बुलाकर समाधान के विषय पर बातचीत की परन्तु दुर्भाग्यवश सार्थक हल नहीं निकला। उक्त पीठ ने दोनो पक्षों से विवाद के हल के सन्दर्भ में प्रयास जारी रखने को कहा तथा कहा यदि उस विषय पर कोई सार्थक सम्भावना दिखती है तो विशेष कार्याधिकारी को सूचित करें। यदि उच्च न्यायालय का उक्त प्रयास सफल होता है तो बहुत शुभ, नहीं तो हिन्दू तथा मुसलमान दोनो वर्गों को चाहिए मध्य सितम्बर में उक्त विवाद के सन्दर्भ में न्यायलय द्वारा यदि कोई निर्णय आता है तो उसका सम्मान करें।
इस बात को कोई नकार नहीं सकता लगभग ढाई हजार वर्षों से विदेशी भारत को लूटते और तोड़ते-फोड़ते रहे उनमें से बाबर भी एक था। जिसने भारत वर्ष में आतंक पैदा किया एवं उसे लूटा तथा तोडा। उक्त विवाद के समाधान हेतु देश के अनेक प्रधानमंत्रियों ने प्रयत्न भी किये लेकिन उनमें सत्य स्वीकार करने की क्षमता न होने के कारण समाधान पर न पहुँच सके। पूर्व प्रधानमंत्री चन्द्रशेखर ने तो व्यवस्थित वार्ताओं के द्वारा वास्तव में समाधान का प्रयास करना चाहा परन्तु कुछ मजहबी हठधर्मियों के असहयोग के चलते नतीजे पर न पहुँच सके। 1936 के बाद से उक्त स्थल पर नमाज अदा नही की गयी जिसे कोई अस्वीकार नहीं कर सकता। शरीयत के अनुसार भी उक्त स्थल मस्जिद नहीं है लेकिन तथाकथित सेकुलरवादियों ने हमेशा उक्त स्थल पर मंदिर होने के साक्ष्य हिन्दुओं से ही मांगे। सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है आने वाली पीढ़ी को हमारा धर्मनिरपेक्ष वर्ग क्या देना चाहता है। झूठा इतिहास या भ्रम की स्थिति झूठ में प्रत्यारोपित राष्ट्र या बिखरी संस्कृति। न्यायालय के आदेश से हुई खुदाई में प्राप्त साक्ष्य भी उन सत्ता लोलुप शासक वर्ग का मुँह खुलवाने के लिए प्रर्याप्त नहीं है या उन्हे भय है अल्पसंख्यक वर्ग के मतों का जो उनकी सत्ता छीन सकती है। समाधान को लटकाता एवं विकल्प की तलाश में भटकता उक्त वर्ग ही मुख्य जिम्मेदार है उस 6 दिसम्बर, 1992 की दुर्भाग्यशाली घटना का जिसने कभी भी जिम्मेदारी से निर्णायक बात कहने का साहस नही किया या। उन्हे इन्तजार है दूसरे भूचाल का जब लाशों के ढेर पर बैठ वे सत्ता का बंदरबॉट कर सके।

राघवेंद्र सिंह

Wednesday, August 04, 2010

टीवी धारावाहिकों की नई उम्मीद 'चांद छुपा बादल में'

