लगभग तीस वर्ष पहले दूरदर्शन पर एक से बढ़ कर एक टेली-फिल्में आती थी जिनमें रमेश बक्षी या अन्य अच्छे साहित्यकारों की कहानियों पर भी उच्च-स्तरीय टेली-फिल्में देखने को मिलती थी. राजीव गाँधी के कार्यकाल में मुस्लिम जीवन पर आधारित एक से बढ़ कर एक टेली-फिल्में आई और मुझ जैसे अनेक साहित्य-प्रेमियों के लिए एक क्रेज़ सी बन गयी थी. जब अचानक धारावाहिक शुरू हुए तो देश की जनता के लिए यह एक नई बात हो गई. मनोहर श्याम जोशी का धारावाहिक ‘बुनियाद’ भला कौन भूल सकता है? उस में आज़ादी के समय से लेकर उस दशक तक तीन पीढ़ियों का सशक्त लेखा-जोखा था, आज़ादी के बाद मूल्यों का ह्रास और एक मास्टरजी जी की जिंदगी व उस की पत्नी लाजो जी की जिंदगी... यह सब सचमुच एक nostalgia बन कर रह गया है. तब तो धारावाहिकों पर 13 के पहाड़े का बंधन था कि धारावाहिक 13, 26, 39 आदि एपीसोड में खत्म हो जाए. रामायण-महाभारत धारावाहिक आते ही जनता में तहलका सा मच गया. लोग रास्ते में अपना ट्रक या कोई भी वाहन रोक कर किसी भी रेस्तरां में रामायण व महाभारत देखने बैठ जाते थे. एक जूनून सा था जिस के पीछे बुद्धिजीवियों ने सवाल भी उठाए कि केवल उत्तर प्रदेश वाली रामायण ही क्यों दिखाई जाए. देश में रामायण के 300 रूप हैं और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता व शोध कार्य या जनता को यह सूचित करने के लिए कि रामायण के इतने रूप हैं, यह ज़रूरी क्यों नहीं समझा जा रहा कि देश को बौद्ध रामायण भी दिखाई जाए जिसमें राम सीता भाई-बहन हैं. ताकि जनता सभी रूप देख कर स्वयं रामायण पर अपनी धारणा बनाए. पर नहीं, जो बौद्धिक रूप से सही था, उसे राजनीतिक रूप से गलत माना गया और धारावाहिक लोकप्रियता की ओर मुड चले. पर लोकप्रियता व हल्केपन ने ही धारावाहिकों की जान ले ली. एक से बढ़ कर एक स्टंट धारावाहिक बनने लगे. एकता कपूर का धारावाहिक ‘क्यों कि सास भी कभी बहू थी’ शुरू में बहुत सुन्दर तरीके से चला. पर इन सभी धारावाहिकों को उनकी अंत-हीनता मार गई. जब अच्छा मसाला खत्म हो जाए तब जो मर्ज़ी आए परोसते जाओ. अंत में तो ‘क्यों कि सास भी कभी बहू थी’ धारावाहिक बीवियों से उनके मियाँ छीनने वाला धारावाहिक बन गया. पूरे धारावाहिक में तुलसी वीरानी के पति मैहर को तीन औरतें हड़प गई – मंदिरा, मीरा और जूही ठकराल. गंगा से उस के पति साहिल को भी तृप्ति ने छीन लिया. जब मियां छीनने से एकता कपूर उकता गई तो वीरानी परिवार में एक बीबी छीनने वाला भी आ गया जिसने गंगा पर डोरे डाले. अंत-हीनता का दूसरा नाम धारावाहिकों के लिए दिशाहीनता हो गया. लिखने का मसाला खत्म, अब किया किया जाए. जहाँ मर्ज़ी खींचते चले जाओ. हाल ही में जो धारावाहिक इसी मजबूरी के शिकार हुए उन में ‘ना आना इस देस मेरी लाडो’ ‘उतरन’ आदि हैं तथा ‘राजा की आएगी बारात’ में तो एक से बढ़ कर एक स्टंट होने लगे. जिन्हें हम साहित्य कहते हैं वैसा ‘बालिका वधु’ था पर वह भी अपने मूल उद्देश्य से भटक गया है. हाल ही में स्टार प्लस पर एक नया धारावाहिक शुरू हुआ है : ‘चाँद छुपा बादल में’ जिसे देख एक बार फिर उम्मीद जागी है कि कुछ अच्छा देखने को मिलेगा. धारावाहिक की निवेदिता (नेहा सरगम) की शख्सियत बहुत आकर्षक है. वह बहुत दबी दबी सी रहती है व कहीं भी आने जाने से घबरा जाती है. भाई को पढ़ने ज़्यादा अलग अलग गाड़ियों का बड़ा शौक है. धारावाहिक मूलतः दो परिवारों के बीच का है जिन का अतीत थोड़ा अप्रिय है, इसीलिए निवेदिता के पिता केशव बहुत