रघुनाथ त्रिपाठी महुआ न्यूज़ चैनल में नौकरी करते हैं....दुबले-पतले से दिखते हैं, मगर ज़िंदगी का भारी अनुभव है....बैठक पर उनका पहला लेख आया है.....एक अनुभव है, जो उन्होंने किसी बारीक लम्हे में महसूस किया था...थोड़ा लंबा लेख था, इसीलिए दो भाग में लगाने का फैसला किया है...बैठक पर इनका स्वागत करें....
उस दिन बारिश हुई थी, तपती धरती की पूरी प्यास तो बारिश की बूंदे भी ना मिटा पाई लेकिन कुछ राहत जरूर हुई थी..दिल्ली में बारिश का होना भी खबर है...ऐसी खबर जिसके मायने हैं...वो पिछले दो दिन से अपने ऑफिस में था... नोडया सेक्टर 13 बी के दूसरे फ्लोर पर उसका ऑफिस था काम ज्यादा था लोग कम ...सो दो दिन से घर गया ही नहीं था... एक ही कपड़े में,बिना शेव किए,जुटा था काम पर मन थोड़ा अजीब सा हो रहा था लेकिन काम निपटाना था ...दूसरे दिन प्रियंका ने टोका भी था आप घर क्यों नहीं जाते ...उसने कहा था ये लोग ऐसे ही हैं..प्रियंका उसके साथ ही काम करती थी...प्रोडक्शन हाउस में उसके सिवा कुल 11 लोग ही थे ...दूरदर्शन और और दूसरे क्लाइंट के लिए प्रोग्राम बनता था वहां...एक और भी जरूरी काम था इसलिए भी वो रूक गया था.... ..उसे पहली सैलरी मिलनी थी...मिली नहीं थी लेकिन व्यस्त होने पर पर भी वो जब इस बारे में सोंचता तो एक झुरझुरी सी पूरे बदन में होती.....आखिरकार वो वक्त भी आया और उसे उसकी पहली सैलरी मिली.. पूरे चार हजार..... कैश में मिला था पैसा...100-100 के 40 नोट ...उसे तब 'वर्षा वशिष्ठ' की याद आई थी..'मुझे चांद चाहिए' की नायिका वर्षा वशिष्ठ ...पैसे जेब में डालने के बाद उसने सीधा बाथरूम का रूख किया ...दरवाजा बंद करने के बाद उसने जेब से पैसे निकाले थे और फिर उसे अपनी हथेलियों में फैला लिया था...फिर उसके रूपयों के गंध को अपने जेहन में उतारने की कोशिश की..ठीक वैसे ही जैसे वर्षा ने की थी ...वो उस पल को याद रखना चाहता था हमेशा के लिए ...बाद में उसे याद आया कि घर मां को भी इस बारे में बताना है...फोन पर उसने कहा कि वो इन पैसों को किसी के हाथ भेज देगा...मां ने कहा कि इसकी जरूरत नहीं है समझ लो मैने ले लिए ...हां हिदायत देते हुए कहा कि जूते जरूर खरीद लेना.. दिल्ली में अपने भाई के साथ वो रहता था जूते पहनने की आदत उसे थी नहीं और इस बात पर बड़ा भाई उससे हमेशा नाराज़ रहा करता था...भाई ने मां से शिकायत की थी ..तब उसने टाला था...अपने पैसे से जूते खरीदूंगा...सो इस बार बचने का कोई रास्ता नहीं था...कॉलेज के दिनों में भी हवाई चप्पलों में हास्टल से क्लासेज के लिए चला जाता ...जिंस खादी के कुर्ते और हवाई चप्पल उसकी पहचान बन गई थी...लोग कई बार उसे नाम से नहीं उसके कुर्ते से पहचान जाते..लेकिन प्रोडक्शन हाउस में लिबास बदलना पड़ा था उसे ..पैंट शर्ट पहनना पड़ता था ....बारिश अब रूक गई थी.कल के एपिसोड का एंकर शूट का काम भी खत्म हो गया था...रात के आठ बजे थे...उसने अंदाजा लगाया तुरंत निकला जाए तो 10.30 तक घर मुखर्जी नगर किराए के अपने घर पहुंच सकता है...उसने बॉस से इजाजत मांगी..बॉस ने जाने को कह तो दिया लेकिन ऐसे जैसे बहुत बड़ा एहसान किया हो... बाहर निकला तो बारिश की वजह से उमस बढी हुई थी बारिश तेज नहीं हुई थी लिहाजा सड़क साफ होने की बजाए कीचड़ से भरी थी...अब उसे लगा जूता खरीद ही लेना चाहिए...सेक्टर 13 बी से मेन रोड तक जाने में दस मिनट पैदल लगते थे रिक्सा उन दिनों उधर चलते नहीं थे पैदल ही जाना पड़ता था...सो कीचड़ से सने पैरों को लथेड़े वो बस स्टैंड तक जा रहा था ...नोएडा उस बस स्टैंड पर उस वक्त कम ही लोग होते थे ....अकेला निर्जीव से खड़ा रहता है था वो बस स्टैंड ..