लगभग तीस वर्ष पहले दूरदर्शन पर एक से बढ़ कर एक टेली-फिल्में आती थी जिनमें रमेश बक्षी या अन्य अच्छे साहित्यकारों की कहानियों पर भी उच्च-स्तरीय टेली-फिल्में देखने को मिलती थी. राजीव गाँधी के कार्यकाल में मुस्लिम जीवन पर आधारित एक से बढ़ कर एक टेली-फिल्में आई और मुझ जैसे अनेक साहित्य-प्रेमियों के लिए एक क्रेज़ सी बन गयी थी. जब अचानक धारावाहिक शुरू हुए तो देश की जनता के लिए यह एक नई बात हो गई. मनोहर श्याम जोशी का धारावाहिक ‘बुनियाद’ भला कौन भूल सकता है? उस में आज़ादी के समय से लेकर उस दशक तक तीन पीढ़ियों का सशक्त लेखा-जोखा था, आज़ादी के बाद मूल्यों का ह्रास और एक मास्टरजी जी की जिंदगी व उस की पत्नी लाजो जी की जिंदगी... यह सब सचमुच एक nostalgia बन कर रह गया है. तब तो धारावाहिकों पर 13 के पहाड़े का बंधन था कि धारावाहिक 13, 26, 39 आदि एपीसोड में खत्म हो जाए. रामायण-महाभारत धारावाहिक आते ही जनता में तहलका सा मच गया. लोग रास्ते में अपना ट्रक या कोई भी वाहन रोक कर किसी भी रेस्तरां में रामायण व महाभारत देखने बैठ जाते थे. एक जूनून सा था जिस के पीछे बुद्धिजीवियों ने सवाल भी उठाए कि केवल उत्तर प्रदेश वाली रामायण ही क्यों दिखाई जाए. देश में रामायण के 300 रूप हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व शोध कार्य या जनता को यह सूचित करने के लिए कि रामायण के इतने रूप हैं, यह ज़रूरी क्यों नहीं समझा जा रहा कि देश को बौद्ध रामायण भी दिखाई जाए जिसमें राम सीता भाई-बहन हैं. ताकि जनता सभी रूप देख कर स्वयं रामायण पर अपनी धारणा बनाए. पर नहीं, जो बौद्धिक रूप से सही था, उसे राजनीतिक रूप से गलत माना गया और धारावाहिक लोकप्रियता की ओर मुड चले. पर लोकप्रियता व हल्केपन ने ही धारावाहिकों की जान ले ली. एक से बढ़ कर एक स्टंट धारावाहिक बनने लगे. एकता कपूर का धारावाहिक ‘क्यों कि सास भी कभी बहू थी’ शुरू में बहुत सुन्दर तरीके से चला. पर इन सभी धारावाहिकों को उनकी अंत-हीनता मार गई. जब अच्छा मसाला खत्म हो जाए तब जो मर्ज़ी आए परोसते जाओ. अंत में तो ‘क्यों कि सास भी कभी बहू थी’ धारावाहिक बीवियों से उनके मियाँ छीनने वाला धारावाहिक बन गया. पूरे धारावाहिक में तुलसी वीरानी के पति मैहर को तीन औरतें हड़प गई – मंदिरा, मीरा और जूही ठकराल. गंगा से उस के पति साहिल को भी तृप्ति ने छीन लिया. जब मियां छीनने से एकता कपूर उकता गई तो वीरानी परिवार में एक बीबी छीनने वाला भी आ गया जिसने गंगा पर डोरे डाले. अंत-हीनता का दूसरा नाम धारावाहिकों के लिए दिशाहीनता हो गया. लिखने का मसाला खत्म, अब किया किया जाए. जहाँ मर्ज़ी खींचते चले जाओ. हाल ही में जो धारावाहिक इसी मजबूरी के शिकार हुए उन में ‘ना आना इस देस मेरी लाडो’ ‘उतरन’ आदि हैं तथा ‘राजा की आएगी बारात’ में तो एक से बढ़ कर एक स्टंट होने लगे. जिन्हें हम साहित्य कहते हैं वैसा ‘बालिका वधु’ था पर वह भी अपने मूल उद्देश्य से भटक गया है. हाल ही में स्टार प्लस पर एक नया धारावाहिक शुरू हुआ है : ‘चाँद छुपा बादल में’ जिसे देख एक बार फिर उम्मीद जागी है कि कुछ अच्छा देखने को मिलेगा. धारावाहिक की निवेदिता (नेहा सरगम) की शख्सियत बहुत आकर्षक है. वह बहुत दबी दबी सी रहती है व कहीं भी आने जाने से