कहते हैं ये रेशम का धागा जब बहन अपने भाई की कलाई पर बांधती है तो दुआएँ बांधती है अपनी, दुआ करती है कि उसके भाई को दुनिया की कोई बुराई छू भी ना पाए, और भाई बदले में वचन देता है कि हर मुश्किल में वो अपनी बहन की रक्षा करेगा. बदलते वक़्त के साथ इस रेशम के धागे के रंग रूप बदल गए लेकिन इतने बदलाव के बाद भी भाई बहन के इस अटूट प्रेम में कोई कमी नहीं आई, राखी का ये त्यौहार भारत भर में, बड़े प्रेम के साथ मनाया जाता है. आज इस सुन्दर त्यौहार पर हमने सोचा क्यूँ न कुछ बहनों के विचार इस त्यौहार के सन्दर्भ में इकट्टे किये जाए,
दिल्ली से राशिका कहती हैं : मेरा अपना कोई भाई नहीं है, पर मेरे पड़ोस में मेरे एक भाई हैं जो कि मुस्लिम हैं, पर कई सालों से मैं उन्हें राखी बांधती आ रही हूँ, और याद भी नहीं इस बात को कितना वक्त हुआ, हर साल मैं उन्हें राखी बांधती हूँ, ढेर सारा स्नेह, और प्यारे से गिफ्ट्स भाई मुझे हर साल तोहफे में देते हैं, और साथ ही हमेशा से वो हर मुश्किल में, हर खुशी में, हर तकलीफ में साथ ही खड़े मिले हैं. एक बहन को और क्या चाहिए.
मेरे पड़ोस में एक छोटी सी बच्ची जिसकी उम्र है पाँच साल, कहती हैं, मैं तो राखी पे भैया से बहुत सारे पैसे लेती हूँ. :)
ऋतु और इनु का कहना है कि, हम दो बहने हैं, और हम दोनों से छोटा है हमारा भाई, छोटे थे तो त्यौहार को खेल समझ कर मनाते थे, अब समझ आई है, तो ईश्वर से बस यही दुआ करती हैं कि हमारे भाई को भगवान हमेशा बुरी बलाओं से बचाए.
पूनम का कहना है कि राखी आते ही एक ही बात ज़ेहन में आती है, गिफ्ट.. पूनम के दो बड़े भाई हैं, तो राखी के दिन तो पूनम जो जी में आता है भाई से माँग लेती है, और भाई अपनी प्यारी बहन को मन मर्ज़ी के गिफ्ट दिलाते हैं, पूनम कहती हैं, यह सब तो मजाक है, मैं ईश्वर से दुआ करती हूँ, कि वो मेरे भाई को हमेशा खुश रखे, वो जहाँ भी रहे खुशियाँ उनके साथ रहे.
अंबाला से ममता अपने भाई के लिए कहती हैं, 'जब शादी करके आ गई थी तब छोटे थे तुम...जब साल भर बाद मिलने गई तो चेहरे पर छोटी-छोटी दाढ़ी उग आई थी.....मैंने तुम्हें बड़ा होता नहीं देखा, बहुत मिस करती हूं तुम्हें...'
मेरा भाई बहुत नटखट है, हर बार गिफ्ट देने के नाम पे पहले खुद गिफ्ट मांगेगा.. पर बिना मांगे, हर बार उसे पता चल जाता है कि मुझे क्या चाहिए, और मेरी जरुरत की चीज़ें हाज़िर हो जाती है, मिठाई खिलाते वक्त कभी नाक पे कभी मुह पे लगा देता है, बड़ी मुश्किल से खिलाता है, पर मेरा भैया सबसे प्यारा है, मेरे लिए मेरा भाई मेरे सर की छत है जिसकी छाया में मैं महफूज़ हूँ, आज के दिन और हमेशा मेरी भी रब से बस यही दुआ है कि भगवान मेरे भाई को हर खुशी दे, और बुरी नज़र से बचाए.
दीपाली सांगवान
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9 बैठकबाजों का कहना है :
बहुत सुन्दर प्रस्तुति........ रक्षाबंधन पर हार्दिक शुभकामनाये और बधाई....
बहुत अच्छी पोस्ट .. रक्षाबंधन की बधाई और शुभकामनाएं !!
सुंदर आलेख!....रक्षा-बंधन की अनेको शुभ-कामनाएं!
मैंने तुम्हें बड़ा होता नहीं देखा, बहुत मिस करती हूं तुम्हें...'