याद नहीं क्या नाम था लेकिन अब वहां काफी चहल-पहल रहती है... चमचमाती बिल्डिग में मैकडॉल्नड का और दूसरी कंपनियों के वजह की वहज से काफी चहल पहल रहती है...खैर वो जा अकेला घर जल्दी पहुंचने के लिए तेजी से चला जा रहा था...अभी एक जद्दोजहद और भी करनी थी..आईएसबीटी तक जाने के लिए 347 नंबर के बस में उस वक्त काफी भीड़ होती थी...बस 20 मिनट की देरी से आई थी भारी भीड़ के साथ....किसी तरह वो चढ तो गया लेकिन भीड़ इतनी ज्यादा थी कि उसे अपने हाथों के ना होने का एहसास होने लगा था..बारिश के बाद उमस काफी बढ़ गई थी लोगों के पसीने और खुद के पसीने से उसे उबकाई सी आने लगी...लेकिन ये रोजमर्रा की कवायद थी लिहाजा आदत तो नहीं समझौता कर ही लिया था.... समझौता भी कितना आसान सा शब्द है..जरा बोल कर देखिए एक अजीब का सकून का द्वंद उठता है...सपने टूटे तो कह दो समझौता कर लिया ...तरीके का काम ना मिले तो समझौता कर लो..समझौते की सीमा नहीं होती जब जी चाहे मन मुताबिक कर लो ...कम से कम किसी ग्रंथी से बचने के काम तो ये 'समझौता' आ ही जाता है...उसने भी सपने देखे थे...सपने अजीब से थे..ये सपना उसका अकेले का नहीं था चार दोस्तों ने एक साथ देखा था .......दोस्त थे इसलिए सपने भी साथ-साथ देखे थे... या यू समझ लीजिए दोस्त भी इसलिए बन गए क्योकि चारों के सपने एक जैसे थें.. रामजस हॉस्टल मे चारों जब शरूर में होते तो पूरी रात बहस करते...सुबह हो जाया करती ...बहस में कभी झगड़े जैसे बात नहीं हुई...दोस्त जो थे...किसी ने कभी किसी के पसंद को खराब नहीं कहा ...हॉस्टल में लोग डरते भी थे..लेकिन ये शायद ही किसी को पता था कि जब इलेक्सन होते तो चारों अपनी मर्जी से अपने लोगों के लिए काम करते....लोगों को लगता चारों किसी एक के लिए काम कर रहे हैं लेकिन ये हॉस्टल और कॉलेज इलेक्शन के तीन सालों में केवल एक बार हुआ था...जब चारों किसी एक का समर्थन किया था ..... चारों ने कभी किसी के लिए या फिर दोस्ती की खातिर भी समझौते नहीं किए.. लेकिन बाद मे सब ने समझौते किए...कुछ अलग करने का भूत उतर गया था एक ने ऑस्ट्रेलिया की राह पकड़ी आजकल वहीं किसी कॉलेज मे पढ़ा रहा है और बच्चों को समाज सुधार की प्रेरणा दे रहा है...गल्फ्रेंड से बनी नहीं.. इतना कायर नहीं था कि दुनिया छोड़ने की सोंचता लिहाजा देश छोड़ दिया......अब उससे तीनों का संपर्क भी नहीं है...एक ने इंश्योरेंस कंपनी ज्वाइन कर ली और लोगों का भला कर रहा है....एक आईपीएस है जम्मू कैडर पसंद ना आया तो गुजरात कैडर की लड़की पसंद कर ली, पत्नी आईएएस है दोनों मिलकर समाज सुधार रहे हैं...चौथा वो खुद था जिसने पत्रकारिता को पेशा चुना था और समाज सुधार का जरिया भी ...शुरू के दिनों में उसे लगा था तीनों से ज्यादा सही तो वहीं है लेकिन काम करते वक्त उसे समझ नहीं आ रहा था कि वो आखिर कर क्या रहा है...उसने खीज़कर एक बार तीनों से कहा भी था..'ब्लडी होल सिस्टम इज फेक एंड फुल ऑफ हिप्पोक्रेशी' उसे दमघोटू भीड़ में कॉलेज के दिन याद आते रूम नंबर 77 में दो साल फिर रूम नंबर 88 के दो साल उसे याद आते ..इन चार सालों में उसमें बदलाव आया बड़ा बदलाव ..तब लोग उसे जानते थे लेकिन लोगों को वो पहचानता नहीं था...कॉलेज में जब निकलता तो कई अनजान चेहरे उससे हाथ मिलाते, गर्मजोशी से मिलते कई बार उसे अजीब भी लगता लेकिन कॉलेज में उसे लोग जानते थे....दो साल डिपार्टमेंट में अनअपोज्ड जेनरल सेकेट्री रहा ...हॉस्टल कमिटी में चारों साल उसके नाम को प्रोपोज किया गया..कभी किसी ने विरोध नहीं किया...तीसरे साल प्रेसिडेंट के लिए जोर देने पर भी वो नहीं माना...उसने ये समझ लिया था कि किंगमेकर किंग से ज्यादा मायने रखता हैं उसने प्रिसेडेंट बनवाया था जिसके नाम को उसने प्रोपोज किया किसी ने विरोध नहीं किया...