Saturday, August 14, 2010

स्वतंत्रता दिवस और मेरी पॉजिटिव सोच

स्वतंत्रता दिवस के लिए कुछ लिखने बैठा तो इस बार सोचा था कि कुछ पॉजिटिव ही लिखूंगा…बहुत सोचा, कुछ अच्छी बातें आईं भी दिमाग में लेकिन हर चीज़ घूम कर फिर नकारात्मक हो जाती है. फिर मैंने सोचा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरी सोच ही नकारात्मक है लेकिन ये विचार भी आगे जाकर वहीँ पहुँच गया. अगर मेरी सोच नकारात्मक है तो ये सोच कैसे बनी, किसने बनाई….किसी भी इंसान का व्यक्तित्व कौन सी चीज़ें मिलकर बनाती हैं? उसका परिवार…उसके आस-पास का माहौल, समाज…फिर अगर मेरी सोच नकारात्मक दिशा में जा रही है तो उसका गहरा कारण है और मेरी ही नहीं इस देश में रहने वाले ज़्यादातर लोगों की सोच नकारात्मक है. ऐसा क्यों है? अभी कुछ दिन पहले ही मैं एक सर्वे पढ़ रहा था जिसके अनुसार भारत का नाम रहने लायक देशों की फेहरिस्त में बहुत नीचे था, साथ ही किस देश के लोग सबसे ज्यादा खुश रहते हैं, इसमें भी भारत का नाम बहुत नीचे है और इसके लिए सर्वे करने की ज़रुरत नहीं, हम अगर अपने आस-पास नज़र दौडाएं तो साफ़ हो जाएगा…सभी लम्बे-लम्बे चेहरे दिखाई देंगे. जीवन की वो उर्जा बहुत कम लोगो में दिखाई पड़ती है. हर आदमी डरा-सहमा सा जी रहा है. हर कोई असुरक्षा की भावना से लबालब भरा हुआ है. जीने का एकमात्र मक़सद सिर्फ पैसा कमाना है…सब घिसट रहे हैं. प्रतिभा का कोई मोल नहीं है, जो चीज़ बाज़ार में गर्म है सब के सब उस तरफ दौड़ पड़ते हैं. हर कोई अपने साथ जबरदस्ती कर रहा है. ऐसे में कोई खुश रहे भी तो कैसे? हर वक़्त तलवार लटकी है. वो काम कर रहे हैं जिसमे बुध्धि नहीं चलती लेकिन अपनी जगह से ज़रा भी हिल-डुल नहीं सकते, पीछे असुरक्षित लोगों की लम्बी कतार लगी है और ये कतार हर जगह है, एक जगह गई तो दूसरी जगह के लिए फिर कतार में लगना. ऐसे में सब येन-केन-प्रकारेण कोई जगह हासिल करने की जुगत में रहते हैं…भ्रष्टाचार को गाली दो लेकिन अपना मौका आये तो चूको मत. हर किसी के मुह से यही तर्क सुनाई देता है कि हम नहीं करेंगे तो दूसरा करेगा, क्या करें ज़माना ही ऐसा है करना पड़ता है...हर तरफ भ्रष्ट लोग, दोमुहे लोग, दोगले लोग, मौकापरस्त लोग, गन्दगी से भरे लोग………………………………………..
अब बात करें उस भारत की जिसके बारे में कहानियाँ कही जाती हैं, जिसे हर स्वतंत्रता दिवस पर महान बताया जाता है, ऐसा देश जिसमें सभी लोग प्रेम से भरे हुए हैं, एक के दर्द में सारे शामिल हो जाते हैं, जहां दया है, करुणा है, सत्य है, स्वाभिमान है. अच्छा लगा ना?
मुझे भी अच्छा लगता है ये सोचकर कि मैं ऐसे लोगों के बीच में हूँ जहां मैं आँखें बंद करके किसी पर भरोसा कर सकता हूँ…जहाँ अगर मैं बाज़ार में कुछ लेने जाता हूँ तो यकीन होता है कि मुझे जो मिलेगा वो अच्छा ही होगा उसमे बेईमानी की कोई गुंजाइश नहीं होगी. मैं दूधवाले को दूध लाने को कहूँगा तो मुझे दूध ही मिलेगा पानी नहीं और मुझे उससे उसके दामों के लिए झिकझिक नहीं करनी पड़ेगी. मैं जब रिक्शा में बैठता हूँ तो पहले मुझे २० मिनट कितने पैसे लोगे के शीर्षक से बहस नहीं करनी पड़ती, वो चुपचाप मुझे पंहुचा देता है और जो वाजिब दाम हैं वो