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राष्ट्र के तौर पर हमारे देश की जब पहचान नहीं थी तो कवायद हुई कि पहले राष्ट्र के तौर पर हम संगठित और परिभाषित हों...1857 की क्रांति के असफल हो जाने के पीछे बस यही वजह थी कि हम संगठित राष्ट्रवाद की परिभाषा से अलग एक लड़ाई लड़ रहे थे जहां कुंअर सिंह की लड़ाई अपनी जायदाद छिन जाने की वजह से थी, नाना साहब की लड़ाई बेदखल हो जाने की वजह से थी, तो झांसी की रानी की लड़ाई की अपनी वजहें थीं। एक व्यापक उद्देश्य की कमी और अपने निजी मामलों के चलते अंग्रेजों से लोहा ले रहे लोगों की लड़ाई की वजह से ही ये एक राष्ट्रीय क्रांति के तौर पर परिभाषित नहीं हो सका....लेकिन वहां से देश के बुद्धिजीवियों और नेताओं ने इसकी समीक्षा करते हुए पहले देश को राष्ट्रीय भावना से भरने की कोशिश की..ये लंबा दौर रहा जिसमें लोगों को व्यापक उद्देश्य के लिए लड़ाई लड़ने को तैयार किया गया...जब आजादी मिली तो राष्ट्रीय भावना चरम पर थी...फिर आजादी के 63 सालों के बाद क्या वो भावना और मजबूत हुई है या फिर एक बार फिर अपनी अपनी लड़ाई में फंसने की नौबत आ गई है...जाहिर तौर पर अब महंगाई से आपके घर में नमक नहीं खरीदे जाने को लेकर संसद में सिरफुटव्वल करने वाले लोगों को भूख, गरीबी और महंगाई डायन से तब तक कोई सरोकार नहीं है जब तक उन्हें इसका सियासी फायदा दिख ना जाए...घर में तकिया में मुंह छिपा के रो लेने को आजादी मान लें तो हैं आजाद, नहीं तो मुंहतक्की करनी पड़ेगी जनाब, आजादी महसूस करने के लिए। खैर फिर भी चश्मे का रंग बदलता है इसमें शक नहीं है मुझे। हम कभी देश में महंगाई डायन की बात करते हैं तो विश्व में बढ़ती अपनी ताकत को पहचान कर खुश भी होते हैं..फिर अंदरूनी हालात पर चर्चा करते हैं और फिर कभी निराश हो जाते हैं..ऐसे में आजादी के आइने में अगर युवाओं चेहरों पर झुर्रियां और जवान शरीर पर बेड़ियां दिखें तो यकीनन दुख होगा, अगर हमाम में सभी नंगे हैं बोलकर हम अपनी नंगई पर बेहया बन जाएं तो हम आजादी के सही मायने के हिस्सा नहीं हैं...लेकिन फिर भी इस नंगई के खिलाफ लड़ने वाले भी हैं..कुछ लड़ रहे हैं तो कुछ तैयार बैठे हैं इस लड़ाई का कंधा बनने के लिए...ऐसे लोग अंदरूनी तौर पर आजादी को खा रही ताकतों से खींचने की फिराक में देह लहूलुहान कर रहे हैं...इन लोगों की नजर और मदद से आजादी के सही मायने की तलाश चल रही है कहीं इसी मिट्टी पर जहां हम आजाद होने का जश्न मनाकर भी कभी कभार आजाद महसूस नहीं कर पाते। लेकिन वाकई हम आजाद हैं सिर्फ इस आजादी की बयार मजदूरों के देह से लेकर डायन बताकर जलील की जाने वाली महिलाओं तक और आत्महत्या कर रहे किसानों से लेकर भूख से मर रहे लोगों तक पहुंचने की देर है...कि जब वो अपना हक जान सकेंगे और भूख से मर जाने से बेहतर खड़ा होकर सवाल करना सीख लेंगे...कि जब किसी मीडिया की बपौती का हिस्सा नहीं होगा किसके न्याय की लड़ाई लड़नी है और किसकी नहीं...कि जब न्याय की भीख मांगने वाले हाथ उठेंगे हक की आवाज के साथ...फिर आजादी के मायने इक बार फिर वही होंगे जिसका सपना कभी देखा गया होगा..यकीनन हम आजाद हैं क्योंकि सपनों को टूटने ना देने की मुहिम पर लगे कुछ लोग जिंदा हैं और जगे हुए हैं..और जगाने की कोशिश कर रहे हैं दूसरों को जिनके मन पर मूर्छा लग गयी है...और यही आस काले चश्मे का रंग फिर बदल देती है और फिर उम्मीद और जीत का शीश लगा कर फिर महसूस होता है कि हां हम हैं आजाद, देश आजाद है, हमारे लोग आजाद हैं, लिहाजा मैं भी हूं आजाद
अमृत उपाध्याय
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5 बैठकबाजों का कहना है :
सुंदर आलेख!
जिस देश का प्रधानमंत्री कश्मीर की स्वायत्तता की बात करने पर मजबूर हो जाए। जिस देश का पूर्व मुख्यमंत्री एण्डरसन को छोडने के बाद भी कहे कि मैं होता तो ऐसा नहीं होता, जिस देश का कृषि मंत्री ही अपनी मिले चलाने के लिए मंहगाई लाद दे तो कैसे यह देश आजाद कहलाए? विवेकानन्द ने कहा था कि जब तक हम एक राष्ट्र का अर्थ नहीं समझ लेते तब तक आजादी के कोई मायने नहीं है, बस यह सत्ता का हस्तान्तरण मात्र है। देखे तो हम सब जितने ईमानदार दिखायी देते हैं उतने ही बेईमान भी हैं। हमारे चश्मे राजनैतिक विचारधारागत हो गए हैं।
विचारोत्तेजक.
बढि़या। आपका लेख। देश के हालात तो हमेशा की तरह घटिया हीं है। बिन चश्मे के भी और चश्मा लगाकर भी
लगता है भारत कॉ हाथी बना कर रखा गया है....जिसके खाने के दांत अलग और दिखाने के दांत अलग होते है!...सुंदर लेख!
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