फ़िल्म जगत में बहुत कम ऐसी फ़िल्में आती हैं जिनका इंतज़ार महीनों से लोग किया करते हैं। उन्हीं में से एक फ़िल्म आई है ’पीपली लाइव’। अनुषा रिज़्वी द्वारा निर्देशित और आमिर खान प्रोडक्शन्स की यह फ़िल्म किसानों की आत्महत्या पर आधारित है। अब चूँकि पन्द्रह अगस्त नज़दीक था और दो दिनों की "छुट्टी" थी तो मेरी टीम ने सोचा कि क्यों न फ़िल्म देख ली जाये। बाहर भी जाना हो जायेगा और एक अच्छी फ़िल्म भी देख ली जायेगी। शुक्रवार दोपहर की टिकटें बुक करवाईं और हम पहुँच गये हॉल।
फ़िल्म की शुरुआत में ही ’देस मेरा रंग्रेज़’ बजा। "राई पहाड़ हैं कंकड़ शंकड़..बात है छोटी बड़ा बतंगड़.." और फिर आगे चलकर "जेब दरिदर, दिल समन्दर" दिल को छूने वाले बोल और इंडियन ओशन का टिपिकल संगीत। कहानी तो सब को मालूम है कि किसान कर्ज़ा न चुकाने की वजह से आत्महत्या करने का ऐलान कर देता है। हमारे यहाँ हर कोई अपने आप को फ़िल्म समीक्षक समझता है तो सोचा कि मैं भी अपने कुछ विचार रखूँ। हर समीक्षक अपने तरीके से किसी फ़िल्म को अंक देता है। पाँच में से जितने स्टार उतनी उम्दा फ़िल्म।
जिस कहानी को आधार बना कर आमिर खान और अनुषा रिज़्वी ने फ़िल्म बनाई उस लिहाज से ये मील का पत्थर साबित हो सकती थी। हो अभी भी सकती है क्योंकि इसके पीछे आमिर खान हैं। आज की तारीख में किसी फ़िल्म की सफ़लता का श्रेय काफ़ी हद तक की उसकी पब्लिसिटी को जाता है। शाहरूख और आमिर की फ़िल्में रिलीज़ होने से पहले ही हिट हो जाती हैं। इस फ़िल्म को भी देखने दर्शक जरूर पहुँचेंगे और आमिर होंगे मालामाल।
मुद्दे की बात पर आता हूँ। यह फ़िल्म आपको ’रंग दे बसंती’ अथवा ’तारे जमीन पर’ जैसी बिल्कुल नहीं लगेगी। इस फ़िल्म की शुरुआत गालियों से हुई तो समझ में आया कि इसे ’ए’ रेटिंग क्यों दी गई है। गाँव की देसी बोली दिखाने के लिये निर्देशक ने इनका प्रयोग किया। विशाल भारद्वाज से प्रेरित हुईं हैं शायद। खैर शुरुआत तो ठीक-ठाक हुई पर बीच में जाकर निर्देशिका उलझी हुई नजर आईं। करीबन एक घंटे तक मीडिया के बारे में ही दिखाती रहीं और मूल मुद्दा कहीं पीछे छूट गया। मीडिया कैसे बात का बतंगड़ और राई का पहाड़ बनाता है वो दिखलाया जाने लगा। ’नत्था’ के घर के बाहर मेला लग गया था। तरह तरह से मीडिया कर्मी "सबसे तेज़ खबर" दिखाने में लगे हुए थे। कोई जान बूझ कर नकली खबर बनाता दिखाया गया तो कोई लोगों से तरह तरह के सवाल पूछता है..वे ऊलजुलूल सवाल जो अमूमन प्रेस वाले पूछते हैं। दो लड़कियों को मंदिर के आगे बाल फ़ैलाते हुए दिखाया जाता है क्योंकि उन पर माता आ गई थी। इसी बीच ये भी दिखाया जाता है कि मीडिया राजनैतिक पार्टियों की कठपुतली के अलावा कुछ नहीं और इनका मकसद केवल टीआरपी बढ़ाना चाहें खबर हो ’हर कीमत पर’।
उस समय मैं दुविधा में था कि पौने दो घन्टे की फ़िल्म में सवा घंटे तक मीडिया वाले छाये रहते हैं और किसान की बात हाशिये पर होती है। लोग हँसते रहे क्योंकि हँसना सेहत के लिये लाभकारी है। शायद निर्देशिका कॉमेडी के जरिये अपनी बात पहुँचाना चाह रहीं हैं। हो सकता है। बीच में जब तीन -चार मिनट तक अंग्रेजी न्यूज़ चैनल पर किसानों की आत्महत्या की खबर आती है और केंद्रिय मंत्री नसीरुद्दीन शाह अंग्रेजी में ही जवाब देते हैं तो मेरी समझ के परे होता जाता है कि किसानों की बात किसानों तक ही नहीं पहुँचेगी तो कैसे काम चलेगा?