घबरा जाती है. भाई को पढ़ने ज़्यादा अलग अलग गाड़ियों का बड़ा शौक है. धारावाहिक मूलतः दो परिवारों के बीच का है जिन का अतीत थोड़ा अप्रिय है, इसीलिए निवेदिता के पिता केशव बहुत डिप्रेशन में रहते हैं, बहुत चिड़चिड़े व गुस्से वाले भी हैं. पर जब उस दूसरे परिवार का युवक सिद्धार्थ (अभिषेक तिवारी) इस घर में आना शुरू कर देता है तो निवेदिता उर्फ निवी का बचपन पुनर्जीवित हो उठता है. बहुत साल बाद एक बार फिर नज़दीक आए परिवारों में प्रेम और पिछली कटुता के बीच एक आकर्षक सा संघर्ष शुरू हो जाता है. इस के प्रथम कुछ अंकों में प्रसिद्ध गीतकार जावेद अख्तर का आ कर प्रस्तुतीकरण देना बहुत आकर्षक लगा. अब यह कहानी पिछली कटुता व वर्तमान प्रेम-सम्बन्ध के बीच बहुत सुन्दर तरीके से आगे बढ़ रही है जिस के कारण एक बार फिर साहित्य-प्रेमी दर्शकों के मन में एक उत्कृष्ट धारावाहिक देखने की उमीदें बंधती हैं. यदि प्रारंभ को देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि धारावाहिक की चाल धीमी है. इस में अभी तक एक प्रसंग बहुत रोचक बन गया जिसमें निवेदिता का पिता केशव बहुत गुस्से में अपने बेटे को चेतावनी देता है कि अगर परीक्षा में 90% से कम अंक आएं तो घर में आने की कोई ज़रूरत नहीं. और बेटा परीक्षा के परिणाम वाले दिन घर आता ही नहीं, गायब हो जाता है. निवेदिता सिद्धार्थ और निवेदिता की चचेरी बहन दिव्या उस खोए हुए भाई की खोज में लग जाते हैं. इस प्रसंग का फिल्माना दर्शकों को बाँध लेता है जिसमें 90% से केवल 1% कम अंक पाने वाला भाई यश एक पहाड़ी की चोटी पर बार-बार आत्महत्या की हिम्मत जुटाने की नाकाम कोशिश में वहीं पस्त सा बैठा मिलता है. धारावाहिक की शूटिंग शिमला में है पर इतनी मनोरम जगह के दृश्य इतने लुभावने नहीं दिखाए गए जितने होने चाहिए. सब के सब दृश्य व सेट एक घुटन से भरपूर से लगते हैं, और वह घुटन शायद दोनों परिवारों के बीच के कटु अतीत के कारण है क्योंकि सिद्धार्थ के पिता भीषण आग में फंस कर मर गए थे और सिद्धार्थ की दादी के मन में यह मनोवैज्ञानिक प्रभाव बैठ गया है कि उस मौत के जिम्मेदार केशव हैं. अभी तक की सभी सदस्यों की मुलाकातों में केवल अतीत की ही बातें अधिक हो रही है, वर्तमान से यह धारावाहिक अभी जुड़ा नहीं है. अतीत भी फ्लैश-बैक में कम और बातों में अधिक आता है. अभिनय के स्तर पर भी यह कटु बात कहनी पड़ती है कि निवेदिता के परिवार के सभी सदस्य दिव्या, दिव्या की माँ, निवेदिता का भाई, पिता ये सब के सब अभिनेता अपना काम बहुत प्रभावशाली तरीके से कर रहे हैं. पर उधर सिद्धार्थ के अतिरिक्त कोई भी अभिनेता अधिक प्रभाव नहीं छोड़ पाता जैसे सिद्धार्थ के दादा दादी, माँ, व दूसरे सदस्य अपने अभिनय व शख्सियत द्वारा बाँध नहीं पाते. किसी किसी परिस्थिति में पात्रों की भरमार सी भी लगती है. पर कुल मिला कर एक से अधिक एक घटिया धारावाहिकों के माहौल में एक क्षमताशील धारावाहिक प्रारंभ हुआ है जो स्टार प्लस पर सोमवार से शुक्रवार रात 8 बजे आता है (वही एपीसोड दोबारा रात 11 व 1230 बजे तथा अगले दिन 3 बजे आता है). इस से हम एक बार फिर एक धारावाहिक में उम्मीद रख सकते हैं कि वह अनावश्यक लंबाई का शिकार हो कर भटकेगा नहीं और न ही किसी स्टंटबाज़ी में फंसेगा.