मैं दे देता हूँ. जिसका जो काम है वो उसे अच्छी तरह से करता है. मुझे रोज़मर्रा की छोटी-छोटी बातों के लिए अपना खून नहीं जलाना पड़ता,…लेकिन ऐसा नहीं होता ना? सबका अनुभव इसका उल्टा ही होगा. आदमी को हर वक़्त चौकन्ना रहना पड़ता है कब कौन ठग ले कुछ नहीं कह सकते. इतना अविश्वास? अपने ही लोगों पर? लेकिन ऐसा है इसे कोई झुठला नहीं सकता. ये डर, ये असुरक्षा, ये तनाव, इन सबके साथ कोई खुल के कैसे जी सकता है? इंसान की आत्मा बंधी हुई रहती है, फडफडाती है…और ये आत्मा जब तक उड़ने के लिए खोल नहीं दी जाती तब तक किसी भी आजादी का क्या मतलब है?
अगर अंगरेजों की बात करें तो हम आज़ाद हैं लेकिन हमारी मानसिकता अब भी गुलामी में है. हर एक पीढ़ी के मन में पुरानी पीढ़ी इतना डर और असुरक्षा भर देती है कि आत्म सम्मान, उसूल वगैरह सब फ़ालतू लगने लगते हैं. ये ज़िन्दगी कोई गुलामों से बेहतर नहीं है…बात तो तब होगी कि हरेक आत्मा आज़ाद हो, वो जब चाहे पंख फैला कर आसमान में उड़ सके…….सब एक दूसरे के चेहरों से घबराए ना हो…
ये देश जो बातें अब तक दोहराता है (और सिर्फ दोहराता ही है, अमल में नहीं लाता), महानता की, उर्जा की, विद्वत्ता की ऐसा नहीं कि सब झूठ है, ऐसा एक ज़माना निश्चित रूप से था वरना ये वेद, ये उपनिषद क्या हैं? ऐसा संगीत जो आग जला दे या पानी बरसा दे...ये संगीत क्या है? वरना कृष्ण, बुद्ध, महावीर, नानक, कबीर, रामकृष्ण, विवेकानंद..............आदि-आदि, ये इतनी सारी महान आत्माएं क्या हैं? ये ज़मीन ज़रूर ही उपजाऊ रही होगी. वेद, उपनिषद हमारे ज्ञान का बेहतरीन नमूना बेशक हैं लेकिन कब तक इन्ही नामों के सहारे अपने को महान मनवाएंगे….अब और नया उपनिषद कोई क्यों नहीं लिखता…..हज़ारों सालों से क्यों भारत कुछ रचनात्मक नहीं कर पाया? ज़रुरत है आगे आने वाली पीढ़ी को इस तरह तैयार करने की कि वो कुछ मौलिक कर सके. अभी तो सब कुछ उधार ही चल रहा है, शिक्षा, संगीत, कला, भाषा….सब कुछ नक़ल है. और तुर्रा ये है कि इस नक़ल को ही अब ऊँची नज़र से देखा जाता है, हर वो इंसान जिसे अपनी खुद की किसी ऐसी चीज़ से प्यार हो पिछड़ा समझा जाता है.
ये देश फिर से उस उंचाई पर जा सकता है….हालात पूरी तरह निराशाजनक नहीं है….ज्यादा पुरानी बात नहीं है, अभी, इसी सदी में कुछ बहुत महान आत्माएं हुई हैं ....शिर्डी के साईं बाबा, कृष्णमूर्ति और ओशो……इतने महापुरुष आते हैं और चले जाते हैं लेकिन क्यों हम लोग सोये ही रह जाते हैं? अब भी समय है स्वतंत्रता दिवस एक मौका है अवलोकन का और कमियों को दूर करने का…हम इस तरह मनाएं ये दिन कि अपने अन्दर की हर तरह की गुलामी से हम आज़ाद हो जाएँ….किसी और की फिक्र छोड़ दें….एक आदमी अगर बदलता है तो उसके आस-पास का माहौल अपने आप बदलने लगता है, बिना कुछ किये ….कभी ना कभी आस-पास के लोग भी बदल जायेंगे. किसी शायर ने क्या अच्छी बात कही है - "कौन कहता है कि आसमान मे सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों"
तो इसी कामना के साथ कि हम अपनी हर तरह की गुलामी से आज़ाद हों ….स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ

-अनिरुद्ध शर्मा

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