कई बार पूरे पैनल को खुद डिसायड करता लोग मुहर लगाते...बीए ऑनर्स हिस्ट्री उसका सब्जेक्ट था उसे बखूबी पता था कि मध्यकाल में कभी राजा की नहीं चली थी हमेशा किंगमेकर का महत्व रहा ....कई बार वो गलती करता लेकिन पछतावा होने पर भी जाहिर नहीं करता ....इससे उसकी अकड़ जो कम होती...सैंकेण्ड इयर में जाते जाते उसने सिगरेट पीने शुरू कर दी थी...उसके एक सीनियर राम द्विवेदी ने इशारे में समझाने की कोशिश की थी वो हमेशा इशारे में बोलते ...उन्होनें कहा था कि हां भाई 'टफ लुक' के लिए ये जरूरी है...उसने उनकी बात तो समझ ली लेकिन मानी नहीं ...उसे अपने आप पर भरोसा था कि जब चाहेगा वो छोड़ देगा...लेकिन ये हो नहीं पाया उसकी आदत में ये शुमार हो गया...कई बार देर रात, गेट मैन रामबीर से बीड़ी मांगने की नौबत तक आ जाती...या फिर 'एमकेटी' यानि 'मजुना का टिला' जाने की पैदल नौबत आ जाती लेकिन फिकर किसी बात की थी नहीं,कोई रोकने वाला नहीं कोई टोकने वाला नहीं ...फर्स्ट इयर के लड़के 'फच्चे' यानि फ्रेशर हुए तो भेज दिया तलब पूरी करने का जोगाड़ लाने नहीं तो किसी को भी सोते जगाया और निकल पड़े .... एक बार मेस में थाली गंदी होने पर उसने थाली हॉल में नचाकर फेकी थी...जानबूझकर किया था उसने...अटेंडेट घबरा गया था उसने कहा गल्ति हो गई...बाद में उसका एक सीनियर जिसकी वो बहुत इज्जत करता था उठकर उसके पास आए थे..उन्होने कहा था चलो आज तुम्हे बाहर खिलाता हूं ,मेस का खाते खाते उब हो गई है...वो समझ गया था उसने गल्ति की है वो उनके साथ चला गया था वो राम द्विवेदी ही थे...फिजिक्स ऑनर्स के डियू टॉपर ,यूपी बोर्ड में उन्होने पहला स्थान हासिल किया था... बिडला मेमोरियल नैनीताल के बोर्डिंग में सालों बिताया था ... मेस के घटना की चर्चा उससे नहीं की ..ये बात उसे और भी खराब लगी थी...उसने हॉस्टल लौटते समय पूछा था सर (सीनियर को सर ही कहते थे)कुछ बोलेंगे नहीं ...उन्होने इतना कहा कि तुम समझदार हो ..चीजे बदलती हैं ..बाहर दुनिया आपको भी बर्दास्त नहीं करेगी...इतना गुस्सा ठीक नहीं है...गुस्से में भी इनर्जी होती हो उसे पॉजेटिव बनाओं...मुझे दिल्ली की बसों में तरह तरह के लोग मिलते लेकिन गुस्से पर काबू करना मैने तभी से सीखा था... बर्दाश्त करना उसके बाद से हीं उसने सीखा...आज भी लोगों को बर्दाश्त कर रहा है.कभी इसे समझौता करना उसने नहीं माना हमेशा यही माना की एवरी डाग्स हैव ए डे..समय बदलता है उसका भी समय बदलेगा...बस में जेबकतरे भी होते हैं अचानक उसके जेहन में ये बात आई...पसीना और तेजी से बहने लगा था...वो कर भी क्या सकता था...कोई उस वक्त उसकी जेब में हाथ डाल उसके पैसे निकाल भी लेता तो इसका एहसास होने के बावजूद वो कर भी क्या सकता था.......उसके बस में कुछ था भी नहीं यहां तक की उसका फिलहाल बस में खड़े होना भी ..तभी किसी औरत ने चीख कर कहा था ...वो उसके थोड़े ही आगे थी इसलिए उसकी आवाज़ सुनाई दे गई...लेकिन जिसके बारे में कहा था उसे देख नहीं पाया...औरत ने कहा था इतनी भीड़ में खड़े होने की जगह नहीं है और तूने उसे भी खड़ा कर रखा है....बस में जोरदार ठहाका लगा था...उसने सोंचा इतने लोगों की बीच कितनी परेशानी में उस महिला ने ये बात कही होगी...पहले उसने जरूर कुछ इशारा किया होगा लेकिन फिर भी लड़के के हरकतों से बाज ना आने पर अपनी और उसकी दोनों की फजीहत की होगी....
रघुनाथ त्रिपाठी
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बैठकबाज का कहना है :
Bahut achcha...main part 1 ko saheej rahaa hoon..part 2 ki pratksha
hai...final responce baad mein Dhnyawad...jio beta raghunath....
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