प्रेमचंद सहजवाला

Monday, August 02, 2010

कुछ मर्दों की निगाह में लेखिकाएं 'छिनार’ हो गई हैं?

बैठक के लिए ये बातचीत प्रेमचंद सहजवाला ने की है...विभूतिनारायण राय के विवादस्पद बयान के बाद उन्होंने कुछ साहित्य से जुड़ी कुछ हस्तियों से इस विषय पर प्रतिक्रिया मांगी है...ये लेख उन्हीं प्रतिक्रियाओं का निचोड़ है साथ ही अंग्रेज़ी दैनिक इंडियन एक्सप्रेस का संपादकीय भी लगा रहे हैं जो इसी मुद्दे पर छपा है



‘लेखिकाओं में होड़ लगी है यह साबित करने की कि उनसे बड़ी छिनाल कोई नहीं है’ यह बयान है अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय का जो उन्होंने ‘ज्ञानोदय’ पत्रिका को दिए गए एक साक्षात्कार में कहा. उनकी इस बात पर साहित्य जगत में तो मिली-जुली प्रतिक्रिया हुई ही है, पर मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल को इस बात पर सर्वाधिक आक्रोश हुआ लगता है. कपिल सिब्बल ने तुरंत उस पत्रिका के अंक की मांग की जिसमें यह साक्षात्कार छपा है और कहा है कि यह सब अस्वीकार्य बात है. यह महिलाओं का अपमान है और विशेषकर लेखिका वर्ग का भी. कपिल सिब्बल ने कहा है कि इतने बड़े ओहदे पर बैठे किसी व्यक्ति की ओर से यह बयान उस व्यक्ति की मानसिक बुनावट की ओर संकेत करता है जो पूर्णतः उस ओहदे की गरिमा के विरुद्ध है’.

आज प्रातः के समाचार-पत्रों में यह खबर पढ़ कर मेरा मन भी स्वाभाविक रूप से विचलित हो गया और मैंने सब से पहले स्वयं विभूतिनारायण राय जी को फोन मिलाया. वे उस समय दिल्ली में थे और मैंने जब उन से इस विषय पर विचार जानने चाहे तो उन्होंने कहा कि उन्होंने दरअसल ‘बेवफाई’ शब्द का उपयोग किया है. मंत्री महोदय ने ‘छिनाल’ शब्द का अर्थ वेश्या लगाया है जो कि गलत है. उन्होंने यह भी कहा कि जहाँ वे रहते हैं वहां तो यह शब्द पुरुषों के लिए इस्तेमाल होता है. परन्तु मुझे लगा कि इस विषय पर लेखक जगत से भी प्रतिक्रिया जानना ज़रूरी है क्यों कि उक्त बयान से तात्पर्य अगर ‘वेश्या’ से नहीं भी है और ‘बेवफाई’ से है तो भी क्या यह मान लिया जाए कि लेखिकाएं ‘छिनाल’ या ‘बेवफा’ होती हैं? इस विषय पर पहली और गुस्से भरी प्रतिक्रिया मुझे सुप्रसिद्ध कवयित्री पुष्पा राही की मिली जिन्होंने फोन पर बात सुनते ही कहा कि लेखिकाएं क्या करती हैं, इसे ले कर विभूति नारायण राय क्यों परेशान हैं? और फिर ‘बेवफाई’ का संबंध तो हमारे समाज में पुरुषों से अधिक है. फिर इतनी बड़ी कुर्सी पर बैठ कर क्या लेखिकाओं के लिए ऐसे शब्दों का उपयोग अच्छा लगता है? पुष्पा जी खासी गुस्से में थी और बोली कि उन्हें तो अपने शब्दों के लिए माफ़ी मांगनी चाहिए. मेरे यह बताने पर कि विभूति नारायण राय ने कहा है कि इस शब्द का सर्वाधिक उपयोग तो प्रेमचंद ने किया है, पुष्पा जी ने कहा कि आप (विभूति नारायण राय) कोई प्रेमचंद तो नहीं हैं? वे पहले प्रेमचंद का साहित्य तो पढ़ें और समझें कि प्रेमचंद ने किस सन्दर्भ में इस शब्द का उपयोग किया है. लेकिन इस विषय पर जब मेरी बात कवयित्री अर्चना त्रिपाठी से हुई तब उन्होंने ज़ोर शोर से विभूति नारायण राय का पक्ष लेते हुए कहा कि रमणिका गुप्ता जैसी कुछ लेखिकाओं ने तो अपनी आत्मकथाओं में यह तक लिखा है कि उन्होंने अपने जीवन में कितने लड़कों को बिगाड़ा है, इस का कुछ हिसाब तक उनके पास नहीं है. रमणिका ने तो यह भी लिखा है कि मेरा जो बेटा है वह किसी कामरेड का बेटा है. उन्होंने मैत्रेयी पुष्पा का सन्दर्भ देते हुए कहा कि अपने उपन्यासों में वे नारी-पुरुष सम्भोग का इतना खुला वर्णन करती हैं कि जिस की कोई ज़रूरत तक नहीं. मृदुला गर्ग के उपन्यास ‘चित्तकोबरा’ पर भी उनकी वही प्रतिक्रिया है कि कुछ पन्नों में ‘काश मैं एक उरोज होती...’ जैसे अनुच्छेदों की ज़रूरत तक नहीं. अर्चना त्रिपाठी ने कहा कि जो कुछ विभूति नारायण राय ने कहा है वही बात डॉ. धर्मवीर अपनी पुस्तक ‘तीन द्विज हिंदू स्त्री-लिंगों का चिंतन’ में कह चुके हैं. इस पुस्तक में उन्होंने मैत्रेयी पुष्पा, प्रभा खेतान व रमणिका गुप्ता के लेखन पर प्रश्न उठाते हुए कहा है कि क्या लेखिकाएं सेक्स के खुले वर्णन के अलावा लिख ही नहीं सकती? और क्या एकनिष्ठ्त्ता व चरित्र की समाज में कोई महत्ता ही नहीं रह गई है?