:)
हम भी बड़े हुए तो अपनी बहनों को मिस किया....अचनाक बहनें फ्रॉक से साड़ियों में आ गईं....शादी हो गई उनकी.....नहीं तो पहले राखी का अलग ही आनंद था....कभी-कभी तो फोटो खिंचवाने के लिए कलाई पर राखी बांधकर भाई-बहन अटक से जाते थे....फोटो खिंचती तो ही राखी मनती....मिठाई ज़बरदस्ती मुंह पर टिकाए रखते कि कैमरे का फ्लैश चमके....कभी-कभी समझदार फोटोग्राफर अपनी जेब में सौ के दो-चार नकली नोट साथ लेकर चलता और पूजा की थाली में डाल देता फोटो के वक्त.....ये नोट हर उस थाली में डाले जाते जहां-जहां उसे फोटो खींचने के पैसे मिलते....अब तो मोबाइल से ही काम चल जाता है....राखी रस्म भर हो गई है, त्योहार कहां रही...
aapp sabhi ka shukriya,
sahi kaha nikhil ji, pehle aise hi tasveerein kheenchi jaati thi, islekh ke liye bhi socha tha bachpan wali pic bhejungi par meri album hi gum gai :(..
khair, is baar bhi wahi hua, bhaai ne poore face ko mithai khilai par muh mein nahi daali...mera bhai duniya ka sabse natkhat bhaai hai. :)
दीपाली जी, आपका लेख बहुत अच्छा लगा..लेट आयी हूँ यहाँ पर लेकिन सबको मेरी तरफ से बहुत शुभकामनायें...मेरा छोटा भैया तो इतना नटखट था कि पूछो न..अपनी तो जान जाते-जाते बची..लगता है कि ये स्टोरी भेज ही दूं निखिल जी को...अगर एतराज़ ना हो तो...
रक्षाबन्धन त्यौहार भाई-बहन के प्यार का प्रतीक तो कतई नहीं है , बल्कि भाई के आगे बहन की हीन-रक्षणीया छवि को महिमामण्डित करने का प्रतीक है । यह स्त्री-सशक्तिकरण और समानता के लिए प्रतिबद्ध भारतीय संविधान का भी खुल्लमखुल्ला ,पर सुन्दर मज़ाक है । इस रूप में यह भी बाकी कई चीजों की तरह पितृसत्तात्मक संस्कृति का अवशेष है,जिसे आज बाज़ार ने अपने मुनाफ़े के लिए हाथों में उठा रखा है और वह उस पर नित नयी कलई चढ़ा रहा है । आखिर हम सब के मन में एक छोटा सा सवाल क्यों नहीं जगता कि जब एक भी पर्व/व्रत ऐसा नहीं है,जो पुरुष की तरफ से स्त्री के (किसी सम्बन्ध-रूप माँ,बहन,बेटी,पत्नी/प्रेमिका) लिए आयोजित किया जाता हो,तब राखी जैसे पर्व प्रेम के पर्व कैसे हुए? प्रेम क्या एकतरफा होता है? दासत्व को प्रेम समझते रहने की आदत से हम कब बाज आएँगे? कितना सुन्दर नाम दिया--रक्षा-बन्धन! भाई क्या खा कर बहन की रक्षा करेगा? बहन को प्राकृतिक हक के रूप में प्राप्य उस (पैतृक?)सम्पत्ति को तो पहले वह छोड़े,जिस पर नाजायज अधिकार जमा के बैठे हैं हमारे समाज के निन्यानवे प्रतिशत भाई। क्या यह जरूरी है कि बहन बराबर रक्षा की ही मोहताज होगी ? किरण बेदी जैसी लड़की होगी तो भी क्या वही अपनी रक्षा के लिए राखी का धागा लिए किसी मरियल/नाबालिग भाई के भी पीछे दौड़ती फिरेगी?अगर हम प्रेम/रक्षा की इस एकतरफा सांकेतिकता को भाई-बहन की पारस्परिकता में बदलने की कोई सांस्कृतिक प्रक्रिया शुरु कर सकें ,तब तो ठीक है , अन्यथा कहना पड़ेगा कि बस करो!बहुत हो गया रक्षाबन्धन का इमोशनल ड्रामा ।
-- रवीन्द्र / ०९८०१०९१६८२
ravindra ji ki tippni bahut kuch sochne par majbbor karti hai .
dhanyvaad raveendra ji
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