डिप्रेशन में रहते हैं, बहुत चिड़चिड़े व गुस्से वाले भी हैं. पर जब उस दूसरे परिवार का युवक सिद्धार्थ (अभिषेक तिवारी) इस घर में आना शुरू कर देता है तो निवेदिता उर्फ निवी का बचपन पुनर्जीवित हो उठता है. बहुत साल बाद एक बार फिर नज़दीक आए परिवारों में प्रेम और पिछली कटुता के बीच एक आकर्षक सा संघर्ष शुरू हो जाता है. इस के प्रथम कुछ अंकों में प्रसिद्ध गीतकार जावेद अख्तर का आ कर प्रस्तुतीकरण देना बहुत आकर्षक लगा. अब यह कहानी पिछली कटुता व वर्तमान प्रेम-सम्बन्ध के बीच बहुत सुन्दर तरीके से आगे बढ़ रही है जिस के कारण एक बार फिर साहित्य-प्रेमी दर्शकों के मन में एक उत्कृष्ट धारावाहिक देखने की उमीदें बंधती हैं. यदि प्रारंभ को देखा जाए तो यह कहा जा सकता है कि धारावाहिक की चाल धीमी है. इस में अभी तक एक प्रसंग बहुत रोचक बन गया जिसमें निवेदिता का पिता केशव बहुत गुस्से में अपने बेटे को चेतावनी देता है कि अगर परीक्षा में 90% से कम अंक आएं तो घर में आने की कोई ज़रूरत नहीं. और बेटा परीक्षा के परिणाम वाले दिन घर आता ही नहीं, गायब हो जाता है. निवेदिता सिद्धार्थ और निवेदिता की चचेरी बहन दिव्या उस खोए हुए भाई की खोज में लग जाते हैं. इस प्रसंग का फिल्माना दर्शकों को बाँध लेता है जिसमें 90% से केवल 1% कम अंक पाने वाला भाई यश एक पहाड़ी की चोटी पर बार-बार आत्महत्या की हिम्मत जुटाने की नाकाम कोशिश में वहीं पस्त सा बैठा मिलता है. धारावाहिक की शूटिंग शिमला में है पर इतनी मनोरम जगह के दृश्य इतने लुभावने नहीं दिखाए गए जितने होने चाहिए. सब के सब दृश्य व सेट एक घुटन से भरपूर से लगते हैं, और वह घुटन शायद दोनों परिवारों के बीच के कटु अतीत के कारण है क्योंकि सिद्धार्थ के पिता भीषण आग में फंस कर मर गए थे और सिद्धार्थ की दादी के मन में यह मनोवैज्ञानिक प्रभाव बैठ गया है कि उस मौत के जिम्मेदार केशव हैं. अभी तक की सभी सदस्यों की मुलाकातों में केवल अतीत की ही बातें अधिक हो रही है, वर्तमान से यह धारावाहिक अभी जुड़ा नहीं है. अतीत भी फ्लैश-बैक में कम और बातों में अधिक आता है. अभिनय के स्तर पर भी यह कटु बात कहनी पड़ती है कि निवेदिता के परिवार के सभी सदस्य दिव्या, दिव्या की माँ, निवेदिता का भाई, पिता ये सब के सब अभिनेता अपना काम बहुत प्रभावशाली तरीके से कर रहे हैं. पर उधर सिद्धार्थ के अतिरिक्त कोई भी अभिनेता अधिक प्रभाव नहीं छोड़ पाता जैसे सिद्धार्थ के दादा दादी, माँ, व दूसरे सदस्य अपने अभिनय व शख्सियत द्वारा बाँध नहीं पाते. किसी किसी परिस्थिति में पात्रों की भरमार सी भी लगती है. पर कुल मिला कर एक से अधिक एक घटिया धारावाहिकों के माहौल में एक क्षमताशील धारावाहिक प्रारंभ हुआ है जो स्टार प्लस पर सोमवार से शुक्रवार रात 8 बजे आता है (वही एपीसोड दोबारा रात 11 व 1230 बजे तथा अगले दिन 3 बजे आता है). इस से हम एक बार फिर एक धारावाहिक में उम्मीद रख सकते हैं कि वह अनावश्यक लंबाई का शिकार हो कर भटकेगा नहीं और न ही किसी स्टंटबाज़ी में फंसेगा.
प्रेमचंद सहजवाला
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बैठकबाज का कहना है :
निखिल बाबू कोई भी डायरेक्टर या लेखक जानबूझकर कहानी को खींचता नहीं है...लेकिन जैसे ही सीरियल को टीआरपी मिलती है, चैनल के कर्ताधर्ता अपने हिसाब से कहानी को चलाने की कोशिश करते हैं...और इस तरह शुरु होता है कहानी का बलात्कार...
- दिग्विजय
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