प्रसिद्ध कवि लक्ष्मीशंकर वाजपेयी जी ने भी यह तो माना कहा कि जो कुछ विभूति नारायण राय ने कहा है उस में कुछ हद तक सच्चाई है, परन्तु विभूति नारायण राय जी को अपनी बात कहते समय भाषा की गरिमा का भी ख्याल रखना चाहिए था. परन्तु पुरुष साहित्यकारों में से अशोक चक्रधर जी ने फोन पर बहुत कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि महिलाएं हमारे समाज का बेहद सम्मानजनक् हिस्सा हैं और इतनी ज़िम्मेदार कुर्सी पर बैठ कर ऐसी भाषा उपयोग करने के वे घोर विरोधी हैं.

इस विषय पर जबकि इतना बड़ा बवाल खड़ा होने पर गंगाप्रसाद विमल जी को सर्वाधिक आक्रोश है और उन्होंने कहा कि आज लेखक के लिए स्वतंत्रता से कुछ भी कहने का कोई ‘स्पेस’ नहीं बचा है. विभूति नारायण राय ने यह बात अश्लीलता के सन्दर्भ में कही है और इस पर इतना बड़ा विवाद खडा ही नहीं होना चाहिए था. उन्होंने ‘छिनाल’ शब्द का अनुवाद ‘वेश्या’ करने वाले पत्रकारों को आड़े हाथों लेते हुए कहा कि ऐसे पत्रकार जिनमें अनुवाद करने तक की तमीज़ नहीं है, उन के मालिकों को चाहिए कि उन्हें नौकरी से निकाल बाहर करें. उन्होंने स्पष्ट कहा कि आज जितना खुलापन लेखन में आया है वह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कारण ही सम्भव हुआ है जबकि कुछ शक्तियां इस आज़ादी को हड़प लेना चाहती हैं.

सुपरिचित कवि कथाकार रामजी यादव लेकिन विभूति नारायण के प्रति ही बेहद आक्रोश रखते हैं. उनके अनुसार वे हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति हैं और उस पद पर बैठ कर उनका यह वक्तव्य बेहद गैर-ज़िम्मेदाराना सा है जो यह साबित करता है कि उनका मानसिक संतुलन बिगड़ चुका है. उन्होंने कहा कि विभूति नारायण राय को तुरंत अपने पद से निकाल देना चाहिए. रामजी यादव पूछते हैं कि जो लेखिकाएं स्वयं विभूति नारायण राय के निकट हैं उनके विषय में ऐसी बात उन्होंने क्यों नहीं कही. जैसे ममता कालिया जैसी दूसरे स्तर की लेखिका को विभूति नारायण राय मैत्रेयी पुष्पा जैसी बड़ी लेखिकाओं से भी बड़ी साबित करने में लगे हैं.