अंत में नत्था को गुड़गाँव की गगन चुम्बी निर्माणाधीन इमारतों में काम करते हुए दिखाया जाता है। आंकड़ों की मानें तो १९९१ से २००१ के बीच ८० लाख किसान खेती छोड़ चुके थे। मुझे लगता है कि ये संख्या अब कईं करोड़ों में होगी क्यों शहर "विकास" की ओर अग्रसर है। किसानों की खेती की जमीन ले कर उसी पर मॉल बनाने को विकास का दर्जा दिया जाता है। कुल मिलाकर जिस ’नत्था’ के लिये यह फ़िल्म बनाई गई उसको केवल आधे घंटे की कवरेज दी गई होगी। क्योंकि शायद आमिर खान भी जानते हैं कि नत्था को देखने कोई नहीं आता। लोग हॉल तक पहुँचेंगे और हँसते हुए लौटेंगे। ये फ़िल्म आपको कुछ भी सोचने पर मजबूर नहीं करती। ये ’रंग दे बसंती’की तरह दिलों में खून नहीं खौलाती, ये ’तारे जमीन पर’ की तरह आपको नहीं रुलाती। ये हँसाती है..आप हँसते हैं मीडिया हँसता है और ’नत्था’ रोता है।
जाते-जाते एक बात और। ’सब टीवी’ पर रात दस बजे एक धारावाहिक आता है "लापता गंज"। हर रोज़ आम आदमी से जुड़ी हुई बात को इसमें इतने सरल तरीके से बताया जाता है कि आदमी हँसबोल भी लेता है, गालियाँ भी नहीं सुननी पड़ती और दिल पर असर भी करती है बात। इसमें महँगाई पर भी दिखाया गया है, बड़ों का आदर करना भी, नेताओं और अफ़सरों का भ्रष्टाचार भी है, नाले में गिरे हुए ’प्रिंस’ को कवर करता मीडिया भी है। इसमें वो सब कुछ है है जो आम लोग की आम ज़िन्दगी पार असर करे। लोगों को इस सीरियल का नहीं पता होगा क्योंकि इसमें आमिर खान नहीं हैं। समीक्षक इसको रेट नहीं करेंगे क्योंकि यहाँ से पैसा नहीं मिलता। यदि आपको ’पीपली’ लाइव देखनी है तो आप ’लापतागंज’ देखिये। यही है असली ’पीपली’।
~ जय हिन्द।
--तपन शर्मा
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7 बैठकबाजों का कहना है :
हम तो लापतागंज रोज़ देखते हैं। लापतागंज हीं नहीं १० से लेकर १२ बजे तक सब टीवी पर जितने भी धारावाहिक आते हैं, हम उनके नियमित दर्शक हैं। पीपली लाइव अभी देखी नहीं है, इसलिए कुछ कह नहीं सकता।
-विश्व दीपक
वीडी भाई.
पीपली भी देखें...
'पीपली लाइव' के चर्चे तो खूब है.... ग्रामीण पृष्ठभूमि पर बनाई गई फिल्म है... आपने इस फिल्म की समीक्षा बहुत ही सुंदर तरीके से की है तपनजी!...जरुर देखूंगी!
जैसा कि फिल्म के शीर्षक "पीपली लाइव" से स्पष्ट है, पीपली ग्राम से घटनाओं के प्रसारण पर ही फिल्म टिकी हुयी है और मीडिया की क्या भूमिका है ऐसे संवेदनशील मुद्दों को कवर करने और उसे मनचाहा रंग देने में, यह भी बहुत बड़ा प्रश्न है जो फिल्म ने दिखाया है। फिल्म एक उल्लेखनीय प्रयास है।
फिल्म तो शायद ना देख सकें तपन जी..
लेकिन गालियों वाली बात पर आपने सही खबर ली है...क्यूँ आजकल गाँव देहात की बोली के नाम पर गालियों का प्रयोग करने लगे हैं सिनेमा वाले...?
रियलटी के नाम पर... एक बहाना मिल रखा है...कोई फिल्म अगर इन्सान देखना भी चाहे तो घर बैठकर नहीं देख सकता...
लापता गंज तो अभी नहीं देखा है...
पर पहले का ऑफिस ऑफिस मुसद्दी लाल वाला...अभी तक याद है...
एकदम दिल से निकला लेख......आपके सबसे अच्छे लेखों में से एक....
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