इस विषय पर कई अन्य साहित्यकारों विशेषकर लेखिकाओं से बात करने का मन था पर सब से संपर्क स्थापित नहीं हो सका. मेरी अन्तिम बातचीत इस सन्दर्भ में सुविख्यात कहानीकार उपन्यासकार मृदुला गर्ग से हुई जिनका उपन्यास ‘चित्तकोबरा’ अपने समय का सर्वाधिक विवादस्पद उपन्यास रहा, हालांकि मैं व्यक्तिगत रूप से यही कहूँगा कि ‘चित्तकोबरा’ की मूल आत्मा उस कृति के उत्कृष्ट होने की ओर संकेत करती है. परन्तु विरोधियों की चेतना उस के कुछ पन्नों पर टिकी थी. मृदुला गर्ग जैनेन्द्र की साहित्यिक शिष्या हैं और जैनेन्द्र के उपन्यास ‘सुनीता’ पर भी जो बावेला खड़ा हुआ था उसे उनके परवर्ती साहित्यकारों ने व्यर्थ का विवाद माना और कहा कि नारी-पुरुष संबंधों का बेबाक व खुला वर्णन आपत्तिजनक है ही नहीं. परन्तु मृदुला गर्ग लेखक और लेखन के बीच बहुत सुलझे हुए तरीके से फर्क करती हुई बोली कि किसी के भी लेखन यथा ‘चित्तकोबरा’ पर अपने विचार लिखने का अधिकार सभी को है. परन्तु विभूति नारायण के सन्दर्भ में उनका कहना स्पष्ट है कि जो उन्होंने कहा है वह लेखिकाओं के बारे में कहा है, न कि लेखन के बारे में, जो गलत है. अपनी बात कहते हुए कि विभूतिनारायण राय को शब्दों की मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए. यह पूछे जाने पर कि क्या जैसा कपिल सिबल ने कहा है, विभूतिनारायण राय पर कार्रवाई होनी चाहिए, मृदुला जी ने कुछ कहने से इनकार कर दिया और कहा कि यह विषय तो स्वयं कपिल सिबल जी का है और वे इस विषय पर कुछ भी नहीं कहना चाहेंगी.

कुल मिला कर मेरे मन में यह जिज्ञासा हुई कि विभूति नारायण राय ने कोई बात किसी विशेष सन्दर्भ में कही, पर क्या उस से इतना बड़ा विवाद खड़ा होना उचित था? और कि क्या शब्दों का स्वतंत्र उपयोग कोई इतनी बड़ी बात हो सकती है कि एक मंत्री को चेतावनी देनी पड़े? इस पर मैं कोई अपना निष्कर्ष दूं, बेहतर कि यह लेख पढ़ने वाले स्वयं अपनी धारणा से अवगत कराएं.

प्रेमचंद सहजवाला

दिल्ली की बारिश और दीपाली की तस्वीरें....

दिल्ली में बारिश के मौसम में पानी इकट्ठा होने और कीचड की बातें यूँ तो आम बात है, लेकिन अगर ये आम बातें दिल्ली के पॉश इलाकों में भी नज़र आने लगे तो क्या कहने. मुख्यमंत्री पहले कहती हैं 'मानसून के लिए हम पहले से तैयार हैं, और जब मानसून दस्तक देता है तो कहती हैं हम माफ़ी चाहते हैं' या कह देती हैं कि 'प्लीज़ आप मुझसे ये बात मत पूछिए। हाल ही में जब उनसे पूछा गया कि गड्ढों की वजह से लोगों की मुश्किलें बढ़ गई हैं, तो वे कहने लगी-ये बात मत कीजिये आप मुझसे. खैर, शीला जी की तो ये आदत बन गई है, हर बात को टाल देना. तीन जुलाई को हुई बारिश के सिलसिले में लोगो की परेशानी को मानने से साफ़ इनकार करती हुई शीला जी कहती हैं कि अगर लोगों को परेशानी है तो आकर सरकार को बताएं, अब कोई उनसे पूछे, मैडम जी क्या आपके पास आंखें नहीं हैं, क्या आप न्यूज़ नहीं सुनती, या आप अपने घर से निकलती ही नहीं हैं, कि आपको कुछ नहीं पता. ये तो ऐसी बात लग रही है जैसे शीला जी तपस्या में लीन रहती हैं सारा दिन, कि उन्हें दिल्ली की हालत की जानकारी नहीं है.
दी गई तसवीरें है दिल्ली के साउथ एक्स मार्केट की, जहां पंद्रह मिनट की बारिश से ही इतना कीचड हो जाता है कि चलना मुश्किल हो जाता है, हम मज़ाक में कह देते हैं कि सड़क पर हलवा बिखरा है, लेकिन ये हँस कर उड़ा देने वाली बात नहीं है. थोड़ी सी देर में ही इतना पानी भर जाना कि गाड़ियाँ फंस जायें, वो भी मार्केट एरिया में, आखिर क्यूँ इस समस्या पर हमारी सरकार की नज़र नहीं पड़ती?

दीपाली सांगवान 'आब'

(दीपाली हिंदयुग्म की यूनिपाठिका रह चुकी हैं और कविता, कहानी सब विधाओं में पकड़ रखती हैं...तस्वीरों का भी शौक था और साउथ दिल्ली में अपनी नौकरी के लिए जा रही थीं तो बारिश को मोबाइल में कैद कर हमें भेज दिया... )